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पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है-3: अरुंधति रॉय

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पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है-3: अरुंधति रॉय

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/30/2015 09:04:00 PM


आंबेडकर-गांधी बहस के संदर्भ में राजमोहन गांधी को अरुंधति रॉय के जवाब 'ऑल द वर्ल्ड'ज अ हाफ-बिल्ट डैम'के हिंदी अनुवाद की तीसरी किस्त. अनुवाद: रेयाज उल हक

[यहां पढ़ें पहली और दूसरी किस्तें]

जाति और छुआछूत के खिलाफ अभियान

मेरी कमजोरियों की राजमोहन गांधी की फेहरिश्त में सबसे ऊपर यह इल्जाम है कि मुझे 'इसका सीमित ज्ञान'भी नहीं है कि 'जाति, नस्ल और धर्म के मामले में गांधी कहां खड़े थे.'गांधी जिन लोगों को 'हरिजन'कहा करते थे उनके प्रति उनकी हमदर्दी और प्यार को दिखाने के लिए राजमोहन गांधी ने 'द सिन ऑफ अनटचेबिलिटी'[3] के शीर्षक वाले एक लंबे हिस्से में अनेक मिसालों का हवाला दिया है. ऐसा लगता है कि इस नफरत किए जाने वाले और सरपरस्ती भरे शब्द के इस्तेमाल को लेकर बहसों से राजमोहन गांधी या तो नावाकिफ हैं या बेपरवाह हैं. वे कहते हैं: 'चूंकि (गांधी ने कहा था) ईश्वर सबसे ऊपर है जो मजबूरों का संरक्षक है और चूंकि 'अछूतों'से ज्यादा मजबूर कोई नहीं है, इसलिए 'हरिजन'शब्द उन्हें मुनासिब लगा था.'यह राजमोहन गांधी को भी मुनासिब लगता है. 

अपने लेख के इस हिस्से में, वे हमें यह समझाते हैं कि कैसे गांधी ने छुआछूत के खिलाफ तब भी अभियान चलाया, जब उन्हें हिंदू कट्टरपंथ के गुस्साए हुए प्रतिनिधियों द्वारा धमकाया गया था. 'ऊपर दिए गए पैराग्राफों में जो कुछ कहा गया है, रॉय उनमें से कुछ भी जानने की इजाजत अपने पढ़नेवालों को नहीं देतीं,'वे कहते हैं. मिसाल के लिए 'द डॉक्टर एंड द सेंट'में से इसे देखिए:

पूना समझौते के बाद, गांधी ने अपनी सारी ऊर्जा और जोश को छुआछूत को खत्म करने की तरफ मोड़ दिया. शुरुआत के लिए, उन्होंने अछूतों का नाम बदलते हुए उन्हें एक सरपरस्ती भरा नाम दिया जो हिंदू आस्था से मजबूती से बंधा हुआ था: हरिजन. उन्होंने हरिजन नाम से एक नया अखबार शुरू किया. उन्होंने हरिजन सेवक संघ की शुरुआत की जिसके बारे में उन्होंने जोर दिया कि उसमें सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त सर्वण हिंदू ही काम करें जिन्हें अछूतों के खिलाफ पहले के पापों का प्रायश्चित करना हो. आंबेडकर ने इन सबको 'दयालुता से अछूतों की हत्या'करने की कांग्रेस की योजना के रूप में देखा. 

गांधी ने छुआछूत के खिलाफ उपदेश देते हुए देश भर का दौरा किया. उन्हें अपने से भी ज्यादा रूढ़िवादी हिंदुओं द्वारा सवाल पूछ-पूछ कर तंग किया गया और उन पर हमले किए गए, लेकिन वे अपने मकसद से नहीं हटे. जो कुछ भी हुआ उसे छुआछूत को खत्म करने के मकसद के इस्तेमाल में लाया गया. जनवरी 1934 में बिहार में एक बड़ा भूकंप आया. तकरीबन बीस हजार लोगों ने अपनी जिंदगियां खो दीं. हरिजन में 24 फरवरी को लिखते हुए गांधी ने कांग्रेस के अपने सहकर्मियों तक को हिला दिया जब उन्होंने कहा कि यह छुआछूत के पाप पर चलने के लिए ईश्वर द्वारा लोगों को दी गई सजा है... (रॉय 2014: 129).

इन सबमें सबसे परेशान कर देने वाली बात यह है कि राजमोहन गांधी (गांधी के साथ साथ हिंदू महासभा और उनके पहले से कुछ हिंदू सुधारवादी संगठनों की तरह) छुआछूत के खिलाफ लड़ाई और जाति के खिलाफ लड़ाई को एक ही चीज बना कर रख देते हैं. 'द डॉक्टर एंड द सेंट'इस सियासत पर थोड़े विस्तार से चर्चा करती है (रॉय 2014: 53-58, 98-102). उसमें मैंने जो कुछ कहा है, उसे यहां थोड़े में पेश करने दीजिए: 

विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के सुधारवादी संगठनों द्वारा छुआछूत की प्रथा के खिलाफ जोरदार प्रचार की शुरुआत 19वीं शताब्दी के आखिर में शुरू हुई थी. उसके पहले, मातहत जातियों में पैदा हुए करोड़ों लोगों ने जाति के अभिशाप से बचने के लिए इस्लाम, ईसाइयत और सिख धर्म अपना लिए थे. ऐसा नहीं लगता था कि किसी को कोई परवाह थी. हालांकि सदी बदलने के साथ जब साम्राज्य के पुराने विचार राष्ट्र राज्य के नए विचारों की शक्ल लेने लगे और प्रतिनिधित्व पर आधारित सरकार की अवधारणा चलन में आई तो एक नया और विस्फोटक सवाल पैदा हुआ: किसका प्रतिनिधित्व करने का अधिकार किसके पास है? अचानक मुसलमान, सिख, ईसाई, हिंदू ऐसे अलग अलग हिस्सों में बंटने लगे जिन्हें आज हम 'वोट बैंक'के नाम से जानते हैं. अचानक आबादी की बनावट (जनसांख्यिकी) अहम हो गई. अचानक ही विशेषाधिकार वाले सवर्ण हिंदुओं के लिए यह जरूरी हो गया कि वे 4.45 करोड़ की मजबूत अछूत आबादी को 'हिंदू पाले'में रखते हुए अपनी तादाद को बढ़ा लें (यह ऐसी अवधारणा थी, जो इस दौर के पहले वजूद में नहीं थी). धर्मपरिवर्तन की धारा को रोकने के लिए और अछूतों का दिल और दिमाग जीतने के लिए, विशेषाधिकार प्राप्त सवर्ण हिंदू सुधारवादी संगठनों का एक बेड़ा उभर आया. (उनमें से आर्य समाज से जन्मा जात-पांत-तोड़क मंडल एक था, जिसने आंबेडकर को बोलने के लिए बुलाया और फिर जैसा कि सबको पता है, उन्हें तब मना कर दिया जब उन्होंने उनके भाषण एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट को देखा, जिसमें आंबेडकर ने हिंदू ग्रंथों को खारिज किया था.) इन सुधारवादियों को, जिनमें से ज्यादातर जाति में यकीन रखते थे, एक ऐसा तरीका खोजना था, जिससे अछूत बड़ी हवेली में बने रहें, लेकिन उन्हें नौकरों की कोठरियों में रखा जाए. इस मकसद से 1875 में आर्य समाज की स्थापना हुई थी, जो 'दूषित लोगों की शुद्धि'करने की शुद्धि योजना चला रहा था और अछूतों की हिंदू धर्म में 'घर'लौटा कर ला रहा था. 1899 में स्वामी विवेकानंद ने कहा, 'हिंदू बाड़े को छोड़ कर जाने वाला हरेक आदमी न सिर्फ एक कमतर आदमी है, बल्कि एक बड़ा दुश्मन है.'आज नरेंद्र मोदी की निगरानी में शुद्धि को 'घर वापसी'के रूप में फिर से शुरू किया गया है.

बेशक ब्रिटिश सरकार बदमाशी के साथ और खतरनाक तरीके से समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हुए इन सब चिंताओं से खेल रही थी. उसने मनमुटाव की जो आग लगाई थी, उसका अंजाम आखिरकार बंटवारे के खूनखराबे में हुआ. 

गांधी के दक्षिण अफ्रीका से (1915) और आंबेडकर के कोलंबिया में अपने अध्ययन के बाद (1917) भारत लौटने के वक्त तक, छुआछूत के खिलाफ सुधारकों का अभियान शिखर पर था. कांग्रेस ने छुआछूत के खिलाफ एक प्रस्ताव मंजूर किया था. गांधी और तिलक ने छुआछूत को एक ऐसी 'बीमारी'करार दिया था जो हिंदू धर्म के उसूलों के खिलाफ थी. पहली ऑल-इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज कॉन्फ्रेंस (विशेषाधिकार प्राप्त जातियों द्वारा आयोजित) बंबई में रखी गई. ऑल-इंडिया एंटी अनटचेबिलिटी मेनिफेस्टो पर तिलक को छोड़ कर सबने दस्तखत किए. 


आंबेडकर इन सभाओं में नहीं गए. वे अछूतों के लिए सरपरस्ती के इस अस्वाभाविक प्रदर्शन को लेकर शंकित थे. उन्होंने देखा कि ये बदलते वक्त के वे तरीके हैं, जिनके जरिए विशेषाधिकार प्राप्त जातियां अछूत समुदाय पर अपने कब्जे को मजबूत करने की कवायद कर रही थीं. वे मानते थे कि सिर्फ कलंक और छुआछूत के इर्द-गिर्द शुद्धता-दूषण के मुद्दे को नहीं, बल्कि खुद जाति को ही खत्म करना होगा. छुआछूत का क्रूर व्यवहार - दूषित करने वाले कदमों के निशानों को बुहारने के लिए कमर से बंधी झाड़ू, दूषित करने वाले थूक को जमा करने के लिए गले में बंधा घड़ा – तो जाति प्रथा का एक प्रदर्शनकारी, कर्मकांडी सिरा था. वे जानते थे कि जाति की असली हिंसा तो हकदारियोंको नकारे जाने से पैदा होती थी: जमीन से, धन से, ज्ञान से, बराबरी भरे मौके से.

हिंदू सुधारवादियों ने बड़ी चालाकी से जाति के सवाल को छुआछूत तक सीमित कर दिया था, जिसका मकसद जाति को ठीक-ठीक राजनीतिक अर्थव्यवस्था से और गुलामी के उन हालात से अलग करना था, जिनमें ज्यादातर अछूत रहने और काम करने के लिए मजबूर किए गए थे. जिसका मकसद ठीक ठीक हकदारी के सवाल को, भूमि सुधारों और धन के फिर से बंटवारे के सवालों को छुपा देना था. उन्होंने इसे एक गलत धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथा के रूप में पेश किया जिसमें सुधार की जरूरत थी. गांधी ने इसे और भी संकीर्ण बनाते हुए इसे 'भंगियों'का मुद्दा बना दिया – जो ज्यादातर एक शहरी और इसलिए कुछ हद तक राजनीति में दखल रखने वाला समुदाय है.

जब राजमोहन गांधी इन सबकी अनदेखी करते हैं और गांधी की परोपकारी हमदर्दी और छुआछूत के खिलाफ उनके जोरदार अभियान की एक के बाद एक मिसालें पेश करते हैं, तो मैं नहीं कह सकती कि उनकी नजरों का धुंधलापन असली है या चालाकी से अपनाया हुआ. चाहे जो भी हो, इसका अंजाम परेशान कर देने वाली सियासत है.

आंबेडकर और अलग निर्वाचक मंडल

आंबेडकर मानते थे कि जब तक अछूत अपने खुद के प्रतिनिधियों के साथ एक राजनीतिक जनाधार के रूप में में विकसित नहीं होते, तब तक जाति सिर्फ और ज्यादा गहरी ही होगी. उनका मानना था कि 'हिंदू पाले'में या कांग्रेस के भीतर अछूतों के लिए आरक्षित सीटें महज दब्बू उम्मीदवारों को ही पैदा करेंगी – ये ऐसे नौकर होंगे जो जानते हों कि मालिकों को कैसे खुश रखना है. लंदन में 1930 में गोलमेज सम्मेलन होने के बरसों पहले उन्होंने अलग निर्वाचक मंडलों के विचार को विकसित करना शुरू कर दिया था. 1919 में उन्होंने चुनावी सुधारों पर साउथबरो कमेटी को एक लिखित बयान सौंपा था:
प्रतिनिधित्व का अधिकार और राज्य के तहत पद रखने का अधिकार वे दो सबसे अहम अधिकार हैं जो नागरिकता को बनाते हैं. लेकिन अछूतों का अछूतपन इन अधिकारों को पहुंच से बाहर कर देता है. कुछ जगहों पर तो निजी आजादी और निजी सुरक्षा जैसे मामूली अधिकार भी उनके पास नहीं हैं और कानून के आगे बराबरी हमेशा उनको सुनिश्चित नहीं होती है. ये अछूतों के हित हैं. और जैसा कि आसानी से देखा जा सकता है, इनका प्रतिनिधित्व सिर्फ अछूतों द्वारा ही किया जा सकता है. ये खास तौर से उनके अपने हित हैं और कोई भी दूसरा उनकी सचमुच पैरवी नहीं कर सकता...(बीएडब्ल्यूएस 1:256, रॉय 2014: 103 में उद्धृत.)

दूसरी तरफ गांधी उल्टी बात में यकीन रखते थे. वे अछूतों और मजदूर वर्ग के लोगों को ऐसे लोगों के रूप में देखते थे, जिन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व की नहीं बल्कि परोपकारी देखरेख की जरूरत थी. चाहे वह (कारखाना मालिकों की तरफ से) गांधी के नेतृत्व वाले मिल मजदूर संघों की बात हो, या फिर 1924 वायकोम सत्याग्रह की बात हो या गोलमेज सम्मेलन या हरिजन सेवक संघ की, उन्होंने बड़ी सावधानी से इसे यकीनी बनाया कि मजदूरों और अछूतों का प्रतिनिधित्व और उनके बारे में बातचीत विशेषाधिकार प्राप्त जातियों द्वारा ही की जाए, जिसमें भी वे खुद को ही तरजीह देते थे.

1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी ने जोर डाला कि आंबेडकर को नहीं बल्कि खुद गांधी को भारत के अछूतों का वाजिब प्रतिनिधित्व करना चाहिए. उन्होंने आंबेडकर पर (जो भारत में एक अछूत के रूप में पले-बढ़े थे और उन्हें अपमान और सामाजिक अलगाव को जानने के लिए दूर दक्षिण अफ्रीका का सफर करने की जरूरत नहीं थी) 'अपने [गांधी के] भारत को नहीं जानने'का इल्जाम लगाया. गांधी इस पर राजी थे कि मुसलमान और सिखों के अलग निर्वाचक मंडल हो सकते हैं लेकिन, हालांकि उन्होंने छुआछूत की प्रथा को नकार दिया था ('छुआछूत बने रहने से अच्छा है कि हिंदू धर्म खत्म हो जाए'), वे अलग निर्वाचक मंडल के लिए आंबेडकर के प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेंगे (देखें रॉय 2014: 124). राजमोहन गांधी मुझ पर तोहमत लगाते हैं कि गांधी इस विचार के मुखालिफ क्यों थे इसकी घोषित वजह को मैंने छोड़ दिया है:

सिख इसी रूप में हमेशा बने रह सकते हैं, मुहम्मडन भी, इसी तरह यूरोपीय लोग भी. क्या अछूत हमेशा अछूत बने रहेंगे? (सीडब्ल्यूएमजी 48:298).

लेकिन आंबेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग हमेशा के लिए नहीं की थी. उनकी दलील यह थी: चूंकि अछूत आबादी देश भर में हिंदू गांवों के बाहर छोटी बस्तियों में बिखरी हुई थी (और अब भी है), उन्होंने महसूस किया कि एक राजनीतिक चुनाव क्षेत्र के भौगोलिक दायरे में वे हमेशा ही एक अल्पसंख्यक बने रहेंगे और कभी भी अपनी पसंद के एक उम्मीदवार को चुनने की हैसियत में नहीं होंगे. इस वजह से वे यकीन करते थे कि अकेले सभी वयस्कों का मत डालने का अधिकार (सबसे ज्यादा वोट पाने वाले को विजेता घोषित करने की व्यवस्था) अछूतों के लिए बराबर अधिकारों को यकीनी नहीं बना सकता. उन्होंने सुझाव दिया कि अनेक सदियों से जिन अछूतों के साथ नफरत और उनकी बेकद्री की जाती रही है, उन्हें एक अलग निर्वाचक मंडल दिया जाए, ताकि वे हिंदू रूढ़िवाद की किसी दखलंदाजी के बिना, अपने खुद के नेतृत्व के साथ एक राजनीतिक जनाधार के रूप में विकसित हो सकें. और वे मुख्यधारा की राजनीति से अपना रिश्ता बनाए रख सकें, इसलिए इसके साथ ही उन्होंने सुझाया कि उन्हें आम उम्मीदवारों के लिए वोट डालने का अधिकार भी दिया जाए. अलग निर्वाचक मंडल और दोहरे वोटों की व्यवस्था दोनों को सिर्फ दस बरसों की मुद्दत तक ही चलना था (देखें रॉय 2014: 122).

एक बरस बाद, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडॉनल्ड ने उनके प्रस्ताव को मंजूर कर लिया और अछूतों को 20 बरसों की मुद्दत के लिए एक अलग निर्वाचक मंडल सौंपते हुए कम्युनल अवार्ड की घोषणा की तो गांधी इस प्रावधान को वापस लेने की मांग करते हुए येरवदा जेल में अपने ऐतिहासिक आमरण अनशन पर बैठ गए. आंबेडकर पीछे हटने को मजबूर कर दिए गए और आखिरकार 24 सितंबर 1932 को उन्होंने पूना समझौते पर दस्तखत कर दिए.

पूना समझौता

यह राजमोहन गांधी की आलोचना का शायद सबसे कमजोर हिस्सा है. बेशक वे खुद इस समझौते को मंजूरी देते हैं:
एक साझे निर्वाचक मंडल में दलितों समेत सभी जातियों के अच्छे लोग कभी कभी अपनी जाति से बाहर के वोटों से हारेंगे और कभी 'बाहरी'वोटों की बदौलत जीतेंगे.

यह राय गोलमेज सम्मेलन में आंबेडकर के प्रस्ताव के बारे में नादानी को और चुनावों में जाति के काम करने के तरीकों के प्रति नासमझी को उजागर करती है. मामलों को और बदतर बनाते हुए राजमोहन गांधी यह इशारा करते हैं कि आंबेडकर समझौते से खुश भी थे. वे कहते हैं:
आंबेडकर ने 1945 की अपनी हंगामाखेज किताब में न केवल समझौते की शर्तों की आलोचना करने से परहेज किया, बल्कि जहां तक मैं जान पाया हूं, उन्होंने तब या बाद में कभी उस समझौते को खारिज करने या बदलने की कोई कोशिश नहीं की. समझौते को एक 'शिकस्त'मानने के बजाए, ऐसा लगता है कि वो इसे एक ऐसी सुलह के रूप में देखते थे, जिसने दलितों समेत हरेक को फायदा पहुंचाया.

यह है वह बात, जो आंबेडकर ने अपने 1945 की 'हंगामाखेज' (अगर आप खोज रहे हों तो मालूम हो कि, अब यह एक अच्छी खूबियों वाला, एक हल्का दाग है) किताब में कही थी:

उपवास में कुछ भी नेक नहीं था. यह एक गंदी और गलीज हरकत थी...यह बेसहारा लोगों को प्रधानमंत्री के अवार्ड से हासिल संवैधानिक सुरक्षाओं को छोड़ देने के लिए मजबूर करने और हिंदू लोगों के रहमोकरम पर जीने के लिए राजी कर लेने का घटिया तरीका था. यह एक घिनौनी और दुष्टता भरी हरकत थी. अछूत एक ऐसे आदमी को कैसे ईमानदार और सच्चा मान सकते हैं?

राजमोहन गांधी आंबेडकर की 1945 की मशहूर किताब व्हाट द कांग्रेस एंड गांधी हैव डन दू अनटचेबल्स को गंभीरता से काटना जारी रखते हैं:

आंबेडकर के 1945 की किताब की उग्र भाषा का संदर्भ क्या था, जिसे उन्होंने नई दिल्ली में पृथ्वीराज रोड के अपने आधिकारिक निवास में बैठ कर लिखा था? उस वक्त वे वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे...1945 की किताब लिख रहा प्रतिभाशाली चिंतक और सदस्य (असल में मंत्री) वह इंसान भी था जो किसी भी नई ब्रिटिश योजना को प्रभावित करने की चाहत रखता था. साथ ही, वे एक ऐसे सियासी नेता थे जो 1937 के चुनावी नतीजों को भूल पाने में नाकाबिल थे...उन्होंने 1945-46 में बेहतर नतीजों की उम्मीद की थी. 1937 के नतीजों से दुखी आंबेडकर ने 1945 की किताब के जरिए, अपना पक्ष ब्रिटेन के नेताओं और साथ साथ भारत के मतदाताओं के सामने पेश किया.

तो राजमोहन गांधी के मुताबिक आंबेडकर के लेख का जो सीधा मतलब है, उसे वैसा नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि वो चुनावों में जाने को तैयार एक राजनेता थे और क्योंकि वे ब्रिटिश सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे. तो क्या गांधी एक राजनेता नहीं थे? क्या वे सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर रहे थे? या फिर यहां, पुराने चलन के मुताबिक उन्हें जलील किया जा रहा है? छुपा हुआ इशारा यह है कि गांधी तो आजादी के लिए लड़ रहे थे और आंबेडकर एक ब्रिटिश पिट्ठू थे. शायद, सिर्फ दलील के इस सिलसिले को खत्म करने के लिए, हमें आंबेडकर के इन शब्दों की याद दिलाए जाने की जरूरत है:


इस तथ्य से खुश होना बेवकूफी है कि चूंकि कांग्रेस भारत की आजादी के लिए लड़ रही है, इसीलिए यह भारत के अवाम और सबसे दबे-कुचले इंसान की आजादी के लिए भी लड़ रही है. कांग्रेस आजादी के लिए लड़ रही है कि नहीं, यह सवाल इस सवाल के मुकाबले कम अहमियत रखता है कि कांग्रेस किसकी आजादी के लिए लड़ रही है? (बीएडब्ल्यूएस 9: 202, रॉय 2014: 43 में उद्धृत)

राजमोहन गांधी बिल्कुल सही हैं. आंबेडकर ने पूना समझौते को खारिज करने की न कोशिश की न खारिज करवाया. उन्होंने कुछ ऐसा किया जो कहीं ज्यादा गहरा असर डालने वाला था. पूना समझौते को अंजाम देने वाली घटनाओं के प्रति उनकी नफरत ने उन्हें इस बात का कायल बना दिया था कि जब तक अछूत 'हिंदू पाले'में बने रहेंगे, तब तक वे अपनी गुलामी की बेड़ियों को फेंक पाने के काबिल नहीं हो पाएंगे. इसलिए उन्होंने अपने लोगों से हिंदू धर्म को छोड़ने का आह्वान किया. 13 अक्तूबर 1935 को बंबई प्रेसिडेंसी (अब महाराष्ट्र) में येवला के डिप्रेस्ड क्लासेड कॉन्फ्रेंस में 10,000 से ज्यादा लोगों से मुखातिब आंबेडकर ने कहा:

चूंकि बदकिस्मती से हम खुद को हिंदू कहते हैं, इसलिए हमारे साथ उसी तरह से पेश भी आया जाता है. अगर हम किसी और आस्था [धर्म- अनु.] के सदस्य होते तो कोई भी हमारे साथ इस तरह पेश नहीं आया होता. आप कोई ऐसा धर्म चुन लीजिए जो आपको बराबरी का दर्जा दे और बराबरी से पेश आए. अब हम अपनी गलतियों को सुधार लेंगे. मेरी बदकिस्मती थी कि मैं अछूत होने के दाग के साथ पैदा हुआ. हालांकि यह मेरी गलती नहीं है; लेकिन मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा, क्योंकि यह मेरे बूते में है.

अगले साल 1936 में उन्होंने एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट लिखी.
 

79 बरसों के बाद यह शर्मनाक है कि हम इस बहस को थोड़ा भी आगे बढ़ा पाने के काबिल नहीं हो पाए हैं. असल में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली चुनावी व्यवस्था सबके लिए, और खास कर दलित समुदायों के लिए, लोकतंत्र का मजाक बना रही है.
 

राजमोहन गांधी इतिहास की धंसान में गहरे गोते लगाते हैं और फिर आजादी के बाद के भारत में नमूदार होते हैं:
कांशीराम द्वारा आंबेडकर की विरासत पर बनाई गई बहुजन समाज पार्टी ने हमारे सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक बार से ज्यादा सरकार का नेतृत्व किया है, जिसके बारे में कोई कह सकता है कि इसका श्रेय कुछ तो पूना समझौते और साझे निर्वाचक मंडल को जाता है.

यह 'कोई'वे 'कौन लोग'हैं जो यह 'कह सकते हैं'? यकीनन कांशीराम यह नहीं कह सकते, जो हमेशा ही पूना समझौते के बाद के दौर को 'चमचा युग'कहते थे. 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना करने से पहले उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन किया था. 24 सितंबर 1982 को पूना समझौते की 50वीं सालगिरह पर उन्होंने समझौते को खारिज करने के लिए पूना से लेकर जालंधर तक गांवों और शहरों में एक साथ 60 सभाएं बुलाईं. इस समझौते का भारी उत्सव मनाने की योजना बना चुकी इंदिरा गांधी मंसूबे को रद्द करने पर मजबूर हुई थीं. अनेक दलित संगठनों ने 1932 के कम्युनल अवार्ड की बहाली की मांग की थी और अब भी कर रहे हैं. राजमोहन गांधी ने पूना समझौते को लेकर आंबेडकर की जिस खुशी की खोज की है, उसके बारे में उन्हें बसपा से या फिर तकरीबन किसी भी दलित राजनेता, बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता से चर्चा करने के पर विचार करना चाहिए. (देखिए एस. आनंद, 'ए नोट ऑन द पूना पैक्ट', बी. आर. आंबेडकर, एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट, पृ. 359-72 में, नवयाना 2014.)

(जारी)

संदर्भ

3. यह आरजी (ईपीडब्ल्यू) का शीर्षक है. आरजी.कॉम पर इस हिस्से का शीर्षक है 'गांधी, अनटचेबिलिटी एंड कास्ट.' 

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