12/17/2013
आप वामपंथी हैं, तो समलैंगिक तो होंगे ही...!
व्यालोक |
व्यालोक जेएनयू से पढ़े हैं, मीडिया व एनजीओ में दर्जन भर नौकरियां कर के आजकल घर पर स्वाध्याय कर रहे हैं। लंबे समय बाद लिखे इस लेख में धारा 377 के विषय में इधर बीच आए लेखों और उनके संदर्भों की उन्होंने अपने तरीके से तथ्यात्मक और आनुभविक स्तर पर पुनर्व्याख्या की है व चुटकी ली है। चूंकि जनसत्ता में 13 दिसंबर को छपा प्रकाश के रे का आलेख पौराणिक संदर्भों का सहारा लेता है, लिहाज़ा उसे कुछ और प्रकाशित करने में यह लेख कारगर हो सकता है। (मॉडरेटर)
अभी हाल ही में समलैंगिकता के मसले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के बाद जो कोहराम मचा है, उस पर आखिरकार कुछ बोलना ही पड़ रहा है। नहीं बोलने के दो कारण थे- पहला तो, जो इतना मार-तमाम कूड़ा उत्पादित हो रहा है, उसमें काहे का इज़ाफा करना? और दूजे, इस महान भारत देश में आप अगर तर्क, मसले और मुद्दों की बात करेंगे, तो आप बहुत-बहुत तेज़ी से अल्पसंख्यक हो जाएंगे। तर्कणा का इस देश के लोगों से छत्तीस का आंकड़ा है और इसी वजह से यहां आपको खामोशी ही अजीज़ लगती है। बहरहाल, इतनी गंद मची है कि कुछ सवाल पूछने का दिल हो आया है। इसमें समलैंगिकता के कई पोस्टर ब्वॉयज की भावना आहत होगी, तो उतना ख़तरा उठाया जाए।
सवाल नंबर एक- लगभग तयशुदा बात है कि समलैंगिकता को जितने भी समर्थन देने वाले सरपरस्त हैं, उनमें से सभी वामपंथी हैं, पर यह भी उतनी ही तय बात है कि हरेक वामपंथी समलैंगिकता का समर्थन नहीं कर रहा है। मेरा बड़ा आसान सा सवाल है कि क्या वामपंथी होने के लिए घोषित तौर पर समलैंगिकता का समर्थन करना ज़रूरी है? और, यदि ऐसा है, तो मुझे मार्क्स-लेनिन और हो-ची-मिन्ह से माओ (इतने ही वामपंथी मैं मानता हूं) तक के साहित्य में किसी का भी कहीं भी समलैंगिकता पर लिखा गया कोई भी ज्ञान दिखा दें। क्या मार्क्स ने कहीं भी समलैंगिकता को जायज़-नाजायज़ ठहराया है और यह कसौटी रखी है''पूंजी'' में, कि कम्युनिस्ट होने के लिए यह प्रमाणपत्र ज़रूरी है?
दूसरा सवाल- मामले के कानूनी पहलू पर कोई भी तथाकथित (ये असली नही हैं) बुद्धिजीवी/पत्रकार/मानवाधिकारवादी /चैनल का जमूरा /मार्क्सवादी/जानकार/समलैंगिक सहानुभूतिकार आदि-इत्यादि क्यों नहीं बात करने को तैयार हैं? इस मामले में थोड़ा पढ़ने-लिखने की ज़रूरत सबको है, जिससे आज की तारीख में किसी का नाता तो है नहीं। बस, कुछ भी कहना है, तो कह दीजिए। सीधे तौर पर, यह निष्कर्ष दे दिया जाता है कि कानून की बात करने वाला हमारा विरोधी है। इसका तो सीधा मतलब है कि आप जॉर्ज बुश हैं- या तो आप हमारे साथ हैं, या आतंक के। फिर, बुश के खिलाफ काहे का पुतला दहन?
तीसरे सवाल के तौर पर मैं 13 दिसंबर को 'जनसत्ता' में प्रकाशित प्रकाश कुमार रे के एक लेख के कुछ अंशों पर बात करना चाहूंगा। पिछले 16 वर्षों से जेएनयू में विराजित वह मित्र अभी समलैंगिक अखाड़े के ''ब्ल्यू आइड ब्व़ॉय''हैं। अपने ब्लॉग बरगद से लेकर जनसत्ता तक उन्होंने समलैंगिकता पर वैचारिक उल्टी की है।
व्याख्या से पहले प्रश्न- ज़रा प्रकाश समेत तमाम वामपंथी बताएं कि वह सुविधा की कौन सी आड़ है, जिसके तहत तनिक भी मौका मिलते ही आप पुराण-रामायण-महाभारत को कालबाह्य, गैर-ऐतिहासिक और अप्रासंगिक बताते हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी बात सिद्ध करने के लिए उनकी ही दुहाई देते हैं (एक तरफ रहो ना यार... इतने कंफ्यूज्ड हो कि अब तक 83 बार विभाजन करवा लिए हो, फिर भी समझ में नहीं आ रहा!)। आप या तो उनकी दुहाई ना दो, या उनकी ऐतिहासिकता स्वीकार करो।
प्रकाश ने प्रगतिशील और समय से आगे दिखने के अति-उत्साह में अवांतर पाठ कुछ अधिक ही कर दिया है। उनके लेख पर कुछ टिप्पणियां!
- आपने तमाम जो उदाहरण दिए हैं, वे एक तो अधूरे हैं (गूगल पूरी जानकारी नहीं देता है, टेक्स्ट पढ़ने की आदत डाल लीजिए), दूजे संदर्भहीन हैं, तीजे भ्रांत हैं औऱ अंततः एक अफवाह का हिस्सा हैं। शुरुआत, मनुस्मृति से: इसमें समलैंगिकता को अपराध माना गया है। इसमें इसे स्वीकार करने की बात कहां से आ गयी?
- आपने खुद स्वीकारा कि नारद-स्मृति में समलैंगिकता वर्जित है।
- बुध के उभयलिंगी होने की बात किसी पुराण में नहीं है। आप ग़लतबयानी कर रहे हैं। हां, जिस इला की बात आपने बतायी, वह दरअसल युवनाश्व (नाम दूसरा हो सकता है, मैं भूल सकता हूं, पर शायद यही है) नामक राजा था, उसे उस वन में जाने के कारण शाप मिला था, जहां शिव-पार्वती विहार कर रहे थे। पार्वती ने उस सरोवर में प्रवेश करनेवाले किसी भी पुरुष को स्त्री बनने का शाप दे दिय़ा था। तो, यह इक्ष्वाकुवंशीय राजा उस सरोवर में प्रवेश कर स्त्री हो गया। इसके विलाप करने पर शिव ने वरदान दिया कि शाप तो वापस होगा नहीं, पर हां, तुम 15 दिनों तक स्त्री और 15 दिनों तक पुरुष रहोगे। इस तरह वह 15 दिनों तक तो राजा रहता था, बाकी 15 दिनों इला बन कर वन में विहार करता था। इसी दौरान उसका बुध के साथ संयोग हुआ और उससे पुरुरवा का जन्म हुआ। (विष्णु-पुराण)
यह कथा है मित्र और मेरे लिए इससे अधिक इसका महत्व नहीं, पर इसमें समलैंगिकता को मान्य बतानेवाली बात कहां आय़ी?
- शिव यमुना में नहा कर गोपी बने, ताकि कृष्ण से रास कर सकें। अरे, नयनसुख, स्त्री बने न!
- अरवणी के किन्नरों की कथा से क्या सिद्ध करना चाहते हो, दोस्त? उसमें भी तो यही बात है न कि कृष्ण ने मोहिनी रूप धारण किया। पुरुष रूप में तो उन्होंने विवाह नहीं कर लिया न!!
बहरहाल, आपका सारा लेख मुझे जेएनयू के वामपंथ की ही याद दिला गया- सुविधाभोगी, वैचारिक तौर पर खोखले, मतलबपरस्त, चरित्र के दोहरे (कोई और शब्द लिखने का मन कर रहा था)। आपकी सारी कथाएं अधूरी और सारे गुमान छिछले। हमारे-आपके बचपन में समलैंगिकता के मामले हमने खूब देखे होंगे, पर इसका मतलब इसी को जायज़ ठहराना कहां से हो गया, बंधु?
यह ठीक है कि समलैंगिकता अपराध नहीं, लेकिन यह विचलन तो है ही। आपके फ्रायड से लेकर तमाम बड़े पुरोधा इसे स्वीकारते हैं। वैसे, यादें ताज़ा करने के लिए जनसत्ता में ही हाल में (15 दिसंबर 2013) प्रभु जोशी का लेख भी छपा है। एक भाई साहब हैं अपूर्वानंद। हमारे ही गांव के हैं, और जैसी कि बीमारी है, अचानक से दिल्ली जाकर बौद्धिक हो गए हैं। ऊपर से, लेक्चरार भी हो गए हैं। उनका भी एक लेख, जनसत्ता में ही 15 दिसंबर को छपा है। यह लेख इतना स्व-विरोधाभासी है कि उस पर कुछ कहने को जी नहीं चाहता। बहरहाल, उनकी भी वही टेक है कि भारत में समलैंगिकता मान्य थी। अरे गुरुजी, कुछ तो रहम कीजिए।
एक मजे की बात उन्होंने और कही है। कहा कि भारत में लोकतंत्र की अवधारणा नहीं थी। उसमें उनका कोई दोष नहीं है। उनकी शिक्षा-पद्धति यही बताती है। उसकी ठीक अगली लाइन में कहते हैं कि भारतीय परंपरा में जो कुछ बताया जा रहा है, वह मोटे तौर पर हिंदू है और उससे सहमत होने की ज़रूरत नहीं। यानी, कि खुद उन्हीं को पता नहीं कि वह क्या कह रहे हैं।
अंग्रेजी के शब्द उधार लूं, तो ऑन अ मोर सीरियस नोट, पौराणिक और मिथक कथाओं में प्रतीक और केवल प्रतीक होते हैं। उससे आगे कुछ खोजना, बेकार का वितंडावाद है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बर्बरीक की पूजा खाटू श्याम के रूप में नहीं होती। कथा महाभारत की है और कुछ यों है कि युद्ध शुरू होने के पहले जब कौरवों-पांडवों ने अपने संबंधियों और मित्रों को बुलाना शुरू किया, तो पांडवों की तरफ से बर्बरीक भी आया। वह भीम का पोता और घटोत्कच एवं मदोत्कटकंटा का पुत्र था। सोलह वर्षीय उस किशोर ने अपनी शेखी बघारते हुए कहा कि केवल तीन बाणों में वह मनुष्य-वनस्पति-पशु सभी का नाश कर देगा। वहां कृष्ण भी थे। उनके पूछने पर बर्बरीक ने कहा कि पहले बाण से सभी के गले पर निशान पड़ेगा, दूसरे से एक छिद्र हो जाएगा और तीसरे से वे भस्म हो जाएंगे। यह सुन कर कृष्ण ने अपनी मुट्ठी में एक पीपल का पत्ता रख लिया। बर्बरीक ने बाण चलाए और दूसरे बाण से कृष्ण के हाथ में रखे पीपल के पत्ते में भी छिद्र हो गया। यह देख, कृष्ण ने तीसरा बाण चलाने से पहले सुदर्शन चलाकर बर्बरीक का वध कर दिया। वध के बाद बर्बरीक के वर मांगने पर उसके सिर को महाभारत का युद्ध देखने के लिए अमृत से अभिमंत्रित कर एक ऊंचे टीले पर कृष्ण ने रखवाया। युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडवों में भीम और अर्जुन अपनी-अपनी हांक रहे थे, तो कृष्ण उनको उसी बर्बरीक के पास ले गए थे और पूछा कि युद्ध में उसने क्या देखा? बर्बरीक का कहना था कि पांडवों ने तो मरे हुओं को मारा है। उसके मुताबिक एक अद्वितीय शोभा वाला दिव्य पुरुष (जाहिर तौर पर कृष्ण) पहले ही सबका वध कर चुका था।
बहरहाल, यह भी केवल कथा है- ग्रीक मिथकों की तरह ही, जिसमें प्रॉमिथियस का मांस अब भी नोचा जा रहा है, जीयस अब भी बदचलनी कर रहा है, आदि-इत्यादि। ये सभी प्रतीक मात्र हैं और इनमें और कुछ भी देखना नादानी है। यहीं, ज़रा यह भी सोचें कि जो बर्बरीक देवी छिन्नमस्ता का उपासक बताया गया है, उसी को हमारे आज के मारवाड़ी भाई खाटू श्याम बनाकर कहां से पूजने लगे? यह भारतवर्ष है मित्रों। बड़े-बड़े डूब रहे इसमें। तुमसे न हो पाएगा। इसे वही समझेगा, जो तर्क और गणित की भाषा बोलेगा। केवल लिखने के लिए लिखना तो खैर, आप लोगों का अधिकार है ही...।
आखिरकार, ये केवल दो उदाहरण हैं। मेरा मानना है कि जिस देश में तर्क की बात और गुंजाइश ही बंद हो, भावनाओं से ही जहां बड़े मसले तय हों, वहां कुछ गंभीर बात कहना मानो अंधों के शहर में आईना बेचना है। अंतत: आपको ही कठघरे में खड़ा कर हाथों में सलीब दे दिया जाएगा!!!
संदर्भ के लिए: धारा 377 के दुश्मन कौन हैं?