डॉ. कलाम दरअसल सही समय पर राष्ट्रवाद के जाल में फंस गए थे
डॉ. कलाम नहीं होते तो उनकी जगह किसी और को महान बना दिया जाता
सारे वैज्ञानिक पोंगा पंडित ही बने रहते हैं मरहूम डॉ. अब्दुल कलाम भी कोई अपवाद नहीं थे
न तो मैं डॉ. कलाम के मिसाइलमैन और राष्ट्रपति बनने के जश्न का हिस्सा था और न ही आज राष्ट्रीय शोक में भागीदार हूं।
इस देश में वैज्ञानिकों की भरमार है। एक से एक मौलिक वैज्ञानिक, लेकिन लैब के बाहर सब एक जैसे। बीएचयू के फिजिक्स विभाग में एक प्रोफेसर होते थे जो हर मंगलवार संकटमोचन में पाए जाते। एक हमारे गणित के प्रोफेसर थे जो भोर में तीन बजे लोटा लेकर श्लोक रटते हुए घाट पहुंच जाते थे। एक और गणित के जाने-माने प्रोफेसर थे जो डायनमिक्स की क्लास में गीता का प्रवचन देते थे। बीएचयू के एक बड़े वैज्ञानिक और हमारे शिक्षक तो आगे चलकर कुलपति भी बने, लेकिन टीकी रखना और टीका लगाना जारी रहा।
कहने का मतलब कि हमारे संस्थानों में विज्ञान सिर्फ प्रयोगशालाओं और कक्षाओं तक सीमित रहा है। इसके बाहर सारे वैज्ञानिक पोंगा पंडित ही बने रहते हैं और उसमें गर्व भी महसूस करते हैं। मरहूम डॉ. अब्दुल कलाम भी कोई अपवाद नहीं थे।
इसीलिए डॉ. कलाम नहीं होते तो उनकी जगह किसी और को महान बना दिया जाता।
याद करें कि जिस वक्त उनकी महानता अंगडाई ले रही थी, एक वैज्ञानिक को पाकिस्तान में भी महान बनाया जा रहा था। दरअसल, हर दौर में सत्ता ऐसे लोगों का आविष्कार देर-सवेर कर ही लेती है जिन पर महानता का टैग लगाया जा सके। यह महानता योग्यता पर आधारित नहीं होती। क्वांटम फिजिक्स का सहारा लें तो कह सकते हैं कि ईश्वर की तरह सत्ताएं भी ज़रूरत पड़ने पर पासा फेंकती हैं। सियासी चौपड़ की बिसात पर जो फंस गया, सो महान बन गया।
डॉ. कलाम दरअसल सही समय पर राष्ट्रवाद के जाल में फंस गए थे। वे लगातार फंसते गए और इस फंसान का उन्होंने अंत तक सुख भी भोगा।
क्या आपने प्रोफेसर एस.के. सिक्का का नाम सुना है? ज़रा खोजिए उनके बारे में। पोखरण परीक्षण के सूत्रधार थे वे, लेकिन उनका नामलेवा कोई नहीं है।
हमने तो पोखरण के बाद प्रो. सिक्का का लेक्चर भी सुना है अपने फिजिक्स विभाग में। बीएचयू में उनका आना बड़ी खबर था उस वक्त। तब कलाम का नाम पीछे से धकेला जा रहा था (शायद आरएसएस से… मेरा मुंह मत खुलवाइए, अभी छह दिन का शोक बाकी है)। सिक्का इस बात से 1999 में ही दुखी थे। उन्होंने बताया था कि डॉ. कलाम की डीआरडीओ के भीतर क्या हैसियत थी।
हम चाहें तो और भी बहुत कुछ जान सकते हैं, लेकिन फिलहाल हम इतना तो जानते ही हैं कि शिलांग के लेक्चर की फर्जी तस्वीरें हर जगह घूम रही हैं।
आइआइएम शिलांग की वेबसाइट पर न तो उनके आने की, न जाने की कोई खबर है। कुछ वर्षों से डॉ. कलाम की परछाईं बने रहे (श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन के सदस्य और संघ संचालित कई परियोजनाओं से संबद्ध) सृजनपाल सिंह, जो लगातार उनकी यात्राओं-व्याख्यानों की तस्वीरें पोस्ट करते नहीं थकते थे, उनके ट्विटर पर शिलांग यात्रा का कोई सुराग नहीं है। और पांच दिन पहले झारखंड के आरएसएस के एक स्कूल में उन्हें श्रद्धांजलि दी ही जा चुकी है।
मैं यह सब सिर्फ इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि न तो मैं डॉ. कलाम के मिसाइलमैन और राष्ट्रपति बनने के जश्न का हिस्सा था और न ही आज राष्ट्रीय शोक में भागीदार हूं। जिन्होंने महाभोज छका है, वे ही उलटने के अधिकारी हैं। सत्य और विज्ञान के हक़ में मुझे सिर्फ एक उम्मीद है कि हो सकता है कभी भविष्य में डॉ. कलाम की मौत की दास्तान राष्ट्रवाद द्वारा उनके इस्तेमाल की एक लिजलिजी कहानी के रूप में सामने आ सके।
हो सकता है ऐसा न भी हो। मैं तमाम तथ्यों को एक महान संयोग मानकर खारिज करने को तैयार हूं, क्योंकि आखिर प्रकृति के तीन बुनियादी नियमों में एक नियम हाइज़ेनबर्ग का अनिश्चिततता का सिद्धांत भी है।
जब विज्ञान ही संयोगों से संचालित है, तो जीवन और मृत्यु के बारे में क्या कहें!
अभिषेक श्रीवास्तव