मौन का गहराता मौसम
Author: पंकज बिष्ट Edition : July -2015
संपादकीय
एक साल पूरा होते न होते नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार जिस तरह से औचित्य और मर्यादा के संकट में फंस गई है वह कोई आश्चर्य की बात नहीं मानी जा सकती। असल में यह सरकार, अपने सांप्रदायिक एजेंडे के अलावा, किसी भी रूप में कांग्रेस से अलग नहीं है। हां, नेतृत्व के तरीके अवश्य अलग हो सकते हैं। देखा जाए तो मोदी का स्वयं को किसी भी भ्रष्टाचार से ऊपर होने का दावा करना एक ऐसी बलाए जान हो गया है कि उनसे मुंह खोलते नहीं बन रहा है। यह उतना ही अर्थ रखता है जितना कि कमोबेश मनमोहन सिंह के संदर्भ में था। बल्कि मनमोहन सिंह को एक बारगी माफ किया जा सकता है क्योंकि वह कभी भी जननेता नहीं थे, न ही उन्होंने कभी कोई चुनाव जीता। उनके हाथ में पार्टी का नेतृत्व भी नहीं था। यही नहीं जिस सरकार का वह नेतृत्व कर रहे थे वह गठबंधन सरकार थी और उसमें शामिल पार्टियां खासी बलशाली थीं। इसलिए उनकी सीमाएं स्पष्ट रही हैं। मनमोहन सिंह को नरेंद्र मोदी ने चुनावों के दौरान 'मौन सिंहÓ कहा था। पर जहां तक मोदी का सवाल है वह प्रचंड बहुमत से जीते हुए हैं और पार्टी का नियंत्रण भी अमित शाह के माध्यम से उनके कब्जे में है। यहां याद किया जा सकता है कि शाह कई आपराधिक मामलों में फंसे हुए हैं और जेल से किसी तरह छूटे हैं। यानी उनकी स्थिति इस कदर कमजोर है कि वह मोदी के इशारे पर नाचने के अलावा और कुछ कर ही नहीं सकते। आरएसएस नियंत्रित भाजपा अनुशासित पार्टी है। वहां बिना इजाजत बोलने का अधिकार नहीं है। इसका लाभ मोदी को फिलहाल मिल रहा है। इसके बावजूद वह मौन क्यों हैं? क्या उन्हें भी उन्हीं की तर्ज पर 'नंबÓ मोदी कहा जा सकता है। अंग्रेजी शब्द 'नंब'का अर्थ है सुन्न।
पर अगर स्वयं को सबसे अलग और अपने दौर को एक नई शुरुआत कहने वाले मोदी के नेतृत्व के एक ही वर्ष के अंदर एक के बाद एक भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आने लगे हों तो यह सब अचानक नहीं कहा जा सकता। हां, संयोग जरूर हो सकता है। पर ज्यादा खतरनाक बात यह है कि उनके नेतृत्व को लेकर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं। महाराष्ट्र के वरिष्ठ विधायक राज पुरोहित का जो वीडियो सामने आया है, उसमें कही गई बात कि "मोदी और शाह सत्ता के केंद्र बन गए हैं और इस तरह के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है", निजी तौर पर कही जाने के बावजूद महत्त्वपूर्ण है। यह इस बात का संकेत है कि मोदी के व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व के खिलाफ पार्टी में असंतोष काफी गहराई तक फैल चुका है। इसमें लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा के वक्तव्यों को भी जोड़ दिया जाए ,जो भाजपा के इन वरिष्ठ नेताओं ने पिछले दो सप्ताह के अंदर कहे हैं, तो खतरे की गंभीरता समझ में आने लगती है। नए 'आपात काल'की बनती स्थितियों के बाद 27 जून को आडवाणी ने सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे को लेकर जो 'राजधर्म'और 'सार्वजनिक नैतिकता'की बात की है, उससे स्पष्ट है कि यह पुराना योद्धा आसानी से मैदान छोड़ने वाला नहीं है। और यही कारण है कि 'वाचाल मोदी'अचानक 'अवसुन्न मोदी'नजर आने लगे हैं।
सच यह है कि जानकारों का नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही कहना था कि चाहे वह जो कहते और करते नजर आएं, उनकी सीमाएं स्पष्ट हैं। यानी न तो भ्रष्टाचार कम हो पाएगा और न ही ज्यादा समय तक पार्टी पर उनका कब्जा रह पाएगा। सवाल है ऐसा क्यों है? यहां एक प्रतिप्रश्न हो सकता है। धीरूभाई अंबानी का उदय कैसे हुआ? कैसे एक पेट्रोल पंप में काम करने वाला अपने ही जीवन काल में भारत का सबसे बड़ा उद्योगपति बन गया?
उत्तर सीधा-सा है: राजनीतिक प्रश्रय के कारण। इसे आप आजादी के बाद का पीपीपी मॉडल कह सकते हैं। इसमें पब्लिक संपत्ति प्राइवेट लाभ में सहयोग करती है और इस तरह नई परियोजनाएं सामने आती हैं। मुकेश अंबानी ने राडिया टेपों में यूं ही नहीं कहा कि 'कांग्रेस अपनी दुकान है'। यह प्रश्रय क्यों मिला? चुनाव लड़ने की मजबूरी के कारण। क्रोनी पूंजीवाद के लिए सबसे उर्वरक जमीन लोकतांत्रिक व्यवस्था है और इससे जुड़ी अनियमितताएं 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रÓ भारत तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि 'दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र'ब्रिटेन और 'दुनिया के सबसे जीवंत लोकतंत्र'अमेरिका में भी कुछ हेर-फेर के साथ इसी हद तक देखी जा सकती हैं। ये अनियमितताएं हर रोज मंहगी होती जा रही लोकतंत्र की कीमत चुकाने के लिए धन बटोरने की मजबूरी से जुड़ी हैं। कोई आपको धन यों ही नहीं देगा। सत्ताधारी इस प्रतिदान को अन्य तरह की अनुकंपाओं के माध्यम से चुकाते हैं जिनमें सार्वजनिक संसाधनों को मुफ्त या नाममात्र के दामों में देना एक सर्वविदित और व्यापक रूप से अपनाया जाने वाला तरीका है।
उदारीकरण के दौर की शुरुआत
जैसे-जैसे देश में पूंजी का दबदबा बढ़ा है, विशेषकर नब्बे के दशक के उदारीकरण के बाद, चुनावों से जुड़े भ्रष्टाचारों की संख्या में उसी अनुपात में वृद्धि हुई है। चुनावी भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों का उदारीकरण के बाद सबसे पहला शिकार स्वयं राजीव गांधी हुए थे जो 'मिस्टर क्लीनÓ के रूप में उभरे थे। (क्या मोदी दूसरे 'मिस्टर क्लीनÓ साबित होने जा रहे हैं?)विडंबना देखिए राजीव गांधी और उनके वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह उदारीकरण के जनक थे।
पूंजी के उदय या कहिए समाजवादी सपने के ध्वस्त होने के साथ हुआ यह कि जमीनी स्तर पर काम करने वालों, श्रमिक संगठनों और सामाजिक आंदोलनों का अंत हो गया। नेता बनना बड़ी पूंजी का खेल हो गया जिसकी मदद उच्च स्तरीय तकनीक, कॉरपोरेट पत्रकारिता और विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने करनी शुरू कर दी। एक मामले में मीडिया के अधिकतम इस्तेमाल की शुरुआत भी राजीव गांधी ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस्तेमाल करके की। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार ने विज्ञापन का, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया – सरकारी और गैरसरकारी – के माध्यम से, अपने प्रचार के लिए जबर्दस्त इस्तेमाल किया। यह बात और है कि दोनों का ही दांव अंतत: गलत साबित हुआ। (प्रसंगवश वसुंधरा राजे के खिलाफ आज जो समाचार चैनल सबसे ज्यादा हल्ला मचा रहा है स्वयं उसके मालिक का नाम भी ललित मोदी की सूची में आया है। किसी मीडिया घराने का आइपीएल के घपले में जुड़े होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। पर इस गलाकाट दुनिया में मीडिया के अपने हित हैं और वे कब सत्ताधारियों से टकराने लगें कहा नहीं जा सकता, शायद नरेंद्र मोदी को इस बात का आभास होने लगा हो, गोकि अभी उन पर हमला उतना सीधा नहीं हो रहा है पर कहा नहीं जा सकता कि वह कब निशाने की जद में आ जाएं।)
उदारीकरण के बाद विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हुआ और सरकारी एकाधिकार टूटा। इसने प्रचार को उद्योग में बदल दिया और पैसे के खेल ने नया ही रूप धारण कर लिया। विज्ञापन तो विज्ञापन, समाचारों तक के पैकेज, चाहे अखबारों में हों या टीवी चैनलों में, बिकने लगे और आज भी यह बिक्री यथावत जारी है।
पर अफसोस की बात यह है कि चुनाव प्रणाली में सुधार और मीडिया में बढ़ती एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को रोकने की दिशा में किसी भी सरकार ने सिवाय जबानी जमा-खर्च के कुछ नहीं किया। चुनावों में लगने वाले पैसे को लेकर जो नियम बने हैं वे मखौल हैं। मीडिया को दिए जाने वाले विज्ञापनों को लेकर भी इसी तरह का हाल रहा है। उम्मीदवार किस तरह से चुनाव संहिता के तहत निर्धारित सीमा से अधिक पैसा खर्च कर मीडिया को खरीदते हैं और नियमों को धत्ता बताते हैं इसका उदाहरण महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार का है जिनके खिलाफ अकाट्य प्रमाण होने के बावजूद आज तक कुछ नहीं हो पाया है।
जहां तक यूपीए सरकार का सवाल है, वह दूसरी पारी इसलिए खेल सकी क्योंकि उसने अपनी नीतियों को कमोबेश जनोन्मुखी रखा। जैसा कि विदित है तब यूपीए को असली समर्थन निचले तबके के लोगों का ही मिला था। उसकी हार का कारण भी जनविरोधी आर्थिक नीतियां ही रही हैं।
बड़ी पूंजी का युग
सन् 2014 के चुनाव इस मामले में महत्त्वपूर्ण हैं कि वे बड़ी पूंजी की भूमिका को निर्णायक रूप से स्थापित कर देते हैं। अब तक राजनीतिक दलों को ऐसे नेतृत्व की जरूरत पड़ने लगी है जो लोकप्रिय के अलावा पार्टी के लिए पैसा भी जुटा सकें। यानी पूंजीपतियों को अपने पक्ष में ला सकें। पिछला चुनाव भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे मंहगा चुनाव है। यह अचानक नहीं है कि भाजपा ने अपने नेतृत्व के लिए उस व्यक्ति को नहीं चुना जो एक मामले में पार्टी के पुनर्जन्म के लिए जिम्मेदार है, बल्कि जिस तरह से आडवाणी को किनारे किया गया उससे स्पष्ट हो जाता है कि वह पूंजीपतियों को अपने पक्ष में नहीं जुटा पाए। या पूंजीपतियों ने भाजपा को ऐसा व्यक्ति चुनने को मजबूर किया जिसे वे ज्यादा उपयोगी मानते थे। दूसरे शब्दों में वे अपने निवेश पर ज्यादा से ज्यादा लाभ सुनिश्चित कराने वाले के साथ गए। अब वसूली का समय है।
हाई टेक माध्यमों से लेकर सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का मोदी के पक्ष में जिस तरह से इस्तेमाल किया गया उसने कांग्रेस को ही स्तब्ध कर दिया। इसके अलावा नरेंद्र मोदी को, जो गोधरा हत्याकांड के बाद सर्वाधिक दागी नेताओं में से थे, उसी मीडिया ने, जो उन्हें रात दिन कोसता नहीं थक रहा था, खुला समर्थन दिया। यह मालिकों की मर्जी के बिना नहीं हो सकता था। समर्थन का यह सिलसिला सत्ता में आने के बाद भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में कमोबेश पूरे वर्ष जारी रहा है। पर अब लगता है स्थितियां बदलने लगी हैं।
इसका बड़ा कारण भाजपा के आंतरिक असंतोष और कलह के अलावा पूंजीपतियों की बेचैनी है जो अपने 'सुधारवादी'एजेंडे को जल्दी से जल्दी यथार्थ में परिणित होते देखना चाहते हैं। पर कहने और करने में क्या अंतर होता है यह मोदी विदेशों में छिपे काले धन को लाने के मामले में मुंह की खाने के बाद अच्छी तरह सीख गए लगते हैं। साफ बात यह है कि आर्थिक नीतियों में कोई भी ऐसा परिवर्तन जो बड़े पैमाने पर उथल पुथल मचा दे, लेना नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होगा। इस तरह का एक सुधार भूमि अधिग्रहण को लेकर है जो उनके गले की हड्डी बन चुका है।
चुनाव और पैसे का इतिहास
पर पूंजी और राजनीति के संबंधों की दुनिया में नरेंद्र मोदी विशिष्ट जरूर हैं लेकिन अकेले नहीं हैं। चुनाव के लिए पैसा इक_ा करने के मामले में ललित नारायण मिश्र से लेकर शरद पवार तक एक लंबी सूची रही है। फंड जमा करना ऐसी मजबूरी रही है जिसके लिए राजनीतिक नेता निजी तौर पर भी किसी न किसी ऐसे माध्यम की तलाश में रहते हैं जो उन्हें लगातार पैसे उपलब्ध करवा सके। वसुंधरा राजे का ललित मोदी (लमो) की चपेट में आना काफी हद तक इसी से जुड़ा है।
सहकारी संघों से लेकर खेल संघों तक पर नियंत्रण के लिए नेताओं के बीच की मारामारी इस बीमारी का महामारी के रूप में फूटना है। इस पृष्ठभूमि में ललित मोदी का उदय और उनके द्वारा क्रिकेट के खेल का इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) के रूप में एक जबर्दस्त व्यापारिक उपक्रम बना देना खेल संगठनों और नेताओं के बीच के गठबंधन को नए आयाम देने जैसा था। संयोग देखिए लमो को क्रिकेट के राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थापित करने वाला और कोई नहीं स्वयं वसुंधरा राजे ही थीं और यही संबंध आज उनके लिए ऐसा जाल बन गया लगता है जिससे आसानी से निकलना संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि यह संबंध इस बात का भी संकेत करता है कि राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री ने लमो को रातों-रात राजस्थान क्रिकेट का अध्यक्ष यों ही नहीं बनाया था। यह स्पष्ट लेन-देन का मामला था। राजे के बेटे दुष्यंत सिंह की कंपनी में दस रुपए के शेयरों को एक लाख में यों ही नहीं खरीदा गया। इसी चक्कर के दूसरे छोर पर सुषमा स्वराज फंसी हैं, जिन्होंने ब्रितानवी सरकार से मोदी के पासपोर्ट के मामले में सिफारिश की। स्वराज के बारे में कहा जा रहा है कि उनका राजनीतिक जीवन साफ-सुथरा रहा है। पर खबरें बतला रही हैं कि लमो से उनके परिवार का पुराना संबंध है और उनके पति और बेटी लमो के वकीलों के दल में हैं। फेमा के तहत लमो पर चार मामलों में आरोप हैं और इसमें कुल राशि 1,976 करोड़ रुपए की बतलाई जाती है। जिस व्यक्ति पर इतनी बड़ी राशि के घोटाले और हवाला का आरोप हो उसी की देश का विदेश मंत्री सिफारिश करे, क्या यह सामान्य बातहो सकती है?
आईपीएल की रचना ललित मोदी की मौलिक खोज नहीं बल्कि पश्चिमी दुनिया से उठाया गया आइडिया था जहां पहले ही हर तरह के खेलों का व्यवसायिकीकरण हो चुका है। फिल्म और टेलीविजन की तरह ही खेल अब मनोरंजन व्यवसाय का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा नियोजित तरीके से नायक विहीन कर दी गई दुनिया को जो वैकल्पिक नायक दिए जा रहे हैं उनकी आपूर्ति इसी मनोरंजन की दुनिया से की जाती है। विशेषकर खिलाड़ी और खेलों को व्यक्ति की भावात्मकता के साथ देशभक्ति से किस तरह जोड़ा जाता है भारत-पाकिस्तान के बीच के क्रिकेट मैचों से समझा जा सकता है। जो भी हो खेल उदारीकृत पूंजीवादी दुनिया में पैसा कमाने के बड़े उपायों में से एक है।
क्रिकेट संघों के माध्यम से आईपीएल में बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेता – शरद पवार, अरुण जेटली, राजीव शुक्ला, नरेंद्र मोदी, अमित शाह, प्रफुल्ल पटेल, अनुराग ठाकुर आदि – तो शामिल रहे ही हैं आईपीएल की सोने की मुर्गी में हिस्सेदारी के लालच में कई उद्योगपति भी इसमें कूद पड़े हैं जिनमें मुकेश अंबानी, विजय माल्या, श्रीनिवासन आदि हैं। आईपीएल पैसा कमाने का कितना आसान रास्ता है इसका उदाहरण इस पर चलने वाला सट्टा और मैच फिक्सिंग है। सच यह है कि इसी पैसे की लूट के चलते यह धंधा भी सामने आया है। हर ऐसा धंधा जो काला धन पर्याप्त मात्रा में पैदा करता हो आदर्शों का ढोंग खड़ा करने वाली वर्तमान राजनीति के लिए सबसे मुफीद माध्यम साबित होता है। मजेदार यह है कि लमो जी अंतत: इसी चक्कर में फंसे हुए हैं।
संयोग यह है कि हमारे देश में पूंजीवाद का हर नया कदम संकट का एक विशिष्ट आयाम सामाने लाता है। खेल का वाणिज्यकीकरण इसी का नवीनतम अध्याय है। विडंबना देखिए कि इन्हीं पूंजीवादी नई ताकतों ने, भ्रष्ट और वंशानुगत राजनीति करने वाली कांग्रेस के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किए गए नेतृत्व की कलई एक ही साल में खोल कर रख दी है।
नरेंद्र मोदी आज जिस संकट का सामना कर रहे हैं वह उन्हें दो तरह से कमजोर कर रहा है। पहला है उनकी नैतिक होने की छवि को ध्वस्त करके। मसला सिर्फ वसुंधरा राजे के खिलाफ कार्रवाई का ही नहीं है। वह सुषमा स्वराज का क्या करेंगे, जिनका पूरा परिवार लमो का दशकों से मित्र है। आखिर एक 'भगोड़ाÓ देश के विदेश मंत्री तक यों ही तो नहीं पहुंचा है? इसी तरह का मसला महाराष्ट्र का भी है जहां नरेंद्र मोदी का बैठाया हुआ मुख्यमंत्री अपनी तरह के संकट का सामना कर रहा है। सवाल है, क्या वह पंकजा मुंडे के खिलाफ कोई कार्रवाई कर पाएगा? नहीं कर पाएगा तो क्या इसका ठीकरा भी नमो के सिर नहीं फूटेगा? इस बीच भाजपा शासित मध्यप्रदेश में व्यापमं के कारण जो तांडव मचा हुआ है उसका क्या होगा? नवीनतम खबरों के मुताबिक इससे जुड़े 43 लोगों की रहस्यमय हालातों में मौत हो चुकी है। हम फिलहाल मोदी के नवरत्नों में एक एम्स-फेम के स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा की तो बात ही नहीं कर रहे हैं।
और भी बड़ा सवाल यह है कि जिन पूंजीपतियों ने नमो पर दांव लगाया है वे कितना समय और देंगे? उद्योग जगत लगातार तरह-तरह की बातों से यह कहने लगा है कि वह अपेक्षित गति से सुधार नहीं कर पा रहे हैं। (क्या दीपक पारीख याद हैं!) पूंजीपतियों का मोदी को लेकर कितना धैर्य और बना रहेगा इसे भी सामने आने में देर नहीं लगने वाली है। इस संदर्भ में भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों में वांछित परिवर्तन उनकी निर्णायक कसौटी साबित होने वाले हैं। स्वयं संघ के कई संगठन भी, जिनमें स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ शामिल हैं, किसी भी परिर्वतन के विरोध में खुलकर सामने आ चुके हैं। इससे आगे के पेजों को देखने लिये क्लिक करें NotNul.com