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बरेली सो शहर नगीना, जाव एक दिन लगै महीना

Next: अंग्रेजों ने अन्यत्र की भांति आदिवासी विद्रोहों को दबाने के लिए उन अंचलों में आदिवासी छावनियों की स्थापना की थी जिनमें नीमच, देवली, खेरवाड़ा, कोटड़ा सहित जिला पाली के सुमेरपुर क़स्बा के निकट एरनपुरा में मीणा फ़ौजी छावनी थी जिसमें अफ़सरों के अलावा अन्य फ़ौजी मीणा आदिम समुदाय में से ही भर्ती किये गये थे. प्रथम विश्व युद्ध में उस छावनी की एक कंपनी यानी कि कुल नफरी 120 सैनिक रूस-टर्की की सीमा पर हुई लड़ाई में शामिल हुए थे.
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बरेली सो शहर नगीना, जाव एक दिन लगै महीना

शहरनामा - बरेली

बरेली सो शहर नगीना, जाव एक दिन लगै महीना

सुधीर विद्यार्थी

पुराने शहर के लोगों में एक रस्मे-मुरव्वत है,      

हमारे साथ आ जाओ कभी धोखा नहीं होगा।

बरेली की साहित्यिक और सांस्कृतिक तस्वीर को देखने की मेरी कोशिश अभी आधी-अधूरी है। इस शहर की अनेक छवियां मेरे भीतर विद्यमान हैं। इनमें कुछ चित्र मुक्ति-युद्ध के दौर के हैं जो बहुत बेचैनी भरे हैं तो कुछेक यहां की साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया से ताल्लुक रखने वाले भी हैं जिनसे मेरा भावनात्मक जुड़ाव ही नहीं, हिस्सेदारी भी है। वर्ष 2003 में बरेली आने पर यहां के जिन गली-

बरेली सो शहर नगीना, जाव एक दिन लगै महीना

सुधीर विद्यार्थी, प्रख्यात साहित्यकार हैं।

कूचों, नुक्कड़ों और सड़कों से गुजरा हूं वहां अतीत के कदमों के निशान और वर्तमान से उनके संपर्क सूत्र जोड़ने की कवायद में मैं निरन्तर संलग्न बना रहा। जगहों को देखना मेरी खब्त है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय होने से पहले मैं क्षेत्रीय या इलाकाई होना ज्यादा पसंद करता हूं। मेरे लिए उस हवा-पानी-गंध को अपने भीतर उतारना बेहद सुखद है जो उस भूखण्ड की है जिस पर सांसें लेता हूं।

यह शहर तब भी मेरे लिए नया नहीं था जब 10-11 वर्ष पहले मैं यहां आकर रहने लग गया। अपने शहर शाहजहांपुर में रहते हुए ही प्रख्यात हिंदी लेखक निरंकार देव सेवक, वरिष्ठ पत्रकार धर्मपाल गुप्त 'शलभ'और कवि वीरेन डंगवाल से मेरी निकटता के चलते यहां आवाजाही का एक ऐसा सिलसिला बना जो निरन्तर सघन होता चला गया। बरेली कालेज की पुरानी इमारत को देखना-छूना मेरे लिए किसी नास्टेल्जिया से कम नहीं रहा तो इसी महाविद्यालय के एक छात्र जैमिग्रीन की सत्तावनी क्रांति में फांसी को तब की एक ऐतिहासिक घटना मानते रह कर भी उसकी अंगूठी की तलाश मुझे बहुत बेचैन किए देती रही जिसे लखनऊ के एक फौजी कैम्प में अपनी शहादत से ठीक पहले उसने अंग्रेज फौजी अफसर फारबेस मिचेल को सौंप दिया था। उसकी इस निशानी को इंग्लैण्ड से लाकर इस कालेज के किसी कक्ष में रखने के सपने को मैंने अनेक बार दिन की रोशनी में देखा है।

 बरेली को जानने के क्रम में पहली कड़ी तब जुड़ी जब दामोदर स्वरूप सेठ की क्रांति-कथा को मैंने अब से छब्बीस वर्ष पहले लिपिबद्ध किया था। उसके बड़े हिस्से को 'अमर उजाला'ने 15 जनवरी 1989 के अपने रविवासरीय परिशिष्ट में आधे पन्ने से अधिक जगह दी थी। इसके बाद ही इस शहर में उनकी स्मृति में एक आयोजन के सिलसिले में मुझे मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया। मैंने तब ही सेठ जी की प्रतिमा को लगाने का प्रस्ताव किया था और उनके दो चित्र भी भेंट किए। याद आता है तब एडीएम कंपाउण्ड के निकट उनके नाम पर बने इसी पार्क में मंच पर हमारे साथ तत्कालीन विधायक डॉ0 दिनेश जौहरी और मेयर राजकुमार अग्रवाल रहे थे। कार्यक्रम का संचालन किया था डॉ0 भगवान शरण भारद्वाज ने। मैंने कांस्य प्रतिमा के लिए 10,000 रूपए शाहजहांपुर की ओर से देने की बात भी रखी। लेकिन बाद को संगमरमर की प्रतिमा लगी। इसके पश्चात 2001 में अपनी पत्रिका 'संदर्श'का 250 पृष्ठों का निरंकार देव सेवक पर केन्द्रित विशेषांक निकालने की मेरी कोशिश परवान चढ़ी। जाने-माने कम्युनिस्ट नेता चौ0 हरसहाय सिंह से मिला तो उस राजनीति की ओर भी आंखें उठाकर देखने लग गया जो उनके जैसे समर्पित लोगों ने सर्वहारा के लिए बहुत ईमानदारी से करते रह कर अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। साथी गिरीश भारती की गतिविधियां भी मुझे निरन्तर खींच रही थीं। बचपन से ही……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

पं0 राधेश्याम कथावाचक की 'रामायण'की ध्वनियां भी मेरे भीतर गूंजती-बजती रहकर मुझे कविता की ओर आकर्षित कर ले जाती रहीं। शायद दो वर्ष पूर्व 'पंडित राधेश्याम कथावाचक: कुछ जीवन, कुछ रंग'संदर्श पुस्तिका-3 के आकार लेने की यही पूर्वपीठिका रही हो। उर्दू शायर रघुनाथ सहाय 'वफा'मेरे शहर शाहजहांपुर में एक आयोजन के सिलसिले में पहुंचे तब उनकी लेखनी से भी परिचित हुआ और भुवनेश्वर और बरेली को लेकर उनसे देर तक बातचीत हुई। भुवनेश्वर पर लिखे उनके कुछ मुक्तक एक बार सेवक जी ने मुझे प्रकाशनार्थ भेज दिए थे।
उर्दू कवि जागेश्वर नाथ वर्मा एडवोकेट 'बेताब बरेलवी'के कृतित्व से भी उन्हीं दिनों परिचय हुआ। सेवक जी से निरन्तर पत्र-व्यवहार मेरे बहुत काम का साबित हुआ। कुल मिलाकर एक ऐसी बरेली मेरे भीतर पहले से ही मौजूद थी जिसे यहां की सांस्कृतिक पहचान के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। शायद यही कारण रहा हो कि 1991 में मई की 10 तारीख को जब कुछ शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों की बरेली कालेज में बैठक हुई जिसमें पूरे रूहेलखण्ड के ऐतिहासिक क्षेत्र में इतिहास, संस्कृति, कला, दर्शन और अन्य सामाजिक आर्थिक पहलुओं के विधिवत अध्ययन और अनुसंधान के लिए एक संस्थान 'रूहेलखण्ड अकादमी'की स्थापना का निर्णय लिया गया जिसका उद्देश्य केवल अकादमिक अध्ययन का केन्द्र न होकर विचार और कर्म के बीच सार्थक तालमेल बनाने की कोशिश होगी और समाज के सभी रचनात्मक पक्षों के विकास के लिए काम करने का फैसला हुआ जिसकी तदर्थ समिति में संयोजक निरंकार देव सेवक थे और समिति के सदस्यों में डॉ0 अतुल कुमार सिन्हा, वीरेन डंगवाल, सुधीर विद्यार्थी, दिवाकर उपाध्याय, डॉ0 उदय प्रकाश अरोड़ा और पत्रकार सुनील शाह को रखा गया।

इस अकादमी की स्थापना का ब्योरा देते हुए उस समय डॉ0 अरोड़ा ने कहा था कि बौद्धिक कर्म की यह विडम्बना हो चुकी है कि उसका सामाजिक वास्तविकताओं और समस्याओं से नाता ही नहीं रह गया है। यह संस्थान दोहरेपन की इस अवधारणा को तोड़ने की कोशिश करेगा और यह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय के साथ तालमेल बनाएगा। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो0 विनोद चन्द्र श्रीवास्तव, लल्लन जी गोपाल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, प्रो0 शिवेश भट्टाचार्य, प्रो0 राजेन्द्र कुमार वर्मा, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रो0 इरफान हबीब, प्रो0 कुंवरपाल सिंह और आरसी गौड़, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो0 मैनेजर पाण्डेय तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के भूतपूर्व महानिदेशक डॉ0 एमएन देशपाण्डे समेत अनेक विद्वानों से संस्थान की स्थापना और क्रियाकलाप में मदद मिलेगी। इसके अलावा विभिन्न समाजसेवी और अकादमिक संस्थाओं से भी समन्वय स्थापित किया जाएगा।

मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि 'रूहेलखण्ड अकादमी' नामधारी इस संस्था का कोई कार्य किसी तरह आगे नहीं बढ़ सका। बाद को बरेली आकर रहने लगने के दिनों में जिस शहर से मेरा परिचय-साक्षात्कार होता रहा, वह सब एक कोलाज के रूप में मेरे भीतर कुछ बनने और चित्रित होते रहने की प्रक्रिया थी। यह पुस्तक वैसी ही कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं की एक आकृति है जिसे गढ़ते रहने में……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

मैंने अपने समय की सार्थकता समझी। मैं जिस तरह से चीजों को देखता-परखता और अपने भीतर उतारता चलता हूं, वह कई बार इतिहास होकर भी उस तरह नहीं होता जिसका ताल्लुक पाठ्यक्रमों में रहा आया है और न ही वह सब कैमरे से उतारे गए किसी चित्र की मानिन्द स्पष्ट और अपनी जगह पर दिखाई पड़ने वाले वजूद की तरह है।

मैं इतिहास को भी अपनी तरह जीता और महसूस करता हूं। उससे संवाद करना मेरी फितरत है। जब तक वर्तमान में उसके संयोजक-सूत्र उपलब्ध नहीं होते, मैं संतुष्ट नहीं हो पाता।दूर बैठकर या कमरे के भीतर रहकर लिखना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके लिए मुझे धूल फांकनी पड़ती है। लोगों से मिलना, पुराने-मुचड़े-धूल खाए कागज-पत्तरों से गुफ्तगू, अनजानों और अपरिचितों से बतकही या वीरान हो चुकी जगहों-ढूहों के अवशेषों से साक्षात्कार और संवाद मेरे लिए सर्वाधिक प्राणवान है। यह सब जैसे मुझे रचनात्मक ऊर्जा देता है। मेरा प्रस्थान-विंदु मेरी अपनी जमीन का ही कोई मुकाम हो सकता है, आसमान का कोना नहीं। विकास और तेजी से पसरते बाजार के चलते शहर की सांस्कृतिक संपदा को बनैले ढंग से निगलने के प्रयास मेरे लिए नितांत तकलीफदेह हैं, भीतर तक छीलने वाले। तरक्की के नाम पर होने वाली इस छीना-झपटी और लूट ने पुराने शहर की न जाने कितनी रवायतों-परम्पराओं, मूल्यों और उसके सांस्कृतिक सूत्रों-चिन्हों को हमसे विलग कर दिया इसे कौन जाने। शहर अब वह नहीं रहा जो 20 वर्ष पूर्व था।

हम विकास के विरोधी नहीं। लेकिन वह किस कीमत पर ? पुराने शहर की मुहल्लेदारी, रिश्ते-नाते,पड़ोसी होने और साथ-साथ रहने-जीने और मरने के अहसास के साथ और भी न जाने क्या-क्या दरका-टूटा है शातिर पूंजी के इस दौर में जिसकी हमें इस आड़े-जटिल समय में बहुत जरूरत थी। यों ही नहीं यह शहर पिछले दिनों अनेक बार साम्प्रदायिक तनावों के दौर से गुजरा और जिससे बचने का रास्ता हमें आज भी दिखाई नहीं पड़ता। जानना होगा कि जो कुछ बचा रह गया वह संस्कृति की शक्ति के चलते ही संभव हुआ है। आखिर विकास के साथ यह क्या कि हम धर्म के आधार पर बंटते और दूर होते चले जाकर आपस में बेहद अविश्वसनीय बन कर खड़े हो गए जिसके कारण शहर में मिली-जुली बस्तियों की रिहायश अब दरकने की कगार पर जा पहुंची है। हमें इस सबकी बहुत निर्ममता से शिनाख्त करनी होगी।

दरअसल, रास्ते तो हमने खुद ही बंद कर दिए हैं अपने हाथों। बरेली के पुराने मुहल्लों की तंग गलियों से गुजरते हुए हर पल मुझे शिद्दत से महसूस होता है कि कोई उस बरेली को मुझे लौटा दे जो सुकून भरी, अपनी और आत्मीय हो। वह दूसरे किसी शहर की अनुकृति न हो जिसे 'हाईटेक'या 'स्मार्ट सिटी'कहा जाता है। मैं बार-बार उस बरेली को ढूंढता हूं जिसे इन पन्नों पर मैंने दर्ज किया है जो आज खो गई प्रतीत होती है। यह दर्द मेरा अपना हैलेकिन चाहता हूं कि वह आपका भी हो। मुझे नहीं पता कि मेरी इस पीड़ा में लोग कितने हिस्सेदार बनेंगे। अगर आप ऐसा करते हैं तो यह एक तरह से बरेली को उसकी पहचान के साथ बचाने की दिशा में मुबारक कदम भी होगा।

  'बरेली: एक कोलाज' को रचने का सिलसिला उस बरेली को ही देखने-संवारने की ही मेरी कवायद है जो सौहार्द्र और समृद्धि से भरी-पुरी हो और जिसमें सांस्कृतिक चेतना के पुष्पित-सुगंधित होने का अहसास निरन्तर सघन होता रह सके। बरेली के अपने ……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

इस कैनवस में रंग भरने के इस जरूरी काम के लिए मैं कितने लोगों से मिला, क्या-क्या देखा, इसका मीजान लगाना मेरे लिए संभव नहीं है। कई बार चीजें बहुत आसानी से हाथ आ जाती हैं, तो अनेक अवसरों पर कठिन कोशिशों के बाद भी कुछ हासिल नहीं होता या मिलता भी है तो आधा-अधूरा जो प्यास को और अधिक बढ़ा देता है।

इन पृष्ठों में जो कुछ दे सका हूं, उसमें और भी जोड़ा जा सकता था। ऐसा नहीं कर पाया तो यह मेरी सीमा और अक्षमता ही नहीं है, बल्कि अनेक लोग मेरे कार्य में पर्याप्त मदद करने से पीछे हट जाते रहे। जो कुछ नहीं कर सका वह यह भी है कि जैसे मैं 'रूहेलों के देश में'उपन्यास के लेखक प्रणवकुमार वंद्योपाध्याय को दिल्ली और मुंबई में बहुत तलाश करने के बाद मिलने पर उनका साक्षात्कार करने के लिए दूर-दराज की यात्रा नहीं कर सका जो एक समय बरेली में रहे थे और जिनकी इस कृति में इस शहर की गलियां, नुक्कड़ और लोग ही नहीं, खुशबुएं भी बेतरह दर्ज हैं।

प्रख्यात हिंदी लेखक रांगेय राघव की पत्नी सुलोचना रांगेय राघव की बरेली के दिनों की यादों को जुटाने के लिए भी जयपुर की यात्रा मेरे लिए संभव नहीं हो पाई। उनसे फोन पर ही बतकही होती रही और वे मेरी आवाज सुनकर अपने बरेली के दिनों की स्मृतियों को जीने का सुकून हासिल कर लेती रहीं।

मैं यह भी नहीं तलाश कर पाया कि प्रसिद्ध हिंदी नाटककार पं0 उदयशंकर भट्ट किस सिलसिले में बरेली रहे थे जबकि उन दिनों क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा उनके साथ में थे। हिंदी के एब्सर्ड नाटक लेखक भुवनेश्वर बरेली कालेज में पढ़े और बाद को उन्होंने कुछ आवारा वक्त भी यहां गुजारा।

मुंशी प्रेमचन्द इस शहर में पं0 राधेश्याम कथावाचक का नाटक देखने ही आए थे।

प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता चारू मजूमदार और पीसी जोशी यहां आए।

बड़े उर्दू शायर इसरारूल हक़ 'मज़ाज़'लखनवी और रघुपति सहाय 'फिराक़'गोरखपुरी का भी किसी सिलसिले में यहां आने और कुछ दिन ठहरने का जिक्र मिलता है। चिंतक सुधीर चन्द्र भी बरेली रहे और हिंदी के विचारक-लेखक डॉ0 राजेश्वर सक्सेना भी जो इन दिनों बिलासपुर में हैं।

कथाकार हरदर्शन सहगल ने भी यहां कुछ वर्ष गुजारे। रामप्रसाद 'बिस्मिल'ने तो क्रांतिकारी जीवन से पहले अपना थोड़ा समय इसी जमीन पर बिताया और भारतीय क्रांतिकारी दल के सेनापति चन्द्रशेखर आज़ाद ने केन्द्रीय कारागार में काकोरी बंदियों को अनशन के दौरान छुड़ाने के लिए यहां डेरा ही डाल लिया था।

क्रांतिकारी सूफी अम्बा प्रसाद ने बरेली कालेज में शिक्षा पाई और ……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

भगतसिंह के चाचा क्रांतिकारी अजीत सिंह ने एक वर्ष तक यहां विधि विभाग में पढ़ाई करते रहे। तब उनके साथ उनके भाई यानी भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह भी रहे थे। बाद को ये लोग नेपाल चले गए।

'लाहौर षड्यंत्र केस' में भगतसिंह के साथ काला पानी की सजा पाने वाले क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा की गिरफ्तारी बरेली में ही हुई, जब वे फरारी में बुधौली के स्वतंत्रता सेनानी ठा0 पृथ्वीराज सिंह के घर रह रहे थे।

मैंने 23/12/2007 को नगर निगम को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया जिसके बाद पृथ्वीराज सिंह उद्यान के सौन्दर्यकरण का कार्य सम्पन्न हो सका। तत्पश्चात 2 अगस्त 2009 को पृथ्वीराज सिंह जी की याद में बरेली कालेज में एक आयोजन भी किया जिसमें रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 सत्यपाल गौतम मुख्य अतिथि थे। ब्रजराज सिंह (आछू बाबू) ने अपनी उपस्थिति और यादों से इस कार्यक्रम को अभूतपूर्व गरिमा प्रदान कर दी थी।

इसके साथ ही मैंने केन्द्रीय कारागार के भीतर रहे 11 क्रांतिकारियों–मन्मथनाथ गुप्त, चन्द्रसिंह गढ़वाली, एमएन राय, राजकुमार सिन्हा, मुकुन्दीलाल, शचीन्द्रनाथ बख्शी, प्रतापसिंह बारहठ, गणेश घोष, रमेशचन्द्र गुप्त, विष्णुशरण दुबलिश और यशपाल के नाम पर बैरकों के नामकरण करवाए।

क्रांतिकारियों की याद में किए जाने वाले इस कार्य को मैं अपने जीवन का सर्वाधिक सुखद क्षण मानता हूं। इसके बाद उनके शिलापट्ट तथा चित्र लगवाने की अपनी योजना में कविता भारत का सर्वाधिक योगदान रहा।

इस पुस्तक के अगले हिस्से में अनेक पुराने उर्दू शायरों और हिंदी के कुछेक रचनाकारों के साथ ही उन सब पर कलम चलाने का भी मेरा इरादा है जिन्होंने बरेली को उसका व्यक्तित्व प्रदान किया। बरेली की गलियों-मुहल्लों को भी इसमें शामिल करना मेरे लिए जरूरी है। यह सब मिलाकर शहर की ऐसी जीवंत तस्वीर होगी जिनकी रंगत का सचमुच हमारे लिए बड़ा अर्थ है। यह हमारी तलाश और जद्दोजहद का हिस्सा है जिसे अगले कोलाज में चित्रित करने की योजना पर मैं लग कर काम करना चाहता हूं। कह सकता हूं कि यह शहर झुमके, सुरमे या मांझा के लिए देश-विदेश में विख्यात है।

बरेली के बाजार और झुमके की हिंदी फिल्मों के गानों में खूब धूम मची। गायिका शमशाद बेगम अप्रैल 1970 में बरेली आईं तो लोगों ने प्रसाद टॉकीज में आमने-सामने उनकी खनकती आवाज में 'झुमका बरेली वाला कानों में ऐसा डाला, झुमके ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरे कुर्बान'सुना तो झूमने को बाध्य हो गए। कार्यक्रम का संयोजन शहर के खुर्शीद अली खां ने किया था।

पिछले दिनों (अप्रैल 2008 में) हमारी आंखों के सामने ही फिल्मी दुनिया में शायर रहे दानिश बरेलवी गुजर गए जिनकी दो ग़ज़लों को कभी मो0 रफी ने आवाज दी थी। पुराने शहर में चक महमूद की तरफ जाने वाली गली में उनकी रिहायश थी। मशहूर एचएमवी कंपनी ने उनके रिकार्ड जारी किए थे। उनके अंतिम दिनों का ……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

एक बहुत तकलीफ भरा चित्र देखता हूं तो उन्हीं की पंक्तियां याद आ जाती हैं–'बहुत अर्से तलक यह दोनों हाथों पर उठाता है, जमाने का यही है कायदा फिर भूल जाता है।'…….और इस शहर के सुरमे ने 'सोने की सींक बरेली का सुरमा'जैसी लोक गायकी तक पहुंच कर अपनी विशिष्ट पहचान और पैठ बनाई।

कहा जाता है कि बरेली का सुरमा अब भी आंखों का नूर है और यह पुराना व्यवसाय अब छठी पुष्त के हाथों में पहुंच गया है। हमने इस शहर के अनेक कोनों पर मांझा बनाने वाले कारीगरों के लहूलुहान हाथों को दर्द के साथ देखा है। हमारी चिंता का विषय है कि पिछले दिनों बरेली के मशहूर मांझे को चाइनीज मांझे ने जबरदस्त टक्कर दी जिसका मांझा कारीगरों की रोजी-रोटी पर विपरीत प्रभाव पड़ा और हजारों परिवार संकट में आ गए।

इसी सिलसिले में बरेली के बाकरगंज कर्बला के मैदान में लोकाधिकार, पैरवी, हथकरघा पतंग-मांझा श्रमिक कल्याण समिति की ओर से 23 जुलाई 2010 को एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया जिसमें मांझा कारीगरों ने बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की। इस आयोजन में हमारे जुटने का मकसद था कि पतंग-मांझा कारोबार को कुटीर उद्योग का दर्जा दिया जाए तथा इन कारीगरों को सामाजिक सुरक्षा कानून के दायरे में लाया जाए। हमारा जोर था कि मैटेलिक (चाइनीज) मांझे की खरीद, बिक्री और उसके उत्पादन पर रोक लगे। हमारी चिंता में मांझा उद्योग से जुड़े गरीब मेहनतकशों की दयनीय जीवन स्थितियां पसरी हुई थीं जिन्हें देखकर हम प्रतिक्षण उद्वेलित हो रहे थे। इसके अलावा जरी जरदोजी, पतंग और फर्नीचर के कारोबार के लिए भी इस शहर को चीन्हा जा सकता है।

देखा जाए तो इस पुस्तक में बहुत कुछ छूट गया है। पर जो है उसे ही जांचा-परखा जाना चाहिए। इसमें सत्तावनी क्रांति से लेकर दामोदर स्वरूप सेठ, केन्द्रीय कारागार में भीतर 'बनारस शड्यंत्र केस'में बंदी राजस्थान के युवा क्रांतिकारी प्रतापसिंह बारहठ की शहादत और उसके बाद काकोरी के क्रांतिकारी बंदियों का इस जेल की चहारदीवारी के भीतर अनोखा साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष तथा गांधी व नेता जी सुभाष के अभियानों तक बरेली की हलचलें दर्ज होने के साथ ही साहित्य और संस्कृति की दुनिया के निरंकार देव सेवक, होरीलाल शर्मा 'नीरव', पं0 राधेश्याम कथावाचक, संस्कृति-पुरूष चुन्ना मियां, उर्दू अफसानानिगार इस्मत चुग़ताई, बाबू रामजी शरण सक्सेना, कवि हरिवंश राय बच्चन, शायर मनमोहन लाल माथुर 'शमीम'बरेलवी, व्यंग्य लेखक केपी सक्सेना, हरीश जौहरी, मुंशी प्रेमनारायण सक्सेना, धर्मपाल गुप्त 'शलभ'और प्रो0 कृपानंदन की यादों का अटूट सिलसिला है। यहां कामरेड शिव सिंह, चौ0 हरसहाय सिंह, साथी गिरीश भारती, सतीश गोपाल गुरहा और का0 इल्ली पहलवान की बेमिसाल तस्वीरों की सुखद मौजूदगी भी है।

मुझे बेहद दुख है कि इस पुस्तक को लिखना शुरू करने के ठीक पहले अचानक मेरे आत्मीय धर्मपाल गुप्त 'शलभ'नहीं रहे। वे होते तो इस काम में बहुत मदद मिलती। याद आता है कि वर्षों पहले उन्होंने ही मुझे कामरेड शिव सिंह पर कुछ खोजबीन करने के लिए उकसाया था और उनके सौंपे गए उस जरूरी काम को पूरा करने का मैं साहस कर सका।

बरेली शहर जैसा मैंने देखा-जाना है वही यहां उपस्थित है। कोई भी शहर ……….जारी…. आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…….

उतना ही नहीं होता जितना वह ऊपर से दिखाई पड़ता है। मेरी अपनी पक्षधरताएं भी इस सबको आकार देने की अव्यक्त कोशिशों में लगी रही होंगी। मैं इसे छिपाना भी नहीं चाहता, न ही उनसे मुक्त होना चाहता हूं। बावजूद इसके मैंने अपनी राजनीतिक विचाराधारा को सामने रख ही काम किया हो सो बात नहीं। एक रचनाकार के लिए यह संभव भी नहीं है। साहित्य और संस्कृति की धारा इस तरह सकता। लेखक को उन कतारों में शामिल होना ही चाहिए जो महाशक्तियों के प्रभुत्ववाद के खिलाफ संघर्षरत और अडिग हैं।

 बरेली शहर में इस तरह का प्रयास पहले कभी हुआ हो, मुझे याद नहीं। होता तो इसे करने की जरूरत महसूस नहीं होती। कह सकता हूं कि इस जमीन से मुझे इश्क़ हो गया है। इस किताब में मेरे उसी इश्क़नामे की इबारत है। कहा भी गया है कि आदमी अपनी ज़मीन से इश्क़ करता है और यह ज़मीन माशूक-सिफत होती है। कुछ अरसे पहले जब अपना शहर शाहजहांपुर छोड़कर यहां आया था, तब दिन बहुत उलझन भरे और भागम-भाग के थे। विस्थापन की पीड़ा में मैं बुरी तरह डूब-उछर रहा था और बार-बार अपने घर लौटने की चाहत मुझे परेशान किए हुए थी। यद्यपि वे तार अभी टूटे नहीं हैं, टूट भी नहीं सकते। न ही तोड़ना चाहता हूं। फिर भी खुद को बरेली शहर का बाशिंदा मान लेने में अब मुझे कोई गुरेज नहीं है। इस पुस्तक में मैंने अपनी इसी बरेली को दर्ज किया है जिस पर आप गर्व महसूस करेंगे।

सुधीर विद्यार्थी 




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