Quantcast
Channel: My story Troubled Galaxy Destroyed dreams
Viewing all articles
Browse latest Browse all 6050

पहाड़ कब आ रहे हो दाज्यू? कब आ रहे हो पहाड़? माँ बहुत बीमार है पिता बस सठिया ही गए हैं/ वैसे तुम चिंता मत करना/ पैसे तुम्हारे मिल जाते हैं समय पर

$
0
0

Kanchan Joshi

खेती किसानी के उत्तराखण्डी लोकपर्व हरेले की शुभकामनाएं। पहले से हरेले से हफ्ते भर बाद तक डाक से हरेले के तिनड़े आते रहते थे। तिनड़े सिर्फ 'नैनीताल समाचार' वाले भेजते हैं अब। अब सब फोन और इंटरनेट पर ही हरेला मना रहे हैं। वादियां रौखड़ों से पट रही हैं, खेतों में सन्नाटा पसरा है। खैर 'बरस दिन का दिन' ठहरा। मन क्या खट्टा करना। चलो एक पुराने नैनीताल समाचार के पर्यावरण अंक की कुछ कविताओं के साथ हरेला मनाते हैं। सभी कविताएँ कबाड़खाना वाले Ashok Pande जी की हैं।
(1)
पहाड़ कब आ रहे हो दाज्यू?
कब आ रहे हो पहाड़?
माँ बहुत बीमार है
पिता बस सठिया ही गए हैं/
वैसे तुम चिंता मत करना/
पैसे तुम्हारे मिल जाते हैं
समय पर
(2)
कब आये पहाड़ से?
क्या लाये हमारे लिये?
कैसे कहे कि घर की मरम्मत,
बीमार माँ,कमजोर मरणासन्न मवेशी
बहन की ससुराल 
और आवारा भाई
पहाड़ नहीं होते!
कैसे कहे
कि सूटकेस की परतों के बीच
तहाकर रखे गए
दो चार नाशपाती खुबानी के दाने
नहीं होते पहाड़ की पहचान!
कैसे कहे गया ही कौन था पहाड़! 
कब आए पहाड़ से?
क्या लाए हमारे लिए?
(3)

ओ गगास!
वर्ड्सवर्थ के गाँव की नदी की तरह
अगर तुम मेरी कविता का कालजयी हिस्सा
न बन पाओ/
तो ओ मेरे गाँव की नदी!
तुम मेरी कविता की सीमाओं को
माफ़ कर देना।
( 4)
हम फैलते गए
पहाड़ के भीतर
पहाड़ सिकुड़ता गया
हमारे बाहर.....
भीतर।
.......खूब मनाओ रे हरेला। क्या पता हरेले की टोकरी से ही पहाड़ लौटने की याद आए। जब से पहाड़ के नेताओं की बुद्धि 'स्याव' जैसी हुई है, हम लोग वैसे भी 'तराण' में ही जीने को मजबूर हैं।


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

Viewing all articles
Browse latest Browse all 6050

Trending Articles