विदा कॉमरेड मुकुल सिन्हा! लाल सलाम!!
साम्प्रदायिक फासीवाद विरोधी अभियान के अनथक योद्धा, नागरिक अधिकार कर्मी और वामपंथी ऐक्टिविस्ट कॉमरेड मुकुल सिन्हा का निधन आज के कठिन समय में जनवादी अधिकार आंदोलन और वामपंथ के लिए एक भारी क्षति है, जिसकी पूर्ति आसानी से संभव नहीं।
एक वर्ष पहले उनके फेफड़ों में कैंसर का पता चला था। लगातार लंबे और यंत्रणादायी इलाज के बावजूद, अहमदाबाद में रहते हुए मुकुल वहाँ मोदी की तानाशाही के ख़िलाफ़ विरोध का परचम उठाये रहे और 2002 के गुजरात नरसंहार के पीड़ितों के मुक़दमे लड़ते रहे। गुजरात की सच्चाई पूरे देश के सामने लाने में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भरपूर इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अहम भूमिका निभाई। बीमारी के दौरान उनके इस काम को आगे बढ़ाने में पत्नी निर्झरी सिन्हा और बेटे प्रतीक सिन्हा ने भरपूर मदद की।
मुकुल का पूरा जीवन आम लोगों और न्याय के लिए अनवरत संघर्षरत जुझारू योद्धा जीवन था। कलकत्ता के एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 1951 में जन्मे मुकुल सिन्हा ने आई.आई.टी. कानपुर से भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद 'फ़िज़िकल रिसर्च लेबोरेट्री' (पी.आर.एल.), अहमदाबाद में शोध की शुरुआत की और फिर वहीं शोध पूरा करने के बाद वैज्ञानिक के रूप में काम करने लगे। वहीं रिसर्च असिस्टेंट के रूप में कार्यरत निर्झरी से 1977 में उनका प्रेम हुआ और फिर वे जीवनसाथी बन गये।
13 सितम्बर 1979 मुकुल की ज़िन्दगी का एक मोड़बिन्दु था जब एक साथ 133 लोगों को विश्वविद्यालय प्रशासन ने पी.आर.एल. से निकाल दिया। मुकुल ने एक ट्रेड यूनियन बनाकर कर्मचारियों के अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया। कुछ ही महीने बाद वे भी नौकरी से बर्खास्त कर दिये गये।
इस बर्खास्तगी से मुकुल बहुत ख़ुश थे। पी.आर.एल. जैसी भारतीय संस्थाओं में शोध की निरर्थकता वे जान चुके थे। वे कहा करते थे कि अपने साथी वैज्ञानिकों की तरह "जीवाश्म"बन जाने के बजाय वे समाज के लिए कुछ सार्थक करना चाहते थे। नौकरी छोड़ने के बाद मुकुल एक जुझारू और व्यस्त ट्रेड यूनियन संगठनकर्ता का जीवन जीने लगे थे। पर मात्र इतने से उन्हें चैन नहीं था। वे यह समझने लगे थे कि ट्रेड यूनियन संघर्षों की एक सीमा है और मज़दूर वर्ग को राजनीतिक संघर्ष में दखल देना होगा। उन्होंने मार्क्सवाद का गहन अध्ययन शुरू किया। भाकपा, माकपा जैसी पार्टियों के संशोधनवाद को समझने के साथ ही वे "वामपंथी"दुस्साहसवाद के भी विरोधी थे। अंतत:वे इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत में एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी नये सिरे से बनानी होगी और भारतीय क्रान्ति का कार्यक्रम नवजनवादी क्रान्ति का नहीं बल्कि समाजवादी क्रान्ति का होगा। लगभग इसी समय, 1986 के आसपास, उनका हम लोगों से सम्पर्क हुआ था।
मुकुल ने मज़दूरों की क़ानूनी लड़ाइयाँ लड़ने और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता की प्रभावी भूमिका निभाने के लिए 1990 में क़ानून की डिग्री ले ली थी और इसी वर्ष 'जन संघर्ष मंच'की स्थापना की।
1990 में गोरखपुर में 'मार्क्सवाद ज़िन्दाबाद मंच'की ओर से हम लोगों ने समाजवादकी समस्याओं पर जब पाँच दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी की थी, तो उसमें मुकुल मज़दूर आन्दोलन की कुछ क़ानूनी व्यस्तताओं के कारण पहुंच नहीं सके, लेकिन उनके द्वारा भेजे गये दो विनिबन्ध सेमिनार में पढ़े गये और उन पर लम्बी और गम्भीर चर्चा हुई। पहला विनिबन्ध स्तालिन कालीन समाजवादी प्रयोगों पर केन्द्रित था और दूसरा चीन की पार्टी की विचारधारात्मक अवस्थितियों पर।
1992 में आडवाणी की रथयात्रा के बाद गुजरात में बने साम्प्रदायिक माहौल में मुकुल ने मज़दूर आन्दोलन के साथ अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय साम्प्रदायिकता-विरोधी मुहिम को देना शुरू कर दिया। गुजरात-2002 के बाद तो वे दंगा पीड़ितों और मुठभेड़ के फ़र्ज़ी मामलों से संबंधित मु़कदमों की पैरवी और मोदी की कारगुज़ारियों का पूरे देश में पर्दाफ़ाश करने की व्यस्तताओं में आकण्ठ डूब गये। जान का जोखिम लेकर भी वे अन्तिम साँस तक अपने इस काम में लगे रहे।
अपने राजनीतिक प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने 'न्यू सोशलिस्ट मूवमेंट'नामक एक मंच की स्थापना भी की थी लेकिन गुजरात-2002 से जुड़े क़ानूनी मामलों और मोदी-विरोधी मुहिम की व्यस्तताओं के कारण अपनी मार्क्सवादी विचारधारात्मक-राजनीतिक परियोजना पर वे पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाये।
बावजूद इसके, सामयिक राजनीतिक मुद्दों पर, बीच-बीच में, वे गम्भीर विश्लेषणत्मक लेख और टिप्पणियाँ लिखते रहते थे। पिछले दिनों अन्ना हज़ारे के जनलोकपाल पर तथा भ्रष्टाचार और काले धन के सवाल पर उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टि से जो गम्भीर विश्लेषणात्मक लेख लिखे थे, वे काफी चर्चा में रहे।
का. मुकुल सिन्हा किताबी आदमी नहीं थे। वे विचारोंऔर व्यवहार की दुनिया में समान रूप से सक्रिय थे। वे सच्चे अर्थों में जनता के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवी थे और न्याय-संघर्ष के जुझारू योद्धा थे।
हम उन्हें अपनी हार्दिक क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।