मुम्बई में 100 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन?
विराट
मुम्बई के मलाड़ पश्चिम के मालवानी इलाके में 17 जून की सुबह से लेकर 21 जून की शाम तक ज़हरीली शराब के कारण करीब 100 लोगों की जान चली गयी। घटना होने के बाद 3 लोगों को गिरफ्तार किया गया और 8 पुलिसकर्मियों को सस्पेंड किया गया, हालाँकि यहाँ चलने वाले अवैध ठेकों के बारे में पहले कई बार शिकायत की जा चुकी थी पर पुलिस की साँठगाँठ से इनका कारोबार जारी था। इस हादसे का शिकार लगभग सभी लोग मेहनत-मशक्कत करके गुज़र-बसर करने वाले हैं। पूरी बस्ती में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है।
क्या यह कोई पहला ऐसा मामला है जब जहरीली शराब पीने के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें गयी हैं? रोज़-ब-रोज़ होने वाली मौतों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो यह पहली ऐसी घटना नहीं है जब जहरीली शराब पीने से इतनी बड़ी संख्या में गरीबों की जान गयी है। मुम्बई के ही विक्रोली में 2004 में 100 से अधिक लोगों की, उत्तरप्रदेश में पहले सितंबर 2009 और फिर इसी साल जनवरी में दोनों बार को मिलाकर 70 से अधिक लोगों की इस तरह से मौत हुई, 2011 में पश्चिम बंगाल में लगभग 170, 2009 में गुजरात में 100 से अधिक लोगों की जहरीली शराब पीने से मौतें हुईं। हर बार प्रशासन का रुख एक जैसा ही रहा है; घटना के बाद कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जाता है, कुछ अफसरों का तबादला और निलम्बन होता है और थोड़े ही समय बाद घटना विस्मृति के अंधेरे में खो जाती है।
Photo source – http://www.bbc.com/news/world-asia-india-33179175
सवाल यह उठता है कि आखिर इन सभी बेगुनाहों की मौत का असली जिम्मेदार कौन है। क्या इन मौतों के लिए महज़ कुछ व्यक्ति ज़िम्मेदार होते हैं जिनको कि गिरफ्तार कर लिया जाता है? क्या कुछ अफसरों के निलम्बन या तबादले से इन घटनाओं पर अंकुश लग सकता है? इन घटनाओं की बारम्बारता चीख-चीख कर किस ओर संकेत कर रही है? सच्चाई यह है कि इन घटनाओं के लिए यह मानवद्रोही व्यवस्था जिम्मेदार है जिसमें गरीब मज़दूरों की जिन्दगी की कीमत बेहद सस्ती होती है, जहाँ मनुष्य को मुनाफा कमाने के लिए मशीन के एक पुर्जे़ से अधिक कुछ नहीं समझा जाता।
क्या प्रशासन को खतरनाक शराब बनाने वालों के बारे में पता नहीं होता है? झुग्गी बस्तियों में पुलिस की मोटरसाईकिले व गाड़ियां रात-दिन चक्कर लगाती रहती हैं। ये पुलिसवाले यहाँ व्यवस्था बनाने के लिए चक्कर नहीं लगाते हैं बल्कि स्थानीय छोटे कारोबारियों और कारखानादारों के लिए गुण्डा फोर्स का काम करते हैं। सारे अपराध, सभी गै़र-कानूनी काम पुलिस की आँखों के सामने होते हैं और सभी काम पुलिसवालों, विधायकों आदि की जेबें गर्म करके उनकी सहमति के बाद ही होते हैं। शक की गुंजाइश के बिना यह कहा जा सकता है कि इस तरह की शराब बनाने के बारे में भी प्रशासन को पूरी जानकारी रहती है। शराब को और अधिक नशीला बनाने के लिए उसमें मेथानोल और यहाँ तक कि पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल होता है। चूंकि यह शराब लैबोरेटरी में टेस्ट करके नहीं बनती और इसकी गुणवत्ता के कोई मानक भी नहीं होते हैं तो ऐसे में जहरीले पदार्थों की मात्रा कम-ज्यादा होती रहती है। इस शराब में अगर जहरीले पदार्थों की मात्रा कम भी रहे तो भी लम्बे सेवन से आँखे खराब होने आदि का खतरा तो बना ही रहता है। जहरीले पदार्थों की मात्रा यदि अधिक हो जाती है तो उसके जो परिणाम होते हैं वो इस घटना के रूप में हमारे सामने हैं।
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यह भी हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है कि जब एक मज़दूर को दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तो उसका साथ ही साथ उसका अमानवीकरण भी होता है और शराब व अन्य व्यसन उसके लिए शौक नहीं बल्कि जिन्दगी की भयंकर कठिनाइयों को भुलाने और दुखते शरीर को क्षणिक राहत देने के साधन बन जाते हैं। ऐसे मूर्खों की हमारे समाज में कमी नहीं है जो कहते हैं कि मज़दूरों की समस्याओं का कारण यह है कि वे बचत नहीं करते और सारी कमाई को व्यसनों में उड़ा देते हैं। असल में बात इसके बिल्कुल उलट होती है और वे व्यसन इसलिए करते हैं कि उनकी जिन्दगी में पहले ही असंख्य समस्याएँ है। जो लोग कहते हैं कि बचत न करना गरीबों-मजदूरों की सभी परेशानियों का कारण होता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि जो आदमी 5000-8000 रुपये की कुल आय से कितना बचा सकता है। क्या जो 1000-1500 रुपये वे व्यसन में उड़ा देते हैं उसकी बचत करने से वे सम्पन्नता का जीवन बिता सकेंगे? यहाँ व्यसनों की अनिवार्यता या फिर उन्हें प्रोत्साहन देने की बात नहीं की जा रही है बल्कि समाज की इस सच्चाई पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि एक मानवद्रोही समाज में किस तरह से गरीबों के लिए व्यसन दुखों से क्षणिक राहत पाने का साधन बन जाते हैं। इस व्यवस्था में जहाँ हरेक वस्तु को माल बना दिया जाता है वहाँ जिन्दगी की मार झेल रहे गरीबों के व्यसन की जरूरत को भी माल बना दिया जाता है। गरीब मज़दूर बस्तियों में सस्ती शराबों का पूरा कारोबार इस जरूरत से मुनाफा कमाने पर ही टिका है। इस मुनाफे की हवस का शिकार भी हर-हमेशा गरीब मजदूर ही बनते हैं। यह घटना कोई अनोखी नहीं है और मुनाफे के लिए की गई हत्याओं के सिलसिले की ही एक और कड़ी है।