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‪#‎नेपाल‬ में दलित-राजनीति ≈============================= प्रेम पुनेठा

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‪#‎नेपाल‬ में दलित-राजनीति
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प्रेम पुनेठा

"…राजशाही के दौर में तो उनके लिए कोई स्थान था ही नहीं। जब राजशाही खत्म हो गई तब भी उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल रहा है। जब कि सच यह है कि राजशाही को खत्म करने के लिए चले माओवादियों के जनयुद्ध में दलितों की बड़ी भागीदारी थी। जनयुद्ध में मारे गए 13000 लोगों में एक हजार से ज्याद दलित थे। तब दलितों को यह आशा थी कि नए शासन व्यवस्था में उनके साथ अन्याय नहीं होगा लेकिन माओवादी भी नेपाल में दलित सवाल को सही तरीके से उठा पाने में असफल ही रहे…."

नेपाल में दूसरी संविधान सभा के चुनाव पूरे हो चुके है। इस चुनाव में माओवादियों और मधेसी पार्टियों की तो भारी पराजय हुई ही है। जिस समुदाय को सबसे अधिक झटका लगा है वह दलित समुदाय है। नेपाल में दलितों की संख्या लगभग चौदह प्रतिशत है। लेकिन चुनाव परिणामों के अनुसार दलितों का प्रतिनिधित्व पिछली बार से भी कम हो गया है। पिछली संविधान सभा में प्रत्यक्ष निर्वाचन में सात दलित सभासद चुनाव जीते थे लेकिन इस बार केवल दो ही चुनाव जीत सके। ये दोनों भी कम्युनसिट पार्टी आफ नेपाल एमाले के सदस्य हैं।

सभा में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस बन कर उभरी है लेकिन आश्चर्य यह है कि इस पार्टी ने प्रत्यक्ष चुनाव में एक भी दलित को टिकट नहीं दिया था। एमाले ने छह और माओवादियों ने नौ लोगों को टिकट दिए थे। इनमें से भी केवल दो ही चुनाव जीत सके। जो दो सदस्य जीते हैं वे भी सुनार जाति के हैं। भारत में सुनारों को दलित नहीं ओबीसी माना जाता है। नेपाल की जाति व्यवस्था में सुनार दलित तो हैं लेकिन उनका स्तर दलितों में सबसे उपर है। नेपाल के दलितों के तीन वर्ग हैं। पहाड़, मधेस और काठमांडू घाटी में रहने वाले नेवारी दलित। इनमें आठ प्रतिशत पहाड़ में और छह प्रतिशत मधेस में रहते है। नेपाल में दलित सबसे अधिक उपेक्षित और कमजोर वर्ग है और शताबिदयों से उनकी सिथति में कोर्इ परिवर्तन नहीं आया है।

में जाति व्यवस्था की शुरुआत लगभग सात सौ वर्ष पूर्व जय सिथति मल्ल ने लागू की थी। उनका शासन काल 1360-95 तक माना जाता है। तब नेपाली समाज का हिंदूकरण शुरू हुआ। इसमें इसके बाद नेपाल कई राजाओं के आधीन रहा और हिंदू वर्ण व्यवस्था के तहत जाति व्यवस्था दिन प्रतिदिन कठोर होती चली गर्इ। 1750 के बाद नेपाल का शाह वंश के तहत एकीकृत किया गया। 1820 के बाद नेपाल में राणाओं का प्रभाव बढ़ गया। कुछ समय बाद राजा केवल नाममात्र का रह गया और सारी ताकत राणाओं के पास आ गई। 1854 में राणा जंग बहादुर यूरोप के दौरे में गए और वापस आने के बाद उन्होंने नेपाल में मुल्की आइन के नाम से कोड आफ कंडक्ट लागू किया। इस आइन के माध्यम से नेपाल की जाति व्यवस्था को शासकीय मान्यता दे दी गर्इ। इसमें सामाजिक गतिशीलता के आधार पर जाति व्यवस्था का कठोर बनाया गया। इसमें किन जातियों से क्या काम लिया जाएगा। किन जातियों को क्या काम करना होगा, किन जातियों को दास बनाया जा सकता है और किन जातियों को दास नहीं बनाया जा सकता पूरा विवरण दे दिया गया। जाति आधारित व्यवस्था को तोड़ने पर दंड की व्यवस्था की गई।

भेदभाव का परिणाम यह हुआ कि दलित आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ते चले गए। नेपाल दुनिया का सबसे गरीब देशों में से एक है और गरीबी की रेखा के नीचे 35 प्रतिशत लोगों है लेकिन दलितों में यह संख्या पहाड़ में 48 और मधेस में 46 प्रतिशत है। इस गरीब देश में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की सिथति क्या होगी यह सोचा जा सकता है। इससे भी खराब यह है कि दलित महिलाओं में 90 प्रतिशत गरीबी के रेखा के नीचे यह संख्या अधिक इसलिए है कि अधिकतर दलित पुरुष काम के लिए गांव से बाहर चले जाते हैं और अकुशल मजदूर का काम करते है और महिलाएं ही घरों में रहती हैं। 80 प्रतिशत दलित महिलाएं कुपोषित हैं। दलितों की बड़ी संख्या भूमिहीनों की है। पहाड़ में लगभग 20 प्रतिशत और मधेस में 44 प्रतिशत दलितों के पास कोर्इ भूमि नहीं है। पहाड़ में जिन दलितो के पास भूमि है भी तो वह जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है। भूमिहीन दलित सवर्ण जोतदारों के बंधुआ मजदूर बनकर रह जाते हैं। इन बंधुआ मजदूरों को हलिया, लागी, फकटटो, बलिघरे, खालो, डोली, हरुआ, चरूआ के नाम से जाना जाता है। नाम चाहे कुछ भी हो लेकिन ये हैं बंधुआ मजदूर ही। वैसे शासन स्तर पर बंधुआ मजदूरी को समाप्त कर दिया गया है लेकिन सामाजिक स्तर पर यह अब भी विदयमान है।

सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर के कारण दलितों को हमेशा उपेक्षा ही मिली। दलितों के साथ सबसे अधिक भेदभाव राजनीतिक स्तर पर होता रहा। राजशाही के दौर में तो उनके लिए कोई स्थान था ही नहीं। जब राजशाही खत्म हो गई तब भी उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल रहा है। जब कि सच यह है कि राजशाही को खत्म करने के लिए चले माओवादियों के जनयुद्ध में दलितों की बड़ी भागीदारी थी। जनयुद्ध में मारे गए 13000 लोगों में एक हजार से ज्याद दलित थे। तब दलितों को यह आशा थी कि नए शासन व्यवस्था में उनके साथ अन्याय नहीं होगा लेकिन माओवादी भी नेपाल में दलित सवाल को सही तरीके से उठा पाने में असफल ही रहे। जब राजशाही को खत्म करने के बाद पहली गणतांत्रिक सरकार बनी तो एक भी दलित को मंत्री पद नहीं दिया गया। अंतरिम संविधान में दलितों के हितों की पूरी तरह से रक्षा नहीं की गई। प्रत्यक्ष निर्वाचन में दलितों के लिए किसी भी तरह का आरक्षण नहीं था। यह जरूर है कि समानुपातिक प्रणाली से चुनाव में दलितों को आबादी के हिसाब से 13 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया। इसके बाद पहली संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों ने नौ दलितों को प्रत्यक्ष निर्वाचन में उतारा था और इसमें से दो महिलाओं सहित सात चुनाव भी जीते थे।

सभा में सात सभासद दलित थे। लेकिन यह भी केवल तीन प्रतिशत ही था और उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि जब समानुपातिक प्रणाली से चुनाव हुआ तब भी पूरे सदन में दलितों का प्रतिनिधित्व केवल आठ प्रतिशत तक ही पहुंच पाया। नेपाल में इस संविधान सभा में 123 राजनीतिक दलों ने पंजीकरण कराया था लेकिन दलितों की मांग को लेकर कोई भी अलग से राजनीतिक दल नही था। जो सत्ता न पाता लेकिन समाज में एक दबाव समूह के रूप में काम करता।

संविधान सभा में तो दलितों का प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष चुनाव में एक प्रतिशत से भी नीचें चला गया है और समानुपाति प्रणाली से 13 प्रतिशत मिल भी जाए तो वह पांच या छह प्रतिशत से ज्यादा होने वाला नहीं है। नेपाली कांग्रेस जैसी यथासिथति वादी पार्टी से किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती क्यों कि जो पार्टी प्रत्यक्ष चुनाव में एक भी दलित को टिकट नहंी दे रही है वह उनके हित में किस तरह काम करेगी। जरूरत तो इस बात की है कि शताबिदयों से शोषित और उत्पीड़त इस समुदाय को हर क्षेत्र में विशेष सुविधाएं दी जाएं।

प्रेम पुनेठा



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