[LARGE][LINK=/article-comment/19262-2014-04-26-06-54-24.html]मजीठिया पाने की जंग लंबी है, लेकिन लड़ना हमें ही होगा, आइए जानें कैसे लड़ें[/LINK][/LARGE]
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DetailsCategory: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK]Created on Saturday, 26 April 2014 12:24Written by B4M
मित्रों, मैं भी आपकी ही तरह एक पत्रकार हूं, जो देश के एक तथाकथित प्रतिष्ठित समाचार पत्र के लिए काम कर रहा है। आज किसी भी समाचार पत्र के दफ्तर जाएं, सभी साथी एक कॉमन विषय पर चर्चा करते मिलेंगे। कहीं खुलेआम, तो कहीं दबे स्वर में। वह विषय है, क्या मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों का हमें लाभ मिलेगा? अगर मिलेगा तो कब मिलेगा? कैसे मिलेगा? कितना मिलेग? अगर, नहीं मिलेगा तो क्यों नहीं मिलेगा? क्या चारा है अखबार मालिकों के पास? ऐसा कैसे हो सकता है कि ना मिले? आप ट्रेनी हों या संपादक? दिल पर हाथ रख कर पूछिये कि क्या इन विषयों पर अपने साथियों से चर्चा नहीं हो रही इन दिनों?
लेकिन, साथ ही एक और कॉमन सी बात उभर कर सामने आ रही है कि हमारे यहां मजीठिया लागू नहीं हो रहा है। कोई न कोई रास्ता निकाल ही लिया है हमारे मालिकों ने। हमारे वरिष्ठ जो कभी हमारे ही तरह मुफलिसी भरी जिंदगी से गुजरे हैं आज मालिकों के हाथ में कुछ हजार की अतिरिक्त पगार के लिए खिलौने की तरह खिलाये जा रहे हैं। निराशा होती है। मन में असंतोष जागता है। गुस्सा आता है। हम आखिर में मन को समझाते हैं कि हम कर भी क्या सकते हैं। रोजी-रोटी का सवाल है। लोन की इन्स्टॉलमेंट का सवाल है। बच्चों की स्कूल फीस का सवाल है। मकान के किराये का सवाल है। घर में अनाज जुटाने का सवाल है। केबल वाले को मासिक बकाया देने का सवाल है। दवा-दारु पे खर्च का सवाल है। मोबाइल खर्च। इंटरनेट खर्च। सप्ताहांत होने वाले खर्च। बिजली बिल। फलाना बिल। ढिमकाना बिल। इन सब के बारे में सोच कर हम चुप हो जाने का फैसला करते हैं। मन को समझाते हैं कि किसी भी तरह गुजारा तो हो रहा है। जिंदगी कट तो रही है। आपका ऐसा सोचना गलत नहीं है। हम सभी के साथ ऐसा हो रहा है और अगर कोई कहे कि उसे नौकरी गंवाने का डर नहीं तो वह गलत कह रहा है।
तो क्या हमारे पास कोई रास्ता नहीं है? क्या हम सरकार के फैसले और इस धरती पर मौजूद सबसे बड़े न्यायालय के निर्देश को न मानने वाले मुनाफाखोर मालिकों और उसके टट्टू संपादकों की मनमानी मानने को मजबूर हैं? नहीं। ऐसा नहीं है। अपने अधिकार को हासिल करने की हमारी लड़ाई लंबी और मुश्किल जरूर है लेकिन इसे लड़ना हमें ही है। कोई और आकर हमें हमारे हक दिला दे ऐसा नहीं होने वाला। अब बड़ा सवाल उठता है कि हम अपनी नौकरी बचाए रखते हुए इस कठिन लड़ाई को कैसे लड़ें। मेरे विचार से इसके लिए हमारे पास रास्ते हैं। मैं यह गारंटी नहीं ले सकता है कि ये सफल होंगे लेकिन हमें इन्हें आजमाना होगा। मैं एक-एक कर सभी विकल्पों को रख रहा हूं। आप सब इन पर विचार करें। फिर हम मिलजुल कर नई रणनीति तैयार करेंगे।
1) सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नाम पत्र
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मजीठिया मामले पर सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने फैसला दिया है उसकी अगुवाई मुख्य न्यायाधीश ने की है। वह कुछ दिनों में रिटायर होने वाले हैं। लेकिन, हमें इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। व्यक्ति रिटायर हो रहा है, पद नहीं। हम सब ज्ञात-अज्ञात (अपनी इच्छानुसार) रहते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखें। इसमें हम अपनी पुरानी सैलरी स्लिप और अप्रैल महीने की सैलरी स्लिप लगा कर भेंजें और बतायें कि हमें मजीठिया नहीं दिया गया। अगर सैलरी स्लिप देना बंद कर दिया जाता है तो पहले के महीनों के और नये महीने का बैंक स्टेटमेंट पत्र के साथ भेजें। अगर हजारों पत्रकार-गैर पत्रकार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखते हैं तो इसका असर जरूर होगा।
2) लेबर कोर्ट में गुमनाम रहते हुए अपने नियोक्ता के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की व्यवस्था है। इस पर विचार करें।
3) किसी भी तरह की शिकायत, चाहे वह मुख्य न्यायाधीश को पत्र के माध्यम से की जा रही हो या लेबर कोर्ट में गुमनाम रहते की जा रही हो उसमें अपने संपादक को भी आरोपी बनाएं। चंद हजार रुपये अतिरिक्त लेकर अपने जमीर को बेचने वाले ये संपादक हमारी राह में मालिकों से भी बड़ा रोड़ा हैं। इन्हें हर हाल में सबक सिखाया जाना जरूरी है। अगर मालिकों को जेल भेजना है तो साथ में उन्हें पंखा झेलने के लिए इन चमचे संपादकों को भी जेल भेजना होगा। जैसे राजस्थान पत्रिका जयपुर हो तो आशुतोष, भुवनेश जैन, भास्कर का नेशनल आइडिएशन न्यूज रूम हो तो कल्पेश याग्निक, हिंदुस्तान दिल्ली हो तो शशि शेखर, अमर उजाला मेरठ हो तो राजीव सिंह, प्रभात खबर हो तो हरिवंश, अनुज सिन्हा जैसे संपादकों के खिलाफ भी शिकायत की जानी चाहिए. दुनिया भर के सामने महान बनने वाले ये संपादक कितने दोयम दर्जे के इंसान हैं यह दुनिया के सामने आना चाहिए।
4) फ्लेक्स पर विज्ञापन – किसी शहर में बड़े फ्लेक्स पर कुछ दिन विज्ञापन देने का खर्च कुछ हजार रुपये आता है। हर शहर के पत्रकार चंदा जमा कर ऐसा कर सकते हैं। उस विज्ञापन पर लिखा हो कि जो अखबार अपने कर्मचारियों के हितों का ध्यान नहीं रखता क्या वह पाठकों के हितों का ध्यान रखेगा। उसमें वजाप्ता अखबार के नाम दिये जायें। जब तक ये फ्लेक्स हटाये जायेंगे तब तक हजारों लोग इससे वाकिफ हो चुके होंगे। ऐसा पंपलेट छपवाकर भी किया जा सकता है। और इन पंपलेटों को अखबार के माध्यम से ही लोगों तक पहुंचाया भी जा सकता है। इन पंपलेटों पर पाठकों से अपील की जा सकती है कि वह अपने अखबार से पूछें कि क्या वह अपने मजीठिया वेज बोर्ड के तहत अपने पत्रकारों के हितों का ध्यान रख रख रहा हैं?
5) गूगल एडवडर्स के माध्यम से वेबसाइटों पर यह विज्ञापन डाला जा सकता है कि कैसे देश के अखबार अपने कर्मचारियों का शोषण कर रहे हैं।
6) पत्रकार समाज में मौखिक रूप से इन बातों का प्रचार-प्रसार कर सकते हैं और अपने मालिकों व संपादकों की वास्तविक छवि (जो कि वाकई घिनौनी है) को समाज के सामने रख सकते हैं।
मित्रों ये चंद उपाय मेरे जेहन में सरसरी तौर पर आये हैं। आप भी इन पर विचार करें और जनसत्ता, भड़ास और फेसबुक के माध्यम से कोई एक राय बनाकर आगे की रणनीति तय करें। इन बेहद बुद्धिमान बन रहे मालिकों को बुद्धिमानी के साथ ही मात दिया जा सकता है और इसके लिए अपनी पहचान जाहिर करना भी जरूरी नहीं है। इनके बीच रहकर इनके अभिमान और घमंड के सर को कलम करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। हम ऐसा अपनी नौकरी को बचाये रख कर भी कर सकते हैं। हमें इस तरह काम करना होगा कि हमारे बगल की कुर्सी पर बैठा साथी भी न जान पाये कि हम भी इस अभियान में शामिल हैं। भले ही वह भी इसमें शामिल क्यों न हो। आइए अलग-अलग रहते हुए भी इस कॉमन काउज (साझा लक्ष्य) के लिए गुमनाम रहते हुए एकजुट हुआ जाये और मालिकों की ईंट से ईंट बजा दी जाये।
आपका ही एक साथी