आज सलवा जुडूम की 10वीं वर्षगाँठ है. गोंडी के इस शब्द का प्रचलित हिंदी अनुवाद शांति अभियान है. बस्तर में शांति लाने के लिए शुरू किए गए इस अभियान के कारण हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे. लाखों बेघर हुए. इनमें से कई हज़ार आज भी घर वापस नहीं जा सके हैं और जानवरों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं. उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं बस्तर में चले पिछले शांति अभियानों की तरह इस अभियान के बाद भी नक्सली और ताक़तवर होकर उभरे और उनकी ज़मीनी ताकत कई गुना बढ़ गई. यह सब उस समय हो रहा था जब माओवादी आंदोलन में शहरी प्रबुद्ध कैडर बिलकुल शामिल नहीं हो रहा है और उनके पुराने नेताओं में से आधे या तो मारे गए हैं या जेल में हैं. 'धन्यवाद सलवा जुडूम' इन शांति अभियानों ने तटस्थता के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा और सड़क से दूर जंगल के गाँवों में रहने वाले अधिकतर गोंडी भाषी आदिवासियों ने माओवादियों का दामन थामा और नक्सली पैदल सैनिकों की संख्या सलवा जुडूम के बाद कई गुना बढ़ गई. एक नक्सली प्रमुख नेता ने उनकी पत्रिका में लेख लिखा "धन्यवाद सलवा जुडूम". एक ने कहा "हम तो स्वयं को नाम से पीपुल्स वार कहते थे पर सलवा जुडूम ने हमें सच में जन युद्ध में बदल दिया." सलवा जुडूम मूलत: एक सैन्य अभियान था. इस अभियान के तहत जनता रूपी तालाब के पानी को बाहर निकालना होता है जिसके बाद मछली या आतंकवादी को पकड़ना या मारना आसान हो जाता है. भारतीय सेना ने इस तरह के प्रयोग उत्तर-पूर्व के राज्यों में पहले किए हैं. अमरीकी और ब्रिटिश सेनाओं ने वियतनाम और मलेशिया आदि देशों में इस रणनीति का प्रयोग किया है. पर छत्तीसगढ़ में इस प्रयोग में पानी बाहर आने की बजाय मछली के और करीब चला गया. पर इसी हफ्ते छत्तीसगढ़ के लोगों ने एक नया शान्ति अभियान शुरू किया है जो बस्तर में शांति ला सकता है. इस प्रयोग की समझ है कि हम इस पानी के साथ बातचीत कर सकते हैं और जब पानी से दोस्ती हो जाए तो पानी ही मछली को बाहर जाने या अपना रवैया बदलने को कह सकता है. विभाजित प्रदेश छत्तीसगढ़ एक विभाजित प्रदेश है. यहाँ दो समुदाय रहते हैं आदिवासी और गैर आदिवासी. ख़ासकर बस्तर के इलाक़े में इन दोनों समुदायों के बीच बिलकुल समन्वय नहीं है. उनके बीच लगभग प्रदेश के नाम की तरह 36 का आंकडा है. एक बाएं देख रहा है एक दाएं. एक गोंडी बोलता है एक हिंदी या छत्तीसगढ़ी. 36 से 63 अभियान का प्रयास है कि ये दोनों समुदाय आपस में बातचीत शुरू करें. और इस उद्देश्य से पहली बार सांस्कृतिक रूप से गोंडी और हिंदी-छत्तीसगढ़ी में संयुक्त नाटक और गीत बनाने का काम शुरू हुआ है. इन नाटकों, गीत का मंचन अब गाँव-गाँव में किया जा रहा है जिससे दोनों समुदायों के बीच एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति की समझ बढे और वे एक-दूसरे की भाषा सीखना शुरू करें और दोनों समुदायों के बीच की कांच की दीवार टूटे. बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी… इस अभियान की यह समझ है कि बस्तर का गोंडी भाषी आदिवासी वर्ग इसलिए आज माओवादी के साथ गया है, क्योंकि छत्तीसगढ़ का अधिकारियों, पत्रकारों और सभ्य समाज का वह वर्ग जो उनकी समस्याओं को हल करने में मदद कर सकता है गोंडी नहीं बोलता और उनकी बात नहीं समझता. बाहर से आए माओवादियों द्वारा उनको यह बताया गया है कि यदि दुनिया में कम्यूनिज्म आ जाए तो उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और पानी की समस्याएँ भी हल हो सकती हैं तो इसलिए उन्हें कम्यूनिज्म के लिए लड़ना चाहिए क्या एक बेहतर लोकतंत्र उनकी यही समस्याएँ हल कर सकता है? वन फोन काल ए डे.. इस अभियान के साथी गोंडी और हिंदी के मिश्रित नाटक और गीत से यह भी सिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसी भी समस्या की स्थिति में लोग अपने मोबाइल फोन से अपने मुद्दे अपनी भाषा में उठा सकते हैं. मुद्दे जब कम्प्यूटर में रिकॉर्ड होने के बाद शहरी सभ्य समाज के पास फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया में जाते हैं तब वे उन मुद्दों को पत्रकारों, एक्टिविस्टों और अधिकारियों के पास हल करने के लिए ले जाते हैं. इस तरह मोबाइल और इंटरनेट को जोड़कर गाँव और शहर की दो दुनिया को मिलाकर छोटी-छोटी ग्रामीण समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है. उनका नारा है 'वन फोन काल ए डे, कीप प्रोब्लेम्स अवे'यानी शहरी सभ्य समाज यदि रोज़ एक सेव खाने की तरह रोज़ एक समस्या को हल करने के लिए एक अधिकारी को फोन लगाकर उन समस्याओं को हल करने के लिए दबाव बनाए तो हम बंद स्कूलों को खोल सकते हैं और हो सकता है भविष्य में बस्तर में शांति भी ला सकें.