किसानों की आत्महत्या का विमर्श हिंदी पत्रकारिता से एकदम नादारत् है.. जबकि 'अच्छे दिनों' के आ जाने के इस सालभर में भी हिंदी पट्टी में ही सैकड़ों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं..
इन आत्महत्याओं की वजहों की पड़ताल करती Vinay Sultan की डायरी 'सुसाइड नोट' पढ़ने का आग्रह हम उन सभी लोगों करना चाहते हैं जो इस देश में किसानों और उनकी ज़िंदगी को किसी भी लिहाज़ से अहम मानते हों.
बिना संसाधनों और बड़े बैनर की ओर तांके विनय ने बड़े ही साहस से तीन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में घूमकर वहां किसानों के हालात का जायजा लेने की कोशिश की है.
अंग्रेजी अख़बारों में पी. साईनाथ की इस तरह की रिपोर्टों की पीठ सहला देना अंग्रेजी में जुगाली करने वाले हमारे मध्यवर्गीय तबके के लिए शगल ही है..
लेकिन हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ये काम किया जाना जितना अहम है उतना ही चुनौती भरा भी है..
गिने चुने जो लोग यह दुस्साहस कर पा रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करनाा हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है..
प्रैक्सिस में हम विनय की इस डायरी सोसाइड नोट को हर रविवार किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं.. आज पढ़ें तीसरी किस्त-
सुसाइड नोट: 'बस मरना ही हमारे हिस्से है..'
सुसाइड नोट - 2
हाँ यह सच है, लोग गश खा कर गिर रहे हैं…
सुसाइड नोट: 'बस मरना ही हमारे हिस्से है..'
"युद्ध का वर्णन सरल होता है. कुछ लोग युद्ध करते हैं. शेष उनका साथ देते हैं. कितना ही घमासान हो, महाकाव्य उसे शब्दों में बांध लेते हैं. पर आज तो हर व्यक्ति छोटा सा रणक्षेत्र बना अपनी प्राणरक्षा के युद्ध में लगा है. जान हथेली पर है, पीठ दीवार से टिकी हुई है, शस्त्र इतना विश्वसनीय नहीं और जिंदा रहना बहुत जरुरी है. आप कितने युद्धों का वर्णन एक साथ करेंगे? चप्पा-चप्पा मामले हैं और कोई बचाव जोखिम से खाली नहीं है. बूचड़खाना बन गया है देश……"
- शरद जोशी
(बातें बयान से बाहर हैं )
हमारे जेहन में हर शब्द के साथ एक या अधिक छवियां जुड़ी होती हैं. मसलन बुंदेलखंड नाम सुनते ही लक्ष्मी बाई, फूलन देवी, ददुआ, मोड़ा-मोड़ी, चंद्रपाल-दीपनारायण, ललितपुर का एक दोस्त जैसी छवियाँ उपरी माले के आटाले से निकल कर सामने आ जाती हैं. एक दोस्त की शादी के सिलसिले में हुए 24 घंटे से कम के प्रवास को अगर छोड़ दिया जाए तो यह बुंदेलखंड से मेरा पहला साबका था.
उत्तर प्रदेश के सात और मध्यप्रदेश के छह जिले मिल कर जिस भौगौलिक क्षेत्र को मुक्कमल करते हैं उसका नाम है बुन्देलखंड. बेतवा,केन और चम्बल जैसी नदियाँ, विंध्य पर्वतमाला और गंगा-जमुना के मैदान के बीच का अध सूखा-अध गीला क्षेत्र. यहां 1.75 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जिसमें से 40 फीसदी सिंचित है. इस पर 2.33 करोड़ किसानों की आजीविका निर्भर है.
2-3 और 14-15 मार्च को पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हुई बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि ने भारतीय कृषि के चमकदार आंकड़ों की सतह के नीचे उबल रहे शोषण और जिल्लत के लावा को विस्फोटक मोड़ पर ला कर छोड़ दिया. अचानक पूरे देश से किसानों के दिल के दौरे पड़ने और आत्महत्या की वजह से मौत होने की खबरों का तांता सा लग गया.
विदर्भ,मराठवाड़ा,तेलंगाना,आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश,कर्णाटक के अलावा, राजस्था, हरियाणा,बृज,गंगा के मैदानों से भी किसानों की आत्महत्या की खबरें आनी शुरू हो गईं.
एक दोस्त की शादी के दौरान लातिलपुर में 24 घंटे से कम के प्रवास को छोड़ दें तो यह मेरी बुंदेलखंड की पहली यात्रा थी. 6 अप्रैल तक सूबे में मरने वाले किसानों की संख्या 100 के पार पहुंच चुकी थी. इसमें से 62 किसान बुन्देलखंड से थे.
अब ये आंकड़ा 250 के पार पहुंच चुका है जिसमें से अकेले बुंदेलखंड में 158 किसान मारे जा चुके हैं.
भारतीय रेल के नागरिक…..
कोटा से मुझे बीना होते हुए झांसी का सफ़र तय करना था. वहां से अगले चरण में जालौन जाना था जहां किसान आत्महत्या के सबसे अधिक केस थे. कोटा से बीना की यात्रा के दौरान मेरे सामने एक दिलचस्प वाकया पेश आया.
जनरल डब्बे में आपके पास नींद लेने के बहुत विकल्प नहीं होते हैं, अगर आप किस्मत से ऊपर की सीट कब्जाने में कामयाब नहीं हो पाए हों. क्योंकि भोपाल-कोटा पेशेंजर कोटा से ही बन कर चलती है इसलिए खिड़की की सीट पर कब्ज़ा जमाने के कामयाब रहा था.
रात को लगभग एक बजा होगा. ट्रेन गुना स्टेशन पर रुकी. नींद आ नहीं रही थी, ऊपर से सामान की चिंता अलग से थी. मैने चाय पीने की गरज से नीचे उतरने की सोची. गेट के पास पहुंचा तो देखा एक आदमी शौचालय और गेट के बीच बनी गैलरी में लम्बा पसरा हुआ है. किसी भी तरह से उसे लांघ कर गेट तक पहुंचना संभव नहीं था.
खिचड़ी बाल,बढ़ी दाढ़ी,मैले-कुचैले कपड़े उम्र 55 से कम तो क्या रही होगी. चाय पीने की तलब थी सो काफी सोचने के बाद उसे उठाया. डर ये था कि कहीं ट्रेन रवाना ना हो जाए. वैसे गुना बड़ा स्टेशन था ट्रेन का 5 मिनट से ज्यादा रुकना लाजमी था. मैंने उसे हिलाया वो इस झटके के साथ उठा मानों ऊपर से कोई बम गिर गया हो.
मुझे किसी को नींद से उठाना हमेशा से एक किस्म की अश्लील हरकत लगती है. क्योंकि मुझे खुद का नींद से उठाया जाना कभी बर्दाश्त नहीं हुआ. इसी अपराधबोध में मैंने गैलरी में लेटे पड़े उस आदमी से चाय के लिए पूछ लिया. उसने 'हाँ'के अंदाज में सिर हिलाया. मैंने एक चाय उसे भी ला कर दी. इसके बाद उसने पूछा, 'कुछ खाने को है?'मैं पास ही खड़े ठेले तक गया और उसे एक पैकेट पार्ले-जी ला कर दे दिया.
उसके बिस्किट थमाने के साथ ही ट्रेन ने हॉर्न दे दिया. वो झटके से नीचे उतर गया. उसने चाय और बिस्किट पकडे हुए हाथों से एक किस्म के नमस्कार की मुद्रा बनाई. उसकी आंखे धन्यवाद ज्ञापित कर रहीं थी. इस बीच ट्रेन ने हलका सा झटका खाया और धीमी गति में चल पड़ी. वो ट्रेन की गति की विपरीत दिशा में जाने लगा. थोड़ी दूर जा कर उसने मुड़ कर देखा. मैं अब भी गेट पर खड़ा उसे देख रहा था. उसने बिस्किट के पैकेट वाले हाथ को उठाया और हवा में लहरा दिया. ट्रेन की अब गति पकड़ती जा रही थी. मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक वो प्लेटफार्म के अंतिम छोर के अंधेरे में गुम नहीं हो गया.
मैंने बंद कमरें में भूपेन हजारिका का गाया हुआ 'हाँ आवारा हूँ…"सैंकड़ों बार सुना है. आवारगी मेरे खयाल में दुनिया का सबसे खूबसूरत काम है. गाने की शुरुवात से पहले बांग्ला से हिंदी के तर्जुमाकार गुलजार कहते हैं, 'आवारा कहीं का, या आवारा कहीं का नहीं.'मैंने इस वाक्य को हजारों बार दोहराया है. इस घटना के बाद मुझे पहली बार महसूस हुआ कि बिना मंजील के भटकते रहा कई स्थितियों में खूबसूरत काम नहीं होता है.
भारतीय रेल उन लाखों लोगों का अघोषित देश है जो लगातार सालों से भटक रहे हैं. प्लेटफार्म पर सो रहे हैं. हर रात इनका सफ़र एक पैकेट बिस्किट, यात्रियों के बचे हुए खाने या पेंट्रीकार्ट के कर्मचारियों की उदारता पर खत्म होता है. ये भारतीय रेल के नागरिक हैं. शेष भारत में इनकी नागरिकता निलंबित कर दी गई है. जब इनकी लाश प्लेटफार्म के किसी कोने, ट्रेन की बोगी या पटरियों पर मिलती है,तो रेलवे पुलिस गुमनाम शख्स के तौर इसे अपने रिकॉर्ड में दर्ज कर लेती है.
या इलाही ये मांजरा क्या है ?
कोटा से बीना, झांसी होते हुए मैं शाम 5 बजे उरई पहुंचा. बुंदेलखंड के जालौन जिले में सबसे ज्यदा किसानों के मारे जाने की खबर थी. कहने को उरई महज एक तहसील है लेकिन जालौन जिले का मुख्यालय यहीं पर हैं . जिले का प्रशासन यहीं से संचालित होता है. बस स्टॉप से बाहर निकलते ही मैं किताबघर पर रुक गया. स्थानीय अखबारों में हो रहा कवरेज काफी हद तक मददगार साबित होता आया है. तीन राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करणों ने एक दिन में 9 किसानों के आत्महत्या करने की खबर को पहले पन्ने पर छापा था. हमीरपुर, बांदा, उरई, महोबा में 3 किसानों के आत्महत्या करने की खबर थी, वहीँ 6 किसान सदमे का शिकार हुए थे.
अखबार के अंदर के पन्ने में सूबे की फतेहपुर सीट से सांसद और खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री निरंजन ज्योति का बयान छपा था. यह बयान आपकी वैज्ञानिक चेतना को सम्पूर्णता में ध्वस्त करता है. मथुरा में बांकेबिहारी के दर्शन करने के बाद साध्वी जी को दिव्य ज्ञान की प्राति हुई. उन्होंने बाहर आ कर पत्रकारों को प्रवचन दिया-
'जिस प्रकार देश में कन्या भ्रूणहत्या, गौहत्या और बलात्कार जैसे घृणित अपराध हो रहे हैं, उसके चलते ये आपदा आ रही हैं.'
फरवरी से अप्रैल के बीच हर साल देश में पश्चिमी विक्षोभ आते हैं. भूमध्य सागर और कैस्पियन सागर से नमी ले कर चलने वाली तेज हवाएं सर्दी के मौसम में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बारिश और ओलावृष्टि का सबब बनती हैं. हर साल इनकी तादाद एक महीने में दो या तीन रहती है. इस बार हमारे खेतों ने दस दिन में बीस विक्षोभों का सामना किया है. इतनी बड़ी तादाद में आए पश्चिमी विक्षोभों ने मौसम और पर्यावरण के जानकारों की चिंता को बढ़ा दिया है. आखिर जलवायु परिवर्तन के लिहाज से इस मसले को गंभीरता से लिया जाना जरुरी है. लेकिन साध्वी जी की अपनी व्याख्या है और आप इसे चुनौती नहीं दे सकते.
बहरहाल कहानी यहीं खत्म नहीं होती. होटल में पहुंच कर टीवी खोला तो सूबे के मुख्य सचिव अलोक रंजन की प्रेस वार्ता दिखाई जा रही थी. मुख्य सचिव महोदय का कहना था कि अब तक सूबे में 35 लोगों के मारे जाने की खबर है. उन्होंने साफ-साफ़ कहा कि अब तक किसी भी किसान के फसल खराबे की वजह से मारे जाने की जानकारी नहीं है और इस मामले में जिलाधिकारी को जांच के आदेश दे दिए गए हैं. दिल्ली लौटने के बाद जब मैंने सन्दर्भ के लिए रंजन के बयान को गूगल किया तो ज़ी न्यूज और एनडीटीवी की वेबसाईट पर लिखा था कि राज्य में 35 किसानों के मारे जाने की बाट स्वीकारी गई है. मुख्यधारा का मीडिया के पास सलेक्टिव बहरेपन की शक्ति मौजूद है. जिनका जिक्र रंजन साहब कर रहे थे वो लोग वर्षा जनित हादसों का शिकार हुए थे.
7 अप्रैल को मेरठ सहित उत्तर प्रदेश के तीन क्षेत्रों का दौरा करने के बाद केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि सभी जगह किसान फसलों के चौपट होने से दु:खी हैं. गेंहू की फसल तो पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है, लेकिन मैं किसानों से कहता हूं कि इससे निराश होने की जरुरत नही है. केन्द्र की सरकार किसानों की जितनी मदद कर सकती है, उतनी मदद आपकी करेगी. आप निराश मत हों. निश्चित रुप से किसानों को राहत मिलेग.
दिल्ली लौटने के बाद झांसी से पत्रकार साथी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के दौरे का लिंक शेयर किया. मई दिवस के दिन राजनाथ सिंह जी बांदा में किसानों के हालात का जायजा ले रहे थे. उन्होंने किसानों से साफ़ कह दिया कि कर्ज माफ़ करना हमारे बस की बात नहीं है. उन्होंने दो टूक कहा कि हम किसानों की आंखों में धूल नहीं झोंकना चाहते हैं, इसलिए साफ-साफ कह रहे हैं कि कर्ज माफ नहीं कर पाएंगे. इसकी वजह यह कि आज यदि उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ करेंगे तो कल बिहार-पंजाब में भी कर्ज माफ करना पड़ेगा, फिर पूरे देश में.
वित्त राज्य मंत्री जयंत सिंहा ने राज्य सभा में बताया कि 4.85 लाख करोड़ का कर उद्योग जगत पर बकाया है. वित्त राज्य मंत्री ने राज्य सभा दिए एक सवाल के लिखित जवाब में कहा, '28 फरवरी तक प्रत्यक्ष कर के अंतर्गत कॉर्पोरेट टैक्स के मद में कुल 3.20 लाख करोड़ रुपये का बताया है. 31 मार्च तक अप्रत्यक्ष कर के मद में लगभग 1.65 लाख करोड़ रुपये का बकाया था, जिसमें केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क और शुल्क शामिल है.
वर्ष 2014-15 में 62,398.6 करोड़ का कर उद्योग जगत से वसूला नहीं जा सका. यह पिछले साल के मुकबले 8 फीसदी ज्यादा है. पिछले साल यह आंकड़ा 57,793 करोड़ था. देश में 77 ऐसी कम्पनियाँ हैं जो 100 करोड़ से ज्यादा के टैक्स की देनदार हैं.
आप निरंजन ज्योति से जयंत सिंहा तक के सभी बयानों को पढ़ कर किस नतीजे पर पहुंचे? दरअसल किसी नतीजे पर पहुंचना संभव ही नहीं है. सबसे पहले साध्वी जी कहती हैं अगर इस देश में बलात्कार और गौहत्या खत्म हो जाए तो कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आएगी. मतलब किसानों को मुआवजे के आन्दोलन करने की बजाए अब गौहत्या रोकने के लिए आन्दोलन शुरू कर देने चाहिए क्योंकि पूरे फसाद की जड़ यही है.
केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री कहता है कि किसानों को चिंता करने की जरुरत नहीं है, मोदी सरकार उनके साथ हैं. महीने भर बाद गृहमंत्री आ कर बताता है कि हम आपकी आंख में धूल नहीं झोंकना चाहते दरअसल हमारे पास कर्जमाफ़ी के लिए पैसा नहीं है. जब गृहमंत्री यह बात कह रहा है होता है उसके दो दिन पहले वित्तराज्य मंत्री कहता है कि हमें 4.85 लाख करोड़ का टैक्स वसूलना है. इस बीच सूबे का मुख्य सचिव पहले ही बता चुका है कि नुक्सान 1100 करोड़ का हुआ है. और एक भी किसान नहीं मारा है.
तो आखिर ये लोग चाहते क्या हैं? प्रधानसेवक जी अपने चुनावी भाषणों में कहते थे कि हम भूमिपुत्रों को मरने नहीं देंगे. यह वास्तव में बयान का आधा हिस्सा हिस्सा था. आधा हिस्सा जो कहा नहीं गया वो कुछ इस तरह से है, 'हम बस यह सुनिश्चित करेंगे कि किसान के पास मरने के अलावा कोई विकल्प ना बचे.'
किससे जा कर कहें? कोई सुनने वाला है नहीं …..
उरई में मुझे स्थानीय पत्रकार ने जिलाधिकारी जांच की वो रिपोर्ट ला कर दी जिसका जिक्र मुख्य सचिव घंटे भर पहले टीवी पर कर रहे थे. रिपोर्ट के मजमून में लिखा हुआ था कि जिलाधिकारी के नेतृत्व में बनी कमिटी ने हर मृत्यु प्रकरण की स्थलीय जांच करने के बाद बाद गंभीरता से विचार कर नतीजे हासिल किए हैं. मैंने इसी रिपोर्ट को क्रॉस चेक करने का फैसला किया.
जालौन जिले की उरई तहसील का गांव करमेर . भगवानदीन(सरकारी रिकॉर्ड में भगवानदास) आधे बीघे के काश्तकार हैं. वो साल भर पहले तक दो बीघे के मालिक हुआ करते थे. पोती की शादी के खातिर लिए गए कर्ज को पाटने के लिए उन्हें अपनी डेढ़ बीघा जमीन 1.25 लाख में बेच दी थी. सीमान्त किसान किस प्रक्रिया से भूमिहीन बनता है इसको समझाना मुश्किल नहीं है उन्होंने 6 बीघा जमीन 5500 सौ रूपए प्रतिबीघा की दर से लीज पर ली थी. स्थानीय भाषा में इसे बलकट कहा जाता है.
बुंदेलखंड में 1.76 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर 2.33 करोड़ किसानों का परिवार पल रहा है. इसमें से 1.85 करोड़ किसान सीमान्त की श्रेणी में आते हैं जिनके पास एक हैक्टेयर भूमि की मिल्कियत भी नहीं है. इन सीमान्त किसानों के लिए जिन्दगी गुजारने के लिए बलकट पर खेती करना एक किस्म की मजबूरी बन चुका है.
15 तारीख को हुई ओलावृष्टि के बाद खेत देखने गए भगवानदीन ने सदमें की वजह से दम तोड़ दिया. उनके भाई घटना को याद करते हुए कहते हैं-
'सुबह के सात-आठ बजे का वक्त रहा होगा. चार दिन पहले ही बारिश हुई थी. सब चौपट हो गया था. भाई खेत में गए तो बर्बादी उनसे बर्दाश्त नहीं हुई. वहीँ बैठ गए. सीने में जोर से दर्द होने की शिकायत की. खेत से लोगों ने हमें आकर खबर दी. मैं पहुंचा और उन्हें घर लेजाने लगा तो कहने लगे एक कदम भी चल नहीं पाएंगे. इसके बाद दो लोग घर से दौड़ कर खाट ले कर आए. उस पर लिटा कर घर ले कर आए. बस यहीं उन्होंने प्राण त्याग दिए.
वो कह ही रहे थे कि पास ही बैठी अधेड़ महिला ने भगवानदीन के घर के बाहर लगे नीम की तरफ इशारा कर के बताने लगीं , 'इसी नीम के पास ला कर लेटा दिया था इन लोगो ने. मैं भैंस का सानी-पानी कर रही थी. बड़ी जोर-जोर से चिल्ला रहे थे बहुत दरद हो रहा है. हमने कहा कि अस्पताल ले जाओ पर अस्पताल कहाँ पहुंचाते दस मिनट में मिट्टी हो गए.'
भगवानदीन के भाई ने बताया कि उनका भतीजा मजदूरी के लिए उरई गया हुआ था. इसलिए पोस्टमार्टम नहीं हो सका. जब मैं भगवानदीन के घर पर बैठ कर उनकी मौत के प्रकरण को दर्ज कर रहा हूँ उस समय भगवानदीं का बेटा उरई में दिहाड़ी मजदूरी कर रहा है.
सरकारी रिपोर्ट कहती है कि भगवानदीन सांस की बिमारी की वजह से मौत का शिकार हुए. उन्होंने पूरे कुनबे की जमीन को उनके खाते में लिख दिया है. हालांकि फिर भी यह आंकड़ा 1 हैक्टेयर के पार नहीं जा पाया. आर्थिक स्थिति के कॉलम में 'ठीक है'बैठा दिया गया है. भगवानदीन बुन्देलखंड के 1.85 करोड़ सीमान्त किसानों में से एक है. ये परिवार उस लक्ष्मण रेखा के नीचे है जिसे अर्थशास्त्री बीपीएल कहते हैं. अब कोई भी ठीक दिमाग का आदमी इस परिवार की आर्थिक स्थिति को ठीक कैसे करार दे सकता है?
मैं चलने को होता हूँ कि भगवानदीन के भाई मेरे साथ उठ खड़े होते हैं. उनके हाथ जुड़ जाते हैं. वो कहते है, 'क्या बताएं साहब बस मरना ही हमारे पल्ले है. इतना कष्ट हम लोग भोग रहे हैं पर किसे जा कर कह दें? कई सुनने वाला है नहीं.'
मोटरसाइकिल की पिछली सीट से मैं एक बार भगवानदीन के घर की तरफ नजर घुमाता हूँ. दरवाजे के किनारे टंगा आँखों का एक जोड़ा गली के अंत तक मेरा पीछा करता है. शायद ये भगवानदीन की छोटी पोती होगी जिसकी शादी इस साल होने वाली थी…..
सामाजिक न्याय का मोतियाबिंद….
दोपहर के 1 बज रहे हैं. उरई तहसील का गांव बम्हौरी कला. इस क्षेत्र में घूमने के दौरान मेरी दो नामों से बार-बार मुठभेड़ होती रही है. बम्हौरी और चमारी. बम्हौरी मतलब सवर्णों का गांव और चमारी मतलब दलित बस्तियां. मैं जैसे ही बम्हौरी के अंदर जाने वाली सड़क पर मुड़ता हूँ मुझे फर्क नजर आ जाता है. दो तल्ले का इंटर कॉलेज. पानी सप्लाई की टंकी. टूटी सकड़ जिससे मैं रास्ते भर परेशान रहा यहां मुड़ते ही राष्ट्रीय राजमार्ग का रूप ले लेती है. पक्के मकान. साफ़ पोखर. गांव वालों से बात करने पर पता चलता है कि मुख्यमंत्री ने साल भर पहले इस गांव का दौरा किया था.
मैं गांव के बीच बने मंदिर के बाहर रुकता हूँ. मुझे गोटीराम के घर का पता पूछना है. गांव का एक आदमी हमारी मोटरसाइकिल पर लद जाता है. हम एक संकरी सी गली के बाहर रुकते हैं. वो आदमी मुझे कहता है इस गली में गोटीराम का घर है. मेरे गोटीराम के घर तक छोड़ने के आग्रह को वो ख़ारिज कर देता है. 'आप चले जाइए मैं इधर नहीं जाता.'साथ में गए स्थानीय पत्रकार ने बताया कि यह ठाकुरों का गांव है. यहां के ठाकुरों का काफी 'रौला'है आसपास के क्षेत्र में.
फरवरी के महीने में जालौन राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में था. यहां एक दलित ने ठाकुरों के बराबर बैठ कर खाना खाने का दुस्साहस किया था. इसके चलते ठाकुरों की नाक कट गई. बदले में ठाकुरों ने अमर सिंह दोहरे नाम के दलित की नाक काट ली. पुलिस ने इस मामले को नाक पर लगी चोट करार दिया था. इसके कुछ दिनों बाद ही एक दलित को मल-मूत्र खिलाने की खबर ने फिर से सामाजिक न्याय के नारे पर खड़ी प्रदेश सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया था.
जब में उस संकरी गली को पार करके गोटीराम के घर पर पहुंचा तो वहां चार बच्चियों और एक 70 वर्षीय विकलांग वृद्ध के अलावा कोई नहीं था. बड़ा बेटा बलवान अपनी छोटी बहन और बीवी के साथ दूसरों के खेत में गेंहू काटने गया हुआ था . गोटीराम की पत्नी अपने छोटे बेटे के साथ मुआवजे के चक्कर में तहसील गई हुई थीं.
मेरे पहुंचने पर पड़ोस की महिला ने पास ही खड़ी आठ साल की लड़की को अंदर से बैठने के लिए खाट लाने के लिए कहा. बच्ची अंदर से जो खाट लाइ उसकी भौतिक स्थिति यह नहीं थी कि वो मेरा वजन संभाल सके. महिला ने बच्ची को 'अच्छी खाट'लाने के लिए कहा. बच्ची का जवाब था, 'सभी खाट तो टूटी हुई हैं.'इस पर मैंने महिला को कहा कि वो अपने घर से कोई कुर्सी दे दें. महिला का जवाब था हम लोग इनके छुए को हाथ नहीं लगाते. हमारी बिरादरी अलग है. पूछने पर पता चला कि पड़ोसी महिला कुम्हार बिरादरी की थीं. जबकि गोटीराम चमार.
गोटीराम के घर के दरवाजे पर खड़ा मैं सोच रहा था कि सामाजिक न्याय की जिस राजनीति की कसमें खाई जा उसका मुहाना कहाँ जा कर खुलता है? सवर्ण और अवर्ण के भीतर के तकरार को छोड़ दीजिए यहां पिछड़ा भी दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक समझाता है. इतना ही नहीं चमार मेहतर को खुद से नीचा समझाता और कुम्हार चमार से खुद को ऊँचा समझता है. ब्राह्मण और ठाकुरों के बीच उच्चता के लिए इसी किस्म का झगड़ा है. ब्रहामणों में अपनी उप-जातियों के बीच इसी किस्म की तकरार मौजूद है. हमारे बुद्धिजीवी जो सामाजिक न्याय के झंडाबदार है इस कोंट्राडिक्शन से वाकिफ नहीं हैं क्या? दरअसल वोटों के लिहाज से पिछड़ा और दलित मिला कर जो समीकरण तैयार होता है उससे सत्ता की चाबी बनती है. सत्ता अक्सर असल सवालों को किनारे लगा देती है. सलेक्टिव अँधापन अच्छा शब्द है….
और उसकी लाश दो घंटे तक लटकती रही……
पचास साल के गोटीराम एक भूमिहीन किसान हैं. वो हर साल बलकट पर भूमि ले कर जोतते हैं. इसके अलावा परिवार खेत में मजदूरी करता है. दो लड़कों और चार लड़कियों के पिता गोटीराम ने इस साल दस बीघा जमीन 5500 रूपए प्रति बीघा की दर से लीज पर ली थी. साल भर पहले अपनी सबसे बड़ी बेटी की उन्होंने शादी की थी. इसके लिए उन्होंने स्थानीय महाजन से 60 हजार रूपए 10 प्रतिशत प्रति माह की दर से उधार लिए थे. अब यह रकम 1.5 लाख रूपए के लगभग पहुंच चुकी है.
गोटीराम ने 8 मार्च को अपने घर के बाहरी कमरे में फांसी लग कर आत्महत्या कर ली. जिसे मैं गोटीराम का घर कह रहा हूँ वो एक कमरे, दालान और खुली रसोई का मिट्टी और खपरेल से बना हुआ ढांचा है. दलान में तीन टूटी खाट हैं. एक तेल की चिमनी और दूध का डब्बा लटका हुआ है. डब्बे में बकरी का दूध होगा क्योंकि बाहर एक बकरी का छोटा बच्चा बंधा हुआ है. गोटीराम की 10 और 8 साल की दो बेटियां अपनी 1 और 3 साल की विकलांग भतीजी का ध्यान रखने के लिए घर पर छोड़ दी गई हैं.
गोटीराम के पुत्र बलवान पूरी घटना को इस तरह से बयान करते हैं-
'आठ मार्च की बात है. मेरी मां और मैं उरई गए हुए थे. मजदूरी के लिए. पिता जी दोपहर को खेत से लौटे. इसके बाहर के कमरे में खुद को बंद कर लिया. मैं घर पर था नहीं. शाम को घर वालों ने चाय के लिए दरवाजा बजाया. अंदर से कोई जवाब नहीं आया. तब जा कर दरवाजा तोड़ा गया. अंदर बाबा की लाश गमछे से लटक रही थी. मैं सात बजे तक उरई से लौटा. रास्ते में ही हमें समाचार मिल गया था. घर पहुंचा तो बाबा की लाश वैसे ही लटकी हुई थी. '
पिता की लाश के दो घंटे लटकते रहने का कारण जानने की कोशिश की तो बलवान थोड़ा असहज हो गए. पहले कहा कि घर में सिर्फ औरते थीं सो उनकी हिम्मत नहीं पड़ी लाश उतारने की. जब मैंने कहा कि गांव में से कोई उतार देता तो बलवान का जवाब था, 'कोई हमारी बिरादरी की लाश को क्यों छुएगा?'
बलवान की छोटी 8 साल की छोटी बहन सुमन बीच में कहती है, 'जब से बाबा मरे हैं तब से उस कमरे में नहीं जाती. भीतर जाने से डर लगता है.'
बलवान आगे बताते हैं कि उनके पिता की मृत्यु शाम को 5 बजे के लगभग हुई थी. पुलिस उनके घर दूसरे दिन सुबह 9 बजे पहुंच पाई. बम्हौरी से नजदीकी पुलिस स्टेशन की दूरी 6 किलोमीटर है. इस दूरी को तय करने में पुलिस को 15 घंटे का समय मिल गया.
सरकारी जांच दल ने अपनी रिपोर्ट में बलकट भूमि के कॉलम में 'नहीं'शब्द को सभी 27 जांचों में कॉपी-पेस्ट कर दिया है. जबकि मैं बलवान के साथ उनके उस खेत पर जा कर आया जिसे उसने बलकट के रूप में लिया था.
जमींदारी उन्मूलन कानून की धारा 229 बी के अनुसार जमीन को खेती के लिए लीज पर देना और लेना कानूनी जुर्म है. अगर कोई किसान निश्चित समय अवधी तक किसी भूमि को जोतता आया हो तो वो उसकी मिल्कियत हो जाएगी. यह कानून बटाईदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए बनाया गया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बुंदेलखंड में 40 फीसदी से ज्यादा किसान बलकट पर भूमि लेते हैं. इन पेचीदगियों के चलते जांच दल ने इस कॉलम में 'नहीं'चस्पा कर दिया. अब सवाल यह है कि इस कॉलम से जांच रिपोर्ट की शोभा और अविश्वसनीयता को बढ़ाए जाने की मजबूरी क्या थी? बहरहाल सरकारी जांच दल ने बड़ी गंभीरता से जांच करने के बाद पाया कि गोटीराम ने पारिवारिक कलह की वजह से जान दी.
बातचीत खत्म और चाय आने के बीच के समय में बलवान अपने कुत्ते को सहलाने में व्यस्त था. मैं अपने सामान बैग में तह कर रहा था. इतने में बलवान मेरी तरफ मुड़ा. 'ये हमारा कुत्ता है साहब. यह रात भर बाबा की लाश के पास बैठा रहा. सात दिन तक खाना नहीं खाया. ये जानवर है साहब. आप सोचिए हमारा क्या हाल रहा होगा?'
मैं उरई लौट रहा हूँ. शाम हो चुकी है. बिल्कुल बगल से एक स्कार्पियो सनसनसनाती हुई गुजर गई. गाडी पर कोई नंबर प्लेट नहीं है. हालांकि पिछले सीसे पर नेता जी का फोटो मय साईकिल चस्पा हुआ है. मैंने कान में इयरफोन लगा रहे थे. हिरावल गोरख को गा रहा था-
'हाथी से आई, घोड़ा से आई
अंग्रेज बाजा बजाई…
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई
समाजवाज उनके धीरे-धीरे आई '
पिछली दो किश्तें –
सुसाइड नोट : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच….