अमर्त्य सेन की देवी और इच्छाओं का अश्व
Author: शालिनी जोशी Edition : February 2014
अमर्त्य सेन ने अपनी बात दिलचस्प अंदाज में रखी कि कैसे उन्हें 'गॉड ऑफ मीडियम थिंग्स'या मध्यममार्ग की देवी मिली और उन्होंने उससे भारत के लिए सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग वरदान मांगा। अमर्त्य सेन की ये इच्छाएं जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़े एक बुजुर्ग की नसीहत सरीखी हैं जिसकी अब एकमात्र इच्छा संभवत: यही है कि उसके परिवार के सदस्य मिलजुलकर खुशहाल जिंदगी जिएं। उसकी ये इच्छाएं यथार्थ से दूर हैं, आदर्शवादी हैं, असंभव जान पड़ती हैं लेकिन उसमें वर्तमान की सच्चाइयों और चुनौतियों को देखा जा सकता है।
पहले दिन उन्होंने देवी से कहा कि भारत में भाषा, साहित्य, संगीत और कला जैसी शास्त्रीय शिक्षाओं की घोर उपेक्षा क्यों की जाती है जबकि शिक्षा व्यवस्था और दैनिक जीवन में इनकी भूमिका का विस्तार होना चाहिए क्योंकि इन्हीं से संतुलन आएगा। इससे कौन सहमत नहीं होगा। इंजीनियरिंग,कंप्यूटर प्रौद्योगिकी,चिकित्सा, विज्ञान और प्रबंधन- कथित रूप से आसानी से नौकरी दिलानेवाले यही पेशेवर विषय हमारे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में हावी हैं। मानविकी को गंभीरता से नहीं लिया जाता और समाज में इनके प्रति हेय और बेचारगी की दृष्टि है जो चिंताजनक है। मानविकी से जुड़े छात्रों और प्राध्यापकों, दोनों के ही स्तर औसत और अधिकांशत: दोयम दर्जे के हैं। कुछ समय पहले किए गए नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में डिग्री लेने वाले 10 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने योग्य होता है। (पर्सपेक्टिव 2020) शिक्षा के निजीकरण के दौर में पिछले 16 सालों में 69 नये निजी विश्वविद्यालय खुले हैं लेकिन गिनती के ऐसे संस्थानों को छोड़कर निजी विश्वविद्यालयों में साहित्य, राजनीति शास्त्र या इतिहास की ही पढ़ाई नहीं होती है तो कला, साहित्य और संगीत तो दूर की कौड़ी है। जहां होती भी है वहां इन विषयों को पढऩेवाले छात्रों की संख्या काफी कम है। मानविकी और समाज विज्ञानों के प्रति भेदभाव की ये प्रवृत्ति सिर्फ उच्च शिक्षा में नहीं है इसकी नींव तभी रख दी जाती है जब 10वीं के बाद छात्रों को ऐच्छिक विषयों का चयन करने का अवसर मिलता है। प्राइवेट (जिन्हें बेहतर माना जाता है) स्कूलों में मानविकी और शास्त्रीय कलाओं के विभाग ही नहीं होते हैं और चाहकर भी छात्र इन विषयों को नहीं पढ़ पाते हैं। उनके सामने दो ही विकल्प होते हैं विज्ञान पढ़ें या फिर कॉमर्स।
अमर्त्य सेन की शास्त्रीय कलाओं और मानविकी को बढ़ावा देने की ये इच्छा अल्बर्ट आइंस्टीन के उस वक्तव्य की याद दिलाती है जो उन्होंने अपने मशहूर आलेख 'व्हाइ सोशलिज्म' में दिया था।
'पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि वह व्यक्ति को मानसिक दृष्टि से अक्षम और विकलांग बना देता है (क्रिपलिंग ऑफ इंडीविजुअल्स)। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली छात्रों में अतिवादी प्रतियोगिता के बीज बोती है। उन्हें सिर्फ इसका प्रशिक्षण दिया जाता है कि सफलता अर्जित करके कैसे वे भावी कैरियर की तैयारी कर सकते हैं। '
'मुझे पूरा विश्वास है कि एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना में ही इसका समाधान है। एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का गठन किया जाए जिसके सामाजिक मूल्य हों। एक व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ उसकी क्षमताओं को ही बढ़ावा देना नहीं है बल्कि एक नागरिक के तौर पर उसमें अपने पड़ोस और समाज के प्रति दायित्वबोध विकसित करना है। '
'शिक्षण व्यवस्था को सफलता और ताकत के महिमामंडन की बजाय व्यक्ति में सामाजिक जवाबदेही की भावना भरनी चाहिए। '
अमर्त्य सेन ने देवी से दूसरा वरदान यह मांगा कि भारत में एक मजबूत दक्षिणपंथी पार्टी हो जो सांप्रदायिक न होकर धर्मनिरपेक्ष हो। क्या यह संभव है। अमर्त्य सेन का यह कहना एक कंफ्यूजन भी पैदा करता है। क्या एक दक्षिणपंथी धर्मनिरपेक्ष हो सकता है या एक धर्मनिरपेक्ष दल दक्षिणपंथी हो सकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से दो परस्पर विरोधी धुरों को एक दूसरे का पूरक बनाने और उनकी कथित अच्छाइयों के विलय की बात एक तरह से ऐतिहासिक और राजनैतिक तथ्यों को भी अनदेखा करना है। जर्मनी हो या ब्रिटेन या फिर भारत- दक्षिणपंथी राजनैतिक दल जिस बहुसंख्यकवाद का पोषण करते हैं उसमें अल्पसंख्यक, धार्मिक हो या सामुदायिक वह हमेशा आशंका और हाशिये में रहता है। आखिर एक दक्षिणपंथी पार्टी की विचारधारा कैसे लोकप्रियता हासिल करती है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और महेंद्रा ह्यूमैनिटीज केंद्र के निदेशक होमी के भाभा कहते हैं कि, 'जनता दक्षिणपंथ की लोकलुभावन और प्रभावशाली दिखनेवाली असहिष्णुता से तब प्रभावित होती है जब लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु परंपराओं को पोषित करनेवाली ताकतों का ह्रास होता है और लोगों में इससे असंतोष पैदा होता है।'(इंटरव्यू, आउटलुक, जनवरी 2014)
भारत में इस समय राजनैतिक दलों के अनुशासन, पहचान और तौर-तरीकों को लेकर एक संकट की सी स्थिति दिखती है। बीजेपी अपनी पूर्वाग्रही और कट्टर सांप्रदायिक छवि से मुक्ति पाने के लिए कॉस्मेटिक हथकंडे अपना रही है तो कांग्रेस एक राष्ट्रवादी नायक की तलाश में है और इस कोशिश में कभी वह बीजेपी की नकल करती प्रतीत होती है तो कभी आप से सबक लेते हुए 'ओपन मैनिफेस्टो'की बात करती है। अमर्त्य सेन की यह इच्छा भी संभवत: इसी प्रक्रिया से प्रेरित है। क्या बीजेपी को उनकी यह सलाह है कि अपनी फासीवादी छवि तोड़कर 'इंक्लूसिव'चोला पहन लेने से काम बन जाएगा। क्या ऐसे नरेंद्र मोदी उन्हें स्वीकार्य होंगे या फिर यह कि नरेंद्र मोदी के एक कांग्रेसी संस्करण की जरूरत है।
उनकी तीसरी इच्छा है कि भारत में लेफ्ट पार्टियां ज्यादा मजबूत हों लेकिन एकदम साफ हों कि उनकी रीति-नीति क्या हो। वह प्रतिबद्धता से साम्राज्यवाद का विरोध करें और इसका प्रयास करें कि गरीब और वंचितों की समस्याएं कैसे दूर हों। वामपंथ के तमाम असमंजस और अंतर्विरोध के बावजूद अमर्त्य सेन के ऐसा कहने से यह ध्वनि आती है कि सत्ता में कथित मजबूत धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथ आए और वामपंथ सिर्फ विपक्ष और विचार के स्तर पर और दबाव समूह के तौर पर ही सीमित रहे।
देवी से चौथा वरदान उन्होंने मीडिया के बारे में मांगा कि मीडिया और जिम्मेदार हो। मनोरंजन, बिजनेस, अवसरवाद, सब्सिडी के अलावा गरीबों की बात करे। मध्यममार्ग का उपदेश देनेवाली अमर्त्य सेन की देवी इस बात से अवगत होगी कि कॉरपोरेट मीडिया और सत्ता राजनीति के गठजोड़ के इस दौर में यह सच्चाई से मुंह मोडऩेवाली एक विरोधाभासी इच्छा है। सैकड़ों चैनलों और हजारों अखबारों से 'संपन्न'इस देश में मीडिया के मालिकों के छोटे-बड़े स्वार्थों से अब कोई भी अपरिचित नहीं रहा है। समाचार और विचार लगातार मैनिपुलेट किए जा रहे हैं और पक्ष-विपक्ष में एक छद्म वातावरण बनाया जा रहा है। एक उदाहरण के लिए, इस समय एनडीटीवी सहित सभी नामी चैनलों पर करोड़ों रुपए देकर उत्तराखंड सरकार की डॉक्युमेंट्री चलवाई जा रही है जिसमें आपदा के बाद सरकार के राहत और बचाव का प्रोपेगंडा है। स्क्रीन पर एक कोने में विज्ञापन लिखा हुआ जरूर आता है लेकिन सिर्फ एक सजग दर्शक ही इसकी पहचान कर पाएगा कि यह प्रचार है या रिपोर्ट है। यही एनडीटीवी कभी वेदांता के साथ मिलकर कन्या बचाओ अभियान चलाता है तो कभी बाघ बचाने का उपक्रम रचता है और उधर सरकारों की मनमानी और वेदांता और पॉस्को जैसी कंपनियों का खेल जारी रहता है।
इसी तरह से जयपुर शहर के चौराहों पर इन दिनों 'ईटीवी'का विशाल बोर्ड लगा है जिसमें वसुंधरा हाथ जोड़े दिखती हैं और लिखा है 'वेलकम बैक'। क्या यह समाचार चैनल है या सरकार का प्रचार निदेशालय। सभी प्रमुख अखबारों के पहले पृष्ठ वाहन, अपार्टमेंट, कोका-कोला, टूथ पेस्ट और साबुन तेल के विज्ञापनों के सुपुर्द हो चुके हैं। द हिंदू अब तक अपवाद था लेकिन उसका संयम भी जवाब दे गया लगता है। ऐसे विज्ञापनों के बाद मीडिया से किस प्रतिबद्धता की उम्मीद रह जाती है। किसी भी अन्य पूंजीवादी उपक्रम की तरह मीडिया भी अब हर तरह से कम से कम लागत में अधिक से अधिक पैसा कमाने का उपक्रम और होड़ का मैदान बन चुका है। इसलिए जब अमर्त्य सेन ये कहते हैं कि, 'बुद्धिजीवी लोग मीडिया को चलाते हैं और मीडिया अपनी ताकत को कम आंकता है'या जब वह ये अपील करते हैं कि, 'मीडिया को बलात्कार और सेक्स ट्रैफिकिंग जैसे विषयों पर संवेदनशील होना चाहिए तो यह नतीजे और सलाहें नकली प्रतीत होती हैं। '
अमर्त्य सेन की पांचवी इच्छा है कि हर बच्चा अच्छे स्कूल में जाए, सबको चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो। महिलाओं की जिंदगी दुरूह न हो। उनका कहना है कि यह बहुत आसान है अगर देश अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल करे। दरअसल भारत के आर्थिक विकास का सामाजिक चेहरा इतना विडंबनापूर्ण है कि एक ओर अरबों रुपए की वेलनेस इंडस्ट्री तेजी से पांव फैला रही है तो दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है।
एक नजर डालते हैं 2013 के मानव विकास सूचकांक (खुद अमर्त्य सेन और पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक द्वारा विकसित) में 186 देशों के आकलन में भारत की स्थिति पर। भारत शर्मनाक रूप से 136वें स्थान पर है। इन दिनों मीडिया में छाए 'भारत निर्माण के प्रमाण'के सरकारी अभियान के आंकड़ों में यह दावा किया जा रहा है कि इस समय 6-14 साल की उम्र के 19.7 करोड़ बच्चे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का लाभ उठा रहे हैं। 2003-04 की तुलना में एनरॉलमेंट रेशियो में प्राइमरी में 17.7′ और मिडिल लेवल में 23′ बढ़ोत्तरी हुई है। सात लाख शिक्षकों के पद स्वीकृत हुए हैं और 30,888 प्राइमरी और 10,644 अपर प्राइमरी स्कूल के भवन बनाए गए हैं। दूसरी ओर मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2011 के अंतरिम आंकड़ों के अनुसार प्राथमिक शिक्षा यानी 1-5 साल की उम्र में 27 प्रतिशत बच्चे ड्रॉपआउट यानी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं, 1-8 साल की उम्र में 40 प्रतिशत तो 1-10 साल की उम्र के बीच के 49.3 प्रतिशत बच्चे दाखिला लेने के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं जिसकी एक बड़ी वजह है काम करने का दबाव। सबके लिए समान प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के मिलेनियम विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अब दो साल से भी कम का समय रह गया है और ये आंकड़े बयान करते हैं कि कैसे अभी भी हम बुनियादी शिक्षा के सवाल पर ही जूझ रहे हैं और ड्रॉपआउट रेट समान शिक्षा और सामाजिक न्याय के आड़े आ रहा है।
सबके लिए समान और सुविधाजनक स्वास्थ्य सेवाओं की आदर्शवादी इच्छा का यथार्थ यह है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार 28′ आबादी 66′ स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा रही है और बाकी के 72′ की पंहुच सिर्फ एक तिहाई सुविधाओं तक है। औसतन 65 प्रतिशत लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं जहां इलाज का खर्च 9 से 10 गुना ज्यादा होता है। (स्त्रोत: आईएमएस इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थकेयर इंफॉर्मेटिक्स)
अदालतों के कथित ढीले और रूढि़वादी नजरिये पर सवाल उठाते हुए अमर्त्य सेन ने अपनी छठी इच्छा जाहिर की: 'समलैंगिकता को अवैध माननेवाली धारा 377 को हाईकोर्ट ने पलट दिया फिर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया। क्या आप( देवी को संबोधित) रिवर्सल ऑफ रिवर्स को रिवर्स कर सकती हैं यानी क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट सकती हैं। 'भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के साथ-साथ और भी अनेक कानूनी विषय हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिए। अदालतों के कामकाज में पारदर्शिता लाने और उनकी भी जवाबदेही तय करने में जितनी देर होगी इस तरह के फैसलों के घाव बढ़ते जाएंगे।
अमर्त्य सेन की सातवीं और आखिरी इच्छा का संबंध उनके शब्दों में भारतीयों के डिफीटिज्म, उनके हताशावादी होने से है। उन्होंने देवी से अनुरोध किया कि वह भारतीयों को थोड़ा आशावादी होने में मदद करें। उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाया कि आजादी के बाद भारत में कोई बड़ा दुर्भिक्ष नहीं आया जिसका श्रेय भारत की प्रगति और क्षमता को जाता है। लेकिन उन्होंने भारत में स्त्रियों की स्थिति, बलात्कार की बढ़ती घटनाओं और विशेष तौर पर स्त्री पुरुष के अनुपात के असंतुलन पर चिंता जाहिर की।
2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं। बाल लिंग अनुपात में स्थिति और भी खराब है। 0-6 साल की उम्र के बच्चों के बीच प्रति हजार लड़कों में सिर्फ 914 लड़कियां हैं। सवाल यह है कि वे कौन सी घटनाएं हैं, कौन से बिंदु हैं जो भारतीयों को आशावादी बना सकते हैं। किस चीज में उम्मीद खोजें आम जन।
अंत में अमर्त्य सेन ने आम आदमी की एक नई और वंचितों के पक्ष में परिभाषा गढऩे की कोशिश की। यही बिंदु मानो उनकी पूरी कवायद का सबसे सार्थक बिंदु था। उन्होंने कहा कि, 'सस्ती बिजली और सस्ता पानी मांगनेवाला आम आदमी नहीं है। आम आदमी वह है जिसके पास बिजली नहीं है, पानी नहीं है, जो वंचित है और जो अभावों में जी रहा है। 'ऐसा कहकर उन्होंने आप की राजनीति को भी आईना दिखाया। उनकी इच्छाओं की सदाशयता पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इस अत्यंत कठिन राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं के वक्त में कुछ इधर से और कुछ उधर से ठीक करो वाला फलसफा कितना न्यायसंगत और व्यावहारिक होगा- यह विचारणीय है। फिर सेन के इस वरदान अभियान में भ्रष्ट नौकरशाही के बारे में कुछ भी नहीं है। अफसरशाही क्या वैसी निरंकुश और यथास्थितिवादी बनी रहे जैसी वह है।
आइंस्टीन ने अपने आलेख में कहा था कि, 'राजनैतिक और आर्थिक ताकत के इस धुर केंद्रीकरण में इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि कैसे नौकरशाही की अकूत ताकत पर अंकुश लगाया जाए और उसके समानांतर व्यक्ति विशेष के अधिकारों की रक्षा की जाए और अफसरशाही की शक्ति का लोकतांत्रिक तोड़ सुनिश्चित किया जाए। 'क्या ऐसा हो पा रहा है। क्या ऐसा होगा।
बहरहाल, अमर्त्य सेन के सपनों का यह भारत, उनका यह मध्यममार्गी आग्रह गौतम बुद्ध की वीणा के तारों और भीतर ही कहीं महात्मा गांधी के संयम और सादगी की भी याद दिलाता है जो हमारे जीवन के हर पक्ष से गायब हो चुका है। लेकिन सत्ता-प्रतिष्ठान और अभिजात समाज के बंद दरवाजों तक न तो कोई गुहार पहुंचती है और न ही कोई सलाह। आंदोलन जो हैं सो हैं। जेनुइन प्रतिरोधों की क्या जगह और क्या अहमियत हो सकती है इस पर भी अमर्त्य सेन कुछ नहीं बोले। क्या मध्यममार्ग की उनकी देवी संघर्ष की हिमायती नहीं हैं।