मृतकों के साथ कथोपकथन और हरबर्ट सरकार
धमाके कही भी ,कभी भी हो सकते हैं और कोई नहीं जानता धमाके कहां और कब होंगे
पलाश विश्वास
Herbert - Bangla movie Part 1 - YouTube
Nov 11, 2014 - Uploaded by Ashiqur Rahman
Herbert - Bangla movie Part 1 ... Sci-Fi Movies Full Length | Unbreakable Full Movie English | Action Movies ...
Herbert---First Part.wmv - YouTube
Sep 12, 2010 - Uploaded by Shibnath Khan
A Suman Mukhopadhyay's Film"Herbert" ... Ongko (2015) Orginal Dvdrip Bangla Full Movie Ft Dipjol ...
हरबर्ट सरकार के चेहरे पर मुझे मुकम्मल एक हिमालय चस्पां नजर आया।कल मैं उसके मुखातिब था जबकि उसके जनक हमारे नबारुण दा हमारे बीच नहीं हैं।कल हमने आनंद तेलतुंबड़े से लंबी बातचीत के सिलसिले में हर्बर्ट पर चर्चा की।
हम नीलाभ के चट्टानी संगीत वाला लेख धारावाहिक छापकर माध्यमों के बारे में नई बहस शुरु करने की कोशिश में ही थे और चाहते थे कि नीलाभ फिर से लिखें।अब सोशल मीडिया से जान रहा हूं कि नीलाभ पारिवारिक विवाद में बेहद उलझ गये हैंं।
हमारे लिए यह नया सरदर्द है,जबकि नीलाभ जैसे लेखक की दृष्टि की हमें इस वक्त सबसे ज्यादा जरुरत है।
मुनमुन सरकार अनूदित नवारुणदा का लिखा हरबर्ट जनसत्ता के सबरंग में धारावाहिक छपा था हमारे मित्रों अरविंद चतुर्वेद और कृपाशंकर चौबे के सौजन्य से।तब से हर्बट हमारे बेहद अंतरंग हैं।1997 में हरबर्ट के लिए साहित्यअकादमी पुरस्कार मिला नवारुण भट्टाचार्य को।
मृतकों के साथ कथोपकथन के बहाने राष्ट्र के आतंकवाद को बेपर्दा ही नहीं किया है नवारुणदा ने बल्कि श्मशानभट्टी में जलते हुए मृत हर्बर्ट ने जो धमाका कर दिखाया,वह शासकों के लिए बेहद असहज समस्या है।
हरबर्ट और कांगाल मालसाट जैसी फिल्में प्रेक्षागृह के लिए निषिद्ध हैं।
बंगाल मे हुए परिवर्तन के बाद महाश्वेता जी से एक बार भी मिलना नहीं हुआ है।उनसे बात हुई नहीं है।और कैंसर के शिकार नवारुण भट्टाचार्य हमारे अनजाने तिल तिलकर मर गये।
कांगाल मालसाट हमारे पास है लेकिन हरबर्ट हमारे पास नहीं है।
हरबर्ट और कांगाल मालसाट पर बनी फिल्मों के डीवीडी भी हमारे पास नहीं है।
आनंद ने ये फिल्में देखी नहीं हैं।
अब संजय जोशी और कस्तूरी से अनुरोध करुंगा कि प्रतिरोध के सिनेमा आंदोलन के तहत इन दोनों फिल्मों की स्क्रीनिंग बड़े पैमाने पर करें।
यह अजब संयोग है दूरदर्शन पर परसो हरबर्ट का कारनामा देखने को मिला,जिसके मद्देनजर व्हाइट हाउस और पेंटागन भी हिल गये कि कोई मृत व्यक्ति इतना बड़ा धमाका कर कैसे सकता है।
फिल्म हमने शुरुआत से आखिर तक देखी और प्रेम दर फ्रेम नवारुण दा जिस गुरिल्ला युद्ध की तैयारी करते हुए मिले ,उससे बाथरुम तक जाने का मौका नहीं मिला।ऐसा हैरतअंगेज है हरबर्ट सरकार का कारनामा।
नवारुणदा की मां महाश्वेतादेवी ने सत्तर के दशक पर सबसे ज्यादा लिखा है। लिखने वाले तो सुनील गंगोपाध्याय और समरेश मजुमदार ने भी लिखा है।लेकिन सत्तर के दशक के समर्थन में महाश्वेतादी की कलम जितनी मुखर रही है,उतनी और किसी की नहीं।नवारुण दा लेकिन सत्तर दशक को जारी रखने की गरज से लिखते रहे।
महाश्वेतादी की हजार चौरासवीं की मां पढ़ें और फिर नवारुण दा की हरबर्ट,फैताड़ु और कांगाल मालसाट।हजार चौरसवीं की मां पर भी फिल्म बनी है तो नवारुण दा की इन तीनों उपन्यासों पर नाटक और फिल्में।
हजार चौरासवीं की मां शासक तबके के एक हिस्से की निजी दिंदगी को स्पर्श करने करने की त्रासदी का मर्मस्पर्शी विवरण जितना है,उतना उस दशक के अंतःस्थल की अनुपस्थिति भी है,जिसमें मुक्तिकामी जनता की दिनचर्या शामिल है या नहीं,यह आप खुदै जांच लें।
नवारुण दा बंगाल और खासतौर पर कोलकाता के एक ऐसे परिवार से हैं,जिसका हर माध्यम में और समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय हस्तक्षेप रहा है और सत्ता तबके में उस परिवार की साख बेहद मजबूत है।
फिरभी नवारुण दा ने जो भी गद्यलिखा है,उसमें न तो शासक वर्ग का पक्ष है,न उसका शिल्प है और न उसकी भाषा है।
वह अंत्यजों के लिए अंत्यज तबके की कथा है उन्ही की भाषा और उन्ही के मुहावरों में।इसलिए शासक वर्ग के लिए नवारुण दा बहुत भारी सरदर्द के सबब रहे हैं।
वे सिर्फ समामाजिक यथार्थ की चीरफाड़ नहीं करते बल्कि इस सड़े गले समाज और राष्ट्र को आमूल चूल बदलने की जुगत लगाते रहते हैं।
लंपट फिल्मकार का बेटा हरबर्ट सरकार दो अलग अलग दुर्घटनाओं में मां और बाप को खो देने के बाद ढहते हुए साझा परिवार के ताने बाने में उलझा अनाथ है,जिसका भतीजा बिनू नक्सल आंदोलन में शामिल होता है।
बिनू और उसके साथियों के फर्जी एंकाउंटर के साथ शुरु होता है हरबर्ट सरकार का मृतकों के साथ कथोपकथन और युक्तिवादी प्रतिरोध के मुकाबले अपनी औकात दिखाने के लिए जब वह सुईसाइड करता है तो उसकी देह यकायाक डायनामाइट में तब्दील हो जाती है और अंतिम संस्कार के व्कतइतना बड़ा धमाका होता है कोलकाता से लेकर वाशिंगटन तक सत्ता वर्ग की चूलें हिल जाती है।
नवारुण दा ने आंदोलन और उसकी समामाजिक पृष्ठभूमि और सत्ता वर्ग के बहुआयामी चेहरे को बेनकाब करते हुए अंततः साबित कर दिया कि किसी की मौत भी बहुत भारी धमाके में तब्दील हो सकती है।
इसलिए हरबर्ट सरकार की आत्महत्या कोई किसानों और बेरोजगार युवाओं की आम खुदकशी जैसी बेमायने नहीं है।न मृतकों के साथ कथोपकथन कोई धार्मिक प्रपंच है।
हर्बर्ट सरकार के जरिये इस मृत्यु उपत्यका की मृतात्माओं को ही संबोधित किया है नवारुण दा ने ।
विचारधारा, यानी एक गिलास पानी
नवभारत टाइम्स| Dec 25, 2009, 11.59PM IST
नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रतिनिधि कवि और चर्चित बांग्ला उपन्यासकार नवारुण भट्टाचार्य का मानना है कि उनका राज्य अभी एक बड़े राजनीतिक बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। वामपंथी विचारधारा का विरोध नए वैचारिक परिवेश का मुख्य स्वर है, लेकिन वाममोर्चा सरकार के मुखर विरोध के बावजूद नवारुण खुद को वाम आस्था का अभिन्न अंग मानते हैं। उनके सामाजिक और लेखकीय सरोकारों पर चंद्रभूषण की बातचीत:
करीब तीन दशक बाद पश्चिम बंगाल में वामपंथी सत्ता का ढांचा चरमराता नजर आ रहा है। क्या इसका कोई सांस्कृतिक और वैचारिक पक्ष भी है?
राजनीतिक स्तर पर बड़े बदलाव की आहट मिल रही है। वर्चस्व के जाने-पहचाने सांचे नष्ट हो जाएंगे। यह कहने वाला मैं अकेला नहीं हूं। मुझ जैसों को तो वहां न मीडिया में जगह मिलती है, न कहीं और। नए परिदृश्य में हम जैसे लोग भी नजर आएंगे, ठीक उसी तरह, जैसे नंदीग्राम जनसंहार के बाद नजर आए थे। लेकिन यहां मैं यह रेखांकित करना चाहता हूं कि पश्चिमी बंगाल में जो लोग सीपीएम शासन का विरोध कर रहे हैं, वे सभी अनिवार्य रूप से दक्षिणपंथी नहीं हैं। व्यक्ति की ईमानदारी शांतिकाल में नहीं, युद्ध के समय परखी जाती है। मुझे यकीन है कि आने वाले वाम विरोधी सांस्कृतिक परिवेश में भी सच्चे संस्कृतिकर्मी अपने मूल्यों पर खरे उतरेंगे।
बीसवीं सदी में बंगाल को भारत का सांस्कृतिक प्रेरणा स्रोत माना जाता था। अभी पश्चिमी बंगाल और खासकर कोलकाता के सांस्कृतिक परिदृश्य के बारे में आपकी क्या राय है?
कोई बहुत अच्छी राय तो नहीं है। ग्लोबलाइजेशन के असर में बाकी देश की तरह पश्चिम बंगाल में भी संस्कृति को माल की तरह देखा जाने लगा है। टीवी पर परोसे जाने वाले डेली इंटरटेनमेंट प्रोग्राम कैंसरस ग्रोथ की तरह अपना असर दिखा रहे हैं। छोटे बच्चों की कहानियों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। और तो और, फास्ट फूड के असर में घरों से रसोई का चलन हट रहा है। ग्रामीण इलाकों में दृश्य कुछ अलग है, लेकिन वहां भी दिशा यही है। कोलकाता जैसे शहर में अड्डों की बहसें खत्म हो रही हैं। लालच और मूर्खता से भरे हुए व्यक्तिवादी प्रेतों का ही हर तरफ बोलबाला है।
एक लेखक के रूप में आप इससे क्या अर्थ ग्रहण करते हैं?
क्या कहूं, एक ऐसे समय में, जब कारखाने बंद हो रहे हैं, चाय बागानों में मजदूर भूखों मर रहे हैं, तब कवि और लेखक पता नहीं किस पर्सनल विक्ट्री के लिए अमूर्त भाषा में आपसी लड़ाई में उतरे हुए हैं। जब एक समाज मरता है तो कोई नहीं जीतता। हर कोई ज्यादा पैसे, ज्यादा पावर के पीछे पड़ा है। क्या मानव जाति का एकमात्र लक्ष्य अब मधु कोड़ा बनना ही रह गया है? मुझे ऐसा नहीं लगता, और मेरी लेखकीय दृष्टि का प्रस्थान बिंदु यही है। मैं हाशिये पर पड़े, या उसके भी बाहर फेंक दिए गए लोगों के बारे में लिखता हूं। ऐसे लोगों के बारे में, जिनकी किसी को परवाह नहीं है, जो दुर्घटनाओं या सामूहिक मौतों के शिकार होने के बाद ही चर्चा में आते हैं।
देश भर में उपन्यास और फिल्म, दोनों ही रूपों में सराहे गए हर्बर्ट के जरिए आपने साबित किया है कि उपेक्षित चरित्रों पर लिखकर भी सर्वोच्च रचनात्मकता का संधान किया जा सकता है। आगे के लिए आपकी योजना क्या है?
योजना तीन उपन्यासों पर काम करने की है, जिसमें दो साथ-साथ लिखे जाएंगे। नए प्रयोग मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं, हालांकि मैं कुछ भी लिखूं, हरबर्ट मेरे सामने हमेशा एक चुनौती की तरह खड़ा रहेगा। अभी कल मैं दिल्ली के एक मॉल में था, जहां केएफसी की तरह एक दुकान की नाम एसएफसी थी- सफदर फ्राइड चिकन। शहीद सफदर हाशमी के नाम के साथ जुड़े इस विद्रूप जैसी न जाने हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण चीजें हमारे इर्दगिर्द उभर रही हैं, जिनका क्रिएटिव ट्रीटमेंट जरूरी है।
आपकी पहचान नक्सलबाड़ी के कवि के रूप में रही है। उस गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता का हरबर्ट के गैर-वैचारिक परिवेश से कोई मेल नहीं बनता। दृष्टि की यह व्यापकता आपने किस तरह साधी?
विचारधारा जब आपके खून में चली जाती है तो इसे निभाने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। नारेबाजों के खेमे से मेरा कोई रिश्ता नहीं है, न ही गरीब-दुखी चरित्रों को ज्यों का त्यों उकेर देने से मेरा कोई प्रयोजन सधता है। एक लेखक के रूप में मैं जीवन के शाश्वत प्रश्नों से संबोधित होता हूं। दुनिया को संपूर्ण मनुष्य की नजर से देखता हूं और मनुष्यता की हर समस्या, उसके हर आनंद, उसके सभी रहस्यों को अपने दायरे में समाहित मानता हूं। मार्क्सवाद के अलावा मेरा गहरा लगाव महायान बुद्धिज्म से भी है, लेकिन विचारधारा का बोझ ढोने के बजाय उसका इस्तेमाल एक गिलास पानी की तरह करना मुझे ज्यादा अच्छा लगता है। एक सोवियत लेखक की पंक्ति दोहराना चाहता हूं- आई स्टैंड फॉर लेफ्टविंग आर्ट, बट नो फर्दर लेफ्ट दैन द हार्ट (मैं वामपंथी कला के पक्ष में हूं, लेकिन अपने दिल से ज्यादा बाएं जाना मुझे गवारा नहीं।)
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सारांश: | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश'हरबर्ट'मेरे मन-मस्तिष्क में लंबे समय से था। मूल विषय-वस्तु सुनिश्चित थी और कभी लगातार तो कभी उमड़ती-घुमड़ती-सी तो कभी तीव्रता से मुझे उद्वेलित करती आ रही थी। इसका रूप मेरे जेहन में आकार ले चुका था। फिर भी कवि मित्र और प्रभा के संपादक सुरजित घोष यदि जोर न डालते तो शायद कभी लिखा न जाता। और, जब लिखने बैठा तो एक अजीब काहिली थी मेरे भीतर। लेकिन विषय के प्रति इतना जबरदस्त खिंचाव और उसका दबाव था कि लगातार लिखता चला गया। किस अध्याय में क्या होगा, सब जैसे पहले से तय था और होता चला गया, पर आखिरी अध्याय के वक्त एक बारगी मैं थम गया फिर कुछ लिखा जो मुझे खुद ही नहीं जँचा और काफी खराब बना। नया कुछ सूझ भी नहीं रहा था। आखिर मैंने इसके बारे में दो-चार दिन के लिए सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर एक दिन अचानक बात बन गई और मैं लिख बैठा। इससे पहले मैंने कभी कोई बड़ा आख्यान नहीं लिखा। यह मेरा पहला उपन्यास है। उपन्यास लेखन की दृष्टि से नया अनुभव। विषय वस्तु के प्रति जिस खिंचाव और उसके दबाव की बात मैंने कही है। दरअसल उसका इन्वाल्वमेंट मुझे हरबर्ट के साथ ऐसी मनःस्थिति में ले गया था जो यातनापूर्ण ही कही जा सकती है। ऐसा प्रकाशन के लिए पांडुलिपि देते समय बहुत खराब लग रहा था। ऐसा होना ठीक नहीं है। बाद में एक व्यक्ति के आब्सेस्ड चरित्र को लेकर न लिखे की सलाब दी। बात तो सोचने लायक है, लेकिन किया क्या जा सकता है ? मैं एक हरबर्ट को जानता था। वह एक जमाने में मशहूर गुंडा था। और उससे जब मेरी मुलाकात हुई तब तक पक्का अफीमची बन चुका था। यह नाम उसी से लिया गया है। इस तरह भाँति-भाँति के हरबर्टों से मेरा साबका पड़ा है। उनके साथ मेरा काफी समय गुजरा है। उन्हीं से मुझे इस छूटे-छिटके, मड्ड समय का स्वर और मुखरता मिली। और जहाँ तक संरचना, ढाँचों और आकार का प्रश्न है, इस बारे में मैं हमेशा सचेत रहता हूँ। किसी समय मैंने तत्त्व विज्ञान का अध्ययन किया था। विज्ञान का छात्र रहा हूँ। सिमिट्री को लेकर मेरे भीतर एक आब्सेशन है। प्रकृति के भीतर कैसी सिमिट्री है। स्फटिक की निर्मिति मुझे विस्मित और अभिभूत करती है। दूसरे नाटक, और रंगमंच के लिए भी स्ट्रक्चर और सिमिट्री का महत्त्व देखा जा सकता है। सिमिट्री का महत्त्व संगीत में भी है। लिखते समय मैं इस सिमिट्री या स्वर संगीत और स्ट्रक्टर या संरचना को लेकर सुनिश्चित हो लेना चाहता हूँ। यह उपन्यास लिखते वक्त दुनिया में वामपंथ की दशा-दिशा चिंताजनक हो चुकी थी। एक वामपंक्षी व्यक्ति और लेखक के बतौर यह दुसमय मेरे लिए बहुत ही पीड़ा-जनक और आघात पहुँचाने वाला रहा है। देखते ही देखते समाजवाद इतिहास हो जाएगा, व्यर्थ और हास्यास्पद बताते हुए इसका परित्याग किया जाएगा और अमेरिका में जो डेमो रिपब्लिकन फासीवाद चल रहा है। उसकी वकालत करने वाले कुछ बुद्धिजीवी इतिहास और विचारधारा आदि सबकुछ के खत्म हो जाने का फतला देंगे-यह स्वीकार कर पाना मेरे लिए संभव नहीं हो सकता था। हरबर्ट एक तरह से मेरा राजनीतिक प्रतिवाद है। कभी न कभी विस्फोट होगा ही। इसे कंप्यूटर, फैक्स, सेलुलर फोन कर्मचारी, पुलिस अथवा सबकुछ को खरीद फरोख्त का बाजार बनाकर भी रोका नहीं जा सकता। इसकी अनुगूँज इस उपन्यास में मिलेगी। 'हरबर्ट'में कलकत्ता शहर का भी इतिहास है और मनुष्य का भी। बेशक उतना ही, जितना कि मैंने देखा जाना है। एक तरह से उपन्यास के चरित्र हरबर्ट की असहायता मैंने भी भोगी है। इसी असहायता को एक आकार देने की कोशिश है यह उपन्यास। -नवारुण भट्टाचार्य एकन बंधन कोई पैरों में, न स्पंदन है प्राण में जागता निर्वाण में, रहता स्थिर चेतना में। -विजयचंद्र मजुमदार अच्छी तरह सो लेने दें, सोने से ही सब ठीक हो जाएगा।' 25 मई, 1992। 'मृतात्मा से बातचीत'के ऑफिस यानी हरबर्ट के घर से काफी रात बीते घर लौटते समय जी मिचलाने की हालत में गली या रास्ते के मकान के आसपास किसी जगह पर बड़का ने यह बात कही थी। उस रात शराब की अड्डेबाजी के बाद घर लौटने का प्रसंग कोटन, सोमनाथ, कोका डॉक्टर बड़का आदि को जिस रूप में याद है, वह बहुत स्पष्ट नहीं है। चाँद पर धुँधलाहट, रास्ते की बत्तियों के पास झाग-झाग सी रोशनी की धूल। गरमी के मारे सब कुछ जैसे सरकता जा रहा हो। पेट की अँतड़ी से चाप, चना, व्हिस्की रम बर्फ पानी-सब कुछ फबक कर बाहर आ रहा है। नाली की झंझरी से चिलचट्टे भरभराकर बाहर निकल रहे हैं और रास्ते की रोशनी को निशाना बनाकर उड़े जा रहे हैं। कोका दत्त घर के गेट के सामने उल्टी कर रहा था, गरम, खट्टी, फिसलन भरी उलटी की तीखी महक कोका आज तक नहीं भूल पाया। डॉक्टर और कोटन उस वक्त एक दूसरे के पेशाब की धार से काटाकूटी खेल रहे थे। टाट की तरह बादल के एक टुकड़े ने चाँद को ढक दिया। ग्वालों की बस्ती के सामने सरकारी नल। वहाँ चिथड़ों में लिपटी पगली बुढ़िया पैर पसारे पानी पी रही थी। उल्लू की करक्क-करक्क बोली सुनकर रास्ते के सड़ियल कुत्ते नींद में ही रह-रहकर गुर्रा रहे थे। हरबर्ट सरकार की छत पर स्टार टी.वी. का कटोरी एंटिना टूटे तारे पकड़ने के लिए टकटकी लगाए हुए था। डॉक्टर काटाकूटी का खेल खत्म करके गेट पकड़कर खड़े कोका से कह रहा था, पीने से भी उलटी न पीने से भी उलटी। सच इसीलिए तुम लोगों के साथ दारू पीने का मन नहीं करता। ऊँघाई बवाल ! नशा बवाल ! थाली बवाल ही बवाल करोगे।'' कोटन ने चिल्लाकर कहा, हरबर्ट दा बवाल। हरबर्ट दा जहन्नुम में। कोका सोचने की कोशिश कर रहा था कि वह जिंदगी में फिर कभी दारू नहीं पिएगा। लेकिन वह भी उलटी की धारनुमा लार टपकाते हुए भागने लगा क्योंकि सोमनाथ जोर-जोर से चीख रहा था, लँगड़ा रवि आ रहा है, तुम लोगों की मछली खिलाने के लिए लँगड़ा रवि आ रहा है।' पानी में डूबकर बहुत पहले मर चुका लँगड़ा रवि आ ही सकता है। हरबर्ट दा के बुलावे पर तो आएगा ही। उस रात ऐसा ही कुछ इंतजाम था। इसे कहते हैं भयानक या खतरनाक गुगली। अकसर नशे में ही ये रातें बीत जाती हैं। इसके साथ मुर्दा हवा भी रहती है। दूसरी मंजिल के बरामदे की बड़ी घड़ी में एक का घंटा बजा। साल के पत्ते की थाली में चाप का एक टुकड़ा चुक्के के नीचे गुजराती दुकान की चना-दाल का रसा करीब आठ-दस तिलचट्टे उस पर टूटे पड़े थे। उनमें से किसी एक को पकड़ने के लिए बाहर की दीवार से मोटी छिपकली अंदर आकर दीवार से सरकती हुई नीचे उतरी, फिर चौकी के पाये से होकर ऊपर आई, थोड़ा ठहरकर उसने भाँप लिया कि हरबर्ट सो रहा है या नहीं। उसने पाया कि हरबर्टनिथर पड़ा है। तब हरबर्ट की छाती पर से होकर उसके बाएँ हाथ के बराबर उतरकर उसने पाया कि वह हाथ खून की महक से भरे ठंडे पानी में डूबा हुआ है। अपनी हरी आँखों की मदद से अँधेरे में बालटी के किनारे पर पहुंची; वहाँ से होती हुई नीचे आकर किसी तिलचट्टे को पकड़ेगी, यह सोच ही रही थी कि इस आश्चर्यजनक नीली रोशनी से सबकी आँखें चौंधिया गईं। छिपकली और तिलचट्टों ने देखा था वह आश्चर्यजनक दृश्य। बाहरी दीवार में गली की ओर जो काँच की बंद खिड़की थी, उसकी धूल को मुँह साफ करके, डैने चलाकर, एक परी कमरे में घुसकर हरबर्ट के पास आने की कोशिश कर रही है। उसकी नीले चेहरे की आभा काँच पर पड़ रही है, उसके आँसुओं से धूल धुली जा रही है। उस समय हरबर्ट की आँखें अधखुली थीं हालाँकि बाद में उन्हें बंद कर दिया गया था। उस रात ऐसा ही इंतजाम था। इसके बाद अंतिम पहर से चीटियों का आना शुरू हो गया। चींटियाँ लड़ाई-झगड़ा किए बिना आपस में बँटवारा कर लेना जानती हैं। काली चींटियाँ अन्न के दाने, दांतों के बीच फँसे या वहाँ से कुरेदकर निकाले गए दाल या खाने के टुकड़े और सूखे खाने की तरह चली गईं। लाल और बड़ी चींटियाँ सीधे मृत व्यक्ति की नाक के भीतर का श्लेष्मा, आँख, थूक के जरिए होंठों की किनारी, जीभ की नोक, कमजोर मसू़ढ़े आदि अधिक पसंद करती हैं। इतने सारे मांसाहारी कीड़ों- मकोडों की भीड़ में आए हुए कुछेक झींगुर जरूर अकिंचन मात्र थे। क्योंकि युगों-युगों से वे सुख में दुख में न सभ्यता का और न असभ्यता का जयगान गाते चले आ रहे हैं। चाहे उसे कोई सुने या न सुने। |
http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3775
Herbert (film)
From Wikipedia, the free encyclopedia
Herbert | |
Herbert film poster | |
Directed by | |
Based on | Nabarun Bhattacharya's novel Herbert |
Starring | |
Release dates | 2005 |
Country | |
Language |
Herbert is a 2005 Bengali-language film that was directed by veteran theatre director Suman Mukhopadhyay. It was based on Nabarun Bhattacharya'sSahitya Akademi Awardwinning novel of the same name.[1][2]
Contents
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Plot[edit]
This story is based on the life of one Herbert Sarkar, played by Subhasish Mukhopadhyay.[3] Herbert Sarkar, the protagonist of the story is a forty-year-old crank who thinks that he can talk to the dead. Herbert grew up in North Kolkata, feeding on the charity of relatives, and being the butt of local jokes. He declares one day that he has received a message in a dream that has told him where his long dead cousin Binu's diary remains hidden. People are surprised and amused. But when this prediction proves to be true, Herbert becomes a local sensation. He sets up a roaring business called "Dialogues with the Dead" for three years and for the first time in his life, earns money and the respect of others. However, his luck runs out when the international Rationalist Society declares him a fraud and threatens to turn him over to the law unless he closes shop. This deeply affects Herbert and he commits suicide that very night. However, his celebrity power increases to unprecedented levels the day after his death. After his body is put inside the electric cremation chamber, there is a tremendous explosion that rips apart the building, injuring many bystanders. The incident hits the headlines as a posthumous terroristic act, and a high-level police inquiry is launched to find the mystery behind it. The film begins at this point and follows the trajectory of the inquiry, flash-backing into the hidden corners of Herbert's quixotic life into his lonely growing up years as an alienated orphan, his ill-treatment at the hands of his cruel cousin Dhanna, his only tragic-comic love affair, and his unwitting involvement with the undergroundMaoistNaxalbari movement during the turbulent seventies. It covers several decades not only in the life of its protagonist, but also in the life of Kolkata the city that is at once mysterious, funny, tempestuous, and always full of life.[4]
Cast[edit]
Subhasish Mukherjee as Herbert Sarkar
Neel Mukherjee as Binoy Sarkar (Binu)
Lily Chakraborty as Jyathaima
Sabyasachi Chakraborty as Police Officer
Bratya Basu as Dhanna
Joyraj Bhattacharjee as Young Herbert
Anindita Mallick as Buki
Debshankar Haldar as Herbert's father, Lalit Kumar
Chandan Sen as Koton
Kanchan Mullick as Gyanban
Biswanath Basu as Gobindo
Shankar Debnath as Somnath
Taranga Sarkar as Koka
Bimal Chakraborty as Binu's father
Subratanath Mukherjee as Herbert's Uncle
Senjuti Roy Mukherjee as Herbert's Mother
Supriyo Dutta as Surapati Marik
Kalyan Chakraborty as Police Commissioner
Kabir Suman as Interrogating Officer at Hospital
Shyamal Chakraborty as Rationalist Society Member
Anindya Banerjee as Rationalist Society Member
Critical reception[edit]
This film received excellent reviews from both national and international critics for its script and directing style.
New York Times: "And now for something completely different. "Herbert," a mad, messy and frequently amazing epic from India, features many of the qualities you expect from Bollywood: garish verve, dizzy excess, punishing duration, wild leaps in narrative tone and structure... Movies are very much the point of this film: allusions to classic Hollywood and Indian cinema abound, and the energy of the French New Wave courses through the madcap plot. This is, rather incredibly, Mr. Mukhopadhyay's first film, and it exhibits the passionate, more-is-more abandon of an artist bursting with welcome (if exhausting) enthusiasm onto the scene."[2]
MOMA: "Rife with allusions to classic Hollywood and to directors from Satyajit Ray to Jean-Luc Godard, Mukhopadhyay's debut feature is an astounding, encyclopedic parable: part magical-realist fable, part allegory of cultural imperialism. Shot in flashy reds and twilight blues that recall the Technicolor of MGM musicals, this wittily self-reflexive film features a remarkable lead performance by Mukherjee as the film's visionary madman."[5]
The Hindu: "Suman Mukhopadhyay, in his complex narrative style, uses Herbert brilliantly as the pendulum, which moves back and forth in time, capturing a period and juxtaposing it with its ideology and social ethos. Thus, the film not just covers the life of the protagonist, but also the city which has travelled through the times, governed by different ideologies. In this highly stylistic film, Suman Mukhopadhyay uses some brilliant techniques which gel amazingly well with the narrative."[6]
The Telegraph: "Mukherjee employs a range of cinematic, dramatic devices in the film. Flash-forward-flashbacks (parents, childhood) to Brechtian alienation (father behind movie camera). And strong influences of several European masters, especially Fellini is clearly evident. But despite such 'educated' references, somehow he never lets his ideas or storytelling become 'alien' or elitist. Maybe because he manages to keep his film grounded, rooted to our own culture-specific milieu, utilizing all its banal characteristics, colloquialism and linguistic slang (profanities bit too excessive though) with passion and flamboyance."[7]
The Statesman: "In Herbert, the film, literature meets theatre meets cinema to lead to a form that's a delicious carnival - a never-ending series of snapshots that continually push and threaten to rummage the fragile membrane that separates the world we know from what remains unknowable."[5]
Awards[edit]
This film won the following awards:
Silver Lotus for the National Film Award for Best Feature Film in Bengali, 2006.
Audience Award at the Dhaka International Film Festival, 2006
Lankesh Award for Best Debut Director in Bangalore, 2006.[8]
References[edit]
Jump up^Indian Impressions, Indian Visions: By Barbara Lorey
^ Jump up to:ab Nathan Lee (December 10, 2008). "Storm Advisory: Cyclone of a Life on the Horizon". New York Times.
Jump up^"Interview : The outsider and his city". Chennai, India: The Hindu. 2006-04-07. Retrieved 2011-10-06.
Jump up^Suman Mukhopadhyayhttp://www.sumanmukhopadhyay.com/html/herbert.asp
^ Jump up to:abhttp://www.sumanmukhopadhyay.com/html/pressreviews.asp#Herbert
Jump up^"The outsider and his city". The Hindu (Chennai, India). 2006-04-07.
Jump up^"Style and substance". The Telegraph (Calcutta, India). 2006-03-10.