एक कत्लेआम, एक फैसला और हाशिमपुरा में दिन और रातें
Posted by Reyaz-ul-haque on 5/14/2015 11:30:00 PM
मेरठ के मुहल्ले हाशिमपुरा की बेवाओं और अनाथों के संघर्ष और पीड़ा पर रुबीना सैफी की विशेष रिपोर्ट. समयांतर (मई, 2015) से साभार. तस्वीरें: रेयाज उल हक.
दिल्ली से महज 70 किमी दूर मेरठ शहर के दिल में है हाशिमपुरा. बंद पड़े, उजड़े हुए गुलमर्ग सिनेमा के सामने उतना ही उजाड़, उतना ही बंद एक मुहल्ला. गंदी, भरी हुई नालियों के बीच खड़े घरों में जिंदगी का उतना भी शोर नहीं है, जितना पावरलूम और कढ़ाई की भारी मशीनों की खटरपटर.
इन नीचे, छोटे और बंद घरों में चेहरों को रोशन करने भर जो थोड़ी सी रोशनी है, उम्मीद की उतनी भी रोशनी नहीं है.
अदालत का फैसला हाशिमपुरा के सीने में एक धारदार खंजर की तरह पैबस्त है.
लोग सांसें ले रहे हैं, लेकिन उनकी जिंदगी रिस कर बह रही है.
65 बरस की हाजरा को याद है, किस तरह वे ईद की तैयारियों में लगी थीं. घर के सभी लोगों के लिए कपड़े सिलने को दिए गए थे. उनके भतीजे नईम की ख्वाहिश थी कि वे इस ईद पर चप्पलें लेंगे. अगले हफ्ते आने वाली ईद, ज्यादातर मुस्लिम परिवारों की तरह हाजरा के घर में भी आनेवाले पूरे साल के लिए नए कपड़े और जूतों का बहाना लेकर आ रही थी.
तब हाजरा का परिवार बहुत संपन्न नहीं था, और उनके राजमिस्त्री पति को जो मजदूरी मिलती थी, वह इतनी थी कि घर का खर्च चल जाए. उनके चार बेटे बड़े हो रहे थे और उम्मीद थी कि वे भी जल्दी ही पिता के काम में हाथ बंटाने लगेंगे.
हाजरा 28 बरस पहले की उस दोपहर को याद करती हैं, जो आनेवाली ईद से महज एक हफ्ते दूर थी. वह शुक्रवार की दोपहर थी और रमजान का आखिरी जुमा (अलविदा) था. मर्द लोग अभी अभी नमाज पढ़ कर आए थे और घरों में बैठे बातें कर रहे थे. मेरठ शहर में घटी पिछले कुछ दिनों की घटनाओं की वजह से लोग अनहोनी की आशंका से डरे हुए थे.
तीन बजे के बाद का वक्त होगा कि घर के बाहर हलचल और ढेर सारे पैरों की धमक सुनाई दी. हाजरा और उनके घर के लोग कुछ समझ पाते कि उनके घरों की दीवारें और दरवाजे फांदते हुए वर्दीधारी नौजवान घुस आए. उनके सिर पर हेलमेट और हाथों में बंदूकें थीं और उन्होंने बहुत सख्त लहजे में बताया कि उन्हें घरों की तलाशी लेनी है.
उन्होंने यह भी कहा कि मर्दों से 'दो बातें' पूछनी हैं, इसलिए उन्हें उन जवानों के साथ चलना होगा.
हाजरा को यह बात बाद में जाकर पता लगी थी कि वे जवान जिला पुलिस, पीएसी और फौज से आए थे.
वो हैरान रह गईं कि ऐसा क्या पूछना है कि फौज के इतने सारे जवानों को उनके घर पर धावा बोलना पड़ा. तब वे यह नहीं जानती थीं, कि उनके मुहल्ले के ज्यादातर घरों के लोगों में यही सवाल उठ रहे हैं.
बच्चों को छोड़ कर जवान उनके घर के सभी मर्दों को ले गए: नौ लोग, जिनमें उनके पति अब्दुल हमीद, दो बेटे और चार देवर शामिल थे. उन्होंने अपने बेटे जावेद को आखिरी बार तब देखा, जब वह अपने दोनों हाथ उठाए हुए, पैरों से निकल गई चप्पल को पहनने की कोशिश कर रहा था और एक जवान ने उसे धकेल कर कहा था, 'चल, चल, वहीं मिलेंगी चप्पलें.'
उनके लोगों को भर कर ले जानेवाला वह पीला ट्रक जब गुलमर्ग सिनेमा के सामने वाली सड़क पर धुआं छोड़ता हुआ रवाना हुआ, तब शाम ढलने लगी थी. पीछे छूट गई औरतें और बच्चे घर के लोगों के आने के इंतजार में बैठ गए. वे डरे हुए थे, आशंकित थे, रो रहे थे, लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि घर के लोग आ जाएंगे और सब ठीक हो जाएगा.
लेकिन उस रात कोई नहीं लौटा. सुबह आई. और फिर बुरी खबरों का जैसे गट्ठर खुल गया.
मुहल्ले का जुल्फिकार जख्मी हालत से अस्पताल से लौटा और तब लोगों को पता चला कि ट्रक में भर कर ले जाए गए लोगों को पीएसी के जवानों ने गोली मार कर मुरादनगर की गंग नहर में फेंक दिया था. वह जैसे तैसे बच कर निकल आया था. बाद में मुहल्ले के चार लोग और बच कर आए. यह भी पता लगा कि काफी लोगों को फतेहगढ़ की जेल ले जाया गया था. लेकिन इसकी कोई पक्की खबर कहीं से नहीं मिल पा रही थी कि कौन लोग मारे गए थे, कौन बच गए थे और कौन जेल में थे.
दिन बीत रहे थे. हाजरा को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. परेशानी सिर्फ घर के लोगों की खबर के बारे में ही नहीं थी. यह भी थी, कि जो औरतें और बच्चे घर में थे उनका पेट कैसे भरा जाए. हालांकि बाहरी मदद आनी शुरू हो गई थी, मुहल्ले के लोगों को चने, आटा, चायपत्ती, मोमबत्तियां बांटी जा रही थीं. थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी पहुंचाई जा रही थी. लेकिन इससे गुजारा नहीं चलने वाला था. उन्हें लग रहा था, अगर कुछ नहीं किया गया तो बच्चे भूखे मर जाएंगे.
उन्होंने काम की तलाश शुरू की. पहले पहल उन्हें सूट पर नग और सितारे लगाने और कढ़ाई किए हुए कपड़ों में से धागे काटने के काम मिले. इस तरह दिन भर की मेहनत से वे हफ्ते में 30-40 रुपए कमा लेती थीं. जलावन के लिए आरा मशीन से लकड़ियों के टुकड़े उठा कर लाए जाते.
लेकिन जल्दी ही हाजरा को लगने लगा कि यह पर्याप्त नहीं है. तो उन्होंने घरों के निर्माण के काम में मजदूरी करनी शुरू कर दी. मजदूरी थी 2 रुपए रोज.
इस बीच यह साफ हो गया था कि हाजरा के एक बेटे, एक देवर और उनके भतीजे नईम को मार डाला गया था. पुलिस उन्हें अपने परिजनों की शिनाख्त के लिए लेकर गई थी, जहां उन्होंने अपने घर वालों के कपड़ों और हाथ और गले में पहने जानेवाले धागों के जरिए उनकी मौत की तस्दीक की. उनकी लाशें वे कभी नहीं देख पाईं. जो लोग 22 मई की उस दोपहर को छीन लिए गए थे, आखिरी बार उन्होंने उनके कपड़े देखे और पुलिस को लौटा दिए, जिसे अदालती कार्रवाई के लिए सबूत के बतौर उन्हें सील करके रख लेना था. हाजरा को यह भी पता नहीं कि उन्हें दफनाया कहां गया. उन्होंने कभी तलाशने की कोशिश भी नहीं की.
क्योंकि हाजरा को मुर्दों से ज्यादा जिंदा बच रहे लोगों की फिक्र थी. पुलिस की कैद से लौट आए उनके घर के छह लोगों में से उनके पति की जेल में पुलिस ने इतनी पिटाई की थी कि उनके सिर में गहरे जख्म हो गए थे और उनमें कीड़े पड़ गए थे. अगर पर्याप्त इलाज नहीं होता, तो उनका बचना भी नामुमकिन था.
तबसे 28 साल गुजर गए, हाजरा के हाथ से काम नहीं छूटा. उन्होंने अपने घर को संभाले रखा, अपने बच्चों को बड़ा किया. अपने बीमार पति का इलाज कराया.
अब उनके बेटे कय्यूम उनका हाथ बंटाते हैं. वे बच गए, क्योंकि वे तब बारह साल के थे. उनका काम स्थायी नहीं है और जब मिलता है तो उन्हें 300 रुपए की मजदूरी मिलती है. जब कोई काम नहीं मिलता तो वे काम की तलाश करते हैं और यह अपने आप में बहुत थका देने वाला काम है. उनके छह कमरों के घर में उनके बड़े-से परिवार के 80 लोग रहते हैं, जिसमें हमेशा नाले का पानी पाइप के जरिए घुस आता है और गंदगी और बदबू को पूरे घर में भर देता है. उनके पति, पुलिस की यातनाओं के बाद, कोई काम करने लायक नहीं रह गए थे. उन्हें लगता है, अगर चीजें वैसी ही चलती रहतीं, जैसी ईद की तैयारियों वाली उस दोपहर के पहले तक चल रही थीं, तो उनकी जिंदगी कुछ और भी हो सकती थी.
और इतने बरसों के बाद, अब उन्हें याद नहीं कि वह ईद कैसी थी. हाशिमपुरा में किसी को याद नहीं. किसी ने उसका स्वागत नहीं किया, गलियों में पीछे छूटी हुई लावारिस चप्पलों और टोपियों के सिवाए.
*
नसीम को ईद के अलावा भी किसी बात का इंतजार था. उनके भाई सिराज अहमद की ईद के अगले हफ्ते में शादी होने वाली थी. सिराज अपनी चार बहनों के अकेले भाई थे. उन्होंने एम.ए. का इम्तहान दिया था और वे टाइपफेस बनाने का काम भी करते थे, जबकि उनके अब्बा चूड़ियां बेचते थे. तब वे लोग शाम के लिए इफ्तार की तैयारियों में जुटे थे, कि हथियारबंद जवानों ने उनके घर में घुस कर उनके भाई को 'गिरफ्तार' कर लिया.
फिर वे कभी नहीं लौटे.
नसीम के अब्बा बीमार पड़ गए. वे हमेशा यही दोहराते रहते थे कि सिराज आएगा. उनकी अम्मी पागल हो गईं और घर चलाने की जिम्मेदारी के साथ नसीम अकेली रह गईं.
उन दिनों सभी बहनों में सिर्फ नसीम की शादी हुई थी। सबके गुजारे के लिए और अपनी बाकी बहनों की शादी के लिए नसीम को बहुत मेहनत करनी पड़ी. उन्होंने किताबों के फर्मे मोड़ने, कपड़े पर सितारे चिपकाने काम किया. आगे चल कर नसीम एक निजी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने का काम करने लगीं. बहनों की शादी में वे दहेज नहीं दे पाईं, और जैसा कि होता है, इसका असर उनकी बहनों की शादीशुदा जिंदगी पर पड़ा. एक बहन को तो उसके पति ने छोड़ दिया है, जो अब नसीम के साथ रहती है.
नसीम अब अपने पुराने घर की जगह नए कमरे बनवा रही हैं. उन्होंने अपनी और अपनी बहनों की जिंदगी को एक तरतीब देने की कोशिश की है.
लेकिन उनकी यादों में, घरघराते इंजन वाला एक पीला ट्रक अभी भी आता है.
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उसी ट्रक में जरीना के पति और उनका एक बेटा भी गया था. फिर कभी न लौट आने के लिए. तब जरीना के आठ लड़के और दो लड़कियां थीं। घटना के दिन सबसे छोटा बेटा सिर्फ चार दिन का था। इतने बड़े परिवार का गुजारा जिस इंसान की मेहनत पर टिका था, वह मारा जा चुका था।फिर यह जिम्मेदारी जरीना ने अपने ऊपर ली. उन्होंने सूत कातने का काम शुरू किया। उन्हें अपने बच्चों के भविष्य से भी समझौता करना पड़ना, जिनकी पढ़ाई छुड़ा कर मजदूरी पर लगा दिया गया.
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नसीबन अब अपनी जिंदगी के नब्बे बरस पार कर चुकी हैं, और उस खौफनाक दोपहर को गुजरे हुए भी अब अठाईस साल होने को आए, लेकिन वे अभी भी बुरे सपनों से निजात नहीं पा सकी हैं. रातों में अब भी वो चिल्ला उठती हैं: 'मेरे बेटों को मत लेकर जाओ.'दो बेटों की मां नसीबन के पास आज उनका एक भी बेटा नहीं है. उस कत्लेआम में बच गए उनके एक बेटे, सलीम ने उन खौफनाक दिनों के छब्बीस साल बाद, 2013 की सर्दियों में एक दिन फंदे से फांसी लगा कर अपनी जान दे दी. उन्हें भी बुरे सपने आते थे, जिनसे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने बहुत पीना शुरू कर दिया था. वे उन खौफनाक दृश्यों को अपने जेहन से नहीं निकाल पाते थे, जो उन्होंने अपनी आंखों से देखी थीं. फतेहगढ़ जेल में, उनकी आंखों के सामने, पुलिस ने उनके पिता की पीट-पीट कर जान ले ली थी.
22 मई 1987 को हथियारबंद जवान उनके घर से तीन लोगों को लेकर गए थे, जिनमें से सिर्फ सलीम ही लौट कर आ पाए. उनके पति जमील को जेल में और उनके दूसरे बेटे नसीम को नहर पर मार डाला गया.
उसके दो साल के बाद सलीम की शादी कर दी गई. अंजुम बारहवीं तक पढ़ी-लिखी थीं और उन्होंने घर को संभालने में काफी मेहनत की. वे कहती हैं, 'जब मैं आई तो घर में कोई रौनक नहीं थी. सदमा इतना गहरा था.' उनके आने के बाद घर फिर से पटरी पर चलने लगा था.
परिवार के पास अपना हथकरघा था. लेकिन उसे चलाने वाले नहीं बचे, तो उसे बंद कर दिया गया. सलीम ने बाजार में हार्डवेयर की दुकान चलानी शुरू कर दी. परिवार के पास कार आई, बाइक आई और कढ़ाई की मशीनें आई.
लेकिन उस दिन ने कभी सलीम का पीछा नहीं छोड़ा. गहरा तनाव और अवसाद उनके साथ हमेशा बना रहा और उन्होंने दो बार खुदकुशी करने की कोशिश की. दूसरी बार, वे बच नहीं पाए.
अब पांच बेटियों और दो बेटों के साथ अंजुम को अपनी बूढ़ी सास का खयाल भी रखना था. उन्होंने अपने पति की मौत (5 जनवरी 2013) से इद्दत के चार महीने दस दिन गिनने के बाद अपने पति की हार्डवेयर की दुकान पर बैठना शुरू किया. पहले पहल तो उन्हें काफी शर्म आती थी. मुख्य बाजार में वे शायद पहली औरत थीं, जो दुकान चला रही थीं और वह भी हार्डवेयर जैसी दुकान. लेकिन उन्हें यह देख कर खुशी हुई कि लोगों ने उनकी परेशानी समझी और उनकी मदद की. हालांकि जहां से उन्हें सबसे ज्यादा मदद की उम्मीद थी, वहां से उन्हें सबसे ज्यादा परेशानियां उठानी पड़ी हैं. उनके पति के चाचा, (जो 1987 में घटना के वक्त पाकिस्तान में थे) के परिजनों की मंशा बच्चों समेत उन्हें घर और दुकान से बेदखल करने की है. वे कई बार कह चुके हैं कि अंजुम का अब इस घर में क्या है, उन्हें छोड़ कर चले जाना चाहिए. अंजुम ने पति के रहते कंप्यूटर और एंब्रॉयडरी की मशीन खरीदी थी, लेकिन पति के जाने के बाद उनके चाचा के घरवालों ने एक दिन उन्हें गली में पीटा और उनका काम जबरदस्ती बंद करवा दिया. इसके बाद अंजुम ने उनके खिलाफ एक मुकदमा दर्ज करा रखा है.
लेकिन उनकी मुश्किलें खत्म नहीं हुई हैं. 16 से 19 साल के दोनों बेटे विशेष रूप से सक्षम बच्चे हैं और उन्हें अधिक देख रेख की जरूरत होती है. उम्मीद बस उन्हें अपनी बेटियों से है, जो पढ़ रही हैं. बड़ी बेटी बी.कॉम कर रही है और बाकी सभी भी पढ़ाई कर रही हैं. हालांकि अभी वे जिस दशा में हैं, वे सारे बच्चों का पालन-पोषण नहीं कर सकतीं, इसलिए एक बेटी उन्होंने अपनी बहन को दे रखी है.
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मुश्किल में होने के बावजूद, अंजुम के पास एक उम्मीद है, लेकिन शकीला बेगम जानना चाहती हैं कि 'क्या कोई उम्मीद है भी?' अंधेरा सिर्फ उनके दड़बे जैसे बंद कमरे में ही नहीं है, उनकी जिंदगी में भी है. वे तिरासी बरस गुजार चुकी हैं, लेकिन गुजारे के लिए उन्हें अभी भी घर घर भटकना पड़ता है: वे औरतों की मालिश करती हैं, चूल्हा-चौका करती हैं, बरतन धोती हैं. 22 मई 1987 को जब हथियारबंद फौजी उनके पति मो. हनीफ को लेकर गए, उसके बाद से शकीला को अपनी जिंदगी गुजारने के लिए अपने हाथों का ही सहारा रहा है. यह पक्का हो जाने के बाद, कि मारे गए लोगों में उनके पति भी थे, उन्होंने मालिश सीखी और जिससे उन्हें महीने में दो सौ रु. की आमदनी होती थी. उनके दो छोटे-छोटे बेटे और चार बेटियां थीं. इसी आमदनी से उन्होंने अपनी बेटियों की शादी की और बेटों को अपने पिता का सिलाई का काम शुरू करने के लिए जरूरी पूंजी जुटा कर दी.आज उनके दोनों बेटे दर्जी का काम करते हैं. लेकिन बीमारी, इलाज और फिर बीमारी का फंदा उनके परिवार पर इस कदर छाया है, कि मौजूदा आमदनियां पूरी नहीं पड़तीं. उनकी बड़ी बहू को सात साल पहले यहां के सरकारी अस्पताल (पी.एल. शर्मा अस्पताल) में इलाज के दौरान खून चढ़ाना पड़ा, जिससे वे एक ऐसी बीमारी से संक्रमित हो गईं कि अब उसके इलाज में ही सारी आमदनी चली जाती है. वे जो दवा खाती हैं, उसका खर्च 3000 रुपए प्रतिमाह आता है. बीमारी की जब भी जांच करानी होती है, उसमें आठ से दस हजार लगते हैं. वे सरकारी अस्पताल से इतनी डरी हुई हैं, कि वे निजी डॉक्टरों के यहां ही जाती हैं, हालांकि यह बहुत महंगा पड़ता है.
शकीला के बड़े बेटे का दम भी फूलने लगा है लेकिन वे अपना इलाज नहीं करा पाते. परिवार को सही से भोजन तक नहीं मिल पाता. घर बहुत छोटा, अंधेरा और बंद सा है, और हर बारिश के वक्त शकीला को डर लगा रहता है कि वह गिर न जाए.
खुद शकीला भी बीमार रहती हैं. उन्हें आंखों से नहीं दिखता. उनकी आंत में कोई खराबी है. लेकिन वे काम बंद नहीं कर सकतीं. एक जनसंहार की विधवा को यह सुख नसीब नहीं होता. वे 75 रुपए की दिहाड़ी पर पोलियो की दवा पिलाने और बरतन धोने निकल पड़ती हैं तथा अपने कुर्ते की जेब में एक छोटी सी नीली पुड़िया में अपने मरहूम पति की छोटी सी तस्वीर की बगल में बीस रुपए का नोट रखना नहीं भूलतीं. वे कहती हैं कि अगर रास्ते में कहीं गिर कर मर जाऊँ, तो कोई भला आदमी उनकी लाश को उनके घर तक पहुंचा जायेगा और उसे अपने पैसे खर्च नहीं करने पड़ेंगे.
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उनका नाम भी शकीला ही है, और बीमारियों ने उन्हें भी नहीं बख्शा है. उनके एक गुर्दे में कभी पथरी हुआ करती थी, जिसे कभी निकाला नहीं गया और आखिर में उस गुर्दे को ही निकाल देना पड़ा. अब उनके दूसरे गुर्दे में दिक्कत है. लेकिन अब शायद वे इसका इलाज नहीं करा पाएं.शकीला वे अपने पति के घर में ब्याह कर आई थीं तो उनकी उम्र सत्रह-अठारह रही होगी. अब वे 58 साल की हैं. अपनी जिंदगी का करीब आधा हिस्सा उन्होंने एक विधवा के रूप में बिताया है. उनके पति सलीम की कैलेंडरों और छपाई का ब्लॉक प्रिंट का कारोबार था. लेकिन नहर पर पीएसी की गोलियों से अपने पति की मौत के बाद, शकीला के लिए उसे जारी रखना मुमकिन नहीं था. उन्होंने घर में खाली रह गए कमरों को किराए पर उठा दिया, जिससे थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी. वे अभी भी किराए पर चलते हैं. जनसंहार के बाद, राहत के बतौर उन्हें एक सिलाई मशीन मिली थी, और उसने भी उनकी काफी मदद की.
शकीला के परिवार में उनकी गोद ली हुई बेटी और उनके देवर का परिवार है. उनकी अपनी कोई संतान नहीं हुई. आज उनके घर में रौनक है, क्योंकि उनके देवर के बेटे और बहू उनसे मिलने आए हैं. वरना, उनकी जिंदगी में, नीचे बंद पड़े छपाई कारखाने की बेरौनकी और अकेलापन पसरा रहता है.
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पति (मो. उस्मान) के मारे जाने के बाद, हनीफा इतनी अकेली पड़ गई थीं कि उन्होंने मानसिक संतुलन खो दिया. उनके बच्चों ने ही उनकी देख भाल की, मेहनत मजदूरी की और अपना खयाल रखा. लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चे पढ़-लिख नहीं पाए. घर चलाने के लिए पूरा वक्त उन्हें काम करना पड़ा. रेहाना को बहू के रूप में इस परिवार में आए तेईस साल हो गए, लेकिन वे अब भी महसूस करती हैं कि उस कत्लेआम के नतीजों से परिवार अब तक उबरने की ही कोशिश कर रहा है. वे जब आईं, घर संभालने के लिए उन्हें कढ़ाई का काम शुरू करना पड़ा. उन्होंने इस काम के लिए एक मशीन खरीदी, लेकिन आगे चल कर वह भी नकारा हो गई, क्योंकि शहर में कंप्यूटर से चलने वाली, कढ़ाई की बड़ी मशीनें आ गई थीं और उनकी छोटी सी पुरानी मशीन उनके आगे टिक नहीं सकती थी. अब वह मशीन उनके आंगन में एक तरफ खड़ी धूल और जंग खा रही है, क्योंकि उसके लिए अब खरीदार भी नहीं मिलते हैं. रेहाना कहती हैं, 'अब उसे कौन लेगा? उसके लिए रेट (मांग) ही नहीं है.'*
हसीना बेगम रोना नहीं चाहतीं. लेकिन आखिर में वे नाकाम रहती हैं. उनके पति, मो. सदरुद्दीन अपनी छोटी बेटी को बड़ा होता नहीं देख पाए. वे नहीं देख पाए कि उनकी छह बेटियों और एक बेटे ने किस तरह की जिंदगी पाई. वे यह भी नहीं देख पाए, कि हसीना बेगम को, उन बच्चों को जिलाए रखने के लिए कैसे कैसे दिन गुजारने पड़े.हसीना बेगम जब इस परिवार में आई थीं, तब वे छोटी ही थीं. हालांकि उन्हें ठीक ठीक याद नहीं, लेकिन उनकी शादी 'बचपन' में ही हो गई थी. उनकी सबसे छोटी बेटी के जन्म बारे में भी उन्हें ठीक ठीक याद नहीं, लेकिन वह 22 मई की उस दोपहर से एकाध महीने आगे या पीछे पैदा हुई थी.
हसीना के घर से दो लोग ले जाए गए: मो. सदरुद्दीन और उनके छोटे भाई. हसीना के देवर फतेहगढ़ की जेल से दो महीने के बाद लौट आए थे, लेकिन उनके पति इतने खुशकिस्मत नहीं निकले.
हसीना अब हैरान होती हैं, कि हत्यारों ने क्या यह नहीं सोचा कि वे जिनकी जानें ले रहे हैं, घर पर उनकी बीवियां, उनके छोटे-छोटे बच्चे इंतजार कर रहे हैं. क्या उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके पीछे उनकी देखभाल कौन करेगा?
वह रात हसीना को अब भी याद है, जो उन्होंने अपने घरवालों के इंतजार में गुजारी थी. मुहल्ले में बची रह गई औरतें समझ नहीं पा रही थीं कि वे क्या करें और अपने बच्चों के साथ तब के एक बड़े से मकान में जमा हुई थीं, ताकि एक दूसरे के डर और अकेलेपन को बांट सकें. उन्हें लग रहा था कि फौज उनके घरवालों कों सिर्फ गिरफ्तार करके ही ले गई है, और वे शायद लौट आएं. लेकिन उनकी उम्मीदें, नहर पर से बच कर आने वाले पहले आदमी के साथ ही खत्म हो गईं. उन्होंने बताया कि उनके पति को मार डाला गया था.
तब अपने घर में बच्चों के साथ अकेली रह गईं हसीना बेगम को आम तौर पर आने वाली राहत सामग्री ने, रिश्तेदारों की मदद ने और मुहल्ले की दूसरी औरतों के दुख ने सहारा दिया. लेकिन बच्चों को पालने के लिए उन्हें रात-रात भर, दिन-दिन भर कढ़ाई और सितारों का काम करना पड़ता. वे दूसरों के कपड़ों पर मोती और नग लगातीं, उनके अपने बच्चे फटेहाल कपड़े पहना करते. कई सालों तक ऐसा होता रहा कि कई बार बच्चों को दिन में एक ही बार खाना मिल पाता था, 'वो ऐसे दिन थे, कि हमें चाय तक नसीब नहीं होती थी. दो हंडियां पक जाएं, तो आठ आठ दिन तक उसी को खाते थे.'
उन्हें मोती और सितारों का जो काम मिलता था, वह मुहल्ले से ही मिलता था. उसकी मजदूरी इतनी नहीं होती कि खास बचत हो पाती. इसी में बीमारियां थीं, घर की मरम्मत थी, उनके दो-दो ऑपरेशन थे. ऐसी हालत में बच्चे पढ़ नहीं पाए. ससुर को फालिज थी, और उनकी देखभाल भी करनी थी.
15 बरस तक बदहाली और मेहनत से भरी जिंदगी गुजारने के बाद हसीना आज उससे थोड़ी बेहतर हालत में हैं. उनके बेटे कपड़ों की कटिंग का काम करते हैं और उन्हें अपेक्षाकृत अच्छी आमदनी हो जाती है. लेकिन अब उनका अपना परिवार है, जिसके अपने खर्चे हैं.
यानी हसीना के लिए फुरसत के दिन अभी नहीं आए हैं.
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हाशिमपुरा में ऐसी 43 कहानियां मिलेंगी. या शायद इससे भी ज्यादा.इन औरतों ने बहुत बुरे दिन देखे. अपने सामने अपने पतियों, बेटों और भाइयों को कत्लगाह की तरफ ले जाए जाते देखा. उन्होंने देखा कि किस तरह इंसान की जिंदगियों को ऐसा बना दिया जाता है, कि वो किसी भी लायक नहीं रह जाए. उन्होंने अपमान सहा, बदहाली देखी, अपने आगे पसरते हुए अंधेरे को देखा. लेकिन उन्होंने टूटने से इन्कार किया. उन्होंने अपने कंधों पर जिम्मेदारियां उठाईं और अपनी जिंदगी की लड़ाई खुद लड़ी. दूसरे के हिस्सों की लड़ाई भी. वे आज भी लड़ रही हैं.
हाशिमपुरा में कभी हथकरघे हुआ करते थे, आज पावरलूम है. यहां सिलाई, कढ़ाई और कपड़ों में सितारों और नगों की जड़ाई का काम बहुत मिलता है. इसने ज्यादातर महिलाओं के लिए बहुत बड़े सहारे का काम किया. ये काम मुस्लिम परिवारों में परंपरागत रूप से औरतें ही करती आई हैं और इसी तरह, घर-घर में अलग अलग काम होते हैं. इसने भावनात्मक और आर्थिक रूप से टूटी हुई औरतों को अपनी बिखरी हुई जिंदगी को समेट कर फिर से खड़ा करने में काफी मदद की.
हाशिमपुरा कत्लेआम में कम से कम 43 लोग मार दिए गए, अनेक लोगों ने जेल में यातनाएं सहीं. पीछे रह गई औरतों में से कुछ की कहानियां हमने देखीं. लेकिन तब जो बच्चे थे, उनका भविष्य हमेशा के लिए शारीरिक मेहनत और बदहाली के साथ बंध गया. उनके लिए बाकी सारे दरवाजे बंद हो गए थे. क्योंकि उनको अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ, मजदूरी शुरू करनी पड़ी और उनकी पढ़ाई हमेशा के लिए बंद हो गई. हाशिमपुरा में जो मर्द मारे गए, उनमें अनेक पढ़े लिखे थे. लेकिन उनके घर के बच्चों को यह सुविधा नहीं मिल पाई. हालांकि अब कुछ परिवारों से बच्चे पढ़ने जाते हैं.
हाशिमपुरा में जख्म नहीं भरे हैं. यादें इतनी पुरानी नहीं पड़ीं कि वो मिट जाएं. इंसाफ अभी मिला नहीं, कि नाइंसाफी का बोझ हल्का हो जाए. लेकिन उन्हें कहा जाता है, हसीना बताती हैं, कि 'हाशिमपुरा वालों को दुख किस बात है? सड़कें पक्की बन गईं. एकमंजिला मकान चार-चार मंजिलों वाले बन गए.' हसीना नाराजगी में पूछती हैं, 'क्या इन सब चीजों ने हमारे मार दिए गए लोगों को लौटा दिया है?'
इन औरतों के संघर्ष की कहानियां पढ़ते हुए, यह तथ्य भी ध्यान में रखिए कि उन्होंने यह सब एक हमेशा बने रहने वाली असुरक्षा और आतंक के साए में किया. यह बाबरी मस्जिद के खिलाफ लगातार चल रहे फासीवादी अभियानों का दौर था, जब देश के अलग अलग हिस्सों में अल्पसंख्यक तबके पर हमले चल रहे थे. बेदखली और बलात्कारों की घटनाएं हो रही थीं. आखिर में मस्जिद भी तोड़ दी गई, और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों का एक ताजा दौर शुरू हुआ.
ये औरतें ठीक इस उथल पुथल, हिंसा, असुरक्षा और तबाही के दौर में, अपने परिवारों को फिर से बटोरने और संभालने में लगी हुई थीं. हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं, कि वे किस तरह के तनावों से गुजरी हुई होंगी.
और ऐसा करते हुए, उन्होंने उम्मीद को कभी भी छोड़ा नहीं. मेहनत-मजदूरी से, पेट काट कर, बच्चों को भूखा रख कर, बीमार रह कर वो पैसे पैसे जोड़तीं, ताकि अपने परिजनों के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए चल रहे मुकदमे में भागीदारी कर सकें. कि जब जरूरत हो, लखनऊ और दिल्ली में रैलियों में जा सकें. प्रदर्शनों में हिस्सा ले सकें.
और अब, यह सब कर चुकने पर, इतने सारे दिनों के बाद, 'अठाइस साल बाद, वे हमसे पूछते हैं कि क्या हम उन हत्यारों के चेहरों को पहचानते हैं? इतने दिनों के बाद हम उन्हें कैसे पहचान सकते हैं? उन्होंने हेलमेट पहन रखे थे. और फिर हम आतंकित थे. क्या सरकार नहीं जानती कि उसने किनको ड्यूटी पर लगा रखा था?'
अपने भाई को खो चुके कय्यूम कहते हैं, 'आज देश में ऐसा हो गया है कि लोग सोचते हैं, चलो मुसलमानों को मार देते हैं. सजा तो कुछ होनी नहीं है.'
अपने भाई को खो चुकी नसीम कहती हैं, 'ऐसे फैसले आने लगेंगे, तो कानूनी लड़ाई कौन लड़ेगा?'
हसीना और कय्यूम और नसीम जो जानना चाहते हैं, वही पूरा मुल्क जानना चाहता है. कातिलों को सजा. मजलूमों को इंसाफ. इन्हें कब तक मुर्दा चीजों में शुमार किया जाता रहेगा?
-साथ में रेयाज.