हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं - अरुंधति रॉय
Posted by Reyaz-ul-haque on 4/21/2015 11:53:00 PM
गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक गवर्नेंस नाऊ में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये-पंकज श्रीवास्तव
गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां 'प्रतिरोध का सिनेमा'दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, 'प्रतिरोध का सिनेमा'एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी 'ब्रैंड'बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक 'ब्रैंड'बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने 'एंड आफ इमेजिनेशन'लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। 'फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन'में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग 'प्रतिरोध'की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। 'घर वापसी'जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में 'बाज़ार'का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर 'राज्य'ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद "अदृश्य"को "दृश्य"बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।
आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या...भविष्य कैसा लग रहा है?
प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- "न्याय"। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे "रेडिकल"कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। 'नर्मदा आंदोलन'की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी 'न्याय'का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि 'अन्याय'पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि 'क्रांति'यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।
तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, 'इमेजनिशेन'की इस लड़ाई में?
मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। 'राज्य'लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम "नियंत्रण"करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला "कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ"करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी 'सेवाओं'से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था।आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध 'डॉक्टर एंड द सेंट'पर भी काफी विवाद हुआ था।
यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो 'गाँधी'फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के "पोलिटकल थियेटर"के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं "बौद्धिक कायरों"का देश ना बन जायें।