हुजूर नेपाल हिन्दू राज्य कभी नहीं था, आज भी सेक्युलर स्टेट है
भारत में नेपाल भूकंप विमर्ष : कृपया फतवे न जारी करें!
#नेपाल हिन्दू राज्य कभी नहीं था क्यूंकि जिस आबादी पर हिन्दू राजशाही शासन कर रही थी, उसका बहुसंख्यक हिस्सा बौद्ध, आदिवासी-जनजाति, दलित, मुस्लिम, क्रिश्चियन है।
नेपाल में भूकंप परिघटना से उपजी दुख दर्द पर भारत से निकलने वाले संचार माध्यमों में काफी कुछ लिखा और दिखाया गया। भारतीय संचार माध्यमों के भारतीय वर्चस्व के एक चौथे खम्भे (पूंजीवादी लोकतंत्र में वह पहले से ही स्थापित है) के रूप में मोदी सरकार के राजनैतिक हिंदुत्ववादी भोपूं के रूप में प्रचारित होना कोई बड़ी परिघटना नहीं है, जैसा कि भारत के अंग्रेजी/ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लिखा और विश्लेषित किया जा रहा है। अपने मूल रूप में भारतीय मीडिया का यह चिंतन भारतीय राजसत्ता के चरित्र और जड़ जमाये बैठी हिन्दू ब्राह्मणवादी ज्ञान परंपरा से नाभि नाल से जुड़ा है। सारगर्भित अर्थ में कहें तो यह भारत में नेपाल के बारे में स्थापित कॉमनसेंस का ही एक छोटा सा प्रतिबिम्ब मात्र है। इस किस्म के प्रतिबिम्ब सब जगह पाए जाते हैं। दक्षिणपंथियों से लेकर विभिन्न रंगों के उदारवादियों चिंतकों व अपने को प्रगतिशील घोषित करने वाले वामपंथी दलों में (संसदीय क्रांतिकारियों से लेकर अतिवादी वामपंथी क्रांतिकारियो तक सभी में)। इसका एक दिलचस्प नजारा सोशल मीडिया में नेपाल से उपजे दुख दर्द पर की गयी टिप्पणी में भी देखा गया।
25 अप्रैल को हुई भूकंप के बाद जाहिर तौर पर पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल था। यहाँ तक कि राजधानी काठमांडू से देश के अन्य भागों का संचार संबंध पहले के एक हफ्ते तक कटा रहा था क्यूंकि बिजली और टेलीफोन लाइन बुरी तरह प्रभावित हुई थीं। चूँकि पहाड़ में भूकंप का व्यापक प्रभाव होने के कारण काठमांडू से दूसरे जिले को जोड़ने वाली सड़कें क्षतिग्रस्त थीं इसीलिए शुरू के एक हफ्ते तक संसार भर से आये हुए राहत और बचाव दल राजधानी काठमांडू के अलावा सबसे क्षतिग्रस्त इलाकों में (जैसे सिन्धुपालचौक में सबसे जाया मानवीय क्षति हुई है) नहीं जा पा रहे थे।
इसी सन्दर्भ में फेसबुक ने भूकंप से प्रभावित लोगों को उनके परिवारों व शुभचिंतक-मित्रों की खोज खबर जानने के उद्देश्य से एक विशेष पहल करते हुए एक पेज का निर्माण किया था। फेसबुक के इस कदम को हिंदी की एक प्रगतिशील लेखक ने पूंजीवादी बकवास करार दिया। इस पर मेरे द्वारा की गयी टिप्पणी पर टिप्पणी करते हुए उसे 'पैनिक'होना करार दिया।
बहरहाल फेसबुक द्वारा उठाया गया यह एक अच्छा कदम था, जिसने संसार के लगभग हर देश में फैले नेपाली नागरिकों को अपने देश में रह रहे परिवार की सुरक्षा के बारे जानकारी मिली। पूंजीवाद भी क्या नई-नई तकनीक इजाद करता है। फेसबुक में इस भूकंप पेज पर जाकर बस एक क्लिक और आप के नेटवर्क से जुड़े हजारों लोगों को आपके परिवार जनों व इष्टमित्रों को आपसे चैट या बात किये बिना पता चला, कि आप सुरक्षित हैं। फेसबुक के इस कदम से नेपाल के दूर दराज के गांवों में रह रहे परिवारों के बारे में उनके खाड़ी देशों से लेकर अमेरिका, यूरोप, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका महाद्वीप में जीविका कमाने गए उनके परिवारजन कम से कम इतनी जानकारी तो ले सकें, कि वे जिन्दा और सुरक्षित हैं। यहाँ तक कि भारत सरकार ने अपने सार्वजनिक टेलिफोन उपक्रम बीएसएनएल से नेपाल फ़ोन करने के लिए 3 दिन तक आईएसडी के बजाय एसटीडी काल दर पर विशेष सुविधा प्रदान की थी। पहले एक हफ्ते के दौरान मानवीय स्तर पर इस दौरान नेपाल फोन करने वाले के लिए भारतीय/नेपाली निजी मोबाईल कम्पनियों यथा आईडिया, एयरटेल, नेपाल टेलिकॉम, एयरसेल आदि ने कम दर पर सेवा उपलब्ध करायी और संसार के विभिन्न देशों के सरकारों ने कहीं-कहीं बिलकुल फ़ोन सेवा निःशुल्क कर दी। बावजूद इसके बिजली लाइनें क्षतिग्रस्त होने की वजह से संचार माध्यम कभी कभार ही ठीक से काम कर पा रहे थे। लेकिन इन कदमों ने लाखों नेपाली लोगों को अपने परिवार के हाल चाल लेने में मदद हुई। लेकिन फेसबुक के विशेष कदम ने, लाखों नेपाली परिवारों को कम से कम दिलासा तो दी।
मेरे लेखक मित्र शायद समझ नहीं सके और उनके अनुसार, इस तरह के विशेष पेज से नेपाली लोगों को कोई फायदा नहीं पहुंचेगा। बकौल उनके अनुसार, जिन लोगों को अपने परिवारों-मित्रों के बारे में जानकारी लेनी होगी, उसके लिए वे फ़ोन कर लेंगे और अपने परिवार के बारे में जानकारी ले लेंगे। लेकिन वे यह नहीं समझ सके कि बिजली और टेलिकॉम लाइने बुरी तरह प्रभावित होने के वजह से क्या सामान्य रूप में फोन करना संभव था! कम से कम वैकल्पिक उर्जा संसाधन जैसे जेनरेटर ने बहुत हद तक अधिक से अधिकतम समय तक टेलिकॉम लाइने चालू रख संसार भर में फैले लाखों नेपाली नागरिकों को अपने परिवारजनो-इष्टमित्रों को एक इतनी तसल्ली देने में तो मदद की। मृत्यु के आगोश में लीन एक पहाड़ के बाशिंदों के लिए दुख के ऐसे क्षणों में एक पल की वह फेसबुक क्लिक बहुत सुनहरा काम करती है। संवेदनशीलता तो इसी का नाम है न! कि इसे 'पैनिक'होना कहते हैं? जहाँ हजारों गाँव के गाँव जमींदोज़ हो गए हों, उन इलाकों में जहाँ आपके पांव पड़े हों। उन बिकट दुर्गम इलाकों में वर्षों आपने अपने शुभचिन्तक मित्रों के साथ चहलकदमियाँ की लीं हों, क्या उस अनुभव से उपजी दुश्चिंता पैनिक होना कही जायेगी? कम से लेखकों/ कवियों से इतनी न्यूनतम उम्मीद की जाती है कि वे इस किस्म की संवेदनशीलता का परिचय नहीं दें?
हमारे लेखकों और मित्रों में नेपाल के बारे निश्चित रूप से इस किस्म की 'संवेदनशीलता' (उन लेखक मित्र ने नेपाल के बारे 'पैनिक'होना सही ठहरता है। लेकिन नहीं यह उनका दोष नहीं है। इसका कारण व्यक्तिगत न होकर बल्कि नेपाल के बारे में पहले से स्थापित भारतीय राज द्वारा स्थापित की गयी नेपाल (और भूटान भी वहां शामिल है) कॉमनसेंस की उपज है। भारत में जहाँ इस समाज व राष्ट्र के बारे में केवल सतही और अधकचरी समझदारियां मजबूत रूप में मौजूद हैं। भारत के विश्वविद्यालयों (नेपाल के बारे विशेष शोध संस्थानों यथा साउथ एशियन अध्ययन केंद्र, जेएनयू, जयपुर और बनारस के अलावा और कहीं पढाई ही नहीं होती) में नेपाल चिंतन भारतीय राजसत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने व नेपाल में माओवादी/कम्युनिस्ट चीन के सामरिक आधार को न पनपने देने के सन्दर्भ में होती है। भारत में नेपाल चिंतन भारतीय राज्यसत्ता के सुरक्षा/सामरिक आधार के अलावा किसी और चीज़ का तलबगार नहीं है। इस देश के समाज, संस्कृति, साहित्य, कला, अर्थ, राजनीति और सत्ता संबंधों पर इसीलिए हमारे बुद्धिजीवी सतही समझ रखते हैं। यहाँ तक कि जनपक्षधर कहलाने वाले वामपंथी 'एक्सपर्ट'भी इसी चिंतन के शिकार हैं। इसकी एक झलक हिंदी के सबसे बौद्धिक अखबार के भूकंप पर आये विश्लेषण से पता चलता है, जिसमें पत्रकार पुष्प रंजन आज के नेपाल को हिन्दू राज्य न होने का इशारा करते हैं। इस किस्म की अधकचरी समझ के अनुसार, चूँकि 2006 के परिवर्तन व हिन्दू राजतंत्र 2008 में समाप्त होने के बाद से अब नेपाल सेक्युलर स्टेट हैं। जबकि उनको यह पता नहीं है कि नेपाल हिन्दू राज्य कभी नहीं था क्यूंकि जिस आबादी पर हिन्दू राजशाही शासन कर रही थी, उसका बहुसंख्यक हिस्सा बौद्ध, आदिवासी-जनजाति, दलित, मुस्लिम, क्रिश्चियन है। समकालीन नेपाल समाज के मनोविज्ञान में मनुवादी ब्राह्मणवादी कानून मुलुकी ऐन जिसके अनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय के अलावा देश में कोई हिन्दू नहीं कहा जाता और न समझा जाता है। भारतीय वर्चस्व का यह बहुप्रचारित रूप कोई नई बात नहीं है, जैसा कि नेपाल मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार हमें बता रहे हैं। यहाँ तक कि यह प्रतिबिम्ब भारतीय ज्ञान परंपरा के मठों और नेपाल मामलों के 'एक्सपर्ट' मठाधीशों में बहुरंगी सिक्यूरिटी अध्ययन बनाम प्रगतिशील का ठप्पे वाले सभी में।
एक देश जिसकी आधी से ज्यादा आबादी का एक तिहाई हिस्सा भारत में मजदूरी करने आता है।भारतीय शहरों के वेश्यालय/ कोठों में हरेक साल हजारों नेपाली किशोरियां आयातित होती हैं। वैदेशिक रोजगार में दलाल को लाखों रुपये देकर नेपाल की दो तिहाई जनता 50 डिग्री के आस पास तापमान में खाड़ी देशों में कंस्ट्रक्शन के काम में लगी है, या ऊंट चराने जाती हो। मलयेशिया, कोरिया, थाईलैंड जैसे देशों में रहती है। जहाँ हजारों लोग अक्सर दलाल की ठगी का शिकार हो जाते हैं। इस इलाकों में जाने वाली नेपाली महिलायों के साथ यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं एक सामान्य बात हैं।
असल सवाल यह है, कि नेपाल को समझते समय हमें उसके विकट पहाड़ी-हिमाली, तराई-मधेश वाले बहुरंगी भूगोल को भी तो समझने की जरूरत है। नेपाल में भूकंप से पहले भी तो काठमांडू की सुगम्य रोड कनेक्टिविटी के अलावा भूकंप से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों गोरखा, सिन्धुपालचौक, रसुवा, नुवाकोट अदि के जिला मुख्यालयों से ग्रामीण इलाकों में सड़क परिवहन व्यवस्था बहुत ख़राब रही है। इन इलाकों के ढेर सारे गाँव ऐसे हैं जहाँ भूकंप के पहले भी लोग सड़क या पुल न होने के कारण घंटों या एकाध दिनों पैदल चल अपना गंतव्य पूरा करते थे। नेपाल के बारे में सोचते वक़्त यदि हम उत्तराखंड को अपने जहन में लायेंगे, तो बात अधकचरी या सतही ही रहेगी। ब्रिटिश राज से होते हुए भारतीय राज तक (स्वंतंत्र भारत से लेकर मोदी राज तक) नेपाल विश्व का सबसे पिछड़ा मुल्क क्यूँ बना रहने को अभिशप्त है? नेपाल की ब्राह्मणवादी राजशाही द्वारा अपनी ही उत्पीड़ित जनता (बौद्ध आदिवासी-जनजाति, दलित और दूर दराज की क्षेत्रगत विषमता से जूझ रहे सभी समुदाय जिसमें सुदूर पश्चिम व मधेश-तराई के इलाके के प्रमुख हैं) के आन्तरिक उपनिवेश बना कर शोषण का ही तो इतिहास रहा है। असल बात भारत नेपाल के बारे में प्रचलित कॉमन सेंस के विपरीत जाकर इस इतिहासबोध से अपने को लैस करने की है।
पवन पटेल
About The Author
लेखक पवन पटेल, नेपाली समाज पर काम कर रहे भारतीय राजनैतिक समाजशास्त्री हैं; जेएनयू, नईदिल्ली से समाजशास्त्र में पीएचडी हैं. वे गणतंत्र नेपाल के समर्थन में बने इंडो-नेपाल पीपुल्स सॉलिडेरिटी फोरम के पूर्व महासचिव भी रहे हैं. वे आजकल नेपाली माओवाद के प्रमुख केंद्र रहे 'थबांग गाँव के सामाजिक-राजनैतिक इतिहास'पर आधारित एक किताब पर काम कर रहे हैं,हुजूर नेपाल हिन्दू राज्य कभी नहीं था, आज भी सेक्युलर स्टेट है
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Don't appreciate any kind of dictatorship. Rather want democracy flourish no matter how messy it has been
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