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न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

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न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


बीरभूम के लाभपुर में आदिवासी कन्या से सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता की सुरक्षा बंदोबस्त में नाकामी के लिए सर्वोच्च न्यायालय नें बंगाल की मां माटी मानुष सरकार की कठोर भर्त्सना की है और कहा है कि बंगाल में पुलिस और प्रशासन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में पूरीतर तरह नाकाम है।सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को पीड़िता को महीने भर में पांच लाक रुपये के भुगतान का आदेस दिया है।स्त्री उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन का यह बंगीय परिदृश्य है।यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है जैसे कि वाममोर्चा चेयरमैन बंगाल में आपातकाल बताते रहते हैं।देश में न्यायिक प्रक्रिया बहाल करने की सर्वोच्च संस्था की यह टिप्पणी खतरे की घंटी है।


न्याय और कून के राज के लिए नागरिकों को स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल मेंदेखने को मिलता है। .अपहरण , बलात्कार , राहजनी , अपराध के कई चेहरे । राजनीतिक हिंसा, दमन, उत्पीड़न, कमजोर तबके पर और महिलाओं पर अत्याचार। हर किसी  को हर वक्त राष्ट्र और राजनीति का उन्मुक्त आश्वासन कि न्याय अवश्य  मिलेगा।लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि न्याय की गुहार सिर्फ गुहार बनके रह जाती है अनसुनी और अपराधी छुट्टा घूमते रह जाते हैं।राजनीतिक संरक्षण से बाधित होती है न्यायिक प्रक्रिया।कानून के राज में सभी नागरिक समान है। लेकिन हालत यह है कि  न्याय के  रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। भारतीय लोक गणराज्य में न्याय नहीं,कानून का राज नही तो तो क्या क्या करेगा आम आदमी?आज फिर पुरुषतंत्र स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध फर्जी प्रतिवाद का जश्न मना रहा है। जबकि हमारी जेहन में गुवाहाटी की सड़क पर दिनदहाड़े नंगी कर दी गयी आदिवासी लड़की के लिए न्याय की आवाज बुलंद हो रही है।हमारी आंखों में इंफल की उन नग्न माताओं का प्रदर्शन आज भी जिंदा है,जो सैन्य शक्ति क बलात्कार की चुनौती दे रही हैं तबस लगातार। भारतीय लोक गणराज्य में फिलवक्त कोई स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। हमने ऐसा मुक्त बाजार चुना है कि पुरुषतंत्र की नंगी तलवारे हर पल स्त्री के वजूद को कतरा कतरा काट रहा है।


पश्चिम बंगाल सरकार के रवैये से नाराज राज्य के दुष्कर्म पीड़ितों के परिजनों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से गुहार लगाकर भी देख लिया। ये परिजन अपने प्रियजनों के साथ हुए दुष्कर्म की जांच सीबीआई से कराने का दबाव बनाते रहे हैं।लेकिन न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।24 परगना जिले के कमदुनी गांव और मुर्शिदाबाद जिले के खरजुना और रानीताला गांवों के लोगों के दिल्ली पहुंचने का बंदोबस्त रेल राज्य मंत्री और कांग्रेस के नेता अधीर चौधरी ने किया था। जिनके विरुद्ध मुर्शिदाबाद में कई आपराधिक माले लंबित हैं।दुष्कर्म के अपराधों पर टालमटोल भरा रवैया अपनाने के लिए इन तीनों गांवों के लोग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार से खासा नाराज हैं।


बारासात के कामदुनी गांव में सात जून,2013  को परीक्षा से लौट रही एक 20 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म किया गया और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई। ममता बनर्जी 10 दिनों बाद पीड़िता के घर गईं। कुछ महिलाओं ने जब उनके खिलाफ प्रदर्शन किया तो ममता आपा खो बैठीं। उन्होंने महिलाओं को चुप होने और माकपा की राजनीति न करने को कहा। बाद में उन्होंने दावा कि गांव में उनकी हत्या की साजिश रची गई थी। प्रदर्शन में माओवादी शामिल थे। राजनीतिक हस्तक्षेप से इस मामले को रफा दफा कर दिया गया।उल्टे ग्रामीणों के राष्ट्रपति से मिलने से तृणमूल कांग्रेस नाराज हो गयी। न्याय और कानून व्यवस्था बहालकरने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहती रही कि कुछ लोग उनकी सरकार की बदनामी करने का प्रयास कर रहे हैं।



तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एसएफआई नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत पर संगठन की ओर से किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि यह एक दुर्घटना थी। वहीं छात्र नेता की हिरासत में पिटाई से मौत होने संबंधी आरोपों के बीच कोलकाता पुलिस ने मीडिया से संयम बरतने को कहा।बाद में हुआ यह तक कि दिल्ली मे एसएफआई की बदसलूकी के शिकार हो गयी ममता खुद और ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की होने वाली अहम मुलाकात रद्द हो गई । योजना आयोग में वामपंथी कार्यकर्ताओं के विरोध पर ममता की नाराजगी की पृष्ठभूमि में बैठक रद्द हुई । नतीजा यह निकला कि यह मामला महज राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया।न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जिस कश्मीर में और इरोम शर्मिला के अनंत आमरण अनशन के बावजूद जारी है, सलवा जुड़ुम की जद में देश का जो आदिलवासी भूगोल है।भूमि संघर्षों का बथानीटोला जिस मध्य बिहार में है और खैरांजलि जैसा परिदृश्य जहा हैं,उनकी चर्चा बहुत हो चुकी है।आगामी लोकसभा के मद्देनजर कोई कानून के राज की अनुपस्थिति नहीं करता,न्याय से वंचित बहुसंख्य जनगण जिन्हें राजकाज के लिए अपने मताधिकार का प्रयोगकरना है,उनकी सुधि कोई नहीं ले रहा है।देश के अनेक हिस्सों में आज भी भारतीय कानून लागू नहीं है।


बंगाल में पार्टीबद्ध न्याय प्रक्रिया और पार्टीबद्ध कानून व्यवस्था की विरासत बेसक पैंतीस साल की वाम विरासत है।नंदीग्राम,सिगुर,केशपुर, वानतला, मरीचझांपी,नेताई, मंगलकोट,जंगलमहल,आनंद मार्गियों को जिंदा जलाने की घटनाएं वाम मोर्चे के सत्ता में वापसी के रोड ब्रेकर बनी हुई हैं।डायन बताकर स्त्री हत्या की जघन्य परंपरा बदस्तूर जारी है।


सवाल यह है कि परिवर्तन के बाद क्या इस परंपरा में कोई व्यवधान आया है या नहीं। जो नागरिक समाज और जो चमकीले चेहरे वामविरोधी भूमि आंदोलन के वक्त पार्टीबद्धता के दायरे को तोड़कर सड़कों पर थे, वे न सिर्फ नये सिरे से ज्यादा मुखरता के साथ पार्टीबद्ध हो गये हैं बल्कि मानवाधिकार और कानून के राज में उनके मोर्चे पर सन्नाटा छा गया है। वे तमाम आदरणीय व्यक्तित्व अपनी अपनी प्रतिबद्धता और सरोकार के नकदीकरण में निष्णात है।


सत्ता मलाई का जायका लेते लोगों को यह होश भी नहीं रहा कि परिवर्तन के बाद हालात सुधरने के बजाय बिगड़ ही रहे हैं। दिल्ली और मुंबई में स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों  में फैसले आ रहे हैं।उम्र कैद और फांसी तक की सजा हो रही है छह महीने के भीतर।इसके बावजूद पूरे पैंतीस साल के बाद भी मरीचझांपी प्रकरण की जांच शुरु ही नहीं हुई है।आनंदमार्गियों को जिंदा जलाने की घटना के बाद भी साढ़े तीन दशक बीत गये हैं और आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। राजनीतिक बंदियों की रिहाई का आंदोलनथम सा गया है।


स्त्री उत्पीड़न तो मां माटी मानुष सरकार के राजकाज में अमावस्या रात है जिसकी किसी सुबह का शायद ही किसी को इंतजार हो।वीभत्स तम बलात्कार कांड बंगाल का रोजनामचा है।राजनीतिक हिंसा का सिलसिला जारी है।बेदखली अभियान प्रोमोटर बिल्डर राज का अनिवार्य अंग है तो कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए संबद्ध अफसरों के हाथ पांव अब भी बंधे हैं। वाम शासन के दौरान बिना लोकल कमिटी की इजाजत के थाने में एफआईआर तक दर्ज नहीं होता था। आज वह हालत बदल गयी है,कोई दावा नही कर सकता।कोयलांचल हो या महानगर या उपनगर या नया कोलकाता या सीमाव्रती इलाके सर्वत्र अपराधियों के हौसले बुलंद हैं जो र्जनीतिकदलों के रथी महारथी भी हैं।


घाटाल के सत्तादल प्रत्याशी बांग्ला फिल्म के स्टार नंबर वन जब बलात्कार का मजा लेने का फार्मूला बताते हैं तो पता चलता है कि कामदुनी से लेकर वीरभूम तक तमाम बलात्कारकांडों की जांच  का क्या हश्र होना है।मध्यमग्राम,बारासात से लेकर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस में उत्पीड़ित जीवित या मृत स्त्रिया सिंगुर में बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गयी तापसी मलिक की नियति याद दिलाती है।


কোর্টের নির্দেশে পাঁচ লক্ষ ধর্ষিতাকে


বীরভূমের লাভপুরে গণধর্ষণ কাণ্ডে নির্যাতিতা আদিবাসী তরুণীর নিরাপত্তা ব্যবস্থা সুনিশ্চিত না করায় রাজ্য সরকারকে তীব্র ভর্ত্‍সনা করল সুপ্রিম কোর্ট৷ শুক্রবার এই গণধর্ষণ মামলার রায় দিতে গিয়ে দেশের সর্বোচ্চ আদালত বলেছে, নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষাতে সম্পূর্ণ ব্যর্থ হয়েছে রাজ্য পুলিশ ও প্রশাসন৷ রাজ্য সরকারকে এক মাসের মধ্যে নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দেওয়ার নির্দেশ দিয়েছে আদালত৷


ওই ঘটনায় অভিযোগ নেওয়া থেকে শুরু করে পুলিশি তদন্তের পরতে পরতে নানা অসঙ্গতিও শীর্ষ আদালতের নজর এড়ায়নি৷ সেই সব অসঙ্গতির কথা তুলে সুপ্রিম কোর্ট রাজ্য সরকারকে সতর্কও করে দিয়েছে৷ দেশের সর্বোচ্চ আদালতের নির্দেশের পর এদিন সন্ধ্যাতেই জেলাশাসক জগদীশ প্রসাদ মীনার নির্দেশে জেলা প্রশাসনের এক আধিকারিক নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দিয়ে আসেন৷ প্রসঙ্গত, গণধর্ষণের শিকার ওই তরুণীকে জেলা প্রশাসন একটি হোমে রেখেছে৷ সুপ্রিম কোর্টের বক্তব্য হল, কোনও ক্ষতিপূরণই এমন ক্ষেত্রে নির্যাতিতার জন্য যথেষ্ট নয়৷ তা সত্ত্বেও যেহেতু রাজ্য সরকার নির্যাতিতার মৌলিক অধিকার রক্ষার ক্ষেত্রে গুরুতর ব্যর্থতার নজির রেখেছে, তার জন্যই ক্ষতিপূরণ দরকার৷ রাজ্য সরকার অবশ্য ঘটনার পরপরই ৫০ হাজার টাকা ক্ষতিপূরণ বাবদ দিয়েছিল৷


লোকসভা ভোটের মুখে লাভপুর-কাণ্ডে সুপ্রিম কোর্টের এই রায়ে রাজ্য সরকার চরম অস্বস্তিতে পড়েছে৷ দু'দিন আগেই সারদা-কাণ্ডেও সিবিআই তদন্ত হতে পারে বলে সর্বোচ্চ আদালত ইঙ্গিত দিয়েছে৷ পরপর এই দু'টি ঘটনাতেই সুপ্রিম কোর্টের ভূমিকা নিয়ে রীতিমতো উদ্বিগ্ন রাজ্য প্রশাসন৷ তবে সুপ্রিম কোর্টের মতামত নিয়ে সরকারের তরফে কেউ কোনও প্রতিক্রিয়া জানাননি৷ লাভপুর থানার সুবলপুর গ্রামে সালিশি সভার ফতোয়ায় আদিবাসী তরুণীকে গণধর্ষণের অভিযোগটিকে কেন্দ্র করে সুপ্রিম কোর্ট প্রথম থেকেই কড়া অবস্থান নিয়েছিল৷ ২২ জানুয়ারি লাভপুর থানায় অভিযোগ দায়ের হওয়ার পরই গ্রাম্য সালিশিতে গণধর্ষণের ফতোয়ার খবর শুধু এ রাজ্যে বা দেশে নয়, বিদেশেও নিন্দার ঝড় তোলে৷ পরদিন বিভিন্ন সংবাদ মাধ্যমে খবরটি প্রকাশিত হওয়ার ২৪ ঘণ্টার মধ্যে স্বতঃপ্রণোদিত হয়ে সুপ্রিম কোর্টে মামলাটি রুজু করেছিলেন প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবম৷ যা রীতিমতো নজিরবিহীন৷ এর আগে ২০০৭ সালে ১৪ মার্চ নন্দীগ্রামে গুলি চালনার ঘটনায় কলকাতা হাইকোর্ট স্বতপ্রণোদিত হয়ে মামলা করে এবং সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেয়৷


আদিবাসী সমাজের বাইরের এক বিবাহিত যুবকের সঙ্গে সম্পর্ক গড়ে তোলার অভিযোগে সুবলপুর গ্রামের সালিশি সভায় তরুণীটিকে গণধর্ষণের ফতোয়া দেওয়া হয়েছিল বলে অভিযোগ ওঠে৷ সেই ফতোয়া মেনে নিগ্রহ করা হয় ওই যুবতীকে৷ ওই অভিযোগে ১৩ জনকে পুলিশ গ্রেপ্তারও করেছিল৷ নিম্ন আদালতে সেই মামলা এখনও বিচারাধীন৷ কিন্ত্ত দু'মাস পার হতেই নিজেদের রুজু করা মামলাতে শুক্রবার চূড়ান্ত রায় দিয়ে দিল প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবমের নেতৃত্বাধীন বেঞ্চ৷ ওই বেঞ্চের বাকি দুই সদস্য হলেন, বিচারপতি সারদ অরবিন্দ ববরে এবং এম ভি রামানা৷ হাসপাতালের চিকিত্‍সায় সুস্থ হওয়ার সুবলপুর গ্রামের ওই তরুণী ও তাঁর মাকে প্রশাসনের ব্যবস্থাপনায় সিউড়ির কাছে একটি হোমে রাখা হয়েছে৷ রায়ে সরাসরি তার উল্লেখ না থাকলেও ওই ধরনের ব্যবস্থাপনার সমালোচনা করেছে সুপ্রিম কোর্টের বেঞ্চ৷ শীর্ষ আদালতের মতে, থাকার অন্তর্বর্তী ব্যবস্থা সাময়িক নির্যাতিতাকে সুরক্ষা দিতে পারে মাত্র, কিন্ত্ত তাদের জন্য দীর্ঘস্থায়ী পুনর্বাসন জরুরি৷


সুপ্রিম কোর্টের নির্দেশ, নিগৃহীতার নিরাপত্তা সুনিশ্চিত করার জন্য সংশ্লিষ্ট এলাকার সার্কেল ইন্সপেক্টরকে রোজ তাঁর আবাস পরিদর্শন করতে হবে৷ এই মামলার প্রসঙ্গে সুপ্রিম কোর্টের প্রধান বিচারপতির নেতৃত্বাধীন ওই বেঞ্চ অতীতের একাধিক মামলার কথাও টেনে এনেছে৷ তার মধ্যে উল্লেখযোগ্য হল, ২০০৬ সালের লতা সিং বনাম উত্তরপ্রদেশ সরকার মামলা, ২০১১ সালের আরু মুগম সারভাই বনাম তামিলনাড়ু সরকার মামলা, ২০১০ সালের শক্তি বাহিনী বনাম কেন্দ্রীয় সরকার মামলা ইত্যাদি৷ ওই সব মামলার উল্লেখ করে সুপ্রিম কোর্ট বলেছে, মোদ্দা কথা হল সংবিধানের একুশ নম্বর ধারায় ভারতীয় নাগরিকদের বিবাহ ক্ষেত্রে পছন্দের স্বাধীনতাকে স্বীকার করে নেওয়া হয়েছে৷ কিন্ত্ত অধিকাংশ ক্ষেত্রেই দেখা যাচ্ছে, পুলিশ-প্রশাসন এসব ক্ষেত্রে অযাচিত ভাবে হস্তক্ষেপ করছে৷ আবার কখনও পুলিশ-প্রশাসন নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষায় যথাযথ ভূমিকা নিচ্ছে না৷ তারই পরিণতি হিসেবে এ ধরনের ঘটনা ঘটছে৷


লাভপুর-কাণ্ডে স্বতঃপ্রণোদিত ভাবে মামলা রুজু করার পর রাজ্য সরকারের রিপোর্টের উপর কখনই ভরসা রাখতে পারেনি দেশের শীর্ষ আদালত৷ মামলাটি রুজু হওয়ার দিনেই বীরভূমের জেলা বিচারক ও মুখ্য বিচারবিভাগীয় ম্যাজিস্ট্রেটকে ঘটনাস্থল পরিদর্শন করে রিপোর্ট দিতে সুপ্রিম কোর্ট নির্দেশ দিয়েছিল৷ কিন্ত্ত ওই বিচারকদের রিপোর্টও যে তাদের খুশি করতে পারেনি, শুক্রবারের রায়ে তা স্পষ্ট৷ ওই রায়ে জানানো হয়েছে, অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে পুলিশের ব্যবস্থা গ্রহণ সম্পর্কে কোনও তথ্য ছিল না ওই রিপোর্টে৷ বরং নানা অসঙ্গতি ছিল তাতে৷ অসন্ত্তষ্ট আদালত গত ৩১ জানুয়ারি রাজ্যের মুখ্যসচিবের কাছে বিস্তারিত রিপোর্ট তলব করে৷ একই সঙ্গে অতিরিক্ত সলিসিটর জেনারেল সিদ্ধার্থ লুথরাকে আদালত-বান্ধব নিযুক্ত করেছিল সুপ্রিম কোর্ট৷ তাঁর পর্যবেক্ষণেই আদালতের নজরে এসেছিল পুলিশের অসঙ্গতিগুলি৷ যেমন, অনির্বাণ মণ্ডল নামে যিনি প্রথম ঘটনাটিতে এফআইআর দায়ের করেছিলেন, তাঁর উপস্থিতিকে অপ্রাসঙ্গিক মনে করেছে সুপ্রিম কোর্ট৷ তাছাড়া ভারতীয় দণ্ডবিধি অনুযায়ী এ ধরনের ঘটনায় মহিলা অফিসারের মাধ্যমে অভিযোগ গ্রহণ বাধ্যতামূলক হলেও তা মানা হয়নি৷


সালিশি সভা একটি গ্রামের ব্যাপার হলেও ফতোয়া দেওয়ার ওই সভাতে যে সংলগ্ন গ্রাম বিক্রমুর ও রাজারামপুরের মানুষ উপস্থিত ছিলেন, তাও সুপ্রিম কোর্টের নজর এড়ায়নি৷ সালিশি সভা ২০ জানুয়ারি রাতে হয়েছিল কি না, তা নিয়ে এফআইআর ও জুডিশিয়াল অফিসারদের রিপোর্টে ফারাক ধরা পড়েছে সুপ্রিম কোর্টের পর্যবেক্ষণে৷



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