"वरशिपिंग फॉल्स गॉडस "और संघ की अंबेडकर पूजा
हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर- 2
हेडगेवार और अम्बेडकर में वाकई 'घनिष्ठता'होती तो उसका आधार वैचारिक होता। कमसे कम व्यक्तिगत जीवन में हम ऐसे उदाहरणों से रूबरू होते, जहां हमें दिखता कि जाति उन्मूलन के प्रश्न पर दोनों के विचार में समानता है या कमसे कम सरोकार एक जैसा है। उल्टे हम ऐसे उदाहरणों से अवश्य रूबरू होते हैं, जहां एक तरफ डा. अंबेडकर हिंदt धर्म में अन्तर्निहित बर्बरताओं के खिलाफ संघर्ष चला रहे हैं, अपनी रचनाओं के जरिए आम हिन्दू को यह समझा रहे हैं कि किस तरह ब्राहमणवाद की विचारधारा से वह बार-बार ठगे गए हैं और पथ भ्रष्ट किए जाते रहे हैं और हेडगेवार उसी हिन्दू धर्म के महिमामण्डन में जुटे हैं। हम यह भी पाते हैं कि एक ही समय में डा. अम्बेडकर अपने सत्याग्रहों, आन्दोलनों के जरिए जातिप्रथा के खिलाफ, उसकी समाप्ति के लिए आवाज़ बुलन्द कर रहे हैं, मगर उसी दौर में 'हिन्दू एकता'का राग अलापते डा. हेडगेवार दलित स्वयंसेवक साथ सहभोज से इन्कार कर रहे हैं, इतना ही नहीं उन दिनों अस्पृश्यता मिटाने के नाम पर सुधारवादी हिन्दुओं द्वारा सभी जातियों के लोगों के सहभोज कार्यक्रम का भी विरोध रहे हैं। / देखें, एच वी पिंगले, सम्पादित, स्मृतिकण – परमपूज्य डा हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, पेज 49-50,Religious Dimension of Indian Nationalism : A Study of RSS, Shamsul Islam, Media House, Delhi में उद्धृत/
कहने का तात्पर्य कि जिस तरह संस्कृत के ग्रंथों में बाद में मिलावटी श्लोकों की बात होती है, वही किस्सा यहां पर भी दोहराया गया दिखता है और हेडगेवार-अम्बेडकर की कथित घनिष्ठता की बातें दरअसल 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में अपने आप को पोलिटिकली करेक्ट अर्थात् राजनीतिक तौर पर सही दिखाने के लिए जोड़ी गयी दिखती हैं।
और जहां तक विचारों का सवाल है, हेडगेवार के बाद संघ की कमान सम्भाले गोलवलकर या शेष स्वयंसेवक बिरादरी डा. अम्बेडकर के चिन्तन से उतनी ही दूर खड़ी दिखती है। उदाहरण के तौर पर हम उनकी मौत के कुछ साल पहले 'नवा काल'नामक मराठी अख़बार में ( दिनांक 1 जनवरी 1969) छपे गोलवलकर के विवादास्पद साक्षात्कार को देख सकते हैं जिसमें उन्होंने 'बौद्धिक'अन्दाज में मनुस्मृति को सही ठहराया था और शुद्धता-प्रदूषण पर टिकी वर्ण-जाति व्यवस्था को ईश्वरप्रदत्त घोषित किेया था।
अपने इस साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ-साफ कहा था कि
'..स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बताई गई चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भी ईश्वरनिर्मित है। किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़ मरोड़ हो जाती है, तबभी हम चिन्ता नहीं करते। क्योंकि मनुष्य आज तोड़ मरोड़ करता भी है, तबभी जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुनः-पुन'प्रस्थापित होकर ही रहेगी।' (पेज 163 श्री गुरूजी समग्र: खंड 9)।
अपने इस साक्षात्कार में गोलवलकर ने जाति-वर्णप्रथा की हिमायत करते हुए चन्द बातें भी कही थीं जैसे
'..अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है। किंबहुना आज की भाषा में जिसे 'गिल्ड'कहा जाता है और पहले जिसे 'जाति'कहा गया उनका स्वरूप एक ही है। ..जन्म से प्राप्त होने वाली चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किन्तु उसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी। लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था उचित ही है।'
पचास के दशक के मध्य में जब हिन्दू कोड बिल के जरिये हिन्दू महिलाओं को सम्पत्ति और उत्तराधिकार में सीमित अधिकार देने की नये सिरे से कोशिश चली उस वक्त दिया गया उनका वक्तव्य इस सम्बन्ध में उनमें गहराई में व्याप्त घृणा को साफ उजागर करता है। वे लिखते हैं:
जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिये कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिये अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो। (श्री गुरूजी समग्र: खण्ड 6, पेज 64 , युगाब्द 5106)
संघ से सम्बद्ध के आर मलकानी ने अपनी एक किताब 'द आरएसएस स्टोरी' (न्यू देहली, इम्पेक्स इण्डिया, 1980) में इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि गोलवलकर 'इसके पीछे दिए कारणों से सहमत नहीं थे कि हिन्दू कानून को मनुस्मृति के साथ अपने पुराने रिश्ते को खतम कर देने चाहिए।' (पेज 73)
इस बात में कोई आश्चर्य नहीं प्रतीत होता कि गोलवलकर ने कभी भी अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण एवम सशक्तिकरण हेतु नवस्वाधीन मुल्क के कर्णधारों ने जो विशेष अवसर प्रदान करने की जो योजना बनायीं, उसका कभीभी तहेदिल से समर्थन नहीं किया। आरक्षण के बारे में उनका कहना था कि यह हिन्दुओं की सामाजिक एकता पर कुठाराघात है और उसने आपस में सद्भाव पर टिके सदियों पुराने रिश्ते तार-तार होंगे। इस बात से इन्कार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिन्दू समाज व्यवस्था जिम्मेदार रही है, उन्होंने दावा किया कि उनके लिए संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने से आपसी दुर्भावना बढ़ने का खतरा है। (गोलवलकर, बंच आफ थाटस्, पेज 363, बंगलौर: साहित्य सिन्धु, 1996)
डा. अम्बेडकर को हेडगेवार के समकक्ष प्रस्तुत करने के इस प्रयास को किसी अलसुबह संघ के वरिष्ठ नेता के दिमाग में पैदा विचार के तौर पर देख नहीं सकते हैं, यह एक व्यापक परियोजना का हिस्सा है, जिसके कई आयाम हैं:
पहला आयाम है न केवल अम्बेडकर बल्कि समूचे दलित इतिहास का पुनर्लेखन
दूसरा आयाम, हिन्दू धर्म का भी एक साफ-सुथराकृत रूप पेश करना है, जिसमें अस्पृश्यता से लेकर उसमें निहित अन्य मानवद्रोही परम्पराओं, रूढ़ियों से या तो इन्कार किया जा सके या उन्हें 'बाहरी'आक्रमणों की पैदाइश कहा जा सके
तीसरा तथा शायद सबसे महत्वपूर्ण आयाम है व्यापक सामाजिक रूपांतरण की विराट सम्भावना रखने वाले दलित मुक्ति के आन्दोलन को, एक तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की 'हम'और 'वे'पर टिकी सामाजिक विघटन एवं अलगाव की राजनीति में, समाहित कर देना है।
इसे मुमकिन बनाने के लिए संघ की यह मजबूरी भी बनती है कि वह जाति के प्रश्न को लेकर उसके अपने मनुवादी रूख को लेकर परदा डाले, इस तथ्य से भी किनारा कर ले कि उसके निर्माण का मकसद ही फुले-पेरियार-जयोति थास-अययनकली- अम्बेडकर जैसों की अगुआई में आगे बढ़े ब्राहमणवाद-पुरोहितवाद विरोधी आन्दोलन की धार को बोथर करना था और उसे 'बाहरी दुश्मनों'की तरफ मोड़ना था। साफ है कि इसके लिए उसकी यह मजबूरी बनती है कि वह अपना भी गढ़ा हुआ, रंगरोगन किया इतिहास पेश करे, और जीते जी जिस अम्बेडकर से और उनके कार्यो/मुहिमों से न केवल उन्होंने दूरी बना रखी थी और मौत के बाद भी उन्होंने ब्राहमणवाद के खिलाफ इस अनथक योद्धा की खिल्ली उड़ायी थी, उनसे दोस्ती का इजहार कर ले।
मगर बीता अतीत ऐसा दौर होता है जिसे आप चाह कर भी बदल नहीं सकते है। आधुनिक समय में जबकि घटनाओं का विधिवत दस्तावेजीकरण होता रहता है, अपने वक्त़ के मनीषी उस पर जबकि अपनी कलम चला रहे होते हैं, तब यह मुश्किल बढ़ जाती है। यह बात सनद है कि अस्सी के दशक के शुरूआत में संघ परिवार के करीबी कहे जानेवाले पत्रकार जनाब अरूण शौरी – जो बाद में वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने – उन्होंने अंबेडकर के खिलाफ अनर्गल बातें करते हुए साढ़े छह सौ पेज की एक मोटी किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था 'वरशिपिंग फॉल्स गॉडस'। गनीमत थी कि उन दिनों वैचारिक तौर पर सशक्त रहे दलित आन्दोलन और तमाम अम्बेडकरी विचारकों ने अपनी रचनाओं, किताबों के जरिए अम्बेडकर को बदनाम करने की इस मुहिम को बेपर्द किया, और उसके पीछे अन्तर्निहित हिन्दूवादी एजेण्डा को सामने लाने का काम किया था। प्रस्तुत किताब के प्रकाशन के इतने समय बाद भी संघ परिवारी जनों ने आज तक इस किताब की आलोचना में एक शब्द नहीं कहा है।
अम्बेडकर को अपने में समाहित करने के लिए संघ परिवारी जन कितने अधिक बदहवास दिखते हैं और जिसके लिए वह किस हद तक गल्पबाजी का सहारा ले सकते हैं, इसकी ताज़ी मिसाल पिछले दिनों मौजूदा संघ सुप्रीमो मोहन भागवत के 15 फरवरी 2015 के उन्नाव के भाषण में दिखाई दी:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने दावा किया है कि भारतीय संविधान के निर्माताबाबासाहब भीमराव अम्बेडकर, दरअसल संघ की विचारधारा में यकीन रखते थे और उन्होंने कार्यकर्ताओं को सामाजिक एकता एवं अखण्डता का प्रतीक कहा था। उनका यह भी कहना था कि अम्बेडकर यह भी चाहते थे कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर केसरिया झंडे को अपनाया जाए। ..
उन्नाव, उत्तर प्रदेश की सभा में भागवत ने संघ कार्यकर्ताओं से कहा कि उन्हें विभिन्न सामाजिक समुदायों के बीच व्याप्त दूरियों को पाटने के लिए आगे आना होगा। अम्बेडकर, जो इस दिशा में काम करते थे, वह हिन्दू धर्म की विचारधारा में यकीन रखते थे।.. अम्बेडकर का मानना था कि संघ का भगवा झण्डा देश का राष्ट्रीय झण्डा हो और संस्कत राष्ट्रीय भाषा हो। दुर्भाग्य की बात है कि हम उनके उस विचार को प्रसारित नहीं कर सके।.. अम्बेडकर की विचारधारा को अपनाते हुए संघ अब अनुसूचित जातियों के हकों की लड़ाई लड़ेगा और उन्हें मुल्क की मुख्यधारा में लाने की कोशिश करेगा। हम लोग इसके लिए अपने सबसे अनुभवी नेताओं को जिम्मा सौंपेंगे।
;Read more at: http://indiatoday.intoday.in/story/mohan-bhagwat-ambedkar-sangh-ideology-rss/1/418998.html)
सुभाष गाताडे
….. जारी…..
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