आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम!
बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं,फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडिया कर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें।
हम हारे नहीं दोस्तों, हमने कभी जीतने की कोशिश ही नहीं की।
पलाश विश्वास
सौजन्य से इकोनोमिक टाइम्सःBSP founder Kanshi Ram's Dalit group Bamcef plans to contest 400 Lok Sabha seats
Jan 13, 2014
लोकसभा चुनावों से ऐन पहले देश के सबसे बड़े बिजनेस अखबार में बामसेफ को तिलांजलि देने का ऐलान कर दिया गया।याद करें वह लमहा।
जिनके पास दस हजार पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने का दावा किया जा रहा था,आज उनके पास कोई होलटाइमर हों तो बतायें।जिनका देशके साढ़े छह लाख गांवों में नेटवर्किंग का दावा था,जिनके पांच सौ क्षेत्रीय कार्यालय थे,कई भाषाओं में प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार थे,आन लाइन मीडिया जिनके पास था,अंबेडकरी मिशन को उनने कहां पहुंचाया,इसको भी समझ लें।
बामसेफ छोड़ चुके पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं और सक्रिय समर्थकों ने सत्ता की राजनीति में बाबासाहेब की विरासत और आंदोलन को समाहित करने से साफ इंकार कर दिया है।
देशभर में वे नये सिरे से संगठित होना चाहते हैं और उन्होंने समझ लिया है कि जाति मजबूत करने के बजाय इस जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडा को ही मुक्तिकामी भारतीय जनता का घोषणापत्र बनाकर हम इस केसरिया कारपोरेट मनुस्मृति शासन का अंत कर सकते हैं।
हम सबने पहचान की राजनीति को तिलांजलि दे दी है।
राजनीतिक विकल्पों का फरेब देख लीजिये।
लोकसभा चुनावों से पहले जो तीसरा विकल्प बनकर उत्पादक और सामाजिक शक्तियों को बहकाने में लगा था,आज वह विकल्प एक राज्य की सत्ता में काबिज होते न होते सत्ता वर्ग में समाहित हैं।जो मुखौटे उतारने चले थे ,वे अब एकदूसरे के मुखौटे उतारने लगे हैं।
हो सकता है कि कल एक और राजनीतिक विकल्प लेकर उनमें से कुछ लोग देश की रहनुमाई करने लगें।
तैयारियां हमेशा एक के बदले दूसरा विकल्प खड़ा करके सोने की चिड़िया रोज रोज हलाल करने की होती हैं।
सन 47 से वर्णवर्चस्वी नस्ली जनसंहारी राज्यतंत्र में यही चल रहा है।
संसदीय सहमति से जारी है नरसंहार बहिस्कार का यह सिलसिला।
इस वधस्थल पर अपनी गरदन कटवाने से पहले एकबार अपने बाजुओं को तौलकर तो देखें कि कातिलों के जिगरा में कितना दम है कि एक साथ उठ खड़े तमाम सरों को वे कैसे कलम करने की कोशिश करते हैं या फिर दुम दबाकर अपने सुरक्षित दड़बों में जा घुसते हैं।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम।
सिर्फ देशभर के जनपक्षधर लोगों को चट्टानी मजबूती से दुनियाभर की अश्वेत ब्रादरी की चट्टानी एकता की संगीगबद्ध लय में मजबूत इरादे के साथ जनसंहारी सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करनी है।
देश को जोड़ने में दो मिनट का वक्त नहीं चाहिए।हम पहले इस कयामती मंजर को बदलने की कसम तो लें।
इसी सिलसिले में बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं, फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडियाकर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें।
हम हारे नहीं दोस्तों,हमने जीतने की कोशिश ही नहीं की।
देश भर के बामसेफ के पुरातन प्रतिबद्ध कार्यकर्ता,बाबासाहेब और मान्यवर कांशीराम जी के साथ काम कर चुके बुजुर्ग भी समझ रहे हैं कि कैसे कुछ सौदागरों ने बिलियनर मिलियनर तबके में अपनो को शामिल करने के लिए अंबेडकर और संपूर्ण मानवता, संपूर्ण भारतीय जनता की मुक्ति के लिए उनके आंदोलन को संघ परिवार के हिंदू साम्राज्यवाद में निष्णात कर दिया।
हम लगातार उनके साथ संवाद कर रहे हैं।
हम मुंबई, नागपुर, भोपाल,कोलकाता,दिल्ली से लेकर कश्मीर और बंगलूर तक में,और देश भर में अलग अलग लगातार सारे अंबेडकरी जनता को देश की बहुजन वंचित जनता के साथ इस केसरिया कारपोरेट मनुस्मृति राजकाज के खिलाफ लामबंद करने के लिए बैठकें करते रहे हैं।कर रहे हैं।
अंबेडकरी मिशन में सबकुछ न्यौच्छावर कर देने के बाद हजारों कार्यकर्ताओं के पास न रोजगार है और न मिशन है।उनमें से बहुतों के पास न घर है और न परिवार और न जीने का कोई सहारा है।
वे लोग और बाकी लोग तुरंत कोई राष्ट्रव्यापी संगठन खड़ा करना चाहते हैं और हम देख चुके हैं कि संगठन बनाने के नाम पर कैसे मसीहा और दलालों,सौदागरों का निर्माण होता है।
हम इने गिने लोग कोई हवा हवाई संगठन बनाकर अपना अपना उल्लू सीधा करके फिर एकबार बहुजन जनता को किसी फरेब में फंसाना नहीं चाहते और न ही बाकी देश से उनको अलग काटकर सामाजिक यथार्थ से टकराये बिना जल्दबाजी में संगठन बना लेने की कोई रस्म अदायगी करना चाहते हैं।
संगठन बनेगा तो जमीन फोड़कर संगठन हमारी जनपक्षधर गतिविधियों से तैयार होगा।
नेतृत्व के लिए कोई मसीहा नहीं,हर गांव,हर मोहल्ले से लोग सामने आकर सत्ता तंत्र के खिलाफ खड़े होकर अपना अपना सर कलम करवाने को तैयार होंगे,तभी बनेगा संगठन।
मकसद भारत में सही मायने में लोकतंत्र की बहाली होगा,जिससे बन सकेगा बाबासाहेब का सपनों का भारत,जहां जाति,नस्ल और धर्म के नाम कोई भेदभाव न होगा।
अभी हम मंजिल की तरफ एक कदम भी बढ़ा नहीं सके हैं ,जाहिर है।
हमारे नये पुराने साथी,देशभर से फोन पर फोन करते हैं कि अब हम क्या करें।
उनसे निवेदन है कि उन्हें जनजागरण का पर्याप्त अनुभव है। मई दिवस को मेहनतकश आवाम के हक हकूक की लड़ाई का मोर्चा बनाकर बाबासाहेब की विरासत और आंदोलन,खुद संघ परिवार के तिलिस्म में कैद बाबासाहेब को रिहा करने की पहल करें तुरंत।
कोलकाता में जो परचा जारी हुआ है,वह इस आलेख के साथ नत्थी है।आप चाहे तो इसे अपने अपने इलाके में छापकर वितरित करें और लोगों को तैयार करें कि केसरिया के खिलाफ सारे रंगों का इंद्रधनुष तैयार हो जाये देशभर में।हर भाषा में बुलेटिन छापें।
आप हमसे बेहतर परचा लिख सकते हैं तो लिखें।
आप स्थानीय मुद्दों को तरजीह देना चाहते हैं तो दें।
यह परचा मुफ्त में न बांटे।जितनी लागत लगी हो,जो परचा लेने को तैयार हों, उनसे कीमत वसूल करके वह लागत अगले परचे या बुलेटिन के लिए संसाधन बतौर जमा कर लें।
बामसेफ के कार्यकर्ताओं से बेहतर कोई नहीं जानता कि संसाधन कैसे जुटाये जा सकते हैं।
हमें अब किसी के लिए देशभर में महल खड़ा नहीं करना है।सिर्फ स्थानीय स्तर पर जनजागरण चलाकर पूरे देश को जोड़ना है।
किसी केंद्र या राज्य या जिला नेतृत्व को थैलियां भर भरकर कुछ चुनिंदा लोगों के ऐशो आराम का वातानुकूलित अंतरराष्ट्रीय हवाई इंतजाम नहीं करना है और न किसी को किसी का थैला उठाकर गुलामगिरि करने की जरुरत है और न कोई किसी को संगठन से निकालकर गद्दार कहने वाला है।
न ही हमें जाति और पहचान के आधार पर किसी व्यक्ति या समूहे के खिलाफ घृणा अभियान में बाबासाहेब के आंदोलन को रफा दफा करके उन्हें ईश्वर बनाकर खुद पुरोहित बनना है।
जनजागरण के लिए फिलहाल परचे, पोस्टर ,बैनर और बुलेटिन काफी हैं।
पैसे न हों तो सिर्फ परचा हाथोंहाथ पहुंचाने का काम है।
बामसेफ को दशकों तक इतना बड़ा संगठन बनाये रखने वाले कार्यकर्ताओं के लिए यह काम संजीवनी पर्वत हिमालय से लाने या सीता को लंका से सकुशल निकालने के लिए समुंदर पर बांध बनाने का जैसा भारी काम निश्चय ही नहीं है।
वे बखूब इसे अंजाम दे सकते हैं।एक परचा,एक बुलेटिन छापकर उसे बांटकर जो पैसे जमा हो,उसे फिर अगला परचा निकालना है।घर ,जेब से कुछ लगाना नहीं है।
फिलहाल इतना ही करना है।इसीसे बारुदी सुरंगें बिछ जााएंगी हर गांव,हर मोहल्ले में और फिर सारे खेत जाग उठेंगे।
फिलहाल मोर्चा निकालना नहीं है।देशभर में मोर्चा बनाना है।केसरिया कारपोरेट समय के खिलाफ एक एक नागिरक नागरिका को जोड़ने का काम है फिलहाल।फिर जनता जैसे चाहेगी,अपना रास्ता तय कर लेगी।
मीडिया में बेहद कुशल लोग हैं जो पेशवर तरीके से देश के हालात जान रहे हैं।
एक फीसद आका क्लास देश विदेश की उड़ान में वातानुकूलित हैं और बाकी लोग वंचित ,उत्पीड़ित,शोषित और उपेक्षित।
जिंदगी का भी कोई मकसद होना चाहिए।ज्यादातर पत्रकार अब स्थाई नौकरियों में नहीं हैं।अखबारों का हाल यह है कि मशरुम की तरह कस्बों तक में निकल रहा है और हमारी मेहनत पानी खून से मुनाफा की फसल उगायी जा रही है।
बड़े समूहों में तो एक अखबार के वेतन पर दर्जन दर्जन या दर्जनों अखबार निकालने का काम लिया जाता है।
बदले में मजीठिया रपट के मुताबिक स्थाई गिने चुने कर्मचारियों के मुकाबले दो तिहाई वेतन की क्या कहें,बड़े घरानों को छोड़कर संपादक पदवीधारी लोगों को भी दो पांच हजार के वेतन और बाजार से वसूल लेने की आजादी के साथ शर्मनाक जिंदगी गुजर बसर करनी होती है।
बाजार से वसूलने वाले लोग ,पोस्तो समुदाय में भी आकाओं के खास लोग हैं जो बाकायदा पुलिसिया बंदोबस्त के तहत सही जगह सही हिस्सा देकर स्ट्रींगर होने के बावजूद महानगरों से लेकर कस्बों तक तस्करी से लेकर तमाम धंधों के जरिये वातानुकूलित महल खड़े करके वातानुकूलित जीते हैं।
बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में प्रेस की पट्टी लगाकर हर किस्म की तस्करी होती है।पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लबों में भी सत्ता समर्थक होशियार तस्कर पत्रकारों का जलवा है।देशभर में।
वसूलीबाज संपादकों को हम बख्शने नहीं जा रहे हैं।लाखों करोड़ों का प्रसार करने के दावे वाले लोग कैसे कैसे बाजार में घोड़े और सांढ़ छोड़े रहते हैं,उचित समयपर खुलासा करेंगे।
ज्यादातर पत्रकार खासतौर पर बहुजन पत्रकार जो मीडिया में पैदल सेना है,उनके लिए कोई मौका नहीं है।
हमने वह मंजर देखा है कि आईएस से कठिन परीक्षा पास करने वाले पत्रकारों में सो कोई कोई एक के बाद एक सीढ़ियां छलांग कर सीधे सत्तावर्ग में शामिल हो जाते हैं और बाकी लोग सबएडीटर बने रहते हैं जिंदगीभर।
ये सारे लोग पच्चीस तीस साल ,जिंदगी भर लगाकर सबएडिटर से बेहतर किसी हैसियत में नहीं हैं तो क्या ये नाकाबिल डफर लोग हैं,जिनका कुछ लिखा उनके अपने अखबार में नहीं छपता,जिन्हें खुद को साबित करने का कोई मौका नहीं मिलता।
जाहिर है कि इन्हें चुनने वाले मसीहा लोग या तो सिरे से अंधे रहे हैं या जाति वनस्ली भेदभाव के तहत अंधा बांटे रेवड़ियां का किस्सा दोहराते रहे हैं।
बहरहाल इस किस्से में नाकाबिल डफर ठहराये गये लोग पत्रकारित का,मीडिया का नब्वे फीसद वंचित तबका है,जो ईमानदार भी है और प्रतिबद्ध भी है,जो बाजार से वसूली को पत्रकारिता नहीं मानते।
दोस्तों, देश के इस दुस्समय में भाषा और समझ से लैस होने का बावजूद आपकी खामोशी आपकी त्रासदी नहीं है,यह देश और जनता की गुलामी का सबब है कि मीडिया सिरे से कारपोरेट हैं।
अब इस कारपोरेट तिलिस्म को तोड़ने का वक्त है।
किसी आका ने आपका न भला किया है और न करेगा।
बेहतर है कि छप्पर फाड़ भलाई के बेसब्र इंतजार में जिंदगी बीता देने के बजाये अपनी पेशेवर काबिलियत साबित करें।अपने अखबार,अपने चैनल में जिन्हें कुछ कहने लिखने का मौका नहीं है,वे हमारे लिए,वैकल्पिक मीडिया के लिए लिखें।
कोई आका किसी का कुछ भी उखाड़ नहीं सकता।क्योंकि सबसे बड़े गुलाम तो वही हैं।
उनकी गुलामगिरि का बोझ अपने सर से उतारकर आजाद होकर भारतीय जनता और भारत देश के लिए कुछ करने का उचित समय है यह।
पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया,अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं,तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय झूठ का यह कारोबार यकीनन चला नहीं सकते।।
पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया,अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं,तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय के पेड न्यूज कारपोरेट मीडिया के जवाब में हम वैकल्पिक मीडिया को मुख्यधारा बना ही लेंगे।
ऐसे तमाम वंचित पत्रकारों से निवेदन हैं कि मई दिवस को कारपोरेट केसरिया रथों के पहिये जाम करने के लिए जनजागरण हेतु वे जो कुछ न्यूनतम कर सकते हैं करें।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम।
सिर्फ देशभर के जनपक्षधर लोगों को चट्टानी मजबूती से दुनियाभर की अश्वेत ब्रादरी की चट्टानी एकता की संगीगबद्ध लय में मजबूत इरादे के साथ जनसंहारी सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करनी है।देश को जोड़ने में दो मिनट का वक्त नहीं चाहिए।हम पहले इस कयामती मंजर को बदलने की कसम तो लें।