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भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन क्‍यों?

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भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन क्‍यों?



इतिहास का पुनर्लेखन एक ऐसा विषय है जिसकी ज़रूरत को भारतीय राजनीति में वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी तक दोनों धड़े बराबर महसूस करते रहे हैं, हालांकि यह मसला दक्षिणपंथी धड़े के दिल के कुछ ज्‍यादा करीब रहा है। जब-जब देश में दक्षिणपंथी सरकार आयी है, इतिहास के पुनर्लेखन पर नए सिरे से बहस खड़ी की गयी है। इसमें दिक्‍कत सिर्फ नीयत की है। यदि अब तक का इतिहास-लेखन सेलेक्टिव रहा है, तो उसके बरअक्‍स जैसा इतिहास लेखन करने की मांग हो रही है, वह भी अपनी नीयत में साफ़ नहीं है। सुविधाजनक चयन की यह समस्‍या ही मामले का राजनीतिकरण करती रही है। पिछले दिनों सुभाष चंद्र बोस की कुछ गोपनीय फाइलें डीक्‍लासिफाई किए जाने के बाद एक बार फिर केंद्र की दक्षिणपंथी सरकार और वामपंथियों के एक तबके की ओर से इतिहास के पुनर्लेखन की मांग उठायी गयी है। सामान्‍यत: गैर-अकादमिक लोकप्रिय लेखन करने वाले पत्रकारव्‍यालोक ने इस मसले पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है।  - मॉडरेटर 


व्‍यालोक
http://www.junputh.com/2015/04/blog-post_56.html


बर्ट्रेंड रसल के बारे में एक कहानी है। कहानी क्याअरबन लेजेंड है। वह अपने कमरे में बैठे इतिहास की पुस्तक लिख रहे थे। अचानकगली में शोर हुआ। शोरबढ़ता ही गया। रसल कमरे से निकले और गली की ओर भागे। पहला आदमी जो दिखाउससे पूछा तो पता चला किसी ने किसी को गोली मार दी है। रसल आगे बढ़े। दूसरे व्यक्ति से पूछा। उसने कहा,अरे...आपको पता नहींएक आदमी ने दूसरे को चाकू मार दिया है। रसल अब तक भीड़ के पास आ गए थे। भीड़ को चीरते हुए वह जब घटनास्थल तक पहुंचेतो देखा कि दो आदमियों में मामूली झड़प हो गयी थी।

रसल उसी वक्त वापस लौटे और उन्होंने अपनी पांडुलिपि को कचरे में फेंक दिया। उन्होंने इसके पीछे वजह यह बतायी कि जब मैं अपने ज़िंदा रहतेचार कदम दूर अपनी गली में एक ही घटना के चार रूप पा रहा हूंतो हजारों साल पहले क्या हुआयह कैसे कह सकता हूंयह हालांकि कथा है और इसकी सत्यता पुष्ट नहीं हैपर इतिहास-लेखन सचमुच इस कड़वे सच की ओर इशारा तो करता ही है। खासकरतब तो औरजब आप भारत जैसे देश के इतिहास की बात करेंजो रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में मानवता का महासमुद्र है।

ज्ञान की किसी भी शाखा की तरहइतिहास का भी सबसे जरूरी तत्व सत्य की तलाश है। इसके लिए तथ्यों और तत्वों की सम्यक व निर्मम आलोचना जरूरी है। किसी भी तरह का पूर्वग्रहइतिहास को देखने की हमारी दृष्टि को धुंधला कर सकता है। हरेक राष्ट्र का इतिहास तो दरअसल पूरी दुनिया के इतिहास का हिस्सा हैलेकिन जब कोई अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए एकतरफा सबूतों और तथ्यों को प्रस्तुत करता हैतो उसके साथ ही इतिहास-लेखन के उस दौर पर भी सवाल उठ जाते हैं। यही बात किसी खास समुदायक्षेत्र या धर्म आदि के बारे में भी कही जा सकती है।

मौजूदा दौर में भी भारत के इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति पर सवाल उठे हैंइसकी शृंखला को दुरुस्त करने की मांग उठी है और यह जायज ही उठी है। इतिहास का पुनर्लेखन आख़िर क्यों ज़रूरी हैइसे समझना ही होगा। इतिहास का पुनर्लेखन दो ही कारणों से होता है। यह अतीत की घटनाओं की अनुचित व्याख्याओं को दुरुस्त करने के लिए अनिवार्य हैतो कई बार यह विचारधारा के स्तर पर हुई चूक को दुरुस्त करने के लिए भी जरूरी होता है। प्लेटो ने लिखा था कि कहानियां सुनाने वालों के हाथों में सत्ता होती है। इस कथन का आशय क्या हैक्या यह नहीं कि इतिहास हमारा सत्ताधारी वर्ग ही लिखता है। क्या यह नहीं मान लेना चाहिए कि सत्ताधारी वर्ग जब भी इतिहास लिखेगातो वह शोषितों को फुटनोट पर तो क्याहाशिए में भी जगह नहीं देगा।

आधुनिक भारत का इतिहास भी मुख्यतः उन ब्रिटिश विद्वानों की देन हैजिनकी मुख्य दिलचस्पी इस देश के राष्ट्रीय गौरव को ख़त्म कर देने में थी। इसके साथ हीभारत में इतिहास की समझ और उसके लेखन के प्रति समझ और पश्चिमी इतिहासकारों के बोध के अंतर को भी समझना होगा। विदेशियों ने भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अनदेखा किया। अपने औपनिवेशिक हित के कारण अंग्रेज भारतीय धार्मिक ग्रंथोंदंतकथाओं और पौराणिक ग्रंथों आदि में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के साथ न्याय करना तो दूर,उन्होंने उसे उपहास का पात्र बना दिया। भारत को उपनिवेश बनाना उन्हें उचित ठहराना था,इसलिए भारतीय इतिहास तथा साहित्य को हीन साबित करना उन्हें जरूरी लगता था।

उपनिवेशवादी अंग्रेज लेखकों ने भारत के इतिहास और साहित्य को नकार कर ही अपनी सत्ता के खिलाफ विद्रोह को दबाया। इतना ही नहींउन्होंने भारतीयों में इतनी हीन भावना भर दी कि बाद में भी जो इतिहासकार हुएउन्होंने भी अपनी एकांगी और अधूरी दृष्टि से ही भारतीय इतिहास को लिखा। अंग्रेजों और उनके बाद उनके पिट्टुओं का लिखा भारत का साहित्यिकसामाजिकसांस्कृतिक जो भी इतिहास हैवह एकांगी और भ्रम पैदा करनेवाला है।

भारतीयों की इतिहास-दृष्टि भी अलग थी। उन्होंने समय को केवल 'टाइममें न बांधकर'कालमें बांधा था। अधिकांश उलटफेर तो शब्दों को नहीं समझने की वजह से ही है। काल में सांस्कृतिक-सामाजिक आचार समाहित हो जाते हैं। इसीलिएभारतीय इतिहास-लेखन में अनायास ही तीन-चार सौ वर्षों तक की खाई भी आ सकती हैक्योंकि जब तक कुछ बड़ा सांस्कृतिक बदलाव नहीं होता थाभारतीय इतिहास अपनी गुंजलक में ही खोया रहता था। इसके अलावानामवरी से परहेज और श्रुति-परंपरा का होना भी भारतीय इतिहास-लेखन की भिन्नता में है। वेदों में जैसे नाम नहीं दिए गए हैंरचयिता केउसी तरह उनको श्रुति परंपरा से याद भी किया जाता था। इसीलिए भारतीयों ने न तो कभी ऐतिहासिक दस्तावेज लिखने में रुचि दिखाईऔर न ही उन्हें सहेजने में। इसका मतलब यह नहीं था कि भारतीयों ने इतिहास लिखा ही नहीं थाया उन्हें आता ही नहीं था।

दरअसलअपनी औपनिवेशिक दृष्टि को जायज ठहराने के लिए अंग्रेजों ने सारा घालमेल किया। वह कोई महान जाति भी नहीं थेजैसा कि हमारे वामपंथी-कांग्रेसी मित्र बताते रहते हैं कि उनके आने के बाद ही असभ्य भारतीय सभ्य हुए। यहां तक कि रामविलास शर्मा भी उनको कोसते हुए लिखते हैः- "अग्रेजी राज ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को मिटाया,हिंदुस्तानियों से एक रुपए ऐंठा तो उसमें से छदाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार अंग्रेजों पर बलि-बलि जाते हैं।" (सन सत्तावन की राज्य क्रांति और मार्क्सवाद,पृ. 67)

भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन सबसे जरूरी इसलिए है कि इसकी नींव ही सबसे बड़े झूठ पर रखी हुई है। वहयह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। दूसराकारण यह है कि इस इतिहास पर कोई भी सवाल उठाते ही आपको प्रतिक्रियावादीहिंदू राष्ट्रवादी और न जाने क्या-क्या कह दिया जाएगा। तीसराकारण यह है कि मिथकों के जवाब में हमें मिथक ही सुनाए गए हैं। चौथाकारण यह है कि तथ्यों और सबूतों की रोशनी में जब आप बात करेंगेतो वामपंथी-कांग्रेसी धड़े के तथाकथित इतिहासकार आपकी बातों का कोई जवाब देने ही नहीं आएंगे और आएंगेतो कहीं की ईंटकहीं का रोड़ा जोड़ेंगे। (यह लेखक जेएनयू का हैवह भी उस दौर काजब पहली एनडीए सरकार बनी थीइसलिए पाठक समझ सकते हैं कि वहां इतिहास के नाम पर कितनी बहस हुई होगी। बहरहालइस लेखक को अच्छी तरह याद है कि इतिहास के एक शोधार्थी ने जब आर्यन इनवेजन के मसले पर परचा लिखकर वामपंथी गुब्बारे की हवा निकाल दी थीतो एसएफआइ ने उसका जवाब देने के लिए देश के एक नामचीन इतिहासकार (?) को बुला लिया था...)...

आर्यों के विदेशी होने का सारा मसला भाषा-वैज्ञानिक तरीके पर हैलेकिन यह न भूलें कि यह सिद्धांत विलियम जोंस ने दिया था और 17 वीं सदी से पहले इस सिद्धांत का कोई नामलेवा नहीं था। (भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के दौर से इसको जोड़ कर देखें)। दूसरीबात यह कि अगर आर्य कहीं बाहर से आए थेतो उन्होंने समस्त वेदों में कहीं भी एक बार अपनी जन्मभूमि को क्यों नहीं याद किया है?? एक बार तो बनता हैभाई। तीसरी बातवेदों में जिस मुंजवंत पर्वत का उल्लेख हैवह तो पंजाब में पायी जाती है (सारे संदर्भ,संस्कृति के चार अध्याय से)। चौथी और सबसे अहम बातप्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार रामविलास शर्मा भी इस मिथ को तोड़ते हैः- वे लिखते हैं, "दूसरी सस्राब्दी ईस्वी पूर्व में जब बहुत-से भारतीय जन पश्चिमी एशिया में फैल गएतब ऐसा लगता हैउनमें द्रविड़ भी थे। इसी कारण ग्रीक आदि यूरोप की भाषाओं में द्रविण भाषा तत्व मिलते हैं यथा तमिल परि (जलना)ग्रीक पुर (अग्नि)तमिल अत्तन (पीड़ित होना)ग्रीक अल्गोस (पीड़ा)तमिल अन (पिता)ग्रीक अत्त (पिता)। यूरोप की भाषाओं में 12 से 19 तक संख्यासूचक शब्द कहीं आर्य पद्धति से बनते हैंकहीं द्रविड़ पद्धति से।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेशभाग २,पृ. 673) 

पांचवी बात यह है कि अगर आर्य कहीं औऱ से यहां आए (जो अक्सर कहा जाता हैरूस या ईरान से आए) तो इतनी बड़ी यात्रा के दौरान कुछ तो अवशेष कहीं होने चाहिए। कहीं कोई हड्डीकोई राख। हालांकिकहीं कुछ नहीं है। छठी और अंतिम बातइस संदर्भ में यह है कि जब स्वराज प्रकाश गुप्त ने रोमिला थापर के इस सिद्धांत को चुनौती दी थीतो थापर ने उन्हें बौद्धिक जगत से बदर करवा दिया था। यह है इनके इतिहास-लेखन का सच।

भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत इसलिए भी है कि अंग्रेजों ने हमें जिस तरह से हीन-भावना से ग्रस्त कियाहम पर बर्बर और असभ्य होने की मुहर लगा दीहमें बताया कि उन्होंने हमें ज्ञान की रोशनी दीउससे उबर कर हमें अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विरासत को सहेजने की जरूरत है।

हमें सबसे पहले तो प्रश्न पूछने की जरूरत है। आखिरप्रश्न पूछने को मनाही करना किस इतिहास-लेखन का हिस्सा हैहमें यह मान लेने में हर्ज नहीं कि ताजमहल वही हैजो हमें बताया गया है....लेकिनअगर हम जानना चाहें कि आखिर शाहजहां के पहले के कागज़ातों में उसका उल्लेख क्यों हैताज के बाहरी हिस्से में लगे लकड़ी की कार्बन डेटिंग से उम्र 11वीं सदी पता चलती है और शाहजहां के दरबारी काग़जों में कहीं भी इससे संबंधित उल्लेख नहींकई यूरोपीय पुरातत्वविदों और आर्किटेक्ट ने इसको हिंदू मंदिर जैसा बताया हैतो इन सवालों तक को क्यों उड़ा दिया जाता है??  इन पर चर्चा करने और इनके सही या गलत जवाब देने से किसको और क्यों आपत्ति है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि आगरे के लाल किले को भी शाहजहां द्वारा बनाया बताया जाता रहा हैजबकि वह मूलतः सिकरवार राजपूतों ने बनाया था (यह भी यूपीए शासनकाल में लिखी एनसीईआरटी की किताब में बदला गया है)। (एनसीईआरटीसामाजिक विज्ञानकक्षा 7) जबतथ्यों के आलोक में यह जानकारी बदल सकती हैतो बाक़ी क्यों नहीं?

इतिहास का पुनर्लेखन इसलिए जरूरी है कि हमें पता चल सके कि हमारे यहां स्त्री-शिक्षा की समृद्ध परंपरा रही है। हमारी ऋषिकाएं लोपाअपालाघोषा आदि-इत्यादि रही हैंजिन्होंने कई मंत्र लिखे हैं। हमें इतिहास फिर से लिखना चाहिए,ताकि पता चले कि मुरैना में चौंसठ योगिनी का एक मंदिर हैजिसे शिव-संसद कहते हैंजो नवी-दसवीं सदी का है और जो बिल्कुल उसी तरह का हैजैसी आज की भारतीय संसद। तोक्या यह मुमकिन है कि ल्युटयंस की 20 वीं सदी की इमारत की नकल 9वीं सदी के लोगों ने कर ली??

हमें इतिहास फिर से लिखना चाहिएताकि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाईरानी चेनम्मारानी अब्बक्का आदि के बारे में पता लगे। ताकिहम एक बार में यह मान लें कि हम किसको मिथक मानेंगे और किसे इतिहासयदि महाभारत मिथक हैतो फिर एकलव्य की कहानी भी मिथक क्यों नहीं...रामायण मिथक हैतो केवटशंबूक और शबरी की कहानी क्यों नहीं मिथक हैयदि ये मिथक नहीं हैं...तो सारा कुछ इतिहास क्यों नहीं है?

हमें इतिहास फिर से लिखना होगा ताकि जान सकें कि गोवा के सभी हिन्दुओं का क्या हुआउनकी मूर्तियाँरहन सहन के तरीकेबर्तनजेवर जैसी कोई भी चीज़ वहां क्यों मौजूद नहीं है हमें 14 वीं सदी में मौजूद चोल राजाओं द्वारा बनायी गयी सूर्य घड़ी के बारे में जानने के लिए इतिहास को फिर से लिखना ही होगा। हमें नालंदावैशालीचोलपांड्यचालुक्य आदि राजाओंअपनी मूर्तियों-भित्तियोंशिल्पोंमहलों को उजागर करना ही होगा। हमें अपनी गौरवशाली परंपरा को याद करना होगाताकि हम बिना वजह हीन-भावना से ग्रस्त न रहें। ताकिभारत का शेक्सपीयर न कहा जाएब्रिटेन का कालिदास कहा जा सके। भारत का नेपोलियन नहींफ्रांस का समुद्रगुप्त कहा जा सके।

हमें इतिहास को फिर से लिखना होगाताकि फिर किसी नेताजी की मौत पर परदा न डाला जा सकेताकिउस स्वातंत्र्यवीर की फिर से दो दशकों तक जासूसी न की जा सके...ताकि,हमारे नायकों का सही ढंग से चुनाव हो सके....ताकिहम जान सकें कि बर्मा की सीमा पर आइएनए यानी आज़ाद हिंद फौज के 2000 से अधिक सिपाही मारे गए थेऔर उनका उल्लेख तक आज भी नहीं होता है?

क्या इन तथ्यों को झुठलाया जा सकता हैलिहाजाइतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत तो है और हमें यह काम बहुत पहले ही शुरू कर देना चाहिए था। लेकिन सवाल यह है कि क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय विचारधारा के आग्रहों को परे रखते हुए खुले दिमाग से यह काम कर पाने में सक्षम हैहमेंफिलहाल किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त एक राष्ट्रीय इतिहास की जरूरत है।


संदर्भः-

संस्कृति के चार अध्याय रामधारी सिंह दिनकर

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