गांव भीतर गांव ( उपन्यास) / सत्यनारायण पटेल
सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव'उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। व्यवस्था से लड़ते हुए झब्बू ने अपनी जातिगत और लिंगगत पहचान से ऊपर एक चेतन कर्मशील योद्धा की छवि गढ़ी है। अपनी सीमाओं में जकड़ी ग्रामीण समाज की अति पिछड़ी दलित स्त्रियों को आर्थिक-नैतिक-वैचारिक रूप से सक्षम बनाने की मुहिम में वह स्वयं क्रमशः व्यक्ति से संस्था बनती गई है। लेकिन अपनी पूर्ववर्ती कथाकार-पीढ़ी की तरह सत्यनारायण पटेल रोमानी आदर्शवाद से अपनी लेखनी को आक्रांत नहीं होने देते। बाज़ार जब महानगरीय संस्कृति के कंधे पर सवार होकर गांवों को मिटाने के लिए तेजी से खेतों को निगलने लगा हो, चांदी का जूता जीवन और जगत के तमाम रहस्यों को खोलने की कुंजी बन गया हो, अपमान का गरल पीकर सत्ता-सुख का अमरत्व हासिल होता हो, तब ऊर्ध्वमुखी महत्वाकांक्षा चांद के पार सूरज से होड़ लेने की लिप्सा में कब रसातल की ओर उन्मुख हो जाए, पता नहीं चलता। सत्यनारायण पटेल रोमान और आदर्शवाद दोनों से सायास पल्ला बचाकर झब्बू के जरिए जितनी विश्वसनीयता से व्यक्ति के महानायक बनने की कथा कहते हैं, उतनी ही प्रामाणिकता से महानायक के भीतरी क्षरण की जांच भी करते हैं। झब्बू का अभ्युदय और पतन कथा से बाहर निकलकर समाज में एक बड़ी संभावना के पनपने और नष्ट हो जाने की त्रासदी कहता है, जिसे घटित करने में जितनी भूमिका व्यवस्था को इशारों पर नचाती उपभोक्तावादी संस्कृति की है, उतनी ही अपने भीतर खदबदाती लिप्साओं और बर्बरताओं की भी। जाहिर है उपन्यास 'गांव भीतर गांव'पाठक को अपने इस अनपहचाने 'स्व'को देखने की आंख देता है। तब रोशनी, राधली, जग्गा, श्यामू या दामू, संतोष पटेल, ठाकुर और विधायक आदि दो खेमों में बंटे पात्र नहीं रहते, अपने ही भीतर की निरंतर द्वंद्वग्रस्त मनोवृत्तियां बन जाते हैं।
कहना न होगा कि उपन्यास में एक-दूसरे को काटती, घुलमिल कर आगे बढ़ती घटनाओं का अंतर्जाल है; पात्रों का मेला है और उसी अनुपात में अंतस्संबंधों की कई-कई बारीकियां भी। मिट्टी की सांेधी गंध से महकती बोली-बानी पात्रों को चरित्र-रूप में साक्षात् उपस्थित भी करती है और लोक-जीवन की विश्वसनीयता को भी गहराती है। कहानियों में जिस बेलौस अक्खड़ अंदाज में सत्यनारायण पटेल अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर कथा-साहित्य को एक नई रंगत और रवानगी देते हैं, उसी की सतत् निरंतरता है उपन्यास 'गांव भीतर गांव', यानी अपने वक्त का अक्स।
रोहिणी अग्रवाल
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