हमें ऐसी ही फिल्मों की जरुरत है
बूढ़े के साथ राजहंस की दिनचर्या और सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून का परिदृश्य,सेल्फी में झांकता हिटलर
पलाश विश्वास
हम भाषा, माध्यमों और विधाओं को ताजा चुनौतियों के मुताबिक बदलने की बात लगातार कह लिख रहे हैें।इस सिलसिले में फिल्मों से जुड़े मित्रों से भी हमारी लगातार बहस चली रही है।
हम मानते हैं कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर लोक तक से बेदखल जनपक्ष के लिए नुक्कड़ नाटक की तर्ज पर नकुकड़ फिल्म का विकास भी करना चाहिए।
अगर हम कहीं भी किसी गांव या मोहल्ले में प्रोजेक्टर से लेकर मोबाइल तक पर छोटी छोटी फिल्में मौजूदा हालात में दिखा सकें तो जैसे समर्थ और प्रतिभाशाली मित्र फिल्म विधा में अब भी सक्रिय हैं और प्रतिरोध का सिनेमा भी वे 16 मई के बाद कविता की तर्ज पर चला रहे हैं,तो जंजीरों में कैद,बाजार में नीलाम अभिव्यक्ति की लिए नई दिशाएं खुल सकती हैं।
ऐसी फिल्मों के मास्टर हैं हमारे परम मित्र जोशी जोसेफ,जो केरल के एक द्वीप से बिना कोई फिल्म देखे,फिल्म निर्देशक बन गये।उन्हें पुणे फिल्म इंस्टीच्यूट में दाखिला इसलिए नहीं मिला क्योंकि उन्होंने साक्षात्कार में कह दिया कि उनके द्वीप में बसे गांव में फिल्म देखने का कोई साधन ही नहीं है।
स्क्रिप्ट राइटर से फिल्म उद्योग में घुसते ही उन्होंने उत्तर पूर्व भारत पर केंद्रित अपने तथ्यचित्रों के लिए तीन तीन बार सर्वश्रेष्छ वृत्त चित्र निदेशक के पुरस्कार जीत लिये।
विडंबना यह है कि हिंदी दर्शकों को जोशी जोसेफ के बारे में खथास जानकारी नहीं है और न हिंदी मीडिया में उनका नोटिस लिया गया है।लेकिन जनसरोकार से लैस फिल्में बनानाे के लिए जोशी कोलकाता और पूरे पूर्वोत्तर में अत्यंत लोकप्रिय फिल्मकार हैं।
वे हमारे अति प्रियफिल्मकार आनंद पटवर्धन के भी घनिष्ठ मित्र हैं।
जोशी और हमारे नैनीताल के फिल्मकार राजीव कुमार ने हमारे सुझाव को सिरे से खारिज किया है।
जिसके जवाब में मैंने फिर बहस जारी की तो जोशी ने इसबार बिना मंतव्य किये दो छोटी और एक लंबी फिल्मों की डीवीडी भेज दी।
लंबी फिल्म कोलकाता महानगर में एक कवि के कैंसर के विरुद्ध आखिरी सांस तक लड़ाई,उसकी कविता और उसके अंतर्जगत,कोलकाता महानगर की रोजमर्रे की जिंदगी और प्रसिद्ध फुटबालर पीके बनर्जी पर केंद्रित है,जिसका कुल जमा कथ्य है कि जब तक जियो,लड़ते रहो।इस फिल्म में कथा सिलिसलेवार नहीं है।
नैरेशन है और माहौल है जो बंगाल में शरणार्थी सैलाब,नक्सलबाडी़,जंगल महल और बाुल संगीत तक विस्तृत है।हम समझ रहे हैं कि जोशी का आशय यही है कि छोटी फिल्म इसतरह की हो नहीं सकती।
हम आगे इस अति महत्वपूर्ण फिल्म पर चर्चा जारी रखेंगे क्योंकि यह फिल्म कोलकाता के धूसर मलिन जीवन यापन पर शेल्यलाइड की बेहतरीन कविता है।
इसके अलावा कैंसर के स्टेज एक से चार तक और मृत्युपर्यंत लागातार अपना संघर्ष छीजते हुए वक्त के खिलाफ जारी रखने की जीजिविषा में मुझे फ्रेम दर फ्रेम नवारुण दा का गुरिल्ला युद्ध और कैंसर के विरुद्ध युद्धरत कवि वीरेनदा की सोलह मई की बाद की कविता में सक्रिय हिस्सेदारी की झलक मिलती रही।
जोशी मने एक शाट की फिल्म मोबाइल भी बनाई है,जिसमें कोलकाता के राजमार्ग पर हाथ रिख्शे पर सवार एक दंपत्ति की मोबाइल कथोपकथन है।
ऐसी ही छोटी फिल्म जोशी की मास्क है।जो मणिपुर में आफसा माहौल का जीवंत दस्तावेज है।
जोशी ने जो दो तीन तीन मिनट की छोटी फिल्में भेजी है,उससे मेरे दावे मजबूत ही होते हैं।एक फिल्म द ओल्डमैन एंड द स्वान है जो मणिपुर में एक राजहंस के साथ एक बूढ़े आदमी की दिनचर्या के बहाने सशस्तर सैन्य विशेषाधिकार कानून के पूरे परिदृश्य का खुलासा करता है।
तो दूसरी फिल्म ग्लोबल मुक्तबाजार भारत में कोलकाता के एक आटोरिक्शा चालक की ट्रैफिक के मुखातिब उसकी डिजिटल सेल्फी है,जिसको ओवरलैप करती है हिटलर की तस्वीरें।
हम लंबी फिल्मों ,जिनकी लंबाई जरुरी भी है,उसके खिलाफ नहीं हैं।लेकिन हम ज्यादा से ज्यादा दो तीन पांच दस मिनट की फिल्में अपने मित्रों से चाहते हैं.जिन्हें हम कहीं भी कभी भी दिका सकें।
कल दिन के तीन बजे कर्नल बर्वे साहेब घर आ गये थे।वे कोलकाता के दोलयात्रा और रवींद्रसंगीत के मुखातिब हुए पहलीबार सविता भी अपनी मंडली के साथ तड़के ही दोलयात्रा पर निकली थीं रवींद्र संगीत के साथ।उनकी मंडली अब सोदपुर का पूरा भूगोल है और सैकड़ों महिलाएं उसमें शामिल हैं।उनका अगला कार्यक्रम महिला दिवस है।
कर्नल साहब को मैंने कहा कि जोशी ने फिल्में दिखायी हैं और हमें देखने का वक्त नहीं मिला।इसपर उनने कहा कि चलो कोलकाता मेरे डेरे पर वहीं प्रोजेक्टर पर देखते हैं ये फिल्में।सविता का कार्यक्रम चल ही रहा है वे जाने को राजी नहीं थीं तो उन्हें जबरन हमारे साथ नत्थी करके कर्नल साहेब बोले ,दीदी आपको नया कोलकाता दिखाता हूं।
वीआईपी से न्यू टाउन के सिटी सेंटर तक पहुंचते न पहुंचते सविता को उल्टियां लग गयीं।उत्तराखंड,दिल्ली,मुंबई या दक्षिण भारत में पहाड़ों में भी वे मजे से सफर कर लेती हैं।लेकिन कोलकाता में इतना जहर है हवाओं में कि एक किमी चलते न चलते उनका दम घुटने लगता है।
हम न्यूटाउन से राजारहाट को छूते हुए इका पार्क का चक्कर लगाते हुए निक्कोपार्क होकर डिंगड़ीघाटा होकर फिर ईएम बाईपास होकर गरियाहाट होकर महास्वेता देवी के महल्ले गोल्फ ग्रीन के बगल में विजयगढ़ पहुंचे।सविता बिल्कुल बेहाल हो गयी और भाभी के बेडरुम में सो गयी।
जब प्रोजेक्टर लगाकर हमने फिल्में शुरु की तो सविता भी आ गयी।जोशी न सिर्फ हमारे मित्र हैं वे हमारे पसंदीदा फिल्मकार भी हैं।लेकिन कलात्मक 2 घंटे 44 मिनट की फिल्म देखते हुए,सीधे बात नहीं कर रहे हैं जोशी ,कहकर फिर वे सोने को चली गयीं।जाहिर है कि फिल्म आम जनता के लिए हैं,समीक्षकों की वाहवाही के लिए नहीं है।
हमें खुशी है कि जोशी की फिल्मों में विकास का यह तामझाम नहीं है औरसामाजिक यथार्थ की रोजमर्रे की जिंदगी में उनके लिए नई दिल्ली,नई मुंबई या नया कोलकाता कहीं नहीं है।
इन तीनों फिल्मों में भी पुराने कोलकाता और गंगा की की रोजमर्रे की जिंदगी दर्ज है,पुराने कोलकाता की जर्जर इमारतें,मैदान और चाइना टाउन के साथ रात के अंधेरा चीरकर चलती लोकल ट्रेंने,मछलियां कूटतीं औरतें,चमडा़ उद्योग का बदबूदार माहौल,ट्राफिक पर बजते रंवींदर संगीत से लेकर प्रतिरोध के खंडित चित्र कविता की तरह गूंथे हुए हैं।
कविता जोशी की फिल्मों में फिल्म के फ्रेम दर फ्रेम गूंथी हुई है।
यह बहस हम अंग्रेजी में चला रहे थे।
पहलीबार इस मुद्दे पर लिख रहा हूं हिंदी में क्योंकि जोशी जैसे फिल्मकारों से हिंदी जनाता का कोई परिचय नहीं है।
हम ऐसा इसलिए सोच रहे हैं क्योंकि सूचनाओं के सारे स्रोत सूखते नजर आ रहे हैं।
होली के मौके पर विश्वकप,होली,हिंदुत्व,आप और मोदी की दहाड़ के अलावा इस देश में किसी हलचल के बारे में कोई खबर कहीं नहीं है।
विज्ञापनों के जिंगल में,आत्ममुग्ध विशेषज्ञों की गलतबयानी में यह जो मुक्तबाजारी तिलिस्म है,वहां जनता के मुद्दों और रोजमर्रे की जिंदगी की कोई गूंज नहीं है।