कुमाऊनी सांस्कृति और द्रविड़ संस्कृति
आज द्रविड़ भाषा और संस्कृति की मुख्य भूमि दक्षिण भारत है, लेकिन अतीत में इस भाषा-परिवार की भाषाएँ और संस्कृति पूरे भारत में ही नहीं, पश्चिम में बिलोचिस्तान और कुछ विद्वानों के अनुसार तो अफ्रीका में सहारा मरुस्थल के उस पार तक फैली हुई थीं। वर्तमान में इस भाषा-परिवार की तमिल, मलयालम, कन्नड़ तथा तेलगु जैसी प्रमुख भाषाएँ और इरुल, कुरुम्ब, कोडगु, टोडा, कोट, बदग, कोरगा, तुलू, गौंडी, कोण्डा, कुई, कुवी, पैंगो, मंडा, कोलामी, नैक्री, नैकी (चंडा), पर्जी, ओल्लारी, गडबा, ब्राहुई (बिलोचिस्तान), कुरुक्ष ( नेपाल) तथा माल्टो (झारखंड) आदि बोलियाँ भारतीय उप महाद्वीप में बोली जाती हैं।
द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाओं और बोलियों के इस भौगोलिक वितरण से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्यो के प्रसार से पूर्व द्रविड़ भाषा-भाषी जन पूरे भारत में फैले हुए थे। आर्यो के प्रसार और उनके सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण द्रविड़ भाषाएँ उसी प्रकार दक्षिण की ओर सिमटती गयीं जिस प्रकार हिन्दी के वर्चस्व के कारण कुमाऊनी और गढ़वाली भाषाएँ धीरे-धीरे कुमाऊँ और गढ़वाल के अन्तवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की ओर सिमटती जा रही हैं।
आर्यो के आगमन से पूर्व भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह ही मध्य हिमालय में भी आर्येतर प्रजातियाँ निवास करती थीं। इनमें से अनेक प्रजातियाँ पहले खशों के और बाद में आर्यो के इस अंचल में प्रवेश के बाद या तो पलायन करने के लिए विवश हुईं अथवा कालक्रम में नवांगतुकों में ही समंजित हो गयीं। उन्होंने यहाँ की भाषा और संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह के विकास में जहाँ भारतीय आर्य भाषा परिवार की विभिन्न युगों की भाषाओं के शब्द-समूहों की प्रमुख भूमिका है वहीं आर्येतर भाषाओं का भी योगदान नकारा नहीं जा सकता। इनमें सर्वाधिक योगदान द्रविड़ भाषाओं के शब्द-समूह का है।
अभी तक मध्य पहाड़ी के आर्येतर शब्द-समूह का जितना संकलन हो पाया है उनकी द्रविड़ भाषाओं के शब्दकोशों में उपलब्ध शब्दों के साथ ध्वनि और अर्थ की दृष्टि से तुलना करने पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि द्रविड़ परिवार की बोलियों के शब्द-समूह और मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह का समग्र संकलन और परितुलन कर लिया जाय तो मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह का कम से कम दशमांश द्रविड़ भाषाओं से अधिगृहीत सिद्ध होगा ।
केवल शब्द ही नहीं कुमाऊँ के स्थान-नामों के साथ बहुत से ऐसे प्रत्यय जुडे़ हैं जिनकी सार्थक पहचान केवल द्रविड़ भाषाओं के शब्दों के अवशिष्टांशों के रूप में संभव है। इनमें जोग्यूड़, भुल्यूड़, पठक्यूड़, रज्यूड़ जैसे स्थान-नामों के साथ जुड़ा 'ऊड़' (तमिल 'ऊर'या गाँव), चापड़, राँकड़, कुमड़, दुबड़, कोरड़, दागड़ जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'अड़'प्रत्यय ( मलयालम 'अड या आश्रय स्थल और तमिल में चारों ओर से घिरा स्थान ) बिषाड़, तुनाड़, तलाड़, कमराड़, बबियाड़, सिमराड़, ककलाड़ी भिताड़ी दड़माड़ी, जोग्याड़ी जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'आड़'तथा 'आड़ी'जैसे प्रत्यय ( भले ही इन्हें गाड़ (छोटी नदी) का वाचक माना जाता हो, द्रविड़ भाषाओं के 'अड' (आश्रयस्थल) की ही देन हैं। इसीतरह बीसाबजेड, संगेड, लझेड, कसेड़़़, भटेड़, कलनेड़ी जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'एड़', 'एड़ी'प्रत्यय (द्रविड़ भाषाओं के 'एडम'या स्थान) उल्लेखनीय हैं
कुमाऊनी के शब्द-समूह में ही नही विभिन्न सांस्कृतिक अवधारणाओं में भी द्रविड़ परंपराओं के अवशेष विद्यमान है। लोक-देवताओं में ऐड़ी, जो आम तौर पर बधाण के समान ही पशुओं का देवता और कहीं-कहीं ग्राम देवता भी माना जाता है, के मूल में द्रविड भाषाओं के एडम (स्थान) का योगदान है। इस प्रकार यह स्थली-देवता या भूमियाँ के रूप में भी सामने आता है। यही नहीं शिव की तरह ही इसकी बारात की कल्पना भी देवताओं की रथयात्रा संबंधी द्रविड़ रीति-रिवाजों से साम्य रखती है। इसी तरह चुडै़ल जो पूरे उत्तरी भारत में भयावह स्त्री प्रेत मानी जाती है और आम तौर पर लड़ाकू स्वभाव की महिलाओं के लिए भी विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होती है, का मूल भी तमिल के चुडल (श्मशान) शब्द में निहित है। संभवतः इसमें तमिल के चुडल (श्मशान) और स्वभाव में तमिल के ही चुडु (बहुत गरम) का मिश्रण है।
दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु की लोक-परंपराओं और कुमाऊनी लोक-परंपराओं की तुलना करने पर बहुत सी समानताएँ दिखायी देती हैं । मध्य हिमालय के ग्रामों की तरह ही तमिलनाडु में भी प्रत्येक ग्राम का एक ग्राम देवता होता है जिसे आयनार कहा जाता है। उसमें वही शक्तियाँ निहित मानी जाती हैं जो एक भूमियाँ में होती हैं। कुमाऊँ की तरह ही द्रविड़ परंपरा में भी प्रत्येक लोक देवता की एक निश्चित भोज्य सामग्री है। देवताओं के अवतरण (नचाने) की परंपरा भी सभी आदिम जातियों की विरासत के रूप में दोनों ही क्षेत्रों में विद्यमान है।
बच्चों से संबंधित धारणाओं में भी बहुत समानता है। कुमाऊँ के जनों में प्रचलित मान्यताओं के समान ही तमिलनाडु में भी यदि किसी महिला के आरंभिक दो बच्चे जीवित न रहें तो तीसरे बच्चे का नाम ऐसा रखा जाता है जिससे वह बुरी नजर और अकाल मृत्यु से बच सके यथा कुमाऊँ में जोगादत्त (जोगी,) भिखारी, बच्चीनाथ, अमरनाथ, तो तमिलनाडु में कुप्पुस्वामी ( कुप्प -गँवार), पक्किरी (फकीर), पिचाइ (भिखारी) कुप्पाम्मल (गँवारन) आदि।
दोनों ही समाजों में शिशु को दर्पण दिखाने का निषेध है और यह माना जाता है कि ऐसा करने पर बच्चा गूँगा हो जाएगा। बच्चों के दाँत गिरने पर कुमाऊँ में उसे दूब में दबा दिया जाता है और यह माना जाता है कि ऐसा करने पर दाँत जल्दी निकलते हैं तो तमिलनाडु में बच्चे के पहले दाँत के गिरने पर उसे गोबर में रख कर छत के किसी कोने में छिपा देते हैं। बच्चों को नजर लगना और उसके निवारण के लिए सिर के ऊपर से तीन बार परिछन दोनों ही क्षेत्रों में समान है। ऐसा लगता है कि तीन का मोटिफ संसार के कई समाजों में पक्के वचन का परिचायक है।
भारतीयों के रीतिरिवाजों में नारियल और पूगीफल (सुपारी) का महत्व निश्चय ही द्रविड़ों की देन है। कुमाउनी समाज में किसी विवाहित महिला के प्रथम रजोदर्शन को प्रथम संतानोत्पत्ति के समान मानना, शिशु के स्थान पर नारियल का रखा जाना, प्रथम रजवती स्त्री को 'नरुवैकि मै' (नारियल की माँ) नाम से संबोधित करना, सभी संस्कार और परंपराओं को शिशु जन्म के समान ही सम्पन्न करना निश्चय ही द्रविड़ समाज की परंपराओं की देन है। रजोदर्शन के संबंध में द्विजेतर जातियों में विद्यमान कट्टरता भी निश्चय ही आर्येतर जातियों की विरासत है।
यात्रा संबंधी विश्वासों में कुमाऊँ और तमिलनाडु दोनों ही क्षेत्रों में तलवे में खुजली लगाना भावी यात्रा का संकेत माना जाता है। यात्रा आरंभ करते समय गरुड़, जल से भरा घड़ा, विवाहित महिला, दायीं ओर कौआ, बायीं ओर नाग, बछडे़ को दूध पिलाती गाय का दिखायी देना शुभ माना जाता है। चलते समय सिर का दरवाजे से टकराना, किसी के द्वारा टोक दिया जाना, साँप, बिल्ली, सन्यासी, नाई, विघवा स्त्री द्वारा रास्ता काट दिया जाना अशुभ माना जाता है। यदि ऐसा हो तो यात्री को घर वापस आकर, पानी पीकर तथा थोड़ी देर रुक कर पुनः प्रस्थान करने का विधान है।
दोनों ही समाजों में सुबह.सुबह, पानी का भरा बर्तन, मछली, हल्दी या कोई शकुन वाली चीज, गाय बछड़ा, दायीं हथेली, पत्नी का मुँह, पागल, काला बंदर, दिखायी देना, दायीं हथेली का खुजलाना शुभ माना जाता है। यह भी माना जाता है कि सुबह के स्वप्न प्रतिफलित होते हैं।
दोनों ही समाजों में छींकने के बाद आराध्य देव का नाम लेना अथवा बच्चे के माता.पिता द्वारा 'शतंजीवी'कहने की परंपरा है। तमिल समाज में भी चतुर्थी के चाँद के दर्शन का निषेध है। यह माना जाता है कि ऐसा करने पर स्मृति कमजोर हो जाती है। दोनांे ही समाजों में दाँतों से नाखून काटने का निषेध है। बैठ कर पाँव हिलाते रहनेे की आदत दरिद्रता की निशानी मानी जाती है। बायें हाथ से कोई चीज देना अपमान जनक माना जाता है। टूटे दर्पण में मुँह देखने का निषेध है। दोनों ही समाजों में अन्नादि किसी वस्तु को तोलते या मापते समय पहली माप के लिए एक के स्थान पर आराध्य देव का नाम या लाभवाची शब्द का उच्चारण किया जाता है। दोनो ही समाजों में दूकानदार के सुबह-सुबह सुई और तेल बेचने तथा किसी वस्तु के लिए ना कहने का भी निषेध है। शाम के बाद बाल काटना, नाखून काटना, साँप या नाई का नाम लेना, सुई लेना या देना, सुबह.सुबह, किसी के घर से आग माँगना, बुरा माना जाता है।
किसी कार्य को किस दिन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इस बारे में दोनो ही क्षेत्रों में थोड़ी बहुत भिन्नता के बावजूद समानता है। कुमाऊँ में सोमवार को लड़की के मायके से ससुराल जाने का निषेध है तो तमिलनाडु में शुक्रवार को। तमिलनाडु में तो शुक्रवार को किसी को भुगतान भी नहीं किया जाता। मंगल को कोई बड़ा काम आरंभ नहीं किया जाता। बुधवार सर्वोत्तम दिन माना जाता है। वृहस्पति को पहली बार आने वाला अतिथि अच्छा नहीं माना जाता तो कुमाऊँ में मंगल या शनिवार को।
उचैण या रोग व्याधि के दूर होने पर पूजा करने के वचन और देवताओं को नवान्न अर्पित करने की परंपरा - 'ओग'दोनो ही समाजों में विद्यमान है।
अपने-अपने अंचल के वीरों की याद में स्थापित होने वाले वीरस्तम्भ जो मध्यहिमालय में बिरखम और कर्नाटक में वीरगल्लुस कहे जाते हैं लगभग सभी समाजों में विद्यमान हैं।
कुमाऊँ में छोलिया नृत्य और कर्नाटक प्रदेश का कोम्बात नृत्य दोनों में विलक्षण समानता है। दोनों ही सामन्ती युद्धों की अनुकृति हैं। अतः इन्हें किसी जाति या प्रजाति विशेष से जोड़ना समीचीन नहीं है।
इन समानताओं से ऐसा लगता है कि किसी युग में मध्य हिमालय में द्रविड़ भाषाओं को बोलने वाले जनों का अस्तित्व था। कालान्तर में खशों और आर्य जनों का आधिपत्य हो जाने के बाद या तो वे इस अंचल से भी पलायन के विवश हुए अथवा नवागंतुकों में ही निम्न कही जाने वाली जातियों के रूप में समंजित हो गये।
पांडुकेश्वर दानपत्रों में इस अंचल के निवासियों में खस, किरात, द्रविड़, कलिंग गौड, हूण, औड्र, मेद, आन्ध्र, चाण्डाल आदि जनों का उल्लेख भले ही बाहर से देखने पर राजाओं के विरुद वर्णन की अतिशयोक्ति लगे, पर शब्द समूह और परंपराओं का अवगाहन करने पर वे इस अंचल में आर्येतर भाषाओं को बोलने वाले जनों की अवस्थिति के एक और साक्ष्य हैं।
आज द्रविड़ भाषा और संस्कृति की मुख्य भूमि दक्षिण भारत है, लेकिन अतीत में इस भाषा-परिवार की भाषाएँ और संस्कृति पूरे भारत में ही नहीं, पश्चिम में बिलोचिस्तान और कुछ विद्वानों के अनुसार तो अफ्रीका में सहारा मरुस्थल के उस पार तक फैली हुई थीं। वर्तमान में इस भाषा-परिवार की तमिल, मलयालम, कन्नड़ तथा तेलगु जैसी प्रमुख भाषाएँ और इरुल, कुरुम्ब, कोडगु, टोडा, कोट, बदग, कोरगा, तुलू, गौंडी, कोण्डा, कुई, कुवी, पैंगो, मंडा, कोलामी, नैक्री, नैकी (चंडा), पर्जी, ओल्लारी, गडबा, ब्राहुई (बिलोचिस्तान), कुरुक्ष ( नेपाल) तथा माल्टो (झारखंड) आदि बोलियाँ भारतीय उप महाद्वीप में बोली जाती हैं।
द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाओं और बोलियों के इस भौगोलिक वितरण से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्यो के प्रसार से पूर्व द्रविड़ भाषा-भाषी जन पूरे भारत में फैले हुए थे। आर्यो के प्रसार और उनके सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण द्रविड़ भाषाएँ उसी प्रकार दक्षिण की ओर सिमटती गयीं जिस प्रकार हिन्दी के वर्चस्व के कारण कुमाऊनी और गढ़वाली भाषाएँ धीरे-धीरे कुमाऊँ और गढ़वाल के अन्तवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की ओर सिमटती जा रही हैं।
आर्यो के आगमन से पूर्व भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह ही मध्य हिमालय में भी आर्येतर प्रजातियाँ निवास करती थीं। इनमें से अनेक प्रजातियाँ पहले खशों के और बाद में आर्यो के इस अंचल में प्रवेश के बाद या तो पलायन करने के लिए विवश हुईं अथवा कालक्रम में नवांगतुकों में ही समंजित हो गयीं। उन्होंने यहाँ की भाषा और संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह के विकास में जहाँ भारतीय आर्य भाषा परिवार की विभिन्न युगों की भाषाओं के शब्द-समूहों की प्रमुख भूमिका है वहीं आर्येतर भाषाओं का भी योगदान नकारा नहीं जा सकता। इनमें सर्वाधिक योगदान द्रविड़ भाषाओं के शब्द-समूह का है।
अभी तक मध्य पहाड़ी के आर्येतर शब्द-समूह का जितना संकलन हो पाया है उनकी द्रविड़ भाषाओं के शब्दकोशों में उपलब्ध शब्दों के साथ ध्वनि और अर्थ की दृष्टि से तुलना करने पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि द्रविड़ परिवार की बोलियों के शब्द-समूह और मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह का समग्र संकलन और परितुलन कर लिया जाय तो मध्य पहाड़ी के शब्द-समूह का कम से कम दशमांश द्रविड़ भाषाओं से अधिगृहीत सिद्ध होगा ।
केवल शब्द ही नहीं कुमाऊँ के स्थान-नामों के साथ बहुत से ऐसे प्रत्यय जुडे़ हैं जिनकी सार्थक पहचान केवल द्रविड़ भाषाओं के शब्दों के अवशिष्टांशों के रूप में संभव है। इनमें जोग्यूड़, भुल्यूड़, पठक्यूड़, रज्यूड़ जैसे स्थान-नामों के साथ जुड़ा 'ऊड़' (तमिल 'ऊर'या गाँव), चापड़, राँकड़, कुमड़, दुबड़, कोरड़, दागड़ जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'अड़'प्रत्यय ( मलयालम 'अड या आश्रय स्थल और तमिल में चारों ओर से घिरा स्थान ) बिषाड़, तुनाड़, तलाड़, कमराड़, बबियाड़, सिमराड़, ककलाड़ी भिताड़ी दड़माड़ी, जोग्याड़ी जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'आड़'तथा 'आड़ी'जैसे प्रत्यय ( भले ही इन्हें गाड़ (छोटी नदी) का वाचक माना जाता हो, द्रविड़ भाषाओं के 'अड' (आश्रयस्थल) की ही देन हैं। इसीतरह बीसाबजेड, संगेड, लझेड, कसेड़़़, भटेड़, कलनेड़ी जैसे स्थान-नामों के साथ संयुक्त 'एड़', 'एड़ी'प्रत्यय (द्रविड़ भाषाओं के 'एडम'या स्थान) उल्लेखनीय हैं
कुमाऊनी के शब्द-समूह में ही नही विभिन्न सांस्कृतिक अवधारणाओं में भी द्रविड़ परंपराओं के अवशेष विद्यमान है। लोक-देवताओं में ऐड़ी, जो आम तौर पर बधाण के समान ही पशुओं का देवता और कहीं-कहीं ग्राम देवता भी माना जाता है, के मूल में द्रविड भाषाओं के एडम (स्थान) का योगदान है। इस प्रकार यह स्थली-देवता या भूमियाँ के रूप में भी सामने आता है। यही नहीं शिव की तरह ही इसकी बारात की कल्पना भी देवताओं की रथयात्रा संबंधी द्रविड़ रीति-रिवाजों से साम्य रखती है। इसी तरह चुडै़ल जो पूरे उत्तरी भारत में भयावह स्त्री प्रेत मानी जाती है और आम तौर पर लड़ाकू स्वभाव की महिलाओं के लिए भी विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होती है, का मूल भी तमिल के चुडल (श्मशान) शब्द में निहित है। संभवतः इसमें तमिल के चुडल (श्मशान) और स्वभाव में तमिल के ही चुडु (बहुत गरम) का मिश्रण है।
दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु की लोक-परंपराओं और कुमाऊनी लोक-परंपराओं की तुलना करने पर बहुत सी समानताएँ दिखायी देती हैं । मध्य हिमालय के ग्रामों की तरह ही तमिलनाडु में भी प्रत्येक ग्राम का एक ग्राम देवता होता है जिसे आयनार कहा जाता है। उसमें वही शक्तियाँ निहित मानी जाती हैं जो एक भूमियाँ में होती हैं। कुमाऊँ की तरह ही द्रविड़ परंपरा में भी प्रत्येक लोक देवता की एक निश्चित भोज्य सामग्री है। देवताओं के अवतरण (नचाने) की परंपरा भी सभी आदिम जातियों की विरासत के रूप में दोनों ही क्षेत्रों में विद्यमान है।
बच्चों से संबंधित धारणाओं में भी बहुत समानता है। कुमाऊँ के जनों में प्रचलित मान्यताओं के समान ही तमिलनाडु में भी यदि किसी महिला के आरंभिक दो बच्चे जीवित न रहें तो तीसरे बच्चे का नाम ऐसा रखा जाता है जिससे वह बुरी नजर और अकाल मृत्यु से बच सके यथा कुमाऊँ में जोगादत्त (जोगी,) भिखारी, बच्चीनाथ, अमरनाथ, तो तमिलनाडु में कुप्पुस्वामी ( कुप्प -गँवार), पक्किरी (फकीर), पिचाइ (भिखारी) कुप्पाम्मल (गँवारन) आदि।
दोनों ही समाजों में शिशु को दर्पण दिखाने का निषेध है और यह माना जाता है कि ऐसा करने पर बच्चा गूँगा हो जाएगा। बच्चों के दाँत गिरने पर कुमाऊँ में उसे दूब में दबा दिया जाता है और यह माना जाता है कि ऐसा करने पर दाँत जल्दी निकलते हैं तो तमिलनाडु में बच्चे के पहले दाँत के गिरने पर उसे गोबर में रख कर छत के किसी कोने में छिपा देते हैं। बच्चों को नजर लगना और उसके निवारण के लिए सिर के ऊपर से तीन बार परिछन दोनों ही क्षेत्रों में समान है। ऐसा लगता है कि तीन का मोटिफ संसार के कई समाजों में पक्के वचन का परिचायक है।
भारतीयों के रीतिरिवाजों में नारियल और पूगीफल (सुपारी) का महत्व निश्चय ही द्रविड़ों की देन है। कुमाउनी समाज में किसी विवाहित महिला के प्रथम रजोदर्शन को प्रथम संतानोत्पत्ति के समान मानना, शिशु के स्थान पर नारियल का रखा जाना, प्रथम रजवती स्त्री को 'नरुवैकि मै' (नारियल की माँ) नाम से संबोधित करना, सभी संस्कार और परंपराओं को शिशु जन्म के समान ही सम्पन्न करना निश्चय ही द्रविड़ समाज की परंपराओं की देन है। रजोदर्शन के संबंध में द्विजेतर जातियों में विद्यमान कट्टरता भी निश्चय ही आर्येतर जातियों की विरासत है।
यात्रा संबंधी विश्वासों में कुमाऊँ और तमिलनाडु दोनों ही क्षेत्रों में तलवे में खुजली लगाना भावी यात्रा का संकेत माना जाता है। यात्रा आरंभ करते समय गरुड़, जल से भरा घड़ा, विवाहित महिला, दायीं ओर कौआ, बायीं ओर नाग, बछडे़ को दूध पिलाती गाय का दिखायी देना शुभ माना जाता है। चलते समय सिर का दरवाजे से टकराना, किसी के द्वारा टोक दिया जाना, साँप, बिल्ली, सन्यासी, नाई, विघवा स्त्री द्वारा रास्ता काट दिया जाना अशुभ माना जाता है। यदि ऐसा हो तो यात्री को घर वापस आकर, पानी पीकर तथा थोड़ी देर रुक कर पुनः प्रस्थान करने का विधान है।
दोनों ही समाजों में सुबह.सुबह, पानी का भरा बर्तन, मछली, हल्दी या कोई शकुन वाली चीज, गाय बछड़ा, दायीं हथेली, पत्नी का मुँह, पागल, काला बंदर, दिखायी देना, दायीं हथेली का खुजलाना शुभ माना जाता है। यह भी माना जाता है कि सुबह के स्वप्न प्रतिफलित होते हैं।
दोनों ही समाजों में छींकने के बाद आराध्य देव का नाम लेना अथवा बच्चे के माता.पिता द्वारा 'शतंजीवी'कहने की परंपरा है। तमिल समाज में भी चतुर्थी के चाँद के दर्शन का निषेध है। यह माना जाता है कि ऐसा करने पर स्मृति कमजोर हो जाती है। दोनांे ही समाजों में दाँतों से नाखून काटने का निषेध है। बैठ कर पाँव हिलाते रहनेे की आदत दरिद्रता की निशानी मानी जाती है। बायें हाथ से कोई चीज देना अपमान जनक माना जाता है। टूटे दर्पण में मुँह देखने का निषेध है। दोनों ही समाजों में अन्नादि किसी वस्तु को तोलते या मापते समय पहली माप के लिए एक के स्थान पर आराध्य देव का नाम या लाभवाची शब्द का उच्चारण किया जाता है। दोनो ही समाजों में दूकानदार के सुबह-सुबह सुई और तेल बेचने तथा किसी वस्तु के लिए ना कहने का भी निषेध है। शाम के बाद बाल काटना, नाखून काटना, साँप या नाई का नाम लेना, सुई लेना या देना, सुबह.सुबह, किसी के घर से आग माँगना, बुरा माना जाता है।
किसी कार्य को किस दिन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इस बारे में दोनो ही क्षेत्रों में थोड़ी बहुत भिन्नता के बावजूद समानता है। कुमाऊँ में सोमवार को लड़की के मायके से ससुराल जाने का निषेध है तो तमिलनाडु में शुक्रवार को। तमिलनाडु में तो शुक्रवार को किसी को भुगतान भी नहीं किया जाता। मंगल को कोई बड़ा काम आरंभ नहीं किया जाता। बुधवार सर्वोत्तम दिन माना जाता है। वृहस्पति को पहली बार आने वाला अतिथि अच्छा नहीं माना जाता तो कुमाऊँ में मंगल या शनिवार को।
उचैण या रोग व्याधि के दूर होने पर पूजा करने के वचन और देवताओं को नवान्न अर्पित करने की परंपरा - 'ओग'दोनो ही समाजों में विद्यमान है।
अपने-अपने अंचल के वीरों की याद में स्थापित होने वाले वीरस्तम्भ जो मध्यहिमालय में बिरखम और कर्नाटक में वीरगल्लुस कहे जाते हैं लगभग सभी समाजों में विद्यमान हैं।
कुमाऊँ में छोलिया नृत्य और कर्नाटक प्रदेश का कोम्बात नृत्य दोनों में विलक्षण समानता है। दोनों ही सामन्ती युद्धों की अनुकृति हैं। अतः इन्हें किसी जाति या प्रजाति विशेष से जोड़ना समीचीन नहीं है।
इन समानताओं से ऐसा लगता है कि किसी युग में मध्य हिमालय में द्रविड़ भाषाओं को बोलने वाले जनों का अस्तित्व था। कालान्तर में खशों और आर्य जनों का आधिपत्य हो जाने के बाद या तो वे इस अंचल से भी पलायन के विवश हुए अथवा नवागंतुकों में ही निम्न कही जाने वाली जातियों के रूप में समंजित हो गये।
पांडुकेश्वर दानपत्रों में इस अंचल के निवासियों में खस, किरात, द्रविड़, कलिंग गौड, हूण, औड्र, मेद, आन्ध्र, चाण्डाल आदि जनों का उल्लेख भले ही बाहर से देखने पर राजाओं के विरुद वर्णन की अतिशयोक्ति लगे, पर शब्द समूह और परंपराओं का अवगाहन करने पर वे इस अंचल में आर्येतर भाषाओं को बोलने वाले जनों की अवस्थिति के एक और साक्ष्य हैं।