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तुम्हारी आस्थाएं इतनी कमजोर और डरी हुई क्यों है धार्मिकों ?

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तुम्हारी आस्थाएं इतनी कमजोर और डरी हुई क्यों है धार्मिकों ?

चर्चित तमिल लेखक पेरूमाळ मुरगन ने लेखन से सन्यास ले लिया है ,वे अपनी किताब पर हुए अनावश्यक विवाद से इतने खफ़ा हो गए है कि उन्होंने ना केवल लेखनी छोड़ दी है बल्कि अपनी तमाम प्रकाशित पुस्तकों को वापस लेने की भी घोषणा कर दी है और उन्होंने प्रकाशकों से अनुरोध किया है कि भविष्य में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं की जाये .पी मुरगन की विवादित पुस्तक 'मादोरुबागन 'वर्ष 2010 में कलाचुवंडू प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी ,यह किताब तमिलनाडु के नामक्कल जिले के थिरुचेंगोड़े शहर के अर्धनारीश्वर मंदिर में होने वाले एक धार्मिक उत्सव ' नियोग ' के बारे में बात करती है ,दरअसल यह एक उपन्यास है ,जिसमे एक निसंतान महिला अपने पति की मर्जी के बिना भी नियोग नामक धार्मिक प्रथा को अपना कर संतानोत्पति का फैसला करती है ,यह पुस्तक स्त्री स्वातंत्र्य की एक सहज अभिव्यक्ति है ,कोई सामाजिक अथवा ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं है ,यह बात अलहदा है कि वैदिक संस्कृति में नियोग एक स्वीकृत सामाजिक प्रथा के रूप में सदैव विद्यमान रहा है ,ऋग्वेद में इसका उल्लेख कई बार आया है ,मनु द्वारा निर्मित स्मृति भी इस बारें में स्पष्ट दिशा निर्देश देती है और महाभारत तो नियोग तथा इससे मिलते जुलते तौर तरीकों से पैदा हुए महापुरुषों की कहानी प्रतीत होती है .

प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य के मुताबिक संतान नहीं होने पर या पति की अकाल मृत्यु हो जाने की स्थिति में नियोग एक ऐसा उपाय रहा है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा समगोत्री से गर्भाधान करा सकती थी .ग्रंथों के मुताबिक यह प्रथा सिर्फ संतान प्राप्ति के लिए ही मान्य की गयी ,ना कि आनंद प्राप्ति हेतु .नियोग के लिए बाकायदा एक पुरुष नियुक्त किया जाता था ,यह नियुक्त पुरुष अपनी जिंदगी में केवल तीन बार नियोग के ज़रिये संतान पैदा कर सकता था ,हालाँकि नियोग से जन्मी संतान वैध मानी जाती थी ,लेकिन नियुक्त पुरुष का अपने ही बच्चे पर कोई अधिकार नहीं होता था ,नियोग कर्म को धर्म का पालन समझा जाता और इसे भगवान के नाम पर किया जाता था .इस विधि द्वारा महाभारत में धृतराष्ट्र ,पांडु और विदुर पैदा हुए थे ,जिसमे नियुक्त पुरुष ऋषि वेदव्यास थे ,पांचो पांडव भी नियोग से ही पैदा हुए थे ,दुनिया के लिहाज से ये सभी नाजायज थे किन्तु नियोग से जायज़ कहलाये . वैदिक साहित्य नियोग से भरा पड़ा है ,वैदिक को छोड़िये सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक साहित्य में तमाम किस्म की कामुकता भरी हुई है ,कई धर्मों के प्रवर्तक और लोक देवता नियोगी तरीके से ही जन्मे है ,अधिकांश का जन्म सांसारिक दृष्टि से देखें तो अवैध ही लगता है ,मगर ऐसा कहना उनके भक्तों को सुहाता नहीं है .

सारे धर्मों में एक बात तो समान है और वह है स्त्री की कामुकता पर नियंत्रण . पुरुष चाहे जो करे ,चाहे जितनी औरतें रखे ,चाहे जितने विवाह कर लें ,विवाह के भी दर्जनों प्रकार निर्मित किये गए ,ताकि मर्दों की फौज को मौज मस्ती में कोई कमी नहीं हो ,खुला खेल फर्रुखाबादी चलता रहे.बस औरतों पर काबू रखना जरुरी समझा गया ,किसी ने नारी को नरक का द्वार कह कर गरियाया तो किसी ने सारे पापों की जन्मदाता कह कर तसल्ली की .मर्द ईश्वरों द्वारा रचे गए मरदाना संसार के तमाम सारे मर्दों ने मिलकर मर्दों को समस्त प्रकार की छुटें प्रदान की और महिलाओं पर सभी किस्म की बंदिशें लादी गयी .यह वही हम मर्दों का महान संसार है जिसमें धर्मभीरु स्त्रियों को देवदासी बना कर मंदिरों में उनका शोषण किया गया है ,अल्लाह ,ईश्वर ,यहोवा और शास्ता के नाम पर कितना यौनाचार विश्व में हुआ है ,इसकी चर्चा ही आज के इस नरभक्षी दौर में संभव नहीं है . मैं समझ नहीं पाता हूँ कि नियोग प्रथा का उल्लेख करने वाली किताब से घबराये हुए कथित धार्मिकों की भावनाएं इतनी कमजोर और कच्ची क्यों है ,वह छोटी छोटी बातों से क्यों आहत हो जाती है ,सच्चाई क्यों नहीं स्वीकार पाती है ?

यह एक सर्वमान्य सच्चाई है कि देश के विभिन्न हिस्सों में काम कलाओं में निष्णात कई प्रकार के समुदाय रहे है ,जो भांति भांति के कामानुष्ठान करते है.इसमे उन्हें कुछ भी अनुचित या अपवित्र नहीं लगता है .कुछ समुदायों में काम पुरुष की नियुक्ति भी की जाती रही है ,जैसे कि राजस्थान में एक समुदाय रहा है ,जिसमे एक बलिष्ठ पुरुष को महिलाओं के गर्भाधान के लिए नियुक्त किया जाता था ,जिस घर के बाहर उसकी जूतियाँ नज़र आ जाती थी ,उस दिन पति अपने घर नहीं जाता था ,यह एक किस्म का नर-सांड होता था ,जो मादा नारियों को गर्भवती करने के काम में लगा रहता था और अंत में बुढा होने पर उस नर सांड को गोली मार दी जाती थी .आज अगर उसके बारे में कोई लिख दें तो उक्त समुदाय की भावनाएं तो निश्चित रूप से आहत हो ही जाएगी ,धरने प्रदर्शन होने लगेंगे ,लेखक पर कई मुकदमें दर्ज हो जायेंगे .राजस्थान में ही एक धार्मिक पंथ रहा है जो काम कलाओं के माध्यम से सम्भोग से समाधी और काम मिलाये राम में विश्वास करता है ,इसे ' कान्चलिया पंथ ' कहा जाता है ,इस पंथ के लोग रात के समय सत्संग करने के लिए मिलते है ,युगल एक साथ आते है ,रात में स्त्री पुरुष अपने अपने पार्टनर बदल कर काम साधना करते है और सुबह होने से पहले ही बिछुड़ जाते है ,यह पवित्र आध्यात्मिक क्रिया मानी जाती है .अब इसके ज़िक्र को भी शुद्धतावादी बुरा मानने लगे है ,मगर समाज में तो यह धारा आज भी मौजूद है .

हमारे मुल्क में तो कामशास्त्र की रचना से लेकर कामेच्छा देवी के मंदिर में लता साधना करने के प्रमाण धर्म के पवित्र ग्रंथों में भरे पड़े है ,नैतिक ,अनैतिक ,स्वेच्छिक ,स्वछंद ,प्राकृतिक ,अप्राकृतिक सब तरह के काम संबंधों का विवरण धार्मिक साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र उपलब्ध है ,फिर शर्म कैसी और अगर कोई इस दौर का लेखक उसका ज़िक्र अपने लेखन में कर दे तो उसका विरोध क्यों ? क्या सनातन धर्म चार पुरुषार्थों में काम को एक पुरुषार्थ निरुपित नहीं करता है ? क्या सनातन साहित्य इंद्र के द्वारा किये गए बलात्कारों और कुकर्मों की गवाही नहीं देता है ? अगर यह सब हमारी गौरवशाली सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है तो फिर समस्या क्या है ? क्या हमने नंग धडंग नागा बाबाओं को पूज्य नहीं मान रखा है ? क्या हमने कामदेव और रति के प्रणय प्रसंगों और कामयोगों के आख्यान नहीं रचे है ? क्या हम महादेव शिव के लिंग और माता पार्वती की योनी के मिलन पिंड के उपासक नहीं है ? अगर है तो फिर पेरुमाळ मुरगन ने ऐसा क्या लिख दिया जो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है ? वैसे भी सेक्स के बिना संस्कृति और सभ्यता की संकल्पना ही क्या है ? स्त्री पुरुष के मिलन को ना तो धर्म ग्रंथों की आज्ञा की जरुरत है और ना ही कथित सामाजिक संहिताओं की ,यह एक सहज कुदरती प्रक्रिया है जिसमे धर्म और धार्मिक संगठनों को इसमें दखल देने से बचना चाहिए .धर्म लोगों के बेडरूम के बजाय आत्माओं में झांक सके तो उसकी प्रासंगिकता बनी रह सकती है ,वैसे भी आजकल धर्मों का काम सिर्फ झगडा फसाद रह गया है , ऐसा लग रहा है कि ईश्वर अल्लाह अब लोगों को जीवन देने के काम नहीं आते है बल्कि मासूमों की जान लेने के काम आ रहे है ,मजहब का काम अब सिर्फ और सिर्फ बैर भाव पैदा करना रह गया प्रतीत होने लगा है , अब तो इन धर्मों से मुक्त हुए बगैर मानवता की मुक्ति संभव ही नहीं दिखती है .

कितने खोखले और कमजोर है ये धर्म और इनके भक्तों की मान्यताएं ? इन कमजोर भावनाओं और डरी हुई आस्थाओं के लोग कभी एम एफ हुसैन की कुची से डर जाते है ,कभी पी के जैसी फिल्मों से घबरा जाते है ,कभी चार्ली हेब्दो के मजाक उनकी आस्थाओं की बुनियाद हिला देते है तो कभी पेरूमाळ मुरगन जैसे लेखकों के उपन्यास उन्हें ठेस पंहुचा देते है ,ये कैसे पाखंडी और दोगले लोग है धर्मों के लबादे तले, जिनसे इनको लड़ना चाहिए उन्हीं लोगों के हाथों में इन्होने अपने धर्मों और आस्थाओं की बागडोर थमा दी है और जो इन्हें सुधार का सन्देश दे रहे है ,उन्हीं को ये मार रहे है ,कबीर ने सही ही कहा था – सांच कहूँ तो मारन धावे ..,इन्हें लड़ना तो इस्लामिक स्टेट ,तालिबान ,भगवा आतंकियों ,कट्टरता के पुजारियों और तरह तरह के धार्मिक आवरण धारण किये इंसानियत के दुश्मनों से था ,पर ये ए के 47 लिए हुए लोगों से लड़ने के बजाय कलमकारों ,रंगकर्मियों ,कलाकारों और चित्रकारों से लड़ रहे है .इन्हें बलात्कारियों,कुकर्मियों से दो दो हाथ करने थे ,समाज में गहरी जड़ें जमा चुके यौन अपराधियों, नित्यानन्दों और आशारामों , आतंकी बगदादियों,प्रग्याओं और असीमानंदों से लड़ना था ,मगर मानव सभ्यता का यह सबसे बुरा वक़्त है , आज पाखंड के खिलाफ ,सच्चाई के साथ खड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है और झूठे ,मक्कार और हत्यारों को नायक बनाया जा रहा है ,लेकिन मैं कहना चाहता हूँ पेरूमाळ मुरगन से ,पी के की टीम और चार्ली हेब्दो के प्रकाशकों से कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मंडराते ईश निंदा के इस खतरनाक समय में मैंने आपका पक्ष चुना है और मैं आपके साथ होने में अच्छा महसूस कर रहा है .निवेदन सिर्फ यह है -पेरूमाळ मुरगन कलम मत त्यागो ,इस कुरुक्षेत्र से मत भागो , हम मिल कर लड़ेंगे ,हम लड़ेंगे अपने अक्षरों की अजमत के लिए ,अपने शब्दों के लिए ,अपनी अभिव्यक्ति के लिए ,अपने कहन के लिये . हम कलमकार है ,जब तक कि कोई हमारा सर कलम ही ना कर दे ,हमारी कलम खामोश कैसे हो सकती है ? क्या हम जीते जी मरने की गति को प्राप्त हो सकते है ,नहीं ,कदापि नहीं .इस लोकनिंदा की राख से फ़ीनिक्स पक्षी की भांति फिर से जी उठो पेरूमाळ ,अभी मरो मत ,अभी डरो मत ,कलम उठाओ ....और ..और जोर से लिखो.
-भंवर मेघवंशी 
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है )



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