वाद-संवाद पत्रिका में प्रकाशित मेरी पाँच कवितायें... .... इंतज़ार, लूट, झुंड, चकला-घर और गुरु..... 'इंतजार'
हवा गर्म है,
मौसम का मिजाज़ रूखा-रूखा,
हर जर्रे में आफ़ताब की जवानी.
बचने की हिमाक़त अभी नहीं-अभी नहीं.
इस बार तो दोनों हल्के-हल्के बैठे हैं,
अरे पिछली बार, तो दो चार के बराबर थे,...
जान तो अभी बांकी है, एक चक्कर और|
अब तो दम उखड़ने लगा है भाई...
नहीं-नहीं अब नहीं खींचा जाता भाई|
...नाटक मत करों...
साले पैसे लेने वक्त पूरे और
नौटंकी आधे रास्ते में ही शुरू
अरे!
ये तो सचमुच गिरा
उफ़! ओह, आह...
ये तो जान से गया...
बटुए से छियासठ रुपये पच्चास पैसे निकालती उसकी बीवी और
रिक्शे को फिर से नए मालिक का इंतजार
मौसम बदल गया है
मगर मिजाज़ फिर से रूखा-रूखा.......
'लूट'
हम असंख्य कायरों के जन्म से
पहले ही तुम लौट गए|
रहते तो लूट पाते,
असंख्य बरस...हमारी अस्मिता, हमारा सम्मान
...जैसे...
लुट रहे हैं हमसे हमारे अपने
हमारा इतिहास...हमारा वर्त्तमान...
'झुंड'
सब तहस-नहस और वीरान करता
एक झुंड भेड़ियों का.
सभी आक्रोशित, प्रश्न की मुद्रा में
...और...
कशमकश गड्ढे से निहारता मूक-अवाक् सरदार...
कहीं ऐसा भी कोई फँसता है?
कभी ऐसे भी कोई गिरता है?
आज शायद प्राणदंड ही उचित हो
...लेकिन...
हिंसक-प्रवृति से लबालब वह झुंड दिखता तो इंसान जैसा ही था
ठीक वैसे ही जैसे आज प्रश्न करने वालों की जमात दिख रही है|
क्या सचमुच उस झुंड ने नाखून बढ़ाने की इजाज़त ली थी?
क्या सच में झुंड को पंजा मारने की तालीम सरदार ने दी थी ?
क्या वाक़ई झुंड को भेड़िया बनाने की कोई पंचवर्षीय योजना
सरदार ने बनाई थी?
सरदार पर प्रश्न करने वालों में कईयों के नाखून बढ़े हुए थे,
पंजा चौड़ा था, सिर्फ़ शक्लें इंसान की सी थी...
प्रश्न की शोर में एक हल्की सी आवाज़ दब रही थी – और
'झुंड'के हिंसक दौर से बने गड्ढे में उसे दफ़नाया जा रहा है...|
'चकला घर'
कुचले-पिसे व्यवसाय की भट्ठी से
तपकर सपना देखती हूँ ,मैं चकला घर की बेटी पल-पल जीती, मरती हूँ.
साफ़-सुथरे समाज से कूड़े को मैं खरीदती हूँ,
जिंदा रहने के लिए पल-पल मौत मैं मरती हूँ.
कितनी हसीना, कितनी करिश्मा मेरी यहाँ सहेली है,
रात की सेज पे सबकी चीखें एक शोर बन जाती है.
अदम्य साहस है मेरी माँ में
रोज कमर बलखाती है,
ढलती उमर में भी न जाने कहाँ से ग्राहक लाती है.
हाथ में मेरे चंद चमकते सिक्के देकर,
रोते-रोते कहती है,
भाग जा बेटी तू सयानी हुई
अब तेरा ग्राहक भी आता है.
दरवाजे के बाहर जाते ही गूंज उठती है कानों में,
माँ की कमर-पीठ मालिश की चिंता,
सपना छोड़ मैं लौट आती हूँ.
मैं गुरुदेव हूँ
आओ पढना सिखाता हूँ
आओ लिखना सिखाता हूँ
आओ जीना सिखाता हूँ
मैं गुरुदेव हूँ
मैं सब कुछ सिखाता हूँ....
पढो व्यवस्था, लिखो व्यवस्था
फिर जियो शान से,
यही कर्तव्य है, धर्म यही है...
सफल प्रमाण बेटे देखो- यहाँ हम हैं
अरे, व्यवस्था से भड़क मत, इसे अपना
मत सोच-
बर्बाद करती किसे व्यवस्था ?
मजबूर यहाँ फांसी क्यों चढ़ा ?
है किसका झुलसता नंगा बदन ?
किसके सीने पर चढ़कर
कौन है पीता खून निरंतर ?
ये तू मत देख, कम से कम तू मत देख...
बेटा तुम्हारा यही जोशीला वर्तमान
हाय, था चढ़ा भूत,
भूत में कुछ लोगों पर
अब देख भविष्य उन वीरों का
सड़ांध मारते किसी कोने में
पड़ा होगा असंतुष्ट बेचारा
झूठा स्वांग भर रहा होगा,
संतुष्ट का नारा रट रहा होगा.
वे हमारे हीं साथी थे बड़े कडवे गीत गाते थे,..
जरा खुद भी तो सोचो मेरे लाल -----
झुर्री भरा चेहरा लेकर
दोपहरी की धूप में
धुल फांकते माँ-बाप तुम्हारे
जब वक्त से पहले सोयेंगे मौत की नींद
तब रह जाओगे तर्पण करते
अर्पण करते जल की धारा.....
क्यों देखें हम दुःख का जमघट ?
क्यों रोते रहें निरंतर ?
नाप-तौलकर बेटे सोचो
जीता यहाँ सुख में कौन ?
सैर करते किसके बच्चे ?
किसके बाद कौन है पाता
यहाँ फिर से मौज और मस्ती ?
शिष्य हो तुम मेरे प्रिय, मोह में मत फ़स जाना
समझ ना आए मौज की नीति, मेरे पास तुम आना
मैं हूँ आज का श्रेष्ठ विचारक
बुद्धिजीवी और अवसर—द्रष्टा
सिखलाऊंगा तुम्हे आज से
नित दिन मैं वंदना व्यवस्था
नित दिन मैं वंदना व्यवस्था.....
पता:-
संजीव कुमार (पी-एच. डी.)
गोरख पांडे छात्रावास, कक्ष संख्या.-17
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र – 442005
फोन –09767859227
ई-मेल – jha.sanjeev800@gmail.com