घर वापसी न हुई तो मारे जाओगे और बचेगा नहीं कोई म्लेच्छ अब कहीं!
अल्हा उदल गाओ रे भइये,बजाओ रे रणसिंघे कि धर्मक्षेत्र भारदेश कुरुक्षेत्र है अब!
कृपया डालर वर्चस्व और अमेरिका के मनुष्य,प्रकृति और सभ्यता के विरुद्ध तमाम अपराधों के मदमदेनजर इस समीकरण पर गौर जरुर करें कि भारत में दूसरे चरण के सुधारों के लिए मनमोहन खारिज और कल्कि अवतरण और फिर अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन से पहले तमाम बिलों को पास कराने का कार्यभार,लंबित परियोजनाओं में फंसी लाखों करोड़ की विदेशी पूंजी की जमानत का तकाजा और इसी के मध्य सिडनी से पेशावर तक मनुष्यता पर बर्बर हमले के तहत पूरे एशिया आस्ट्रेलिया में इस्लामोफोबिया का तिसिस्म घनघोर और उसी के मध्य हिंदू साम्राज्यवाद का मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये के लिए दक्षिणपूर्व एशिया के सिंहद्वार कोलकाता से विहिप और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खुली युद्धयोजना।बंगाल का केसरिया कायकल्प।
पलाश विश्वास
अल्हा उदल गाओ रे भइये,बजाओ रे रणसिंघे कि धर्मक्षेत्र भारतदेश कुरुक्षेत्र है अब!
घर वापसी न हुई तो मारे जाओगे और बचेगा नहीं कोई म्लेच्छ अब कहीं!
आज के रोजनामचे के लिए सबसे पहले कुछ जरुरी बातें।
कृपया डालर वर्चस्व और अमेरिका के मनुष्य,प्रकृति और सभ्यता के विरुद्ध तमाम अपराधों के मदमदेनजर इस समीकरण पर गौर जरुर करें कि भारत में दूसरे चरण के सुधारों के लिए मनमोहन खारिज और कल्कि अवतरण और फिर अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन से पहले तमाम बिलों को पास कराने का कार्यभार,लंबित परियोजनाओं में फंसी लाखों करोड़ की विदेशी पूंजी की जमानत का तकाजा और इसी के मध्य सिडनी से पेशावर तक मनुष्यता पर बर्बर हमले के तहत पूरे एशिया आस्ट्रेलिया में इस्लामोफोबिया का तिसिस्म घनघोर और उसी के मध्य हिंदू साम्राज्यवाद का मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये के लिए दक्षिणपूर्व एशिया के सिंहद्वार कोलकाता से विहिप और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खुली युद्धयोजना।बंगाल का केसरिया कायकल्प।
इसी सिलसिले में हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी का लिखा यह मंतव्यभी गौर तलब हैः
मोहन भागवत जी! तुम न मोदी को चैन लेने दोगे और न अच्छे दिनों के आने की उम्मीद में मोदी की ओर टकटकी लगाए भारत के आम आदमी को और न भारत की तथाकथित बची खुची एकता को।
उन्होंने आगे लिखा हैः
मनुष्य सब से पहले एक मनुष्य होता है. उसके बाद होता है अभाव ग्रस्त और अति भाव मस्त. अभावग्रस्त होने पर विश्वामित्र भी चांडाल के घर से कुत्ते का मांस चुराकर भूख मिटते हैं. ये जो धरम- वरम है न! भरपेटियों और ठगों के चोंचले हैं. ॠषि याज्ञवल्क्य के शब्दों में सारे नाते, सारी परंपराएँ, सारे धर्म, स्वार्थ पर टिके हैं. (आत्मनस्तु कामाय वै सर्वं प्रियं भवति)
सम्मोहन भगवत जी! हमें हिन्दू राष्ट्र नहीं, शोषण विहीन समतामूलक राष्ट्र चाहिए.
सुधीर समुमन के इस मंतव्य पर भी गौर करेंः
भाजपा वाले जब गाँधी जी के हत्यारे को महिमंडित कर रहे हैं और हत्यारे की मूर्ति लगवाना चाह रहे हैं. तो अचानक मोदी के एक बिहारी सिपहसालार गिरिराज सिंह का बयान याद आ गया, उसने सैकड़ों बेगुनाह बच्चों, महिलाओं और आम लोगों की हत्या के लिए जिम्मेवार रणवीरसेना सुप्रीमो को 'बिहार का गाँधी' बताया था. अब भईया उसकी हत्या किसने की, पता नहीं, उसकी तुलना मैं गोडसे करना भी नहीं चाहता. लेकिन महात्मा गाँधी के हत्यारों के गुणगान में लगे लोगों को ब्रह्मेश्वर की हत्या करने वाले को भी ढूँढना चाहिए और बिहार में एकाध उसकी मूर्ति बनवानी चाहिए. क्योंकि बकौल गिरिराज उसने बिहार के गाँधी की हत्या की थी, तो गोडसे भक्तों को उसका भी सम्मान तो करना ही चाहिए न! ये कैसे चलेगा कि गोडसे भी आपका और गाँधी भी आपका. या ब्रह्मेश्वर की हत्या करने वाले की मूर्ति नहीं बना सकते तो एक नया बयान दो कि 'वह बिहार का गोडसे था"
विशुद्ध नरसंहार के आक्रामक तेवर में
जंगल बुक के प्रकाशन के पूरे 120 साल हो गये।अगर संभव हो तो दोबारा यह किताब पढ़ें।फिल्में भी हैं,समयनिकालकर जरुर देखें।
वैदिकी सभ्यता और वैदिकी साहित्य और इतिहास का राग अलापने वाले मुक्तबाजारी अमेरिकापरस्त इजराइल मुग्ध जो हिंदुत्व के झंडेवरदार भपारत का चप्पा चप्पा मैनहटट्न और न्यूयार्क बना देने के लिए जनसंहारी संस्कृति के तहत विशुद्ध नरसंहार के आक्रामक तेवर में हैं,वे शायद भूल रहे हैं कि भारत की प्राचीन आर्य अनार्य सभ्यता आरण्यक रही है और आर्यों ने ही उस प्रकृति के सान्निध्य की संस्कृति और सभ्यता का सर्वनाश किया।
भारत के आदिवासियों को छोड़कर अब जंगल से किसी को कोई मोहब्बत नहीं है और हम अंधाधुंध वनविनाश को विकास का अभिमुख बनाये हुए हैं।
सुंदरवन जैसा दुनिया का सबसे बड़ा मैनग्रोव फारेस्ट इलाके में कारपोरेटस्विमिंग पुल का शुभारंभ करने गये मास्टर ब्लास्टर सांसद सचिन तेंदुलकर को पहनाये गये चौतीस हजार गुलाबों की हार हमारी उत्तरआधुनिक सभ्यता की अभिव्यक्ति है।
उस आरण्यक सभ्यता में लेकिन मानवीय उत्कर्ष प्राकृतिक शक्तियों में अभिव्यक्त होता रहा है और हम तब मूर्ति पूजक भी नहीं बने थे।
उस आरण्यक सभ्यता को फील करने का सर्वोत्तम माध्यम जंगल बुक है।
द जंगल बुक
http://hi.wikipedia.org/s/6i9v
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
द जंगल बुक | |
जॉन लॉकवुड किपलिंगके रेखांकनों पर आधारितद जंगल बुक के मूल संस्करण का गुलकृत आवरण पृष्ठ | |
लेखक | |
चित्र रचनाकार | जॉन लॉकवुड किपलिंग (रुडयार्ड किपलिंग के पिता) |
देश | संयुक्त राजशाही |
भाषा | अंग्रेजी |
शृंखला | द जंगल बुक्स |
प्रकार | |
प्रकाशक | |
प्रकाशन तिथि | 1894 |
मीडिया प्रकार | मुद्रित (सजिल्द व अजिल्द) |
पूर्ववर्ती | "इन द रुख" |
उत्तरवर्ती |
द जंगल बुक (अंग्रेजी:The Jungle Book) (1894) नोबेल पुरस्कारविजेता अंग्रेजी लेखक रुडयार्ड किपलिंगकी कहानियों का एक संग्रह है। इन कहानियों को पहली बार 1893-94 में पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया था। मूल कहानियों के साथ छपे कुछ चित्रों को रुडयार्ड के पिता जॉन लॉकवुड किपलिंग ने बनाया था। रुडयार्ड किपलिंग का जन्म भारत में हुआ था और उन्होने अपनी शैशव अवस्था के प्रथम छह वर्ष भारत में बिताये। इसके उपरान्त लगभग दस वर्ष इंग्लैण्डमें रहने के बाद वे फिर भारत लौटे और लगभग अगले साढ़े छह साल तक यहीं रह कर काम किया। इन कहानियों को रुडयार्ड ने तब लिखा था जब वो वर्मोंटमें रहते थे। जंगल बुक के कथानक में मोगली नामक एक बालक है जो जंगल मे खो जाता है और उसका पालन पोषण भेड़ियों का एक झुंड करता है, अंत मे वह गाँव में लौट जाता है।
पुस्तक में वर्णित कहानियां (और 1895 में प्रकाशित 'द सेकंड जंगल बुक'में शामिल मोगली से संबंधित पाँच कहानियां भी) वस्तुत: दंतकथाएं हैं, जिनमें जानवरों का मानवाकृतीय तरीके से प्रयोग कर, नैतिक शिक्षा देने का प्रयास किया गया है। उदाहरण के लिए 'द लॉ ऑफ द जंगल' (जंगल का कानून) के छंद में, व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों की सुरक्षा के लिए नियमों का पालन करने की हिदायत दी गयी है। किपलिंग ने अपनी इन कहानियों में उन सभी जानकारियों का समावेश किया है जो उन्हें भारतीय जंगल के बारे में पता थी या फिर जिसकी उन्होनें कल्पना की थी। अन्य पाठकों ने उनके काम की व्याख्या उस समय की राजनीति और समाज के रूपक के रूप में की है। उनमें से सबसे अधिक प्रसिद्ध तीन कहानियां हैं जो एक परित्यक्त "मानव शावक" मोगली के कारनामों का वर्णन करती हैं, जिसे भारत के जंगल में भेड़ियों द्वारा पाला जाता है। अन्य कहानियों के सबसे प्रसिद्ध कथा शायद "रिक्की-टिक्की-टावी" नामक एक वीर नेवले और "हाथियों का टूमाई"नामक एक महावत की कहानी है। किपलिंग की हर कहानी की शुरुआत और अंत एक छंद के साथ होती है।
स्तालिन के जन्मदिवस (21 दिसम्बर) के अवसर पर
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की पूँजीवादी कोशिशों के बावजूद इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता
हिटलर को हराकर दुनिया को फासीवाद के राक्षस से मजदूरों के राज ने ही बचाया था
सच तो यह है कि स्तालिन हिटलर के सत्ता पर काबिज होने के समय से ही पश्चिमी देशों को लगातार फसीवाद के ख़तरे से आगाह कर रहे थे लेकिन उस वक्त तमाम पश्चिमी देश हिटलर के साथ न सिर्फ समझौते कर रहे थे बल्कि उसे बढ़ावा दे रहे थे। स्तालिन पहले दिन से जानते थे कि हिटलर समाजवाद की मातृभूमि को नष्ट करने के लिए उस पर हमला जरूर करेगा। उन्होंने आत्मरक्षार्थ युद्ध की तैयारी के लिए थोड़ा समय लेने के वास्ते ही हिटलर के साथ अनाक्रमण सन्धि की थी जबकि दोनों पक्ष जानते थे कि यह सन्धि कुछ ही समय की मेहमान है। यही वजह थी कि सन्धि के बावजूद सोवियत संघ में समस्त संसाधनों को युद्ध की तैयारियों में लगा दिया गया था। दूसरी ओर, हिटलर ने भी अपनी सबसे बड़ी और अच्छी फौजी डिवीजनों को सोवियत संघ पर धावा बोलने के लिए बचाकर रखा था। इस फौज की ताकत उस फौज से कई गुना थी जिसे लेकर हिटलर ने आधे यूरोप को रौंद डाला थां रूस पर हमले के बाद भी पश्चिमी देशों ने लम्बे समय तक पश्चिम का मोर्चा नहीं खोला क्योंकि वे इस इन्तजार में थे कि हिटलर सोवियत संघ को चकनाचूर कर डालेगा। जब सोवियत फौजों ने पूरी सोवियत जनता की जबर्दस्त मदद से जर्मन फौजों को खदेड़ना शुरू कर दिया तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों ने मोर्चा खोला।
http://www.mazdoorbigul.net/archives/5448
बेहतर हैं वीरेनदा।
अच्छी खबर यह है कि हमारे आपके प्रिय कवि वीरेनदा एकदम दुरुस्त हैं और बहुत जोश में हैं।थोड़े कमजोर हैं लेकिन कुल मिलाकर सेहत बेहतर हैं।
दरअसल नैनीताल में फंसे अपने सहकर्मी चित्रकार सुमित का फोन मिलते ही कोलकाता में गिरते तापमान के मध्यहमने ख्याल किया की वीरेन दा की पेसबुक टिप्पणियां गायब हो गयी हैं और हमने दो रोज पहले तुरत ही फोन उठा लिया।भाभी ने पकड़ा तो डर डर कर पूछा कि दा कैसे हैं।बोली वह ,बहुत बेहतर हैं।थोड़े कमजोर हैं ,बस।
फिर बाथरूम से निकलने पर वीरेदा उसी पुराने मिजाज में।
बोले वे,यार,दिल्ली में बहुत सर्दी है।इसलिए फेसबुक से गैरहाजिर हूं लेकिन पढ़ता सबकुछ।
इसके बाद हम गपियाते रहे।
हिमपात मुक्त नैनीताल,अल्मोड़ा ग्वालदम बागेश्वर बदहाल
कल रात को सुमित को काठगोदाम से गाड़ी पकड़नी थी।उसने फोन नहीं किया तो फिक्र हो गयी। उससे संपर्क नहीं हो पाया।तो आज सुबह सुबह नैनीताल समाचार में फोन लगाया।समाचार प्रभारी महेश दाज्यू से हाल चाल मालूम हुआ।
महेशदाज्यू ने बताया कि राजीवदाज्यू नैनीताल में ही आसन जमाये हुए हैं तो पवन राकेश दुकानदारी में लगा है।नैनीताल में बर्फ की परतें पिघल गयी है। लेकिन महेश दाज्यू ने कहा कि नैनीताल में सैलानियों को बहुत ही ज्यादा हिमपात नजर आया तो क्या बाकी पहाड़ के मुकाबले वह कुछ भी नहीं ठैरा।
महेशदाज्यू ने बताया कि बलि (कुमांयूनी में बलि का इस्तेमाल हम कहते हैं के लिए करते हैं,आगे इसे बलि ही पढ़ें।समाचार में हम सूत्रों के मुताबिक के बदले बलि का इस्तेमाल करते रहे हैं और धिक्कार के लिए हड़ि का,दोनों शब्द गिरजदा के सौजन्य से) बाकी पहाड़ में तो बहुतै ज्यादा बर्फबारी हुई है।
इसी बीच मुख्यमंत्री हरीश रावत ज्यू ने फरमान जारी कर दिया है कि किसी की ठंड से मौत हुई तो डीएम होंगे जिम्मेदार,जैसे कि डीएमं बिना कुछ किये मौत रोक लेने वाले ठैरे।
महेशदाज्यू ने कहा कि पहाड़ में जहां हिल स्टेशन और आर्मी नहीं है,जनजीवन ठप है बलि।बलि अल्मोड़ा से आगे तमाम गांवों और घाटियों में ठंड का कहर है।
हल्द्वानी से किसी ने लिखा है कि आधार अनिवार्य नहीं है।लेकिन आधार का वैकल्पिक प्रयोग के विशेषाधिकार तो उसकी अनिवार्यता के लिए काफी है।कान जैसे भी पकड़ो,कान तो पकड़ा ही जाता है।भारत सरकार कुछ वैसा ही कर रही है बलि।
मनीआर्डर इकानामी
हमें मालूम नहीं कि हमारी इजाएं और भूलियां और बैणियां अब जंगल जाने के हक से वंचित है या नहीं पहाड़ में।
देहरादून में रोमा हैं और वे बेहतर बता सकती हैं कि वनाधिकार के क्या हाल हैं वहां पहाड़ में।आदिवासी इलाकों में तो आदिवासियों के लिए जंगल के सारे हक हकूक छिन गये ठैरे।
बहरहाल लकड़ी बीनने के हालात और जुगाड़ हो या न हो, खरीदनी हो तो आधार की जरुरत हो या न हो,खींसे में तो तेल नून दाना पानी के खर्च के अवलावा लकड़ी कोयले के पैसे भी चाहिए।
मनीआर्डर अर्थव्यवस्था में नकदी प्रवाह कितना ठैरा वे तो एक हरीश रावत कह सकते हैं तो दूजे किशोर उपाध्याय जी को मालूम होगा।बलि वे दोनों देहरादून को ही राजधानी नहीं,संपूर्ण हिमालय समझ रहे होंगे।संपूर्ण उत्तराखंड तो बीजापुर गेस्टहाउस है।
महेश दाज्यू को ग्वालदम और बागेश्वरे के हालात मालूम हैं और अल्मोड़ा के गांवों के बारे में भी पता है।
फोकस में तीर्थस्थल या पर्यटनस्थल,बस
कुमांयू गढ़वाल से मीडिया में तीर्थस्थलों और पर्यटनस्थलों के अलावा फोकस कहीं बनाया नहीं है।
केदार जलप्रलय के वकत फिर भी बीबीसी हिंदी की खबरें थीं लेकिन वे लगता हैं कि पेशावर में कुछ ज्यादा व्यस्त हो गये ठैरे।
राजेश जोशी और सलमान रवि बड़े लोग ठैरे,उन्हें फोन खटखटाने की हिम्मत नहीं हुई।
हमारे पुराने अखबार अमरउजाला में अतुल माहेश्वरी नहीं हैं अब।राजुल भइया हैं,जो हमें बेहद प्रिय रहे हैं।अब वहां यशवंत व्यास और हमारे मेरठ जमाने एक मित्र विनोद अग्निहोत्री का बसेरा है।
विनोद जी पत्रकार बिरादरी में बहुतै सज्जन हैं जैसे अपने मनोज मिश्र।वे भी मेरठ में हुआ करते थे।हम तब जागरण में थे।
गपशप के लिए कल विनोद जी को फोन लगाया तो बोले, मीटिंग में हूं।कहा कि फोन करता हूं बाद में।
उनसे भी बात हो जाये तो पहाड़ के हालात का अंदाजा हो।
मारे डर के पिर फोन नहीं लगाया कि कहीं संजीव भाई की तरह रचना उचना वगैरह छापने का जुगाड़ न समझ बैठे या धीरेंद्र अस्थाना की तरह पचानने से ही ही इंकार न कर दें।
तो भइये,जो जहां हों,कुछ खबर लगी हो तो हम तक जरुर कुशल क्षेम पहुंचा दें।
कोलकाता में हम
कल माननीय प्रवीण तोगड़िया ने कह दिया कि पूरा बंगाल अब केसरिया है।
बेरोकटोक घर वापसी की चुनौती के बाद,खुल्ले नरसंहार की युद्ध घोषणा के बाद अमित साह को तो बंगाल में गुजरात ही नजर आ रहा होगा लेकिन उनका रंग लाल है कि केसरिया,थोड़े कनफ्यूजन में हूं।
2012 तक हिंदू राष्ट्र की जो घोषणा हो गयी है और मुसलमानों और ईसाइयों से भारत आर्यावर्त को मुक्त कराके हिंदुस्तान बना डालने का जो एजंडा है.उसे कोलकाता में बहुत असुरक्षित महसूस करने लगा हूं।कि क्या पता कोई बजरंगी कहीं धुन न डालें।
वैसे भी संघी एजंडा में जैसे बौद्धों सिखों और जैनियों के घर वापस लाने का संकल्प नहीं है और वह एजंडा हिडन है तो समझा जा सकता सबसे ज्यादा ब्राह्मणवादी बंगाल के केसरिया हो जाने के बाद गैरब्राह्मणों और शरणार्थियों और आदिवासियों और अछूतों और स्त्रियों का क्या हाल होने वाला है।
डेरा डंडा उठाकर मोदी की चेतावनी के मद्देनजर कहीं और भागना पड़ेगा,जहां गुजरात का साया न हो।कहां होगी वह जगह इस केसरिया हुआ जैसे भारत में,यह पहेली बूझ लें तो बतइयो।
ओबामा सैम अंकल पधार रहे हैं म्हारा देश।
सारे सुधार लागू होने वाले ठैरे।
दीदी दिल्ली से आकर कोलकाता की भाषा में फिर जिहाद जिहाद खेल रही हैं तो मंत्री मदन मित्र की जेल हिरासत के बावजूद पूरी मौज है।
जेल से वे स्थानांतरित होकर अस्पताल के एसी वार्ड में हैं और वहां उनका दरबारे खास और दरबारे आम का चाकचौबंद इंतजाम है बलि।
दीदी की बयानबाजी और अरुण जेटली की गिला शिकायतों की छोड़ें और नवउदारवादी भइयों बहनों,निश्चिंत रहिये कि ओबामा आका आने से पहले मैदान साफ हो जाना ठैरा।
इस बीच बहुत दिनं बाद चेकअप कराने की वजह से हमारा शुगर लेवल बढ़ा हुआ मिला तो डाक्टरबाबू ने दनादन महंगी महंगी दवाइयां दाग दी हैं।
जब तक नौकरी है भइये,खा भी लेंगे महंगी दवाइयां। लेकिन फिर एअर इंडिया हो गये तो जिंदगी क्या और कितनी मोहलत देगी बता नहीं सकते। लेकिन इस बीच सविता की नजरदारी सख्त हो गयी है और भोर छह बजे तक तो पीसी से प्रेमालाप की मनाही है।
इस्लामोफोबिया
अमेरिका की अब गजब मेहरबानी है।
इस्लामोफोबिया उन्हींकी मेहरबानी है तो अल कायदा, आईसिस, तालिबान और इस्लामिक ब्रदरहुड भी उनकी मेहरबानी है।
तालिबान और अलकायदा के करिश्मा तो खैर मालूम ही होगा।
खाड़ी युद्ध से पहले,अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के खिलाफ पाकिस्तान में जमे तालिबान को हथियार और डालर अमेरिका ने दिये,पूरे आठ के दशक में भारत उनसे लहूलुहान होता रहा है जो सिलसिला अब भी जारी है।
1948,1962,1965 और 1971 के युद्द में हथियारों के सौदागर अमेरिका का पक्ष क्या रहा है ,याद भी करें।हिंद महासागर में सातवें नौसैनिक बेड़ा और दियागो गार्सिया को भी याद करें।
इतने पीछे जाना न चाहे तो इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर को हुई हत्या से पहले उनके भाषण को पढ़ें और सुनें।
अभी अभी व्हाइटहाउस ने मुस्लिम ब्रदरहुड को आतंकवादी संगठन मानने से मना कर दिया है और गार्जियन की खबरों के मुताबिक आइसिस के आकाओं से अमेरिका की प्रेमं पिंगे चल रही हैं।
सीआईए के भरोसे हमारी सुरक्षा
अब हिंदुत्व का यह उन्माद अगर मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये का खुल्ला ऐलान कर सकता है और राज्यसरकारें और केंद्र सरकार कार्वाई नहीं करतीं तो भारत को तोड़ने की शुरुआत से कोशिश कर रही सीआईए और दूसरी अमेरिकी एजंसियों के हवाले हुई कारपोरेट हितों के लिए आंतरिक सुरक्षा के छाता तले मध्य एशिया के अमेरिकी वसंत से हम लोग कब तक इस्लामोफोबिया का जाप करते हुए बचे रहेगें,हम यानी हिंदू मुसलमान समेत सारे भारत के सारे नागरिक।
आतंकवाद किसी की पहचान देखकर धमाका नहीं करता और इसके नजारे पूरे मध्यएशिया में देखते रहने के बाद पेशावर में भी भुगत रहा है पाकिस्तान जहां हर पाकिस्तानी ड्रोन के निशाने पर है।
बायोमेट्रिक डिजिटल देश में हम भी अमेरिकी चांदमारी के निशाने पर हैं और हमें इसका अहसास भी नहीं है।
आखिरकार हम भी पाकिस्तान हुए।
हिंदू साम्राज्यवादी अश्वमेध से भारतीयों का खून चाहे जितना बहे,अंकल सैम को परवाह नहीं होगी,लेकिन अमेरिकी किसी नागरिक या अमेरिकी हितों को लहूलुहान होना पड़ जाये तो समझ लीज्यो कि हम चाहे कभी न समझें अंकल सैम समझ जायेंगे कि आखिरकार हम भी पाकिस्तान हुए।
सौजन्य संघ परिवार और उनका हिंदू साम्राज्यवाद।
कल्कि राजकाज के अल्हा उदल
अब फिर वही वीरगाथा काल है।आर्यों के शौर्य वीर्य का पुनरूत्थान है।एकबार फिर परशुराम के कुठाराघात से क्षत्रियों का नाश हो गया है।
बाइसवीं बार शायद।
पगड़ियों और बलखाती मूंछों,बाबू राजनाथसिंह और बाबू दिग्विजयसिंह की कलाबाजियों में महान क्षत्रियों के गौरवमय इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है,इसका सबूत मिला नहीं है।
राजा मांडा के अवसान के बाद इस देश में शादी व्याह और दहेज के वास्ते जाति व्यवस्था के अंतरग्त ही क्षत्रियों की अस्मिता और पहचान बची है,बाकी न कोई क्षत्रिय है और न राजपूत।
बामण भी अब वर्णश्रेष्ठ नहीं है।
वर्णश्रेष्ठ सचमुच वही है जो कारपोरेटबनिया है और जिसके तुणीर में अबाध विदेशी पूंजी हैं जैसे सुविधा वास्ते हम हिंदूजा, अंबानी, टाटा,बिड़ला, अडानी,मित्तल, जिंदल वगैरह वगैरह विश्व विजेताओं को याद कर सकते हैं।
कल्कि अवतार हो चुका है।
शूद्रों का राजकाज है।
लेकिन जाति व्यवस्था जस की तस है।
मनुस्मृति अनुशासन बहाल है।
मर्यादा पुरुषोत्तम बाबरी विध्वंस से हासिल खंडहर में रामलला बनकर कड़कती सर्दियों में सीता रसोईके भरोसे कैसे दिन काट रहे होंगे ,कुछ मालूम नहीं है तो सत्य,त्रेता द्वापर में धूम धड़ाका करने वाले परशुराम के कुठार खून लबालब जरुर हैं लेकिन वे खुद कहां मर खप गये मालूम नहीं है।अश्वत्थाम हो तो नहीं गये,क्या पता ठैरा।
बामणों और क्षत्रियों का हाल भी दलितों अति दलितों जैसा है ।
बहरहाल शूद्रों के कल्कि अवतार में बदला कुछ भी नहीं है।
मनुस्मृति जस की तस है और वर्ण व्यवस्था जाति स्थाई बंदोबस्त के मुताबिक सत्य,त्रेता और द्वापर से मुक्तबाजारी वैशिवकि हिंदुत्व के साम्राज्य में अमेरिका इजराइल सहयोगे बहुत ज्यादा मजबूत है और बनियातंत्र के आगे बामणों और क्षत्रियों का हाल भी दलितों अति दलितों जैसा है ।
बिजनेस फ्रेंडली मिनमम गवर्नमेंट वास्ते देश अब डिजिटल है।
इस डिजिटल देश में अंग्रेजी हुक्मरान ने पहले मनुस्मृति अनुशासन तोड़कर शिक्षा, संपत्ति और शस्त्र के हथियार शूद्रों और अछूतो को देकर माहर फौज खड़ी कर दी और बाबा साहेब जैसे अवतार पैदा कर दियों।तो तभी से उत्पादन प्रणाली ऐसी बनी कि जन्म पेशा का बंधन टूटि गयो।
हम जो जाति से अछूत हैं
और कायदे से हमें जो खेती सेती में मरखप जाना था,दुनियाभर के बामणों के वर्चस्व के बावजूद अर्थशास्त्र वगैरह निषिद्ध विषय पर रात दिन गुड़ गोबर कर रहे हैं,वह जन्मगत पेशा अपनाने की मजबूरी खत्म होने की वजह से ही।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय ज्ञानपीठ विजेता हैं और अति सम्मानीय हैं और उनके तमाम उपन्यासों में गणदेवता के चंडी मंडप में मनुस्मृति अनुशासन टूटने की सवर्ण नरकयंत्रणा का मानवीय दस्तावेज पेश है और स्वराज आंदोलन की पृष्ठभूमि जाननी है तो जलसाघर के ध्वस्त होते सामंती अवशेष को देखना चाहिए।
कवि की नियति और आरोग्य निकेतन की वैदिकी चिकित्सकीय ज्योतिषीय करुण दारुण कथा और हांसुली बांकेर उपकथा में टोटेम से बाहर निकल जाते आदिवासियों के आख्यान संक्रमण काल के भारत को जानने के अद्भुत पाठ हैं।
अश्वमेधी घोड़े रेशम पथ पर भी दौड़ेंगे
बहरहाल,हिंदुत्व के बहाने अर्थव्यवस्था में हुई वर्णश्रेष्ठों की महादुर्गति के विनाश के लिए मोहन भागवत,प्रवीण तोगड़ियाकी अगुवाई में तरह तरह के कल्कि सिपाहसालार अल्हा उदल गा गाकर घर वापसी के नारे के साथ विधर्मियों के विनाश के लिए राजसूय अश्वमेध शुरु कर चुके हैं और घोड़े इसबार रेशम पथ पर भी दौड़ेंगे।
हो सकता है कि उनकी दौड़ खास वाशिंगटन या तेल अबीबी तक धमाका का उत्सव कर दें।
न कोई चित्रांगदा है और न कोई नंदिनी है
मणिपुर में किसी स्त्री के हाथों पराजित होने को अभिशप्त नहीं कोई धनुर्धर क्योंकि अब न कोई चित्रांगदा है और न कोई नंदिनी है जो सुरंगों का पातालघर के अंधेरे में आलोक झरऩाधारा बरसा दें।
अब देवियां हैं जिनका विसर्जन नियति बद्ध है चाहे वे निर्भया बनकर मारे जाये या वैशाली की नगरवधू हनकर रह जाये या खजुराहो की भित्तिचित्र बन जाये।मुक्तबाजार चुना है हमने,सभ्यता खोकर।
सांढ़ संस्कृति और सांढ़ों की उछलकूद के मुक्तबाजारी कार्निवाल अब हमारा जीवन है।
वैश्विक व्यवस्था के सिरमौर भी संजोग से कोई अमेरिकी अश्वेत गुलामों के वंश के कल्कि अवतार ही हैं।
निराधार हैं आधार के बिना
भारत नामक जो लोक गणराज्य है,वह मरणासण्ण हैं और नागरिक सारे रोबोट हैं।
निराधार हैं आधार के बिना सोने हगने मूतने की इजाजत तक नहीं है और सभीपर अंकल सैम की निगरानी है।सबकी उंगलियों की छाप जमा है और सबकी पुतलियांं भी जमा है।कुछ टेंफें बोलने की नौबत नहीं है।
सबकी मैपिंग हो गयी है।
सभी नंबर हो गये हैं और ड्रोन की पहरेदारी है।
जैसा कि पाकिस्तान में हो रहा है कि कहीं भी किसी भी ठिकाने पर आतंक के खिलाफ युद्धों में मारे जा रहे हैं बेगुनाह।
इमर्जिंग मार्केट में जिसके तोते में अटकी हुई है डालर की जान।
वैसा ही अब देर सवेर होने वाला है भारत के इमर्जिंग मार्केट में जिसके तोते में अटकी हुई है डालर की जान।
उस तोते से छेड़छाड़ के बारे में अगर सोच्चा भी किसी ने तो ड्रोन महानगरों और देहात भारत के आसमान में भी उड़ रहे हैं और अंतरिक्ष में इसरो नासा के बेइंतहा युद्धक निगरीनी तंत्र है।
स्मार्टफोन,पीसी और टैब में पोर्नोग्राफी जितने लोड करो .जितने बतियाओ,जितने शेयर वेयर करो ,मुक्त बाजार और हिंदुत्व के खिलाफ बोले तो कारपोरेट मीडिया बन जाओगे दमदार हुए तो,तकनीके साध लोगे तो सोशल मीडिया का अवतार बनोगे और बाकीर कुछ ज्यादा उधम काटा तो गाइडेड मिसाइल गाइडेड बुलेट वगैरह वगैरह हर आधार नंबर के लिए तय है,राशन पानी गैस बिजली शिक्षा चिकित्सा नकदी वगदी मिले न मिले।
चप्पे चप्पे पर मृतात्माओं का पहरा है
चप्पे चप्पे पर मृतात्माओं का पहरा है जो साजिशें रच रही हैं।
उनको जिनने नंगा देख लिया,मुक्तिबोध वे बनें ,यह भी जरुरी नहीं है।
खुदीराम बोस या भगतसिंह भी किसी को बनने नहीं दिया जायेगा।
इरोम शंबूकनी की जान आफत में
मसलन अपनी प्रियतम लैहमानवी इरोम शर्मिला है,जिन्हें आत्महत्या का अधिकार मिल जाने की वजह से जबरन फीडिंग और जीवन रक्षक प्रणाली पर रखने का राजकाज खत्म है।
अब उनकी भलाई इसी में है कि अपना चौदह साल का आमरन अनशन तोड़ दें।आफसा वापस नहीं होना है।
सैन्य शासन में आफसा जोन का सारा कारोबार,उद्योग व्यापार प्रशासन के हवाले नहीं,सैन्यतंत्र के हवाले है।
तो सेना को सुरक्षा के तर्क गढ़ने में दक्षता जो है,हर स्तर पर इस सैन्यशासन के भागीदारों के मतलब भी वही है।
जाहिर है कि सशस्त्र सैन्यबल विशेष अधिकार कानून अब खत्म होने के आसार नहीं है।
किसी इरोम शर्मिला से न इस देश को कोई मतलब है और न इस देश की सेहत पर कोई असर होना है ,वे चाहे जियें या मरें।
अब तो आत्महत्या का अधिकार है।
रोजी रोटी जिनको होन नसीब,वे खुदकशी कर लें,कोई नहीं रोकनावाला।नाकाम भी हुए तो कोई नहीं पूछनेवाला।
बड़की क्रांति हुई गयो रे।
अब किसानों,कारोबरियों,आंदोलन नहीं कर सकते तो सामूहिक खुदकशी की तैयारी कर लो।
अब हर तरह का जनांदोलन असंभव बनाकर निरंकुश है हिंदू साम्राज्यवाद।भागवत और तोगड़िया का आशय यही है।
चौदह साल का वनवास पारकर मर्यादा पुरुषोत्तम का राजकाज शुरु हो चुका है और किसी शंबूकनी को तपस्या की इजाजत नहीं है।
इंद्रासन डोलें तो नारद बोले और असुरों का सफाया फिर शुरु है।
गांधी वगैरह का अनशन का फंडा और अनशन पर अंडा और झंडा,कुछो नहीं चलेगा।
बाकी जो सड़क पर या जल जंगल जमीन या पहाड़ या मरुस्थल या रण या समुंदर या डूब में चीखेगा चिल्लायेगा ,उसकी आवाज हमेशा हमेशा के लिए बंद करने का पुरकश इंतजाम सलवाजुड़ुम देश व्यापी है और इसे अब घर वापसी कहा जाने लगा है।
या तो अल्हा उदल गाओ वरना मारे जाओगे।
समझो, कि ग्लोबीकरण से प्रकृिति के सारे संसाधन बिकने हैं।
समझो कि विनिवेश विनियंत्रण विनमयमन अब राजकाज है।
समझो कि राजकाज अब कारपोरेट प्रोजेक्ट है।
समझो कि बिलियनर मिलियनर सांसदों मंत्रियों विधायकों से लेकर गांव पधानों तक कोई तुम्हारा कुछो नहीं लगता।
हम आपके कौन हैं गाओगे तो बेमौत मारे जाओगे।
क्योंकि नूरा कुश्ती का सबसे बड़ा अखाड़ा अब भारतीय लोकतंत्र है।
जहां हर चेहरे पर रंग बिरंगे मुखौटे हैं और मरने मारने का जो नाटक है,वह अभिनय के सिवाय कुच्छ भी नहीं है।
असली एजंडा वही है जो भागवत और तोगड़िया का जयघोष और युद्द घोषणाएं हैं।
समझो कि जलवायु बदल गया है कि प्रकृति से रोजे बलात्कार हो रहा है जैसे स्त्री देह की रोजे नीलामी है वैसे इस देश की भी रोजे नीलामी है और उस नीलामी का नाम फ्रीसेक्स सेनसेक्स है और जिस पर तमाम विदेशी निवेशकों के दांव है।
समझों कि मौसम चक्र बदल रहा है।
समझो कि भार हिमपात का समय है यह और सारे रास्ते बंद हैं।
ऊपर भी जाना मुश्किल है तो नीचे भी उतरना मुश्किल है।जो जहां फंसा है,मनुस्मृति अनुशासन में वहीं बना रहे,वरना पेशावर के आयात में देरी कोई नहीं है और सेना हिल स्टेशनों,तीर्थ स्थलों में हानीमून मनाते जोड़ों के बचाव के लिए बर्फ नहीं काटने वाली है।
समझो कि फिर फिर आने वाला है भूकंप।
समझों कि फिर फिर डूब में शामिल हो जाना है।
समझो कि सिर्फ उत्तराखंड ऊर्जा प्रदेश नहीं है।
बाकी सारे प्रदेश भी उर्जी परमाणु उर्जा खंड खंड रेडियोएक्टिव और भोपाल गैस त्रासदियां हैं,गुजरात नरसंहार का आयोजन सर्वत्र है अब और सिखों का नरसंहार फिर दोहराया जाना वाला है।
अब इस देश में हर कहीं बाबरी विध्वंस होने वाला है।
समझो कि पल चिन पल छिन भूस्खलन जारी है महानगरों के उन्मुक्त राजपथ से लेकर तमाम हाईवे एक्सप्रेसवे बुलेट चतुर्भुज गलियारा सेज मेंं पुणे का हाल है या पहाड़ों का।
समझो कि ग्लेशियर और घाटियों और झीलों और नदियों की मृत्यु का समय है यह।
समझो आसण्ण जलसंकट को।
समझो आसण्ण अन्न संकट को।
समझो की नौकिरिया जैसे खत्म है,वैसे ही बिजनेस इंडस्ट्री का काम तमाम है।आजीविका निषिद्ध है।
समझो कि फिर फिर आने को है सुनामियां।
सुंदरवन खत्म है समझो।
पश्चिम घाट वैसे ही नंगे हैं जैसे विंध्य,अरावली,सतपुड़ा और हिमालय।समझो कि सारे अभयारण्य अब कारपोरेट हवाले हैं।
पूरा देश अब सीमेंट का जंगल है।
पूरा देश अब प्रोमोटर बिल्डर राज बाधित विदेशी पूंजी की लाखों करोड़ों की परियोजनाएं है,जिन्हें अबाध बनाने के लिए सर्वदलीय शीतकालीन सहमति सत्र दानछत्र है।
समझ लो भइये कि मातृभाषाओं के मरने का सही समय है यह।
सूंघो कि यह दमघोंटू सडांध कहां से किस माध्यम,किस विधा और किस लोक से है।
समझो कि विज्ञापनी जिंगल के सनी जिंगल मैनफोर्स समय में बार बार करने की प्रबल इच्छा दरअसल लोक और गीतों के लिए मृत्यु पदचाप है।
समझो कि साधु संत मौसम चक्र बदल जाने के कारण हिमालय में तपस्या के बदले राजकाज में जबरन अड़ंगा डाल रहे हैं।
हिमालय में भारी हिमपात है।
जहां सेना का नियंत्रण है,वहां तो जवान अपनी आवाजाही के लिए मसलन जैसे सिक्किम और लद्दाख लेह में बर्फ काट रहे हैं।लेकिन मैदान से सिर्फ कुछ ही किमी ऊपर बसे नैनीताल में भी भारी बर्फबारी से सैलानी फंसे हुए हैं हानीमून उत्सव में।
जाहिर है कि साधू संतों का हानीमून से कोई नाता नहीं है।हालांकि कैलाश मानसरोवर से लेकर केदार बदरी तक अब हानीमून स्पाट ही हैं।
वे सारे साधू संत वशिष्ठ या विश्वमित्र या जमादग्नि की तरह उधम मचा नहीं पा रहे हैं।
क्योंकि न लाखों घोड़े किसी क्षत्रिय राजे के पास हैं और न उनके अंदरमहल में हजारों रानियां और राजकुमारिया हैं।
उनमें कुछ बाबा बनकर सत्ययुग की वापसी जरुर करने में लगे हैं।
सतजुग को पुष्यमित्र शुंग के राजकाज में बदलने की कवायद चल रही है।
इसी सिलसिले में एक अति शूद्र कोई एच एल दुसाध ने कल एक प्रलयंकारी आलेख हस्तक्षेप में डाल दिया है जिससे हिंदू साम्राज्यवादियों के विजयअभियान में खल ल पड़ भी सकती है।दुसाध भाया वैसे तो उम्मीद कर रहे थे कि समरसता सिद्धांत के तहत केसरिया कारपोरेट राज में डायवर्सिटी लागू हो जाने से यानी शक्ति स्रोतों के समान आवंटन कोयला ब्लाकों के आवंटन के माफिक समान तौर पर सध जाने से जाति उन्मूलन के विष्णु अवतार बाबासाहेब अंबेडकर का एजंडा पूरा हो जायेगा और जाति व्यवस्था का सिरे से विनाश हो जायेगा क्योंकि नये बंदोबस्त में शूद्र महाराज कल्कि ही राजा हैं तो बामणों और राजपूतों के वर्चस्व के दिन खत्म हुए तो दलितों अतिदलितों और विधर्मी अल्पसंख्यकों के दिन बहुरेंगे।
लेकिन घर वापसी के नाम पर मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये के भागवती रणहुंकार जो उनके घरु कोलकाता के असुर देश में हुआ और सारे असुर मारे डर के दुबके हैं कि कोई दुर्गा या काली उनका फिर वध कार्यक्रम शुरु न कर दें,तो भारतदेशे वैश्विक धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र का नजारा देख दुसाध डायवर्सिटी को कल्कि राज की असलियत का अहसास हो गया और उनने लिख मारा हैः
याद करें भूमिहार, उपाध्याय, आचार्य, महापात्र, दुबे, तिवारी, चौबे वगैरह की नम्बुदरीपाद, वाजपेयी, मिश्र इत्यादि ब्राह्मणों के समक्ष सामाजिक मर्यादा। क्या इनकी तुलनात्मक सामाजिक मर्यादा हिन्दू धर्म से मुक्त होने के लिए प्रेरित नहीं करती? इसी तरह हिन्दू समाज में सिंहों की भांति विचरण करने वाले क्षत्रियों से हिन्दू धर्म यह कहता है कि सत्तर वर्ष के क्षत्रिय को चाहिए कि वह दस वर्ष के ब्राह्मण बालक को पिता जैसा मानते हुए प्रणाम करे, और बड़ी-बड़ी मूंछे फहराए क्षत्रिय ऐसा करते भी हैं। क्या यह शास्त्रादेश क्षत्रियों को हिन्दू-धर्म से मोहमुक्त होने के लिए प्रेरित नहीं करता ? और हिन्दू धर्म में वैश्य मात्र वित्तवान होने के अधिकार से समृद्ध हैं, पर ब्राह्मण और क्षत्रियों के समक्ष उनकी हीनतर स्थिति क्या हिन्दू धर्म के परित्याग का आधार नहीं बनाती? आत्मसम्मान के अतिरिक्त हिन्दू-धर्म अर्थात वर्ण-धर्म के मात्र आंशिक अनुपालन से उपजी विवेकदंश की समस्या तो इनके साथ है ही, पर आत्मसम्मान और विवेक विसर्जित कर भी सवर्णों के हिन्दू धर्म में रहने की कुछ हद तक युक्ति है क्योंकि इसके विनिमय में उन्हें हजारों साल से शक्ति के स्रोतों में पर्याप्त हिस्सेदारी मिली है। पर, आत्मसम्मान व विवेक से समृद्ध सवर्ण नारियां व शुद्रातिशुद्रों से कैसे कोई प्रत्याशा कर सकता है कि वे हिन्दू धर्म में बने रहेंगे?
हस्तक्षेप पर अब दुसाध को पढ़ लीजियेगा।
फिर सोचें कि कहां कहां किसे रोक लीजियेगा।
दुसाध बाबू लिखते बहुतै बढ़िया हैं और सच दिल खोलकर लिख डालते हैं सिर्फ कल्कि अवतार की उनकी आस्था प्रबल है बाकी वे भी कोई हनुमान कम नहीं हैं।
पूंछ में उनकी आग ऐसी है कि ससुरे लंका को जलना ही है।लेकिन संघ परिवार के आसरे डायवर्सिटी लागू करने के बारे में उनका जो मोहभंग हुआ है,वैसा मोहभंग भारत के चरम उपभोक्तावादी,परम भोगी,नकद नारायण के उपासक कर्मकांडी हिंदुओं का हो रहा होगा,ऐसी कोई आशंका नहीं है।
कि सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है
अभी हमारे पास आनंद तेलतुंबड़े जैसे लोग हैं।अपना अभिषेकवा है।अमलेंदु हैं।रियाज है और अभी जिंदा हैं वीरेन डंगवाल,पंकज बिष्ट और आनंदस्वरुप वर्मा की जमात।
बाकीर देश भर की तमाम भाषाओं और तमाम जनपदों के लोग बाग उधमिये भी हैं।
16 मई के बाद कविता है तो प्रतिरोध का सिनेमा भी है।
हर शहर से हर गांव से अब उठने वाला है तूफान।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर जनपद बोलेगा।
हम हस्तक्षेप में जनपदों की व्यथा कथा ही दर्ज कर रहे हैं।
जो हवाओं में,पानियों में जहर घोल रहे हैं,उनके मुकाबले हम खड़े हैं और हम अकेले भी नहीं हैं।
दम है तो हाथ में रखो हाथ।
कि सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है।
बिंदास लिखो बिंदास बोलो।
अपनी भाषा में,अपनी बोली में बोलो,लिखो,हम हर आवाज को दर्ज करेंगे और मरते दम मोर्चा न छोड़ेंगे।
गीता उपदेश हमारे विरुद्धे जो हैं,उस गीता महोत्सव का आंखों देखा हाल आप जानना चाहें तो दिव्यचक्षु हमारे पास भी हैं।
वैसे सारे साधु संत हिंदुत्व के झंडेवरदार मुंह में वंदेमातरम कहकर छुरिया शान दे रहे हैं कि किस किसका न जाने गला काटना हो इस हिंदू साम्राज्य के पुनरूत्थान और मनुस्मृति के अनंत आदिगंत बंदोबस्त में दुसाध जैसे इक्के दुक्के शंबूकों की तपस्या भंग कर दिया जाये या फिर उनका शुद्धिकरण करके उन्हें कल्कि फौज में शामिल कर लिया जाये।
बाकीर मुरगियों और बकरियों की पंचायत लग रही हैं कि उनकी गर्दन रेंती जायें या एकमुश्त हलाल कर दिया जाये उन्हें,ऐसा तय करने की आजादी उन्हें मिल जाये।
गनीमत है कि इस कल्कि अवतार से बहुत पहले कोई बाबासाहेब नाम के शंबूक भी हुआ करते थे और मनुस्मृति बंदोबस्त में विदेशी अंग्रेजन के राज में उनके संरक्षण में शूद्रों को जो हथियार उठाने और शिक्षा का अधिकार मिल जाने से मनुस्मृति अनुशासन भंग हुआ और राम जी अंतर्धान रहे तो बाबा साहेब विलायत के कैंब्रिज आक्सफोर्ड वगैरह वगैरह जीतकर आ गये।
और उनने अर्थ शास्त्र साधकर मनुस्मृति के अर्थशास्त्र को भरसक बदलने की कोशिश की, रुपै की समस्या उजागर कर दी और रिजर्व बैंक की स्थापना से लेकर गोल्ड स्टैंडर्ज और श्रम कानून ट्रेड यूनियन के हक हकूक से लेकर मैटरनिटी लिव तक के बंदोबस्त तक कर दीन्ही ।
तो तब कोई बूढ़बाबा गांधी महाराजो भी थे जो जात से बनिया थे और बनियाराज लाने के खातिर रामराज की बात किया करते थे।
बाबासाहेब के जाति उन्मूलन एजंडा को उनने ममता बनर्जी के शब्दों में बिना छिला बांस कर दिया आमरण अनशन की धमकी देकर कि उनके प्राण बचाने बाबासाहेब ने झटपट पुणे करार पर दस्तखत करके आरक्षण कोटा बंदोबस्त मान लिया और इसी तरह बूढ़बाबा गांधी महाराज ने शूद्र राजकाज का बंदोबस्त करके बहाल मनुस्मृति में सौ फीसदी बनियाराज का चाकचौबंद इंतजाम कर दिया।
इस कारण हजारों बरस बने भारत को वे नये सिरे से पैदा कर गये और बापू कहलाये।
उनके अनुयायियों ने फिर धूम धड़ाके से बजरिये बारत विभाजन के अंग्रेजों को खदेड़ बाहर किया तो देश अखंड रखकर समानता और न्याय के आधार पर जो आजाद भारत के लिए शहादत देते रहे,उनके किये धरे पर माटी गोबर डालने का काम करते रहे उनके तमाम अनुयायी,जो बाद में संघ परिवार के छाते में चले गये।
बाकीर राजकाज स्वतंत्रता सेनानी ही चलाते रहे,ऐसा मनाने वाले बुरबकौ हैं।
उन घरानों का भूत भविष्य वर्तमान देख लीजिये जो अंग्रेजी हुकूमत के वाफादार थे और भारत की आजादी के खिलाफ थे और कदम दर कदम सदियों से वे विदेशी हुक्मरान के मनसबदार थे,उनके वंशज ही अब भारत भाग्यविधाता हैं।
सत्ता हस्तांतरण के वखत वहींच बाबासाहेब को संविधान का ड्राफ्टबनाने का काम दिया गया और जवाहर लाल ने हांक हांक कर उनसे जो संविधान बनवाया,उसमें आरक्षण कोटा के फौरी बंदोबस्त के अलावा बहुत कुछ खतरनाक तत्व भी बिना किसी राष्ट्रव्यापी जनसमर्थन के अपनी कुशाग्र मेधाकारणे बाबासाहेब ने डाल दिये जैसे मौलिक अधिकारों का बवंडर,जैसे श्रम कानून,जैसे स्त्रियों के अधिकार जैसे संसाधनों के राष्ट्रीयकरण का प्रावधान,जैसे पांचवीं और छठी अनुसूचियों में आदिवासियों के हक हकूक,जैसे आठवीं अनुसूची केममुताबिक मातृृभाषा के अधिकार,जैसे भूमि सुधार की गुहार,जैसे लोककल्याणकारी राज्य क नीति निर्धारक सिद्धांत।
हालांकि जवाहर ने भी बामण बहुमत का पूरा जुगाड़ कर लिया था और वे पक्के कश्मीरी पंडित साबित हुए जो नेताजी को देशबाहर करके सत्ता के एकमात्र वारिस हो गये और ऐन वक्त सरदार बल्लभ भाई पटेल को किनारे भी कर दियो।बंगाल और पंजाब का विभाजन हो जाने से वहां से बहरहाल नेतृत्व की कोई चुनौती न थी।
वैसे ये बाबासाहेब न होते तो इहो कल्कि अवतार भी न होता।
शूद्रों का यह राजकाज भी उन बाबा साहेब का अखंड प्रताप है,जाहिरै है कि जिनको अब संघ परिवार सबसे खतरनाक मानता है और ऐसा मानते हुए उनको सीधे पहले बवालिया गौतम बुद्ध को भगवान बनाकर किनारे करके बौद्धमय भारत के खात्मे के अासान के फार्मूले के तौर पर मुक्म्मल भगवान बना दिया गया है।
मूर्ति तो गांधी बाबा की भी बनी है।उसकी इन दिनों कोई पूजा वगैरह होती नहीं है।
राजघाट में मत्था टेकने की रघुकुल रीति चली आ रही है और उनके स्वराज की परिकल्पना और विदेशी पूंजी के उनके जिहाद को तो नवउदारवाद के भगवान मनमोहन सिंह और नरसिम्हावतार नें बारह बजा दिये।
उन नरसिम्हावतार ने हासलांकि बाबरी विध्वंस में कारसेवकों का पूरा संरक्षण भी किया और इसी तरह बाबरी विध्वसं से मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र भले रामलला बनकर सीता रसोई में कैद भये,लेकिन हिंदुत्व का एजंडा वैश्विक हो गया और मुक्त बाजारी जायनी बंदोबस्त में उसे अब अमेरिका और इजराइल का पूरा समर्थन है।
जिन बराक ओबामा को बुलाया गया वे एकमुश्त ईसाई और मुसलमान दोनों है,हमें नहीं मालूम कि संघ परिवार और हिंदुत्व के सिपाहसालार अपने ईसाई मुसलमान नरसंहार सूची में उनको कैसे बख्श रहे हैं।
हालांकि जैसे कि कल्कि अवतार का सिद्धांत है कि शूद्र भयो तो क्या हुआ,लागू वही मनुस्मृति विधान तुम्हारा राजकाज है,इस कसौटी पर ओबामा बम बम है।
अमेरिका ने जो तालिबान अलकायदा आईसिस मुस्लिम ब्रदरहुड नाम के भस्मासुर पैदा कर दियो है,इस्लाम तो वैसे ही संकट में है।
मध्यएशिया में हर कहीं मुसलमान मुसलमान को मारे हैं।रोज रोज आत्मघाती धमाका।अमेरिका का आतंकविरोदी युद्ध तो मुसलमान खुदे लड़बे करै हैं।
अमेरिकी फौजें हालांकि मध्य एशिया में फंसी हैं लेकिन वह मुसलमानों की हिफाजत के लिए नहीं, सफाये के लिए।
हिंदुओं इतिहास से सबक लें तो बेहतर।वरना हिंदू तालिबान हंदुओं की वही गति करेंगे जो इस्लामी तालिबान मुसलमानों का कर रहे हैं।
अपने डालर वर्चस्व और तेलहितों के लिए बुश से लेकर ओबामा तक को झख मारकर वैसा करना पड़ा है ।सारे अमेरिकी राष्ट्रपति वैसा ही करते रहे हैं और करते रहेंगे।
जैसे बजरिये नासा, पेंटागन, नाटो, विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन,रेटिंग एजंसियां,तमाम चर्च संगठन,सीआईए एफबीआई वगैरह वगैरह भारत को हिंदू बनाकर भारत का बाजार दखल करके डालर की सेहत सुधारने के लिए झोंके हुए है अमेरिका।
बाकीर अमेरिका में भी हिंदुत्व का जयपताका है।जयडंका बाजे घना घना।केम छे।केम चे।
हिंदुत्व के सिपाहसालार ही ओबामा प्रशासन का राजकाज चला रहे हैं।
इसे यूं समझिये कि मेले में बिछुड़े पश्चिमी कल्कि जु़ड़वां भाई महाराज अंकल सैम के म्हारो देश पधारने से पहले पहली बार शायद कोई भारतवंशी रिचर्ड राहुल वर्मा भारत में अमेरिकी राजदूत तैनात हैं।
और वे सुंदरी नैसी पावेल की जगह बैठेंगे जिनने दलित राजनयिक देवयानी खोपड़ागड़े के साथ कथित बदसलूकी की वजह से भारत अमेरिकी राजनय बेजायका होने से इस्तीफा दे दियाथा पिछले मार्च में ही।
अब राहुल बाबा की नियुक्ति तब हुई जब दलित कन्या देवयानी काअपराध मानकर भारत सरकार ने उनकी सेवा खत्म ही कर दी।
जनपद कथा बतर्ज
सिवनी जिले का इतिहास |
3/15/2012 9:42:19 AM |
सिवनी जिले के नामकरण के संबंध में जिले में अनेक दंतकथायें एवं धारणायें प्रचलित है। इतिहास के पृष्ठों में यह जिला मंडला के गौंड राजाओं के 52 गंढों में से एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। नगर मुख्यालय में तीन गढ चावडी, छपारा और आदेगांव प्रमुख थे। गौंड राजाओं के पतन के पश्चात सन 1700 ई. में नागपुर के भोसले के साम्राज्य के अधीन आ गया। सत्ता का केन्द्र छपारा ही था। सन् 1774 में छपारा से बदलकर मुख्यालय सिवनी हो गया। इसी समय दीवानगढी का निर्माण हुआ और सन् 1853 में मराठों के पतन एवं रघ्घुजी तृतीय की मृत्यु निःसंतान होने के कारण यह क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव में आ गया। सन् 1857 की क्रान्ति के पश्चात कम्पनी का समस्त शासन ब्रिटिश हुकूमत के अधीन हो गया। मुख्यालय में दीवान साहब का सिवनी ग्राम, मंगलीपेठ एवं भैरोगंज ग्राम मिलकर सिवनी नगर बना। इसके बाद सन् 1867 में सिवनी नगरपालिका का गठन हुआ। सिवनी में वनोपज हर्रा, बहेडा, आंवला एवं महुआ बहुतायात में होता है। महुआ का अधिक उत्पादन होने के कारण सन् 1902 में डिस्लरी का निर्माण हुआ। सन् 1909 तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर श्लोकाक विस्तार करते हुए रेल्वे लाईन का विचार किया। सन् 1904 में बंगाल नागपुर नैरोगेज रेल्वे का आगमन हुआ। सन् 1938 में बिजली घर के निर्माण ने नगर में एक नये युग का सूत्रपात किया। नगर की गलियां और घर बिजली की रोशनी से जगमगा उठे। सन् 1939 से 1945 के मध्य द्वितीय विश्व युद्व ने अंग्रेजी साम्राज्य की जडे हिला दी। नागपुर से जबलपुर एन.एच. 7 के मध्य सिवनी ना केवल प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था बल्कि जंगल अधिक होने के कारण अंग्रेजों के लिए सुरक्षित स्थान भी था। महात्मा गांधी के अथक प्रयासों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के अमर बलिदान से 15 अगस्त 1947 को हमारा देश स्वतंत्र हुआ। सिवनी जिला सन् 1956 में पुनः जिला बना। जिला बनने पर प्रथम कलेक्टर श्री ए.एस. खान पदस्थ हुए। हमारा अतीत गौरवशाली रहा है, वर्तमान में अनेक उतार चढाव देखने के पश्चात भी इस जिले में अपनी विकास यात्रा जारी रखी है। जिले में अनेक सपूतों ने अपनी यशगाथा प्रदेश, देश और विदेश में फैलाई है। उनमें परम पूज्य द्विपीठाधीश्वर जगत गुरू शंकराचार्य, स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज का नाम प्रमुख है। प्रथम धारणा सिवनी नगर का नाम सिवनी क्यों पडा इस संबंध में प्रथम धारणा यह है कि यहां कभी सेवन वृक्षों का बाहुल्य था। कदाचित इसी कारण इस नगर का नाम सिवनी पडा है। आज भी जिले में यत्र-तत्र सेवन के वृक्ष पाये जाते है। द्वितीय धारणा शैव मत के अनुयायी शिव भक्तों का बाहुल्य एवं भगवान शिव के इष्टदेव के रूप में पूजा अर्चना की अधिकता के कारण इस नगर का नाम शिवनी था, कलान्तर में इसका रूप बिगडकर अप्रभ्रंश होने के बाद सिवनी हो गया होगा। तृतीय धारणा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिए हुए तीसरी धारण यह है कि वीरगाथा काल (सम्वत् 1050 से 1375 तक) में नैनागढ के गोंड राजा इन्दरमन (इन्द्रमन) की बहिन सोना रानी अनुपम सुन्दरी थी। सोना रानी हिर्री नदी विकासखंड केवलारी ग्राम अमोदागढ के पास ग्राम खोहगढ में अपने भाई के साथ रहती थी। वीर भोग्या वसुन्धरा की उक्ति के अनुसार तत्कालीन राजधरानों की परम्परानुसार वीरता को अत्यधिक महत्व दिया जाता था। अतः सोनारानी जब जवान हुई तो उसके पिता श्री सोमदेव ने उसकी शादी के लिये एक शर्त रखी कि जो वीर शेर से लडने की क्षमता रखता हो उसे ही सोना रानी का विवाह किया जायेगा। आल्हा एवं उदल महोबा चंदेल राजा परमरद (राजा परमाल) के महान पराक्रमी योद्वा (सेनानायक) थे। ये बनाफ र क्षत्रिय थे। अनुज ऊदल की इच्छा थी कि अल्हा का विवाह सोना रानी से हो। अतः उदल ने अपने बडे भाई आल्हा को सोना रानी से विवाह कराने की सलाह दी। आल्हा ने कहा कि नैनागढ का राजा बहुत ही बलशाली है तथा उसके पास अस्त्र-शस्त्र भी बहुत है। उसने सोना से विवाह करने की इच्छा से आये 52 वीरवरों को बंदी बनाया लिया है। अतः आल्हा ने विषम परिस्थिति को भांप कर मना कर दिया, किन्तु उदल हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने हमला बोल दिया। इन्दरमन के साथ घमासान युद्व हुआ और ऊदल जीतकर सोना रानी को ले गाया। तत्पश्चात आल्हा के साथ सोना रानी का विवाह सम्पन्न हुआ। सोना रानी के नाम पर इस नगर का नाम सिवनी पडा। चतुर्थ धारणा एक धारणा यह भी है कि संभवतः आद्य शंकराचार्य दक्षिण दिशा से उत्तर भारत की यात्रा करते हुए जब यहां से निकले तो यहां की प्राकृतिक सम्पदा से प्रभाविक होकर उन्होंने इसे श्रीवनी के नाम से विभूषित किया। इसीलिये इसे सिवनी के नाम से जानते है। पंचम धारणा श्रीवनी का अर्थ होता है बेल के फलों का वन। इसके पत्ते शिवलिंग पर चढाते हैं और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इसके फल यज्ञ हवन में काम आते है। सिवनी नगर में बेल के वनों की अधिकता के कारण इसका नाम श्रीवनी पडा हो और संभव है कालान्तर में अप्रभ्रंश होकर इसका नाम सिवनी हो गया। षष्टम् धारणा मुगलों का आक्रमण जब गढ मंडला में हुआ तब उस आक्रमण को विफल करने के लिए नागपुर से राजा भोसले की सेना और गढ मंडला से गोंड राजा की सेना गढ छपारा में आकर रूकी । सेना के रूकने के स्थान को छावनी कहा जाता है सेना के रूकने के क्षेत्र धूमा, लखनादौन,छपारा सिवनी, खवासा रहे है। चूंकि सिवनी सैनिकों के लिए सर्वसुविधा युक्त स्थान था। अतः कुछ अंग्रेज विद्वानों का मत है कि यह विशाल सैनिक क्षेत्र छावनी रहा है। कालान्तर में छावनी का अपभ्रंश रूप सिवनी हो गया। उपर्युक्त विभिन्न धारणाओं के बीच सिवनी नगर के नामकरण के साथ कौन सी धारणा सत्य है इसका निर्णय नीर क्षीर विवेकी प्रबुद्व सुधी पाठकों पर ही छोडना उचित है। प्राचीन काल में भारत में इतिहास लेखन की कोई सुव्यवस्थित परम्परा नही थी। अतः सिवनी क्षेत्र का भी प्राचीन काल का कोई क्रमबद्व इतिहास उपलब्ध नहीं है। यंत्र-तत्र बिखरी जो कुछ अल्प सामग्री प्राप्त है उसके आधार पर लगभग तीसरी शताब्दी से ही संक्षिप्त इतिहास की रूपरेखा निर्धारित की जा सकती है। |