Mandate Treason
"Mere agreements between political parties do not constitute people's mandate. There must be clear people's input. Policies imposed without mandate, especially through violence and foreign dictate, are treason and not acceptable."
A. Mandate: In democracy, sovereign people decide through democratic election \ referendum. Any issue, especially important ones, must be peacefully discussed in public. Politicians must put their views, programs, pros and cons to the people. People must have opportunities to listen to different sides of the issue, evaluate and vote. Only such decisions constitute the 'Mandate.'
Mere agreements between political parties, especially with undemocratic and unelected, do not constitute people's mandate. There must be clear people's input.
Any political decision without mandate is imposed, unconstitutional and treason. There is no mandate for 'Republicanism, Secularism and Federalism.' These issues were neither brought by people, nor politicians discussed in the public. They are foreign imposed agendas using Maoist terror. Unfortunately, NC and UML acquiesced to it due to fear, not as the good for the nation.
1. गणतन्त्र, धर्म निरपेक्षता र संघीयता जनआन्दोलनका एजेन्डाथिएनन्
Annapurna Post, Jan. 7, 2015 www.annapurnapost.com/News.aspx/story/5782
2. Kamal Thapa at Constitution Assembly 2071-10-3 \ Jan. 25, 2015
www.youtube.com/watch?v=UIe6Bz-hMfY
3. मर्यादा नाघेर राजदूतको 'प्रेस्क्रिप्सन' - सुरेन्द्र पौडेल
Nagarik, Feb. 9, 2015 www.nagariknews.com/feature-article/story/32812.html
In this critical junction in history, politicians, who swear by democracy but do not honor people's wish, will live in infamy.
4. आत्मनिर्णय कि आत्मविक्रय? शिव प्रकाश
Annapurna Post, Feb. 8, 2015 www.annapurnapost.com/News.aspx/story/7066
B. Referendum: It is democracy. Let people decide. There must be peaceful discussions for public awareness and referendum for mandate on these core national issues. If not, they remain imposed, unconstitutional and unacceptable.
1. Democracy or Communism
2. Hindu rastra or Secular state
3. Parliamentary system or Mixed
4. United Nepal or Federal states
C. Maoists: The reason behind the failure of the 1st CA, possible failure of the 2nd CA, and the current show of strength by Maoists is their wrong interpretation of the '12 points agreement.' Maoists are saying that they are not bound by democratic norms, because their share of power comes from bullets, not from ballots. Maoists interpret the agreement as the compromise 'between' democracy and communism, not 'within' democracy.
Maoists make it clear that their insurgency in 1996 is against democracy to impose communism. Since they could not militarily win out right, they were forced to compromise with democratic forces. The interim parliament had 20% unelected Maoists, along with 80% democratically elected parliamentarians. Thus, they claim the Nepalese political structure should reflect similar proportion between communism and democracy. And they are entitled to '20%' share in the governance and the new constitution beyond democratic norm.
They further maintain that their participation in the 2013 election is only tactical, and would not abide by it if it does not benefit them. They still demand their share (20%) as per the '12 points agreement.'
To impress their extra-democratic demand they are willing to destroy our nation by aligning with divisive forces and malign foreign forces; and use terror, at least its threat.
D. NC, UML and other democratic forces must form a battle line to defend democracy and impress upon Maoists in no uncertain terms:
1. The '12 points agreement' is about giving them safe landing from being a 'terror organization' to a 'peaceful' political party within democracy.
2. Today, only relevant people's mandate comes from the 2013 election.
3. The mandate is for peace, nationalism, prosperity, democracy and pride in our heritage. It also defines the 'Progressive' direction.
4. The mandate is also against 'Regressive' direction, i.e. communism, divisive forces, ethnic frictions, and foreign ideological aggressions.
5. We have in place peaceful and democratic means for any political and social changes.
6. We will not tolerate terror, extortion, chanda atanka, Nepal banda, chakka jam etc.
E. Constitution (1990): It is the democratic constitution written by the democratic parties - NC, UML etc. Honorable Krishna Prashad Bhattarai led its creation and implementation. It is clear that people, not king, is sovereign. There is plenty of provision for amendments, if needed. The constitution also stands heavily against discrimination as per caste, religion, gender, region or any other. It was tagged as the best democratic constitution of its time. No body objected its promulgation. Politicians, including Maoists, participated in the election, got elected and took oath under it.
Yet, in 1996 Maoists began their violent campaign against democratically elected government to impose communism. As soon as a few terrorists showed up, our brave leaders ran away. These corrupt leaders began compromising and selling our Sovereignty, Dharma, Democracy and Unity. This is the crux
Mandate_Treason
इंसाफ विरोधी सरकार के खिलाफ विधानसभा पर रिहाई मंच की उठी मशाल हाशिमपुरा, मलियाना, मुरादाबाद और कानपुर सांप्रदयिक हिंसा की रिपोर्टों को सार्वजनिक करो- रिहाई मंच देश मोदी-अखिलेश की निजी जागीर नहीं, अवाम तय करेगी देश का मुस्तकबिल- रिहाई मंच
For Resistance Against Repression
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इंसाफ विरोधी सरकार के खिलाफ विधानसभा पर रिहाई मंच की उठी मशाल
हाशिमपुरा, मलियाना, मुरादाबाद और कानपुर सांप्रदयिक हिंसा की रिपोर्टों
को सार्वजनिक करो- रिहाई मंच
देश मोदी-अखिलेश की निजी जागीर नहीं, अवाम तय करेगी देश का मुस्तकबिल- रिहाई मंच
लखनऊ, 20 अपै्रल 2015। हाशिमपुरा जनसंहार में प्रदेश सरकार के इंसाफ
विरोधी रवैए, आगरा में चर्च पर हुए हमल,े हाशिमपुरा, मलियाना, मुरादाबाद
और कानपुर सांप्रदायिक हिंसा पर गठित जांच आयोगों की रिपोर्टों को लागू
करने और सोनभद्र के कनहर में विकास के नाम पर आदिवासियों पर फायरिंग करने
वाली सपा सरकार के खिलाफ रिहाई मंच ने किया विधानसभा मशाल मार्च।
जलती हुए मशालें लिए प्रदर्शनकारी हाशिमपुरा जनसंहार की जांच सुप्रीम
कोर्ट की निगरानी में एसआईटी से कराओ, आगरा में चर्च पर हुए हमले की
सीबीआई जांच कराओ, कनहर में विकास के नाम पर आदिवासियों पर पुलिसिया
फायरिंग क्यों? अखिलेश यादव जवाब दो!, हाशिमपुरा, मलियाना, मुरादाबाद,
कानपुर सांप्रदायिक हिंसा के जांच आयोगों की रिपोर्टें जारी क्यों नहीं?
अखिलेश यादव जवाब दो, हाशिमपुरा के 42 बेगुनाहों के हत्यारे पीएसी के
जवानों को बचाने के लिए क्यों मिटाया सुबूत?, 1980 में मुरादाबाद के 284
लोगों के हत्यारों को बचाने के लिए, डीके सक्सेना जांच आयोग की रिपोर्ट
पर चुप्पी क्यों? मुलायम सिंह जवाब दो, मलियाना जनसंहार का एफआईआर कैसे
हुआ गायब प्रदेश सरकार जवाब दो, मुजफ्फरनगर के दंगाईयों को जमानत क्यों ?
भड़काऊ भाषण देने वाले भाजपा सांसदों ? पर कार्रवाई क्यों नहीं, कानपुर
सांप्रदायिक हिंसा पर गठित माथुर आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों नहीं?,
आरडी निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर कार्रवाई क्यों नहीं सपा सरकार जवाब दो
लिखी तख्तियों के साथ विधानसभा पर प्रदर्शन किया।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि विधानसभा पर उठी यह मशाल
मुल्क में फासीवाद के प्रतीक गुजरात की तरफ बढ़ते यूपी सरकार के इंसाफ
विरोधी रवैए के खिलाफ है। जिस तरह से गुजरात में सांप्रदायिक जनसंहारों
और उनके इंसाफ का कत्ल किया गया वही हालात हाशिमपुरा से लेकर मुजफ्फरनगर
नगर तक यूपी में है। जिस विकास के भ्रम का मोदी ने प्रचार करके आदिवासी
जनता की जमीनें हड़पी, हजारों किसान आत्महत्या को मजबूर हुआ ठीक उसी
नक्शेकदम पर यूपी है। जहां सिर्फ मार्च की बेमौसम बारिश के बाद 450 किसान
आत्महत्या कर चुके हैं तो वहीं कनहर में आदिवासी जनता पर गोलियां चलवाई
जा रही है और मुख्यमंत्री अखिलेश ड्रीम प्रोजेक्ट के नाम पर अन्न उपजाने
के वाले खेतों को जेसीबी से रौदवाकर सड़कें बनवा रहे हैं। उन्होंने कहा
कि आज हम विधानसभा पर इंसाफ की इस मशाल को जलाकर यह चेतावनी देने आए हैं
कि किसी अखिलेश, मोदी के इंसाफ विरोधी ड्रीम प्रोजेक्ट पर देश नहीं
चलेगा। किसी मुल्क का निर्माण अवाम करती है और अवाम तय करेगी मुल्क का
मुस्कबिल।
विधानसभा मशाल मार्च में सामाजिक न्याय मंच के अध्यक्ष राघवेन्द्र प्रताप
सिंह, आईएनएल के अध्यक्ष मो0 सुलेमान, सलीम बेग, सीपीएम के प्रदीप शर्मा,
सीपीआई एमएल के मो0 सलीम, ताहिरा हसन, लक्ष्मण प्रसाद, पुष्पा बाल्मिक,
इनायतुल्ला खान, डा0 अली अहमद, नदीम जावेद, एखलाख चिश्ती, प्रो0 इस्तेफाक
रसूल, शाहआलम शेरवानी, हाजी फहीम सिद्दीकी, आफाक, जैद फारुकी, शकील
कुरैशी, कमर अहमद, अबु कैश, एहशानुल हक मलिक, शिवनारायण कुशवाहा,
होमेंद्र, खालिद कुरैशी, जनचेतना के सत्यम वर्मा, गीतिका, आली की छवि
सहाय कृति कक्कड़, एसएफआई से प्रवीण पाण्डेय, सैयद वसी, सैयद मोइद, अनिल
यादव, मोजीद अहमद, शौकत अली, अशफाक अली, नागरिक परिषद के रामकृष्ण,
कल्पना पाण्डेय, वर्तिका शिवहरे, मनन, मनु, देवी दत्त पाण्डे, खालिद
कमाल, मो0 आलम, एडवोकेट शमी, आदियोग, रिफत, वर्तिका, रामबचन, शाहनवाज आलम
आदि शामिल हुए।
द्वारा जारी
शाहनवाज आलम
प्रवक्ता, रिहाई मंच
09415254919
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Office - 110/46, Harinath Banerjee Street, Naya Gaaon Poorv, Laatoosh
Road, Lucknow
E-mail: rihaimanch@india.com
https://www.facebook.com/rihaimanch
बुरांश खिले पहाड़ जंगल दहक रहा दावानल कि पक रही है मिट्टी भूमिगत आग अब फोड़ देगी जमीन जलकर खाक होगी लुटेरों की यह नकली दुनिया पलाश विश्वास
बुरांश खिले पहाड़ जंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया
पलाश विश्वास
बुरांश खिले पहाड़ जंगल
कि पलाश खिले पहाड़ जंगल
कि जंगल में हो मंगल
कि जारी रहे संसदीय दंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया
जब लघु पत्रिका आंदोलन का जलवा था सत्तर के दशक में,जब मथुरा से सव्यसाची उत्तरार्द्ध के साथ साथ जन जागरण के लिए सिलसिलेवार ढंग से जनता का साहित्य- सूचनाओं और जानकारियों का साहित्य रच रहे थे,उत्कट साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं और अभिव्यक्ति के दहकते हुए ज्वालामुखी के मुहाने पर था हमारा कैशोर्य।
तभी आनंद स्वरुप वर्मा वैकल्पिक मीडिया के बारे में सोचने लगे थे।
तब कामरेड कारत,येचुरी और सुनीत चोपड़ा भी जवान थे।जेएनयू परिसर लाल था।हालांकि वहां न कभी बुरांश खिले और न ही पलाश।न वहां कोई दावानल महका हो कभी।गोरख पांडे को वहां खुदकशी करनी पड़ी और डीपीटी जैसों का कायाकल्प होता रहा।
जब पहाड़ों में जंगल जंगल खिले बुरांश की आग दावानल बनकर प्रकृति और पर्यावरण के रक्षाकवच रच रही थी,मध्य भारत में खिल रहे ते पलाश और पहाड़ के चप्पे चप्पे में चिपको आंदोलन की गूंज थी,तभी से आनंद स्वरुप वर्मा हमारे बड़े भाई हैं।
वे हमारी टीम में ठीक उतने ही महत्वपूर्ण रहे हैं जितने वीरेनदा, पंकजदाज्यू, देवेन मेवाड़ी,शमशेर सिंह बिष्ट,गिरदा,शेखर पाठक या राजीव लोचन शाह ,या पवन राकेश और हरुआ दाढ़ी ।
संजोग से आनंद स्वरुप वर्मा आज भी हमारे बड़े भाई हैं।
संजोग से अब हमारी कोई उत्कट साहित्यिक आकांक्षा नहीं हैं।कैरीयर बनाने की हम तो गिरदा की सोहबत में सोचे ही नहीं कभी।
संजोग से छात्र जीवन से जो वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई का रास्ता हमने आनंद दादा की दृष्टि से चुन लिया,आज वही हमारा एकमात्र विकल्प है।इस गैस चैंबर की खिड़कियों को तोड़कर बचाव का आखिरी रास्ता है इस कयामती घनघोर नस्ली कारपोरेट समय में।
संजोग से अस्सी के दशक से अब तक लगातार पेशेवर पत्रकारिता में सक्रिय होने के बावजूद हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आम जनता तक अनिवार्य जानकारी देने की है,जिसका पहला सबक हमने आपातकाल के अंधेरे में मथुरा के एक प्रोफेसर की आजीवन सक्रियता के माध्यम से पढ़ा था।तब हमारे साथ लघुपत्रिका वाले कामरेड भी थे।जिनमें से ज्यादातर अब कामरेड केसरिया हैं।
न अब कहीं लघु पत्रिका आंदोलन है और न कहीं देशव्यापी गूंज पैदा करने वाला कोई जनांदोलन है।आपातकाल से भी भयानक अंधेरे का यह चकाचौंध तेज रोशनियों का मुक्तबाजारी कार्निवाल है और सव्यसाची जैसे प्रतिबद्ध लोग कहीं किसी कोने में जनता का साहित्य प्रसारित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं या नहीं,हमें जानकारी नहीं हैं।दुःसमय।घनघोर दुःसमय।
संजोगवश आज भी आनंद स्वरुप वर्मा न केवल सक्रिय हैं बल्कि आज भी वे हमारे प्रधान सेनापति हैं।
अभी हाल में पौड़ी में वे उमेश डोबाल की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होकर पहाड़ होकर आये।
फिर पता लगा कि रामनगर में उत्तराखंड सरकार ने जो कहर ढाया,उसके प्रतिरोध में वे वहां भी पहुंच गये।उस कांड की रपट अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखी है।
परसो तरसो हमने आनंद भाईसाहब को फोन लगाया तो वे बोले सोनभद्र जा रहे हैं।कनहर नदी में बहती अपने स्वजनों की रक्तधारा में कातिलों का सुराग निकालने।
हमने उन्हें फोन वैकल्पिक मीडिया पर बहस और तेज करने का अनुरोध करने के लिए किया था,लेकिन उनने मुझसे तराई में बसे थारुओं और बुक्सों के उजाड़ के बारे में कुछ लिखा या नहीं, पूछा।
दादा को हमने बताया कि मुझे जो कुछ मालूम है,वह तो हमने कब तक सहती रहेगी तराई में 1978-79 में लिखा दिया था कि तराई में जो सिडकुल साम्राज्य बसा हुआ है,वह दरअसल बुक्साड़ और थरुवट की बसावट थी। तराई के जंगल में मलेरिया, प्लेग,बाढ़ और तमाम तरह की जानलेवा बीमारियों,सुल्ताना डाकू जैसे लुटेरों और बाहरी हमलों से लड़ते हुए सन सैंतालिस तक पूरी तराई उनकी थी।
जो देश आजाद होते न होते बंगाली और सिख पंजाबी शरणारिथियों की पुनर्वास कालोनियां बसने से पहले देश के बड़े कारोबारी घरानों, उद्योपतियों, फिल्म स्चारों,आर्मी और प्रशासन के अफसरों और राजनेताओं ने 1952 तक खाम सुपरिन्डेंट राज कौड़ियों के मोल धकल करते हुए हजारों हजार एकड़ के फार्म नैनीताल, बरेली, रामपुर, पीलीभीत और मुरादाबाद जिलों में बना लिये।
यह पहली बाड़ाबंदी थी तो सिडकुल के जरिये मुक्तबाजारी कारपोरेट बाड़ाबंदी अब खुल्ला जमीन हड़पो बेचो अभियान विकास के नाम है जो मोदी मत्र का अखंड जाप भी है हिंदुत्व उन्माद के मध्य।
तराई का वह किस्सा हमने नैनीताल समाचार से लेकर दिनमान तक में सत्तर के दशक में ही लिख दिया था।अब सिर्फ उल्लेख कर रहा हूं।आनंद स्वरुप वर्मा संपादित नैनीताल समाचार की स्वर्ण जयंती विशेषांक में तराई कथा है,राजीव दाज्यू को पोन करके या लिखकर इच्छुक पाठक मंगा लें।
सिडकुल रुद्रपुर इलाके में अटवारी मंदिर को घेरे बुक्साड़ से लेकर काशीपुर तक बुक्से गांव ही थे तो सितारगंज से लेकर खटीमा तक के सिडकुल आखेटगाह में थारुओं की बस्तियां शुरु होती थीं,जो नेपाल तक विस्तृत थीं।
हम तब जनमे भी न थे।जब तराई में बसे सैकड़ों थारु बुक्सा गांव बुलडोजर से उजाड़ दिये गये।उनके हक हकूक की बात लिखने के जुर्म में तराई के पहले पत्रकार जगन्नाथ जोशी को सरेबाजार गोलियों से उड़ा दिया गया।जगन्नाथ जी के भाई समाजवादी नेता चंद्रशेखर जी ने हमें बताया कि वे तब वे ऐसे ही किसी बुलडोजर के ज्राइवर थे ,जनके जरिये पेडो़ं को जड़ों समेत उखाड़ने के साथ साथ बुक्सा थारुओं के गांव भी उखाड़ दिया गये।
फिर सन 1978 में पंतनगर गोलीकांड पर नैनीताल से लेकर दिनमान तक हमने,शेखर पाठक और गिरदा ने मिलकर तराई को बसाने के नाम पर तराई को उजाड़ने की जो कथा लिखी,उसके लिए नैनीताल से नजीबाबाद रेडियो स्टेशन में अपने कुमांउनी गीतों की रिकार्डिंग के लिए जा रहे गिरदा को रूद्रपुर में बस से उतारकर धुन दिया गया और खून से लथपपथ वे नैनीताल समाचार लौटे।
कब तक सहती रहेगी तराई सिलसिलेवार नैनीताल में छपने की वजह से तराई में खटीमा से लेकर काशी ढल जो अमर उजाला के लिए तराई से पत्रकारिता करते थे,उनके साथ सितारगंज से साप्ताहिक लघु भारत निकालते वक्त भी हालत यह थी कि हमें बाल एक दम छोटे रखने पड़ते थे और हमारी लंबी दाढ़ी कटवानी पड़ी।ताकि महनले की हालत में कोई हामरा बाल यादाढ़ी पकड़कर पटक न दें।
तराई में तब भी जंगल बचे हुए थे।तराई में तब भी आदमखोर बाघ थे।
अब सारी तराई सीमेंट के जंगल में तब्दील है।सिडकुल की दीवारे दौड़ रही हैं दसों दिशाओं में और तराई में नये सिरे से हजारों हजार एकड़ों वाले बड़े फार्मों में किसानों के बंधुआ मजदूर में तब्दील होते रहने के सिलसिले के मध्य नये सिरे से बाड़ाबंदी हो रही हैं।वे दीवारें अब बसंतीपुर को भी घेरे हुए हैं।
अब तराई ही नहीं, सारा देश सीमेंट के जंगल में तब्दील हैं।
चप्पे चप्पे पर आदमखोर कारपोरेट केसरिया बाघ हमर मेहनतकश आदमी और औरत का हाड़मांस चबा रहे हैं,खून पी रहे हैं शीतल पेय की तरह और सारी नदियां खून की नदियों में तब्दील हैं।
वे खून की नदियां बेदखल पहाड़ों से होकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों,घाटियों,झीलों और झरनों को लहूलुहान कर रही हैं।
तो वे खून की नदियां मरुस्थल और रण में भी निकलती हुी देख रही है जैसे कि लापता सरस्वती फिर मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगरियों के बीच विदेशी हमलावरों की तलवारों की धार पर खून से लथपथ पंजाब से लेकर राजस्थान और गुजरात और सीमापार सिंध तलक तमाम नदियां खून से लबालब लापता सरस्वती नदी बन गयी है और नये सिरे से वैदिकी वध संस्कृति के सेनापति इंद्र चारों तरफ अनार्यों के वध के लिए कारपोरेट केसरिया घोड़े और सांढ़ दौड़ा रहे हैं।
रथयात्राएं जारी हैं।जारी रहेंगी।
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
कारपोरेट हिंसा हिंसा न भवति।
बुरांश खिलने का यही मौसम है।
जलवायु बदल गया है।
प्रकृति बदलने लगी है।
तो क्या,खिलेंग ही बुरांश
और खिलेंगे पलाश भी
दावानल कतो फिर दावानल है
आग कहीं भी हो,
आग तो निकलनी चाहिए
दावानल फिर दावानल है
बेमौसम आपदाओं की केसरिया कारपोरेट सुनामी से दसों दिशाओं से हम घेर लिये गये हैं और हर आम भारतीय किसी न किसी चक्रव्यूह में महारथियों के हाथों अकेला वध होने को नियतिबद्ध है इस मुक्तबाजारी महाभारत में कि हर सीने के लिए रिजर्व है कोई नकोई गाइडेड बुलेट या फिर मिसाइल उसकी हैसियत के मुताबिक।ड्रोन की तेज बत्ती वाली नजर से बच भी निकले तो आपकी पुतलियों की तस्वीरें और आपकी उंगलियों की छाप उनके डाटा बैंक में दर्ज है,बचोगे नहीं बच्चू।
देश भर के आदिवासी हमारे मोहनजोदोड़ो हड़प्पा विरासत के वंशधर हैं और उनके घर घर में कालचक्र से उस समय की रक्तधारा को स्पर्श किया जा सकता है अभी।
माननीय इस मिथ्या लोकतंत्र के निवासियों,आपको बता दें कि भूमि अधिग्रहण के लिए किसी कानून की परवाह कोई नहीं करता।
कानून हो या नहीं, बेदखली हरिकथा अनंत है।आदिगंत अनंत हरिकथा,वैदिकी हिंसा।
बेदखली का सिलसिला हड़प्पा मोहनजोदोड़ो समय से निरंतर जारी है।
सिर्फ सत्ता हस्तातंरण हुआ है।लोकतंत्र इस देश में कभी नहीं आया।
राहुल गांधी के संसदीय उद्गार के जवाब में बिजनेस फ्रेंडली गोडसे सावरकर गोलवलकर की फासिस्ट सरकार जो हीराकुड बांध के शिलान्यास के वक्त दिये गयेभाषण को उद्धृत कर रही है और इंदिरा गाधी के विकास के एजंडे का बाबासाहेब के महिमामंडन की तर्ज पर स्मरण किया जा रहा है,उसका मतलब समझ लें।
हाल में एक जनपक्षधर टीवी चैनल पर हमारे इंडियन एक्सप्रेस के पुराने सीईओ शेखर गुप्ता के साथ साथ महान दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद दलित उद्यम का विमर्श पेश करते हुए दलित उद्योगपतियों के अरबों डालर के टर्नओवर दिखाते हुए जमशेदपुर के टाटा कारखाना इलाके में खड़े होकर बता रहे थे कि वहां पूरा इलाका सिंहभूम का घनघोर जंगल था जिसे टाटा ने इस्पात कारखाने में तब्दील करके झारखंड के आदिवासियों और दलितों को रोजगार दिये।
यही तर्क कल्कि अवतार का है कि तुम हमें जमीन दो,हम तुम्हें रोजगार देंगे। अबाध भूमि अधिग्रहण का यह आधार है।
सत्ता वर्ग को आम जनता में यह खुशफहमी बनाये रखने की चिंता ज्यादा है कि देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र में कानून का राज है और कानून के राज में हर किसी के साथ न्याय होगा।
सही मायने में न कानून का राज है।
सही मायने में न लोकतंत्र कहीं है।
सही मायने में न न्याय की कोई उम्मीद कहीं है।
तराई के बारे में भी यही कहा जाता है कि वहां घनघोर जंगल था।जैसे कि टाटानगर के बारे में कहा जा रहा है कि वहां कोई आबादी नहीं थी और घनघोर जंगल बीच मंगलकाव्य का सृजन कर दिया टाटा ने।जबकि टाटा नगर सैकड़ों आदिवासियों के गांवों पर बसाया गया और उन आदिवासियों को आजतक न मुआवजा मिला है ,न पुनर्वास और न ही रोजगार।
संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों,वनाधिकार अधिनियम,समुद्रतट सुरक्षा अधिनियम,जीवन चक्र संरक्षण अंतरराष्ट्रीय कानून, पेसा,स्वायत्त इकाई अधिनियम,पर्यावरण कानून,खनन अधिनियम और न जाने कितने कितने कानून हैं,जिन्हें ताक पर रखर खनिज संपदा से समृद्ध आदिवासी सोेने की चिड़िया भारत की रोज रोज हत्या हो रही है।
नेहरु समय में विकास के जो भव्य राममंदिर बने देशभर में, भिलाई, बोकारो, हीराकुड, डीवीसी से लेकर भाखड़ा नांगल तक,उसके लिए जो बस्तियां उजाड़ी गयीं, उन्हें न आज तक पुनर्वास मिला और न रोजगार।
नया रायपुर बसाने के लिए परखौती के आस पास जो सैकड़ों आदिवासी गांव उखाड़े गये, समूचे मध्य भारत में सलवा जुड़ुम के तहत कारपोरेट परियोजनाओं के तहत कारपोरेट हितों के लिए आम करदाताओं के पैसे से जो चप्पे चप्पे पर सैन्य राष्ट्र की मौजूदगी में हर पल हर छिन बेदखली अभियान जारी है,उसके लिए किसी भूमि अधिग्रहण कानून की जरुरत नहीं है।
बंगाल की शेरनी भूमि अधिग्रहण के सख्त खिलाफ हैं।हावड़ा,हुगली,उत्तर और दक्षिण चौबीस परगना जिलो के जो हजारों हजार गांव उजाड़ दिये जाते रहे हैं और सुंदरवन से लेकर दार्जिलिग तक जो प्रोमोटर बिल्डर माफिया राजकाज है, अबाध जो भूमि डकैती है,उसके लिए किसी कानून की जरुर त नहीं पड़ी।
नई दिल्ली की बहुमंजिली कालोनियों की नींव में जो हजारोंहजार गांव दफन है,उनके वाशिंदे अब कहां है,कितनों को मुआवजा मिला,कितनों को नहीं,इसका कोई हिसाब किताब हो तो बांग्लादेश में जैसे शहरियार कबीर ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न का एनसाइक्लोपीडिया छाप दिया,वैसा ही कुछ करें कोई,तो पानी का पानी ,दूध का दूध हो जाये।
नई मुंबई और पनवेल के बेदखल गांवो के मुखातिब होता रहा हूं बार बार ,जिन्हें न मुआवजा मिला है और न रोजगार प्राइम प्रापर्टी हाचप्रापर्टी के उस कारपोरेट अभयारणय में।
घूम घूमकर झूम खेती करने की वजह से हजारों सेल से आदिवासी गांवों की बसावटें बदलती रही हैं।जिस वजह से आदिवासी गावों को राजस्व गांवों की मान्यता बहुत मुश्किल से मिलती है।उन गांवों का कोई रिकार्ड होता नहीं है कहीं।वे हैं तो वे नहीं भी हैं।एकबार वे गांव छोड़ दें तो वे दोबारा गांव लौट नहीं सकते।
सलवा जुड़ुम का महाभारत आदिवासियों को अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर करने का आईपीएल है।एकबार आदिवासी किसी भी वजह से गांव छोड़ दें तो उन्हें दोबारा वहां बसने की इजाजत नहीं मिल सकती और न वे अपनी जल जंगल जमीन और आजीविका का दावा किसी न्यायलय में ठोंक सकते हैं।कानून के राज में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।न भविष्य में होगी।
इस देश में कहीं भी,यहां तक की हिमालय की तराई और नेपाल में बसे निरंतर बेदखल बुक्सा थारुओं की भी कहीं सुनवाई नहीं होती।
इस देश में जमीन आदिवासियों की जरुर होती है और कानूनन इस जमीन का ह्तांतरण भी नहीं हो सकता।लेकिन उस जमीन पर सर्वत्र गैर आदिवासी लोग ही ज्यादातर काबिज हैं।
भूमि अधिग्रहण कानून पास कराने का नाटक आम जनता,खासकर किसानों और आदिवासियों को यह भरोसा दिलाने के लिए अनिवार्य है कि वे इस गलत फहमी हरहे कि कानून के मुताबिक ही उनको हलाल या झटके से मार दिया जायेगा।गैर कानूनी कुछ भी नहीं होगा।
यह तिलिस्म जब टूटेगा तो मंजर वही होगाः
बुरांश खिले पहाड़ जंगल
कि पलाश खिले पहाड़ जंगल
कि जंगल में हो मंगल
कि जारी रहे संसदीय दंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया
हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर- 1
हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर- 1
शोषित-उत्पीड़ित अवाम के महान सपूत बाबासाहब डा भीमराव अम्बेडकर की 125 जयन्ति मनाने की तैयारियां जगह-जगह शुरू हो चुकी हैं। वक्त़ बीतने के साथ उनका नाम और शोहरत बढ़ती जा रही है और ऐसे तमाम लोग एवं संगठन भी जिन्होंने उनके जीते जी उनके कामों का माखौल उड़ाया, उनसे दूरी बनाए रखी और उनके गुजरने के बाद भी उनके विचारों के प्रतिकूल काम करते रहे, अब उनकी बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने के लिए तथा दलित-शोषित अवाम के बीच नयी पैठ जमाने के लिए उनके मुरीद बनते दिख रहे हैं।
ऐसी ताकतों में सबसे आगे है हिन्दुत्व ब्रिगेड के संगठन, जो पूरी योजना के साथ अपने अनुशासित कहे जानेवाली कार्यकर्ताओं की टीम के साथ उतरे हैं और डा अम्बेडकर – जिन्होंने हिन्दू धर्म की आन्तरिक बर्बरताओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष एवं व्यापक जनान्दोलनों में पहल ली, जिन्होंने 1935 में येवला के सम्मेलन में ऐलान किया कि मैं भले ही हिन्दू पैदा हुआ, मगर हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं और अपनी मौत के कुछ समय पहले बौद्ध धर्म का स्वीकार किया /1956/ और जो 'हिन्दू राज' के खतरे के प्रति अपने अनुयायियों को एवं अन्य जनता को बार बार आगाह करते रहे, उन्हें हिन्दू समाज सुधारक के रूप में गढ़ने में लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया जनाब मोहन भागवत ने पिछले दिनों कानपुर की एक सभा में यहां तक दावा किया कि वह 'संघ की विचारधारा में यकीन रखते थे'और हिन्दू धर्म को चाहते थे।
इन संगठनों की कोशिश यह भी है कि तमाम दलित जातियां – जिन्हें मनुवाद की व्यवस्था में तमाम मानवीय हकों से भी वंचित रखा गया – उन्हें यह कह कर अपने में मिला लिया जाए कि उनकी मौजूदा स्थितियों के लिए 'बाहरी आक्रमण'अर्थात इस्लाम जिम्मेदार है। दलितों के इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर पिछले दिनों संघ के स्वयंसेवक एवं भाजपा के प्रवक्ता डा विजय सोनकर शास्त्री द्वारा लिखी गयी तीन किताबों का विमोचन भी हुआ।
गौरतलब है कि मई 2014 के चुनावों में भाजपा को मिली 'ऐतिहासिक जीत'के बाद जितनी तेजी के साथ इस मोर्चे पर काम चल रहा है, उस पर बारीकी से नज़र रखने की जरूरत है। प्रस्तुत है दो पुस्तिकाओं का एक सेट: पहली पुस्तिका का शीर्षक है 'हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर'और दूसरी पुस्तिका का शीर्षक है ' हमारे लिए अम्बेडकर'। पहली पुस्तिका में जहां संघ परिवार तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा डा अम्बेडकर को समाहित करने, दलित जातियों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने, भक्ति आन्दोलन के महान संत रविदास के हिन्दूकरण तथा अस्पश्यता की जड़े आदि मसलों पर चर्चा की गयी है। वहीं दूसरी पुस्तिका में दलित आन्दोलन के अवसरवाद, साम्प्रदायिकता की समस्या की भौतिक जड़ें आदि मसलों पर बात की गयी है। इस पुस्तिका के अन्तिम अध्याय 'डा. अम्बेडकर से नयी मुलाक़ात का वक्त़'में परिवर्तनकामी ताकतों के लिए डा. अम्बेडकर की विरासत के मायनों पर चर्चा की गयी है।
पुस्तिका में अस्पृश्यता के प्रश्न पर विचार करते हुए कई स्थानों पर 'अछूत'शब्द का प्रयोग आया है, जब डा. अंबेडकर की उपरोक्त शीर्षक से प्रकाशित रचना के इर्दगिर्द चर्चा हो रही है। हम इस बात से वाकिफ हैं कि 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में इस शब्द का प्रयोग वर्जित है, इसलिए यथासम्भव हमने उसे उद्धरण चिन्हों के बीच रखने की कोशिश की है।
1.
कौन से अम्बेडकर !
दिसम्बर 2014 के उत्तरार्द्ध में यह एक अलग किस्म का आयोजन था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अग्रणी नेता डाक्टर कृष्ण गोपाल, जो संघ के वरिष्ठता अनुक्रम में सुरेश ''भैयाजी''जोशी के साथ दूसरे नम्बर पर हैं और संघ सुप्रीमो मोहन भागवत के बाद सरसंघचालक भी बन सकते हैं, उन्होंने 'इंडियन इन्स्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिस्टेशन'में अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान में 'अम्बेडकर: बहुआयामी व्यक्तित्व और आख्यान'विषय पर बात की। सभा की अध्यक्षता केन्द्र में सत्तासीन भाजपा सरकार के सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने की।http://timesofindia.indiatimes.com/india/IIPA-invites-RSS-leader-Krishna-Gopal-to-speak-on-Ambedkar/articleshow/45682953.cms
संयोग कह सकते हैं कि आयोजन की अहमियत कई वजहों से बढ़ गयी थी।
कुछ माह पहले सम्पन्न चुनावों में पहली दफा संघ के किसी प्रचारक /पूर्णकालिक कार्यकर्ता/ ने भारत के प्रधानमंत्री के पद की कमान सम्भाली थी जिन्होंने चुनाव प्रचार में अपने आप को भी जातिगत उत्पीड़न का शिकार बताया था, और इसी वजह से सम्भवतः सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित जातियों के एक हिस्से ने प्रचारक के नेतृत्व पर मुहर लगा दी थी।
दूसरी अहम बात थी कि सूबा उत्तर प्रदेश – जहां अम्बेडकर के विचारों पर चलने वाली बहुजन समाज पार्टी, जिसका मजबूत आधार दलित तबकों में ही था, वह लोकसभा के इन बीते चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी और वहां पर भी प्रचारक के नाम का जादू चल गया था।
तीसरी बात, स्थान को लेकर थी। 'इंडियन इन्स्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिस्टेशन'अर्थात आई आई पी ए नामक साठ साल पुराने इस संस्थान की नींव भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डाली थी, /1954/ जिसके पीछे उनका सरोकार था कि 'न्याय, नीति और समान व्यवहार के जमीनी नियमों के जरिए राज्य प्रशासन जनता को अपनी सेवाओं को प्रदान करे', तभी से संस्थान सार्वजनिक प्रशासन को जनसुलभ बनाने के लिए – रिसर्च से लेकर अधिकारियों के प्रशिक्षण – जैसी विभिन्न गतिविधियों के जरिए सक्रिय रहता आया है।
जाहिर है कि सभा में जुटे नीतिनिर्धारकों से लेकर अन्य प्रबुद्ध जनों में यह जानने में उत्सुकता थी कि अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन कहलाने वाले 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ'के कर्णधारों में शुमार एक व्यक्ति, डा अम्बेडकर के बारे मे क्या समझदारी रखता है ? बीसवीं सदी के भारत के इतिहास की इस महान शख्सियत के बारे में – जिसे दलितों-उत्पीड़ितों- शोषितों का 'मसीहा'कहा जाता है और आज़ादी मिलने के बाद जिसकी शोहरत बढ़ती ही जा रही है, क्या बात प्रस्तुत करता है ? उत्सुकता इस वजह से भी थी क्योंकि तथ्य यही बताते हैं कि अम्बेडकर के जीते जी हिन्दुत्ववादी संगठनों से उनके सम्बन्ध कभी सामान्य नहीं थे, यहां तक कि बंटवारे के उन दिनों में जब डा अम्बेडकर बार बार जनता को 'हिन्दू राज के खतरे के बारे में आगाह कर रहे थे', वहीं गोलवलकर-सावरकर एवं उनके अनुयायियों का लक्ष्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना था।
यह बात लोकस्मृतियों तक में भी दर्ज है कि कृष्ण गोपाल जिस हिन्दूवादी धारा से ताल्लुक रखते हैं, उसने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान निर्माण की प्रक्रिया जिन दिनों जोरों पर थी, तब डा अम्बेडकर के नेतृत्व में जारी इस प्रक्रिया का विरोध किया था, और अपने मुखपत्रों में मनुस्मति को ही आज़ाद भारत का संविधान बनाने की हिमायत की थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर गुरूजी से लेकर सावरकर, सभी उसी पर जोर दे रहे थे। अपने मुखपत्र 'आर्गेनायजर', (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि
'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो 'मनुस्मृति'में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।''
इतना ही नहीं उन दिनों जब डा अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से हिन्दू स्त्रिायों को पहली दफा सम्पत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के अन्दर के रूढिवादी धड़े से लेकर हिन्दूवादी संगठनों ने उनकी मुखालिफत की थी, उसे हिन्दू संस्कति पर हमला बताते हुए उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे। उन दिनों स्वामी करपात्री महाराज जैसे तमाम साधु सन्तों ने भी – जो मनु के विधान पर चलने के हिमायती थे – अंबेडकर का जबरदस्त विरोध किया था।
याद रहे इतिहास में पहली बार इस बिल के जरिए विधवा को और बेटी को बेटे के समान ही सम्पत्ति में अधिकार दिलाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग अलग जातियों के पुरूष और स्त्री को हिन्दू कानून के अन्तर्गत विवाह करने और एक हिन्दू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जनमे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गयी थीं। इस विरोध की अगुआई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की थी, जिसने इसी मुददे पर अकेले दिल्ली में 79 सभाओं-रैलियों का आयोजन किया था, जिसमें 'हिन्दू संस्कृति और परम्परा पर आघात करने के लिए'नेहरू और अम्बेडकर के पुतले जलाए गए थे।/ देखें, रामचन्द्र गुहा, द हिन्दू, 18 जुलाई 2004/
विदित हो कि यह वही अम्बेडकर थे जिन्होंने नवस्वाधीन भारत की संविधान समिति के प्रमुख के तौर पर संविधान को देश को सौंपते वक्त यह चेतावनी भी दी थी कि हम एक व्यक्ति एक वोट वाले दौर में राजनीतिक जनतंत्रा के युग में प्रवेश कर रहे हैं, मगर एक व्यक्ति एक मूल्य अर्थात सामाजिक जनतंत्रा कायम करने का संघर्ष अभी बचा ही हुआ है। निश्चित ही वह उन चुनौतियों से बावस्ता थे, जो उस रास्ते में खड़ी थी।
लाजिम था आई आई पी ए के सभागार में जुटे लोगों में यह जानने के लिए कुतूहल भी था कि संघ के सह सरकार्यवाह के तौर पर कार्यरत डा कृष्ण गोपाल अम्बेडकर के 'बहुआयामी व्यक्तित्व'के कौनसे पहलुओं पर अधिक गौर करेंगे, किन पहलुओं को अनुल्लेखित रखेंगे, क्या वह अम्बेडकर को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों के रूख को लेकर कोई आत्मालोचन प्रस्तुत करेंगे या इस पूरी प्रस्तुति में ऐसे तमाम मसलों पर सूचक मौन बनाए रखेंगे।
अपने व्याख्यान में जहां संघ के उपरोक्त वरिष्ठ नेता ने अम्बेडकर के तथा उनकी विरासत के 'उचित मूल्यांकन'के लिए उनके 'समग्र'अध्ययन पर जोर दिया, जो बात अपने आप में सही थी, मगर जब विवरण पर बात आयी, तो लगा कि हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा अब तक डा अम्बेडकर का जो मूल्यांकन पेश किया जाता रहा है, उसके अलावा उनकी बातों में नया कुछ नहीं है। कुल मिला कर, कोशिश यही दिख रही थी कि अम्बेडकर को एक हिन्दू समाज सुधारक के तौर पर पेश किया जाए जो समता के बरअक्स 'सामाजिक समरसता के फलसफे में यकीन'करता हो और 'मुसलमानों से नफरत'करता हो। सभी असुविधाजनक सवालों से बचते हुए एक साफसुथराकृत/ सैनिटाइज्ड अम्बेडकर गढ़ने की यही कवायद थी कि सभा की रिपोर्टिंग करने वहां पहुंचे पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख करना जरूरी समझा:
… संघ के इस नेता ने न अम्बेडकर की इस मांग पर गौर किया कि वर्णमानसिकता से लैस हिन्दू समाज की बहिष्करण की राजनीति से तंग आकर अम्बेडकर ने 1932 के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में दलितों के लिए अलग मतदाता संघ की बात कही थी, जहां दलित अपने अगुआई में विकसित कर सके, जिस पर बर्तानवी सरकार ने मुहर भी लगायी थी, और मुख्य वक्ता इस बात पर मौन ही ओढ़े रहे कि हिन्दू धर्म को प्रश्नांकित करती उनकी अर्थात अम्बेडकर की किताबों के लिए उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला था।..
व्याख्यान के दौरान डा. कृष्ण गोपाल का कहना था कि भारत का संविधान भले ही मुल्क को 'धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणराज्य'बताता हो मगर उसके प्रमुख शिल्पकार डा अम्बेडकर का दावा था कि 'मुसलमान इस मुल्क को अपनी मातृभूमि कभी नहीं मान सकते।'उनके भाषण में यह भी कहा गया कि 'अम्बेडकर 'अस्पृश्यों'के अग्रणी रहे हों, मगर वह सबसे पहले एक राष्ट्रवादी थे, कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी थे और हिन्दू धर्म पर उनका प्रचण्ड विश्वास था। वह ब्राहमणवादी संरचना के खिलाफ थे, मगर उनके कई करीबी दोस्त ऊंची जातियों से थे और उनके जीवन के संघर्ष में उन्हें ब्राहमणों ने अहम मदद पहुंचायी। वर्ष 47-48 में हैदराबाद राज्य में उन दलितों के, जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया था, 'शुद्धिकरण'का वायदा उन्होंने किया। 'अपने भाषण के अन्त में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अम्बेडकर एक 'देशभक्त थे और जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने विश्व नज़रिये और फलसफे/दर्शन में हिन्दू रहे'।
जाहिर था कि आन्तरिक समाज सुधार को लेकर हिन्दू वर्चस्वशाली जातियों के अड़ियल रूख को लेकर एक तरह से उद्धिग्न होकर डा अम्बेडकर ने येवला में जो ऐलान किया था 'मैं हिन्दू के तौर पर पैदा अवश्य हुआ था, मगर हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं' /1935/ या अपनी मौत के कुछ वक्त़ पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ उन्होंने किया बौद्ध धर्म का स्वीकार /1956/ जैसी अहम घटनाओं पर बोलना भी डा. कृष्ण गोपाल ने गंवारा नहीं किया।
गौरतलब था कि व्याख्यान के दौरान डाक्टर कृष्ण गोपाल और श्री प्रकाश द्वारा संकलित एक किताब 'राष्ट्रपुरूष बाबासाहब डा भीमराव अम्बेडकर' /पेज संख्या 52/ का भी वितरण किया गया, जिसको 'सुरूचि प्रकाशन'/ दिसम्बर 2014/ द्वारा मुद्रित किया गया है। प्रस्तावना में अम्बेडकर के बारे में आकलन पेश किया गया है, जिसमें भारत में चली आ रही 'समाज सुधारकों की एक लम्बी श्रंखला'की बात करते हुए उसमें डा अम्बेडकर का जिक्र किया गया हैं, इसमें हिन्दुत्व के विचारों के पायोनियर कहे जा सकने वाले 'सावरकर, हेडगेवार'आदि को भी शामिल किया गया है और एक ही तीर से दो निशाने साधे गये हैं। एक, अम्बेडकर को 'हिन्दू समाज सुधारक'के तौर पर न्यूनीकृत करना और धर्म को ही राष्ट्र का आधार मानने वाले सावरकर, हेडगेवार जैसे हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों को समाज सुधारक के तौर पर प्रमोट करना।
अम्बेडकर के जीवन उददेश्य को उसमें यूं बयान किया गया है:
मेरा उददेश्य केवल यही है कि हिन्दू समाज में फैली हुई जातिवाद की इन कुरीतियों को दूर कर सारे हिन्दू समाज को समरस बनाने के लिए संघर्ष करता रहूं। वे अपने आप को हिन्दू समाज का सुधारक कहते थे। उनका कहना था कि हो सकता है आज मुझसे कुछ लोग नाराज हो गये हों, लेकिन आनेवाले समय में वे स्वयं इस बात का अनुभव करेंगे कि मैंने हिन्दू समाज के उद्धार के लिए कितना बड़ा कार्य किया है।
किताब के 'निवेदन'में यह उल्लेख किया गया है कि 'इस पुस्तक में उनके सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकात्मता से सम्बन्धित विचारों को ध्यान में रखने की कोशिश की है।'और एक तरह से अपने आप को उनके विचारों का वारिस बताने के लिए यह रेखांकित किया गया है कि किस तरह 'सेवा भारती के हजारों कार्यकर्ता देश भर में घूम-घूम कर इसी कार्य में लगे हैं।'
प्रस्तुत संकलन में डा. कृष्ण गोपाल संघ संस्थापक सदस्य हेडगेवार और अम्बेडकर के बीच की 'आपस की घनिष्ठता'और 'हिन्दू समाज की अवस्था को लेकर दोनों के दुःखी' /पेज 32/ होने का भी जिक्र करते हैं।
सोचने की बात यह है कि इस कथन में कितनी सच्चाई है ?
गौरतलब है कि आप हेडगेवार के आधिकारिक कहे जानेवाले चरित्रा 'केशव: संघ निर्माता' /लेखक चं प भिशीकर, सुरूचि प्रकाशन, 2014/ को पलटें या संघ के अन्य कार्यकर्ताओं/हमदर्दों द्वारा लिखे चरित्रों को देखें या मराठी भाषा में ना ह पालकर द्वारा रचित 'डा हेडगेवार'नाम से उनके चरित्र की पड़ताल करें तो आप दोनों में ऐसी किसी घनिष्ठता या मित्राता का जिक्र तक नहीं देखते हैं।
अगर वाकई दोनों में 'घनिष्ठता'होती तो फिर उस कालखण्ड में जबकि संघ की नींव डाली जा रही थी /1925/ और डा अम्बेडकर अपनी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में एक नया मुक़ाम कायम कर रहे थे, तब हम ऐसे कई मौकों से रूबरू होते जब दोनों साथ होते या 'हिंदू राष्ट्र बनाने के मकसद से प्रेरित हेडगेवार के अनुयायी संघ की शाखाओं से निकल कर अंबेडकर द्वारा शुरू किए आन्दोलनों, मुहिमों के साथ जुडते।
याद है यही वह दौर था जब डा अंबेडकर की अगुआई में महाड के ऐतिहासिक सत्याग्रह के जरिए – चवदार तालाब पर हजारों की तादाद में पहुंच कर लोगों ने पानी पिया था, /19 मार्च 1927/जहां जानवरों के पानी पीने की मनाही नहीं थी, मगर दलितों के लिए दरवाजे बन्द थे या मनुस्मति के दहन/25 दिसम्बर 1927/ – आयोजन हुआ था। अम्बेडकर के करीबी सहयोगियों की पहल पर नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए मार्च 1930 में शुरू हुआ सत्याग्रह 5 साल 11 महिने और सात दिन तक चलता रहा, जब पुलिस प्रशासन की ज्यादतियां या मंदिर के मालिकानों की दहशतगर्दी का मुकाबला करके सत्याग्रह जारी रखा गया था। तत्कालीन मुंबई सूबे के विभिन्न तबकों में जबरदस्त सरगर्मी पैदा करने वाले इन ऐतिहासिक सत्याग्रहों का उल्लेख तक उनके अनुयायियों द्वारा लिखी हेडगेवार की जीवनियों में नहीं मिलता है। तीस के दशक के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन मुंबई प्रांत में जारी खोत प्रथा, एक किस्म की जमींदारी प्रथा, के खिलाफ डा अम्बेडकर की अगुआईवाली 'इंडिपेंडट लेबर पार्टी'तथा कम्युनिस्ट पार्टी की साझा पहल पर मुंबई विधानमंडल पर निकाले गए जुलूस जैसी चर्चित मुहिमों में भी यही स्थिति दिखती है। न उनमें हेडगेवार नज़र आते हैं और न ही उनके अनुयायियों की उपस्थिति कहीं दिखती है।
सुभाष गाताडे
….. जारी…..
About The Author
Subhash gatade is a well known journalist, left-wing thinker and human rights activist. He has been writing for the popular media and a variety of journals and websites on issues of history and politics, human right violations and state repression, communalism and caste, violence against dalits and minorities, religious sectarianism and neo-liberalism, and a host of other issues that analyse and hold a mirror to South asian society in the past three decades. He is an important chronicler of our times, whose writings are as much a comment on the mainstream media in this region as on the issues he writes about. Subhash Gatade is very well known despite having been published very little in the mainstream media, and is highly respected by scholars and social activists. He writes in both English and Hindi, which makes his role as public intellectual very significant. He edits Sandhan, a Hindi journal, and is author of Pahad Se Uncha Admi, a book on Dasrath Majhi for children, and Nathuram Godse's Heirs: The Menace of Terrorism in India.चट्टानी जीवन का संगीत
- आलेख सचमुच लंबा है।लेकिन हम इसे हमारी समझ बेहतर बनाने के मकसद से सिलसिलेवार दोबारा प्रकाशित करेंगे।
- पाठकों से निवेदन है कि वे कृपयाइस आलेख को सिलसिलेवार भी पढ़े।
- हमें नीलाभ जी के अन्य लेखों का बी इंतजार रहेगा।इस दुस्समय में हमारे इतने प्यारे मित्र जो बेहद अच्छा लिख सकते हैं,उनका लिखना भी जरुरी है।
Wednesday, February 4, 2015
चट्टानी जीवन का संगीत
(मैं जैज़ संगीत का जानकार नहीं, प्रशंसक हूँ और इस नाते जब-जब मौका मिला है, मैंने इस अनोखे संगीत का आनन्द लिया है। मगर उसके आँकड़े नहीं इकट्ठा किये, उसकी चीर-फाड़ नहीं की। बचपन में स्कूल के ज़माने में ही जैज़ से परिचय हुआ था। बड़े सरसरी ढंग से। तो भी लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन जैसे संगीतकारों के नाम याददाश्त में टँके रह गये। फिर और बड़े होने पर कुछ और नाम इस सूची में जुड़ते चले गये। लेकिन जैज़ से अपेक्षाकृत गहरा परिचय हुआ सन 1980-84 के दौरान, जब बी.बी.सी. में नौकरी का सिलसिला मुझे लन्दन ले गया।
बी.बी.सी. में सबसे ज़्यादा ज़ोर तो ख़बरों और ताज़ातरीन घटनाओं के विश्लेषण पर था, लेकिन इसे श्रोताओं के लिए कई तरह के कार्यक्रमों की सजावट के साथ पेश किया जाता था। सभी जानते थे -- बी.बी.सी. के आक़ा भी और हम पत्रकार-प्रसारक भी -- कि मुहावरे की ज़बान में कहें तो असली मुआमला ख़बरों और समाचार-विश्लेषणों के ज़रिये ब्रितानी नज़रिये का प्रचार-प्रसार था और इसीलिए तटस्थता और निष्पक्षता की ख़ूब डौंडी भी पीटी जाती थी जबकि "निष्पक्षता" जैसी चीज़ तो कहीं होती नहीं, न कला के संसार में, न ख़बरों की दुनिया में; चुनांचे, समाचारों और समाचार-विश्लेषण के दो कार्यक्रमों -- "आजकल" और "विश्व भारती" -- को छोड़ कर (जो रोज़ाना प्रसारित होते, बाक़ी कार्यक्रम हफ़्ते में एक बार प्रस्तुत होते और उनकी हैसियत खाने की थाली में अचार-चटनी-सलाद की-सी थी। चूंकि खबरें और तबसिरे रोज़ाना प्रसारित होते, इसलिए उन्हें प्रस्तुत करने वालों की पारी रोज़ाना बदलती रहती; बाक़ी कार्यक्रम, जैसे "इन्द्रधनुष," "झंकार," "आपका पत्र मिला," "सांस्कृतिक चर्चा," "खेल और खिलाड़ी," "बाल जगत," "हमसे पूछिए," वग़ैरा जो साप्ताहिक कार्यक्रम थे, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग अवधियों के लिए सौंपे जाते। और जब ये लोग अपने कार्यक्रम या खबरें या समाचार विश्लेषण के कार्यक्रम -- "आजकल" और "विश्व भारती" -- प्रस्तुत न कर रहे होते तो "आजकल" और "विश्व भारती" में बतौर "मुण्डू" तैनात रहते।
ज़ाहिर है, ऐसे में एक अजीब क़िस्म का भेद-भाव भी पैदा हो गया था। पुराने लोगों को "आजकल" और "विश्व भारती" ही सौंपे जाते, जबकि नये लोगों को ख़ास तौर पर ये अचार-चटनी वाले कार्यक्रमों की क़वायद करायी जाती। इनमें भी "झंकार" और "बाल जगत" जैसे कार्यक्रमों को "फटीक" का दर्जा मिला हुआ था। कारण यह कि कौन श्रोता विदेश से हिन्दी फ़िल्म संगीत सुनने का इच्छुक होता; और "बाल जगत" बिना बच्चों की शिरकत के, ख़ासा सिरदर्द साबित हो सकता था। ये दोनों कार्यक्रम इस बात के भी सूचक थे कि कौन उस समय हिन्दी सेवा के प्रमुख की बेरुख़ी और नाराज़गी का शिकार था। जिन दिनों मैं वहां था, बी.बी,सी. हिन्दी सेवा और उसके प्रमुख की यह अदा थी कि सीधे-सीधे नाख़ुशी नहीं ज़ाहिर की जाती थी। यही नहीं, ऐसे काम को भी, जिसमें ख़ासी ज़हमत का सामना होता, आपको यों सौंपा जाता मानो आपको फटीक की बजाय सम्मान दिया जा रहा है। एक आम तकिया-कलाम था "रस लो," अब यह आप पर था कि उस काम को करते हुए आप नौ रसों में से किस "रस" का स्वाद चख रहे होते।
बहरहाल, मेरी मुंहफट फ़ितरत के चलते चार वर्षों के दौरान मुझे ये दोनों कार्यक्रम -- "झंकार" और "बाल जगत" -- मुसलसल छै-छै महीने तक करने पड़े थे। ख़ैर, इस सब की तो एक अलग ही कहानी है. जो किसी और समय बयान की जायेगी। यहां इतना ही कहना है कि जब मुझे "झंकार" सौंपा गया तो मुझे इस कार्यक्रम का नाक-नक़्शा और ख़ाका बनाने में कुछ वक़्त लगा। लेकिन मैंने सोचा कि भई, फ़िल्मी गाने तो हिन्दुस्तान में हर जगह सुने जा सकते हैं, लिहाज़ा एक और भोंपू लगा कर शोर में इज़ाफ़ा करने की क्या ज़रूरत है; और शास्त्रीय संगीत की भी लम्बी बन्दिशें इस बीस मिनट के कार्यक्रम में कामयाब न होंगी; न हर ख़ासो-आम को पश्चिमी शास्त्रीय संगीत पसन्द आयेगा। सो, कुछ अलग क़िस्म से कार्यक्रम पेश करना चाहिए। इसी क्रम में मैंने पहले तो अमीर ख़ुसरो के कलाम और लोकप्रिय, लेकिन स्तरीय, ग़ज़लों के कार्यक्रम पेश किये। फिर जब मुहावरे के मुताबिक़ हाथ "जम गया" तो मैंने वहां के लोकप्रिय संगीत के साथ-साथ अफ़्रीकी-अमरीकी और वेस्ट इण्डियन संगीतकारों और गायकों से अपने श्रोताओं को रूशनास कराना शुरू किया और रेग्गे और दूसरे अफ़्रीकी मूल के पश्चिमी गायकों-वादकों का परिचय अपने श्रोताओं को दिया। ध्यान रखा कि इस सब को, जहां तक मुमकिन हो और गुंजाइश नज़र आये, अपने यहां के संगीत से जोड़ कर पेश करूं। प्रतिक्रिया हौसला बढ़ाने वाली साबित हुई। तब अपने हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिए मैंने एक लम्बी श्रृंखला जैज़ संगीत पर तैयार की। यह श्रृंखला कुल मिला कर परिचयात्मक थी। एक बिलकुल ही अलग किस्म की परिस्थितियों में पैदा हुए निराले संगीत से अपने श्रोताओं को परिचित कराने के लिए तैयार की गयी थी। उसी श्रृंखला के नोट्स बुनियादी तौर पर इस आलेख का आधार हैं, हालाँकि कुछ आवश्यक ब्योरे और सूचनाएँ मैंने 'एवरग्रीन रिव्यू' (न्यूयॉर्क) के जैज़ समीक्षक मार्टिन विलियम्स की टिप्पणियों से प्राप्त की है और पहले विश्व युद्ध से पहले के परिदृश्य का जायज़ा देने के लिए ड्यूक बॉटली और जॉन रशिंग के संस्मरणों का भी सहारा लिया है। इन सब का आभार मैं व्यक्त करता हूँ।
जैज़ अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका लाये गये लोगों का संगीत है, श्रम और उदासी और पीड़ा से उपजा। मेरी श्रृंखला भी "फटीक" से उपजी थी। इस नाते इस आलेख से मेरा एक अलग ही क़िस्म का लगाव है।
इसके अलावा, रेडियो पर तो संगीत के नमूने पेश करना सम्भव था और मैंने किये भी थे, लेकिन सिर्फ़ छपे शब्दों तक ख़ुद को सीमित रख कर वह बात पैदा नहीं हो सकती थी । सो, हालांकि मित्र-कवि मंगलेश डबराल ने "जनसत्ता" में इसे दो हिस्सों में प्रकाशित किया था, मैं बहुत सन्तुष्ट नहीं हुआ। उस ज़माने में न तो इण्टरनेट था, न यूट्यूब। अब जब यह सुविधा उपलब्ध है तो इसे मैं आप के लिए पेश कर रहा हूं।
यों, जैज़ हो या भारतीय शास्त्रीय संगीत -- उस पर 'बात करना'सम्भव नहीं। जैसा कि सुप्रसिद्ध जैज़ संगीतकार थिलोनिअस मंक ने कहा है "संगीत के बारे में लिखना वास्तुकला के बारे में नाचने की तरह है।" चित्रकला जिस तरह " देखने" से ताल्लुक रखती है, उसी तरह संगीत "सुनने" की चीज़ है, "बताने" की नहीं। तिस पर एक नितान्त विदेशी संगीत की चर्चा! वह तो और भी कठिन है। विशेष रूप से मेरी अपनी कमज़ोरियों को मद्दे-नज़र रखते हुए। लिहाज़ा इस टिप्पणी में मैंने प्रमुख रूप से जैज़ के सामाजिक और ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा की है और प्रमुख संगीतकारों का और समय-समय पर जैज़ संगीत में आये परिवर्तनों का परिचय भर दिया है। जैज़ के बारीक समीक्षापरक विश्लेषण की यहाँ गुंजाइश नहीं, न ही मेरे भीतर उस तरह की क़ाबिलियत या सलाहियत ही है। लेकिन अगर इस टिप्पणी के बाद पाठकों में इस विलक्षण संगीत के प्रति रुचि उपजे, वे ख़ुद इस संगीत के करीब जायें, उसे सुनें और परखें तो मैं समझूँगा मेरी मेहनत बेकार नहीं गयी।
एक बात और। ऐन सम्भव है कि इस चर्चा में कई नाम छूट गये हों। जिस संगीत को रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में तीन सौ वर्ष लगे हों, उसकी परिचयात्मक टिप्पणी में नामों का छूट जाना स्वाभाविक है। इसलिए भी कि ऐसी टिप्पणी में महत्व नाम गिनाने का नहीं, बल्कि जैज़ की शुरूआत और उसके विकास को और उसके साथ-साथ उसकी प्रमुख धाराओं को पाठकों के सामने किसी हद तक बोधगम्य बनाने का है।)
Thursday, February 5, 2015
जैज़ पर एक लम्बे आलेख की दूसरी कड़ी
1
गौ मूत्र को पवित्र मान पी जाते हैं, लेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते !
गौ मूत्र को पवित्र मान पी जाते हैं, लेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते !
संघ परिवार में इंसानों को जानवरों से भी कमतर मानने का रिवाज़ शुरू से ही है
जानवर, दलित और चकवाडा का तालाब
हिन्दू तालिबान -40
भंवर मेघवंशी
राजस्थान की राजधानी जयपुर के निकटवर्ती इलाके दुदू के फागी कस्बे के चकवाडा गाँव के निवासी बाबूलाल बैरवा लम्बे समय तक विहिप से जुड़े रहे हैं तथा उन्होंने कारसेवा में भी हिस्सेदारी की। संघ की विचारधारा से जुड़ने और वहाँ से मोह भंग होने के बाद वे इन दिनों अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित हैं। उनके साथ घटी एक घटना ने उनकी और उन्हीं के जैसे अन्य दलित ग्रामीणों की आँखें खोलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हुआ यह कि बाबूलाल के गाँव चकवाडा के जिस तालाब में गाय, भैंस, बकरी, बिल्ली, कुत्ते, सूअर आदि सब नहाते थे, उसमें यह कारसेवक बाबूलाल बैरवा भी नहाने की हिम्मत कर बैठा, यह सोच कर कि है तो वह भी हिन्दू ही ना, वह भी संघ से जुड़ा हुआ विहिप का कार्यकर्त्ता और राम मंदिर के लिए जान तक देने को तैयार रहा एक समर्पित कारसेवक है। इसी गाँव के लोग तो ले गए थे उसे अयोध्या अपने साथ, वैसे भी सब हिन्दू-हिन्दू तो बराबर ही है, लेकिन बाबूलाल का भ्रम उस दिन टूट गया जिस दिन वह अपने ही गाँव के तालाब में नहाने का अपराध कर बैठा। गाँव के सार्वजनिक तालाब में नहाने के जुर्म में इस दलित कारसेवक पर सवर्ण हिन्दुओं ने 51 हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया। गाँव वालों के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ बाबूलाल चिल्लाता रहा कि वह भी तो हिन्दू ही है, कारसेवा में भी जा चुका है, विश्व हिन्दू परिषद् से जुड़ा हुआ है और फिर वह भी तो उसी तालाब में नहाया है जिसमें सब लोग नहाते हैं। इसमें जब जानवर नहा सकते हैं तो वह एक इन्सान हो कर क्यों नहीं नहा सकता है ? लेकिन बाबूलाल बैरवा की पुकार किसी भी हिन्दू संगठन तक नहीं पहुंची।
थक हार कर बाबूलाल न्याय के हेतु जयपुर में दलित अधिकार केंद्र के पी एल मीमरौट से मिला। इसके बाद दलित एवं मानव अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन आगे आये और बाबूलाल को न्याय और संवैधानिक हक अधिकार दिलाने की लड़ाई और तेज तथा व्यापक हुयी। देश भर से आये तकरीबन 500 लोग एक रैली के रूप में चकवाडा के दलितों को सार्वजानिक तालाब पर नहाने का हक दिलाने के लिए सदभावना रैली के रूप में निकले, मगर उन्हें माधोराजपुरा नामक गाँव के पास ही कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के नाम पर पुलिस और प्रशासन द्वारा रोक लिया गया। मैं भी इस रैली का हिस्सा था, हिन्दू तालिबान का टेरर क्या होता है, आप इसे उस दिन साक्षात् देख सकते थे। लगभग 40 हज़ार उग्र हिन्दुओं की भीड़ 'कल्याण धणी की जय'और 'जय जय श्रीराम'के नारे लगाते हुए निहत्थे दलितों की सदभावना रैली की और बढ़ रहे थी। उनके हाथ में लट्ठ और अन्य कई प्रकार के अस्त्र शस्त्र भी थे, उनका एक ही उद्देश्य था दलितों को सबक सिखाना। अब अतिवादियों की भीड़ थी सामने, बीच में पुलिस और एक तरफ मुट्ठी भर दलितों की एक रैली।
हालात की गंभीरता के मद्देनज़र दलितों ने अपनी रैली को वहीँ समाप्त कर देने का फैसला कर लिया। गुस्साए हिंदुत्ववीरों की हिंसक भीड़ ने पुलिस और प्रशासन पर धावा बोल दिया। वे इस बात से खफा हो गए थे कि प्रशासन के बीच में खड़े हो जाने की वजह से वो लोग दलितों को सबक नहीं सिखा पा रहे थे। इसलिए उनका आसान निशाना जिलाधिकारी से लेकर पुलिस के आई जी और एस पी इत्यादि लोग बन गए। बड़े अधिकारीयों को जानबूझकर निशाना बनाया गया, जिन्होंने भाग कर जान बचायी अंततः लाठी चार्ज और फायरिंग हुयी जिसमे 100 से ज्यादा लोग घायल हो गए। दलितों की समानता रैली और बराबरी की मुहिम अपने मक़ाम तक नहीं पहुंच पाई।
इस घटनाक्रम पर संघ की ओर से दलितों के पक्ष में एक भी शब्द बोलने के बजाय इसे विदेशी लोगों द्वारा हिन्दू समाज को बांटने का षड्यंत्र करार दिया गया। उस दिन दलितों के विरुद्ध जुटी हिंसक भीड़ का नेतृत्व संघ परिवार के विभिन्न संगठनों से जुड़े ग्राम स्तरीय कार्यकर्त्ता कर रहे थे। इसका मतलब यह था कि दलितों के आन्दोलन को विफल करने की पूरी साज़िश को संघ का समर्थन प्राप्त था। मनुवादियों ने मानवतावादियों की मुहिम को मात दे दी थी। अंततः बाबूलाल बैरवा को हिन्दू मानना तो बहुत दूर की बात इन्सान ही नहीं माना जा सका, या यूँ समझ लीजिये कि जानवर से भी बदतर मान लिया गया।
संघ परिवार में इंसानों को जानवरों से भी कमतर मानने का रिवाज़ शुरू से ही है। इसका साक्षात् उदाहरण हरियाणा प्रदेश के जज्जर जिले की वह घटना है, जिसमे पुलिस की मौजूदगी में गौहत्या की आशंका में पांच दलितों की निर्मम तरीके से जिंदा जला हत्या की गयी, जबकि ये लोग एक मरी हुयी गाय की खाल ( चमड़ा ) उतार रहे थे, पूरे देश के इंसानियतपसंद लोगों ने इस अमानवीय घटना की कड़े शब्दों में निंदा की, वहीँ विहिप के राष्ट्रीय नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने निर्दोष दलितों के इस नरसंहार को उचित ठहराते हुए यहाँ तक कह दिया कि –'एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।'एक गाय जो कि अंततः है तो एक जानवर ही, वह उनके लिए दलितों (इंसानों ) की जान से ज्यादा कीमती होता है ! वे गाय के मूत्र को पवित्र मान कर पी जाते हैं, लेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते हैं। घर में पाले गए कुत्ते और बिल्लियाँ उनके साथ खाती हैं, साथ में एक ही पलंग पर सोती है और उनकी महँगी महंगी वातानुकूलित गाड़ियों में घूमती है मगर दलितों को साथ बिठाना तो दूर उनकी छाया मात्र से ही उन्हें घिन आती है। यह कैसा धर्म है जहाँ पर गन्दगी फ़ैलाने वाले लोग सम्मान पाते है और सफाई करने वाले लोग नीचे समझे जाते हैं, तमाम निकम्मे जो सिर्फ पोथी पत्रा बांचते हैं या दुकानों पर बैठ कर कम तोलते हैं और दिन भर झूठ पर झूठ बोलते हैं, उन्हें ऊँचा समझा जा कर उच्च वर्ग कहा जाता है, जबकि मेरी नज़र में यह विचार एवं व्यवहार के तल पर 'उच्च'नहीं 'तुच्छ'वर्ग है जो किसी और की मेहनत पर जिंदा रहते हैं, श्रम को सम्मान नहीं, अकर्मण्यता को आदर देने वाला निकम्मापन ही यहाँ धर्म मान लिया गया है। यह बिलकुल झूठ, फरेब पर टिका हुआ गरीब, दलित, आदिवासी और महिला विरोधी धर्म है, रोज महिलाएं घरों में अपमानित होती हैं। उन्हें ज्यादती का शिकार होना पड़ता है, जबरन शादी करनी पड़ती है और रोज बरोज अनिच्छा के बावजूद भी अपने मर्द की कथित मर्दानगी जो कि सिर्फ वीर्यपात तक बनी रहती है, उसे झेलना पड़ता है। उन्हें हर प्रकार से प्रताड़ित, दण्डित और प्रतिबंधित एवं सीमित करने वाला यह धर्म 'यत्र नार्यस्तु पुजयन्तु,रमन्ते तत्र देवता'के श्लोक बोल कर आत्ममुग्ध होता जाता है। इसे धर्म कहें या कमजोरों का शोषण करने वाली अन्यायकारी व्यवस्था ? इस गैर बराबरी को धर्म कहना वास्तविक धर्म का अपमान करना है।
गैर बराबरी पर टिके इस धर्म के बारे में सोचते सोचते मुझे डॉ. अम्बेडकर का वह कथन बार बार याद आता है जिसमें देश के दलितों को सावधान करते हुए वो कहते हैं कि – 'भारत कभी भी मजहबी मुल्क नहीं बनना चाहिए, विशेषकर हिन्दू राष्ट्र तो कभी भी नहीं, वरना देश के अनुसूचित जाति व जन जाति के लोग पुनः अछूत बनाये जा कर गुलाम बना दिए जायेंगे। …….अब यह दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को तय करना है कि वे आज़ाद रहना चाहते है या वर्ण व्यवस्था के, जाति और लिंग भेद के गुलाम बनने को राज़ी है ? अगर राज़ी है तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है। ………….( जारी )
-भंवर मेघवंशी की आत्मकथा 'हिन्दू तालिबान'का चालीसवां अंश
About The Author
भंवर मेघवंशी, लेखक राजस्थान में मानव अधिकार के मुद्दों पर कार्यरत हैं । वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक रहे हैं।Are you being forced to have #Aadhaar #UID ? – Complain SC before April 30th
Are you being forced to have #Aadhaar #UID ? – Complain SC before April 30th
Aadhaar (alias UID – unique identity number), is not to be made mandatory for any government service according to repeated Supreme Court orders in September 2013, March 2014 and the latest on 16th March 2015. Recently in the apex court, the judge further reprimanded the central government, "It is your duty to ensure our orders are followed. You can't say states are not following our order."
Supreme Court of India,
Tilak Marg,
New Delhi-110 201 (India)
PABX NOS.23388922-24,23388942-44,
FAX NOS.23381508,23381584,23384336/23384533/23384447
Press Release – Maharashtra CM invoking Section 154 of the MR&TP Act
Press Release – Maharashtra CM invoking Section 154 of the MR&TP Act
PRESS RELEASE
HAMARA SHEHAR VIKAS NIYOJAN ABHIYAAN, MUMBAI
ON THE CHIEF MINISTER INVOKING SECTION 154 TO REVIEW THE DRAFT DP IN 4 MONTHS
The Chief Minister of Maharashtra has ordered the MCGM to review errors in the Mumbai Development Plan (2014-2034) as per Section 154 of the MR&TP Act. We welcome the intervention by the CM. This intervention comes at a crucial stage when an increasing number of people were raising their concerns against the draft DP.
Under Section 154 of the MR&TP Act (copied below), the State Govt has ordered the MGCM to correct the errors and produce a reviseddevelopment plan within the next four months.
Section 154 Control by State Government: (1) Every Regional Board, Planning Authority and Development Authority shall carry out such directions or instructions as may be issued from time to time by the State Government for the efficient administration of this Act.
(2) If in, or his connection with, the exercise of its powers and discharge of its functions by the Regional Board, Planning Authority or Development Authority, under this Act, any dispute arises between the Regional Board, Planning Authority, and the State Government, the decision of the State Government on such dispute shall be final.
This clearly indicates that this is a directive from the state government and the onus is now on the MCGM to correct and revise the DP. Four months have been given to incorporate people's suggestions into the DP.
With regards to this order
- The state government needs to clarify the scope of revision- The state government should clearly state from which stage will the DP will be revised. It is widely recognized that even the Existing Land Use (ELU) surveys were not accurate. We request immediate correction of the same, followed by the revision of the draft DP.
- People's participation MUST be sought -The MCGM conducted a host of public consultations in the run up to creating the draft DP. Within these four months the MCGM must host consultations at the ward and planning sector level if it aims to address the very reasons for which this revision has even been ordered.
iii. The MCGM should reopen the period of suggestions and objections after the 4 month reworking period
- Objections and suggestions submitted so far should be consideredand incorporated when the DP is being revised to avoid repeating the same mistake. And all the suggestions-objections need to be collated and made into a public document.
- The state government should assist in the revision process – There are major possibilities in the Mumbai DP revision process where the state government can lend support to the MCGM in key areas. For instance, with regards to affordable housing the state ask for reservations for public housing to be executed underMHADA; in case of slums the state can give alternatives to the failed SRA schemes; the state should take a decisive step on including Special Planning Areas (SPAs) into the DP; the state should provide details of urban villages and their land revenue records for their mapping; the much opposed coastal road, which is a state government initiative needs to be reconsidered etc.
We are confident that the following steps will be taken by the MCGM during the next four months
- Reserving slum lands as public housing
2. Setting national level norms and benchmarks for health and education and provisions for open spaces and seek to make all of these accessible to all
3. Undertake Local Area Plans at this stage itself
4. Integration of SPAs into the DP
5. Provide up gradation guidelines, DCRs and timelines for slum up gradation
6. Set realistic and assessable targets and enlist means for their achievement - Improve upon the important innovations such as inclusive zoning, participation, TOD and make them work better
- Electoral wards must become planning sectors
- Boundaries of urban villages must be mapped and special DCRs for improvement and upgrading should be formulated
- DCRs for repair and reconstruction of existing social housing (MHADA, CESSED, BIT) as opposed to redevelopment and creating rental housing
11. Retention of "low development zones" around natural areas that allow primary activities
12. Develop a Street vendors plan and DCRs must be introduced with method for surveys and formulating planning norms described - There must also be a focus on needs of vulnerable groups – women, elderly, children, homeless
14. Informal livelihoods must be planned for – vendors, naka workers, informal manufacturing
As a campaign, we appreciate the willingness to undertake review and alter the most controversial portions of the DP, including its approach. We hope that these four months take into account the needs of 50% of the population of our city in the DP and address the housing and livelihood needs of the citizens. We are confident that after the overwhelming response to the draft plan and constructive feedback from, the MCGM will draft a progressive alternative, in search of an "inclusive, sustainable and competitive city".
ग्राम प्रधान त ग्राम प्रधान कैक हूंद काका बाडा नि हूंद
ग्राम प्रधान त ग्राम प्रधान कैक हूंद काका बाडा नि हूंद
चबोड़्या स्किट संकलन ::: भीष्म कुकरेती
[स्थान -ग्राम प्रधान की तिबारी , द्वी चमचा रौंपलु अर भौंपलु गहन चिंता मा बैठ्याँ छन ]
ग्राम प्रधान - ये निर्भाग्युं ! कुछ स्वाचो , कुछ स्वाचो कि द्वी सौ नेताओं कुण चिट्ठी कनै लिखण जाँसे यूँ नेताओं तै पता चल जावो कि नारायण प्रधान बि क्वी प्रधान च ?
रौंपलु-सुचणो काम तो म्यार नी च। आप ब्वालो तो मि धरती फाड़ द्यूं , गंगा जी मा फाळ मार द्यूं !
भौंपलु- सुचणो काम तो आपक च। आप हुकम द्याओ मि कैक मवासी घाम लगै द्योलु।
प्रधान - हाँ चिंता तो मीन इ करण कि द्वी सौ चिट्ठी कनकैक लिखण ?
[घ्याळ दाक प्रवेश ]
प्रधान - मीम समय नी च। काम बता काम बता ?
घ्याळ दा -अब काम क्या बताउं ?कुछ समज मा नी आणु च।
प्रधान -अरे प्रधानम तू ऐ अर बुलणु छे कि काम क्या बतौं ?
घ्याळ दा -इन च रै बेटा नारायण कि -
प्रधान -द्याखो मि अब नारायण नि छौं।घ्याळ दा -हैं ? ये नाम बदल याल क्या ?
प्रधान -मि ना तो तुम्हारा बेटा हूँ अर ना ही नारायण।घ्याळ दा -अरे मि त्यार काका नि छौं ?
प्रधान -नहीं।घ्याळ दा -हैं ? अब तू नारायण बि नि छै ?
प्रधान -ना ना।घ्याळ दा -हैं ? इन कन ह्वे सकुद
प्रधान -किलै नि ह्वे सकुद ?घ्याळ दा -कनो ग्राम प्रधान मनिख नि हूंद ? नाता रिस्ता नि हूंदन ?
भौंपलु - नही ग्राम प्रधान केवल ग्राम प्रधान हूंदन। ग्राम प्रधान एक रिस्ताहीन बस्ता हूंद।
घ्याळ दा -अर जब ये नारायण तै बोटुं जरूरत छे तो येन खुट मा पोडिक बोल छौ - ये घ्याळ काका तू इ म्यार छूट बुबा छे। तब मि छुट बुबा छौ अर अब मि काका बि नि छौं ?
प्रधान -अरे तो एक बोत का बदल अपण कूड़ी पुंगड़ी त्यार नाम कर द्यूं क्या ?घ्याळ दा -मतबल तू अब नारायण नि छै ?
प्रधान -नही।घ्याळ दा -अब तू नारयण बि नि छे ?
भौंपलु - अब यी केवल बस प्रधान छन।
घ्याळ दा -मतलब अब मि त्यार काका बि नि छौं ?
प्रधान -ब्वाल त च कि मि अब कैक भतीजो नि छौं।Color Coding of Communal Politics Ram Puniyani
Color Coding of Communal Politics
Ram Puniyani
As per the reports from Ahmadabad (12th April 2015) the uniform at Shahpur School; where most of the students are Hindus; is saffron and the color of uniform in Dani Limda school where almost all the students are Muslims; the color is green. This is absolutely shocking! One knew that the ghettoization of Muslims in Ahmadabad is probably the worst in the country but whether the things will go this far was unbelievable. The process of communalization which worsened after the 2002 Gujarat carnage is seeing a new low with incidents like this one.
Surely this is the most blatant expression of communalisation- segregation-ghettoisation physical and psychological, which the country as a whole and Gujarat in the most extreme form, is witnessing. While the communities do many times prefer to stay in the localities frequented by their likes, the situation in most of the north Indian metros and even to some extent in smaller towns also is very bad. The segregation of communities along religious lines has gone up to the frightening levels all through. In Ahmadabad, particularly post 2002 carnage the majority of nearly 12% of Muslim population has been forced to live in Juhapura and Shah Alam area, both predominantly Muslim areas. Irrespective of the socio-economic profile the Muslims are not permitted to buy houses in mixed localities. The banks don't extend their credit card facilities in these areas and neither does eating outlets deliver pizzas etc. in these localities.
In India the phenomenon of ghettoisation of Muslim community has run parallel and as an aftermath of the communal violence. Once the violence occurs in a particular city that city is affected very severely and its fallout is seen in other cities as well. In the cities where major communal violence has been witnessed, this has been the invariable accompaniment. The cities like Mumbai, Bhagalpur, Jamshedpur, Muzzafarnagar in particular. In cities like Delhi also this phenomenon is clearly discernible to the extent that even the Muslim faculty members of JNU, the prestigious University with the tag of a liberal institution, also prefer to live in the Muslim majority areas. The builders in the major cities make it a point of not selling the housing units to the members of minority community. I know of a faculty member of the prestigious Tata Institute of Social Sciences Mumbai being denied the house on the ground of religion.
Talking of Mumbai, it is probably the most cosmopolitan city with high cultural diversity. In this city the famous film star and social activist Shabana Azmi was denied the house in a mixed locality and similar was the plight of another well known film star Emran Hashmi. There is a long chain of phenomenon leading to such situations where the religion becomes the central marker of one's identity, overtaking the national identity, and so the right to access to housing of one's choice is practically ruled out. These are unwritten rules which are part of social practices.
As far as ghettoization is concerned, currently we are faced with a debate featuring this phenomenon as talks are on to plan make separate colonies for Kashmiri Pandits in Kashmir Valley. This plan is being opposed by different quarters as this will definitely lead to ghetto like situation for Pandits. The Kashmiriyat culture, the core point of Muslim-Hindu amity in the Valley has already been undermined due to the strife raging in the valley from last over two decades. On the top of that such a scheme of the Government will further enhance the divisive spirit in the state.
As such segregation of communities along caste/sect lines is a dominant feature in Pakistan as well, as the dominant political discourse has revolved around complex sectarian divides. The ghettoization of African Americans in United States goes back to the injustices done to these sections in America. Lately one hears a lot about the urban ghettoes in countries like where the immigrants from ex-colonies, not getting their due in the society subsist in the in the poorer areas.
How do we deal with such a situation where the divisiveness created by communal politics is ruling the roost? On a visit to Singapore I saw the massive housing colonies in different residential clusters. I was told that within these housing complexes, there is an quota system of allotment of housing units in the same complex along ethnic lines. Different ethnic groups, Malays, Chinese and Tamils have been allotted certain percentage according to their proportion in the population. This does encourage different groups to interact with each other on various occasions and promotes amity between them. What do we do in the face of a situation where the schools are choosing uniforms according to the religion of the children, and how come the percentage of children is overwhelmingly Muslim or Hindu in particular areas? This is due to physical segregation and is contrary to the spirit of communal harmony and the values ingrained in the basics of Indian Constitution, the spirit of Fraternity. One has to counter the myths, biases and prejudices about the 'other community' as these stereotypes form the base of communal violence, which in turn paves the way for segregation and ghettoization which further leads to 'cultural demarcation', the way these two schools show. What type of future society we can envisage with such stereotypes entering into our education system. The physical and emotional divides which are coming up are detrimental to the unity of the nation as a whole.
The communal violence has brought to fore the religious identity without bring in the values of tolerance and acceptance for the 'other'. I remember having watched V.Shantarams' 1946 classic Padosi (neighbor) and leaving the theatre with moist eyes, wondering whether Hindus and Muslims can ever live like this again, whether the composite culture which India inherits has any chance of survival in the prevalent divisive political scenario!
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response only to ram.puniyani@gmail.com
World On Fire: UN Helpless As Crises Rage In 10 Critical Hot Spots
If you think the content of this news letter is critical for the dignified living and survival of humanity and other species on earth, please forward it to your friends and spread the word. It's time for humanity to come together as one family! You can subscribe to our news letter here http://www.countercurrents.org/subscribe.htm. You can also follow us on twitter, http://twitter.com/countercurrents and on Facebook, http://www.facebook.com/countercurrents
In Solidarity
Binu Mathew
Editor
www.countercurrents.org
World On Fire: UN Helpless As Crises Rage In 10 Critical Hot Spots
By Thalif Deen
http://www.countercurrents.org/deen210415.htm
The United Nations is fighting a losing battle against a rash of political and humanitarian crises in 10 of the world's critical "hot spots." Secretary-General Ban Ki-moon says even the U.N.'s 193 member states cannot, by themselves, help resolve these widespread conflicts. "Not a single country, however powerful or resourceful as it may be, including the United States, can do it," he warned last week. The world's current political hotspots include Syria, Iraq, Libya, Yemen, South Sudan, Somalia, Afghanistan, Ukraine, the Democratic Republic of Congo and the Central African Republic – not forgetting West Africa which is battling the spread of the deadly disease Ebola
Blood On Their Hands: Libya's Boat Refugees And "Humanitarian" Imperialism
By Johannes Stern & Bill Van Auken
http://www.countercurrents.org/auken210415.htm
The horrific death toll of African and Middle Eastern refugees and migrants trying to cross the Mediterranean to Europe is a damning indictment of all the major imperialist powers, and most particularly the United States
Oil Market Uncertain As US Shale Boom "Goes Bust"
By Countercurrents.org
http://www.countercurrents.org/cc210415.htm
Oil market is uncertain as the US shale oil output is expected to fall for the first time in four years, and the coming months are likely to see a continuing price war between OPEC producers. Deutsche Bank, Goldman Sachs and HIS are now projecting that US oil production growth will now end. The global oil price rose slightly in the morning of April 14
Sex, Drugs, And Dead Soldiers : What U.S. Africa Command Doesn't Want You To Know
By Nick Turse
http://www.countercurrents.org/turse210415.htm
For years, as U.S. military personnel moved into Africa in ever-increasing numbers, AFRICOM has effectively downplayed, disguised, or covered-up almost every aspect of its operations, from the locations of its troop deployments to those of its expanding string of outposts. Not surprisingly, it's done the same when it comes to misdeeds by members of the command and continues to ignore questions surrounding crimes and alleged misconduct by its personnel, refusing even to answer emails or phone calls about them
What Happens When Mugabe Leaves: Zimbabwe In The Next 50 Years
By Tsungai Chipato
http://www.countercurrents.org/chipato210415.htm
Regional hegemony will be the norm for the next following decades; as world powers follow Obama doctrine of having a small footprint but large reach. With South Africa seeing itself in the beginning throes, of a period of decline due to internal conflict. Western powers may have no choice but to deal with whatever administration that administers Zimbabwe
Abolish The Zionist Mythological Narrative
By Ludwig Watzal
http://www.countercurrents.org/watzal210415.htm
Miko Peled, son of general Matityahu Peled and author of the highly acclaimed book "The General's Son"(1) , destroys in his lecture the historic fairy tales that the Zionist fabricated around their conquest of Palestine. The Zionist claim a "right of return" to their ancient homeland while they are denying the same right to the Palestinians who they dispersed in 1948
Truth Is Washington's Enemy
By Paul Craig Roberts
http://www.countercurrents.org/roberts210415.htm
A government that cannot survive truth and must resort to stamping out truth is not a government that any country wants. But such an undesirable government is the government that Clinton-Bush-Cheney-Obama-Hillary-Lack-Royce have given us
How America's Aristocracy Extends Its Global Control
By Eric Zuesse
http://www.countercurrents.org/zuesse210415.htm
America's great Founders defeated the aristocracy of their time. Gradually, an American aristocracy has arisen to take its place. But, with what's now known, perhaps those people can also be defeated; and, this time, because of what is now known, it might be able to be done in a way that will prevent any future aristocracy from forming here. The situation is far from hopeless. It is bad, but progress really is possible. And progress should be the goal
World Bank Group Increases Spending On Fossil Fuels: 2014 Saw $3 Billion For Fossil Fuel
By Countercurrents.org
http://www.countercurrents.org/cc210415A.htm
Despite repeated calls for urgent action on climate crisis, the World Bank Group (WBG) increased funding for fossil fuels in its last fiscal year. The increase comes during the first full fiscal year following the World Bank's announced commitment to limit coal financing due to climate concerns. Last year, the WBG provided more than $3bn in financing for fossil fuels
Why Cuba Won't Extradite Assata Shakur
By Matt Peppe
http://www.countercurrents.org/peppe2104115.htm
As negotiations continue between the governments of the United States and Cuba over the normalization of relations, the U.S. State Department has claimed Cuba is willing to discuss the extradition of political refugee Assata Shakur. While it may seem that Cuba would gladly make such a seemingly minor concession in return for the promise of normalized relations, this would greatly underestimate the Cuban government's commitment to upholding its principles. Shakur need not worry that Cuba will cave for expediency's sake and send her back to the country she escaped from after being harassed and persecuted for years
Dana Durnford's Post-Fukushima Odyssey: Documenting Ecocide on Canada's West Coast
By Robert Snefjella
http://www.countercurrents.org/snefjella210415.htm
Dana Durnford's odyssey, in 2014 and 2015, not a fable, has been to document what has happened and is happening since Fukushima to wild life, plant and animal, in the waters and tidal zone and pools on the West Coast of Canada. His boat is a little Zodiac water craft, almost impossible to sink, but no comfort inn. He has sailed it largely alone, with his intrepid old dog Zoey, for months and for many hundreds of kilometers along the shores of British Columbia and its islands and out to the Queen Charlotte Islands
Land Acquisition Bill Takes Away Rights Of Farmers And Pits Them Against 'Make In India'
By Dr Rahul Pandey and Dr Sandeep Pandey
http://www.countercurrents.org/pandey210415.htm
Since the past several months we have seen the NDA government aggressively pushing through changes in land acquisition policy, first in the form of Ordinance in December 2014 and then, as it was passed as a Bill with nine changes in Lok Sabha but faced roadblock in Rajya Sabha, re-promulgating it before its expiry in April 2015. With the government calling the Bill pro-farmer and pro-development and most of opposition parties and social activists opposing it as anti-farmer, it is useful to sieve through the noise and look at the changes proposed and what existed earlier
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम! बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं,फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडिया कर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें। हम हारे नहीं दोस्तों, हमने कभी जीतने की कोशिश ही नहीं की।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम!
बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं,फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडिया कर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें।
हम हारे नहीं दोस्तों, हमने कभी जीतने की कोशिश ही नहीं की।
पलाश विश्वास
सौजन्य से इकोनोमिक टाइम्सःBSP founder Kanshi Ram's Dalit group Bamcef plans to contest 400 Lok Sabha seats
Jan 13, 2014
लोकसभा चुनावों से ऐन पहले देश के सबसे बड़े बिजनेस अखबार में बामसेफ को तिलांजलि देने का ऐलान कर दिया गया।याद करें वह लमहा।
जिनके पास दस हजार पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने का दावा किया जा रहा था,आज उनके पास कोई होलटाइमर हों तो बतायें।जिनका देशके साढ़े छह लाख गांवों में नेटवर्किंग का दावा था,जिनके पांच सौ क्षेत्रीय कार्यालय थे,कई भाषाओं में प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार थे,आन लाइन मीडिया जिनके पास था,अंबेडकरी मिशन को उनने कहां पहुंचाया,इसको भी समझ लें।
बामसेफ छोड़ चुके पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं और सक्रिय समर्थकों ने सत्ता की राजनीति में बाबासाहेब की विरासत और आंदोलन को समाहित करने से साफ इंकार कर दिया है।
देशभर में वे नये सिरे से संगठित होना चाहते हैं और उन्होंने समझ लिया है कि जाति मजबूत करने के बजाय इस जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडा को ही मुक्तिकामी भारतीय जनता का घोषणापत्र बनाकर हम इस केसरिया कारपोरेट मनुस्मृति शासन का अंत कर सकते हैं।
हम सबने पहचान की राजनीति को तिलांजलि दे दी है।
राजनीतिक विकल्पों का फरेब देख लीजिये।
लोकसभा चुनावों से पहले जो तीसरा विकल्प बनकर उत्पादक और सामाजिक शक्तियों को बहकाने में लगा था,आज वह विकल्प एक राज्य की सत्ता में काबिज होते न होते सत्ता वर्ग में समाहित हैं।जो मुखौटे उतारने चले थे ,वे अब एकदूसरे के मुखौटे उतारने लगे हैं।
हो सकता है कि कल एक और राजनीतिक विकल्प लेकर उनमें से कुछ लोग देश की रहनुमाई करने लगें।
तैयारियां हमेशा एक के बदले दूसरा विकल्प खड़ा करके सोने की चिड़िया रोज रोज हलाल करने की होती हैं।
सन 47 से वर्णवर्चस्वी नस्ली जनसंहारी राज्यतंत्र में यही चल रहा है।
संसदीय सहमति से जारी है नरसंहार बहिस्कार का यह सिलसिला।
इस वधस्थल पर अपनी गरदन कटवाने से पहले एकबार अपने बाजुओं को तौलकर तो देखें कि कातिलों के जिगरा में कितना दम है कि एक साथ उठ खड़े तमाम सरों को वे कैसे कलम करने की कोशिश करते हैं या फिर दुम दबाकर अपने सुरक्षित दड़बों में जा घुसते हैं।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम।
सिर्फ देशभर के जनपक्षधर लोगों को चट्टानी मजबूती से दुनियाभर की अश्वेत ब्रादरी की चट्टानी एकता की संगीगबद्ध लय में मजबूत इरादे के साथ जनसंहारी सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करनी है।
देश को जोड़ने में दो मिनट का वक्त नहीं चाहिए।हम पहले इस कयामती मंजर को बदलने की कसम तो लें।
इसी सिलसिले में बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं, फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडियाकर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें।
हम हारे नहीं दोस्तों,हमने जीतने की कोशिश ही नहीं की।
देश भर के बामसेफ के पुरातन प्रतिबद्ध कार्यकर्ता,बाबासाहेब और मान्यवर कांशीराम जी के साथ काम कर चुके बुजुर्ग भी समझ रहे हैं कि कैसे कुछ सौदागरों ने बिलियनर मिलियनर तबके में अपनो को शामिल करने के लिए अंबेडकर और संपूर्ण मानवता, संपूर्ण भारतीय जनता की मुक्ति के लिए उनके आंदोलन को संघ परिवार के हिंदू साम्राज्यवाद में निष्णात कर दिया।
हम लगातार उनके साथ संवाद कर रहे हैं।
हम मुंबई, नागपुर, भोपाल,कोलकाता,दिल्ली से लेकर कश्मीर और बंगलूर तक में,और देश भर में अलग अलग लगातार सारे अंबेडकरी जनता को देश की बहुजन वंचित जनता के साथ इस केसरिया कारपोरेट मनुस्मृति राजकाज के खिलाफ लामबंद करने के लिए बैठकें करते रहे हैं।कर रहे हैं।
अंबेडकरी मिशन में सबकुछ न्यौच्छावर कर देने के बाद हजारों कार्यकर्ताओं के पास न रोजगार है और न मिशन है।उनमें से बहुतों के पास न घर है और न परिवार और न जीने का कोई सहारा है।
वे लोग और बाकी लोग तुरंत कोई राष्ट्रव्यापी संगठन खड़ा करना चाहते हैं और हम देख चुके हैं कि संगठन बनाने के नाम पर कैसे मसीहा और दलालों,सौदागरों का निर्माण होता है।
हम इने गिने लोग कोई हवा हवाई संगठन बनाकर अपना अपना उल्लू सीधा करके फिर एकबार बहुजन जनता को किसी फरेब में फंसाना नहीं चाहते और न ही बाकी देश से उनको अलग काटकर सामाजिक यथार्थ से टकराये बिना जल्दबाजी में संगठन बना लेने की कोई रस्म अदायगी करना चाहते हैं।
संगठन बनेगा तो जमीन फोड़कर संगठन हमारी जनपक्षधर गतिविधियों से तैयार होगा।
नेतृत्व के लिए कोई मसीहा नहीं,हर गांव,हर मोहल्ले से लोग सामने आकर सत्ता तंत्र के खिलाफ खड़े होकर अपना अपना सर कलम करवाने को तैयार होंगे,तभी बनेगा संगठन।
मकसद भारत में सही मायने में लोकतंत्र की बहाली होगा,जिससे बन सकेगा बाबासाहेब का सपनों का भारत,जहां जाति,नस्ल और धर्म के नाम कोई भेदभाव न होगा।
अभी हम मंजिल की तरफ एक कदम भी बढ़ा नहीं सके हैं ,जाहिर है।
हमारे नये पुराने साथी,देशभर से फोन पर फोन करते हैं कि अब हम क्या करें।
उनसे निवेदन है कि उन्हें जनजागरण का पर्याप्त अनुभव है। मई दिवस को मेहनतकश आवाम के हक हकूक की लड़ाई का मोर्चा बनाकर बाबासाहेब की विरासत और आंदोलन,खुद संघ परिवार के तिलिस्म में कैद बाबासाहेब को रिहा करने की पहल करें तुरंत।
कोलकाता में जो परचा जारी हुआ है,वह इस आलेख के साथ नत्थी है।आप चाहे तो इसे अपने अपने इलाके में छापकर वितरित करें और लोगों को तैयार करें कि केसरिया के खिलाफ सारे रंगों का इंद्रधनुष तैयार हो जाये देशभर में।हर भाषा में बुलेटिन छापें।
आप हमसे बेहतर परचा लिख सकते हैं तो लिखें।
आप स्थानीय मुद्दों को तरजीह देना चाहते हैं तो दें।
यह परचा मुफ्त में न बांटे।जितनी लागत लगी हो,जो परचा लेने को तैयार हों, उनसे कीमत वसूल करके वह लागत अगले परचे या बुलेटिन के लिए संसाधन बतौर जमा कर लें।
बामसेफ के कार्यकर्ताओं से बेहतर कोई नहीं जानता कि संसाधन कैसे जुटाये जा सकते हैं।
हमें अब किसी के लिए देशभर में महल खड़ा नहीं करना है।सिर्फ स्थानीय स्तर पर जनजागरण चलाकर पूरे देश को जोड़ना है।
किसी केंद्र या राज्य या जिला नेतृत्व को थैलियां भर भरकर कुछ चुनिंदा लोगों के ऐशो आराम का वातानुकूलित अंतरराष्ट्रीय हवाई इंतजाम नहीं करना है और न किसी को किसी का थैला उठाकर गुलामगिरि करने की जरुरत है और न कोई किसी को संगठन से निकालकर गद्दार कहने वाला है।
न ही हमें जाति और पहचान के आधार पर किसी व्यक्ति या समूहे के खिलाफ घृणा अभियान में बाबासाहेब के आंदोलन को रफा दफा करके उन्हें ईश्वर बनाकर खुद पुरोहित बनना है।
जनजागरण के लिए फिलहाल परचे, पोस्टर ,बैनर और बुलेटिन काफी हैं।
पैसे न हों तो सिर्फ परचा हाथोंहाथ पहुंचाने का काम है।
बामसेफ को दशकों तक इतना बड़ा संगठन बनाये रखने वाले कार्यकर्ताओं के लिए यह काम संजीवनी पर्वत हिमालय से लाने या सीता को लंका से सकुशल निकालने के लिए समुंदर पर बांध बनाने का जैसा भारी काम निश्चय ही नहीं है।
वे बखूब इसे अंजाम दे सकते हैं।एक परचा,एक बुलेटिन छापकर उसे बांटकर जो पैसे जमा हो,उसे फिर अगला परचा निकालना है।घर ,जेब से कुछ लगाना नहीं है।
फिलहाल इतना ही करना है।इसीसे बारुदी सुरंगें बिछ जााएंगी हर गांव,हर मोहल्ले में और फिर सारे खेत जाग उठेंगे।
फिलहाल मोर्चा निकालना नहीं है।देशभर में मोर्चा बनाना है।केसरिया कारपोरेट समय के खिलाफ एक एक नागिरक नागरिका को जोड़ने का काम है फिलहाल।फिर जनता जैसे चाहेगी,अपना रास्ता तय कर लेगी।
मीडिया में बेहद कुशल लोग हैं जो पेशवर तरीके से देश के हालात जान रहे हैं।
एक फीसद आका क्लास देश विदेश की उड़ान में वातानुकूलित हैं और बाकी लोग वंचित ,उत्पीड़ित,शोषित और उपेक्षित।
जिंदगी का भी कोई मकसद होना चाहिए।ज्यादातर पत्रकार अब स्थाई नौकरियों में नहीं हैं।अखबारों का हाल यह है कि मशरुम की तरह कस्बों तक में निकल रहा है और हमारी मेहनत पानी खून से मुनाफा की फसल उगायी जा रही है।
बड़े समूहों में तो एक अखबार के वेतन पर दर्जन दर्जन या दर्जनों अखबार निकालने का काम लिया जाता है।
बदले में मजीठिया रपट के मुताबिक स्थाई गिने चुने कर्मचारियों के मुकाबले दो तिहाई वेतन की क्या कहें,बड़े घरानों को छोड़कर संपादक पदवीधारी लोगों को भी दो पांच हजार के वेतन और बाजार से वसूल लेने की आजादी के साथ शर्मनाक जिंदगी गुजर बसर करनी होती है।
बाजार से वसूलने वाले लोग ,पोस्तो समुदाय में भी आकाओं के खास लोग हैं जो बाकायदा पुलिसिया बंदोबस्त के तहत सही जगह सही हिस्सा देकर स्ट्रींगर होने के बावजूद महानगरों से लेकर कस्बों तक तस्करी से लेकर तमाम धंधों के जरिये वातानुकूलित महल खड़े करके वातानुकूलित जीते हैं।
बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में प्रेस की पट्टी लगाकर हर किस्म की तस्करी होती है।पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लबों में भी सत्ता समर्थक होशियार तस्कर पत्रकारों का जलवा है।देशभर में।
वसूलीबाज संपादकों को हम बख्शने नहीं जा रहे हैं।लाखों करोड़ों का प्रसार करने के दावे वाले लोग कैसे कैसे बाजार में घोड़े और सांढ़ छोड़े रहते हैं,उचित समयपर खुलासा करेंगे।
ज्यादातर पत्रकार खासतौर पर बहुजन पत्रकार जो मीडिया में पैदल सेना है,उनके लिए कोई मौका नहीं है।
हमने वह मंजर देखा है कि आईएस से कठिन परीक्षा पास करने वाले पत्रकारों में सो कोई कोई एक के बाद एक सीढ़ियां छलांग कर सीधे सत्तावर्ग में शामिल हो जाते हैं और बाकी लोग सबएडीटर बने रहते हैं जिंदगीभर।
ये सारे लोग पच्चीस तीस साल ,जिंदगी भर लगाकर सबएडिटर से बेहतर किसी हैसियत में नहीं हैं तो क्या ये नाकाबिल डफर लोग हैं,जिनका कुछ लिखा उनके अपने अखबार में नहीं छपता,जिन्हें खुद को साबित करने का कोई मौका नहीं मिलता।
जाहिर है कि इन्हें चुनने वाले मसीहा लोग या तो सिरे से अंधे रहे हैं या जाति वनस्ली भेदभाव के तहत अंधा बांटे रेवड़ियां का किस्सा दोहराते रहे हैं।
बहरहाल इस किस्से में नाकाबिल डफर ठहराये गये लोग पत्रकारित का,मीडिया का नब्वे फीसद वंचित तबका है,जो ईमानदार भी है और प्रतिबद्ध भी है,जो बाजार से वसूली को पत्रकारिता नहीं मानते।
दोस्तों, देश के इस दुस्समय में भाषा और समझ से लैस होने का बावजूद आपकी खामोशी आपकी त्रासदी नहीं है,यह देश और जनता की गुलामी का सबब है कि मीडिया सिरे से कारपोरेट हैं।
अब इस कारपोरेट तिलिस्म को तोड़ने का वक्त है।
किसी आका ने आपका न भला किया है और न करेगा।
बेहतर है कि छप्पर फाड़ भलाई के बेसब्र इंतजार में जिंदगी बीता देने के बजाये अपनी पेशेवर काबिलियत साबित करें।अपने अखबार,अपने चैनल में जिन्हें कुछ कहने लिखने का मौका नहीं है,वे हमारे लिए,वैकल्पिक मीडिया के लिए लिखें।
कोई आका किसी का कुछ भी उखाड़ नहीं सकता।क्योंकि सबसे बड़े गुलाम तो वही हैं।
उनकी गुलामगिरि का बोझ अपने सर से उतारकर आजाद होकर भारतीय जनता और भारत देश के लिए कुछ करने का उचित समय है यह।
पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया,अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं,तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय झूठ का यह कारोबार यकीनन चला नहीं सकते।।
पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया,अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं,तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय के पेड न्यूज कारपोरेट मीडिया के जवाब में हम वैकल्पिक मीडिया को मुख्यधारा बना ही लेंगे।
ऐसे तमाम वंचित पत्रकारों से निवेदन हैं कि मई दिवस को कारपोरेट केसरिया रथों के पहिये जाम करने के लिए जनजागरण हेतु वे जो कुछ न्यूनतम कर सकते हैं करें।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम।
सिर्फ देशभर के जनपक्षधर लोगों को चट्टानी मजबूती से दुनियाभर की अश्वेत ब्रादरी की चट्टानी एकता की संगीगबद्ध लय में मजबूत इरादे के साथ जनसंहारी सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करनी है।देश को जोड़ने में दो मिनट का वक्त नहीं चाहिए।हम पहले इस कयामती मंजर को बदलने की कसम तो लें।
छात्र एकता जिंदाबाद वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की जीत की पूंजी लेकर शिक्षा बाजार के खिलाफ संघर्ष करें छात्र!
छात्र एकता जिंदाबाद
वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की जीत की पूंजी लेकर शिक्षा बाजार के खिलाफ संघर्ष करें छात्र!
पलाश विश्वास
छात्र एकता जिंदाबाद,वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की जीत की पूंजी लेकर शिक्षा बाजार के खिलाफ संघर्ष करें छात्र,हमारी देश के वर्तमान और भविष्य से यही अपील है।
हम मई दिवस पर छात्रों और महिलाओं से भी मेहनतकश के ध्रूवीकरण के जरिये राज्यतंत्र के फरेब के खिलाफ धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का तिलिस्म तोड़ने की अपील कर रहे हैं।
आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम!
बामसेफ के सारे कार्यकर्ताओं,फुलटाइमरों और वंचित नब्वे फीसद मीडिया कर्मियों से निवेदन है कि देश के चप्पे चप्पे में जनजागरण की सुनामी पैदा कर दें-अपना वजूद साबित करें।
हम हारे नहीं दोस्तों, हमने कभी जीतने की कोशिश ही नहीं की।
http://palashscape.blogspot.in/2015/04/blog-post_22.html
हस्तक्षेप पर हमने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोतरी के खिलाफ छात्रों के लगातार चल रहे आंदोलन की रपट लगायी थी।
हस्तक्षेप को पाठकों को सूचित करते हुए गर्व हो रहा है कि कारपोरेट मीडिया और राजनीतिक दलों के असहयोग और तटस्थता के बावजूद वहां छात्रों को जीत हासिल हुई है।संघर्ष कर रहे छात्रों को बधाई।
हस्तक्षेप के साधन बेहद कम हैं।हम बार बार लिख रहे हैं।
कल रात पीसी के ऐन मौके दगा दे जाने से अपडेट किये न जा सकें और राजनीतिक पाखंड के अभूतपूर्व नजारे के मध्य राजस्थान के किसान गजेंद्र की प्रोजेक्टेड आत्महत्या की खबरे लगा नहीं सकें।
हमारे पाठक इसके लिए हमें माफ करें।
अमलेंदु के लिए नया कंप्यूटर लगाने के सिवाय लगातार अपडेट देना मुश्किल हो रहा है।रोज सुबह मिसिंग पर फोन करता हूं या देर रात को अपडेट के ताजा हालात पर पूछताछ करता हूं,वह हंसते हुए कहता है कि पीसी काम नहीं कर रहा है।अपडेट कैसे करें।
हमारे जो लोग साधन संपन्न हैं ,अगर वे तमाम लोग हमारे इस प्रयास की निरंतरता को अनिवार्य मान रहे हों और सूचनाओं को आप तक पहुंचाने के इस काम को और बेहतर बनाना चाहते हैं तो अमलेंदु से तुरंत संपर्क करें और जिससे जो बन पड़ता है,करें।यह शुरुआत है।आगे लंबी लड़ाई है।हम यही पर मार खा गये,तो समझ लीजिये कि अंजाम क्या होना है।
हम इस सिलसिले में अरविंद केजरीवाल और उनके आरक्षण विरोधी अतीत की याद दिलाना चाहेंगे,जब वीपी सिंह सरकार के मंडल के खिलाफ सवर्ण हिंदुत्व का नेतृत्व यूथ फार इक्वैलिटी के मंच से युवा अरविंद कर रहे थे।
जैसे गजेंद्र की मौत आम आदमी के नाम सत्ता की कारपोरेट राजनीतिक फरेब की तरह कर रहे हैं अरविंद केजरीवाल,वह उनके व्यक्तित्व कृतित्व के लिे अनोखा नहीं है।
मीडिया का पीपीली लाइव तब सवर्ण छात्र छात्राओं को पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ खुद को आग के हवाले करने के अरविंद केजरीवाल के राजसूय के तहत जो शुरु हुआ,आज भी जारी है।
समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में हमारे पुराने मित्र पुष्पराज ने आंद्रे से लौटकर वहां किसानों का जो हालचाल लिखा है,संभव हुआ और युनीकोड में मिला तो वह भी हम साझा करेंगे।
बहरहाल समकालीन तीसरी दुनिया का यह अंक जरुर पढ़ लें।
आज की डाक से ही कल के लिए लघु पत्रिका का ताजा अंक जयनरायण जी का भेजा हुआ मिला है।यह अंक पंजाबी साहित्यपर केंद्रित है,जिसे अवश्य पढ़ें।
जहां चैनल और मीडिया न पहुंचे,गंगा किनारे के दलदल में जिसे कटरी कहां जाता है,वहां रुक्मिनी का जो खंडित गद्यकाव्य लिखा है वीरेनदा ने,वह हमारे समय का सामाजिक यथार्थ है और उसी कटरी में कल इस डिजिटल मेकिंग इन अमेरिका में राजस्थान के एक किसान को लाइव आत्महत्या करते देखा।
मुख्यमंत्री का भाषण किसान की आत्महत्या के बावजूद जारी रहा तो इससे जाहिर है कि किसी किसान के जीने मरने से राजनीति के सरोकार क्या हो सकते हैं।
मुख्यमंत्री उंगली से इशारा करके उपमुख्यमंत्री को आत्महत्या का प्रोजेक्ट दिखा रहे हैं।बाहैसियत मुख्यमंत्री घटनास्थल को घेरे अपने समर्थकों और पुलिस प्रशासन से गजेंद्र कोआत्महत्या करने से रोकने के लिए एक शब्द भी नहीं कहा मुख्यमंत्री ने।
जाहिर है कि राजनीति के सबसे बड़े शोमैन अरविंद केजरीवाल के लिए अपने जनांदोलन के लिए इस आत्महत्या के स्टंट के जरिये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपने प्रदर्शन को सुपर डुपर बनाने का मकसद किसी मनुष्य की जान बचाने की तात्कालिक प्रतिक्रिया से ज्यादा बड़ा रहा है।
लोकतंत्र के इस फरेब के मध्य देश भर में जहां न चैनल है,न मीडिया है,लोग रोज रोजथोक दरों पर खुदकशी कर रहे हैं।
सेबी की देखरेख में हजारोहजार कारपोरेट कर्ज माफ हो रहे हैं, दुनियाभर में घूम घूम कर सलवाजुड़ुम के तहत किसानों को मारने के लिए कल्कि अवतार अरबों डालर का हथियार खरीद रहे हैं।शत प्रतिशत हिंदुत्व की मारकाटके लिए जिजिटल मेकिंग इन गुजरात पर अरबों बिलियन डालर का निवेश हर सेक्टर पर अबाध है।
बाजार में सेबी के इंतजाम के तहत देश की अर्थव्यवस्था विदेशी निवेशकों के यहां गिरवी है।बुल रन से जो छोटे और मंझौले निवेशक पचासों हजार बना लेने का मंसूबा बांध रहे थे,बीच बलरन करेक्शन मुनाफावसूली बहाने वैश्विक इशारों के हवाले से भालुओं का ऐसा नाच शुरु हो गया कि पीएफ जो बाजार में है,पेंशन जो बाजार में है और बामा जो बाजार में है,उससे कितनी रकम वापस आयेगी आखिर,देखना बाकी है।
संसदीय सहमति का हाल यह है के जनसरोकार के पाखंड के बावजूद न सिर्फ बहुमत से सारे सुधारों को अंजाम तक पहुंचाया जा रहा है,संविधान संशोधन के लिए जरुरी दो तिहाई बहुमत न होना कभी इस नरमेध अभियान में पिछले 24 सालों में बाधक नहीं बना है और न बनेगा।
इसी के मध्य, इस देश के असहाय किसानों को हरित क्रांति के तहत पेस्टिसाइड,फर्टिलाइजर ,सिंचाई बिजली वगैरह मद में कुछेक हजार का कर्ज इस महाजनी सभ्यता में इतना भारी है कि हमारी दुनिया अब भी मदर इंडिया है,जहां महाजनों कारपोरेटट घराने के खिलाफ बगावत करने वाले बेटे को मां गोली से उड़ाकर विस्थापन और बेदखली का जश्न मनाती हुई महिमामंडित है।
शिक्षा अब नालेज इकोनामी है।फीस अंधाधुध बढ़ रही है।पढ़ाई लेकिन हो नही रही है।उच्च शिक्षा और शोध खत्म है।
निजीकरण के अबाध एफडीआई राज में रोजगार और आजीविका से वंचित हैं छात्र और युवा।
एकबार वे एकताबद्ध तरीके से देशभर में उठ खड़े हों तो इस फरेब का अंत हो सकता है।
जहां जहां फीस बढ़ी हो,वहां के छात्रों से निवेदन हैं कि वे भी वर्धा के बहादुर छात्र छात्राओं की तरह लगातार आंदोलन करके इसे वापस करायें।
वर्धा विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों की ओर से कुमार गौरव ने लिखा हैः
छात्र एकता की जीत हुई..70 घंटे के धरने के पश्चात महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रशासन ने बढ़ी हुई फीस को वापस ले लिया है साथ ही भविष्य में छात्र से जुड़े मुद्दों में छात्रों की सहभागिता होगी इसको भी स्वीकार किया है..छात्रों की सभी मांगों को स्वीकार कर लिया गया है..आप सभी मित्रों का धन्यवाद जिन्होने हमारा साथ दिया.
वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की जीत की पूंजी लेकर शिक्षा बाजार के खिलाफ संघर्ष करें छात्र!
छात्र एकता जिंदाबाद
कई चुनौैतियों से जूझ रहा अरब स्प्रिंग का देश
कई चुनौैतियों से जूझ रहा अरब स्प्रिंग का देश
ट्युनिस में वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक
अरब स्प्रिंग के देश के समक्ष कई चुनौतियां
हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता एडवोकेट इरफान इंजीनियर वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में भाग लेने ट्युनिसिया गए। ट्युनिसिया 2011 के अरब वसंत- अरब स्प्रिंग के चलते सारी दुनिया में सुर्खियों आया। ट्युनिसिया से लौटकर इरफान इंजीनियर की रिपोर्ट…
एडवोकेट इरफान इंजीनियर
''वसुधेव कुटुम्बकम''व ''साउथ एशियन डॉयलाग्स ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी''के सौजन्य से मुझे ट्युनिस में आयोजित ''वर्ल्ड सोशल फोरम''की हालिया बैठक में भाग लेने का अवसर मिला। इसके पहले मैं इस फोरम की मुंबई और नेरोबी में आयोजित बैठकों में हिस्सेदारी कर चुका था। इन बैठकों का मेरा अनुभव मिश्रित था।
वर्ल्ड सोशल फोरम, दुनियाभर के नागरिक समाज संगठनों का सांझा मंच है। ये संगठन अलग-अलग देशों में व अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत हैं। इनमें शामिल हैं पर्यावरण और मूलनिवासियों, दलितों व श्रमिकों के अधिकारों और लैंगिक न्याय के लिए काम करने वाले संगठन। इनके अलावा, इस फोरम में ऐसे संगठन भी शामिल हैं जिनका उद्देश्य बड़ी औद्योगिक कंपनियों को जवाबदेह बनाना, तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज माफ करवाना, सीमित प्राकृतिक संसाधनों का युक्तियुक्त उपयोग सुनिश्चित करना, दुनिया में चल रही हथियारों की दौड़ पर रोक लगाना, परमाणु शस्त्रों का उन्मूलन, युद्ध का विरोध, दुनिया से उपनिवेशवाद का खात्मा, बहुवाद व विविधता को स्वीकृति दिलवाना और बढ़ावा देना, जवाबदारी पूर्ण शासन सुनिश्चित करना, नागरिकों का सशक्तिकरण, प्रजातंत्र को मजबूती देना आदि है। फोरम की बैठक में विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता व शिक्षाविद, सामाजिक संगठनों व आंदोलनों के प्रतिनिधि आदि शामिल थे। इतनी बड़ी संख्या में विद्वान और अनुभवी लोगों को सुनना और उनसे सीखना अपने आप में एक अत्यंत रोमांचकारी व सुखद अनुभव था। विभिन्न आंदोलनों के जरिए दुनिया को बदलने की कोशिश में जुटे ऐसे लोगों के बीच समय बिताना, किसी के लिए भी प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत हो सकता है। ये सभी लोग घोर आशावादी हैं और उन्हें यह दृढ़ विश्वास है कि ''एक बेहतर दुनिया बनाई जा सकती है''। ऐसे लोगों से मिलने और बातचीत करने से हमारे मन में कबजब उठने वाले निराशा के भाव से लड़ने में हमें मदद मिलती है।
अगर हम यह मान भी लें कि एक नई, बेहतर दुनिया का निर्माण संभव है तब भी यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि क्या वर्ल्ड सोशल फोरम जैसे मंच इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं? कुछ लोग यह मानते हैं कि वर्ल्ड सोशल फोरम, समाज के हाशिये पर पड़े समुदायों की आवाज है परंतु चूंकि इसमें भागीदारी करने वाले लोग विविध क्षेत्रों में काम करने वाले होते हैं और उनकी पृष्ठभूमि में इतनी विविधताएं होती हैं कि इस तरह की बैठकों का कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाता। दूसरे शब्दों में, वे वर्ल्ड सोशल फोरम को विचारधाराओं और दृष्टिकोणों का एक ऐसा सुपरमार्केट मानते हैं जिसमें संभावित 'ग्राहक'कुछ दुकानों पर जाते हैं, सामान उलटते-पुलटते हैं परंतु खरीदते कुछ भी नहीं हैं।
इस फोरम के अन्य आलोचकों का कहना है कि यह उतना प्रजातांत्रिक व स्वतंत्र मंच नहीं है जितना कि इसे बताया जाता है। फोरम पर विकसित देशों के कुछ ऐसे नागरिक समाज संगठनों का कब्जा है जो बैठकों के लिए धन जुटाते हैं। वे ही इसकी प्राथमिकताएं तय करते हैं, इसका एजेंडा बनाते हैं और बैठकों में किसे बोलने का मौका मिलेगा और किसे नहीं, इसका निर्णय भी वे ही करते हैं। यह ''अलग-अलग रहकर यथास्थितिवाद पर अलग-अलग प्रहार करने''का उदाहरण है, जिसके चलते सभी की ऊर्जा व्यर्थ जाती है, सभी अलग-अलग दिशाओं में काम करते हैं और यथास्थिति बनी रहती है। ''गुलिवर इन लिलिपुट''की प्रसिद्ध कहानी की तरह, अगर लिलिपुट के लाखों छोटे-छोटे रहवासी, यथास्थितिवाद के विशाल और ताकतवर गुलिवर पर समन्वय के साथ संगठित हमला नहीं करेंगे तो वे गुलिवर को कभी हरा नहीं सकेंगे। आखिरकार, गुलिवर के पास दमनकारी शक्तियां हैं और अगर उस पर योजनाबद्ध हमला नहीं होगा तो लिलिपुट वासी अपना पूरा जोर लगाने के बावजूद भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पायेंगे। उलटे, वह और शक्तिशाली बनकर उभरेगा। यहां गुलिवर प्रतिनिधि है हथियार उद्योग का, विशाल कार्पोरेशनों का, नव परंपरावादियों, राष्ट्रवादियों, नस्लवादियों व पितृसत्तात्मकता और श्रेष्ठतावाद की विचारधाराओं में विश्वास रखने वालों का। जाहिर है कि हमारा शत्रु संगठित है और उसका मीडिया व शैक्षणिक और धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण है। इसलिए वह सच्चाई को छुपा सकता है, लोगों के दमन की कहानियों को पर्दे के पीछे रख सकता है और गैर-बराबरी व सामाजिक वर्चस्ववाद को औचित्यपूर्ण ठहरा सकता है। वह एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहता है जिसमें उत्पादों की मुक्त आवाजाही हो ताकि अन्यायपूर्ण व्यापार व्यवस्था बनी रहे। वह ऐसी दुनिया चाहता है जिसमें पूंजी का स्वतंत्र हस्तांतरण हो ताकि पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम का भरपूर शोषण कर ढेर सारा मुनाफा कमाया जा सके और इस मुनाफे पर कम से कम कर लगें। यह गुलिवर सांस्कृतिक परंपराओं का भी इस्तेमाल अपने एजेंडे को लागू करने के लिए करता है। वह एक ऐसा विश्व बनाना चाहता है जिसमें असमानता का बोलबाला हो। आमजनों की गरीबी और भूख से उसे कोई लेनादेना नहीं है। वह जनसंस्कृतियों, परंपराओं और प्रथाओं में से वह सब मिटा देना चाहता है, जो समानाधिकारवादी है। वह विभिन्न धर्मों के नैतिक मूल्यों को नष्ट कर देना चाहता है, वह संस्कृति और परंपराओं में इस तरह के बदलाव चाहता है जिससे स्वार्थ और लिप्सा में वृद्धि हो और व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिले-ऐसा व्यक्तिवाद को जो हर व्यक्ति को यह सिखाता है कि उसे आक्रामक और क्रूर बनना चाहिए ताकि वह अपने से नीचे के लोगों का शोषण और दमन कर सके और केवल अपने लाभ की सोचे। वह उपभोक्तावाद को प्रोत्साहन देना चाहता है। वह चाहता है कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से वर्चस्वशाली वर्ग की नकल समाज का हर तबका करे। वह मानव-निर्मित आपदाओं और क्रूर हिंसा को स्वीकार्य बनाना चाहता है। वह चाहता है कि स्त्रियों का दर्जा समाज में नीचा बना रहे और स्त्रियों के शरीर के साथ खिलवाड़ को समाज सहर्ष स्वीकार करे। वह इसे 'आधुनिकता'बताता है। गुलिवर, एकजुटता की संस्कृति और संवेदना के मूल्यों को नष्ट कर देना चाहता है। वर्ल्ड सोशल फोरम, सैंकड़ों लिलिपुटवासियों को एक स्थान पर इकट्ठा तो कर रहा है परंतु क्या वह उनमें एकता भी कायम कर रहा है?
अगर फोरम, नागरिक समाज संगठनों का मिलनस्थल है तो भी क्या यह सही नहीं है कि जो संगठन अधिक योजनाबद्ध ढंग से काम करेगा वह इस फोरम का उपयोग अपने जैसे अन्य संगठनों को साथ लेने के लिए ज्यादा सफलतापूर्वक कर सकेगा?
पूर्व के सम्मेलनों की तरह, फोरम का ट्युनिस सम्मेलन भी एक ऐसा मंच था जहां हम अपने संगठन के सरोकार, परिप्रेक्ष्य और अनुभव दूसरों के साथ बांट सकते थे, अपने जैसे मुद्दों पर काम करने वाले अन्य संगठनों से वैचारिक आदान-प्रदान कर सकते थे और उनके अनुभवों से सीख सकते थे। हम अपने जैसे अन्य संगठनों के साथ मिलकर काम करने की योजना भी बना सकते थे। ''वसुधैव कुटुम्बकम्''और ''साउथ एशियन डॉयलाग्स ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी''के प्रतिनिधि बतौर, सोशल फोरम की बैठक में मुझे विभिन्न संगठनों और आंदोलनों के प्रतिनिधियों से मेलमिलाप करने का पर्याप्त मौका मिला। ट्युनिस का अपना एक अलग आकर्षण था क्योंकि यह वही शहर है जहां से ''अरब स्प्रिंग''-प्रजातंत्र के लिए जनांदोलन-शुरू हुआ था।
ट्युनिस
वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में भाग लेने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि मैं दुनियाभर के और विशेषकर ट्युनिस के लोगों से मिल सकूं। यद्यपि भाषा की बाधा थी तथापि ट्रेनों, बसों व टैक्सियों में सफर के दौरान मुझे ट्युनिस के लोगों का व्यवहार बहुत दोस्ताना जान पड़ा। बहरहाल, मैंने अंग्रेजी के वे शब्द जो फ्रेंच में इस्तेमाल होते हैं और संकेतों की भाषा के जरिए भाषा की बाधा से कुछ हद तक निजात पाई।
ट्युनिस के लोग भारतीयों के साथ अत्यंत मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं और भारतीयों के प्रति उनके मन में बहुत आदर और स्नेह है। इसका एक कारण यह है कि वहां बॉलीवुड की फिल्में बहुत लोकप्रिय हैं और किशोर लड़के-लड़कियां हिंदी के कई वाक्य बोल लेते हैं। जिन लोगों से मैं मिला, उनमें से ज्यादातर ने भारत की यात्रा करने की इच्छा जताई, विशेषकर बॉलीवुड के शहर मुंबई की। ट्युनिस से लगभग 170 किलोमीटर दूर, मोनास्टिर में हम एक ऐसी दुकान में गये, जिसे भारत में हम किराना दुकान कहते हैं। भाषा की समस्या के बावजूद, दुकानदार ने बड़ी मेहनत से हमें समझाया कि एक विशेष आटा किन अनाजों को पीसकर बनाया जाता है। उसने हर अनाज के दाने भी हमें दिखलाये। बाद में हमें यह पता चला कि वह 'बसीसा'आटा है, जिसमें जैतून का तेल और मीठा स्वाद देने वाली कोई चीज मिलाकर, वहां के लोगों का मुख्य आहार बनाया जाता है। उस दुकानदार ने आटे में जैतून का तेल मिलाकर हम सबको एक-एक पैकेट में रखकर दिया और इसके लिए हमसे पैसे भी नहीं लिये।
ट्युनिस का समाज हमें बहुत उदारवादी प्रतीत हुआ और यह हमारी इस धारणा के विपरीत था कि अरब, धार्मिक मामलों में दकियानूसी और कट्टरपंथी होते हैं। हमने सड़कों पर कई ऐसी महिलाओं को देखा जो फ्रेंच व पश्चिमी परिधान पहने हुए थीं। जाहिर है कि वहां महिलाओं पर यह दबाव नहीं है कि वे बुर्के या हिजाब में रहें। ट्युनिस के 99 प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं। वे अरब हैं और ट्यूनिसियाई अरबी भाषा बोलते हैं। शेष एक प्रतिशत, ईसाई व यहूदी हैं। हमें ऐसी महिलाएं भी दिखीं जो सिर पर स्कार्फ बांधे हुए थीं परंतु उनकी संख्या बहुत कम थी। मैंने पाया कि महिलाएं और पुरूष सार्वजनिक स्थानों पर एक-दूसरे से खुलकर मिल रहे थे और बातचीत कर रहे थे। वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में अल् मुनार विश्वविद्यालय के कई विद्यार्थी स्वयंसेवकों की भूमिका में थे और उनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थे। वे बिना किसी संकोच के आपस में घुलमिल रहे थे, नाच और गा रहे थे और एक-दूसरे के गाल से गाल मिलाकर अभिवादन कर रहे थे। जिस होटल में मैं रूका था उससे करीब आधा किलोमीटर दूर एक मस्जिद थी परंतु मुझे मेरे प्रवास के दौरान एक बार भी अजान की आवाज सुनाई नहीं पड़ी, यद्यपि मैं रोज पांच बजे सुबह उठता था और छः बजे अलग-अलग दिशाओं में सुबह की सैर पर निकल जाता था। इसी तरह की धार्मिक और सामाजिक उदारता ने ट्युनिस में सन 2011 के प्रजातांत्रिक आंदोलन को जन्म दिया था।
यद्यपि शराब और सुअर का मांस इस्लाम में हराम है तथापि ट्युनिस में दोनों आसानी से उपलब्ध हैं। किसको क्या खाना है और क्या पीना है, यह संबंधित व्यक्तियों पर छोड़ दिया गया है और राज्य, खाने-पीने की किसी भी चीज पर प्रतिबंध नहीं लगाता। एक मॉल में हमने लोगों को ऐसा मांस खाते देखा जो सुअर का प्रतीत हो रहा था परंतु हम विश्वास से कुछ नहीं कह सकते क्योंकि लेबिल अरबी और फ्रेंच में थे।
जिस तरह जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राज्य के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया था वैसा ही कुछ हबीब बुरग्विबा ने किया, जो कि ट्युनिसिया के स्वाधीनता संग्राम के नेता तो थे ही, साथ ही जिन्होंने स्वतंत्रता के तुरंत बाद ट्युनिसिया का नेतृत्व भी किया था। सन् 2005-06 में ट्युनिसिया की सरकार ने अपने बजट का 20 प्रतिशत शिक्षा के लिए आवंटित किया था। ट्युनिसिया में शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा, फ्रेंच भाषा में दी जाती है और सरकार ने देश के अरबीकरण को प्रोत्साहन नहीं दिया। नतीजे में देश का तेजी से विकास हुआ और सन् 2007 में ट्युनिसिया, मानव विकास सूचकांक के अनुसार, 182 देशों में से 98वें स्थान पर था।
हबीब बुरग्विबा के नेतृत्व (1956-1987) में नव-स्वतंत्र ट्युनिसिया की सरकार ने धर्मनिरपेक्षीकरण का कार्यक्रम हाथों में लिया। बुरग्विबा प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष थे और उन्होंने शिक्षा का धर्मनिरपेक्षीकरण किया और सभी धर्मों के निवासियों के लिए एक ही कानून बनाया। उन्होंने ''अज़ जिटौना धार्मिक विश्वविद्यालय''के प्रभाव को कम करने के लिए उसे उसे ट्युनिस यूनिवर्सिटी के धर्मशास्त्र विभाग का दर्जा दे दिया। उन्होंने महिलाओं के सिर पर स्कार्फ बांधने पर प्रतिबंध लगा दिया और मस्जिदों के रखरखाव और मौलवियों के वेतन पर होने वाले सरकारी खर्च को बहुत घटा दिया। नेहरू को तो हिंदू कोडबिल वापिस लेना पड़ा था परंतु बुरग्विबा ने शरियत के स्थान पर विवाह, उत्तराधिकार व अभिभावकता संबंधी नये कानून बनाए। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा पर प्रतिबंध लगाया और तलाक के मामलों में न्यायालयों को हस्तक्षेप का अधिकार दिया।
यह स्पष्ट है कि बुरग्विबा, धार्मिक संस्थानों का प्रभाव कम करना चाहते थे ताकि वे उनके धर्मनिरपेक्षीकरण के कार्यक्रम में बाधक न बन सकें। हां, उन्होंने यह जरूर सुनिश्चित किया कि वे अपने निर्णयों को इस्लाम-विरोध नहीं बल्कि इज्तिहाद (जहां कुरान और हदीस का आदेश साफ न हो वहां अपनी राय से उचित रास्ता निकालना) के रूप में प्रस्तुत करें। इस्लाम, ट्युनिसिया के लिए भूतकाल था और आधुनिक भविष्य के लिए वह पश्चिम की तरफ देख रहा था। वहां के इस्लामवादी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनका आमजनों पर प्रभाव भी है। मुस्लिम ब्रदरहुड व हिज्ब-उत-तहरीर ऐसे ही दो संगठन हैं। वहां की एक मध्यमार्गी इस्लामवादी पार्टी को संविधानसभा के लिए 2011 में हुए चुनाव में 37 प्रतिशत मत मिले और 217 में से 89 सीटों पर उसके उम्मीदवार विजयी हुए। आज ट्युनिसिया से सबसे अधिक संख्या में युवा, दाइश या इस्लामिक राज्य योद्धा बनते हैं और हाल में बार्डो संग्रहालय के बाहर विदेशियों पर हुए हमले से यह पता चलता है कि ट्युनिसिया की सरकार के समक्ष गंभीर चुनौतियां हैं।
आर्थिक मोर्चे पर भी ट्युनिसिया को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। ट्युनिसिया की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जैतून और जैतून के तेल का उत्पादन और निर्यात। पर्यटन भी आय का एक प्रमुख स्त्रोत है। बड़ी संख्या में ट्युनिसिया के नागरिक अलग-अलग देशों में काम कर रहे हैं। उनके द्वारा देश में भेजा जाने वाला धन भी आय का एक स्त्रोत है। दक्षिणी ट्युनिसिया में फास्फेट की खदानें हैं। हमें बताया गया कि ट्युनिसिया में 2011 की क्रांति के बाद से बेरोजगारी की दर बहुत तेजी से बढ़ी है। सन् 2012 में बेरोजगारों में से 72.3 प्रतिशत 15 से 29 वर्ष आयु के थे। नवंबर 2013 में ''सेंटर फॉर इंटरनेशनल प्राइवेट इंटरप्राईज''द्वारा प्रकाशित एक लेख में ट्युनिसिया की आर्थिक बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी के कारणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि:
''2011 की क्रांति के बाद से ट्युनिसिया की अर्थव्यवस्था, क्रांति के पहले की गति नहीं पकड़ पा रही है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तरी अफ्रीका में अलकायदा की मौजूदगी बढ़ी है। पड़ोसी लीबिया में राजनैतिक अस्थिरता का भी ट्युनिसिया पर असर पड़ा है क्योंकि पर्यटन, देश का आमदनी का मुख्य स्त्रोत है और सुरक्षा कारणों के चलते ट्युनिसिया आने वाले पर्यटकों की संख्या में कमी आई है। इसके अलावा, यूरोपियन यूनियन को ट्युनिसिया का निर्यात घटा है।''
युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी, ट्युनिसिया के शासकों के लिए चिंता का विशय है और इसी के चलते वहां के युवा, कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
-ट्युनिसिया से लौटकर इरफान इंजीनियर
খালেদার বহরে আবারও হামলা
খালেদার বহরে আবারও হামলা
চতুর্থ দিনের মতো হামলার শিকার হলেন বিএনপি চেয়ারপারসন খালেদা জিয়া। প্রচারণার পাঁচ দিনের চারদিনই ইট-পাটকেল হামলা হলো তার ওপর।
এবার ঘটনাস্থল রাজধানীর বাংলামোটর। নির্বাচনি প্রচারণার জন্য বুধবার বিকেল সোয়া ৫টার দিকে ঢাকা দক্ষিণ এলাকার দিকে খালেদার গাড়িবহর যাওয়ার সময় এ ঘটনা ঘটে। এসময় ছাত্রলীগ নেতাকর্মীদের বেধড়ক পিটুনিতে মাথা ফেটে গেছে খালেদা জিয়ার দুই নিরাপত্তারক্ষীরও।
এ হামলার নেতৃত্বে ছিলেন ছাত্রলীগের কেন্দ্রীয় কমিটির সাংগঠনিক সম্পাদক মশিউর রহমান রুবেল ও যুগ্ম সাধারণ সম্পাদক মামুন অাহমেদ-এই অভিযোগ বহরে থাকা বিএনপি ও ছাত্রদল নেতাদের। তবে এ ব্যাপারে মশিউর রহমান রুবেল দাবি করেন, তাদের একজন কর্মী অাহত হওয়ার পরেই ছাত্রলীগের নেতাকর্মীরাও চড়াও হয় গাড়ি বহরের দিকে।
বুধবার সন্ধ্যায় ৬.১৮ মিনিট থেকে তিন দফায় কথা হয় এই নেতার সঙ্গে। বলেন হামলার বিস্তারিত।
হামলার বিষয়ে বিএনপির দাবি, ছাত্রলীগ নেতা মশিউর রহমান রুবেল ও মামুন অাহমেদের নেতৃত্বে শতাধিক ছাত্রলীগ নেতাকর্মীরা ইট-পাটকেল ও লাঠিসোটা নিয়ে আকস্মিক হামলা করে। হামলার এক পর্যায়ে গুলিও করা হয় বলে দাবি বহরে থাকা কয়েকজনের।
যদিও ছাত্রলীগ নেতা রুবেল বললেন, তারা সিটি করপোরেশন নির্বাচনে সাঈদ খোকনের প্রচারণায় ব্যস্ত ছিলেন। এসময় তার সঙ্গে ৩০ থেকে ৪০ জন নেতাকর্মী ছিল।
তার দাবি, গুলি ছাত্রলীগ করেনি। খালেদা জিয়ার নিরাপত্তারক্ষীদের একজনই শটগান বের করে গুলি করেছে।
সর্বশেষ তথ্যমতে, বাংলামোটরে ঘটনায় দুই সিএসএফ সদস্য আহত হন। তাদের মধ্যে লে. কর্নেল (অব.) শামিউলের অবস্থা গুরুতর। অপরজনের নাম জানা যায়নি। তারা এখন পুলিশ হেফাজতে রয়েছেন বলে জানা গেছে।
তবে মশিউর রহমান বাংলা ট্রিবিউনকে বলেন, 'খালেদা জিয়ার গাড়ি বহরে থাকা সিএসএফের একটি গাড়ির ধাক্কায় ৫৬ নং ওয়ার্ড ছাত্রলীগের সাংগঠনিক সম্পাদক লিটন রাস্তায় পড়ে গেলেই গাড়ি বহরকে প্রতিরোধ করা হয়। এরপর লিটনকে গুরুতর অাহত অবস্থায় ঢাকা মেডিক্যাল হাসপাতালে ভর্তি করা হয়। এছাড়া শাহবাগ থানা ওয়ার্ডের নেতা জাকির নামের একজন অাহত হয়, তাকেও হাসপাতালে ভর্তি করা হয়েছে এবং চিকিৎসকরা জানিয়েছেন তার মেরুদণ্ডে অাঘাত রয়েছে।'
মশিউর রহমান রুবেল বলেন, 'অামরা সিটি নির্বাচনে সাঈদ খোকনের পক্ষে প্রচারণা চালাচ্ছিলাম। হঠাৎ দেখি যানজট ছাড়তেই অামাদের এক কর্মী গাড়ি ধাক্কা খেয়েছে। এরপর কর্মীরা ক্ষোভের প্রকাশ ঘটিয়েছে। কিন্তু অামরা জানতাম না যে, এটি খালেদা জিয়ার গাড়ি বহর বা এতে তিনি অাছেন।'
এক্ষেত্রে খালেদার বহরে থাকা এক ছাত্রদল নেতার বক্তব্য, 'ম্যাডামের গাড়ি যানজটে থাকা অবস্থাতেই ছাত্রলীগের কর্মীরা লাঠিসোটা ও ইট-পাটকেল নিয়ে হামলা করে। এরপর ম্যাডামের গাড়ি দ্রুত টান দিলে দুজন ছিটকে পড়ে যায়। তারা বেধড়ক মারধর করে সিএসএফ-এর দুই সদস্যকে।'
এর অাগে গতকাল মঙ্গলবার ফকিরাপুল, সোমবার কাওরানবাজার, রবিবার উত্তরায় প্রচারণাকালে একাধিকবার খালেদা জিয়ার গাড়িবহরে হামলা হয়। এর মধ্যে সোমবার কাওরানবাজারের হামলায় ছাত্রলীগের সম্পৃক্ত থাকার অভিযোগ উঠেছে। ওই হামলায় স্থানীয় অাওয়ামী লীগ, যুবলীগ ও ছাত্রলীগের সরাসরি ভূমিকা ছিল বলেও জানা যায়।
বুধবার খালেদা জিয়ার গাড়িবহরে থাকা ছাত্রদলের এক নেতা জানান, গাড়ি বাংলামোটর সিগনাল অতিক্রম করার সময় ইট-পাটকেল অাসে। এতে খালেদা জিয়ার গাড়ির কাঁচ ভেঙে যায়। এসময় খালেদা জিয়ার দুই সিএসএফ সদস্যকে মারধর করে আটকে রাখে সরকার সমর্থকরা। তাদের একজনের মাথা ফেটে গেছে বলেও দাবি করেন ওই নেতা।
এ রিপোর্ট লেখার সময় খালেদা জিয়ার গাড়িবহর হেয়ার রোড হয়ে বিএনপি কার্যালয়ের দিকে গেছে। বর্তমানে খালেদা জিয়া নয়া পল্টনে দলের কেন্দ্রীয় কার্যালয়ে অবস্থান করছেন বলে জানা গেছে।
Obama has Turned Up the Yemeni War-Dial A Paper Peace and Proxy War With Iran
A Paper Peace and Proxy War With Iran
PRESS RELEASE “Court gives clean chit to Dr. CK Raut”
(Nepali version given below)
"FOR IMMEDIATE RELEASE"
PRESS RELEASE
"Court gives clean chit to Dr. CK Raut"
Kathmandu, Nepal 23rd April, 2015, - Special Court gave clean chit to Dr. CK Raut for sedition charge due to lack of enough claims at 5pm onThursday which was filed by Government of Nepal on Ashwin 22, 2071.
Dr. Raut expressed thanks to supporters, civil society, lawyers, reporters and human rights activists for their continuous supports by different means. He promised that Madhesh Independent Movement will be continue for rights and freedom of Madheshi People.
Save Dr. CK Raut Struggle Committee and Alliance for Independent Madhesh (AIM) are thankful to all of you for your continuous supports to free Dr. CK Raut from sedition charge.
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Alliance for Independent Madhesh (AIM) is an alliance of Madheshi people, activists, parties and various organizations working for the independence of Madhesh, through non-violent and peaceful means following the principles of Buddha, Gandhi and Mandela. The alliance advocates an end to Nepali colonization, racism, slavery and discrimination imposed on Madheshis. It stands for three pillars: (a) Independent Madhesh (b) Democratic System, and (c) Peaceful and Non-violent Means.
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Contact
Ass. Prof. Kailash Mahato
Sub-Coordinator
Alliance for Independent Madhesh
Phone: +977-9847038322
email: save.madhesh@gmail.com
(तुरन्त वितरणका लागि)
प्रेस विज्ञप्ति
"राज्य-विप्लवको मुद्दामा डा. सि. के. राउतले सफाई पाए"
काठमण्डो, नेपाल २०७२ बैशाख १० बिहिबार - नेपाल सरकारले डा. सी. के. राउत माथि लगाएको राज्य-विप्लवको मुद्दामा सि. के. राउत भन्ने चन्द्र कान्त राउतले आरोपित कसुर गरेको भन्न मिल्ने ठोस आधार नहुँदा यी प्रतिवादीले आरोपित कसुर गरेको भन्ने वादी नेपाल सरकार को दाबी पुग्न न सक्ने भई यी प्रतिवादीले आरोपित कसुरबाट सफाई पाउने ठहर्छ उल्लेख गर्दे बिशेष अदालतले निजलाई आज बेलुकी ५ बजे तिर सफाई दिऐकोछ/
डा. राउतले कार्यकर्ता, मानवाधिकारकर्मी, नागरीक समाज ,वकिल ,पत्रकार र शुभचिन्तकहरुलाई लाई धन्यवाद दिदै यो जीत जनता को जीत हो, सत्य को जीत हो,स्वराजको जीत हो भन्नुभयो/ "मधेशी जनताको स्वराज आन्दोलन निरन्तर रुपमा आगाडी बढी रहने छ" भनेर प्रतिबद्दता समेत जनाउनु भयो/
उहाँको रिहाईको लागि सहयोग गर्ने सम्पुर्ण सहयोगीहरु लाई डा. सी. के. राउत बचाऊ संघर्स समिति र स्वतन्त्र मधेश गठबन्धनको तर्फ बाट धेरै धेरै धन्यवाद ज्ञापन गर्छो/
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स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन बुद्ध, गांधी र मण्डेलाको अहिंषात्मक सिद्धान्तलाई अनुशरण गर्दै शान्तिपूर्ण मार्गद्वारा मधेशको स्वतन्त्रताको लागि कार्यरत रहेको कुरा सर्वविदित नै छ। गठबन्धनका तीन आधार स्तम्भहरू (क) स्वतन्त्र मधेश (ख) लोकतान्त्रिक व्यवस्था,र (ग) शान्तिपूर्ण एवम् अहिंषात्मक मार्ग अनुसार नै आफ्नो नीति निर्धारण र कार्यक्रमहरू गर्दै नेपाल सरकारको कुनै काममा तथा वर्तमान राजनैतिक प्रक्रियाहरूमा वाधा-अडचन नपुर्याई शान्तिपूर्ण एवम् संरचनात्मक रूपमा मधेशको विकास तथा सामाजिक उत्थानका लागि गठबन्धन हाल क्रियाशील रहेको छ। तर नेपाल सरकारले मधेशको राजनैतिक मुद्दालाई दबाउने र विमतिका सबै आवाजलाई निर्मूल पार्ने नीति अनुसार गठबन्धनका कार्यकर्ताहरूलाई फँसाउने षड्यन्त्र गर्दै आएको छ।
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सम्पर्क
स. प्रा. कैलाश महतो,
उप-संयोजक,
स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन
फोन: +977-9847038322
इमेल: save.madhesh@gmail.com
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পর্যালোচনা সক্রেটিসের অযৌক্তিক মৃত্যুদণ্ড কিছু যৌক্তিক প্রশ্ন মিনা ফারাহ ২৩ এপ্রিল ২০১৫,বৃহস্পতিবার, ০০:০০
পর্যালোচনা
সক্রেটিসের অযৌক্তিক মৃত্যুদণ্ড কিছু যৌক্তিক প্রশ্ন
সংবিধান সংশোধন করে বহু আগেই সমালোচনার অধিকার হরণ করা হয়েছে সুপরিকল্পিতভাবে। মুখ খুললেই হামলা-মামলা, শাস্তির পাহাড় নিয়ে কি কারো সন্দেহ আছে? কিন্তু দায়িত্বপ্রাপ্ত পশ্চিমারা যতই সমালোচনা করুক, এসব আমলে না নিয়ে বরং তুচ্ছতাচ্ছিল্য করতেই পছন্দ করছে রাষ্ট্র। এ দিকে মানবাধিকার পরিস্থিতির ভয়াবহ অবনতি হওয়ায় দেশ থেকে অর্থ আর মানুষ, দুটোই বিদেশে পাড়ি দেয়ার মহোৎসব অব্যাহত। এসব খবর মিডিয়ায় না আসার কারণ আমরা বুঝি। পৃথিবীতে মনে হয় একটি জাতিই আছে, একই সাথে যারা অতি আনন্দ এবং অতি আত্মতৃপ্তিতে ভরপুর। একই সাথে যারা উৎসব ও ফাঁসির আনন্দে সমান হারে মেতে ওঠার আগে চিন্তা করে না। কারণ, চিন্তা তাদেরকে করতে দেয়া হয় না। দেব-দেবীরা যা বলেন, সেটাই বেদ। অথচ সারা দিনে আমরা বহু মতামতকে গুরুত্ব দিয়ে শুনি। ন্যায়-অন্যায়, ভালো-মন্দ বিচার করার মতো চিন্তাশীল মনের সৃষ্টি ও সন্ধান করছি। কিন্তু কূলকিনারা পাই না এই বিশাল জগতের। প্রতিটি মুহূর্তেই সামনে এসে দাঁড়ায় নতুন ব্যক্তিত্ব, চিন্তার নতুন ফর্মুলা। প্রতিক্রিয়াশীল চিন্তাভাবনা, সুস্থ ও প্রগতিশীল মনের কোনো বিকল্প নয়। এক ব্যক্তি, এক আদর্শ, এক দলের মধ্যে সবার চিন্তাভাবনা সীমাবদ্ধ। একটি জাতিকে কূপমণ্ডূক করতে এই ফর্মুলাই যথেষ্ট।
ভালো-মন্দ, ন্যায়-অন্যায়, বিশ্বাস-অবিশ্বাস, কারণ-অকারণ, মনুষ্যত্বের এসব সংজ্ঞা এখন অকার্যকর। মানুষের বহু অভ্যাসের মধ্যে একটি হচ্ছেÑ কেউ পাখি ধরে, কেউ তা কিনে মুক্ত করে দেয়; যেমনÑ আমার বাবা। তিনি খাঁচাবন্দী পাখি সহ্যই করতে পারতেন না। সব দেখে মনে হচ্ছে, আরেকটি জনগোষ্ঠী যেন এতিম। এতিম মারছে, গুলি ঠেকানোর সাহস কার? বারবারই দেখছি, পশ্চিমাদের প্রতিবাদের ভাষায় প্রতিপকে নির্মূল করার সুস্পষ্ট ইঙ্গিত। দায়িত্ব পালনে কতটা সফল হেগের আইসিসি? ঝুঁকিপূর্ণ দেশে বিচার সন্দেহাতীত করতে ট্রাইব্যুনালকে তারা হয় আরেক দেশে নিয়ে গেছে কিংবা সরাসরি সম্পৃক্ত হয়েছে। এমন উদাহরণ বহু। একটার পর একটা বিতর্কিত রায় কার্যকর হলে বিরোধী দল পুরোপুরি নির্বংশ হবে। এটা যে রাজনৈতিক এজেন্ডা, প্রমাণ অবশ্যই রয়েছে। সেই আইসিসি সচেতন হলে প্রতিটি ফাঁসিই হতো সন্দেহাতীত প্রমাণের ভিত্তিতে, যা হয়নি বলে সুস্পষ্ট ইঙ্গিত করলেন ব্রাড অ্যাডামস। বলেছেন, 'অস্বচ্ছ বিচারের মাধ্যমে মৃত্যুদণ্ড দেয়া জীবনের অধিকারের সুস্পষ্ট লঙ্ঘন। মৃত্যুদণ্ডের মতো রায় বাস্তবায়ন করার জন্য স্বচ্ছ ও মানসম্মত বিচার হলো মূল শর্ত।'অকথ্য গালিগালাজ না করলে সেটা বক্তব্য হয় না, এই ধারণা ভুল। সুবিচারপ্রার্থীদের সন্দেহ সত্য না হলে গণভবনে পয়লা বৈশাখের অনুষ্ঠানে এত কথা বলতে হলো কেন? অতি আত্মতৃপ্তি রোগে আক্রান্ত বাছাই করা সাংবাদিকদেরকে যে কাজে আনা হয়েছিল, কাঠের ঘোড়ার মতো সব ঠিকঠাক করা হলো। তবে সাদ্দামের ফাঁসির প্রসঙ্গ তোলাটা একেবারেই অপ্রযোজ্য। কারণ, ওবামার সাথে ইরানের পারমাণবিক বোমার বিরুদ্ধে যে চুক্তি হলো আর পদ্মা সেতুর দৈর্ঘ্য-প্রস্থ কারণ নিয়ে চীনের সাথে যে চুক্তি... এমন তুলনা নেহাত বালখিল্য। কিন্তু কাঠের ঘোড়া কাঠ দিয়ে তৈরি, তাই তারা নি®প্র্রাণ-নিষ্কর্মা। বুদ্ধি নিয়ে মাথা ঘামায় না কাঠ, ওটাকে বন্ধক দিয়েছে মহাজনদের কাছে, যার ওপর তারা প্রাসাদ বানিয়েছে। জাতি তাদের থেকে কিছুই আশা করে না, কিছু দেয়ারও মতা তাদের নেই। কাষ্ঠলোকেরা আরো যে অপকর্মটি সাফল্যের সাথে করছেন, জাতির মগজের বাল্বটি নিভিয়ে ফেলে অন্ধকারে ঘিরে ফেলা।
বিশেষ করে স্কাইপ কেলেঙ্কারির পর ট্রাইব্যুনালকে হেগের হাতে না নেয়ার কোনোই কারণ ছিল না, ফলে যা হওয়ার তাই দেখছি। এখন 'স্বেচ্ছাচারিতা'র অভিযোগ আনা যেমন লজ্জাজনক, সুবিচারপ্রার্থীদের জন্যও দুঃখজনক। কিন্তু সেটা না হওয়ার প্রধান অন্তরায় ভারত। এই অঞ্চলে ভারতের প্রভাব আমেরিকার মতো। তারা যা চায়, সেটাই হচ্ছে। জঙ্গি নিধনের নামে জামায়াত-বিএনপি-শিবিরকে অযৌক্তিকভাবে তারা আর দেখতে চায় না বলেই আজকের পরিস্থিতি। এই আলামত এখন দিবালোকের মতো স্পষ্ট। অথচ বর্ডারে কুকুর-বিড়ালের মতো গুলি করে মানুষ মারছে বিএসএফ, কাষ্ঠঘোড়া সম্প্রদায় তবুও নীরব। 'পুলিশের পিস্তল পকেটে রাখার জন্য নয়।'Ñ প্রধানমন্ত্রী। বিরোধী দল বিনাশের স্বর্গরাজ্যে লালকেল্লার মালিক মতাধারীদের মুখে এসব কথার মধ্যে সিগন্যাল কী?
জাতিসঙ্ঘ মানবাধিকার কমিশন, 'আমরা অবিলম্বে জামায়াতে ইসলামীর সিনিয়র সহকারী সেক্রেটারি জেনারেল জনাব কামারুজ্জামানের মৃত্যুদণ্ড স্থগিত করার জন্য বাংলাদেশ সরকারের প্রতি আহ্বান জানাচ্ছি। কামারুজ্জামানকে মানবতাবিরোধী অপরাধের দায়ে বাংলাদেশের আন্তর্জাতিক অপরাধ ট্রাইব্যুনাল মৃত্যুদণ্ড প্রদান করেছে, এই গোটা বিচারপ্রক্রিয়া নিয়েই অনেক প্রশ্ন ও অভিযোগ রয়েছে। এই বিচারে মোটেও আন্তর্জাতিক মানদণ্ড বজায় রাখা হয়নি।'বিবৃতিতে আরো বলা হয়Ñ ট্রাইব্যুনাল ২০১০ সাল থেকে এ পর্যন্ত ১৬টি রায় দিয়েছেন, যার মধ্যে ১৪টিই মৃত্যুদণ্ড। মৃত্যুদণ্ডপ্রাপ্তরা বিরোধী দলের সদস্য। জাতিসঙ্ঘ জোর দিয়ে বলেছে, মৃত্যুদণ্ডের বিধান আছে, এমন বিচারের েেত্র যথাযথ স্বচ্ছতা নিশ্চিত করা অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ। অস্বচ্ছ বিচারের মাধ্যমে মৃত্যুদণ্ড দেয়া জীবনের অধিকারের সুস্পষ্ট লঙ্ঘন। বাংলাদেশ ইন্টারন্যাশনাল কনভেন্টে স্বারকারী একটি দেশ। সেটাকে বিবেচনায় নিয়ে জাতিসঙ্ঘ মানবাধিকার কমিশন মনে করে, মৃত্যুদণ্ডের মতো রায় বাস্তবায়ন করার জন্য স্বচ্ছ ও মানসম্মত বিচার হলো মূল শর্ত।
ইউরোপিয়ান ইউনিয়ন : 'কামারুজ্জামানসহ সব মৃত্যুদণ্ড স্থগিত করুন। সর্বোচ্চ শাস্তি মৃত্যুদণ্ড কোনো অপরাধের প্রতিকার নয়; বরং সুষ্ঠু বিচার করতে আদালতের যে ব্যর্থতা, তা অপরিবর্তিত থেকে যায়।'তারা সব মৃত্যুদণ্ড মুলতবি করার আহ্বান জানান।
শেষ মুহূর্তে যুক্তরাষ্ট্রের আহ্বান। স্টেট ডিপার্টমেন্টের মুখপাত্র মেরি হার্প বলেছেন, 'আন্তর্জাতিক অপরাধ আদালতের বিচার অবশ্যই হতে হবে সুষ্ঠু, স্বচ্ছ ও আন্তর্জাতিক বাধ্যবাধকতা অনুসরণ করে। আমরা অগ্রগতি দেখেছি। কিন্তু এখনো বিশ্বাস করি যে, আদালতের কার্যক্রমের আরো মানোন্নয়ন করে দেশ ও আন্তর্জাতিক বাধ্যবাধকতা অনুসরণ নিশ্চিত করা যেতে পারে। যতণ এসব বাধ্যবাধকতা পূরণ না হবে, ততণ ফাঁসি কার্যকর না করাই উত্তম পন্থা। যেসব দেশ মৃত্যুদণ্ড আরোপ করছে, অবশ্যই তা করতে হবে সর্বোচ্চ সতর্কতা এবং উচ্চমান বজায় রেখে, সুষ্ঠু বিচারের নিশ্চয়তার ওপর শ্রদ্ধা রেখে।'
'বিচার গুরুতর ত্র"টিপূর্ণ, ফাঁসি স্থগিত করুন'Ñ বিশ্ব মানবাধিকার সংস্থা। বিবৃতিতে বলা হয়, রিভিউ আবেদনের 'মেরিট'না শুনেই আপিল বিভাগ তার রিভিউ খারিজ করে মৃত্যুদণ্ড বহাল রেখেছে। 'মৃত্যুদণ্ড একটি অপরিবর্তনীয় এবং নিষ্ঠুর সাজা। এটা আরো ভয়াবহ হয় যখন এ ধরনের সাজা পুঙ্খানুপুঙ্খ পর্যালোচনা করে দেখতে বিচার বিভাগ ব্যর্থ হয়। বাংলাদেশে যুদ্ধাপরাধের বিচারে ন্যায়বিচার লঙ্ঘনের ক্রমাগত এবং বিশ্বাসযোগ্য অভিযোগ রয়েছে, যার নিরপে বিচার বিভাগীয় পর্যালোচনা দরকার।'বলেছেনÑ এইচআরডব্লিউ এশিয়া ডিরেক্টর, ব্রাড অ্যাডামস। আরো বলেছেন, কামারুজ্জামানের বিচার চলাকালে আদালতে সাী ও ডকুমেন্টসহ আসামিপরে উপস্থাপিত প্রমাণাদিকে সীমিত করে দেয়া হয়েছে। সাীদের জেরাকালে তারা তাদের আগের বক্তব্যের সাথে অসঙ্গতিপূর্ণ যেসব বক্তব্য দিয়েছেন, তা চ্যালেঞ্জ করার সুযোগ দিতে অস্বীকৃতি জানিয়েছেন আদালত। ব্রাড বলেছেন, দু'জন বিচারক এর আগে পপাত করলে তাদের প্রত্যাহার করে নেয়ার জন্য আসামিপরে আবেদনও নাকচ করে দেয়া হয়েছে।
ওই আলামতসাপেে বলাই বাহুল্য, বিচার নিয়ে যেসব অঘটন, ন্যায়বিচারপ্রার্থীদের জন্য এগুলো গুরুতর ঘটনা। জেনেভা কনভেনশনের সাথে সংশ্লিষ্ট ব্যক্তিরা স্পষ্টই বলছেন, কিভাবে স্বেচ্ছাচারিতার পরিচয় দেয়া হচ্ছে। ফাঁসি না দিতে এত নারাজি এবং অনুরোধ যা জেনেভা কনভেনশনের ইতিহাসে একমাত্র ঘটনা, কিন্তু অপ্রতিরোধ্য এ রাষ্ট্র। প্রশ্নবিদ্ধ বিচার চালিয়ে যাওয়ার ঘোষণায় আমরা আরো বেশি শঙ্কিত। ঝুঁকিপূর্ণ বিচারকে নিরপে করতে আইসিসির হস্তেেপর উদাহরণ বহু। এসব ব্যত্যয়ের কারণেই ডেভিড বার্গম্যানদের মতো সমালোচকদের কলম চলছিল। কিন্তু বিধিবাম! কেউই কিছু বলতে পারবে না। স্টালিনইজম ঘৃণা করি। আমার একটি স্ট্যাটাসের কারণে হৈ-হুল্লোড় শুরু হয়ে গেছে। গোয়েন্দারাও অতিরিক্ত ব্যস্ত হয়ে পড়েছেন। এটা মানবাধিকার হরণ না হলে, কোনটা? সমালোচনার অধিকার কি একাই রাষ্ট্রের! ভবিষ্যতে কর্নেল তাহেরের মতো আর কোনো বিচারেরও পরিণতি অভিন্ন হবে না, এত আত্মতৃপ্তির কারণ আওয়ামী লীগের না থাকাই ভালো। বিচার নিয়ে অতিকথন সন্দেহের ত্রে বিশাল করেছে।
ট্রাইব্যুনাল-৭৩, আন্তর্জাতিক ট্রাইব্যুনালের সাথে অনুস্বারকারী হওয়ায় এর কাঠামোর বাইরে যাওয়ার কোনোই উপায় নেই। সেটা নিশ্চিত করতে যা প্রয়োজন, তা কখনোই করা হয়নি বলেই অনিয়ম ঘটছে। 'স্কাইপ কেলেঙ্কারির মতো লাইন বিচ্যুতি দেখেও কিছুই না করে ন্যায়বিচারপ্রার্থীদের ওপর অবিচার করা হয়েছে।'বিচারক এবং বিচারের বাইরের অনাহূত এক প্রবাসীর মাঝে কথোপকথনে রায় লেখার সাথে পদোন্নতি নিয়ে দরকষাকষি এবং বিচার শেষ হওয়ার আগেই ৫০০ পৃষ্ঠার রায় লেখা... জেনেভা কনভেনশনের চ্যাপ্টারে এ ধরনের বিচারের কথা কোথায় লেখা আছে? এই কথোপকথন প্রথম ফাঁস করেছিল ইকনোমিস্ট ম্যাগাজিন, সেখানে মিসট্রায়ালের সর্বোচ্চ প্রমাণ থাকা সত্ত্বেও কোনো ব্যবস্থাই নেয়া হলো না। স্কাইপ কেলেঙ্কারি তদন্তের সময় শেষ হয়ে যায়নি। ট্রাইব্যুনালের বড় ধরনের ঘাটতির কথা উল্লেখ করেছেন আন্তর্জাতিক বিশ্লেষকেরা, এ প্রেক্ষাপটেই ফাঁসির অপোয় বিরোধী দলের শীর্ষ কয়েক নেতা, যাদের অবর্তমানে দল ভীষণ তিগ্রস্ত হবে এবং হচ্ছে। সব ক'টারই ফাঁসি হবেÑ এমন ইঙ্গিত সর্বোচ্চপর্যায় থেকে দিতে এক মুহূর্তও দেরি হয়নি অতি আত্মতৃপ্ত নির্বাহীদের। এই রেফারেন্স থাকলে ভবিষ্যতে অন্য দেশের েেত্র আইসিসির হস্তপে প্রশ্নবিদ্ধ হবে। তবে এই দফায় পশ্চিমাদের ভাষার ব্যবহার, শব্দ প্রয়োগ আর ব্যাখ্যাগুলো অতীতের চেয়ে অধিকতর গভীর ও তীব্র। তবুও প্রমাণ করা হলো, ট্রাইব্যুনাল কাউকেই পাত্তা দেবেন না।'৭৪-এর ত্রিপীয় চুক্তির মাধ্যমে ১৯৫ জন শীর্ষ যুদ্ধাপরাধীকে মুক্তি দেয়া হয়েছিল, যাদের কয়েকজন এখনো জীবিত থাকা সত্ত্বেও ফিরিয়ে এনে বিচারের কথা একবারও উচ্চারণ করল না সরকার। নিরপে ব্যক্তিদের প্রশ্ন, কেন নয়? ওদের অধীনেই '৭১-এর গণহত্যা; নয় কি? আমাদের চিন্তা অন্যেরা করে দেয় বলেই জাতির এত দুর্দশা। উৎসবের নামে ঘুম পাড়িয়ে রাখা জাতির চিন্তাশক্তি মরণঘুমে নিমগ্ন। নিজের মাথা অন্যকে ধার দিলে অনাদরে-অবহেলায় মগজ অন্যের শুকনো জমি হয়ে যায়। শুধু কি তাই? ১৯৭৪ সালে ওআইসির শীর্ষ সম্মেলনে ওই যুদ্ধাপরাধী টিক্কা খানের সাথে করমর্দন করেছেন কে? খুনি ভুট্টো ঢাকায় এলেন কোন সাহসে? ওই যুদ্ধাপরাধী ঢাকায় এলে মুসোলিনির সমতুল্য গণহত্যাকারীর সাথে এক গাড়িতে বসে কারা গিয়েছিলেন? কথায় কথায় নুরেমবার্গের উদাহরণ; কিন্তু মুসোলিনিতুল্য ১৯৫ জন অপরাধীর মুক্তির বিষয়টি লুকিয়ে রাখা হয়। শাক দিয়ে মাছ ঢাকা কি এতই সহজ? হিটলারতুল্যদের মুক্তি দিয়ে চুনোপুঁটিদের বিচার, হেগের ইতিহাসে অদ্ভুত ঘটনা। যারা ইতিহাস জানে এবং পড়ে, একমাত্র তারাই এসব প্রশ্ন তুলতে পারে। সোস্যাল মিডিয়া তোলপাড় করা, ভুট্টোকে বুকে জড়িয়ে ধরা ওআইসির ছবিগুলো কি কথা বলে না? সে জন্যই তো সুবিচারপ্রার্থীদের এত আহাজারি এবং বিশ্বজুড়ে সমালোচনার ঝড়। অন্ধ বলেই সোস্যাল মিডিয়ার বিপ্লব দেখছে না। নিয়াজি, ফরমান আলী, টিক্কা খানকে যারা মুক্তি দিতে পারে; তাদেরও বিচারের জন্য সংবিধান সংশোধন করতে হবে। মুক্তিযুদ্ধের চেতনায় অতি আত্মতৃপ্ত সরকার যে বিশ্বকর্মা, ইতোমধ্যেই প্রমাণিত হয়েছে। সুবিচার লাভের অধিকার একমাত্র চেতনাবাদীদেরই নয়। ১৯৫ জন অভিযুক্ত যুদ্ধাপরাধীর মুক্তি যে ছেলের হাতের মোয়া নয়, বিষয়টি শহীদ পরিবারের সবচেয়ে আগে বোঝা উচিত ছিল এবং উপযুক্ত দাবিও করা উচিত ছিল। কারণ, তারাই ফাঁসি দেখার জন্য অধীর হয়ে আছে। ফাঁসি দিলেই উল্লাসে ফেটে পড়া টকশো থেকে শাহবাগ পর্যন্ত। এ দিকে অপরপরে কথা বলার অধিকার সীমিত। সুতরাং আমার অভিযোগই সত্য, সবাই কাষ্ঠঘোড়া অথবা কেকটা খাবো আবার থাকতেও হবে। এসব প্রশ্নের জবাব না পাওয়া পর্যন্ত হত্যার সমালোচনা চলাই স্বাভাবিক।
আমার লেখাটির মূল উদ্দেশ্য ট্রাইব্যুনালকে বিতর্কের ঊর্ধ্বে রাখা এবং মুরব্বিদের কুম্ভিরাশ্র"ভূমিকার কঠোর সমালোচনা। পরোক্ষভাবে একদলীয় শাসন কায়েমে যা খুশি করছে রাষ্ট্র। ব্রাড অ্যাডামস বলছেন, 'সন্দেহাতীত প্রমাণ ছাড়া শাস্তি কার্যকর করা উচিত নয়, আবার কার্যকর করলেও কিছুই করছেন না।'অর্থাৎ কেকটা খেয়ে ফেলব আবার কেকটা থাকতেও হবে। এর আগে পররাষ্ট্রমন্ত্রী জন কেরির ফোনে কাজ না হওয়ায় পশ্চিমাদের নিয়ে আমাদের সন্দেহের মাত্রা আরো বেড়েছে। তার মানে কি এই, জিওপলিটিক্সে ভালো অবস্থানের কারণে ুদ্র শক্তির জাদুর কাঠির ডগায় বন্দী বড় বড় পরাশক্তি এবং এসবই পুঁজিবাদীদের নাটক! কাউকেই বিশ্বাস করা উচিত নয়, বরং সমালোচনা চলতে থাকুক।
এই দফায় বার্তা আরো বেশি স্পষ্ট। 'দুর্গন্ধ'টের পাওয়া মাত্রই ট্রাইব্যুনালকে আন্তর্জাতিক পর্যবেকদের সাথে সম্পৃক্ত করা কিংবা ট্রাইব্যুনালকে অন্য দেশে নিয়ে বিচার সন্দেহাতীত করা উচিত ছিল। তবে সময় এখনো শেষ হয়ে যায়নি। কিন্তু বান কি মুনের রহস্যজনক ভূমিকার বিরুদ্ধে ুব্ধ হয়ে আগেও লিখেছি। এই লোকটার আচরণ বুশের মতো; যেন জাতিসঙ্ঘের প্রধান কাজ পুঁজিবাদীদের স্বার্থ উদ্ধার। ট্রাইব্যুনাল-৭৩-এর যত সমালোচনা আজ পর্যন্ত করেছে পশ্চিমারা, আইসিসির ইতিহাসে এটাই প্রথম হওয়া সত্ত্বেও কেন তারা বক্তব্যের মধ্যে সীমাবদ্ধÑ প্রশ্ন সমালোচকদের। 'স্কাইপ কেলেঙ্কারি থেকে সুখরঞ্জন বালির মতো ঘটনাগুলো বারবারই জানান দিয়েছে, আসুন দেখুনÑ এখানে মিসট্রায়াল, কিন্তু কিছুতেই কিছু হয়নি।'সম্প্রতি হঠাৎ করেই বিচারকদের অভিশংসনের বিষয়টি আগুন নেভাতে পেট্রল ব্যবহারের সমান। বিচারক নিজামুল হকের পদত্যাগের ঘটনা সন্দেহাতীত বিচারের সম্ভাবনা নস্যাৎ করেছে। 'ইমরান বাহিনী'তৈরি করে অরাজকতাকে গ্রহণযোগ্য করা হয়েছে। ফলে রায় পাল্টে ফাঁসি দেয়া সম্ভব হয়েছে। গণজাগরণ মঞ্চের পর 'আন্তর্জাতিক মানদণ্ড'বললে হাস্যকর শোনাবে। সমষ্টিগতভাবে যেসব নৈরাজ্য অব্যাহত, এতে অবশ্যই ন্যায়বিচারপ্রার্থীরা রাষ্ট্রের স্বেচ্ছাচারী শাসনের কাছে দারুণ অসহায়। একে কোনোভাবেই গণতন্ত্র বলা যায় না। গণতন্ত্রে বহু দল-মতকে গ্রহণ করা হয়, এখানে চলছে কৌশলে একদলীয় শাসন কায়েমের সব আয়োজন।
জাতিসঙ্ঘ যথার্থ উল্লেখ করেছে, অর্থাৎ ১৬টি রায়ের মধ্যে ১৪টিতে যাদেরকে মৃত্যুদণ্ড দেয়া হয়েছে সবাই বিরোধী দল তথা বিএনপি ও জামায়াত। মৃত্যুদণ্ডপ্রাপ্তদের বেশির ভাগই বিরোধী শরিকের শীর্ষস্থানীয় নেতৃবৃন্দ বলে উল্লেখ করেছে আন্তর্জাতিক মিডিয়া। গুরুত্ব পেয়েছে ইসলামি সংগঠনের নেতাদের হত্যার কথা। বিরোধী দলের আন্দোলনে মূলত তারাই উল্লেখযোগ্য ভূমিকা রাখেন। তাদের অবর্তমানে বিএনপির অবস্থা হতে পারে, নুন ছাড়া কাবাব।
এই হারে মানবাধিকার ভঙ্গ করা হবে আর চুপ করে দেখব? যুক্তিকে যুক্তির জায়গায় থাকতে দিতে হবে। সুবিচারের প্রশ্নে আপস নেই; কারণ অবিচার হলে অপশক্তির ভাগ্য খুলে যায়। আওয়ামী লীগের ভেতরেও অবস্থান নেয়া যুদ্ধাপরাধীর নাম তো তালিকার মধ্যেই। তাদের বিচার কবে? নাকি ২০ দলকে ধ্বংস করাই মেনিফেস্টো! অভিযোগের বদলে বরং হেগের আইসিসির দায়িত্ব ছিল সনদ অনুযায়ী ব্যবস্থা নেয়া; কারণ বিচার স্বচ্ছ না হওয়ার অভিযোগ তো তাদেরই। সর্বোচ্চসংখ্যক ধর্ষিতাদের ট্রাইব্যুনালের সাথে সম্পৃক্ত করা হয়নি। এখন তারা যে আপত্তির কথা বলছেন, ২০০৬ সালে বিধবা গ্রামে আমার অভিজ্ঞতাও একই এবং সে কারণেই পিছিয়ে গেছি। এ নিয়ে বহুবার লিখেছি, কিন্তু ফল হয়েছে ভয়াবহ, বেড়েছে গোয়েন্দাদের অত্যাচার। ফাঁসি একটি অপরিবর্তনযোগ্য শাস্তি। যে অভিযোগে ফাঁসি, তা সন্দেহাতীত করতে সব ক'জন বিধবার জবানবন্দী এবং জেরা-পাল্টা জেরা, কোনোটারই বিকল্প ছিল না।
ভলতেয়ারের বিখ্যাত কথাটি আবারো লিখছিÑ 'আমি তোমার আদর্শের সাথে দ্বিমত করতে পারি, কিন্তু তোমার বলার স্বাধীনতার জন্য প্রয়োজনে জীবন দেবো।'মিডিয়ায় বারবার আমার যে সাাৎকারটি দেখানো হয়, সেখানে বলেছি ৯ মাস পর দেশে ফিরে আমার শোনা কথা। কখনোই বলিনি কোনো খুনের কথা। কিন্তু পরবর্তী সময়ে যা শুনছি, আগাছার মতো খুন ও ধর্ষণের হাত-পা গজাচ্ছে। যেভাবে ধর্ষণের কথা বলা হচ্ছে, এ যেনÑ আমের আচার। তুরিন আফরোজের মতো যারাই পরবর্তী সময়ে ট্রাইব্যুনালের সাথে সম্পৃক্ত হতে পেরেছেন, তারা এত কথা না বলে বরং সব ক'টা জীবিত ধর্ষিতা ও বিধবাকেই আদালতে হাজির না করার কোনোই কারণ ছিল না। হাতের নাগালে থাকা সত্ত্বেও তিগ্রস্তদের (বিশেষ করে ধর্ষিতা) হাজির করা সুবিচারের তাগিদেই উচিত ছিল। ধর্মেই তো আছে, চারজন চাুষ সাীর কথা। ফলে 'মেরিট'প্রমাণ না হওয়ায় 'মোটিভ'স্পষ্ট। এত ধর্ষণ হলে বিধবা গ্রামে অন্তত একটি হলেও যুদ্ধশিশু থাকবে এবং তার সাথে যদি ডিএনএ মিলে যেত, সন্দেহাতীত বিচার নিশ্চিত করতে সেটাই উত্তম পন্থা। যদি না-ও হয়ে থাকে, তবুও উচিত ছিল। কারণ, এই সুযোগ এখন বাংলাদেশেই। ফলে কারো কোনো প্রশ্ন থাকত না। আমরা সুবিচার চাই, সন্দেহাতীত বিচারও চাই। ডিজিটাল পৃথিবীতে ডিএনএ পরীার মাধ্যমে অপরাধ প্রমাণ করার বিষয়টি এখন সর্বোচ্চ গুরুত্ব পাচ্ছে এবং বিধবাপল্লী এ ক্ষেত্রে তালিকার শীর্ষে বলে মনে করি। দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের সময় ৪০০-এর বেশি পরিচয়হীন নিহত সৈন্যের দেহাবশেষ কবর থেকে তুলে ডিএনএ পরীার মাধ্যমে শনাক্ত করার উদ্যোগ নিয়েছে যুক্তরাষ্ট্র। তবে ওপর থেকে নিচ পর্যন্ত ন্যায়বিচার রায় যত 'মধুমাখা'বাণী শোনাচ্ছেন, বাস্তবে, 'বিচার মানি, কিন্তু মাথা থেকে পা পর্যন্ত তালগাছটা আমার।'তালগাছ না হলেও সেটা তালগাছ এবং সেটাই আমার। সুবিচারের পে বান কি মুন ও ব্রাড অ্যাডামসরা একমাত্র বুলি কপচানো ছাড়া কিছুই করেননি, ভবিষ্যতেও করবেন না। এই বছরেই বাকি রায়গুলো কার্যতালিকায় বলে জানানোর জন্য অপো সইছে না নির্বাহীদের। তাদের বক্তব্যে রায় কার্যকর করার রগরগে জৌলুশ অনেকটাই বিয়েবাড়ির মুরগি রোস্টের মতো। এখনই সময়, ট্রাইব্যুনালকে প্রভাবমুক্ত রাখতে অন্যত্র সরিয়ে নেয়া কিংবা আইসিসির সদস্যদের সরাসরি সম্পৃক্ততা। অন্যথায় আপত্তির নামে কুম্ভিরাশ্র"বন্ধ করুন। কেকটা খেয়ে ফেলব আবার থাকতেও হবেÑ এই পলিসি বন্ধ করুন। ট্রাইব্যুনালকে নিয়ে আমার চেয়ে নিরপে পর্যবেণ খুব কম লোকেরই আছে বলে মনে করি। মাননীয় প্রধান বিচারপতির দৃষ্টি আকর্ষণ করে মেরিট ও মোটিভকে সর্বোচ্চ গুরুত্ব দেয়ার অনুরোধ।
রাষ্ট্র ব্যর্থ, তাই দায়িত্বপ্রাপ্ত আন্তর্জাতিক সংস্থাগুলোকেই মানবাধিকারের বিষয়টি নিশ্চিত করার পে প্রত্যাশিত ভূমিকা রাখতে হবে। সব তথ্যপ্রমাণ তাদের হাতে। সময় চলে যাচ্ছে, অন্যথায় সর্বনাশ আরো হবে। বিচার চাই, স্বেচ্ছাচারিতা ঘৃণা করি।
farahmina@gmail.com
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The distressed farmer who publicly hanged himself from a tree in Delhi, Gajendra Singh, was from Rajasthan, which is ruled by the BJP.
Ugliest Creatures on Earth!
Radioactive Drone That Landed on Japan PM's Rooftop Also Carried Cesium in Liquid Container, Investigators Say
23 April 2015
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