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आधार के रास्ते अब भारत पर इजरायली कंपनियों का धावा फासीवाद के खिलाफ आपकी लड़ाई कितनी असली है और कितनी नकली!

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आधार के रास्ते अब भारत पर इजरायली कंपनियों का धावा

फासीवाद के खिलाफ आपकी लड़ाई कितनी असली है और कितनी नकली!


पलाश विश्वास

शहीद दिवस के मौके पर भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु को नमन। 23 मार्च, 1931 को ये वीर 'मेरा रंग दे बसंती चोला' गाते हुए फांसी पर चढ़ गए थे। उस वक्त इन तीनों की उम्र केवल 22-23 साल थी।

'शहीद दिवस के मौके पर भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु को नमन। 23 मार्च, 1931 को ये वीर 'मेरा रंग दे बसंती चोला' गाते हुए फांसी पर चढ़ गए थे। उस वक्त इन तीनों की उम्र केवल 22-23 साल थी।'

नवभारत टाइम्स के सौजन्य से।

डरने की जरुरत नहीं है।हम किसी से भगत सिंह बन जाने की अपील नहीं कर रहे हैं।सही मायने में शहादत और खुदकशी का मौका यह है भी नहीं है।लेकिन अपने पुरखों की शहादत को याद करके अपनी भूमिका समझने और उसे अमल में लाने का इससे बेहतर कोई मौका है ही नहीं है।


हमने अपने वामपंथी मित्रों की नापसंदगी की परवाह किये बिना पिछले पूरे एक दशक से बहुसंख्य बहुजनों को आर्थिक मुद्दों पर संबोधित करनेकी कोशिशें जारी रखी हैं।हमारे बहुजन जब तक मुक्तबाजार के तिलिस्म के तिलिस्म समझते नहीं हैं,किसी तरह के प्रतिरोध की छोड़िये,सही मायने में जनपक्षधरता और जनांदोलन की रस्म अदायगी के अलावा हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं।


हम हस्तक्षेप में छपे अपने युवा मेधावी मित्र अभिनव शर्मा की वाम पहल की अपील से शत फीसद सहमत है,वामपंथ को प्रतिक्रियावादी रुझानों से बचना ही होगा।


जैसे कि हमारे प्रबुद्ध मित्र आनंद तेलतुंबड़े कहते हैं कि मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था का फेनामेनान बेहद जटिल फरेब है,इसे हम पूरी तरह अभी समझ नहीं सके हैं तो मुकाबला करने की हालत में भी हम नहीं है।पहले मुक्त बाजार को समझ तो लें।रणनीति बनायें मुकाबले की और जमीन पर उसे अमल में लाने की कूव्वत रखे।प्रतिबद्धत और समझ हों।


हम तो अपनी औसत मेधा और कामचलाउ समझ के साथ संवाद का सिलिसिला बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं,लेकिन जो समझदार लोग हैं,उनकी खामोशी हैरत अंगेज हैं।


कब तक आखिर पटनायक और बिदवई जैस समझदार अर्थशास्त्री कुलीनों को ही संबोधित करेंगे और कब आखिरकार वे सीधे आर्थिक मुद्दों पर जनता को संबोधित करेंगे,यह हमारे लिए पहेली है।क्या गौतम नवलखा और सुभाष गाताडे प्रयाप्त लिख रहे हैं,क्या मुशरर्फ अली,अभिषेक श्रीवास्तव,अमलेंदु उपाध्याय और रियााज जैसे लोग प्रायप्त लोड उठाने को तैयार हैं,हमारी चिंता यह है।हमारे जो समर्थ और समझदार लोग हैं,उनकी निष्क्रियता और उनकी अपर्याप्त सक्रियता हमारे लिए सरदर्द का सबब है।


क्या आनंद स्वरुप वर्मा सिर्फ तीसरी दुनिया तक सीमाबद्ध रहेंगे और पंकज बिष्ट समयांतर तक,हमारे लिए पहेली यह है।


वामदलों की आर्थिक समझ कही कम्युनिकेट क्यों नहीं हो रही है।आर्थिक मुद्दों के विश्लेषण पर पोलित ब्यूरो के प्रेस बयान जारी क्यों नहीं हो रहे हैं और वाम दल क्यों नहीं,देशभर में अब भी बचे हुए कैडर बेस का इस्तेमाल करते हुए इस मुक्त बाजारी तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश नहीं कर  रहे हैं,यह हमारी समझ से परे हैं।


पहेली यह है कि बहुजन राजनीति कब तक अस्मिता केंद्रेत भाववाद के भंवर में फंसी रहेगी और बिन आर्थिक मुद्दों को छुए समता और सामाजिक न्या के दिवास्वप्न जीते हुए बहुजनों को संघ परिवार के हवाले करती रहेगी।


हमारे पास न प्रिंट मीडिया है और न इलेक्ट्रानिक मीडिया,ले देकर हमने अब भी एक तोपखाना हस्तक्षेप के पोर्टल बजरिये चालू रखा है।


हम जानते हैं कि हमारे लोग हमारे प्रयास को जारी रखने के लिए किसी किस्म का आर्थिक सहयोग नहीं करने वाले हैं।लेकिन जब तक हम इसे चला सकते हैं,इसी तेवर के साथ हम चलाते रहेंगे।


फासीवाद या मुक्तबाजार का प्रतिरोध कोई हवा में तलवारें चमकाना या लाठियां भांजना नहीं है जबकि दुश्मन दोस्त की शक्ल अखितयार करके जनता के बीच मारक हमले के लिए घात लगाये बैठे हों।


भेड़ियों से लड़ना सरल है ,जंगल के खूंखार जानवरों से लड़ना सरल है,लेकिन सीमेंट के जगल में मिलियनर बिलियनर राष्ट्रद्रोही फासिस्ट सत्तावर्ग के हितों से टकराना बच्चों का खेल नहीं है।


अगर हम मुक्त बाजार और फासीवाद के खिलाफ अपनी तमाम सीमाओं के साथ मोर्चे पर डटे हैं तो संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ जो लोग हैं,उन्हें कम से कम हमारा साथ देना चाहिए,ऐसी हमारी अपील है।


भले ही आप हमें आर्थिक तौर पर कोई मदद देने की हालत में न हो,लेकिन हस्तक्षेप में हम निरंतर जो सूचनााएं मर खप कर रोज रोज लगा रहे हैं,उन्हें जनता तक पहुंचाने में आप सांगठनिक तौर पर और निजी तौर पर कोशिश करें,कमसकम सोशल मीडिया पर हमरे लिंक शेयर करें तो यह मौजूदा हालत में हमारी सबसे बड़ी मदद होगी।


हम यह मानते हुए कि असली ताकत बहुसंख्य बहुजन समाज में है,इस यथार्थ से इंकार नहीं कर सकेत कि भाववादी मुद्दों को छोड़कर वे सामाजिक यथार्थ और खासतौर पर आर्थिक मुद्दों पर सोचने समझने की हालत में नहीं है।


संघ परिवार को इसका लाभ मिल रहा है।


धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेना में तब्दील है बहुजन समाज और जब तक इस हालात में बदलाव नहीं होंगे,इस देश को फासीवादी हिंदू राष्ट्र बनने से कोई रोक ही नहीं सकता।


बहुजनों को सत्ता में भागीदारी देकर सत्ता की राजनीति के सबसे बड़े मोहरे में तब्दील करने में संघ परिवार को बेमिसाल कामयाबी मिली है तो दूसरी तरफ संघ विरोधी जनपक्षधर मोर्चा अब भी बहुजनों के साथ अस्पृश्यता का आचरण कर रहा है।


संघी नस्ली रंगभेद के मुकाबले यह जनपक्षधर रंगभेद कम खतरनाक नहीं है।ऐसी हालत में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई ख्याली पुलाव के किलाफ कुछ भी नहीं है।


मजा तो यह है कि जो लोग हिंदू साम्राज्यवाद का झंडा दुनियाभर में फहराने का एजंडा अमल में ला रहे हैं,जो लोग शत प्रतिशत हिंदुत्व के लिए सोने की चिड़िया भारत के टुकड़े टुकड़े काट काटकर बहुराष्ट्रीय पूंजी के हवाले करने के लिए भारत को अमेरिका और इजरायली उपनिवेश बना रहे हैं सिर्फ मनुस्मृति राजकाज की बहाली के लिए वे अब एक घाट पर सबको पानी पिलाकर अलस्पृश्यता मोचन का नारा लगा रहे है,जिसका बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे से कुछ लेना देना नहीं है और समूचा बहुजन समाज इस फरेब में समरसता,समता और सामाजिक न्याय की तस्वीरें देख रहा है।


सबसे कटु सत्य यह कि फासीवाद का मुकाबला कर रही ताकतों का जनता के मध्य दो कौड़ी की साख नहीं है।


वातानुकूलित कमरे से बाहर फासीबाद की लड़ाई,अखबारी क्रांति और चाय की प्याली की तूफान के बाहर हिंदुत्व की सुनामी के मुकाबले,शत प्रतिशत हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले,भारत कोइस्लाम और ईसाईमुक्त करने की संघ परिवार की 2021 की टाइम लाइन के मुकाबले,आर्थिक सुधारों के बहाने नरसंहारी अश्वमेध के किलाफ,बेलगाम सांढ़ों और घोड़ों के खिलाफ हम जनता के बीच प्राथमिक संवाद तो शुरु ही नहीं कर सके हैं,जनता तक अनिवार्य सूचनाएं पहुंचाने के फौरी कार्यभार जो इस केसरिया कारपोरेट तिलिस्म को तोड़ने का सबसे अहम काम है,को फासीवाद विरोधी ताकतें सिरे से नजरअंदाज किये हुए हैं।


प्रधानमंत्री की मन की बातों की हम चाहे धज्जियां उड़ा दें,हकीकत यह है कि सरकारी बेसरकारी हर माध्यम का इस्तमाल करके संघ परिवार अपने एजंडे के पक्ष में पूरे 120 करोड़ लोगों को संबोधित कर रहा है।


कटु सत्य यह है कि संघ परिवार की पहुंच के मुकाबले में हमारी आवाज हजारों लोगों तक भी नहीं पहुंच रही है।हमें लेकिन इसका अहसास तक नहीं है।जिनतक आवाज पहुंचती भी है,वे इतने लापरवाह हैं कि वे इस आवाज में अपनी आावाज मिलाने की कोई हरकत करते नहीं हैं।


सूचना नेटवर्क पर यह एकाधिकार ही संघ परिवार को उसके संपूर्ण मास डेस्ट्राक्शन के कयामती एजंडे को अमल में लाने का पारमाणविक मुक्तबाजारी हथियार है।


सूचना नेटवर्क से बेदखली का सीधा संबंध जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता पर्यावरण,नागरिक मानवादिकारों से बेदखली से है.इसे समझते हुए हम इससे निपटने के लिए क्यों कुछ नहीं कर रहे हैं,इससे फासीवाद विरोधी मोर्चे के सरोकार पर ही सवालिये निशान लग रहे है।


इन जरुरी बातों के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक जो होने वाला है,वह फिर वहीं निराधार आधार का अंजाम है,जिसके खिलाफ चेता रहे हैं हम यह योजना पेश होते न होेते।


सिर्फ लिखकर नहीं,देश भर में दौड़ते हुए देश के कोने कोने में बहुजनों को सीधे संबोधित करते हुए।


ताजा सूचना यह है कि आधार के रास्ते अब भारत पर इजरायली कंपनियों का धावा है।इस सूचना की गंभीरत समझने वाले लोगों से विन्मर आवेदन है कि इसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाने में हमारी मदद करें।


हमारे आदरणीय मित्र गोपाल कृष्ण जी सिलसिलेवार तरीके से यह खुलासा करते रहे हैं कि असंवैधानिक आधार योजना से इंफोसिस कैसे मालामाल होता रहा है।

आईटी कंपनियों ने चांदी काटी लगातार है  और उनका ग्रोथ बाकी कारपोरेट कंपनियों के मुकाबले हैरत अंगेज है।


अभी डिजिटल,बायोमेट्रिक रोबोटिक देश बनाकर इसे इजरायली अमेरिका साझा उपनिवेश बनाकर फिर बारत विभाजन का जो आत्मघाती हिंदुत्व का एजंडा है,उससे मालामाल फिर आईटी कंपनियां होने वाली हैं।जिनमें आधार इंफोसिस अव्वल है।


मुक्तबाजार की सारी आर्थिक गतिविधियां अब स्टर्टअप और ऐपेपस के हवाले हैं।पेपरलैस इकानामी का प्रयावरण प्रेमी फंडा लेकिन आईटी मुनाफा है।


बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक सांढ़ों की दौड़ आई टी निर्भर है और  आईटी सेक्टर और प्राइवेट बैंकिंग सेक्टर बाजार को आगे लेकर जा सकते हैं। इंफोसिस, टीसीएस और विप्रो इन सभी शेयरों में अच्छा खासा कंसोलिडेशन देखने को मिला है।


कृषि को खत्म करके केसरिया कारपोरेट राष्ट्र की सर्वोच्च प्राथमिकता आईटी संबद्ध सेवा क्षेत्र हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र के सारे उपक्रमों का जो विनिवेश हो रहा है,सो तो हो ही रहा है,उत्पादन से जुड़े हुए तमाम सेक्टरों का सफाया तय है।


खास बात यह है कि जिस सूचना नेटवर्क पर एकाधिकार की वजह से पूरे एक सौ बीस करोड़ जनता हिंदू साम्राज्यवाद की नरसंहारी मुक्ताबाजारी तिलिस्म में कैद बंधुआ गुलामों में तब्दील है और उनमें मुक्ति कामी नागरिकों का कोई संप्रभू स्वतंत्र लक्षण नहीं है।


आधार परियोजना की अमेरिका और नाटो की निगरानी प्रणाली को भारत में हकीकत में बदलकर मालामाल होने वाली कंपनी वहीं सूचना नेटवर्क अब इजराइल के हवाले करने वाली है।


यह कितना खतरनाक है ,इसे यूं समझिए कि 2021 तक भारत को इस्लाम और ईसाई मुक्त बाने की टाइम लाइन तय कर चुके संघ परिवार ने पहले ही भारतीय विदेश नीति और राजनय इजराइलकेमुताबिक बना लिया है और अरब दुनिया के खिलाफ युद्ध घोषणा के तहत चौथी बार इजाराइल के प्रधानमंत्री बनने वाले प्रचंड इस्लाम और अरब विरोधी नितान्याहु की जीत पर खामोश इजराइल के सबसे बड़े साझेदार के मुकाबले नितान्याहु से मित्रता की डींग भरते हुए उन्हे सबसे पहले बधाई देने वाले भारत के प्रधानमंत्री ही रहे हैं।


यह कितना खतरनाक है ,इसे यूं समझिए कि कांग्रेस जमाने से सत्ता वर्ग के हितों के लिए सैन्यराष्ट्र बनाने के सिलसिले में सोने की चिड़िया प्राकृतिक संसाधनों की अकूत संपदा वाले भारत को मुक्तबाजार बनाने के सिलसिले में न सिर्फ इस्लाम के खिलाफ अमेरिका और इजराइल के युद्ध में भारत ब्रिटेन से बड़ा,नाटो से भी बड़ा पार्टनर बना हुआ है ,बल्कि भारत की सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा भी इजाराइल के हवाले है।


अब आधार परियोजना का सही तात्पर्य फिरभी लोग न समझें तो इस देश को फिर विभाजन और विध्वंस से कोई करिश्मा बचा नहीं सकता।


इंफोसिस ने तो सिर्फ भारतीय मुक्तबाजार का सिंहद्वार इजराइली कंपनियों के लिए खोला है,संघ परिवार का राजकाज आगे भारत में इजराइली पूंजी का जो अबाध प्रवाह सुनिश्चित करने वाला है,उसके बाद भारत ही नहीं,समूचे उपमहाद्वीप में अल्पसंंख्यकों, जिनमें भारत के बाहर फंसे हुए हिंदू भी शामिल है,की जिंदगी जो कयामत बनेन वाली है।


अब सोच लीजिये कि फासीवाद के खिलाफ आपकी लड़ाई कितनी असली है और कितनी नकली।


इसी सिलसिले में मित्र उदय प्रकाशका यह ताजा स्टेटस

दोस्तो, अभी राजधानी दिल्ली के एक महत्वपूर्ण केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया तथा जन-संचार माध्यम के छात्रों की कार्यशाला के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करने के बाद लौटा हूँ और पत्नी ने ब्राह्मणवादी, संघी तथा देशद्रोही उग्र-जातिवादियों द्वारा फ़ेसबुक पर अभद्र टिप्पणियों के बारे में सूचना दी।

दो-चार टिप्पणियाँ सरसरी तौर पर देख कर जातिवादी ब्राह्मणवादियों से एक बहुत अनिवार्य और सरल प्रश्न पूछ रहा हूँ।

यह 'वृहत्तर भारतीय समाज' की वास्तविक बनावट को समझने के लिए, प्राथमिक पाठशाला (प्राइमरी स्कूल) के पहले पाठ का पहला प्रश्न है।

इसका उत्तर वे लंपट, देशद्रोही, राष्ट्रघाती, जातिवादी अवश्य दें, जो फ़ेसबुक को अपनी मानसिक विकृतियों से पाट कर, प्रदूषित कर रहे हैं।

प्रश्न यह है कि इस देश की संपूर्ण सवा सौ करोड़ की जनसंख्या में 'ब्राह्मण' कितने हैं? और ब्राह्मण है कौन ?

मनुस्मृति में ब्राह्मण जाति को परिभाषित किया गया है।

त्रिं संध्या न पूजते, त्रिं संध्या न उपासते,

जीविन्नेवभवेच्छूद्रो, मृतको श्वान उपजायते ।

यानी जो 'ब्राह्मण' दिन में तीन बार 'संध्या-पूजन' और उपासना नहीं करता, (इसमें हर बार लगभग एक घंटा लगता है), वह जीवित रहते हुए 'शूद्र' होता है और मरने पर श्वान (कुत्ते) के रूप में जन्म लेता है।

अगर कोई 'ब्राह्मण' हो तो प्रस्तुत हो।

वरना जो निंदनीय भाषा में देश को जाति और संप्रदाय की पारस्परिक नफ़रत और हिंसा की आग में झोंक रहे हैं, वे किसी मानवीय प्रजाति के हैं नहीं।

श्वान भी इन जैसों से श्रेष्ठ इसलिए है कि धर्मराज के साथ स्वर्ग वही गया था।

ये तो दोज़ख़ या नर्क के नराधम शैतान और सर्वभक्षी दैत्य हैं।

भारत की जनता और उसकी महान विरासत को इनकी करतूतों से बचाना है।

एक स्टेटस यह भी गौरतलब हैः


आई.के यादव

खेतों में लहलहाती फसलों की तबाही को लेकर भारत के किसान जंहा एक तरफ दर दिन आत्म हत्याये कर रहे है।वही मोदीजी मन की बात करके दिलाशा बांटते फिर रहे है,जब देश के किसान ही ख़त्म हो जायेंगे तो देश की जनता क्या विदेशी पिज्जा और बर्गर खाकर दिन बिताएगी।बीते दिन मोदीजी ने जब किसानों से मन की बात की तो उनकी मन की बात सुनकर ४ किसानों ने फांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। गैर देशों के लिए मोदीजी ने जमकर धन उड़ाये मोदीजी ने भूटान को 4500 करोड़,नेपाल को 10000 करोड़,अदानी को 70 मिलियन डॉलर लोन बाटें,खुद को 10 लाख का शूट बांटे और देश के मरते किसानों को मोदीजी सिर्फ मन की बाते बाटते फिर रहे है,आख़िरकार सत्ता हाशिल करनें के बाद मोदी जी को देश के किसानों की आत्म हत्याओं के बारे में पता नहीं की इसकी सूचना उन तक कोई पहुंचाता नहीं है।वैसे वर्तमान में सच्चाई तो यही बयां कर रही है की मोदी जी का मन आज कल विदेशी दौरों में ज्यादा लग रहा है ...

!! ॐ !! आई.के यादव

'खेतों में लहलहाती फसलों की तबाही को लेकर भारत के किसान जंहा एक तरफ दर दिन आत्म हत्याये कर रहे है।वही मोदीजी मन की बात करके दिलाशा बांटते फिर रहे है,जब देश के किसान ही ख़त्म हो जायेंगे तो देश की जनता क्या विदेशी पिज्जा और बर्गर खाकर दिन बिताएगी।बीते दिन मोदीजी ने जब किसानों से मन की बात की तो उनकी मन की बात सुनकर ४ किसानों ने फांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। गैर देशों के लिए मोदीजी ने जमकर धन उड़ाये मोदीजी ने भूटान को 4500 करोड़,नेपाल को 10000 करोड़,अदानी को 70 मिलियन डॉलर लोन बाटें,खुद को 10 लाख का शूट बांटे और देश के मरते किसानों को मोदीजी सिर्फ मन की बाते बाटते फिर रहे है,आख़िरकार सत्ता हाशिल करनें के बाद मोदी जी को देश के किसानों की आत्म हत्याओं के बारे में पता नहीं की इसकी सूचना उन तक कोई पहुंचाता नहीं है।वैसे वर्तमान में सच्चाई तो यही बयां कर रही है की मोदी जी का मन आज कल विदेशी दौरों में ज्यादा लग रहा है ...    !! ॐ !! आई.के यादव'




मजे की बात है कि भारतीय भाषाओं में यह सूचना कहीं दर्ज नहीं है।

इसलिए हम इकानामिक टाइम्स को उद्धृत कर रहे हैंः


To set aside $125m for Silicon Valley, Israel & India Cos

Infosys plans to allocate a quarter of its $500-million fund to invest in startups in Silicon Valley , Israel and India along with venture capital firms.

India's second-largest software services exporter has had discussions with about two dozen VC firms for such investments, including Andreessen Horowitz, two people familiar with Infosys' strategy said, both re questing anonymity . questing anonymity .

"There are no formal agreements with any particular VCs. The strategy is to back startups and entrepreneurs with ideas that align with the company ," one of them said. "The idea is not just to be a passive financial investor but take disruptive solutions to customers."

Infosys chief executive Vishal Sikka is seeking to broaden the company's offerings in newer areas of technology to differentiate it from rivals such as Cognizant and Wipro amid a rapidly evolving technology landscape.

The company made its first startup in vestment last month, sinking about $15 million in a firm spun off from DreamWorks Animation. Shortly after, Infosys bought US and Israel-based automation startup Panaya in a deal estimated to be about $200 million (Rs 1,200 crore).

Infosys is not the only Indian technology firm to have set up a separate arm or fund to invest in startups. Last year, crosstown rival Wipro set up a corporate venture arm with a corpus of $100 million to invest in startups. In an interview with ET in February , Sikka said Infosys was holding discussions with venture capital firms almost daily .


Rs 1,000000000000 Cr in the Basket this Year







The Indian digital commerce market has registered an average growth of almost 35% since 2010, according to IAMAI. The industry is projected to grow further at a rate of 33% and cross `1 lakh crores by the end of 2015


http://epaperbeta.timesofindia.com/index.aspx?eid=31817&dt=20150323


अल्पसंख्यकों पर हमले के बाद बयानबाज़ी में भारत और पाकिस्तान एक जैसे. वुसतुल्लाह ख़ान का ब्लॉग.

http://bbc.in/1G23KXe

'अल्पसंख्यकों पर हमले के बाद बयानबाज़ी में भारत और पाकिस्तान एक जैसे. वुसतुल्लाह ख़ान का ब्लॉग.  http://bbc.in/1G23KXe'

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राजनाथ का सवाल, सेवा के लिए धर्मांतरण क्यों?

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फ्रांस, जर्मनी, इटली और चीन समेत छह देशों की प्रतिष्ठित कंपनियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम...

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"I believe the government at the Centre is run by RSS. It is an RSS government. You are confused, I am not confused at all,"

Centre is run by RSS: Teesta Setalvad | Latest News & Updates at Daily News & Analysis

Centre is run by RSS: Teesta Setalvad - Stressing that a process has been on since then, she said each time this government came to power, their agenda was...

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हाशिमपुरा नरसंहार - सीआईडी की लचर तफ्तीश से हुए अभियुक्त बरी – बोले...

हाशिमपुरा नरसंहार में मारे गए 42 लोगों के मामले में अदालत ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। यह सीआईडी की लचर तफ्तीश का बड़ा उदाहरण है। यह टिप्पणी...

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हाशिमपुरा बोलता है-9

बहुत हुआ मुसलमानों का तुष्टीकरण. कितने दिनों तक एक ही समुदाय का तुष्टीकरण होता रहेगा? अब बाकी समुदायों का भी तुष्टीकरण होना चाहिए.

करवाना है आपको अपना तुष्टीकरण? तो लग जाइए लाइन में.

भारत में दो तरह के लोग रहते हैं. एक जिनका तुष्टीकरण हो रहा है. दूसरे, जिनका तुष्टीकरण नहीं हो पा रहा है. ये तस्वीरें पहली कटेगरी के लोगों की है जिनका यहां तुष्टीकरण किया जा रहा है.

कितने अभागे हैं वे जिनका तुष्टीकरण नहीं हो पा रहा है!

On Bhagat Singh's death anniversary, revisiting his seminal essay: 'Why I am an atheist'

'It is necessary for every person who stands for progress to criticise every tenet of old beliefs,' wrote the 23-years-old revolutionary.

SCROLL.IN|BY BHAGAT SINGH


नौजवान भारत सभा's photo.

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नौजवान भारत सभा द्वारा इलाहाबाद के छोटा बघाड़ा में भगत सिंह; राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर सुबह सुबह क्रांतिकारी गीत गाते हुए प्रभात फेरी निकाली गई और प्रयाग स्टेशन पर नुक्कड़ सभा की गई |



Satya Narayan

16 hrs· Mumbai·

भाजपा और संघी गिरोह के संगठनों ने भगतसिंह का नाम लेना तो तभी बन्द कर दिया था जब भगतसिंह के विचार लोगों के बीच प्रचारित होने लगे और यह साफ़ हो गया कि वे मज़दूर क्रान्ति और कम्युनिज़्म के विचारों को मानते थे और साम्प्रदायिकता तथा धर्मान्धता के कट्टर विरोधी थे। लेकिन जनता के बीच भगतसिंह की बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने के लिए इन फासिस्टों ने भगतसिंह को भी अपने झूठों और कुत्सा-प्रचार का शिकार बनाने की घटिया चालें चलनी शुरू कर दी हैं। इतिहास के प्रमाणित तथ्यों और दस्तावेज़ों को धता बताते हुए वे प्रचारित करते हैं कि भगतसिंह के नाम से मज़दूर क्रान्ति और समाजवाद के बारे में जो लेख और बयान छपते रहे हैं वे वास्तव में उनके हैं ही नहीं। कुछ वर्ष पहले संघ के भोंपू 'आर्गनाइज़र'और 'पाँचजन्य'का एक विशेष अंक इसी पर निकाला गया था जिसमें साबित करने की कोशिश की गयी थी कि भगतसिंह केवल एक राष्ट्रवादी थे और क्रान्ति के बारे में उनके जो भी विचार सामने आये हैं वह दरअसल कुछ वामपन्थी संगठनों और बुद्धिजीवियों की साज़िश है। पिछले करीब दो दशक से बड़े पैमाने पर भगतसिंह के साहित्य को प्रकाशित करके जन-जन तक पहुँचाने की कोशिश में लगे 'राहुल फ़ाउण्डेशन और 'जनचेतना'को नाम लेकर इसके कई लेखों में निशाना बनाया गया था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने मेरठ, मथुरा और दिल्ली सहित कई जगहों पर 'जनचेतना'की पुस्तक प्रदर्शनियों पर हमले भी किये और भगतसिंह की पुस्तिका 'मैं नास्तिक क्यों हूँ'को फाड़ने की भी कोशिश की। यह अलग बात है कि हर जगह तगड़ा प्रतिरोध होते ही वे कायरों की तरह भाग खड़े हुए।

पिछले 67 वर्षों से भगतसिंह के सपनों की हत्या करने में लगे कांग्रेसी भी आज मजबूरी में उनके नाम को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी सरकारों ने 1947 के बाद से ही भगतसिंह और उनके साथियों के क्रान्तिकारी विचारों को दबाने की साज़िशें कीं और आज़ादी की लड़ाई में उनके महान योगदान को छोटा करके पेश किया। इन विचारों को वे अपने लिए भी उतना ही ख़तरनाक मानते थे जितना अंग्रेज़ सरकार मानती थी। भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्डे तले गाँधीजी ने व्यापक जनता के एक बड़े हिस्से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी करती है और उन्होंने लोगों को चेतावनी दी थी कि कांग्रेस की लड़ाई का अन्त किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। भगतसिंह ने साफ़-साफ़ कहा था गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ों के गद्दी पर बैठ जाने से इस देश के मेहनतकशों को कुछ नहीं मिलेगा।

इनकी हरचन्द कोशिशों के बावजूद भगतसिंह के विचार देशभर में फैलते ही गये हैं और आधी-अधूरी आज़ादी की सच्चाई लोगों के सामने आने के साथ ही क्रान्तिकारियों की पुकार उनके दिलों में और पुरज़ोर ढंग से गूँजने लगी है। ऐसे में अब तरह-तरह के पाखण्डी, मक्कार और चुनावी मदारी भगतसिंह के नाम और छवि का इस्तेमाल करने की निर्लज्ज हरकतें करते दिखायी दे रहे हैं। पिछले दिनों चुनावी अखाड़े के नये जोकर अरविन्द केजरीवाल को एक टीवी चैनल पर बड़ी बेशर्मी से भगतसिंह की फोटो का इस्तेमाल कर अपनेआप को "क्रान्तिकारी"दिखाने की कवायद करते पकड़ा गया था। अन्ना हज़ारे, रामदेव और जनरल वी.के. सिंह जैसे धुर दक्षिणपंथियों से लेकर सुब्रत राय जैसे अपराधी भी भगतसिंह की फोटो अपने मंच पर टाँगने की हिमाक़त करने लगे हैं।

अब बहुत हो चुका! हमारे नायक को हमसे चुराने की इन गन्दी कोशिशों को नाकाम करने का एक ही तरीक़ा है, कि हम भगतसिंह के इंक़लाबी विचारों को पूरी ताक़त के साथ जनता के बीच लेकर जायें और उनके सपनों का हिन्दुस्तान बनाने की लड़ाई को आगे बढ़ाने में जी-जान से जुट जायें। हमें भगतसिंह के इन शब्दों को हर मज़दूर और हर नौजवान तक पहुँचाना होगाः

http://www.mazdoorbigul.net/archives/5083

मज़दूरों-मेहनतकशों के नायक को चुराने की बेशर्म कोशिशों में लगे धार्मिक फासिस्ट और चुनावी मद

जिस वक़्त भगतसिंह और उनके साथी हँसते-हँसते मौत को गले लगा रहे थे, ठीक उस समय, 15-24 मार्च 1931 के बीच संघ के संस्थापकों में से एक बी.एस. मुंजे इटली की राजधानी रोम में मुसोलिनी और दूसरे फासिस्ट नेताओं से मिलकर भारत में उग्र हिन्दू फासिस्ट संगठन का ढाँचा खड़ा करने के गुर सीख रहे थे। जब शहीदों की क़ुर्ब…

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प्रधानमंत्री Narendra Modiके स्वच्छ भारत अभियान के लिए किन लोगों ने दिया है इतना बड़ा दान, फोटो पर क्लिक करके जानें...

पीएम मोदी के प्रॉजेक्ट्स को कॉर्पोरेट का 1,000 करोड़ दान

पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के प्रति भारत के उद्योग जगत ने काफी दरियादिली दिखाई है...

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Jai Narain Budhwar and 6 others shared Yogendra Yadav's post.

Yogendra Yadav's photo.

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"Got threat calls from Canada, I was told that I will be killed in the same way as Godse assassinated Gandhiji," said Anna Hazare

What should he do next?

Received threat calls saying I'll be killed like Gandhi: Anna Hazare | Latest News & Updates at...

Received threat calls saying I'll be killed like Gandhi: Anna Hazare - Social activist Anna Hazare on Monday claimed to have received life threatening calls from an...

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गतसिंह, राजगुरु, सुखदेव और कवि अवतार सिंह पाश की शहादत को सलाम करते हुए.

क्रांति जनता के लिए होगी. कुछ स्पष्ट निर्देश यह होंगे- 1. सामंतवाद की समाप्ति 2. किसानों के कर्जे समाप्त करना 3. क्रांतिकारी राज्य की ओर से भूमि का राष्ट्रीयकरण ताकि सुधरी हुई व साझी खेती स्थापित की जा सके। 4. रहने के लिए आवास की गारंटी 5. किसानों से लिए जाने वाले सभी खर्च बंद करना. सिर्फ इकहरा भूमिकर लिया जाएगा। 6. कारखानों का राष्ट्रीयकरण और देश में कारखाने लगाना 7. आम शिक्षा 8. काम करने के घंटे जरूरत के अनुसार कम करना। (क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा-भगतसिंह )

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते

जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियाँ हैं,

जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे

सोटियों के निशान हैं,

जिस तरह कर्ज़ के काग़ज़ों में

हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है

हम ज़िन्दगी, बराबरी या कुछ भी और

इसी तरह सचमुच का चाहते हैं

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते

और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं

ज़िन्दगी, समाजवाद, या कुछ भी और..- पाश

Sudhir Suman's photo.

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अन्ना हजारे ने कहा कि जो जैसा चश्मा पहनेंगे उन्हें सब कुछ वैसा ही दिखेगा। उन्होंने कहा कि किसानों के सामने जो विधेयक पेश किया जा रहा है...

फोटो पर क्लिक कर पढ़ें पूरी खबर...

अन्ना का पीएम मोदी पर ताना

अन्ना हजारे ने नरेंद्र मोदी पर इशारों ही इशारों में ताना मारा। उन्होंने कहा कि जैसा चश्मा...

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ट्विटर पर उड़ा 'मन की बात' का मजाक

रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में देश के किसानों और गांवों...

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मन की बात या मन मुताबिक़ बात?

प्रधानसेवक जी, आज आपने किसानों से अपनी मन की बात की। मैं तो बस इसी उम्मीद में था कि आपके मन की ब...

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Last week, the Coal Ministry confirmed that the Mahan coal block WILL NOT be auctioned! That's more than 400,000 trees and livelihoods of more than 50,000 people saved!

'Mahan is SAVED! This calls for a celebration! JOIN by SHARING your messages of support or happiness!    Last week, the Coal Ministry confirmed that the Mahan coal block WILL NOT be auctioned! That's more than 400,000 trees and livelihoods of more than 50,000 people saved!     Over the years, lakhs of you have stood up for Mahan. Share your joy for India's forests!'

Shahnawaz Malik's photo.

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भगत सिंह की शहादत पर डीयू में कल्चरल प्रोग्राम कर रहे क्रांतिकारी युवा संगठन के कार्यकर्ताओं की एबीवीपी ने पिटाई की है।

Heavy snowfall in Badrinath after 31 years

http://indiatoday.intoday.in/…/snowfall-in-bad…/1/14438.html

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SEBI replacing RBI means complete privatization of Indian Economy and mass destruction resultant. It literally means making in India a jointly owned periphery of United States of America and Israel as well. As it would reduce the financial management to sensex,nifty and IFSC skipping Indian Economy and excluding Indian people. On the other hand,Digital India the RSS gamechanger means complete destruction of green rural agrarian India and replacing it with Biometric Robotic India of smart and super smart cities to be inhibited by cloned citizens deprived of citizenship. Palash Biswas

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SEBI replacing RBI means complete privatization of Indian Economy and mass destruction resultant.


It literally means making in India a jointly owned periphery of United States of America and Israel as well. As it would reduce the financial management to sensex,nifty and IFSC skipping Indian Economy and excluding Indian people.



On the other hand,Digital India the RSS gamechanger means complete destruction of green rural agrarian India and replacing it with  Biometric  Robotic India of smart and super smart cities to be  inhibited by cloned citizens deprived of citizenship.



Palash Biswas


Paving the way for creation of India's first International Financial Services Centre in Gujarat's GIFT City, regulator Sebi approved a relaxed set of norms for setting up of stock exchanges and other capital market infrastructure in such centres.


The impact is greater,Jor kaa Jhatka Dhire se lage! Ambedkar is responsible for the constitution of Reserve Bank of India,but the Bahujan Samaj,the majority demography which in its saffron avatar ensured necessary mandate for second phase of economic ethnic cleansing upgrading the exclusion default,blinded with identity politics packed with passionate self destruction, would never realise as it has neither interest nor understanding of this economic transition.


But most amusing part of the irony is that those who are believed to understand the finance and economy better than anyone else and those who have to bear the burns most,the officers and employees of Public Sector Banks already selected to be disinvested making them holding companies,seem to be quite unaware as RESEVE BANK OF India is being dismantled as the Planning commision has been.


The signs are more omnipotent as to deepen markets and help raise funds for business and infrastructure projects, Sebi today announced a slew of measures including for listing of municipal bonds and for setting up of a global financial hub within India on the lines of Singapore and Dubai.


It is a perfect cricket world cup carnival in Indian Economics.


Billions of dollars on stake has already doctored the pitches to get the fixed results on which corporate companies around the world have invested to get the vital breakthrough in the greatest Emerging market that our nation is reduced to.


I am not writing on Cricket and I mean the financial management of the nation which has the greatest impact on our day today life.


SEBI replacing RBI means complete privatization of Indian Economy and mass destruction resultant.


Mind you,markets regulator Sebi said as earlier as on 21st March.

The new guidelines for setting up the country's first International Financial Services Centre (IFSC) in Gujarat's GIFT City will be put in place this month.


"GIFT has been announced in the Budget and the timeframe has also been given, effective April 1. We are in constant touch with RBI," Sebi Chairman U K Sinha said here today.


"RBI and Sebi will come out with formulations before April 1," he added.

Finance Minister Arun Jaitley had announced in the Budget last month that India's first IFSC would be set up in GIFT City in Gujarat.


What happened?


Next day after this statement, SEBI declared the norms for IFSC and ARUN Jaitley sidelined Reserve Bank of India.


It literally means making in India a jointly owned periphery of United States of America and Israel as well. As it would reduce the financial management to sensex,nifty and IFSC skipping Indian Economy and excluding Indian people.


On the other hand,Digital India the RSS gamechanger means complete destruction of green rural agrarian India and replacing it with  Biometric  Robotic India of smart and super smart cities to be  inhibited by cloned citizens deprived of citizenship.


Just remember,Arun Jaitley, the man selected by the ruling hegemony of Hindu Imperialism aligned with global order, announced that the regulations for setting up International Financial Services Centre (IFSC) in GIFT city in Gujarat will be out in March and almost three weeks after,the board of Securities and Exchange Board of India (Sebi) on Sunday approved the IFSC guidelines, 2015 that allows Indian as well as foreign stock exchanges, clearing corporations and depositories to set up subsidiaries to undertake their business in IFSC.


Under the IFSC guidelines that will regulate financial services relating to securities market in an International Financial Services Centre, Sebi relaxed the shareholding and net worth requirement norms for intermediaries setting up their subsidiaries.


Stating that the new IFSC Guidelines, 2015 would help create vibrant capital market activity in such centres, Sebi chairman UK Sinha said, "Stock exchanges and clearing corporations would be provided concessions for setting up ventures in the IFSC. All existing exchanges would be allowed to set up their subsidiaries in the IFSC under the relaxed regimes."


Thus,the Finance Minister has rolled the ball and SEBI is his option replacing Reserve Bank Of India.


The markets regulator also made it easier for banks to acquire control in distressed listed companies, by converting their debt into equity, while it tightened the noose on entities indulging in market manipulation and insider trading by selective leak of information at the cost of investors.


Besides, Sebi also announced a roadmap for the new fiscal, beginning next month, with regard to new norms to help young entrepreneurs raise funds through listing of start-ups and crowd-sourcing, while it would streamline and strengthen its enforcement process for better efficiency.


Proposing a new avatar by adopting latest technologies, Sebi said it will tap social media in a big way to reach out to the investors and make it easier for them through measures like e-IPO and Aadhar-based e-KYC initiatives.


Sebi also pitched for allowing pension money into capital markets and creating an enabling environment for REITs (Real Estate Investment Trusts) to flourish, after Finance Minister Arun Jaitley addressed the board members and top officials of the regulatory authority in his post-Budget meeting with them.


Jaitley also reviewed the state of economy and the capital markets and explained his Budget proposals. He discussed the capacity building and other infrastructure needs for merger of commodities regulator FMC with Sebi to create a unified markets regulator.

To safeguard interest of investors, Sebi Chairman U K Sinha said listed companies would need to disclose their board decisions within 30 minutes, while all other 'material information' would need to be made public within 24 hours, failing which they would face strict penal action.

Tightening its corporate disclosure norms, Sebi said such disclosures would need to be made "as soon as reasonably practicable", but not later than the given time limit.


The information, including about material events, would need to be mandatorily disclosed through stock exchange platforms for the benefit of investors, while the companies would have to provide "specific and adequate reply" to queries with respect to rumours and media reports.


The new disclosure requirements are aimed at checking a widespread practice among the Indian companies of selectively leaking the information, including through media and without informing the investors first, for personal gains by promoters and management by way of inflating the valuations in the stock market and before merger and acquisition deals.


In a draft paper last year, Sebi had proposed a 15-minute time limit for announcement of board decisions, but has now decided to keep it at 30 minutes. There is no such specific limit in the existing regulations.


Sinha said that the regulator is strictly monitoring the compliance of disclosure or listing guidelines, which are now being converted into regulations for better compliance.


Paving the way for creation of India's first IFSC (International Financial Services Centre) in Gujarat's GIFT City, Sebi also approved a relaxed set of norms for setting up of stock exchanges and other capital market infrastructure in such centres.


The game-changing regulations are aimed at creating a vibrant IFSC within India on the lines of Dubai and Singapore and help check the flight of trading in rupee and Indian securities to such offshore financial hubs.

The move would allow companies incorporated outside India to raise money in foreign currencies by issuance and listing of their equity shares on the stock exchanges within the IFSC, where individual and institutional investors from India and abroad, including NRIs, would be allowed to trade.


The IFSC regulatory regime would allow the Indian and foreign stock exchanges to set up separate bourses within the IFSC as subsidiaries, while market entities from India and abroad would be allowed to operate there by providing issuance and trading in depository receipts and debt securities of domestic as well as overseas companies.


The capital and other requirements have been relaxed for some time for the exchanges, clearing corporations and depositories to set shop in the IFSC.


Jaitley was accompanied by Minister of State for Finance Jayant Sinha during his interaction with Sebi's board and other senior officials of the markets regulator.


Besides Chairman Sinha, Sebi's 8-member Board includes three Whole Time Members (Prashant Saran, Rajeev Agarwal and S Raman), an independent director and nominees of Finance Ministry, Corporate Affairs Ministry and RBI.


Mutual funds and Alternative Investment Funds set up in the IFSC can also invest in the securities listed there.

To help banks deal with the problem of non-performing assets, Sebi relaxed norms for them to convert their debt into equity in such defaulting companies — a move that may lead to a sharp surge in restructuring of bank loans.


The total non-performing assets of public sector banks alone stand at nearly Rs 3 lakh crore, while top 30 defaulters are sitting on bad loans worth Rs 95,122 crore as on December 2014. In the past, banks have converted bad debt into equity in a few cases like Kingfisher but the conversion has been mostly difficult including due to regulatory and legal issues.


For municipal bonds, Sebi approved a new set of norms for issuance and listing of such securities on stock exchanges.

These bonds can be issued by the municipal authorities to the public and institutional investors, including sovereign wealth funds and pension funds from abroad, and help raise funds for urban development and smart cities project of the government, Sinha said.

The guidelines for issuance and listing of these securities, which are very popular in the US and other Western markets and are commonly known as Muni Bonds, were approved by Sebi's board today and the final norms would be notified in the next 6-8 weeks.

The new norms would come with adequate safeguards and would provide for disclosure requirements to be made by the prospective issuers.

In the US, muni bonds have attracted investments totalling over USD 500 billion and are among preferred avenues for household savings.


While such bonds have been issued by various municipal authorities in the country, the total funds raised through them stand at only about Rs 1,353 crore.


The Bangalore Municipal Corporation was the first municipal corporation to issue a municipal bond of Rs 125 crore with a state guarantee in 1997.


However, the access to capital market commenced in January 1998, when the Ahmedabad Municipal Corporation (AMC) issued the first municipal bonds in the country without state government guarantee for financing infrastructure projects in the city. AMC raised Rs 100 crore through its public issue.


Among others, Hyderabad, Nashik, Visakhapatnam, Chennai and Nagpur municipal authorities have issued such bonds. However, there were provisions as yet for listing and subsequent trading of muni bonds on stock exchanges in India.


Making it easier for domestic funds to manage offshore pooled assets, Sebi today relaxed its norms by dropping the '20-25 rule', which required a minimum of 20 investors and a cap of 25 per cent on investment by an individual, for funds from low-risk foreign investors.

The BSE Brokers Forum said that Sebi's initiative to use technology for easing the investment process and facilitate the investor education process using social media was a welcome move.

Terming the usage of technology for investments as a step in the right direction, BSE Brokers Forum's Vice Chairman Alok Churiwala said,

"These initiatives will go a long way in increasing the bandwidth of capital market in sync with the government of India's plan of Digital India to build a robust, safe and vibrant investment culture across the country."

On the impending FMC merger with Sebi, he said it will aid in swift recovery of the investors wealth engrossed in the NSEL scam in the most amicable way without any element of vengeance, keeping the larger interest of the investment cult in the economy.



Stock exchanges and clearing corporations would be provided concessions for setting up ventures in the IFSC. All existing exchanges would be allowed to set up their subsidiaries in the IFSC under the relaxed regimes," its chairman U.K. Sinha said after a meeting of the Sebi board.

The BSE and NSE have already signed MoUs for setting up international exchanges at Gujarat International Finance Tec-City (GIFT City) in the state capital Gandhinagar.

Under the new regime, rules and regulations differ and are more relaxed from those applicable outside the IFSCs.

The move is expected to generate an estimated Rs.1,334 crore per day -- or Rs.200,000 crore per year -- worth of trading in rupee derivatives that currently goes to exchanges outside India.

GIFT City chief execitive Ramakant Jha said the new guidelines would provide a much-needed fillip to the new IFSC regime and would save billions of dollars worth financial services business that India is losing out to other global hubs.

Bypassing Resreve Bank of India and backed by the RSS Finance Minister of Global order for India,Nr,Jaitley,India's capital market regulator the Securities and Exchange Board of India (SEBI) has relaxed norms for conversion of debt of listed companies into equity by banks and financial institutions in a meeting on Sunday.

Although banks were already allowed to convert such debt into equity, they were constrained by the pricing which required the conversion to take place at market prices. The guidelines issued by SEBI pointed to use of a fair-price mechanism in valuation of debt altering the current rules. The move would help the banks to reach a price so that the value doesn't go below the face value for restructured debt of distressed firms.

In the board meeting, SEBI approved the proposal, prepared in consultation with banking regulator RBI, to relax the applicability of certain provisions of the SEBI (Issue of Capital and Disclosure Requirements) Regulations, 2009 and the SEBI (Substantial Acquisition of Shares and Takeovers) Regulations, 2011 in cases of conversion of debt into equity of listed borrower companies in distress by the lending institutions.

"Such relaxation in terms of pricing   will be subject to the allotment price being as per a fair price formula prescribed and not being less than the face value of shares… Other requirements would be available if conversions are undertaken as part of the proposed Strategic Debt Restructuring (SDR) scheme of RBI," it said.

According to SEBI, this is intended to revive such listed companies and provide more flexibility to the lending institutions to acquire control over the company in the process of restructuring.

The profits of Indian banks have suffered as bad loans have increased with weak economic growth in the recent past. As per data released by the RBI, the gross

non-performing assets (NPAs) of the PSU banks in particular were Rs 2,60,531 crore as on December 31, 2014.

Disclosure norms

SEBI has also tightened the disclosure norms requiring listed firms to make the disclosure of all events/information, first to stock exchange(s), as soon as reasonably practicable and not later than 24 hours of occurrence of event/information.

It has added that disclosure of outcome of board meetings shall be made within 30 minutes of the closure of the meeting.

The regulator said the listed entities shall disclose on its website all events/information which is material and such information shall be hosted for a minimum period of five years and thereafter as per the archival policy of the listed entity, as disclosed on its website.

It has also asked listed firms to disclose all events or information with respect to subsidiaries which are material for the listed parent.

SEBI also set some working guidelines on identifying if a development is 'material' and added that it will specify an indicative list of information which may be disclosed upon occurrence of an event.

Framework for GIFT

SEBI also gave approval for implementation of SEBI (International Financial Service Centre) Guidelines, 2015 after the government's announcement of Gujarat International Finance Tec-City (GIFT) in the Budget presented last month. "These guidelines facilitate and regulate financial services relating to securities market in an International Financial Services Centre (IFSC) set up under Section 18(1) of Special Economic Zones Act, 2005 and matters connected therewith or incidental thereto," SEBI said.

The new norms are expected to open up the market for foreign stock exchanges, clearing corporations and depositories to set up subsidiaries within the IFSC space subject to certain relaxed norms on shareholding and net worth.

The SEBI also laid down rules for mutual funds and Alternative Investment Funds to invest in securities listed in IFSC, securities issued by companies incorporated in IFSC and securities issued by foreign issuers.


शारदा फर्जीवाड़े मामले में अब सन्नाटा क्यों है?

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शारदा फर्जीवाड़े मामले में अब सन्नाटा क्यों है?

भरे हाट में हड़िया तोड़ दी है और मजा यह कि बंगाल से ही संसदीय सहमति का राज खुलने लगा है।



एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

शारदा फर्जीवाड़े मामले में अब सन्नाटा क्यों है?


शारदा फर्जीवाड़े मामले में मोदी दीदी मुलाकात के बाद सीबीआई की कोई खबर बनी नहीं है और न एकोबार संघ परिवार ने फिर इस मामले में दीदी को घेरा है।


नतीजजतन भाजपा के मैदान दीदी के हक में खुल्ला छोड़ने की हालत में कोलकाता नगर निगम और पालिका चुनावों में फिर दीदी की भारी जीत और वामदलों की एक और हार का पक्का समीकरण तय है।


अब सीबीआई के मैदान में उतरने से पहले जो हो रहा था,नये सिरे से फिर वही सिलसिला दोहराया जा रहा है।


सीबीआई हरकत में नहीं है और अचानक ईडी की ओर से जिस तिस को नोटिस जारी किया जा रहा है पेशियों के लिए।


जैसे पहले चूंचूं का मुरब्बा हासिल हुआ जनता को,फिर वहीं चूंचूं का मुरब्बा तैयार है।


भरे हाट में हड़िया तोड़ दी है और मजा यह कि बंगाल से ही संसदीय सहमति का राज खुलने लगा है।


थोड़ा मीडिया में रोज सनसनीखेज तरीके से पैदा किये जा रहे फर्जी मुद्दों,फर्जी विकल्पों,फर्जी जनांदोलन और फर्जी सत्याग्रह के मूसलाधार के मध्य ध्यान दीजिये कि संसद के बजट सत्र में राज्यसभा में तमाम बिल पास होने से पहले नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई मोदी और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुलाकात के बाद दोनों तरफ से वोट बैंक के धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण मकसद से एक दूसरे के खिलाफ गोलंदाजी कैसे यक ब यक बंद हो गयी।


थोड़ा और गौर करें कि इस मुलाकात के पहले बंगाल में शारदा फर्जीवाड़ मामले में रोज मीडिया को नयी नयी जानकारियां देने वाली,रोज नये नये चेहरों के कठघरे में खड़ा करने वाली,रोज रोज नोटिस और दिरह और गिरफ्तारी के माऱ्फत कोलकातिया अखबारों की तमाम सुर्खियां बटोरने वाली सीबीआई की किसी हरकत के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है।


सीबीआई दफ्तर में सन्नाटा है तो संघ परिवार अब भूलकर भी दीदी को कटघरे में खड़ा नहीं कर रही है।


बंग विजय की जयडंका बजाने वाले अमित शाह जैसे बंगाल को सिरे से भूल गये हैं बंगाल के केसरिया कायाकल्प हो जाने के बावजूद।


कोलकाता नगर निगम और पालिका चुनाव को अगले विधानसभा चुनावों को जीतने की तैयारी के तहत अमित शाह और प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार अभियान का बंगाल के भाजपा नेता जो जोर शोर से प्रचार कर रहे थे,उसके उलट ऐसा लग रहा है कि कोलकाता नगर निगम और पालिकाओं के चुनाव में भाजपा सिर्फ रस्म अदायगी के लिए लड़ रही है।वह भी वाम के सफाये में तृममूल के मददगार के बतौर।


न प्रत्याशियों की सूची से जनाधार मजबूत करने की कोई गरज नजरआ रही है और न महीने भर पहले जो तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ युद्ध घोषणा थी भाजपी की,जो राहुल सिन्हा और सिद्धार्थ सिंह के जुबान पर हर सेकंड शारदा फर्जीवाड़ा मुख्य मुद्दा था,वह ऐन चुनाव के वक्त सिरे से गायब है।


इस बीच न हालात बदले हैं और न राजनीति समीकरण।


वामपक्ष का पहले ही सफाया हो गया है और उसमें वापसी की गरज दीख नहीं रही है।


ऐसे माहौल में तृणमूल के खिलाफ अचानक अपना बेहद आक्रामक रवैया छोड़ने का भाजपा का यह फैसला मोदी और दीदी की वामपक्ष को हाशिये पर धकेलने के लिए धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की साझा रणनीति का खुलासा ही करता है।


मुसलमान वोट बैंक और तथाकथित हिंदुत्व वोट बैंक की आस्था और भावनाओं से देश भर में जो खिलवाड़ कारपोरेट रंगबिरंगी राजनीति कर रही है,उसे समझने के लिए शारदा फर्जीवाड़े मामले के अचानक सुर्खियों से बाहर हो जाने का किस्सा दिलचस्प केस स्टडी है।


गौरतलब है कि मोदी से दीदी की मुलाकात को राज्य के हित में कर्जमाफी के लिए मुलाकात कहा गया।जबकि इस मुलाकात से फायदा सिर्फ संघ परिवार को हुआ है कि राज्यसभा में सारे आर्थिक सुधार पास हो गये।


फायदा सिर्फ ममता बनर्जी को हुआ जो संघ परिवार की रणनीति के तहत और अपराजेय हो गयी।

सबसे ज्यादा नुकासान वाम को हुआ जो इस धर्मोन्मादी चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता बना ही नहीं पा रहा है।


वैचारिक विचलन का यह चरमोत्कर्ष है।


लेकिन मोदी दीदी की इस विलंबित मुलाकात से पहले और बाद में संसदीय सहमति के पीछे संघ परिवार के जो सिपाहसालार रहे हैं,अरुण जेटली,वैंकेया नायडु,पीयुष गोयल,मुख्तार अहमद नकवी वगैरह वगैरह से क्षत्रपों की मुलाकात सैफई की सेल्फी से कम दिलचस्प नहीं है।


गौरतलब है कि संघ परिवार के ये सिपाहसालार  अरुण जेटली,वैंकेया नायडु,पीयुष गोयल,मुख्तार अहमद नकवी वगैरह वगैरह राज्यसभा में अल्पमत का तोड़ निकालने के लिए क्षत्रपों को फंसाने की योजना अमल में ला रहे थे।


ताजा स्टेटस यह है कि दीदी मोदी शिखर वार्ता के नतीजतन दीदी के लिए और तृणमूल के लिए तेजी से चुनौती बन रहे मुकुल राय कीअब त्रिशंकु दशा है और अब तृणमूल कांग्रेस पर दावा ठोंकने वाले मुकुल राय ने सुर बदल कर हर मुद्दे पर दीदी और तृणमूल का अनुशासित सिपाही होने सबूत पेश करना शुरु कर दिया है।


संसदीय सहमति के कारीगरों से तृणमूल सांसदों का दिल्ली में लगातार धर्मोन्मादी जिहाद के मध्य लगातार मुलाकाते होती रही हैं।राजनाथ सिंह,वैंकेया नायडु और अरुण जेटली से तृणमूलियोें के तार हमेशा जुड़े रहे हैं।


असली खेल राज्यसभा में खतरे में फंसे आर्थिक सुधारों से संबंधित बिलों को पेश करने से पहले शुरु हो गया।


मुलायम ने तो ताश के पत्ते खोले नहीं,लेकिन दीदी की तृणमूल कांग्रेस,बीजू जनता दल और जनतादलयू ने साफ कर दिया कि वे सुधारों के खिलाफ हरगिज नहीं हैं और जरुरी बिलों को पास कराने में मदद करेंगे।


बिना घोषणा किये गुपचुप अन्नाद्रमुक ने भी इन बिलों को पास कराने में निर्णायक सहयोग करके कांग्रेस के विरोध को बेमतलब कर दिया।


गौरतलब है कि अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता जेल जाने की वजह से मुख्यमंत्री पद गवां चुकी है।


गौरतलब है किअदालती मामले की वजह से खुद सत्ता से हटकर मुसहर माझी को कठपुतली मुखयमंत्री बनकर अतिदलित कार्ड से बिहार में सत्ता पलट के भाजपाई खेल को एकदा परमशत्रु लालू के साथ मिलकर नाकाम कर देने वाले नीतीशकुमारने उन्हीं माझी को पटखनी देकर फिर मुख्यमंत्री बनते ही न जाने कैसे कैसे केशरिया हो गये और हक्के बक्के रह गये लालू जिनके रिश्तेदार अब मुलायम हैं जो बाहर लाल हैं तो भीतर उतने ही केसरिया जितने नीतीश कुमार के केसरिया रंग खिले किलेहैं।


राज्यों में अपनी अपनी सत्ता बचाने की महाबलि क्षत्रपों की यह किलेबंदी ही आर्थिक सुधारों के पक्ष में 1991 से निरंतर जारी अबाध पूंजी की तरह निरंकुश जनसंहारी संसदीय सहमति है,जिसके लिए भारत की संसद कमसकम भारतीय जनगण के प्रिति किसी भी स्तर पर जिम्मेदार नहीं है।स्विस बैंक खातों की सेहत का राजभी यही है।


इनके उलट कहना ही होगा,नवीन पटनायक कमसकम पाखंडी नहीं है और जाहिर सी बात है कि आदिवासी बहुल इलाकों की जल जंगल जमीन पहले ही कारपोरेट घरानों के हवाले करने वाले नवीन पटनायक आर्थिक सुधारों के पक्ष में भाजपा से कम मजबूती से खड़े कभी नहीं थे।


भरे हाट में हड़िया तोड़ दी है और मजा यह कि बंगाल से ही संसदीय सहमति का राज खुलने लगा है।


इतिसिद्धम।


Welcome Judgment on Sec. 66A

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The Polit Bureau of the Communist Party of India (Marxist) has issued the
following statement:





Welcome Judgment on Sec. 66A





The judgment of the Supreme Court striking down Section 66A of the IT Act
has come out in defence of civil liberties and fundamental rights of
citizens.



The draconian provision of 66A was used to arrest people who express
dissenting views against the government and the State and to suppress
criticism of those in power.



The Polit Bureau welcomes this landmark judgment.

IF THE REALITY IS SHAMEFUL, LEARN TO ACCEPT IT: NANDITA DAS ON INDIA’S DAUGHTER

Next: क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं? आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं हैं और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है। पलाश विश्वास
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IF THE REALITY IS SHAMEFUL, LEARN TO ACCEPT IT: NANDITA DAS ON INDIA'S DAUGHTER

Nandita Das
The BBC documentary India's Daughter, directed and produced by Leslee Udwin, created quite a furore in the country. After the government banned the film, which tells the story of the infamousDecember 16 rape, it went viral on YouTube. The main grouse many raised against it was that the documentary, in which Udwin has interviewed one of the rapists Mukesh Singh, gives him a platform to justify his act. As usual, the internet is divided into two camps–one that is rampantly sharing the YouTube link to the documentary and the other that is congratulating the government on the ban agreeing to Home Minister Rajnath Singh's claim that the film is part of the white man's conspiracy to shame India. Unfortunately for those who haven't managed to watch it yet, the documentary has now been blocked by YouTube in India stating a court order which it received. Long Live Cinema spoke to actor-filmmaker Nandita Das about the documentary and the ban and here's what she had to say.  
 
Ban deprives us of right to make a choice
Firstly, why ban this film or any film for that matter. The reason, as far as I know, the government has given is that one of the culprits and their lawyers are making misogynistic statements in the film and that defames us as Indians! This is ridiculous and it shows that they have clearly missed the point. I haven't seen the film yet, but from what I have heard from people who have seen it and from what I have read about it, India's Daughter, in fact, seems to be bringing to light the various realities of the society we live in. It has once again showed us that there are people like Mukesh Singh among us, who live around us. Even if we keep the debate on this particular documentary aside, I firmly believe that everybody has a right to watch and decide what they want to take away from it. With bans like this, the authorities are depriving us of our right to make a choice. In any case anybody can watch it online, so why the fuss. 
 
Acknowledge the problem
Bringing back the documentary into the picture, the Nirbhaya case is one of the most important causes that united us in recent times. So many of us–men, women and children–took to the streets to demand a life of dignity for all women and for us to be able to live without fear anywhere in the country. Banning a documentary that is about this sensitive issue and forces us to see our misogynistic side is not even acknowledging the problem. 
 
Face the shameful reality
Another thing I don't understand is this argument about India's Daughter being a propaganda film to shame India in front of the world. I have also been accused of doing this. When we began shooting for Water, some right-wing groups had the same problem. They said we were trying to paint an ugly picture of India to the world. Now, if the reality is shameful, how does shying away from facing it help? How does pushing it under the carpet and acting like nothing is wrong help? Is protecting an image more important than trying to alter the ugly reality?  By banning the documentary, does the reality that there is violence against women in our society change? One woman is raped here every 20 minutes. It is a fact, and we better do something about it. It is high time we stopped worrying about images in the world, as they will change when the reality becomes better. Such films should make us introspect and find solutions do a deep-rooted problem. I am not fully aware of the legal implications of screening the film now and need to understand from the prominent lawyers and activists, but fundamentally they, too, don't support a ban. A ban is never the solution, but just an excuse to hide behind the violent, vulgar realities of our every day lives.

Photo Credit: Vidhi Thakur

http://longlivecinema.com/if-the-reality-is-shameful-learn-to-accept-it-nandita-das-on-indias-daughter/

क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं? आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं हैं और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है। पलाश विश्वास

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क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं?

आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी

अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं हैं और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है।

पलाश विश्वास


अभी आज का रोजनामतचा शुरु कर रहा हूं इस यक्ष प्रश्न का सामना करते हुए जैसे कि संघ परिवार का दावा है कि भारत में रहने वाला हर कोई हिंदू है,क्या हम अपने बेशर्म आत्म समर्पण से इस दावे को ही सही साबित नहीं कर रहे हैं?


ईमानदारी से हम अपनी अपनी दिलोदिमाग में झांक लें और राजनीतिक तौर पर सही सही पादते रहने के बावजूद क्या भीतर ही भीतर हिंदुत्व की अस्मिता हमारी प्रतिबद्धता पर हावी तो नहीं हो रही है।


ईमानदारी से हम अपनी आत्मालोचना करें कि कहां कहां हमारी कथनी और करनी में फर्क है।


हिंदुत्वकरण के इस मुद्दे को हमने अपनी तमाम कहानियों का कथ्य बनाया हुआ है ।कम से कम पचास प्रकाशित कहानियों में।दोनों प्रकाशित संग्रहों अंडे सेंते लोग और ईश्वर की गलती में।हालांकि हमारी कहानियां इस काबिल भी न समझी गयीं कि कोई उसे तवज्जो दें।


हमने अस्सी के दशक में सिखों के नरसंहार और यूपी के शहरों में मंडल कमंडल दंगों में हिंदुत्व का वह वीभत्स चेहरा देखा है जो आदरणीय विभूति नारायण राय के भोगे हुए यथार्थ के तहत पीएसी के आक्रामक हिंदुत्व से कम भयावह नहीं है।


मेरठ में हमने हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार के वक्त देखा कि कैसे हिंदुत्व अचानक सर्वग्रासी हो जता है।हमने नंगा परेड के जरिये हिंदुत्व की पहचान और आक्रामक धार्मिक नारों के मध्य महीनों शहर को जलते देखा है।कर्फ्यू की रातों और सैन्य हवाले शहर देखे हैं।हवाओं में इंसानी गोश्त की बदबू और सड़ांध झेली हैं और इंसानी हड्डियों की आग में जलकर चिटखने की आवाजें भी सुनी हैं।


सर्वग्रासी हिंदुत्व का वह मंजर हमने झेला है और वही खूंखार चेहरा सर्वग्रासी हिंदुत्व का हमारे वजूद,हमारे दिलो दिमाग के विरुद्ध मुक्त बाजारी विकास के अवतार में है। वह हिंदुत्वकरण अब समरसता है।पीपीपी माडल मेकिंग इन है।


फिर हमने बिजनौर और बरेली जैसे अमन चैन के शहरों और तमाम जनपदों और गांवों तक को धू धू दंगों की आग में जलते हुए देखा है कि कैसे हिंदुत्व सर्वग्रासी हुआ जाता है और वहीं,उसी कोख में  हमने नवउदारवाद को जनमते पनपते और भारत गणराज्य,लोकतंत्र,नागरिकता,संप्रभुता और भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय कृषि,भारतीय कारोबार और भारतीय उद्योग धंधों,रोजगार आजीविका,जल जंगल जमीन आसमान और समूची कायनात को निगलते हुए  हुए देखा है।


हमने अमेरिका से सावधान अधूरा छोड़ा सन 2000 के आसपास लेकिन तब से अब तक लिखा मेरा सबकुछ अमेरिका से सावधान में ही समाहित है।


उसके बाद मैंने तथाकथित रचनात्मक लेखन तो किया ही नहीं है और प्रिंट मीडिया में समकालीन तीसरी दुनिया और समयांतर के सिवाय कहीं कुछ लिखा नहीं है और न कालजयी बनने की अधूरी यात्रा के लिए मुझे अफसोस है।हालांकि कुछ मित्र नेट से लेकर इधर उधर मुझे इस बीच छापते रहे हैं लेकिन मैंने रोजनामचे के सिवायअलग लिखा नहीं है और न आगे लिखने का इरादा है क्योंकि विज्ञापनों के बीचखाली जगह भरने के लिए दूसरों के मुद्दों पर लिखना मेरे लिए कतई संभव नहीं है।


अमेरिका से पुस्तकाकार छापने में भी मेरी दिलचस्पी इसलिए नहीं है कि मैं गिरदा का असल चेला हूं जो अपने समय के मुखातिब होने के अलावा कुछ भी सोचकर लिखता न था और न अपने लिखे का कोई रिकार्ड रखता था।


मेरा सरोकार समकालीन यथार्थ से टकराने का कार्यभार है,जिसके लिए मैं अपने प्रति अपने समय के मुकाबले ज्यादा जिम्मेदार हूं।


मैं अपने समय को संबोधित कर रहा हूं।भविष्य को मैं हरगिज संबोधित नहीं कर रहा हूं और भविष्य के लिए मेरे लिखे की शायद कोई  प्रासंगिकता नहीं है।


आज लंबे समय के बाद अपने युवा तुर्क ,अपने बेहद प्यारे मित्र अभिषेक श्रीवास्तव से लंबी बातचीत की और उससे साफ साफ कह दिया कि अब टीम बनाने ,मोर्चा जमाने की जिम्मदारी तुम लोगों की है।मेरा कभी भी फुलस्टाप समझो।


इक्कीसवीं सदी में मैंने जो कुछ भी लिखा है,वह सारा का सारा गुगल की प्रापर्टी है,जिसे एक क्लिक से गुगल कभी भी डिलीट कर सकता है।मेरे अंत के साथ मेरे लिखे का भी नामोनिशान खत्म।


कोई रोजनामचा कहीं नहीं बचेगा और न बचाना मेरा कोई मकसद है।क्योंकि हम तो सिर्फ अपने समय के मुखातिब हैं।


अभिषेक से मैंने कहा,जब तक मेरा समय है,मैं हूं।फिरभी लड़ाई थमनी नहीं चाहिए।मेरे सीने में न सही,किसी न किसी के सीने में आग जलनी चाहिए।वह आग फिर दावानल बनाना चाहिए जो इस सीमेंट के जंगल को जलाकर खाक कर दें और फिर नये सिरे से इस कायनात में हरियाली बहाल कर दें।


अभिषेक को सुबह सुबह बहुत बुरा लगा होगा यकीनन।हम अपने साथियो की सीमाओं को जानते हुए भी उनसे जरुरत से ज्यादा अपेक्षा कर रहे है।


हमारी बुरी आदत है कि जैसे हम हमारे समय के बेहतरीन कवि और मेरे भाई नित्यानंद गायेन से कहता रहता हूं कि कविताओं के अलावा और भी लिखा करो।फिर जब वह सिलसिलेवार सेल्फी पोस्ट करता रहता है तो भयानक कोफ्त होता है कि कवि को क्या हो गया है कि वह उदयप्रकाश और नंदीअवतार कवि बन रहा है।कविताएं पोस्ट करने की जगह आत्ममुग्ध कविताएं पोस्ट कर रहा है।


उसका लिखा हर पंकित पढ़ रहा हूं और उम्मीदों के खिलाफ उसकी आत्ममुग्धता से नाराज हो रहा हूं।हो सकता है कि मेरे इस सार्वजनिक टिप्पणी पर वह मुझे अपना भाई मानने से ही इंकार कर दें लेकिन उसकी बुरी आदत छुड़ाये बिना बड़े भाई होने का मतलब तो सधता नहीं है। सारे बच्चे हमारे इस बूढापेसे चिढ़ते हैं।


गुरु गोविंद सिंह ने सिखों से कभी कहा था कि एक से सवा लाख लड़ाउं।तब से सिखों ने कभी आत्मसमर्पण नही किया है।गुरु के उन तमाम बंदों को हमारा सलाम।


अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं है और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है।


दरअसल हम जनमजात हिंदू है।हम न बौद्ध बन सकें है बाबासाहेब की तरह और न गुरु के पंथ को अपनाकर योद्धा बन सके हैं।


हमारी नस नस में हिंदुत्व हैं।हमारी प्रगतिशीलता और हमारी प्रतिबद्धता पर यह हिंदुत्व कितना हावी हो रहा है,यह मुद्दा समचे अस्सी और नब्वे के दशक में मुझे परेशान करता रहा है।


आज फिर उसी यक्ष प्रशन के मुकातिब नये सिरे से हूं कि कहीं हम मन ही मन अपने जाने अनजाने भारत के हिंदू राष्ट्र बनने का इंतजार तो नहीं कर रहे हैं और सिर्फ अपना धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील तमगा बचाने की कवायद तो नहीं कर रहे हैं।


वरना हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चे पर गिने चुने आवाजें तो आ भी रही हैं,लेकिन जमीन पर मुकाबले की कोई तैयारी है नहीं।


कटु सत्य यह है कि तमाम इतिहासबोध,वैज्ञानिक सोच और अत्याधुनिक तकनीक के बावजूद हम न हिंदुत्व के शिकंजे से मुक्त हो पाये हैं और न जाति व्यवस्था और वर्ण वर्चस्व के तिलिस्म को तोड़ पाने की कोई पहल कर पाये हैं।


समता,स्वतंत्रता,समाजवाद और सामाजिक न्याय के दिलफरेब नारों के बावजूद भीतर से हम वहीं हिंदू ही रह गये।


निरकुंश संघ परिवार की अशवमेधी दिग्विजयी जययात्रा की पूंजी यही है कि हम अभी जनमोर्चे में बहुसंख्य बहुजनों को खांटी हिंदुओं की तरह अस्पृश्य ही मान रहे हैं और अब भी उन्हें संबोधित करने की कोई कोशिश  नहीं कर रहे हैं,जो संघ परिवार अपने हिंदू साम्राज्यवाद के एजंडा के मुताबिक जरुरत के हिसाब से पल छिन पल छिन कर रहा है।



इसीकारण मैं फिर आठवें और नवें दशक के दौर में लौटते हुए यह सोचने को फिर मजबूर हो रहा हूं कि आखिर हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान में हमारी भूमिका की भी तो चीरफाड़ होनी चाहिए।


जाहिर सी बात है कि हम अपने मित्रों उदयप्रकाश, देवेंद्र,संजीव जैसे कथाकारों की तरह कथा बांचने की कला में दक्ष कभी नहीं रहे और न हम अपनी बात कहीं संप्रेषित कर पाये हैं।


अब भी यह निहायत असंभव है कि मौजूदा हालात में मेरी बात आम लोगों तक पहुंचे।


जिन तक पहुंच रही है,जो संजोगवश मेरी चिंता से सहमत या असहमत हैं,वे कृपा पूर्वक अपनी बात रखें,तो शायद इस विषय पर हम चर्चा चला सकें जो हमारे हिसाबसे बहेद महत्वपूर्ण मुद्दा है,और भारतीय जनमानस की गुलामी का स्थाईभाव भी।


क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं?

आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी।


मेरे पिता पुलिन बाबू की प्रतिबद्धता के मुकाबले मेरी प्रतिबद्धता पासंग भर नहीं है।बिना इलाज कराये रीढ़ में कैंसर लिये बिना आगे पीछे सोचे मरते दम सतत्तर साल की जर्जर शरीर के साथ तरोताजा दिलोदिमाग के साथ वे सिर्फ अपने लोगों के हक हकूक लिए लड़ते रहे।हम ऐसा हरगिज नहीं कर सकते।


उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए कभी संसाधनों की चिंता नहीं हुई।जरुरत पड़ी तो अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया।जबकि वे सिरफ कक्षा दो पास थे।उनकी सारी गतिविधियां जनता के लिए जनता के मध्य थी।वे हवाओं में तीरदांजी नहीं करते थे।


उनके उलट हम अभीतक सिर्फ हवाओं में कलाबाजी खा रहे हैं और जनता से कोई संवाद है ही नहीं।


हम उनसे बेहतर हालत में होते हुए भी उनके मुकाबले एक मुकम्मल जिंदगी अपने लोगों के लिए जी नहीं सकें है।हमने अपने पुरखों की हजारों साल की आजादी की लड़ाई जारी रखने कि लिए अबतक कुछ भी नहीं किया है। इस जिंदगी को न हम सेलीब्रेट कर सके हैं।


हमारे लंबे समय के साथी मुंबई के मनोज मोटगरे ने पूछा है कि हम इसका खुलासा करें कि अस्मिताओं के तिलिस्म का मतलब क्या है,हम इसका खुलासा करें।


हो सकता है कि अहिंदी भाषी अपने पाठकों को समझाने लायक भाषा अभी हम बना नहीं पाये हैं।लेकिन यह भारी नाकामी है कि हम जो लिख बोल रहे हैं,अपने सबसे काबिल मित्रों तक वह बात कहीं पहुंच ही नहीं रही है।


मनोज का आग्रह है कि हम इस पर लिखें कि हमें करना क्या चाहिए।


यह लिखने का मामला दरअसल हैं नहीं।यह संगठन का मामला है।संगठन के मंच पर ही इसपर बात की जा सकती है और हमारे पास फिलहाल न कोई संगठन है और न होने के आसार हैं।


हम मीडिया और दूसरे माध्यमों में,सार्वजनिक मचों पर सामाजिक यथार्थ को ही संबोधित कर सकते हैं।वह हम अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अपनी औकात और समझ के दायरे से बाहर जाकर करने की कोशिस यथासाध्य कर भी रहे हैं। उसमें भी हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आर्थिक मुद्दे हैं।


जिनके पास संगठन हैं वे व्यक्ति केंद्रित संगठन हैं।


संघ परिवार के राष्ट्रीय स्वयंसेवक की तरह संस्थागत कोई संगठन मुकाबले में नहीं है,जो विचारधारा और हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक नेतृत्व बनाता है और नाकाम नेतृत्व को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकता है।


संघ परिवार के मिशन के लिए व्यक्ति कतई महत्वपूर्ण नहीं है।संगठन के चेहरे भी उसके कभी सार्वजनिक होते नहीं हैं।व्यक्ति को तवज्जो वह निश्चित रणनीति के तहत देता है और मकसद हासिल करते ही उसे फिर परदे में बिठा देता है।


यही संघ की अपराजेय बढ़त का असली राज है कि वह अपने मिशन के लिए कुछ भी कर सकता है,जो हम कर ही नहीं सकते।कुछ भी नहीं कर सकते दरअसल फासीवाद के खिलाफ वातानुकूलित नारेबाजी या कुछ खास इलाकों में मामूली हलचल मचाने के अलावा।पूरी की पूरी 120 करोड़ की आबादी को संबोधित करने की हमारी कोई योजना नहीं है।उनकी है और वे उसे बखूब अमल में ला रहे हैं।हम सिर्फ तमाशबीन हैं।


मेरी समझ से एक उदाहरण काफी है,संघ परिवार के कैडरबेस के मुकाबले जिनके कैडरबेस की चर्चा सबसे ज्यादा होती है,उन वामपंथियों के संगठनों में भी जाति और वर्ण वर्चस्व नंगा सच है।


हालत यह है कि कामरेड महासचिव की पत्नी अगले महासचिव बनने की सबसे बड़े इने गिने दावेदारों में हैं।


बहुजन बामसेफ को कैडरबेस कहने से अघाते नहीं है,धन वसूली, मसीहा निर्माण और भयादोहन के अलावा उस कैडर बेस का इस्तेमाल अभी हुआ नहीं है।


उस बामसेफ को भी चुनावी राजनीति में स्वाहा कर दिया है मसीहा संप्रदाय ने और बहुजन तकते रहे गये संगठन के नाम अपना सबकुछन्योच्छावर करके लुटे पिटे।


हम कैसे इस फासीवादी उभार का मुकाबला करें कि भारत में फासीवादी मुक्तबाजारी राष्ट्रद्रोही धर्मोन्मादी सत्ता की असली शक्ति संस्थागत संगठन है और उसके मुकाबले हमारा कोई संस्थागत संगठन हैइच नहीं।विचारधारा काफी नहीं होती,विचारधारा को अमल में लाने के लिए संघ परिवार की तरह,जिन देशों में क्रांति हुई हैं,वहां की तरह राष्ट्रीय संगठन,संस्थागत लोकतांत्रिक संगठन कोई हमारे पास नहीं है। और न हम अपना वजूद किसी संगठन में समाहित करने को तैयार हैं।विचारधारा के लिए भी नहीं।


आप राय दें जरुर।आपकी राय का इंतजार है।


ताजा स्टेटसः फिलहाल कोई जवाब लेकिन आया नहीं है,हमें इस सन्नाटा के टूटने का इंतजार है।


पहले दिन से बंद होने की अफवाह के बावजूद जनसत्ता सही सलामत रीढ़ के साथ जारी है,फिक्र न करें पलाश विश्वास

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पहले दिन से बंद होने की अफवाह के बावजूद जनसत्ता सही सलामत रीढ़ के साथ जारी है,फिक्र न करें

पलाश विश्वास

इन दिनों अजब संशय में हूं।मुझे क्या लिखना है,इस बारे में मैं बचपन से बहुत साफ हूं।मुझे किनके लिए लिखना है,इस बारे में मेरा जेहन साफ रहा है।मेरा लेखन इसलिए जनरल आडियेंस को संबोधित नहीं है।इसी लिए मैं मुख्यधारा में लिखता भी नहीं हूं।


मैं बदलाव के पक्षधर ताकतों और बहुजनों को संबोधित कर रहा हूं करीब दो दशकों से।मुझे बाकी लोगों की सहमति असहमति की उतनी परवाह नहीं है,जितनी की इस बात की मैं जिनके लिए,जिनके मुद्दों पर लिख रहा हूं,उन तक मेरा लिखा पहुंचता है या नहीं।


इधर तमाम मुद्दों पर हमारे मोर्चे पर,खासतौर पर मेरे देश भर से मेरे साथ सक्रिय रहने वालों की चुप्पी से मैं बेहद बेचैन हूं और अभिषेक श्रीवास्तव के सुझाव के मुताबिक पिछले दो दिनों से कुछ समय के लिए कुछ भी न लिखने का अभ्यास कर रहा था।


मेरे रिटायर होने के एक साल रह गये हैं और मुझसे पहले मेरे इलाहाबाद जमाने से 1979 से मित्र शैलेंद्र रिटायर करेंगे।तो हमारे संपादक को भी रिटायर हो जाना है।इसलिए मैं चाहता हूं कि प्रोफेशनल तरीके से मैं सालभर रिटायर हो जाने की प्रक्रिया पूरी करुं ताकि मुझे बाद में पछतावा नहीं हो।रिटायर होने के बाद की अनिश्चितताओं की वजह से अपने आप को समेटना भी अब जरुरी लग रहा है।


अब भी सेहत ठीक नहीं है।दवाएं चल रही है।लेकिन बाकी बचे वक्त सिक लिव लेने का कोई इरादा नहीं है।इसी बीच परसो सविता के बड़े भाई के निधन की खबर आयी।हम उन्हें पिछले जाड़ों में देख आये हैं।सविता बिजनौर जाना चाहती हैं लेकिन रेलवे की किसी श्रेणी में उनके लिए टिकट नहीं मिल रहा है और मैंने चूंकि तय किया है कि सालभर में कोलकाता से बाहर नहीं जाना है और मैं उनके साथ जा नहीं रहा हूं,तो बिना कन्फर्म टिकट उन्हें भेजना भी असंभव है क्यों कि वे भी अस्वस्थ हैं।इसमें पेंच यह है कि 13 और 14 अप्रैल को उनका सांस्कृतिक कार्यक्रम है और तब तक उन्हें हर हालत में लौटना है।बसंतीपुर और बिजनौर दोनों जगह से तत्काल काटकर उन्हें सही वक्त पहुंचाने की कोई गारंटी दे नहीं रहा है।


सविता बाबू बेहत भावुक और संवेदनशील हैं और जब वह भावनाओं में बह निकलती हैं तो मुकम्मल जलजला होती हैं।दो दिनों से वह जलजला झेल रहा हूं।


मजे की बात है कि मेरे अत्यंत प्रिय मित्र अभिषेक के सुझाव पर अमल कर ही रहा था,लेकिन जनसत्ता के इने गिने दिनों के बारे में उसकी टिप्पणी पर लिखना मेरे लिए जरुरी हो गया है।मैं अपनी खाल बचाने के लिए मुद्दों से सीधे टकराने को अभ्यस्त नहीं रहा हूं।


चूंकि मैं नियमित तौर पर हस्तक्षेप में लिख रहा हूं और हस्तक्षेप के माध्यम से ही तमाम मुद्दों को संबोधित कर रहा हूं तो हस्तक्षेप पर लगी इस टिप्पणी में अपना पक्ष साफ करना जरुरी मानता हूं।


सबसे पहले मैं आदरणीय प्रभाष जोशी का पूरा सम्मान करते हुए और उनके अनुयायियों की भावनाओं का भी सम्मान करते हुए स्पष्ट करना चाहता हूं कि भाषा और शैली मेरे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।ऐसा होता तो मैं उदय प्रकाश को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानता।


बसंतीपुर आंदोलनकारियों का गांव है और मेरे पिता आजीवन आंदोलनकारी रहे हैं।ताराचंद्र त्रिपाठी की पकड में आने से पहले,नैनीताल जीआईसी में दाखिल होने से पहले मैं कक्षा दो से देशभर की शरणार्थी समस्या पर पिता के पत्रव्यवहार का लेखक रहा हूं क्योंकि पिता को हिंदी लिखने की आदत नहीं रही है।बांग्ला में तब जो मैं लिखा करता था ,वहां भी भाषा से बड़ा सवाल मद्दों और उनपर हमारे पक्ष का रहा है।


सन अस्सी में धनबाद के दैनिक आवाज से दुर्घटनावश पत्रकारिता शुरु करते न करते कामरेड एके राय आयोजित प्रेमचंद जयंती पर मुझे अचानक अपने प्रियकवि मदन कश्यप की गैरहाजिरी में हजारों कोयला मजदूरों और आम लोगोें की सभा को संबोधित करते हुए आयोजकों के दिये विषय प्रेमचंद की भाषा और शैली पर बोलना पड़ा। उस आयोजन में महाश्वेतादी मुख्य अतिथि थीं और उसी आयोजन में मेरी उनसे पहली मुलाकात है।


मुख्य वक्ता बतौर बोलते हुए महाश्वेता देवी ने कहा कि उनके लिए भाषा और शैली का कोई निर्णायक महत्व नहीं है ,अगर किसी के लेखन में जनपक्षधरता साफ साफ नहीं हो,मुद्दों पर उनका पक्ष गोलमोल मौकापरस्त हो और तमाम चुनौतियों को मंजूर करते हुए रीढ़ की हड्डी सही सलामत रखकर वह सन्नाटा तोड़ने की हिम्मत नहीं करता।बाद में अख्तरुज्जमान इलियस,माणिक बंदोपाध्याय और नवारुण दा ने मेरी इस समझ को पुख्ता किया है।


इसलिए जनसत्ता पर चर्चा  के वक्त उसकी भाषा से शुरुआत मैं गलत प्रस्थानबिंदू मानता हूं।हमारा स्पष्ट मानना है कि पत्रकारिता की भाषा और तेवर के मामले में रघुवीर सहाय का योगदान सबसे ज्यादा है।


विडंबना यह है कि लोग इसका कोई श्रेय उन्हें और दिनमान टीम को देने को तैयार नहीं है।जनसता की जो टीम जोशी जी ने बनायी उनमें से बड़े से बड़े लोगों से लेकर शैलेंद्र और मेरे जैसे लोग पत्रकारिता में आये तो रघुवीर सहाय की वजह से ही और उनने ही तमाम लोगों को पत्रकार बनाया।


भाषा और दूसरे प्रतिमानों के बजाय अखबार की संपादकीय नीति हमारे लिए ज्यादा मह्तवपूर्ण है क्योंकि यह सीख मेरे पिता की है जो आंखर बांचने की हालत में आते न आते विभिन्न भाषाओं के अखबारों के संपादकीय का पाठ मुझसे रोजाना बाबुलंद आवाज में करवाते थे।


वे बांग्ला के किंवदंती पत्रकार तुषार कांति घोष के मित्र थे लेकिन उनने मुझे कभी तुषार बाबू का लिखा संपादकीय पढ़ने को कहा नहीं।इसके बजाय वे विवेकानंद मुखोपाध्याय के दैनिक बसुमति में लिखे हर संपादकीय को मेरे लिए अनिवार्य पाठ बनाये हुए थे।


इस मुद्दे पर चर्चा से पहले यह बता दूं कि मेरठ में दैनिक जागरण में काम करते हुए जनसत्ता में मेरा नियमित आना जाना रहा है।मंगलेश डबराल को में इलाहाबाद से 1979 से जानता रहा हूं और जनसत्ता के उन लोगों को भी छात्र जीवन से जानता रहा हूं जो तब रघुवीर सहाय जी के साथ दिनमान में थे।


प्रभाष जी ने जब मुझे कोलकाता के लिए बुलाया तो अमर उजाला में सारे लोग मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने के खिलाफ थे।


जनसत्ता में काम कर चुके मेरे सहकर्मी सुनील साह ने कहा कि जोशी जी को एक बड़े ताले की तलाश है,जिस दिन मिल जायेगा,बंद कर देंगे।


देश पाल सिंह पवार ने जरुर कहा कि जनसत्ता का उपसंपादक भी दूसरे अखबारों के प्रधानसंपादक से कम नहीं होता।


एक मात्र अखबार के मालिक अशोक अग्रवाल ने मुझसे तुंरत इस्तीफा लिखवा लिया ताकि मैं लौटकर अमर उजाला न आ जाउं।



वीरेनदा मुझे जबरन कोलकाता भेजने पर उतारु थे।बोले तू जा तो सही,अच्छा न लगे तो लौटती गाड़ी से निकल आना।


मजे की बात है कि जनसत्ता के संपादकीय में मैं अपने पुराने मित्रों से कोलकाता रवानगी से पहले जब मिला तो सब यही सवाल करते रहे कि जोशी जी के कहे मुताबिक बिना नियुक्तिपत्र कोलकाता जा तो रहे हो,पछताओेगे।


जैसे सविता बाबू बिजनौर चलने की जिद में आज कह गयी कि तुम जान क्यों देते हो जनसत्ता के लिए, हो तो वही उपसंपादक और जनसत्ता से तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला।यह अलग बात है कि उनने खुद जनसत्ता छोड़ने की सोचने की भी इजाजत मुझे नहीं दी।मुझसे तब भी कोलकाता आने से पहले दिल्ली में मित्रों ने कहा कि कलकत्ता में जनसत्ता चलेगा नहीं।


रायटर के पुराने पत्रकार का घर मैंने सोदपुर के अमरावती में जिस मकान को अपना पहला डेरा बनाया,उसके बगल में है,उनने जनसत्ता में हूं,सुनते ही कहा कि टाइम्स का हिंदी अखबार कोलकाता में बंद हो गया,एक्सप्रेस का चलेगा नहीं।


पहले दिन से आज भी रोजाना कोलकाता में अफवाह उड़ती रही है कि जनसत्ता बंद हो रहा है।लेकिन जनसत्ता अब भी डंके की चोट पर चल रहा है।


एक्सप्रेस समूह के निवर्तमान सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी के प्रधानसंपादकत्व समय में कोलकाता में आते ही पहले जनसत्ता के संपादकीय विभाग को देखकर पूछा,व्हाटइज दिस।


लोगों ने बाताया कि यह जनसत्ता है तो उनने सार्वजनिक तौर पर ऐलान कर दिया कि वी हैव टू क्लोज दिस।तब से लेकर आज तक प्रभाषजी के कार्यकाल से लेकर सीईओ हैसियत से और अब एक्सप्रेस से हटने के बाद प्रभाषजी के इतंकाल के बाद भी वे जनसत्ता और प्रभाष जी के खिलाफ बोल रहे हैं।


दिल्ली में और दिल्ली से बाहर जो प्रभाष जी के महिमामंडन में आगे रहे हों,उनने कभी सीईओ शेखर गुप्ता का मुकाबला किया है या नहीं हम नहीं जानते।अब जब वे सीईओ नहीं है तो लोगों के बोल फूट रहे हैं।


भाषा के नाम पर प्रभाष जोशी के महिमामंडने के नाम पर इस तथ्य को झुठलाया जा रहा है कि तमाम भारतीय अखबारों में जनसत्ता की रीढ़ अब भी सही सलामत है और इस वजह से ही मैंने मित्रों की असहमति के बावजूद और ओम थानवी से न अपने न बनने के बावजूद प्रभाष जी के भाषा और तेवर के मामले में अनूठे योगदान के बाद भी बार बार ओम थानवी को बेहतर संपादक माना है।क्योंकि भाषा शैली हमारे लिए मुद्दा नहीं है,सामाजिक यथार्थ और उनसे टकराने का कलेजा हमारा निकष है।


अभिषेक ने ताजा अखबार की जो गलतियां गिनायी हैं,वे तकनीकी हैं और संपादकीय विभाग के किसी न किसी साथी की चूक की वजह से ऐसा हुआ होगा।इसके लिए जनसत्ता में सबकुछ गड़बड़ चला रहा है,कहना गलत होगा।


मैं जब भी अखबार का प्रभारी रहा हूं,मैेंने हमेशा अपनी उपस्थिति में ऐसी गलती की लिए अपनी जिम्मेदारी मानी है।ऐसा होता रहता है,लेकिन अखबार का मूल स्वर में जबतक परिवर्तन नहीं होता तब तक जनसत्ता के शुभेच्छुओं को चिंतित होने की जरुरत नहीं है।


बाकी अग्रेंजी वर्चस्व वाले घरानों के अखबारों में बिना अपवाद भाषायी अखबारोें को बंद कराने या दुर्गति कराने के जो भी करतब होते हैं,जनसत्ता के खिलाफ वह शुरु से होता रहा है।दस साल पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मंच से हिंदी के तमाम आदरणीयों  की उपस्थिति  मैंने यह कहा था कि हिंदीवालों को अपनी विरासत की पहचान नहीं है और हिंदी वालों को परवाह नहीं है कि जनसत्ता को जानबूझकर हाशिये पर डाला जा रहा है।


आज भी मैं वहीं वक्तव्य दोहरा रहा हूं।


जूझती जुझारू जनता

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'ਕੱਲ (22 ਮਾਰਚ) ਲੰਬੀ ਵਿਖੇ ਐਨ.ਆਰ.ਐਚ.ਐਮ. ਮੁਲਾਜਮਾਂ ਅਤੇ ਦਿੱਲੀ ਵਿਖੇ ਸਨਅਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਬਰਬਰ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਅਕਾਲੀ-ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਕਿਰਦਾਰ ਨੂੰ ਲੋਕ ਚੰਗੀ ਤਰਾਂ ਜਾਣਦੇ-ਸਮਝਦੇ ਹਨ। ਲੰਬੀ ਵਿਖੇ ਆਪਣੀਆਂ ਜਾਇਜ ਮੰਗਾਂ ਲਈ ਮੁਜਾਹਰਾ ਕਰ ਰਹੇ ਸਿਹਤ ਵਿਭਾਗ ਦੇ ਐਨ.ਆਰ.ਐਚ.ਐਮ. ਮੁਲਾਜਮਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਬਰਬਰ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਨਾਲ਼ ਅਕਾਲੀ-ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਕਾਲੇ ਕਾਰਨਾਮਿਆਂ ਦੇ ਗ੍ਰੰਥ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਹੋਰ ਪੰਨਾ ਜੁਡ਼ ਗਿਆ ਹੈ। ਅਕਾਲੀ ਦਲ, ਭਾਜਪਾ, ਕਾਂਗਰਸ ਜਿਹੀਆਂ ਲੋਟੂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਤੋਂ ਤੰਗ ਆਏ ਲੋਕ ਪਹਿਲਾਂ ਅੰਨਾ ਦੇ ''ਅੰਦੋਲ਼ਨ''ਵੱਲ਼ ਅਤੇ ਫੇਰ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦੀ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਵੱਲ਼ ਭਲਾਈ ਦੀਆਂ ਆਸਾਂ ਲੈ ਕੇ ਖਿੱਚੇ ਚਲੇ ਗਏ ਸਨ (ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚ ਖੁਦ ਨੂੰ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ ਕਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਥੱਕੇ-ਹਾਰੇ ''ਕਾਮਰੇਡ''ਵੀ ਕਾਫੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ)। ਅਸੀਂ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ (ਅੰਨਾ ''ਅੰਦੋਲਨ''ਦੇ ਸਮੇਂ ਤੋਂ) ਕਹਿੰਦੇ ਆਏ ਹਾਂ ਕਿ ਅੰਨਾ-ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਮੰਡਲੀ ਤੋਂ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦੀ ਕੋਈ ਆਸ ਨਹੀਂ ਰੱਖਣੀ ਚਾਹੀਦੀ, ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਮੌਜੂਦਾ ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਅਤੇ ਉਦਾਰੀਕਰਨ-ਨਿੱਜੀਕਰਨ-ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੀਆਂ ਘੋਰ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਨਾਲ਼ ਕੋਈ ਅਸਹਿਮਤੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਲਗਾਤਾਰ ਕਹਿੰਦੇ ਆਏ ਹਾਂ ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਸਭ ਡਰਾਮੇਬਾਜੀ ਹੈ, ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦਾ ਮਕਸਦ ਸਿਰਫ਼ ਤੇ ਸਿਰਫ਼ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰਨਾ ਹੈ। ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਹੋਰਾਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਆਮ ਆਦਮੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਵੱਧ ਖਤਰਨਾਕ ਹੈ ਕਿਉਂ ਕਿ ਇਹ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮੂਰਖ ਬਣਾਉਣ ਵਿੱਚ ਵੱਧ ਕਾਮਯਾਬ ਰਹੀ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਜਲ਼ਦ ਹੀ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਮੰਡਲੀ ਦੀ ਸੱਚਾਈ ਵੀ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਆਵੇਗੀ। ਕੱਲ ਦਿੱਲੀ ਵਿਖੇ ਸਨਅਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਭਿਆਨਕ ਤਸ਼ੱਦਦ ਨੇ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਖੂੰਖਾਰ ਚਿਹਰੇ 'ਤੇ ਪਾਇਆ ਲੋਕ ਪੱਖੀ ਬੁਰਕਾ ਲੀਰੋ-ਲੀਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਠੇਕੇਦਾਰੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਅਤੇ ਹੋਰ ਜਾਇਜ ਮੰਗਾਂ-ਮਸਲਿਆਂ 'ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਸਕੱਤਰੇਤ ਵਿਖੇ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਨੂੰ ਮੰਗ ਪੱਤਰ ਦੇਣ ਗਏ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਭਿਆਨਕ ਢੰਗ ਨਾਲ਼ ਡਾਂਗਾ ਵਰਾਈਆਂ ਹਨ । ਪੁਲੀਸ ਦਾ ਇਰਾਦਾ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਭਜਾਉਣ ਜਾਂ ਖਿਡਾਉਣ ਦਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਸਗੋਂ ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ਼ ਬੁਰੀ ਤਰਾਂ ਕੁੱਟਮਾਰ ਕਰਕੇ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅਪਮਾਨਿਤ ਕਰਕੇ ਸਬਕ ਸਿਖਾਉਣ ਦਾ ਸੀ। ਹੰਝੂ ਗੈਸ ਦੇ ਗੋਲੇ ਸੁੱਟੇ ਗਏ। ਔਰਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਕਾਰਕੁੰਨਾਂ ਦੀ ਕੁੱਟਮਾਰ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਮਰਦ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਢਿੱਡਾਂ ਅਤੇ ਗੁਪਤ ਅੰਗਾਂ  ਚ ਡੰਡੇ ਮਾਰੇ, ਔਰਤਾਂ ਨੂੰ ਵਾਲਾ ਤੋਂ ਫਡ਼ ਕੇ ਘਸੀਟ-ਘਸੀਟ ਕੇ ਕੁੱਟਿਆ ਗਿਆ। ਭੱਜਦੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਇੱਟਾਂ-ਪੱਥਰ ਸੁੱਟੇ। ਕਈ ਔਰਤ-ਮਰਦ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਲੱਤਾਂ, ਮੋਡਿਆਂ, ਬਾਹਵਾਂ, ਹੱਥਾਂ ਦੀਆਂ ਹੱਡੀਆਂ ਟੁੱਟ ਗਈਆਂ ਹਨ। ਪੁਲੀਸ ਨੇ ਜਖ਼ਮੀਆਂ ਦਾ ਇਲਾਜ ਤੱਕ ਕਰਾਉਣ ਤੋਂ ਨਾਂਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਇੱਕ ਦਰਜਨ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀ ਗ੍ਰਿਫਤਾਰ ਕਰ ਲਏ ਗਏ। ਹਵਾਲਾਤ ਵਿੱਚ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਬੁਰੀ ਤਰਾਂ ਕੁੱਟਮਾਰ ਜਾਰੀ ਰਹੀ।      ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ ਭਗਤਾਂ ਦਾ ਕਹਿਣਾ ਹੈ ਕਿ ਦਿੱਲੀ ਪੁਲਿਸ ਕੇਂਦਰ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਹੁਕਮਾਂ ਮੁਤਾਬਿਕ ਕੰਮ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਪੂਰਾ ਸੱਚ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਦਿੱਲੀ ਸਕੱਤਰੇਤ ਵਿਖੇ ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸਹਿਮਤੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਚਾਰ-ਪੰਜ ਘੰਟੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀ ਧਰਨਾ ਲਾ ਕੇ ਬੈਠੇ ਰਹੇ। ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਕੋਈ ਵੀ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ ਤੱਕ ਪੁੱਛਣ ਨਹੀਂ ਆਇਆ। ਉੱਤੋਂ ਉਹਨਾਂ 'ਤੇ ਡਾਂਗਾ ਵਰਾਈਆਂ ਗਈਆਂ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੀ, ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਵੱਲੋਂ ਇਸ ਘਟਨਾ ਦੀ ਨਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਨਿਖੇਧੀ ਹੋਈ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਜਖਮੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਗਿਆ ਹੈ। ਨਾਜਾਇਜ ਤੌਰ ਉੱਤੇ ਗ੍ਰਿਫਤਾਰ ਕੀਤੇ ਗਇਆਂ ਦੀ ਕੁੱਟਮਾਰ ਰੁਕਵਾਉਣ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰਵਾਉਣ ਲਈ ਇਹਨਾਂ ਅਖੌਤੀ ਆਮ ਆਦਮੀ ਆਗੂਆਂ ਨੇ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ। ਪਰ ਮੋਦੀ ਭਗਤਾਂ ਵਾਂਗ ਕੇਜ਼ਰੀ ਭਗਤਾਂ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ 'ਤੇ ਵੀ ਸ਼ਰਧਾ ਦੀਆਂ ਕਾਲੀਆਂ ਪੱਟੀਆਂ ਬੰਨੀਆਂ ਹਨ ਤਾਂ ਹੀ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਦੀ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦਲਾਲ ਮੰਡਲੀ ਦੀਆਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਵਿਖਾਈ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦੀਆਂ। ਹੋਰ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾ ਪਾਰਟੀਆਂ ਵਾਂਗ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਨੇ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਸਰਕਾਰ ਬਣਦੇ ਹੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ-ਵਪਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਰਾਹਤ ਦੇਣ ਲਈ ਕਦਮ ਚੁੱਕੇ ਹਨ ਪਰ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨਾਲ਼ ਕੀਤੇ ਵਾਅਦਿਆਂ ਤੋਂ ਮੁੱਕਰ ਗਈ ਹੈ। ਵਾਅਦੇ ਯਾਦ ਕਰਾਉਣ ਗਏ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨਾਲ਼ ਇਹ ਉਸੇ ਤਰਾਂ ਪੇਸ਼ ਆਈ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਹੋਰ ਪਾਰਟੀਆਂ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਮਹੀਨਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਮੈਟਰੋ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਮੁਜਾਹਰੇ ਉੱਤੇ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ। ਆਉਣ ਵਾਲ਼ੇ ਦਿਨਾਂ ਚ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦਲਾਲ ਮੰਡਲੀ ਲੋਕਾਂ ਵਿੱਚ ਹੋਰ ਨੰਗੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਹੱਕ ਮੰਗਦੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ ਇਸਦਾ ਜ਼ਬਰ ਹੋਰ ਵਧਣਾ ਹੈ। ਪਰ ਇਸ ਜ਼ਾਬਰ ਟੋਲੇ ਉੱਤੇ ਵੀ ਹਰਭਜਨ ਸੋਹੀ ਦੀ ਕਵਿਤਾ ਦੀਆਂ ਇਹ ਸਤਰਾਹ੍ਂ ਪੂਰੀ ਤਰਾਂ ਢੁੱਕਦੀਆਂ ਹਨ -  ਜ਼ਬਰ ਨਾਕਾਮੀ ਹੋਰ ਜ਼ਬਰ,  ਜਦ ਤੀਕ ਨਾ ਮਿਲੇ ਕਬਰ।  ਹਰ ਜ਼ਾਬਰ ਦੀ ਇਹੋ ਕਹਾਣੀ,  ਕਰਨਾ ਜ਼ਬਰ ਤੇ ਮੂੰਹ ਦੀ ਖਾਣੀ...    - ਬਿਗੁਲ ਮਜ਼ਦੂਰ ਦਸਤਾ, ਲੁਧਿਆਣਾ    ਦਿੱਲੀ ਅਤੇ ਲੰਬੀ ਵਿੱਚ ਹੋਏ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਦੀ ਹੋਰ ਰਿਪੋਰਟ ਅਤੇ ਤਸਵੀਰਾਂ ਲਈ ਇਹ ਲਿੰਕ ਵੇਖੋ -   ਦਿੱਲੀ -   https://www.facebook.com/media/set/?set=a.798365260253999.1073741837.479156275508234&type=1    https://www.facebook.com/ajaynbs/posts/828383140566570    http://www.pudr.org/?q=content%2Fcondemn-police-lathicharge-contract-workers%E2%80%99-demonstration-outside-delhi-secretariat    ਲੰਬੀ -  https://www.facebook.com/lakhwinder43/posts/1071092729573234    ਦਿੱਲੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਤਸ਼ੱਦਦ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਨਾਜਾਇਜ਼ ਤੌਰ ਉੱਤੇ ਗਿਰ੍ਫਤਾਰ ਕੀਤੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰਾਉਣ ਲਈ ਇਸ ਪਟੀਸ਼ਨ ਉੱਤੇ ਹਸਤਾਖਰ ਜ਼ਰੂਰ ਕਰੋ-  https://www.change.org/p/arvind-kejriwal-unconditional-release-of-all-arrested-persons-and-action-against-police-men-who-brutally-attacked-workers-and-women-activists-demonstrating-to-remind-arvind-kejriwal-govt-in-new-delhi-of-their-poll-promises?recruiter=90539623&utm_source=share_petition&utm_medium=facebook&utm_campaign=share_facebook_responsive&utm_term=des-lg-no_src-no_msg'

ਕੱਲ (22 ਮਾਰਚ) ਲੰਬੀ ਵਿਖੇ ਐਨ.ਆਰ.ਐਚ.ਐਮ. ਮੁਲਾਜਮਾਂ ਅਤੇ ਦਿੱਲੀ ਵਿਖੇ ਸਨਅਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਬਰਬਰ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਅਕਾਲੀ-ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਕਿਰਦਾਰ ਨੂੰ ਲੋਕ ਚੰਗੀ ਤਰਾਂ ਜਾਣਦੇ-ਸਮਝਦੇ ਹਨ। ਲੰਬੀ ਵਿਖੇ ਆਪਣੀਆਂ ਜਾਇਜ ਮੰਗਾਂ ਲਈ ਮੁਜਾਹਰਾ ਕਰ ਰਹੇ ਸਿਹਤ ਵਿਭਾਗ ਦੇ ਐਨ.ਆਰ.ਐਚ.ਐਮ. ਮੁਲਾਜਮਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਬਰਬਰ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਨਾਲ਼ ਅਕਾਲੀ-ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਕਾਲੇ ਕਾਰਨਾਮਿਆਂ ਦੇ ਗ੍ਰੰਥ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਹੋਰ ਪੰਨਾ ਜੁਡ਼ ਗਿਆ ਹੈ। ਅਕਾਲੀ ਦਲ, ਭਾਜਪਾ, ਕਾਂਗਰਸ ਜਿਹੀਆਂ ਲੋਟੂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਤੋਂ ਤੰਗ ਆਏ ਲੋਕ ਪਹਿਲਾਂ ਅੰਨਾ ਦੇ ''ਅੰਦੋਲ਼ਨ''ਵੱਲ਼ ਅਤੇ ਫੇਰ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦੀ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਵੱਲ਼ ਭਲਾਈ ਦੀਆਂ ਆਸਾਂ ਲੈ ਕੇ ਖਿੱਚੇ ਚਲੇ ਗਏ ਸਨ (ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚ ਖੁਦ ਨੂੰ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ ਕਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਥੱਕੇ-ਹਾਰੇ ''ਕਾਮਰੇਡ''ਵੀ ਕਾਫੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ)। ਅਸੀਂ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ (ਅੰਨਾ ''ਅੰਦੋਲਨ''ਦੇ ਸਮੇਂ ਤੋਂ) ਕਹਿੰਦੇ ਆਏ ਹਾਂ ਕਿ ਅੰਨਾ-ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਮੰਡਲੀ ਤੋਂ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦੀ ਕੋਈ ਆਸ ਨਹੀਂ ਰੱਖਣੀ ਚਾਹੀਦੀ, ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਮੌਜੂਦਾ ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਅਤੇ ਉਦਾਰੀਕਰਨ-ਨਿੱਜੀਕਰਨ-ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੀਆਂ ਘੋਰ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਨਾਲ਼ ਕੋਈ ਅਸਹਿਮਤੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਲਗਾਤਾਰ ਕਹਿੰਦੇ ਆਏ ਹਾਂ ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਸਭ ਡਰਾਮੇਬਾਜੀ ਹੈ, ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦਾ ਮਕਸਦ ਸਿਰਫ਼ ਤੇ ਸਿਰਫ਼ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰਨਾ ਹੈ। ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਹੋਰਾਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਆਮ ਆਦਮੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਵੱਧ ਖਤਰਨਾਕ ਹੈ ਕਿਉਂ ਕਿ ਇਹ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮੂਰਖ ਬਣਾਉਣ ਵਿੱਚ ਵੱਧ ਕਾਮਯਾਬ ਰਹੀ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਜਲ਼ਦ ਹੀ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਮੰਡਲੀ ਦੀ ਸੱਚਾਈ ਵੀ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਆਵੇਗੀ। ਕੱਲ ਦਿੱਲੀ ਵਿਖੇ ਸਨਅਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਭਿਆਨਕ ਤਸ਼ੱਦਦ ਨੇ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਖੂੰਖਾਰ ਚਿਹਰੇ 'ਤੇ ਪਾਇਆ ਲੋਕ ਪੱਖੀ ਬੁਰਕਾ ਲੀਰੋ-ਲੀਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਠੇਕੇਦਾਰੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਅਤੇ ਹੋਰ ਜਾਇਜ ਮੰਗਾਂ-ਮਸਲਿਆਂ 'ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਸਕੱਤਰੇਤ ਵਿਖੇ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਨੂੰ ਮੰਗ ਪੱਤਰ ਦੇਣ ਗਏ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਭਿਆਨਕ ਢੰਗ ਨਾਲ਼ ਡਾਂਗਾ ਵਰਾਈਆਂ ਹਨ । ਪੁਲੀਸ ਦਾ ਇਰਾਦਾ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਭਜਾਉਣ ਜਾਂ ਖਿਡਾਉਣ ਦਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਸਗੋਂ ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ਼ ਬੁਰੀ ਤਰਾਂ ਕੁੱਟਮਾਰ ਕਰਕੇ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅਪਮਾਨਿਤ ਕਰਕੇ ਸਬਕ ਸਿਖਾਉਣ ਦਾ ਸੀ। ਹੰਝੂ ਗੈਸ ਦੇ ਗੋਲੇ ਸੁੱਟੇ ਗਏ। ਔਰਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਕਾਰਕੁੰਨਾਂ ਦੀ ਕੁੱਟਮਾਰ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਮਰਦ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਢਿੱਡਾਂ ਅਤੇ ਗੁਪਤ ਅੰਗਾਂ ਚ ਡੰਡੇ ਮਾਰੇ, ਔਰਤਾਂ ਨੂੰ ਵਾਲਾ ਤੋਂ ਫਡ਼ ਕੇ ਘਸੀਟ-ਘਸੀਟ ਕੇ ਕੁੱਟਿਆ ਗਿਆ। ਭੱਜਦੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਇੱਟਾਂ-ਪੱਥਰ ਸੁੱਟੇ। ਕਈ ਔਰਤ-ਮਰਦ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਲੱਤਾਂ, ਮੋਡਿਆਂ, ਬਾਹਵਾਂ, ਹੱਥਾਂ ਦੀਆਂ ਹੱਡੀਆਂ ਟੁੱਟ ਗਈਆਂ ਹਨ। ਪੁਲੀਸ ਨੇ ਜਖ਼ਮੀਆਂ ਦਾ ਇਲਾਜ ਤੱਕ ਕਰਾਉਣ ਤੋਂ ਨਾਂਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਇੱਕ ਦਰਜਨ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀ ਗ੍ਰਿਫਤਾਰ ਕਰ ਲਏ ਗਏ। ਹਵਾਲਾਤ ਵਿੱਚ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਬੁਰੀ ਤਰਾਂ ਕੁੱਟਮਾਰ ਜਾਰੀ ਰਹੀ।

ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ ਭਗਤਾਂ ਦਾ ਕਹਿਣਾ ਹੈ ਕਿ ਦਿੱਲੀ ਪੁਲਿਸ ਕੇਂਦਰ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਹੁਕਮਾਂ ਮੁਤਾਬਿਕ ਕੰਮ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਪੂਰਾ ਸੱਚ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਦਿੱਲੀ ਸਕੱਤਰੇਤ ਵਿਖੇ ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸਹਿਮਤੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਚਾਰ-ਪੰਜ ਘੰਟੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀ ਧਰਨਾ ਲਾ ਕੇ ਬੈਠੇ ਰਹੇ। ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਕੋਈ ਵੀ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ ਤੱਕ ਪੁੱਛਣ ਨਹੀਂ ਆਇਆ। ਉੱਤੋਂ ਉਹਨਾਂ 'ਤੇ ਡਾਂਗਾ ਵਰਾਈਆਂ ਗਈਆਂ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੀ, ਦਿੱਲੀ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਵੱਲੋਂ ਇਸ ਘਟਨਾ ਦੀ ਨਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਨਿਖੇਧੀ ਹੋਈ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਜਖਮੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਗਿਆ ਹੈ। ਨਾਜਾਇਜ ਤੌਰ ਉੱਤੇ ਗ੍ਰਿਫਤਾਰ ਕੀਤੇ ਗਇਆਂ ਦੀ ਕੁੱਟਮਾਰ ਰੁਕਵਾਉਣ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰਵਾਉਣ ਲਈ ਇਹਨਾਂ ਅਖੌਤੀ ਆਮ ਆਦਮੀ ਆਗੂਆਂ ਨੇ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ। ਪਰ ਮੋਦੀ ਭਗਤਾਂ ਵਾਂਗ ਕੇਜ਼ਰੀ ਭਗਤਾਂ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ 'ਤੇ ਵੀ ਸ਼ਰਧਾ ਦੀਆਂ ਕਾਲੀਆਂ ਪੱਟੀਆਂ ਬੰਨੀਆਂ ਹਨ ਤਾਂ ਹੀ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਦੀ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦਲਾਲ ਮੰਡਲੀ ਦੀਆਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਵਿਖਾਈ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦੀਆਂ। ਹੋਰ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾ ਪਾਰਟੀਆਂ ਵਾਂਗ ਆਪ ਪਾਰਟੀ ਨੇ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਸਰਕਾਰ ਬਣਦੇ ਹੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ-ਵਪਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਰਾਹਤ ਦੇਣ ਲਈ ਕਦਮ ਚੁੱਕੇ ਹਨ ਪਰ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨਾਲ਼ ਕੀਤੇ ਵਾਅਦਿਆਂ ਤੋਂ ਮੁੱਕਰ ਗਈ ਹੈ। ਵਾਅਦੇ ਯਾਦ ਕਰਾਉਣ ਗਏ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨਾਲ਼ ਇਹ ਉਸੇ ਤਰਾਂ ਪੇਸ਼ ਆਈ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਹੋਰ ਪਾਰਟੀਆਂ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਮਹੀਨਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਮੈਟਰੋ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਮੁਜਾਹਰੇ ਉੱਤੇ ਲਾਠੀਚਾਰਜ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ। ਆਉਣ ਵਾਲ਼ੇ ਦਿਨਾਂ ਚ ਕੇਜ਼ਰੀਵਾਲ਼ ਦਲਾਲ ਮੰਡਲੀ ਲੋਕਾਂ ਵਿੱਚ ਹੋਰ ਨੰਗੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਹੱਕ ਮੰਗਦੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ ਇਸਦਾ ਜ਼ਬਰ ਹੋਰ ਵਧਣਾ ਹੈ। ਪਰ ਇਸ ਜ਼ਾਬਰ ਟੋਲੇ ਉੱਤੇ ਵੀ ਹਰਭਜਨ ਸੋਹੀ ਦੀ ਕਵਿਤਾ ਦੀਆਂ ਇਹ ਸਤਰਾਹ੍ਂ ਪੂਰੀ ਤਰਾਂ ਢੁੱਕਦੀਆਂ ਹਨ -
ਜ਼ਬਰ ਨਾਕਾਮੀ ਹੋਰ ਜ਼ਬਰ,
ਜਦ ਤੀਕ ਨਾ ਮਿਲੇ ਕਬਰ।
ਹਰ ਜ਼ਾਬਰ ਦੀ ਇਹੋ ਕਹਾਣੀ,
ਕਰਨਾ ਜ਼ਬਰ ਤੇ ਮੂੰਹ ਦੀ ਖਾਣੀ...

- ਬਿਗੁਲ ਮਜ਼ਦੂਰ ਦਸਤਾ, ਲੁਧਿਆਣਾ

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ਦਿੱਲੀ - 
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ਲੰਬੀ -
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ਦਿੱਲੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਤਸ਼ੱਦਦ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਨਾਜਾਇਜ਼ ਤੌਰ ਉੱਤੇ ਗਿਰ੍ਫਤਾਰ ਕੀਤੇ ਮੁਜਾਹਰਾਕਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰਾਉਣ ਲਈ ਇਸ ਪਟੀਸ਼ਨ ਉੱਤੇ ਹਸਤਾਖਰ ਜ਼ਰੂਰ ਕਰੋ-
https://www.change.org/p/arvind-kejriwal-unconditional-rele…


अरे ! इस मुख्यमंत्री को कारागार से तो मुक्त करवाओ. यह तो पचास के दशक के नेपाल के जैसे हालात हो गये हैं. राजा त्रिभुवन कैद में थे और राजकाज उनके नाम पर राणा लोग चलाया करते थे. तब नेपाली कांग्रेस की मदद करने के लिये भारत को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था.

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अरे ! इस मुख्यमंत्री को कारागार से तो मुक्त करवाओ. यह तो पचास के दशक के नेपाल के जैसे हालात हो गये हैं. राजा त्रिभुवन कैद में थे और राजकाज उनके नाम पर राणा लोग चलाया करते थे. तब नेपाली कांग्रेस की मदद करने के लिये भारत को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था. 
माफियाओं की कैद में बन्द इस मुख्यमंत्री को कैसे छुड़ायें ? यह तो उनसे मुक्त हो ही नहीं पा रहा है. लोकतांत्रिक ढंग से तो यह 2017 के विधान सभा चुनाव के बाद चला ही जायेगा. मगर ये दो साल भी कैसे कटेंगे ? यह तो सांवैधानिक संकट जैसी स्थिति आ गई है. ऐसी अराजकता में कैसे चलेगा दो साल यह प्रदेश ?
अभी पौड़ी में संपन्न उमेश डोभाल समारोह से लौटा हूँ. वहाँ हरीश रावत की प्रतीक्षा थी. कार्यक्रम के आयोजक ही नहीं, जिला प्रशासन भी सतर्क था. ऐन मौके पर वे कन्नी काट कर टिहरी चले गये. चर्चा थी कि माफियाओं ने उन्हें समझा दिया कि यह पच्चीस साल से उमेश डोभाल की संघर्ष की परंपरा को खींच रहे पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों का कार्यक्रम है, देहरादून के 'हाँ जी..हाँ जी'....'जो तुमको पसंद हो वही बात कहेंगे' वाले स्टेनोग्राफरों का नहीं. वहाँ कड़वी-कड़वी सुनाने वाले ही मिलेंगे. बस भाग लिये हरीश रावत!
ऐसा नहीं कि समारोह में उनकी बहुत जरूरत थी. मुख्य वक्ता आनंद स्वरुप वर्मा सहित बहुत सारे लोगों की उनके आने पर असहमति थी. बाद में तो यह तय ही करना पड़ा कि उमेश डोभाल की शानदार परम्परा को कलंकित होने से बचाने के लिये भविष्य में किसी राजनेता को नहीं बुलाया जायेगा.
एक तरह से रावत को बुलाया भी नहीं गया था. सूचना एवं लोक संपर्क विभाग के अड़ियल अधिकारियों के अड़ंगे के कारण जब एक महीने तक कोशिश करने के बावजूद उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट के अध्यक्ष गोविन्द पन्त 'राजू' को जब मुख्यमंत्री से मिलने का समय ही नहीं मिला तो उन्होंने जैसे-तैसे फोन पर रावत से सम्पर्क किया. उमेश डोभाल प्रकरण से पूरी तरह वाकिफ रावत ने स्वयं ही कार्यक्रम में आने की पेशकश की. अब कोई कहे कि मैं आपके घर आऊँगा तो यह तो नहीं कहा जा सकता कि आप न आएँ.
मगर माफियाओं के घर शादी और नामकरण पर भी हेलीकाप्टर से चले जाने वाले हरीश रावत ऐन मौके पर पैरों पर माफियाओं द्वारा डाली गई बेडी नहीं तोड़ सके.

मगर माफियाओं के घर शादी और नामकरण पर भी हेलीकाप्टर से चले जाने वाले हरीश रावत ऐन मौके पर पैरों पर माफियाओं द्वारा डाली गई बेडी नहीं तोड़ सके.
Rajiv Lochan Sah's photo.
Rajiv Lochan Sah's photo.

Good days tell on the health of the Indian People! Modi asked for drastic cutback of health care to boost exclusive economy. Despite rapid economic growth over the last two decades, the Indian government spends only about 1% of GDP on public health. By comparison, the US and Japan spend 8.3%, while Brazil and China spend 4.3% and 3% respectively. Palash Biswas

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Good days tell on the health of the Indian People!

Modi asked for drastic cutback of health care to boost exclusive economy.

Despite rapid economic growth over the last two decades, the Indian government spends only about 1% of GDP on public health.

By comparison, the US and Japan spend 8.3%, while Brazil and China spend 4.3% and 3% respectively.


Palash Biswas



Good days tell on the health of the Indian People!Indian Prime Minister Narendra Modi has asked officials to rework a policy that aims to provide health care to a sixth of the world's population, after cost estimates came in at $18.5bn (£12.5bn, €17.1bn) for five years.

India's health ministry proposed rolling out the so-called National Health Assurance Mission – designed to provide free drugs, diagnostic services and health insurance for the nation's 1.2 billion people – from April 2015, and had projected its cost at $25.5bn over four years.

When the project was presented to Modi in January 2015, the costs had been cut to Rs.1.16tn ($18.5bn) over five years, Reuters reported.

But New Delhi thought that was still too much and asked the ministry to revamp the policy, but work is yet to start, the new agency added.

Despite rapid economic growth over the last two decades, the Indian government spends only about 1% of GDP on public health.

By comparison, the US and Japan spend 8.3%, while Brazil and China spend 4.3% and 3% respectively.

New Delhi has set aside a mere Rs.297bn ($4.74bn) for its healthcare budget for the financial year 2015-16, which begins in April.

That figure is about 2% higher than the current year's revised budget of Rs.290bn.



Modi asked for drastic cutback of health care to boost exclusive economy.

Whereas,Modi's manifesto ahead of the election that brought him to power last year accorded "high priority" to the health sector and promised a universal health assurance plan. The manifesto said previous public health schemes, that have been mired in payment delays recently, had failed to meet the growing medical needs of public.


Now everyone has to depend on his personal purchasing capacity to avail high voltage health service in a volatile market captured by free flow multinational capital.


It is making in.


It is development.


It is the basis of GDP boost and revenue management.


Already FDI in insurance means wider health insurance with double triple premium and open loot by multinational insurance companies at the cost of LIC and PSU insurance companies.


Just see that Media reports that Prime Minister Narendra Modi has asked for a drastic cutback of an ambitious health care plan after cost estimates came in at $18.5 billion over five years, quoting several government sources , which is resultant in delaying a promise made in his election manifesto.


On the other hand,India currently spends about 1 percent of its gross domestic product (GDP) on public health, but the badly-managed public health system means funds are not fully utilised. A health ministry vision document in December proposed raising spending to 2.5 percent of GDP but did not specify a time period.


The market forces welcome this decision and analyse that Modi has had to make difficult choices to boost economic growth – his government's first full annual budget, announced last month, ramped up infrastructure spending, leaving less federal funding immediately available for social sectors.


Mind you,the health ministry developed a draft policy on universal health care in coordination with the prime minister's office last year. The National Health Assurance Mission aims to provide free drugs, diagnostic services and insurance for serious ailments for India's 1.2 billion people.


The health ministry proposed rolling out the system from April 2015, and in October projected its cost as $25.5 billion over four years. By the time the project was presented to Modi in January the costs had been pared to 1.16 trillion rupees ($18.5 billion) over five years. That was still too much. The programme was not approved, three health ministry officials and two other government sources told Reuters. Three officials said the health ministry has been asked to revamp the policy, but work is yet to start.


In accordance the media report,the meeting was held in January and the discussions were not made public. Most amusing part of the information is that all of the sources declined to be named because of the sensitivity of the discussions.

According to media,Officials at the prime minister's office and the finance ministry, as well as the health ministry, did not respond to requests seeking comment.


However,we may still hope against hope that Modi has another four years left in his first term to fulfil the promise.


Meanwhile, health experts were dismayed when the federal budget for the full-year starting April raised the allocation for the country's main health department only by about 2 percent from the previous year, less than inflation. The meagre increase dimmed prospects for the massive health plan, they said.


Meanwhile,Times of India reports:

First world's discarded medical devices flood Indian markets


Complaints are coming in from the developing world about medical devices being 'dumped' or 'sold at inflated prices' by first-world countries and trading companies.


China led the pack, instituting a probe last year, against western and Japanese medical device makers for selling dialysis kits at exorbitant prices in comparison to indigenous versions. Recently , Uganda and Nigeria complained about poorly-calibrated, old machines being dumped in their hospitals in the name of donation.


Domestic manufacturers, too, have repeatedly petitioned government officials about the need to indigenize this sector quickly for similar reasons. Indian manufacturers blame poorly-controlled Chinese companies for exporting low-priced equipment of questionable quality to this country.


"CT and MRI scanners and ventilators can be imported with zero regulation. Patient monitors and dialysis machines are brought in without regulation," said Dr G S K Velu of Trivitron Healthcare, a Chennai medical devices company. Many of these machines-some refurbished after a year's use and resold cheaper - are dumped in India, where the regulatory framework is feeble, he says.


Rajiv Nath of Hindustan Syringes and Medical Devices (HSMD), which makes single-use injections, said doctors prefer a refurbished imported machine over a new India-made one as the latter isn't certified by government. "Who do we go to for certification? Government regulates a handful of medical devices, the rest are in the unregulated sector. A known, imported brand is thus preferred," he said.


A Mumbai medical equipment vendor conceded dump ing was rampant. "Do Indian consumers know if the dialysis machine they're strapped to or oximeters checking their oxygen levels aren't new? Or whether they're calibrated to function in Indian settings? "he said.


A 2012 report in The Lancet showed that about 40% of healthcare equipment in poor countries is out of service mainly because of ill-conceived donations-for instance, oxygen concentrators donated to a Gambian hospital worked on a voltage incompatible with the country's power supply.


Contributing about 6% of India's $40 billion healthcare sector (Ficci estimate), the medical equipment sector is small but vital to the healthcare industry. Consider cardiac and orthopaedic, the sector's biggest revenue-earners. About 3 lakh Indians undergo heart procedures and around 1 lakh knee-replacement surgeries. These cost a patient between Rs 1.5 lakh and Rs 5 lakh.Each involves use of medical devices. From the high end stent or a ball-and-socket knee joint to the humble clip or blood pressure-monitoring cuff, devices play a crucial role. The US Food & Drug Administration lists 150 types of medical devices used during angioplasties and cardiac bypass surgeries and over 120 types for orthopaedic operations. The medical devices list is long, Ficci estimating about 14,000 product types. Yet few Indians ask doctors about the make of stents or intraocular lenses.


The segment in India is worth over Rs 35,000 crore."Imports account for Rs 27,000 crore and could balloon to Rs 85,000 crore soon," said a healthcare expert. Unfortunately for Indians, the Drug Controller General of India's office has regulations for only 20 devices. A new legislation widening the scope of regulation is expected this year.


Nath of HSMD said there's little awareness among Indian lawmakers that medical devices are classified into seven fields (disposables, consumable, electronics, equipment, implants, diagnostic and surgical instruments). "They club these with medicines without realizing that electronic medical devices are different from, say, consumables used in operations. Just as you wouldn't want one doctor performing your heart surgery and knee replacement, you cannot have one set of regulations for the pharmaceutical industry covering all medical devices." There's another problem: Pricing. Dr Velu said: "Many companies sell drug-eluting stents at heavy premiums. They possibly get it at Rs 5,000 to 10,000 but charge patients Rs 75,000." Nath said: "The government reduced duty on imported medical devices. Was this benefit passed on to patients? Did government check if the MRP of imported implants or stents has come down? Retailers and hospitals blackmail Indian manufacturers to maintain the same MRP as importers so they get their margins." A doctor who didn't want to be named pointed to `indirect dumping': Diversion of unwanted stocks to the third world. He said a landmark clinical trial on drug-eluting stents, COURAGE, in 2009 proved angioplasties don't necessarily help more than aggressive medical management in patients with stable coronary artery disease. " After the trial, there was drop in stent use across the US. Foreign manufacturers flocked to countries such as India to promote stent use," he said.


But the Advanced Medical Technology Association (AdvaMed), which represents most American manufacturers, denies that foreign makers don't care about Indian consumers."AdvaMed's member companies try to make appropriate technologies available to the Indian market to help India address its non-communicable disease burden," said Vibhav Garg, co-chair AdvaMed-India Working Group, adding AdvaMed focuses on adapting devices to customized settings.

http://timesofindia.indiatimes.com/india/First-worlds-discarded-medical-devices-flood-Indian-markets/articleshow/46696235.cms


बिना मकसद जीवन यापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है पलाश विश्वास

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बिना मकसद जीवन यापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है

पलाश विश्वास

अचानक जिंदगी बिना मकसद हो गयी है।


मेरे अपढ़,किसान,अस्पृश्य,शरणार्थी पिता ने जो समता और सामाजिक न्याय की मशाल मुझे सौंपी थी,वह मशाल हाथ से फिसलती चली जा रही है और मैं बेहद बेबस हूं।


यह मुक्तिबोध के सतह से उठता आदमी की कथा भी नहीं है।


मैं तो सतह पर भी नहीं रहा हूं।सतह से बहुत नीचे जहां पाताल की शुरुआत है,वहां से यात्रा शुरु की मैंने और अपने ऊपर के तमाम पाथरमाटी की परतों को काट काटकर जमीन से ऊपर उठने का मिशन में लगा रहा था मैं।अब वह मिशन फेल है।मैं कहीं भी नहीं पहुंच पाया और जिंदगी ने जो मोहलत दी थी,वह छीजती चली जा रही है।


बिना मकसद जीवनयापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है।प्रेमहीन दांपत्य का विषवृक्ष दस दिगंतव्यापी वटवृक्ष है अब और वह फूलने फलने लगा है खूब।हवाओं और पानियों में उस जहर का असर है और हम कोई शिव नहीं है कि सारा हलाहल पान करके नीलकंठ बन जाये।


हमारे हिस्से में कोई अमृत भी नहीं है।


यह मुक्त बाजार स्वजनों के करोड़ों करोड़ों की जनसंख्या में हमें अकेला निपट अकेला चक्रव्यूह में छोड़  कार्निवाल में मदमस्त है और हमारे चारों तरफ बह निकल रही खून की नदियों से लोग बेपरवाह हैं।


पिता ने हमें मिशन के लिए जनम से तैयार किया क्योंकि वे जानते थे कि बाबासाबहेब जो मिशन पूरा नहीं कर सकें,वह मिशन उनकी जिंदगी में पूरा तो होने से रहा और न जाने कितनी पीढ़ियां खप जानी हैं उस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए।


हमारे लिए संकट यह है कि पिता तो अपनी मशाल हमें थमाकर  घोड़े बेचकर सो गये हमेशा के लिए,लेकिन हमारे हाथ से वह मशाल फिसलती जा रही है और आसपास,इस धरती पर कोई हाथ आगे बढ़ ही नहीं रहा है,जिसे यह मशाल सौंपकर हम भी घोड़े बेचकर सोने की तैयारी करें।


पीढ़ियां इस कदर बेमकसद हो जायेंगी, सन 1991 से पहले कभी नहीं सोचा था।


पिता ने बहुत बड़ी गलती की कि वे सोचते थे कि हम पढ़ लिखकर स्वजनों की लड़ाई लड़ते रहेंगे।


उनकी क्या औकात,जो एकच मसीहा बाबासाहेब थे,वे भी सोचते थे कि बहुजन समाज पढ़ लिख जायेगा, अज्ञानता का अंधकार दूर हो जायेगा तो उनका जाति उन्मूलन का एजंंडा पूरा होगा और उनके सपनों का भारत बनेगा।


ऐसा ही सोचते रहे होंगे हरिचांद गुरुचांद ठाकुर,बीरसा मुंडा और महात्मा ज्योति बा फूले और माता सावित्री बाई फूले।हमारे तमाम पुरखे।


नतीजा फिर वही विषवृक्ष है जो जहर फैलाने के सिवाय कुछ भी नहीं करता है।


बाबासाहेब ने फिर भी  हारकर लिख दिया कि पढ़े लिखे लोगों ने हमें धोखा दिया।


जाहिर है कि हमारे पिता न बाबासाहेब थे और न हम बाबासाहेब की चरण धूलि के बराबर है।लेकिन हम लोग,पिता पुत्र दोनों बाबासाहेब के मिशन के ही लोग रहे हैं और वह मिशन खत्म है।


ऐसा हमारे पिता नहीं सोचते थे।लाइलाज रीढ़ के कैंसर को हराते हुए आखिरी सांस तक अपने मकसद के लिए वे लड़ते चले गये।


पिता की गलती रही कि नैनीताल में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए मालरोड किनारे होटल के कमरे में मुकम्मल कंफोर्ट जोन में जो वे मुझे डाल गये,संघर्ष के पूरे तेवर के बावजूद हम दरअसल उसी कंफोर्ट जोन में बने रहे।वही हमारी सीमा बनी रही।जिसे हम तोड़ न सके।


हम जनता के बीच कभी नहीं रहे।


जनता के बीच न पहुंच पाने की वजह से जनता से संवाद हमारा कोई नहीं है और न संवाद की कोई स्थिति हम गढ़ सके।


तो हालात बदल देने का जो जज्बा मेरे पिता में उनकी तमाम सीमाओं और बीहड़ परिस्थितियों के बावजूद था,उसका छंटाक भर मेरे पास नहीं है।


अब जब कंफोर्ट जोन से निकलने की बारी है और अपने सुरक्षित किले से गोलंदाजी करते रहने के विशेषाधिकार से बेदखल होने जा रहा हूं तो बदले हालात में अचानक देख रहा हूं कि मेरे लिए अब करने क कुछ बचा ही नहीं है।


युवा मित्र अभिषेक श्रीवास्तव ने सही कहा है कि बेहद बेहद बेचैन हूं।उसके कहे मुताबिक दो दिनो तक न लिखने काअभ्यास करके देख लिया।लेकिन सन 1973 से से जो रोजमर्रे की दिनचर्या है,उसे एक झटके से बदल देना असंभव है।


हां,इतना अहसास हो रहा है कि आज तक आत्ममुग्ध सेल्फी पोस्ट करके जो मित्र  हमें सरदर्द देते रहे हैं,उनसे कम आत्ममुग्ध मैं नहीं हूं।


साठ और सत्तर के दशक में हमने सोचा कि लघु पत्रिका आंदोलन से हम लोग हीरावल फौज खड़ी कर देंगे।हीरावल फौज तो बनी नहीं,नवउदारवाद का मुक्तबाजार बनने से पहले वह लघु पत्रिका आंदोलन बाजार के हवाले हो गया।विचारधारा हाशिये पर है।


नब्वे के दशक में इंटरनेट आ जाने के बाद वैकल्पिक मीडिया के लिए नया सिंहद्वार खुलते जाने का अहसास होने लगा।


मुख्यधारा में तो हम कभी नहीं थे।हमारी महात्वाकांक्षा उतनी प्रबल कभी न थी।

हमने जो रास्ता चुना,वह भी कंफोर्ट जोन से उलट रहा है।


जीआईसी में जब मैं आर्ट्स में दाखिले के लिए पहुंचा तो दाखिला प्रभारी  हमारे गुरुजी हरीशचंद्र सती ने कहा कि तुम्हारा जो रिजल्ट है तुम साइंस या बायोलाजी लेकर कैरीयर क्यों नहीं बनाते।तब हमने बेहिचक कहा था कि मुझे साहित्य में ही रहना है।


जिन ब्रह्मराक्षस ने हमारी जिंदगी को दिशा दी,वे हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी भी चाहते थे कि मैं आईएएस की तैयारी करूं तो पिता चाहते थे कि वकालत मै करुं।


हमने कोई वैसा विकल्प चुनने से मना कर दिया और जो विकल्प मैंने चुना ,वह मेरा विकल्प है और इस विकल्प के साथ मेरी जो कूकूरगति हो गयी,उसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूं।इसका मुझे अफसोस भी नहीं रहा।


एक मिथ्या जो जी रहा था कि हम लोग मिशन के लिए जी रहे हैं,उसका अब पर्दाफाश  हो गया है।


हमारे जो मित्र सेल्फी पोस्ट करके अपनी सर्जक प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं,हम भी कुल मिलाकर उसी पांत में है।


दरअसल मुद्दों को संबोधित करने के बहाने हम सिर्फ अपने को ही संबोधित कर रहे थे,जो आत्मरति से बेहतर कुछ है ही नहीं।


तिलिस्म में हमउ खुद घिरे हुए हैं और इस तिलिसम के घहराते हुए अंधियारे में लेखन के जरिये रोशनी दरअसल हम अपने लिए ही पैदा कर रहे हैं,जिनके लिए यह रोशनी पैदा कर रहे हैं,सोचकर हम मदमस्त थे अबतक,वह रोशनी उनतक कहीं भी, किसी भी स्तर पर पहुंच नहीं रही है।


चार दशक से हम भाड़ झोंकते रहे हैं और सविता बाबू की शिकायत एकदम सही है कि हम अपने लिए,सिर्फ अपने लिए जीते रहे हैं और आम जनता की गोलबंदी के सिलसिले में कुछ भी कर पाना हमारी औकात में नहीं है।


बर्वे साहेब ने भी मना किया है बार बार कि इतना लोड उठाने की जरुरत नहीं है।


हम जनता के मध्य हुए बिना  अपने पिता का जुनून जीते रहे हैं।दरअसल हमने कहीं लड़ाई की शुरुआत भी नहीं की है।लड़ाई शुरु होने से पहले हारकर मैदान बाहर हैं हम और अचानक जिंदगी एकदम सिरे से बेमकसद हो गयी है।


अब जीने के लिए लिखते रहने के अलावा विकल्प कोई दूसरा हमारे पास नहीं है।वह भी तबतक जबतक हस्तक्षेप में अमलेंदु हमें जिंदगी की मोहलत दे पायेंगे। फुटेला तो कोमा में चला गया है और उसके स्टेटस के बारे में कोई जानकारी नहीं है।बाकी सोशल मीडिया में भी हम अभी अछूत ही हैं।


जो हम लगातार अपने लोगों तक आवाज दे रहे हैं,हम नहीं जानते कि कितनी आवाज उनतक पहुंचती है और कितनी आवाजें वे अनसुना कर रहे है।लोग टाइमलाइन तक देखते नहीं हैं।


फिरभी यह तय है कि 1991 से जो हम लगातार  सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाये आत्ममुग्ध जिंदगी जी रहे थे,उन सूचनाओं से किसी का कुछ लेना देना नहीं है।


अभिषेक का कहना है कि आप कुछ दिनों तक सारी चीजों से अपने को अलग करके चैन की नींद सोकर देखे तो नींद से जागकर देखेंगे कि भारत अभी हिंदू राष्ट्र बना नहीं है।


अभिषेक हमसे जवान है।हमसे बेहतर लिखता है।हमसे बेहतर तरीके से परिस्थितियों को समझता है।उसका नजरिया अभी नाउम्मीद नहीं है।यह बेहद अच्छा है कि युवातर लोगों ने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं।


हमारे युवा मित्र अभिनव सिन्हा का मुख्यआरोप हमारे खिलाफ यह है कि मैं वस्तुवादी हूं नहीं और मेरा नजरिया भाववादी है।सही है कि यह मेरा स्थाई भाव है।


उम्मीद है कि हमारे युवा लोग हमारी तरह नाउम्मीद न होंगे।शायद लड़ाई की गुंजाइश अभी बाकी भी है।


हम लेकिन इसका क्या करें कि हमें तो लगता है कि भारत अब मुक्म्मल हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व के तिलिस्म को तोड़ने का कोई हथियार फिलहाल हमारे पास नहीं है।


हमारी बेचैनी का सबब यही है।




Satah se Uthta Admi



सतह से उठता आदमी



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गजानन माधव मुक्तिबोध



आपका कार्ट



मूल्य

:

$ 8.95  





प्रकाशक

:

भारतीय ज्ञानपीठ





आईएसबीएन

:

81-263-0360-3





प्रकाशित

:

जनवरी ०१, २०००





पुस्तक क्रं

:

396





मुखपृष्ठ

:

सजिल्द







सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'चाँद का मुँह टेढ़ा है', 'एक साहित्यिक की डायरी', 'काठ का सपना'तथा 'विपात्र'के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध की यह एक और विशिष्ट कृति है 'सतह से उठता आदमी'।

इस संग्रह में मुक्तिबोध की नौ कहानियाँ संकलित हैं। श्री शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में : मुक्तिबोध के साहित्य में हमारे संस्कारों को संवारने और उन्हें ऊँचा उठाने की बड़ी शक्ति है। वह हम मध्य वर्गीय पाठकों की दृष्टि साफ करता है, समझ बढ़ाता है। इन कहानियों में भी हमें अपने जीवन के विविध पक्षों का अति निकट का परिचय एवं विश्लेषण मिलता है और मिलती है सामाजिक सम्बन्धों की पैनी परख। एक के बाद एक परदे हटते जाते हैं और यथार्थ उघड़ कर सामने आता जाता है...

प्रस्तुत है मुक्तिबोध की इस महत्त्वपूर्ण कृति का यह नया संस्करण।


दृष्टिकोण

मुक्तिबोध के साहित्य में हमारे संस्कारों को सँवारने और उन्हें ऊँचा उठाने की बड़ी शक्ति है। वह हम मध्यवर्गीय पाठकों की दृष्टि साफ करता है, समझ बढ़ाता है। इन कहानियों में भी हमें अपने जीवन के विविध पक्षों का अति निकट का परिचय एवं विश्लेषण मिलता है, और मिलती है सामाजिक सम्बन्धों की पैनी परख। एक के बाद एक परदे हटते जाते हैं और यथार्थ उघड़कर सामने आता जाता है।


इन कहानियों में एक और विशेषता यह है कि ये सहज ही हर स्थिति के अतिसामान्य में असामान्य और अद्भुत का भरम पैदा कर देती हैं। इसे हम तटस्थ-सी काव्यकर्मी कल्पना-शक्ति का कमाल कह सकते हैं। और इसी वातावरण में हर कहानी एक ऐसे घाव को, एक ऐसी पीड़ा को हमारे सामने उघाड़कर रखती है जिसे हम देखकर अनदेखा और सुनकर अनसुना कर जाते रहे हैं। एक बार इन कहानियों को पढ़ने के बाद पाठक के लिए ऐसा करना असम्भव हो जाता है। लगता है, जैसे इन कहानियों में आयामी अर्थ छिपे हों। इन्हें पढ़ने पर हर बार ऐसा कुछ शेष रह जाता है जो इन्हें फिर-फिर पढ़ने को आमन्त्रित करता है। बात यह है कि ये कहानियाँ जीवन के ठहरे नैतिक मूल्यों पर सोचने के लिए पाठक को विवश करती है।

मुक्तिबोध-साहित्य में इस कहानी-संग्रह का इज़ाफ़ा करने के लिए स्तरीय साहित्य का हिन्दी पाठक कृतज्ञता का अनुभव करेगा। इसका प्रकाशन किसी भी प्रकाशक के लिए गौरव की बात है।


-शमशेर बहादुर सिंह


मुक्तिबोध का सारा जीवन एक मुठभेड़ है। मुक्तिबोध का साहित्य भी उस यथार्थ से मुठभेड़ की एक अटूट प्रक्रिया है, जिससे जूझते हुए वह नष्ट हो गये। कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, आलोचना-साहित्य की लगभग हर विधा में जाकर उन्होंने अपने अनुभव को समझने, उसकी परिभाषा करने और उसे अर्थ देने का प्रयत्न किया।

कहानी मुक्तिबोध की सबसे प्रिय विधा नहीं। उनके जीवन-काल में बहुतों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उन्हें कहानियाँ लिखी हैं। ज़ाहिर है कि मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आन्दोलन नहीं था। हर, रचना, उनके लिए, एक भयानक, शब्दहीन अन्धकार को-जो आज भी, भारतीय जीवन के चारों ओर, चीन की अर्थहीनता से भरे हुए समसामयिक हिन्दी कथा साहित्य का आधार है, वह मुक्तिबोध की रचना का केन्द-बिन्दु नहीं था। मुक्तिबोध का प्रयोजन रचना के ज़रिये रचना और जीवन के भीतर के तनावों और संकटों को समझना था। उनकी रचना-प्रक्रिया इस समूचे संकट को नाम देने की प्रक्रिया है।


उनकी तमाम कहानियों में केवल एक ही पात्र है, जो अलग-अलग नामों में, अलग-अलग रूपों में और कभी-कभी लिंग परिवर्नत कर उपस्थित होता है। यह पात्र मध्यवर्ग के आध्यात्मिक संकट का गवाह, व्याख्याता, पक्षधर, भोक्ता, विरोधी—सब कुछ है। कुछ हद तक यह पात्र स्वयं मुक्तिबोध है, और कुछ हद तक यह पात्र वह व्यक्ति है जो मुक्तिबोध के साथ-साथ चलता है। वह केवल मुक्तिबोध को सुनता ही नहीं बल्कि उन्हें सुनाता भी है, नसीहत भी देता है, उन्हें फुसलाने की कोशिश भी करता है। मुक्तिबोध की कहानियाँ दो पात्रों के बीच—एक स्वयं मुक्तिबोध और दूसरा मुक्तिबोध का सहयात्री-एक अनन्त वार्तालाप है। इस वार्तालाप का क्रम न तो उनकी डायरी में टूटा है, न ही उनकी कविताओं में।

संग्रह की पहली कहानी 'ज़िंदगी की कतरन'का केन्द्र-बिन्दु 'आत्महत्या'है —आत्महत्या के साथ जुड़ी हुई वह जीवन-श्रृंखला है, जिसे समझने की कोशिश में मुक्तिबोध समझ और ज्ञान के हर तहखाने में गये। मुक्तिबोध के उपन्यास 'विपात्र'की तरह इस संग्रह की अधिकतर कहानियों—'समझौता', 'चाबुक', 'विद्रूप', 'सतह से उठता आदमी'के पात्र वे अभिशप्त मध्यवर्गीय स्त्री-पुरुष हैं जो जीवन-दर्शन के अभाव में अन्धकार में प्रेतात्माओं की तरह एक-दूसरे से टकरा रहे हैं, एक-दूसरे से जूझ रहे हैं और एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं। इन कहानियों को पढ़ते हुए सार्त्र के नाटक 'नो एक्टिव'की याद आ जाना स्वाभाविक ही है।


जीवन-दृष्टि शिक्षा से नहीं, आत्मसंघर्ष से प्राप्त होती है। इन कहानियों के तमाम शिक्षित पात्रों के बिलकुल विपरीत 'आखेट'कहानी का नायक कान्सटेबिल मेहरबानसिंह एक अशिक्षित व्यक्ति है, जिसे केवल उत्पीड़न और जुल्म की ट्रेनिंग दी गयी है। मगर उसकी अन्तरात्मा उसे दी गयी शिक्षा से प्रबल है। एक अपाहिज स्त्री पर बलात्कार करता हुआ वह अपनी अन्तरात्मा पर भी बलात्कार करता है। अन्ततः वह पाता है, यह सम्भव नहीं। केवल प्रेम ही सम्भव है। सर्वहारा के साथ मुक्तिबोध की कोरी सहानुभूति नहीं थी। उसके पीछे केवल उनकी व्याख्यापरक बुद्धि और अनुभव से उत्पन्न विश्वास थे। उनका विश्वास था कि मध्यवर्ग पर थोपी गयी तथाकथित आधुनिकता मनुष्यता, करुणा, आदर्शवादिता और सत्य का संहार है। 'सतह से उठता आदमी'के पात्र इस संहार के खँडहर हैं—वे भारतीय इतिहास के सर्वनाश के जीवित प्रतीक हैं, जिन्हें परिभाषित करने की अनिवार्यता ने मुक्तिबोध को इन कहानियों की रचना के लिए विवश किया।


श्रीकान्त शर्मा


ज़िन्दगी की कतरन


नीचे जल के तालाब का नज़ारा कुछ और ही है। उसके आस-पास सीमेण्ट और कोलतार की सड़क और बँगले। किन्तु एक कोने में सूती मिल के गेरुए, सफ़ेद और नीले स्तम्भ के पोंगे उस दृश्य पर आधुनिक औद्योगिक नगर की छाप लगाते हैं। रात में तालाब के रुँधे, बुरे बासते पानी की गहराई सियाह हो उठती है, और ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्बि वर्तमान मानवी सभ्यता के सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते-से प्रतीत होते हैं। सियाह गहराई के विस्तार पर ताराओं के धुँधले प्रतिबिम्बों की विकीरित बिन्दियाँ भी उस कृष्ण गहनता से आतंकित मन को सन्तोष नहीं दे पातीं वरन् उसे उघार देती हैं।


तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदास, मलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आयी है। उस रात्रि-श्याम जल की प्रतीक-विकरालता से स्फुट होकर मैंने अपने जीवन में सूनी उदास कथाएँ अपने साथियों के संवेदना-ग्रहणशील मित्रों को सुनायी हैं।

यह तालाब नगर के बीचोंबीच है। चारों ओर सड़कें और रौनक़ होते हुए भी उसकी रोशनी और खानगी उस सियाह पानी के भयानक विस्तार को छू नहीं पाती है। आधुनिक नगर की सभ्यता की दुखान्त कहानियों का वातारवण अपने पक्ष पर तैरती हुई वीरान हवा में उपस्थित करता हुआ यह तालाब बहुत ही अजीब भाव में डूबा रहता है।


फिर इस गन्दे, टूटे घाटवाले, वुरे-बासते तालाब के उखड़े पत्थरों-ढके किनारे पर निम्न मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे अहलकारों और मुंशियों का जमघट चुपचाप बैठा रहता है और आपस में फुसफुसाता रहता है। पैण्ट-पज़ामों और धोतियों में ढके असन्तुष्ट प्राणमन सई- साँझ यहाँ आ जाते हैं, और बासी घरेलू गप्पों या ताज़ी राजनीतिक वार्ताओं की चर्चाएँ घण्टा-आधा घण्टा छिड़कर फिर लुप्त हो जाती हैं और रात के साढ़े आठ बजे सड़कें सुनसान, तालाब का किनारा सुनसान हो जाता है।

एक दिन मैं रात के नौ बजे बर्माशेल में काम करनेवाले नये दोस्त के साथ जा पहुँचा था। हमारी बातचीत महँगाई और अर्थाभाव पर छिड़ते ही हम दोनों के हृदय में उदास भावों का एक ऐसा झोंका आया जिसने हमें उस विषय से हटाकर तालाब की सियाह गहराइयों के अपार जल-विस्तार की ओर खींचा। उस पर ध्यान केन्द्रित करते ही हम दोनों के दिमाग़ में एक ही भाव का उदय हुआ।


मैंने अटकते-अटकते, वाक्य के सम्पूर्ण विन्यास के लिए अपनी वाक्-शक्ति को ज़बरदस्ती उत्तेजित करते हुए उससे कहा, ''क्यों भाई, आत्महत्या...आत्महत्या के बारे में जानते हो...उसका मर्म क्या है।

जवाब मिला, जैसे किसी गुहा में से आवाज़ आ रही हो, ''क्यों, क्यों पूछ रहे हो ?''

''यो ही, स्वयं आत्हत्या के सम्बन्ध में कई बार सोचा था।''

आत्म-उद्घाटन के मूड में, और गहरे स्वर से साथी ने कहा, ''मेरे चचा ने खुद आत्हत्या की मैनचेस्टर गन से। लेकिन....''

उसके इतने कहने पर ही मेरे अवरुद्ध भाव खुल-से गये। आत्महत्या के विषय में अस्वस्थ जिज्ञासा प्रकट करते हुए मैंने बात बढ़ायी, ''हरेक आदमी जोश में आकर आत्महत्या करने की क़सम भी खा लेता है। अपनी उद्विग्न चिन्तातुर कल्पना की दुनिया में मर भी जाता है, पर आत्महत्या करने की हिम्मत करना आसान नहीं है। बायोलॉजिकल शक्ति बराबर जीवित रखे रहती है।''


दोस्त का मन जैसे किसी भार से मुक्त हो गया था। उसने सचाई भरे स्वर में कहा, ''मैं तो हिम्मत भी कर चुका था, साहब ! डूब मरने के लिए पूरी तौर से तैयार होकर मैं रात के दस बजे घर से निकला, पर इस सियाहपानी की भयानक विकरालता ने इतना डरा दिया था कि किनारे पर पहुँचने के साथ ही मेरा पहला ख़याल मर गया और दूसरे ख़याल ने ज़िन्दगी में आशा बाँधी। उस आशा की कल्पना को पलायन भी कहा जा सकता है। प्रथम भाव-धारा के विरुद्ध उज्ज्वल भाव-धारा चलने लगी। सियाहपानी के आतंक ने मुझे पीछे हटा दिया...बन्दूक़ से मर जाना और है, वीरान जगह पर रात को तालाब में मर जाने की हिम्मत करना दूसरी चीज़।''

मित्र ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा, ''आत्महत्या करनेवालों के निजी सवाल इतने उलझे हुए नहीं होते जितने उनके अन्दर के विरोधी तत्त्व, जिनके आधीन प्रवृत्तियों का आपसी झगड़ा इतना तेज़ हो जाता है कि नई ऊँचाई छू लेता है। जहाँ से एक रास्ता जाता है ज़िन्दगी की ओर, तो दूसरा जाता है मौत की तरफ़ जिसका एक रूप है आत्महत्या।''

मित्र के थोड़े उत्तेजित स्वर से ही मैं समझ गया कि उसके दिल में किसी कहानी की गोल-मोल घूमती भँवर है।

उसके भावों की गूँज मेरी तरफ़ ऐसे छा रही थी मानो एक वातावरण बना रही हो।


मैं उसके मूड से आक्रांत हो गया था। मेरे पैर अन्दर नसों में किसी ठण्डी संवेदना के करेण्ट का अनुभव कर रहे थे।

उसके दिल के अन्दर छिपी कहानी को धीरे से अनजाने निकाल लेने की बुद्धि से प्रेरित होकर मैंने कहा, ''यहाँ भी तो आत्महत्याएँ हुई हैं।

यह कहकर मैंने तालाब के पूरे सियाह फैलाव को देखा, उसकी अथाह काली गहराई पर एक पल नज़र गड़ायी। सूनी सड़कों और गुमसुम बँगलों की ओर दृष्टि फेरी और फिर अँधेरे में अर्ध-लुप्त किन्तु समीपस्थ मित्र की ओर निहारा और फिर किसी अज्ञेय संकेत को पाकर मैं किनारे से ज़रा हटकर एक ओर बैठ गया।

फिर सोचा कि दोस्त ने मेरी यह हलचल देख ली होगी। इसलिए उसकी ओर गहरी दृष्टि डालकर उसकी मुख-मुद्रा देखने की चेष्टा करने लगा।


दोस्त की भाव-मुद्र अविचल थी। घुटनों को पैरों से समेटे वह बैठा हुआ था उसका चेहरा पाषाण-मूर्ति के मुख के अविचल भाव-सा प्रकट करता था। कुछ लम्बे और गोल कपोलों की मांसपेशियाँ बिलकुल स्थिर थीं। या तो वह आधा सो रहा था अथवा निश्चित रूप से भावहीन मस्तिष्क के साँवले धुँधलेपन में खो गया था, किंवा किसी घनीभूत चेतना के कारण निस्तब्धता-सा लगता था। मैं इसका कुछ निश्चय न कर सका।

मेरी इस खोज-भरी दृष्टि से अस्थिर होकर उसने जवाब दिया, ''क्यों, क्या बात है ?''

उसके प्रश्न के शान्त स्वर से सन्तुष्ट होकर मैंने दोहराया, ''इस तालाब में भी कइयों ने जानें दी हैं !''


''हाँ, किन्तु उसमें भी एक विशेषता है'', उसके अर्थ भरे स्वर में हँसते हुए कहा। फिर वह कहता गया, ''इस तालाब में जान देने आये हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताये और घबराये पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा ! अपनी ज़िन्दगी की ऊष्मा और आशय समाप्त होता जान, उसने अनजाने-अँधेरे पानी की गहराइयों में बाइज़्ज़त डूब मरने का हौसला किया और उसे पूरा कर डाला। तुम तो जानते हो, अधेड़ तो वह था ही, बाल-बच्चे भी न थे। कोई आगे न पीछे। उसकी लाश पानी में न मालूम कहाँ अटक गयी थी। तालाब से सड़ी बास आती थी। किन्तु जब लाश उठी तो उसकी तेलिया काली धोती दूर तक पानी में फैली हुई थी।....''

उसी तरह तुम्हारा तिवारी। वह-पुरे की तेलिन, पाराशर के घर की बहू। ''ये सब सामाजिक-पारिवारिक उत्पीड़न के ही तो शिकार थे ?''


उसके इन शब्दों ने मुझमें अस्वस्थ कुतूहल को जगा दिया। मेरी कल्पना उद्दीप्त हो उठी। आँखों के सामने जलते हुए फॉसफोरसी रंग के भयानक चित्र तैरने लगे, और मैं किसी गुहा के अन्दर सिकुड़ी ठण्डी नलीदार मार्ग के अँधेरे में उस आग के प्रज्वलित स्थान की ओर जाता-सा प्रतीत हुआ जो उस गुहा के किसी निभृत कोण में क्रुद्ध होकर जल रही है—जिस आग में (मानो किन्हीं क्रूर आदिम निवासियों ने, जो वहाँ दीखते नहीं, लापता है) मांस के वे टुकड़े भूने जाने के लिए रखे हैं जो मुझे ज्ञात होते से लगते हैं कि वे किस प्राणी के हैं,  किस व्यक्ति के हैं।


http://pustak.org/bs/home.php?bookid=396


গো-মূত্রে অফিস পরিষ্কারের আহ্বান মন্ত্রীর

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গো-মূত্রে অফিস পরিষ্কারের আহ্বান মন্ত্রীর


গো-মূত্রে অফিস পরিষ্কারের আহ্বান মন্ত্রীর














ভারতের কেন্দ্রীয় মন্ত্রী মানেকা গান্ধী সরকারি কার্যালয় ফিনাইলের পরিবর্তে গো-মূত্র দিয়ে পরিষ্কার করতে বলেছেন। 'রাসায়নিক'ব্যবহার না করে এই প্রাকৃতিক উপাদান ব্যবহারকে 'স্বাস্থ্যকর'হিসেবে অভিহিত করেছেন তিনি। খবর টাইমস অব ইন্ডিয়ার।

ভারতের নারী ও শিশু উন্নয়নবিষয়ক এ মন্ত্রী মন্ত্রণালয়ের সহকর্মীদের পাঠানো এক চিঠিতে বিষয়টি উল্লেখ করেন। তিনি লেখেন, 'আমি আপনাদের এই বলে অনুরোধ করতে চাই যে, ক্ষতিকর রাসায়নিকের পরিবর্তে প্রাকৃতিক গো-মূত্র ব্যবহার করুন।'দেশটির রাষ্ট্রীয় ভবনে অবস্থিত কেন্দ্রীয় ভা-ার'-এ গো-মূত্র সঞ্চয় করা হচ্ছে বলে উল্লেখ করেন এই মন্ত্রী। 'হলি কাউ ফাউন্ডেশন'নামে একটি বেসরকারি সংস্থা এই উদ্যোগ গ্রহণ করেছে বলে জানা যায়।

http://www.dainikamadershomoy.com/2015/03/26/20834.php

পিঁপড়া মেরে সুখ ...... মুহাম্মদ ইউসুফ

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পিঁপড়া মেরে সুখ


...... মুহাম্মদ ইউসুফ


ফারাক্কাতে বাঁধ দিয়েছি


টিপাইমুখেও দেব !!


সবুজ নিয়ে বড়াই করিস ?


সবুজ কেড়ে নেব !!


ফাঁদ পেতেছি, বাঁধ দিয়েছি


পিঁপড়া মেরে সুখ !!


চেঁচাবি না, দেখবি কেবল


দাদার বিকট মুখ !!


নদীদখল, ভরাট, দূষণ


নদীমাতৃক বাংলাদেশে !!


পরিবেশের পতন দ্রুত


যাচ্ছি কোথায় সবাই শেষে ?


মরে যাচ্ছে, পচে যাচ্ছে নদী


বাঁচতেই চাও যদি ...


সাবধানী হও সাধু ...


২৭-০৩-২০১৫

ঢাকা, বাংলাদেশ ।

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है। जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है। हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है। पलाश विश्वास

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बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकिनवधनाढ्यकर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।


जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।


हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।


पलाश विश्वास

फोटोःइकोनामिक टाइम्स के सौजन्य से।


अब हम सूचनाओं पर फोकस कम कर रहे हैं क्योंकि सूचनाओं के जानकार होते हुए भी समझ के अभाव में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।इसलिए अबसे सांगठनिक और वैचारिक मुद्दों पर मेरा फोकस रहना है।सूचनाें हम अंग्रेजी में डालेंगे और बांग्ला में भी जरुरी मुद्दो पर ही फोकस करेंगे।


बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।


यह कटु सत्य बामसेफ के विवादित मसीहा वामन मेश्राम से बेहतर शायद कोई नहीं जानता।कमसकम दस सालों तक हमारी बहस उनसे यही होती रही कि बामसेफ को जनांदोलनों की अगुवाई करनी चाहिए और बामसेफ को आर्थिक मुद्दों पर जनजागरणचालाना चाहिए।


अपने खास अंदाज में हमारी दलीलों को खारिज करते हुए वामन मेश्राम हर बार कहते रहे हैं कि कर्मचारी आंदोलन करेंगे नहीं।कर ही नहीं सकते।


वे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन की बात बामसेफ के मंच से करते रहे और इस सिलसिले में हमारा भी इस्तेमाल करते रहे लेकिन वे जानते थे कि यह असंभव है।


वे जानते थे कि इस नवधनाढ्य तबके को किसी की फटी में टांग अड़ाने का जोखिम उठाना नहीं है लेकिन वह राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के लिए संसाधन झोंकने से पीछे हटेगा नहीं।


दुधारु कर्मचारियों से संसाधन जुटाने में वामन मेश्राम ने कोई गलती नहीं की।ट्रेड यूनियनें और पार्टियां भी विचारधारा के नाम पर वामन मेश्राम का फार्मूला काम में ला रहे हैं।


लाखों रुपये चंदे में बेहिचक देने वालों को हिसाब से लेना देेना नही हैं,यह नवधनाढ्य तबका  सभी देवताओं को इसी तरह खुश रखता है।


न जनांदोलनों से इस सातवें आयोग के वेतनमान का बेसब्री से इंतजार करने वाले,आरक्षण और अस्मिता को जीवन मरण का प्रश्न बनाये रखने वाले मलाईदार तबके को कोई मतलब है,और न बाबासाहेब के मिशन से और न उन ट्रेड यूनियनों की विचारधारा से ,जिनके वे सदस्य हैं।वे राष्ट्रव्यापी हड़ताल कर सकते हैं।सिर्फ और सिर्फ अपने लिए।आम जनता के लिए कतई नहीं।


वे सड़कों पर उतर भी सकते हैं।लाठी गोली खाने से भी वे परहेज नहीं करेंगे।लेकिन सिर्फ बेहतर वेतनमान के लिए,बेहतर भत्तों के लिए।विनिवेश और निजीकरण और संपूर्ण निजीकरण और अपने ही साथियों के वध से उन्हें खास ऐतराज नहीं है जबतक कि वे खुद सड़क पर उतर नहीं आते।


हमने हर सेक्टर के कर्मचारियों को अर्थव्यवस्था के फरेब समझाने की झूठी कवायद में पूरी दशक जाया कर दिया और दूसरे लोगों ने पूरी जिंदगी जाया कर दिया।


अगर कर्मचारी तनिक बाकी जनता और कमसकम अपने साथ के लोगों की परवाह कर रहे होते तो अपनी ताकत और अपने अकूत संसाधनों के हिसाब से वे बखूब इस मुक्तबाजारी तिलिस्म को तोड़ सकते थे।


ऐसा नहीं होना था।हमने इसे समझने में बहुत देर कर दी है और उनके भरोसे जनता के बीच हम अब तक अस्मिताओं के आर पार कोई पहल नहीं कर सके हैं। न आगे हम कुछ करने की हालत में हैं।


जैसे बामसेफ को लेकर बहुजनों को गौतम बुद्ध की क्रांति को दोहराने का दिवास्वप्न उन्हें विकलांग और नपुंसक बनाता रहा है,आप को लेकर आम जनता के एक हिस्से का मोह हूबहू वही सिलिसिला दोहरा रहा है और सबसे खराब बात है कि हमारे प्रबुद्ध जनपक्षधर लोग इसे झांसे से बचे नहीं है।


वे समझ रहे थे कि बिना जनांदोलन की कोई कवायद किये अरविंद केजरीवाल अपने निजी करिश्मे के साथ इस वक्त को बदल देंगे।वे लोकतंत्र बहाल कर देंगे,जिसके वे शुरु से खिलाफ रहे हैं।


दरअसल अरविंद भी हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे ईमानदार और सबसे कर्मठ सिपाहसालार है,हमारे सबसे समझदार लोगों ने इस सच को नजरअंदाज किया है और यह बहुत बड़ा अपराध है आम जनता के खिलाफ,इसका अहसास भी हमें नहीं है।


निजी करिश्मा से क्रांति हुई रहती तो कार्ल मार्क्स कर लेते और न माओ,न लेनिन,न स्टालिन और न फिदेल कास्त्रों की संगठनात्मक क्षमता की कोई जरुरत होती।


नेलसन मांडेला जल में रहकर ही रंगभेद मिटा देते और गांधी को कांग्रेस के मंच से देश जोड़ना न पड़ता।


विचार काफी होते तो गुरु गोलवलकर हिंदी राष्ट्र बना चुके थे,संघ परिवार जैसे किसी संस्थागत संगठन  की जरुरत हरगिज न होती।


संगठन जरुरी न होता तो बाबासाहेब अपना एजंडा पूरा किये बिना सिधार न गये होते।


जिस क्रांति का हवाला देकर हम गौतम बुद्ध को ईश्वर बना चुके हैं,उस क्रांति के पीछे कोई गौतम बुद्ध अकेले न थे,वे महज एक कार्यकर्ता थे,जिनने विचारधारा को एक संस्थागत संगठन के जरिए क्रांति के अंजाम तक पहुंचाया और वह संगठन टूट गया धर्मोन्माद में तो प्रतिक्रांति भी हो गयी।


जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।


अब सबसे पहले सबसे अच्छी खबर।सेहत मेरी जैसी भी रहे,मेरी सामाजिक लेखकीय सक्रियता पर अंकुश कोई लगने नहीं जा रहा है।


हमारे संपादक ओम थानवी का आभार कि उनने मुझे निजी संदेश देकर आश्वस्त कर दिया है कि हमारे मित्र शैलेंद्र की सेवा जारी है।उनने शैलेंद्र से मुझे जानकारी देने को कहा था,पर शैलेंद्र जी ने ऐसा नहीं किया।किया होता तो मैं कोहरे में भटक नहीं रहा होता।


मुझे बहुत खुशी है कि ओम थानवी ने हमारी भावनाओं को समझने की कोशिश की है।जो काम माननीय प्रभाष जोशी कर नहीं सकें,उसे पूरा करने की जिम्मेदारी ओम थानवी उठा नहीं सकते,यह मजबूरी समझने की जरुरत है।


ओम थानवी चाहकर भी कोलकाता में किसीकी पदोन्नति दे नहीं कर सकते।इसलिए उनने शैलेंद्र की सेवा जारी करके आखिरी वक्त हम लोगों को और बेइज्जत होने के खतरे से बचा लिया है और जिस किसी को हमारे मत्थे पर नहीं बैठायेंगे,यह भरोसा दिलाकर हमारी चिंताओं को दूर किया है,इसके लिए उनका आभार कि उनने हमारी और फजीहत होने से हमें बचा लिया। साल भर और अपने मित्र के मातहत काम करने में हममें से किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी।


दरअसल जनसत्ता बंद होने की खबरों से खुश होने या चिंतित होने वाले लोगों को पता ही नहीं है,उन लोगों को भी शायद पता नहीं है कि जनसत्ता की सेहत ने किस कदर आखिरी वक्त प्रभाष जोशी को तोड़ दिया था। हमने उस प्रभाष जोशी को देखा है जो हमारे लिए मसीहा न थे लेकिन हमारे सबकुछ थे और जिनकी पुकार पर हम देश भर से आगा पीछा छोड़कर चले आये थे और अपना भूत भविष्यवर्तमान उनके हवाले कर चुके थे।उन प्रभाष जोशी को हमने घुट घुटकर मरते जीते देखा है।


सबसे बड़े अफसोस की बात है कि प्रभाष जोशी का महिमामंडन और कीर्तन करने वाले संप्रदाय को उस जनसत्ता के बारे में तनिक परवाह नहीं है,जिसके लिए प्रभाष जोशी जिये और मरे।

वे क्रिकेट की उत्तेजना को सह नहीं पाये और उनने दम तोड़ा ,सचिन तेंदुलकर ने अपनी सेंचुरी उनके नाम करके यह मिथ मजबूत बनाया है।जबकि सच यह है कि निरंतर दबाव में टूटते हुए जनसत्ता का बोझ वे उठा नहीं पा रहे थे,जिसे उनने पैदा किया और जिसके लिए वे मरे और जिये।


दस साल पहले उनके जीवनकाल में मैं उनके सारस्वत ब्राह्मणवाद का मुखर आलोचक रहा हूं लेकिन जब मैं नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटेर में हिंदी वालों से गुहार लगायी कि जनसत्ता की हत्या हो रही है तो दरअसल वह बयान मेरा प्रभाष जोशी के साथ हिंदीसमाज को खड़ा करने के मकसद से था।वह मेरे औकात से बड़ी कोशिश थी।


आज जो मैं बार बार बार ओम थानवी को प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक कह रहा हूं तो संकट की घड़ी में यह मेरा बयान ओम थानवी का हाथ मजबूत करने के मकसद से ही है।


हमें अगर जनसत्ता की फिक्र करनी है तो जो हम चूक गये प्रभाष जोशी के समय से,वह काम हमें करना चाहिए कि हिंदी समाज की इस विरासत को बचाने के लिए उसके संपादक के साथ मजबूती से खड़ा होना चाहिए।


हम सबने प्रभाष जी का वह असहाय चेहरा देखा है जब वे जनसत्ता को रिलांच करना चाहते थे।चंडीगढ़ को माडल सेंटर बनाने के लिए वहां इतवारी से उठाकर ओम थानवी को लाये थे और कोलकाता के जरिये समूचे पूरब और पूर्वोत्तर में नया हिंदी आंदोलन जनसत्ता के मार्फत गढ़ना चाहते थे।


हुआ इसके उलट,सीईओ शेखर गुप्ता तुले हुए थे कि ऐनतेन प्रकारेण जनसत्ता को बंद कर दिया जाये और उनकी योजना मुताबिक यकबयक जनसत्ता चंडीगढ़ और जसत्ता मुंबई के अच्छे खासे एडीशन बंद कर दिये गये।

सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिये पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी और हिंदीसमाज इसका मजा लेता रहा और महिमामंडन संप्रदाय को कभी खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं हुई।


अनन्या गोयनका नहीं चाहती थीं कि उनके मायके से कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाये तो जोशी जी कोलकाता को बचा सके लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लाये थे,एक के बाद एक को वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ता कोलकाता की साथियों की हैसियत वे बदल सकें।खून के आंसू रो रहे थे जोशी और हम देखते रहे।


आखिरी दिनों में जोशी जी कोलकाता आये तो जनसत्ता नहीं आये,ऐसा होता रहा है और यह हमें लहूलुहान करता रहा।


उसीतरह जैसे ओम थानवी जानबूझकर हमारी कोई मदद नहीं कर सकते,यह बेरहम सच,जिससे न ओम थानवी बच सकते हैं और न हम।


समझ बूझ लें कि यह कोई ओम थानवी का निजी संकट नहीं है और न मेरा और मेरे साथियों का यह कोई निजी संकट है।


मैनेजमेंट इस बहस को किस तरह लेगा,इसकी परवाह किये बिना बतौर केसस्टडी हम इसे साझा कर रहे हैं और बता रहे हैं कि हिंदी समाज के तमाम संस्थान किस तरह से मुक्त बाजार के शिकंजे में हैं और हमारे लोग कितने बेपरवाह हैं,कितने गैर जिम्मेदार हैं।


इस पोस्ट से ओम थानवी का कितना नुकसान होगा और मेरा कितना नुकसान,इस पर हमने सोचा नहीं है।न यह सोचा कि इसे पढ़कर थानवी कितने खुश या नाराज होंगे।


प्रधान संपादक से सलाहकार संपादक बना दिये जाने के बाद तो जोशी जी कोलकाता विभिन्न आयोजनों में आते रहे लेकिन वे अपने ही नियुक्त किये साथियों से मुंह चुराते रहे क्योंकि वे उनके लिए कुछ भी कर नहीं सकते थे।उनकी हालत इतनी खराब थी कि एक एक शख्स से निजी संबंध होने के बावजूद मुझ जैसे मुखर साथी का नाम भूलकर वे मुझे मंडलजी कहने लगे थे।


ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जनसत्ता का तेवर बनाये रखना और हिंदुत्व सुनामी के मुकाबले उसे खड़ा कर पाना ओम थनवी का कृतित्व है चाहे व्यक्ति बतौर उनसे हमारे संबंध अच्छे हों या बुरे,हम उन्हें पसंद करते हों या नहीं,हिंदी को जनपक्षधर जनसत्ता को जारी रखने में रुचि है तो हिंदी समाज को ओम थानवी के साथ मजबूती के साथ खड़ा हानो चाहिए।


इसी सिलसिले में हमने अपने नये पुराने तमाम साथियों से आवेदन  किया हुआ है कि जनसत्ता के लिए बिंदास तब तक लिखें जबतक वहां ओम थानवी हैं।


प्रभाष जोशी का महिमामंडन करने वाले लोगों को इस संकट से लगता है लेना देना नहीं है।हम जो लोग अब भी जनसत्ता में तमाम तूफानों के बावजूद बने हुए हैं,हालात हमारे लिए कमसकम रिटायर होने तक अपनी इज्जत बचाये रखने के लिए इस संकट की घड़ी में ओम थानवी के साथ खड़ा होने की जरुरत है और हम वही कर रहे हैं।


इसका भाई जो मतलब निकाले और जाहिर है कि अब बहुत साफ हो चुका है कि अगर यह चमचई है तो इस चमचई से हमारा कोई भला नहीं होने वाला है।


मजीठिया के मुताबिक कुल जमा डेढ़ साल हमारा ग्रेड और हमारा वेतनमान जो भी हो और भले एरिअर हमें 2011 से दो दो पदोन्नति के मुताबिक मिल रहा हो,आखि कार हमें रिटायर बतौर सबएटीटर होना है।गनीमत यही है कि हम शैलेंद्र के साथ ही रिटायर होंगे।उसके बाद जो होगा,वह मेरा सरदर्द नहीं है।


बहरहाल राहतइस बात की है कि एक्सप्रेस समूह मुझे किसी बंदिश में नहीं जकड़ने जा रहा है और अखबार के मामले में मेरी कोई जिम्मेदारी उतनी ही रहनी है,जितनी आजतक थी।


मेरी ओम थानवी जी से कभी पटी नहीं है।मेरी अमित प्रकाश सिंह से भी कभी पटी नहीं है।हम दोनों बल्कि दोस्त के बजायदुश्मनी का रिश्ता निभाते रहे हैं।जबकि मैंने आजतक चालीस साल के अपनी लेखकीय यात्रा में अमित प्रकाश से बेहतर कोई संपादक देखा नहीं है।उनके साथ मेरी टीम बननी चाहिए थी।यह बहुतसुंदर होता कि ओम थानवी के साथ मैं सीधे संवाद में होता और उनके साथ मैं संपादकीय मैं कुछ योगदान कर पाता।हुआ इसका उलट,ओम थानवी को समझने में मुझे काफी वक्त लग गया और वक्त अब हाथ से निकल गया है।


अब मजीठिया के मुताबिक वेतनमान कुछ भी हो,मैं सब एटीटर बतौर ही रिटायर करने वाला हूं।मेरी हैसियत किसी सूरत में बदलने वाली नहीं है।


ओम थानवी जी का मैं उनके संपादकत्व के घनघोर समर्थक होने के बावजूद मुखर आलोचक हूं।मेरी मनःस्थिति समझकर मुझे उनने अभूतपूर्व दुविधा और संकट से जो निकालने की पहल की है,मैं उसके लिए आभारी हूं।


अब मैं पहले की तरह बिंदास लिख सकता हूं और मेरी दौड़ भी देश के किसी भी कोने में जारी रह सकती है।यह मेरे लिए राहत की बात है कि कारपोरेट पत्रकार बनने की अब मेरी कोई मजबूरी नहीं है।आखिरी साल में भी नहीं।


थानवी जी ने बेहद अपनत्व भरा निजी संदेश दिया है,जिसे मैं सार्वजनिक तो नहीं कर सकता और मैं वास्तव को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर मुझे नये सिरे से दिशा बोध कराया है।फिर भी उनके निजी संदेश को मैं साझा नहीं कर सकता।


कर पाता तो आपको भी किसी दूसरे ओम थानवी का दर्शन हो जाता जो उनकी लोकप्रिय छवि के उलट है।


हाल में मैंने थानवी जी की कड़ी आलोचना की थी कि कि वे मुझे अचानक आप के प्रवक्ता दीखने लगे हैं।इस पर उनने कोई प्रतिक्रिया दी नहीं है।


आप के अंदरुनी संकट को जैसे देश का संकटबतौर पेश किया जा रहा है मीडिया और सोशल मीडिया में भी,वह हैरतअंगेज है।


अमलेंदु से मेरी रोज बातें होती हैं।लेकिन कल जैसे अमलेंदु ने सारे मुद्दे किनारे करते हुए मेरे रोजनामचे के सिवाय पूरा फोकस आप पर किया है,वह मेरे लिए बहुत दुखद है।आप संघ परिवार का बाप है।इसे नये सिरे से साबित करने की जरूरी नहीं है।


मेधा पाटकर और कंचन भट्टाचार्य,प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव और तमाम जनआंदोलनवाले ,समाजवादी कुनबे के लोग किस समझ के साथ आप में रहे हैं,यह मेरी समझ से बाहर है।जो आंतरिक लोकतंत्र पर बहस हो रही है,उसका की क्या प्रासंगिकता है,वह भी मेरी समझ से बाहर है।क्या अब हम संघ परिवार के आंतरिक लोकतंत्र पर भी बहस करेंगे?

सत्तावर्ग का लोकतंत्र और आंतरिक लोकतंत्र फिर वही तिलिस्म है या फरेब है।


जैसे मैं आजादी के खातिर जनसत्ता और एक्सप्रेस समूह में मेरे साथ हुए अन्याय की कोई परवाह नहीं करता और न रंगभेदी भेदभाव की शिकायत कर रहा हूं और जैसे मैं मुझे कारपोरेट बनने के लिए मजबूर न करने के लिए ओम थानवी जी का आभार व्यक्त कर रहा हूं।


प्रभाष जोशी जी के जमाने में मैं अनुभव और विचारों से उतना परिपक्व था नहीं और उस जमाने में मेरी पत्रकारिता में महात्वाकांक्षाएं भी बची हुई थीं।इसलिए प्रभाष जी ने मेरे भीतर की आग सुलगाने का जो काम किया है,उसे मैं सिरे से नजरअंदाज करता रहा हूं।



आज निजी अवस्थान,अपने स्टेटस के मुकाबले हमारे लिए अहम सवाल है कि हम अपने वक्त को कितना संबोधित कर पा रहे हैं और उसके लिए हम सत्तावर्ग से कितना अलहदा होकर जनपक्षधर मोर्चे के साथ खड़ा होने का दम साधते हैं।इस मुताबिक ही ओम थानवी जी का संदेश मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण है।



उसी तरह आप प्रसंग में कोई बहस वाद विवाद इस बेहद संगीन वक्त के असली मुद्दों को डायल्यूट करने का सबसे बड़ा चक्रव्यूह है और हमारी समझ से हमारे मोर्चे के लोगों को उस चक्रव्यूह में दाखिल होना भी नहीं चाहिए।


हमारा अखबार अब भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है।हमारा संपादकीय बेहद साफ है।भाषा शैली और सूचनाओं की सीमाबद्धता के बावजूद और इसीलिए मैं प्रभाष जोशी के महिमामंडन के बजाय अपने संपादक के साथ खड़ा होना पसंद करुंगा चाहे इसके लिए मुझे जो और जैसा समझा जाये।


उस संपादक के आप के साथ खड़ा देखकर जो कोफ्त हुई,हस्तक्षेप को आप के रंग में रंगा दीखकर वही कोफ्त हो रही है।


अरविंद केजरीवाल सत्ता वर्ग,नवधनाढ्यवर्ग का रहनुमा है।


इस वर्ग को न फासीवाद से कुछ लेना देना है और न जनता के जीवन मरण के मुद्दों से।न इस तबके को किसी जनपक्षधर मोर्चे की जरुरत है और न दिग्विजयी अश्वमेधी मुक्त बाजार की नरसंहार संस्कृति से इस तबके की सेहत पतली होने जा रही है।


यूथ फार इक्वेलियी के नेता बतौर देश को मंडलकमंडल दंगों की चपेट में डालने वाले संप्रदाय के सबसे बड़े प्रतिनिधि जो समता,सामाजिक न्याय और लोकतंत्रक के सिरे से विरोधी है,उसे पहचानने में अगर हमारे सबसे बेहतरीन ,सबसे प्रतिबद्ध साथी चूक जाते हैं और उनके विचलन को ही आज का सबसे बड़ा मुद्दा मानकर असल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं,तो मेरे लिए यह घनघोर निराशा की बात है।


हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।


দখলেই থাকছে আদি বুড়িগঙ্গার শতাধিক একর জমি

Previous: बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है। जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है। हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है। पलाश विश्वास
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দখলেই থাকছে আদি বুড়িগঙ্গার শতাধিক একর জমি 




বুড়িগঙ্গার আদি চ্যানেল আর উদ্ধার হচ্ছে না। দখলদারদের কবলেই থেকে যাচ্ছে নদীর শতাধিক একর জমি। এর আগে মন্ত্রীরা সরেজমিন পরিদর্শন শেষে নদীর আদি চ্যানেল উদ্ধারের ঘোষণা দিলেও শেষ পর্যন্ত সেখান থেকে সরে এসেছেন তারা।

 http://www.banglatribune.com/%E0%A6%A6%E0%A6%96%E0%A6%B2%E0%A7%87%E0%A6%87-%E0%A6%A5%E0%A6%BE%E0%A6%95%E0%A6%9B%E0%A7%87-%E0%A6%86%E0%A6%A6%E0%A6%BF-%E0%A6%AC%E0%A7%81%E0%A7%9C%E0%A6%BF%E0%A6%97%E0%A6%99%E0%A7%8D%E0%A6%97


FEDERATING NEPAL IN THREE STATES AND EIGHTEEN AUTONOMOUS REGIONS

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Tilak Shrestha <tilakbs@gmail.com> wrote:
Dr. Basudev Jee
Namaste!
You missed the basic issue. Federal states is Not the demand of Nepalese people. It is imposed from outside interests. There must be public debate on the pros and cons of federal states and referendum for people's mandate. Imposing such issues without people's mandate constitute treason and unacceptable. 

     गणतन्त्रधर्म निरपेक्षता  संघीयता जनआन्दोलनका एजेन्डा थिएनन्  
     Annapurna Post, Jan. 7, 2015   
www.annapurnapost.com/News.aspx/story/5782

We have over 100 ethnic groups. Which ethnic group gets state and which does not? Which districts go to Newa rajya and which go to Tamasaling? Do you realize the way is to breaking our nation. When in fact, we never had ethnic problems in Nepal. Yes, some ethnic groups are marginalized than others. But problem can be handled with decentralization and targeted application of a. education, b. job diversification, and c. inclusive politics. But ethnic federal states is a recipe national division. 
Maoists intrinsically are not for federal states. They would rather have a very strong centralized government where Maximum leader has full control. However, to impose communism, they are willing to play any dirty games including potential division of the country, They are aided by Churches to weaken our nation to facilitate conversions. 
Nationalist Nepalese must stand up against these divisive forces. Thanks!

On Sat, Mar 28, 2015 at 7:41 PM, The Himalayan Voice <himalayanvoice@gmail.com> wrote:

May 16, 2013

FEDERATING NEPAL IN THREE STATES AND EIGHTEEN AUTONOMOUS REGIONS

Posted by The Himalayan Voice:
[A federal structure is proposed here which can go a long way to fulfill many such desirable qualities, including the aspirations of the Utpidit Pesha Karmi, Madhesis and the ethnic communities for having identity based autonomy – and also the agenda of the Maoists' party for federating Nepal into identity-based autonomous regions – without compromising the unification of the country so that parties like NC and UML may also find it acceptable.]

By Dr. Basudev Uprety*

"HINDU EPICS TO BE PRIORITY AREAS FOR INDIAN COUNCIL OF HISTORICAL RESEARCH (ICHR)", SAYS ITS CHAIRPERSON Y. S. RAO

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"HINDU EPICS TO BE PRIORITY AREAS FOR INDIAN COUNCIL OF HISTORICAL RESEARCH (ICHR)", SAYS ITS CHAIRPERSON Y. S. RAO

"Hindu epics to be priority areas for Indian Council of Historical Research (ICHR)", says its chairperson Y. S. Rao. My concern is, why can't it be 'The Rigveda' and other vedas etc.? How would Y. S. Rao and his team respond to the birth myths of Ramayana's Ram, his other brothers and Sita herself or those five Pandavs or Draupadi of The Mahabharat as well ? Here is an interesting video link https://www.youtube.com/watch?v=6UDwSWxKcwk Y. S. Rao and his team members, if they have not yet, should watch in their leisure. Facts are always facts, aren't they ? ]

http://tinyurl.com/pqvdvae

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

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दोस्‍तो, इस जानकारी काे ज्‍यादा से ज्‍यादा फैलायें। अगर आप पत्रकार या सम्‍पादक हैं तो अपनी पत्रिका/अख़बार/वेबसाइट पर इसे जगह दें। इस खबर का अंग्रेजी वर्जन आपको पहले ही मेल किया जा चुका है। 

Dear friends, if you are not comfortable with Hindi, please refer to our earlier mail which was in English. 



केजरीवाल सरकार के आदेश पर 25 मार्च 2015 को दिल्ली सचिवालय के बाहर मज़दूरों पर बर्बर लाठी चार्ज की घटना का पूरा ब्यौरा
हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

अभिनव सिन्हा
(संपादकमज़दूर बिगुल और मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वानकार्यकर्ता बिगुल मज़दूर दस्ता और इतिहास विभागदिल्ली वि‍श्वविद्यालय में शोध छात्र)




​25 
मार्च को दिल्ली में मज़दूरों पर जो लाठी चार्ज हुआ वह दिल्ली में पिछले दो दशक में विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस के हमले की शायद सबसे बर्बर घटनाओं में से एक था। ध्यान देने की बात यह है कि इस लाठी चार्ज का आदेश सीधे अरविंद केजरीवाल की ओर से आया थाजैसा कि मेरे पुलिस हिरासत में रहने के दौरान कुछ पुलिसकर्मियों ने बातचीत में जिक्र किया था। कुछ लोगों को इससे हैरानी हो सकती है क्योंकि औपचारिक रूप से दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के मातहत है। लेकिन जब मैंने पुलिस वालों से इस बाबत पूछा तो उन्हों ने बताया कि रोज-ब-रोज की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिल्ली पुलिस को दिल्ली के मुख्यमंत्री के निर्देशों का पालन करना होता हैजबतक कि यह केन्द्र सरकार के किसी निर्देश/आदेश के विपरीत नहीं हो। 'आपसरकार अब मुसीबत में पड़ चुकी है क्योंकि वह दिल्ली के मजदूरों से चुनाव में किए वायदे पूरा नहीं कर सकती। और दिल्ली के मजदूर 'आपऔर अरविन्द केजरीवाल द्वारा उनसे किए गए वायदे को भूलने से इनकार कर रहे हैं। मालूम हो कि बीती 17 फरवरी कोदिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लर्निंग के छात्रों ने खासी तादाद में वहां पहुंचकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया। इसके बाद, 3 मार्च को डीएमआरसी के सैकड़ों ठेका कर्मचारी केजरीवाल सरकार को अपना ज्ञापन देने गए थे और वहां उन पर भी लाठीचार्ज किया गया।

इस महीने की शुरुआत से ही विभिन्न मजदूर संगठनयूनियनेंमहिला संगठनछात्र एवं युवा संगठन दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियानचला रहे हैंजिसका मकसद है केजरीवाल सरकार को दिल्ली के गरीब मजदूरों के साथ किए गए उसके वायदों जैसे कि नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा को खत्म करनाबारहवीं तक मुफ्त शिक्षादिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरनासत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करनासभी घरेलू कामगारों और संविदा शिक्षकों को स्थायी करनाइत्यादि की याद दिलाना और इसके बाद सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य करना। 25 मार्च के प्रदर्शन की सूचना केजरीवाल सरकार और पुलिस प्रशासन को पहले से ही दे दी गयी थी और पुलिस ने पहले से कोई निषेधाज्ञा लागू नही की थी। लेकिन 25 मार्च को जो हुआ वह भयानक था और क्योंकि मैं उन कार्यकर्ताओं में से एक था जिन पर पुलिस ने हमला कियाधमकी दी और गिरफ्तार कियामैं बताना चाहूंगा कि 25 मार्च को हुआ क्या थाक्यों हजारों मजदूरमहिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय गएउनके साथ कैसा व्यवहार हुआ और किस तरह मुख्य धारा के मीडिया चैनलों और अखबारों ने मजदूरोंमहिलाओं और छात्रों पर हुए बर्बर दमन को बहुत आसानी से ब्लैक आउट कर दिया?

25 मार्च को हजारों मजदूरमहिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय क्यों गए?


​जैसा पहले बताया जा चुका हैकई मजदूर संगठन अरविन्द केजरीवाल को उन वायदों की याद दिलाने के लिए पिछले एक महीने से दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियानचला रहे हैं जो उनकी पार्टी ने दिल्ली के मजदूरों से किए थे। इन वायदों में शामिल हैं नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा खत्म करनादिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरना;सत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करना और संविदा शिक्षकों को स्थायी करनासभी संविदा सफाई कर्मचारियों को स्थायी करनाबारहवीं कक्षा तक स्कूली शिक्षा मुफ्त करनाये वे वायदे हैं जो तत्काल पूरे किए जा सकते हैं। हम जानते हैं कि सभी झुग्गीवासियों के लिए मकान बनाने में समय लगेगाफिर भीदिल्ली की जनता के सामने एक रोडमैप प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इसी तरहहम जानते हैं कि बीस नये कॉलेज उपलब्ध कराने में समय लगेगाहालांकि केजरीवाल मीडिया से कह चुके हैं कि कुछ व्यक्तियों ने दो कॉलेजों के लिए जमीन दी है और उन्हें यह जरूर बताना चाहिए कि वो जमीनें कहां हैं और राज्य सरकार इन कॉलेजों का निर्माण कब शुरू करने जा रही है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने अपने किसी वायदे को पूरा नहीं किया। उन्होंने दिल्ली के फैक्टरी मालिकों और दुकानदारों से किए वायदे तत्काल पूरे किए! और उन्होंने ठेका मजदूरों के लिए क्या कियाकुछ भी नहीं,सिवाय केवल सरकारी विभागों के ठेका मजदूरों के बारे में एक दिखावटी अन्तरिम आदेश जारी करने केजो कहता है कि सरकारी विभागों/निगमों में काम करने वाले किसी ठेका कर्मचारी को अगली सूचना तक बर्खास्त नहीं किया जाएगा। हालांकिकुछ दिनों बाद ही अखबारों में खबर आयी कि इस दिखावटी अन्तरिम आदेश के मात्र कुछ दिनों बाद ही दर्जनों होमगार्डों को बर्खास्त कर दिया गया! इसका साधारण सा मतलब है कि अन्तरिम आदेश सरकारी विभागों में ठेका मजदूरों और दिल्ली की जनता को बेवकूफ बनाने का दिखावा मात्र था। इन कारकों ने दिल्ली के मजदूरों के बीच संदेह पैदा किया और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न ट्रेड यूनियनोंमहिला संगठनोंछात्र संगठनों ने केजरीवाल को दिल्ली की आम मजदूर आबादी से किए गए अपने वायदों की याद दिलाने के लिए अभियान चलाने के बारे में सोचना शुरू किया।

इसलिए, 3 मार्च को डीएमआरसी के ठेका मजदूरों के प्रदर्शन के साथ वादा न तोडो अभियान की शुरुआत की गयी। उसी दिनकेजरीवाल सरकार को 25 मार्च के प्रदर्शन के बारे में औपचारिक रूप से सूचना दे दी गयी थी और बाद में पुलिस प्रशासन को इस बारे में आधिकारिक तौर पर सूचना दी गयी। पुलिस ने प्रदर्शन से पहले संगठनकर्ताओं को किसी भी प्रकार की निषेधाज्ञा नोटिस जारी नहीं की। लेकिनजैसे ही प्रदर्शनकारी किसान घाट पहुंचेउन्हें मनमाने तरीके से वहां से चले जाने को कहा गया! पुलिस ने उन्हें सरकार को अपना ज्ञापन और मांगपत्रक सौंपने से रोक दियाजोकि उनका मूलभूत संवैधानिक अधिकार हैजैसेकिउन्हें सुने जाने का अधिकारशान्तिपूर्ण एकत्र होने और अभिव्यक्ति का अधिकार।

25 मार्च को वास्तव में क्या हुआ?

दोपहर करीब 1:30 बजेलगभग 3500 लोग किसान घाट पर जमा हुए। आरएएफ और सीआरपीएफ को वहां सुबह से ही तैनात किया गया था। इसके बादमजदूर जुलूस की शक्ल में शान्तिपूर्ण तरीके से दिल्ली सचिवालय की ओर रवाना हुए। उन्हें पहले बैरिकेड पर रोक दिया गया और पुलिस ने उनसे वहां से चले जाने को कहा। प्रदर्शनकरियों ने सरकार के किसी प्रतिनिधि से मिलने और उन्हें अपना ज्ञापन देने की बात कही। प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सचिवालय की ओर बढ़ने की कोशिश की। तभी पुलिस ने बिना कोई चेतावनी दिए बर्बर तरीके से लाठीचार्ज शुरू कर दिया और प्रदर्शनकारियों को खदेड़ना शुरू कर दिया। पहले चक्र के लाठीचार्ज में कुछ महिला मजदूर और कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गयीं और सैकड़ों मजदूरों को पुलिस ने दौड़ा लिया। हालांकिबड़ी संख्या में मजदूर वहां बैरिकेड पर रुके रहे और अपना 'मजदूर सत्याग्रहशुरू कर दिया। यद्यपि पुलिस ने कई मजदूरों को वहां से खदेड़ कर भगा दियाफिर भीलगभग 1300 मजदूर वहां जमे हुए थे और उन्होंने अपना सत्याग्रह जारी रखा था। लगभग 700 संविदा शिक्षक सचिवालय के दूसरी ओर थेजो प्रदर्शन में शामिल होने आए थेलेकिन पुलिस ने उन्हें प्रदर्शन स्थल तक जाने नहीं दिया। इसलिए उन्होंने सचिवालय के दूसरी तरफ अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा। मजदूर संगठनकर्ता बार-बार पुलिस से आग्रह कर रहे थे कि उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन देने दिया जाए। पुलिस ने इससे सीधे इनकार कर दिया। तब संगठनकर्ताओं ने पुलिस को याद दिलाया कि सरकार को ज्ञापन देना उनका संवैधानिक अधिकार है और सरकार इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य है। इसके बाद भीपुलिस ने प्रदर्शनकारियों को सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दिया। तकरीबन डेढ़ घंटे इंतजार करने के बाद मजदूरों ने पुलिस को अल्टीमेटम दिया कि यदि आधे घंटे में उन्हें जाने नहीं दिया गया तो वे सचिवालय की ओर बढ़ेंगे। जब आधे घंटे के बाद पुलिस ने उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दियाइसके बाद पुलिस ने फिर से लाठीचार्ज किया। इस बार लाठीचार्ज ज्यादा बर्बर तरीके से हुआ।


​मैं पिछले 16 वर्ष से दिल्ली के छात्र आंदोलन और मज़दूर आंदोलन में सक्रिय रहा हूं और मैं कह सकता हूं कि मैंने दिल्ली में किसी प्रदर्शन के विरुद्ध पुलिस की ऐसी क्रूरता नहीं देखी है। महिला मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को और मज़दूरों के नेताओं को खासतौर पर निशाना बनाया गया। पुरुष पुलिसकर्मियों ने निर्ममता के साथ स्त्रियों की पिटाई कीउन्हें बाल पकड़कर सड़कों पर घसीटाकपड़े फाड़ेनोच-खसोट की और अपमानित किया। किसी के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल होता कि किस तरह अनेक पुलिसकर्मी स्त्री मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को पकड़कर पीट रहे थे। कुछ स्त्री कार्यकर्ताओं को तब तक पीटा गया जब तक लाठियां टूट गयीं या स्त्रियां बेहोश हो गयीं। मज़दूरों पर नजदीक से आंसू गैस छोड़ी गयी।
सैकड़ों मज़दूर इसके विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह के लिए ज़मीन पर लेट गयेफिर भी पुलिसवाले उन्हें पीटते रहे। आखिरकार मज़दूरों ने वहां से हटकर राजघाट पर विरोध जारी रखने की कोशिश की लेकिन पुलिस और रैपिड एक्शमन फोर्स ने वहां भी उनका पीछा किया और फिर से पिटाई की। पुलिस ने 17 कार्यकर्ताओं और मज़दूरों को गिरफ्तार किया जिनमें से एक मैं भी था। मेरे एक साथीयुवा कार्यकर्ता अनन्त को हिरासत में लेने के बाद भी मेरे सामने पीटा जाता रहा। पुलिस ने उसे भद्दी-भद्दी गालियां दीं। हिरासत में अन्य कार्यकर्ताओं और मज़दूरों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव जारी रहा। लगभग सभी गिरफ्तार व्यक्ति घायल थे और उनमें से कुछ को गंभीर चोटें आयी थीं।

चार स्त्री कार्यकर्ता शिवानीवर्षावारुणी और वृशाली को हिरासत में लिया गया था और पिटायी में भी उन्हें खासतौर से निशाना बनाया गया था। वृशाली की उंगलियों में फ्रैक्चिर हैवर्षा के पैरों पर बुरी तरह लाठियां मारी गयींशिवानी की पीठ पर कई पुलिस वालों ने बार-बार चोट की और उनके सिर में भी चोट आयी और वारुणी को भी बुरी तरह पीटा गया। चोटों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वारुणी और वर्षा को जमानत पर छूटने के बाद 27 मार्च को फिर से अरुणा आसफअली अस्पाताल में भर्ती कराना पड़ा। स्त्री कार्यकर्ताओं को पुलिस वाले लगातार गालियां देते रहें। पुलिसकर्मियों ने स्त्री कार्यकर्ता को जैसी अश्लील गालियां और अपमानजनक टिप्परणियों का निशाना बनाया जिसे यहां लिखा नहीं जा सकता। कार्यकर्ताओं और विरोध प्रदर्शन करने वालों के सम्मान को कुचलने की पुरानी पुलिसिया रणनीति का ही यह हिस्सा था।
गिरफ्तार किये गये 13 पुरुष कार्यकर्ता भी घायल थे और उनमें से को गंभीर चोटें आयी थीं। लेकिन उन्हें चिकित्सा उपचार के लिए घंटे से ज्यादा इंतजार कराया गया जबकि उनमें से दो के सिर की चोट से खून बह रहा था। आईपी स्टेंट पुलिस थाने में रहने के दौरान कई पुलिस वालों ने हमें बार-बार बताया कि लाठी चार्ज का आदेश सीधे मुख्यपमंत्री कार्यालय से दिया गया था। साथ हीपुलिस की मंशा शुरू से साफ थी : वे विरोध प्रदर्शनकारियों की बर्बर पिटाई करना चाहते थे। उन्होंने हमसे कहा कि इसका मकसद सबक सिखाना था।

अगले दिन स्त्री साथियों को जमानत मिल गयी और 13 पुरुष कार्यकर्ताओं को दो दिन के लिए सशर्त जमानत दी गयी। आई पी स्टेट पुलिस थाने को जमानतदारों और गिरफ्तार लोगों के पते सत्यापित करने के लिए कहा गया। पुलिस गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को 14 दिन की पुलिस हिरासत में लेने की मांग कर रही थी। प्रशासन की मंशा साफ है : एक बार फिर कार्यकर्ताओं की पिटाई और यंत्रणा। पुलिस लगातार हमें फिर से गिरफ्तार करने और हम पर झूठे आरोप मढ़ने की कोशिश में है। जैसा कि अब पुलिस प्रशासन की रिवायत बन गयी हैजो कोई भी व्यवस्था के अन्याय का विरोध करता है उसे 'माओवादी'', ''नक्सलवादी'', ''आतंकवादी'' आदि बता दिया जाता है। इस मामले में भी पुलिस की मंशा साफ है। इससे यही पता चलता है कि भारत का पूंजीवादी लोकतंत्र कैसे काम करता है। खासतौर पर राजनीति और आर्थिक संकट के समय मेंयह व्यंवस्था की नग्न बर्बरता के विरुद्ध मेहनतकश अवाम के किसी भी तरह के प्रतिरोध का गला घोंटकर ही टिका रह सकता है। 25 मार्च की घटनायें इस तथ्य की गवाह हैं।

आगे क्या होना है?

शासक हमेशा ही यह मानने की ग़लती करते रहे हैं कि संघर्षरत स्त्रियोंमज़दूरों और छात्रों-युवाओं को बर्बरता का शिकार बनाकर वे विरोध की आवाज़ों को चुप करा देंगे। वे बार-बार ऐसी ग़लती करते हैं। यहां भी उन्होंने वही ग़लती दोहरायी है। 25 मार्च की पुलिस बर्बरता केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली के मेहनतकश ग़रीबों को एक सन्देश देने की कोशिश थी और सन्देश यही था कि अगर दिल्ली के ग़रीबों के साथ केजरीवाल सरकार के विश्वासघात के विरुद्ध तुमने आवाज़ उठायी तो तुमसे ऐसे ही क्रूरता के साथ निपटा जायेगा। हमारे घाव अभी ताजा हैंहममें से कई की टांगें सूजी हैंउंगलियां टूटी हैंसिर फटे हुए हैं और शरीर की हर हरकत में हमें दर्द महसूस होता है। लेकिनइस अन्याय के विरुद्ध लड़ने और अरविंद केजरीवाल और उसकी 'आपपार्टी की घृणित धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने का हमारा संकल्प और भी मज़बूत हो गया है।
ट्रेडयूनियनोंस्त्री संगठनों और छात्र संगठनों तथा हज़ारों मज़दूरों ने हार मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने घुटने टेकने से इंकार कर दिया है। हालांकि उनके बहुत से कार्यकर्ता अब भी चोटिल हैं और हममें से कुछ ठीक से चल भी नहीं सकते,फिर भी उन्होंने दिल्ली भर में भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिये हैं। केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की मज़दूर आबादी के साथ घिनौना विश्वासघात किया है जिन्हों ने 'आपपर बहुत अधिक भरोसा किया था। दिल्ली की मेहनतकश आबादी आम आदमी पार्टी की धोखाधड़ी के लिए उसे माफ नहीं करेगी। मेरे ख्याल से आम आदमी पार्टी का फासीवादकम से कम थोड़े समय के लिए,भाजपा जैसी मुख्‍य धारा की फासिस्ट पार्टी से भी ज्यादा खतरनाक हैऔर मैंने 25 मार्च को खुद इसे महसूस किया। और इसका कारण साफ है। जिस तरह कम से कम तात्कालिक तौर पर छोटी पूंजी बड़ी पूंजी के मुकाबले अधिक शोषक और उत्पीड़क होती हैउसी तरह छोटी पूंजी का शासनकम से कम थोड़े समय के लिए बड़ी पूंजी के शासन की तुलना में कहीं अधिक उत्पीड़क होता है और आप की सरकार छोटी पूंजी की दक्षिणपंथी पापुलिस्टस तानाशाही का प्रतिनिधित्व करती हैऔर बेशक उसमें अंधराष्ट्रवादी फासीवाद का पुट भी है।25 मार्च की घटनाओं ने इस तथ्य को साफ जाहिर कर दिया है।


जाहिर है कि केजरीवाल घबराया हुआ है और उसे कुछ सूझ नहीं रहा। और इसीलिए उसकी सरकार इस तरह के कदम उठा रही है जो उसे और उसकी पार्टी को पूरी तरह नंगा कर रहे हैं। वह जानता है कि दिल्ली की ग़रीब मेहनतकश आबादी से किये गये वादे वह पूरा नहीं कर सकता हैखासकर स्था‍यी प्रकृति के कामों में ठेका प्रथा खत्मा करनाक्योंकि अगर उसने ऐसा करने की कोशिश भी कितो वह दिल्लीं के व्यापारियोंकारखाना मालिकों,ठेकेदारों और छोटे बिचौलियों के बीच अपना सामाजिक और आर्थिक आधार खो बैठेगा।'आपके एजेंडा की यही खासियत है : यह भानुमती के पिटारे जैसा एजेंडा है (साफ तौर पर वर्ग संश्रयवादी एजेंडा) जो छोटे व्यापारियोंधनी दुकानदारोंबिचौलियों और प्रोफेशनल्स/स्‍वरोजगार वाले निम्न बुर्जुआ वर्ग के अन्य हिस्सों के साथ ही झुग्गीवासियोंमज़दूरों आदि की मांगों को भी शामिल करता है। यह अपने एजेंडा की सभी मांगों को पूरा कर ही नहीं सकताक्यों कि इन अलग-अलग सामाजिक समूहों की मांगें एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। आप की असली पक्षधरता दिल्लीं के निम्न बुर्जुआ वर्ग के साथ है जो कि आप के दो महीने के शासन में साफ जाहिर हो चुका है। 'आपवास्तव में और राजनीतिक रूप से इन्हीं परजीवी नवधनाढ्य वर्गों की पार्टी है। 'आम आदमीकी जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने 'आपके पक्ष में वोट दियाकिसी विकल्प के अभाव मेंअरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।
आंतरिक तौर पर भीकेजरीवाल धड़े और यादव-भूषण धड़े के बीच जारी सत्ता संघर्ष के चलते 'आपकी राजनीति नंगी हो गयी है। इसका यह मतलब नहीं कि अगर यादव धड़े का वर्चस्व होतातो दिल्ली के मेहनतकशों के लिए हालात कुछ अलग होते। यह गंदी आंतरिक लड़ाई 'आपके असली चरित्र को ही उजागर करती है और बहुत से लोगों को यह समझने में मदद करती है कि 'आपकोई विकल्प़ नहीं है और यह कांग्रेसभाजपासपाबसपा,सीपीएम जैसी पार्टियों से कतई अलग नहीं है। खासतौर परदिल्ली के मज़दूर इस सच्चाई को समझ रहे हैं। यही वजह है कि 25 मार्च को ही पुलिस बर्बरता और केजरीवाल सरकार के विरुद्ध दिल्ली के हेडगेवार अस्पताल के कर्मचारियों ने स्वत:स्फू्र्त हड़ताल कर दी थी। दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन के मज़दूरोंअन्य अस्पतालों के ठेका मज़दूरोंठेके पर काम करने वाले शिक्षकोंझुग्गीवासियों और दिल्ली के ग़रीब विद्यार्थियों और बेरोजगार नौजवानों में गुस्सा सुलग रहा है। दिल्ली का मज़दूर वर्ग अपने अधिकार हासिल करने और केजरीवाल सरकार को उसके वादे पूरे करने के लिए बाध्य करने के लिए संगठित होने की शुरुआत कर चुका है। मज़दूरों को कुचलने की केजरीवाल सरकार की बौखलाहट भरी कोशिशें निश्चित तौर पर उसे भारी पड़ेंगी।

मज़दूरछात्र और स्त्री संगठनों ने दिल्ली के विभिन्न मेहनतकश और ग़रीब इलाकों में अपना भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिया है। अगर 'आपसरकार दिल्ली के ग़रीब मेहनतकशों से किये गये अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहती है और हजारों स्त्रियों,मज़दूरों और छात्रों पर किये गये घृणित और बर्बर हमले के लिए माफी नहीं मांगती है तो उसे दिल्ली के मेहनतकश अवाम के बहिष्कार का सामना करना होगा। 25 मार्च को हम परदिल्ली के मज़दूरोंस्त्रियों और युवाओं पर की गयी हरेक चोट इस सरकार की एक घातक भूल साबित होगी।


इस बर्बर लाठीचार्ज से जुड़ी अन्‍य फोटोवीडियो व न्‍युज कवरेज को देखने के लिए इस लिंक पर जायें - http://www.mazdoorbigul.net/archives/7076

Avoir peur de la police, pas des manifs

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Avoir peur de la police, pas des manifs

23 mars 2013 10h43 · Véronique Robert

Ce matin, dans La Presse, on pouvait lire ceci:

«Depuis les trois dernières manifestations, nous intervenons plus rapidement, a confirmé le sergent Jean-Bruno Latour, porte-parole du SPVM. Il ne faut pas prendre en otage les citoyens qui veulent venir au centre-ville de Montréal. Le Charte [des droits et libertés] protège le droit d'expression, mais il n'y pas de droit de manifestation»

Cette assertion aussi hurluberlue qu'affolante, alarmante, effrayante d'un policier du Service de police de la ville de Montréal mène à deux constats: Le premier, les policiers devraient impérativement suivre plus de cours de droit dans le cadre de leur formation. Le second, ça ne va pas du tout au Québec actuellement, et ça fait peur.

La Charte canadienne des droits et libertés, qui est le document de protection des droits fondamentaux régissant les rapports entre l'État et les individus, protège clairement le droit de manifester.

Protection, donc, de la liberté de conscience, de pensée, de croyance, d'opinion et d'expression.  Protection, en sus, de la liberté de réunion pacifique et de la liberté d'association.  Une association, et une réunion pacifique, sont entre autres des modes de transmission de cette expression.

Ces droits garantis par la Charte sont aussi garantis dans tous les documents de protection des droits fondamentaux au monde.  Oui, oui, au monde.

La Déclaration universelle des droits de l'homme, qui n'a pas force de loi mais qui demeure une magnifique déclaration de principe à laquelle le Canada a adhéré en 1948 énonce ceci :

«Article 19 : Tout individu a le droit à la liberté d'opinion et d'expression, ce qui implique le droit de ne pas être inquiété pour ses opinions et celui de chercher, de recevoir, et de répandre, sans considérations de frontières, les informations et les idées par quelque moyen d'expression que ce soit».

Le Pacte international relatif aux droits civils et politiques, dont le Canada est signataire, énonce non seulement le droit à la liberté d'expression, mais aussi les limites légales des restrictions à ce droit :

1. Nul ne peut être inquiété pour ses opinions.

2. Toute personne a droit à la liberté d'expression; ce droit comprend la liberté de rechercher, de recevoir et de répandre des informations et des idées de toute espèce, sans considération de frontières, sous une forme orale, écrite, imprimée ou artistique, ou par tout autre moyen de son choix.

3. L'exercice des libertés prévues au paragraphe 2 du présent article comporte des devoirs spéciaux et des responsabilités spéciales. Il peut en conséquence être soumis à certaines restrictions qui doivent toutefois être expressément fixées par la loi et qui sont nécessaires:

a) Au respect des droits ou de la réputation d'autrui;

b) A la sauvegarde de la sécurité nationale, de l'ordre public, de la santé ou de la moralité publiques.

Une loi, un règlement d'un État signataire, peut donc restreindre le droit à l'expression et le droit à la réunion pacifique, pour autant que la restriction soit nécessaire pour assurer la sécurité de la nation.

Ce type de restriction est d'usage, et normal, dans une société libre et démocratique.  Au Canada, une telle restriction prend place à l'article premier de la Charte.  L'exemple le plus facile à comprendre est celui de la propagande haineuse.  La liberté d'expression, oui, mais pas au point de protéger le droit à l'expression de la haine publique dangereuse. C'est ainsi que les dispositions qui criminalisent la propagande haineuse sont des restrictions raisonnables au droit à la liberté d'expression.

Il est évident que la participation active à une émeute ne fait l'objet d'aucune protection constitutionnelle. Il en va autrement de la participation à une manifestation.

Mais pour revenir au Pacte civil, le Comité des droits de l'homme de l'ONU s'est inquiété, en 2005, des arrestations de masse au Canada, plus particulièrement au Québec, plus particulièrement à Montréal, arrestations de masse qui, par définition, violent le droit à la liberté d'expression[1].

Le Comité a entre autres émis le constat suivant :

L'état partie devrait veiller à ce que le droit de chacun de participer pacifiquement à des manifestation de protestation sociale soit respecté et à ce que seuls ceux qui ont commis des infractions pénales au cours d'une manifestation soient arrêtés. 

Le Comité des droits de l'homme a, du même souffle, recommandé que le Canada mène une enquête publique sur les interventions de la police de Montréal pendant les manifestations et demandé à recevoir des informations sur l'article 63 du Code criminel qui prohibe l'attroupement illégal.

C'était il y a huit ans.  Rien n'a changé.  Pire, tout s'est envenimé.

Quand des policiers viennent dire sans gêne sur la place publique que le droit de manifester n'est pas un droit fondamental, il y a vraiment de quoi s'inquiéter alors inquiétons-nous.  (Et manifestons?)

Le Règlement P-6 de la ville de Montréal (Règlement sur la prévention des troubles de la paix, de la sécurité et de l'ordre publics, et sur l'utilisation du domaine public ) doit faire l'objet d'une contestation devant les tribunaux, certes, puisque l'obligation de donner l'itinéraire d'une manifestation à l'avance, tout comme l'interdiction de se déguiser ou de se protéger le visage lors d'une manifestation doivent être étudiés juridiquement.  Mais c'est surtout, dans le contexte actuel, l'application de ce règlement, et son interprétation, par le SPVM, qui doit faire l'objet d'une contestation.

Les organismes de défense des droits, dont la Ligue des droits et libertés, s'opposent à ce règlement.  L'Association des juristes progressistesen demande l'abrogation immédiate.  LeBarreau du Québec a aussi pris position contre cette mesure excessive qu'est le Règlement P.-6.

Que des jeunes, et des moins jeunes, reçoivent des contraventions de 614 dollars pour avoir participé à des assemblées publiques fait peur.  Que des mouvements de protestation soient brimés dès lors qu'ils se forment fait peur.  Que des policiers détiennent massivement des citoyens pour rien fait peur.  Qu'on confonde interpellation policière et arrestation arbitraire pour avoir exercé un droit constitutionnel fait peur.

Ce qui fait peur, à Montréal, actuellement, c'est la police avec ses déclarations totalitaires.  Ce qui fait peur c'est l'État et son mode de gouvernance.  Pas les manifestants.


[1] Le texte du rapport est ici :   Lire aussi à ce sujet DUPUIS-DÉRI, Francis, «Broyer du noir : manifestations et répression policière au Québec», Les ateliers de l'éthique, v.1. no. 1, printemps 2006.

 

 

 

http://voir.ca/veronique-robert/2013/03/23/avoir-peur-de-la-police-pas-des-manifs/

 

 

 

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Let be enlightened Bengal

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Let be enlightened Bengal
One after one the horrible and shameful acts are being continuing in West Bengal. It because of the shameless role of West Bengal government who ignored the RAPE CASES as organized conspiracy (SAJANO GHATANA). After the gang rape at Park Street Mamata Benerjee reacted it as SAJANO GHATANA. No fruitful steps done by her. Hole Bengal raised their voices after the terrible gang rape at Kamduni. The government gave support to the rapist rather giving the JUSTICE to the victim. For this shameless and nonsense responsibility the position of West Bengal come into first place in RAPPING in India. We doubt there be a hidden agenda to socialize the shameful act for their political game !!

The RAPING POLITICAL GAME of West Bengal Government has crossed the limit at the Gangnapur incident. A 72-year-old nun was allegedly gang-raped at a convent school in Ranaghat area of West Bengal`s Nadia district.
It has held head down of us. It has held head down of West Bengal in the World !!

We are loudly condemning the political game of RAPING and giving moral support to the respectful Nun. JAI SACHETAN BANGLA

'Let be enlightened Bengal :    One after one the horrible and shameful acts are being continuing in West Bengal. It because of the shameless role of West Bengal government who ignored the RAPE CASES as organized conspiracy (SAJANO GHATANA).  After the gang rape at Park Street Mamata Benerjee reacted it as SAJANO GHATANA. No fruitful steps done by her. Hole Bengal raised their voices after the terrible gang rape at Kamduni. The government gave support to the rapist rather giving the JUSTICE to the victim. For this shameless and nonsense responsibility the position of West Bengal come into first place in RAPPING in India. We doubt there be a hidden agenda to socialize the shameful act for their political game !!    The RAPING POLITICAL GAME of West Bengal Government has crossed the limit at the Gangnapur incident.  A 72-year-old nun was allegedly gang-raped at a convent school in Ranaghat area of West Bengal`s Nadia district.   It has held head down of us. It has held head down of West Bengal in the World !!      We are loudly condemning the political game of RAPING and giving moral support to the respectful Nun. JAI SACHETAN BANGLA'

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