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रवींद्र का दलित विमर्श- पांच शूद्र धर्मःहिंदुत्व में शूुद्रों की अटूट आस्था ही अस्पृश्यता का रसायनशास्त्र है जिसके समाधान का कोई राजनीतिक फार्मूला नहीं है! श्वेत आतंकवाद के रंगभेदी राष्ट्रवाद का फासिस्ट नाजी चेहरा अमेरिका तक सीमाबद्ध नहीं है।नस्ली श्रेष्ठता के राष्ट्र और राष्ट्रवाद की यह मनुष्यताविरोधी सभ्यता विरोधी नरसंहार संस्कृति विश्वव्यापी है ग्लोबीकरण और मुक्तबा�

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रवींद्र का दलित विमर्श- पांच

शूद्र धर्मःहिंदुत्व में शूुद्रों की अटूट आस्था ही अस्पृश्यता का रसायनशास्त्र है जिसके समाधान का कोई राजनीतिक फार्मूला नहीं है!

श्वेत आतंकवाद के रंगभेदी राष्ट्रवाद का फासिस्ट नाजी चेहरा अमेरिका तक सीमाबद्ध नहीं है।नस्ली श्रेष्ठता के राष्ट्र और राष्ट्रवाद की यह मनुष्यताविरोधी सभ्यता विरोधी नरसंहार संस्कृति विश्वव्यापी है ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार की डिजिटल कारपोरेट दुनिया में भी,जिसके हम अभिन्न अंग है।राष्ट्र के इस उत्पीड़न,दमन और आतंक का सामना करने वाले रवींद्रनाथ,गांधी और आइंस्टीन ऐसे नस्ली सैन्य राष्ट्र और असमता और अन्याय पर आधारित राष्ट्रवाद की विरोध करते थे।

रवींद्रनाथ असमता और अन्याय की राष्ट्र व्यवस्था को सामाजिक समस्या मानते थे जिसके मूल में फिर वही नस्ली वर्चस्व का रंगभेद है।

पलाश विश्वास

नस्ली राष्ट्रवाद की जड़ें कितनी गहरी होती हैं अमेरिका में नस्ली हिंसा की ताजा घटनाओं से उसके सबूत मिलते हैं।अमेरिकी राष्ट्रवाद पर अब भी श्वेत आंतकवाद हावी है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का मौलिक चरित्र है,जिससे वह कभी मुक्त हुआ ही नहीं है।बाराक ओबामा के अश्वेत राष्ट्रपति की हैसियत से दो कार्यकाल पूरे होने के बावजूद नस्ली श्वेत आतंकवाद का कुक्लाक्स क्लान चेहरा अमेरिकी राजनीतिक नेतृत्व का चेहरा है और इसी लिए श्वेतआतंकवादियों की प्रतिमाओं के खंडित होने पर भड़की नस्ली हिंसा के विमर्श की भाषा में बोल रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति।

श्वेत आतंकवाद के रंगभेदी राष्ट्रवाद का फासिस्ट नाजी चेहरा अमेरिका तक सीमाबद्ध नहीं है।नस्ली श्रेष्ठता के राष्ट्र और राष्ट्रवाद की यह मनुष्यताविरोधी सभ्यता विरोधी नरसंहार संस्कृति विश्वव्यापी है ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार की डिजिटल कारपोरेट दुनिया में भी,जिसके हम अभिन्न अंग है।राष्ट्र के इस उत्पीड़न,दमन और आतंक का सामना करने वाले रवींद्रनाथ,गांधी और आइंस्टीन ऐसे नस्ली सैन्य राष्ट्र और असमता और अन्याय पर आधारित राष्ट्रवाद की विरोध करते थे।

रवींद्रनाथ असमता और अन्याय की राष्ट्र व्यवस्था को सामाजिक समस्या मानते थे जिसके मूल में फिर वही नस्ली वर्चस्व का रंगभेद है।

रवींद्रनाथ ने अपने निबंध शूद्र धर्म में जातिव्यवस्था के तहत शूद्रों के अछूत होते जाने की प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा करते हुए साफ साफ लिखा है कि मनुस्मृति विधान के मुताबिक इस देश में शूद्र ही अपने धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म में उऩकी अटूट आस्था है।भारत शूद्रों का ही देश है।जाति व्यवस्था और अस्पृस्यता को केंद्रित नस्ली असमानता और अन्याय के धर्म में शूद्रों की अटूट आस्था ही भारतीय समाज की मौलिक समस्या है।

शूद्र कौन हैं,यह लिखते हुए बाबासाहेब डां,अंबेडकर ने भी शायद इसी समस्या को चिन्हित किया है।

भारत में राजकाज और राजनीति में हिंदुत्व के पुनरुत्थान के मूल में ही शूद्रों का यह अटूट हिंदुत्व है और रवींद्रनाथ की मानें तो इसका कोई राजनीतिक समाधान असंभव है। इस सामाजिक समस्या का समाधान स्थाई सामाजिक बदलाव ही है,जो नस्ली अस्मिताओं के एकीकरण और विलय और उनके सहिष्णु सहअस्तित्व से ही संभव है।नस्ली वर्चस्व के सत्ता समीकरण की राष्ट्रवादी राजनीति से मनुष्यता और सभ्यता को सबसे बड़ा खतरा है।इसीलिए धर्म उऩके लिए अस्मिता या पहचान नहीं,मनुष्यता,सभ्यता,अहिंसा,सत्य,प्रेम और शांति है।जो हमारी साझा विरासत है।

नई दिल्ली में साझा विरासत सम्मेलन की राजनीति कुल मिलाकर अटूट हिंदुत्व आस्था के तहत राजनीतिक चुनावी गठबंधन का तदर्थ विकल्प है और यह भारतीय नस्ली असमानता और अन्याय की बुनियादी समस्या के समाधान की दिशा दिखाने के बदले हिंदुत्व की राजनीति को ही मजबूत बनाता है।जो सही मायने में हमारी साझा विरासत के खिलाफ है।

ओबीसी क्षत्रपों के राजनीतिक कायाकल्प और बहुजन राजनीति के नेताओं के हिंदुत्व में निष्णात होते जाने की यह हरिकथा अनंत दलित आंदोलन का भी यथार्थ है।

उन्नीसवीं सदी में शुरु बंगाल के चंडाल आंदोलन के तमाम नेता 1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के बाद इसी तरह बिखराव के शिकार होकर एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो गये थे।गांधी और देश बंधु के कांग्रेस के स्वदेशी आंदोलन में शामिल होने को ठुकराने वाले गुरुचांद ठाकुर के पोते प्रमथ रंजन ठाकुर सीधे कांग्रेस के पाले में चले गये और जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक अलग अलग खेमे में हो गये।भारत विभाजन के बाद चंडाल आंदोलन का भूगोल पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होते ही वह आंदोलन पूरी तरह बिखर कर रह गया।

नेताओं के सत्ता पक्ष में पालाबदल से सामाजिक बदलाव के सारे आंदोलनों की नियति  अंततः यही होती है।इसलिए राजनीति के सत्ता समीकरण से सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल ही लगता है।

मनुष्य के धर्म और राष्ट्रवाद की चर्चा से हमने बात शुरु की थी,जो रवींद्र के कृतित्व व्यक्तित्व को समझने के लिए अनिवार्य पाठ है।

रवींद्रनाथ गांधी,अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया की तरह भारत की बुनियादी समस्या सामाजिक विषमता को मानते रहे हैं।

गांधी,अंबेडकर और लोहिया इस समस्या के राजनीतिक समाधान के लिए आजीवन जूझते रहे लेकिन रवींद्रनाथ इस सामाजिक समस्या को राजनीतिक मानने से सिरे से इंकार करते रहे हैं।

राजनीति और राष्ट्रवाद सामाजिक असमानता और अन्याय की जाति व्यवस्था को खत्म नहीं कर सकते,यही रवींद्र की मनुष्यता का धर्म है और अंध नस्ली राष्ट्रवाद के खिलाफ उनके विश्वबंधुत्व की उनकी वैश्विक नागरिकता है।

गांधी वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था का समर्थन करते हुए अस्पृश्यता के खिलाफ थे तो अंबेडकर समूची वैदिकी सभ्यता,वैदिकी धर्म और वैदिकी साहित्य का खंडन करते हुए जाति उन्मूलन की राजनीति कर रहे थे।

रवींद्र नाथ भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति की मौलिक समस्या नस्ली वर्चस्व और संघर्ष को मानते थे और विविधता में एकता के प्रवक्ता थे।उन्होंने वैदिकी इतिहास,साहित्य और धर्म का अंबेडकर की तरह खंडन मंडन नहीं किया लेकिन वे भारतीय इतिहास और संस्कृति,सामाजिक यथार्थ को नस्ली विविधता की समग्रता में देखते हुए भारतीय सहिष्णुता और सहअस्तित्व की साझा विरासत के रुप में चिन्हित करते हुए असमानता,अन्याय के लिए वर्ण व्यवस्था,ब्राह्मण धर्म,पुरोहित तंत्र, विशुद्धता, अस्पृश्यता और बहिस्कार के नस्ली वर्चस्व का लगातार विरोध करते हुए समता और न्याय पर आधारित मनुष्यता के धर्म की बात कर रहे थे।

दर्शन,विचारधारा के स्तर पर रवींद्रनाथ,गांधी और अंबेडकर तीनों गौतम बुद्ध के सत्य,अहिंसा और प्रेम के बौद्धमय भारत के आदर्शों और सिद्धांतों के तहत नये भारत की परिकल्पना बना रहे थे।

गांधी और रवींद्र के बीच निरंतर वाद विवाद,विचार विमर्श होते रहे हैं तो अंबेडकर और गांधी के बीच भी संवाद का सिलसिला बना रहा।

रवींद्र नाथ के दलित विमर्श पर चर्चा न होने का सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि बाबासाहेब और रवींद्रनाथ के बीच कभी किसी संवाद या संपर्क के बारे में जानकारी न होना है।

अंबेडकर और अंबेडकर की राजनीति को जोड़े बिना दलित विमर्श में चूंकि दलितों और बहुजनों की कोई दिलचस्पी नहीं होती,इसलिए रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा शुरु ही नहीं हो सकी।

यह जाहिर सी बात है कि दलितों और बहुजनों की अगर दिलचस्पी रवींद्रनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व में नहीं है तो सवर्ण विद्वतजन उन्हें जबरन अंबेडकर की श्रेणी में नहीं रखने वाले हैं और न वे रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा शुरु करके सामाजिक बदलाव के पक्ष में खड़े होने वाले हैं।

गांधी से निरंतर संवाद करने वाले रवींद्रनाथ का अंबेडकर के साथ कोई संवाद क्यों नहीं हुआ,इस सवाल का जबाव हमारे पास नहीं है।ऐसे किसी संवाद के लिए न अंबेडकर और न रवींद्रनाथ की ओर से किसी पहल होने की कोई सूचना हमारी नजर में नहीं है।गांधी के स्वराज में रवींद्र की दिलचस्पी थी लेकिन गांधी के अलावा किसी दूसरे राजनेता के साथ वैसी आत्मीयता रवींद्रनाथ की नहीं थी।

बहरहाल राष्ट्रवाद और अस्मिता राजनीति  के विरोध और अन्याय और असमता के राजनीतिक समाधान में रवींद्र की कोई आस्था न होने की वजह ही अंबेडकर के साथ उनका कोई संवाद हो नहीं सका,ऐसा समझकर ही हम इस पर आगे चर्चा नहीं करेंगे।फिरभी इस तथ्य को नजर्ंदाज नहीं किया जा सकता कि रवींद्र ही नहीं, बंगाल के दलित बहुजन आंदोलन के नेताओं के साथ अंबेडकर का संवाद भी बेहद संक्षिप्त रहा है।

जोगेन्द्रनाथ मंडल से शिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन के पहले सम्मेलन में नागपुर में 1942 में जब अंबेडकर की मुलाकात हुई थी,उससे पहले 1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के बाद बंगाल के दलित आंदोलन का बिखराव शुरु हो चुका था।

बंगाल से संविधान सभा के लिए चुनाव के अलावा बंगाल में अंबेडकर की किसी गतिविधि का ब्यौरा नहीं मिलता है।इसके विपरीत गांधी का बंगाल के नेताओं के साथ मियमित संपर्क बना रहा है और वे बंगाल आते जाते रहे हैंं।भारत विभाजन के वक्त कोलकाता और नोआखाली के दंगापीड़ितों के बीच गांधी पहुंच गये थे।

जाहिर है कि रवींद्र और अंबेडकर के बीच संवाद का वह अवसर कभी नहीं बना जो गांधी और रवींद्र के बीच बना।इसलिए हम यह नहीं बता सकते कि रवींद्र की क्या धारणा अंबेडकर के आंदोलन और विचारधारा के प्रति रही होगी।

भारत के बहुजन आंदोलन की जमीन जिस साझा संस्कृति और मनुष्यता के सामंतवाद विरोधी समानता और न्याय के मूल्यों पर आधारित संतों,पीरों फकीरों,बाउलों ,गुरुओं की विचारधारा से बनती है,जिस लोकसंस्कृति और इतिहास में उनकी जड़ें हैं,रवींद्र का व्यक्तित्व और कृतित्व उसी मुताबिक है।

बहरहाल यह गौरतलब है कि पूर्वी बंगाल के जिन दलित नमोशूद्रों के समर्थन से बाबासाहेब अंबेडकर संविधान सभा पहुंचे,उनका सारा का सारा भूगोल पूर्वी पाकिस्तान में शामिल हो गया और बाबासाहेब का चुनाव क्षेत्र भी।बाबासाहेब को समर्थन करने वाले नमोशूद्र समुदाय के लोग भारत विभाजन के शिकार हुए लेकिन इस भयंकर विपदा,त्रासदी और खूनखराबा ,बेदखली  के दौर को झेलते वक्त न बाबासाहेब उनके साथ खड़े थे और न जोगेंद्रनाथ मंडल।

मंडल पाकिस्तान के कानून मंत्री बने लेकिन वे दंगा रोक नहीं सके।वे भागकर पूर्वी बंगाल आ गये।लेकिन आजादी के बाद मंडल और अंबेडकर के बीच कोई संबंध नहीं रहा।बंगाल में अंबेडकरी आंदोलन शुरु होने से पहले खत्म हो गया।

इसी वजह से गुरुचांद ठाकुर के पौत्र प्रमथनाथ ठाकुर के नेतृत्व में बंगाल का मतुआ और दलित आंदोलन पूरीतरह कांग्रेस के पाले में चला गया और स्थाई तौर पर बंगाल का मतुआ और दलित आंदोलन सत्ता की राजनीति से नत्थी हो गया,जिसका बाबासाहेब के आंदोलन और विचारधारा से कोई नाता नहीं रहा तो पूर्वी बंगाल के नमोशूद्र शरणार्थी बनकर देशभर में बिखर गये और उनकी राजनीतिक पहचान और ताकत हमेशा के लिए खत्म हो गयी।

गांधी हिुंदुत्व के प्रबल प्रवक्ता थे और वे विशुद्ध हिंदू थे।वे सनातनपंथी थी लेकिन उनके दर्शन और विचारों पर गौतम बुद्ध का सबसे ज्यादा असर था।इसी वजह से अपने उदार हिंदुत्व से वे साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीय आम जनता के एकताबद्ध महासंग्राम के नेता बन गये।

रवींदनाथ ब्रह्मसमाजी थे और जाति से हिंदुत्व से खारिज दलित पीराली ब्राह्मण थे।वे किसी भी सूरत में सनातनपंथी नहीं थे।हिंदुत्व के प्रवक्ता तो वे किसी भी सूरत में नहीं थे।

इस सिलसिले में उनकी गीतांजलि पर हम आगे ब्यौरेवार चर्चा करेंगे।

वैदिकी साहित्य में उपनिषदों के दर्शन और जिज्ञासाओं का रवींद्रमानस पर सबसे ज्यादा असर रहा है।वैदिकी साहित्य के अलावा वे बौद्ध साहित्य के भी अध्येता थे और ज्ञान विज्ञान का अध्ययन भी उनकी दिनचर्या में शामिल रहा है।

वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहासबोध की ठोस जमीन पर खड़े होकर रवींद्रनाथ के चिंतन मनन पर भारत की साधु संत पीर फकीर बाउल गुरु परंपरा की उदारता और मनुष्यता सबसे गहरा असर हुआ और इसी बिंदू पर मनुष्यता के धर्म की बात करते हुए वे सरहदों के दायरे में सियासती मजहब के खिलाफ खड़े हो जाते हैं तो नस्ली रंगभेद की जातिव्यवस्था और अस्पृश्यता के खिलाफ युद्ध घोषणा कर देते हैं।

मनुष्यता के धर्म में अपनी गहरी आस्था की वजह से ही रवींद्रनाथ जाति व्यवस्था ,पुरोहित तंत्र, विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार पर आधारित हिंदुत्व के खिलाफ खड़े थे और इसीलिए उनका साहित्य आज भी रंगभेदी फासिस्ट राजकाज के खिलाफ विविधता और सहिष्णुता,अनेकता में एकता के मोर्चे पर ठोस प्रतिरोध साबित हो रहा है।इसीलिए प्रतिक्रिया में इतिहास बदलने से साथ साथ साहित्यिक सांस्कृतिक साझा विरासत को भी मिटाने की कोशिशें जारी हैं।

रवींद्र के लिखे निबंध शूद्र धर्म में शूद्रो के अछूत बनते जाने की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए जन्म जात जातिव्यवस्था और जन्मजात पेशे के अनुशासन की तीखी आलोचना करते हुए शूद्रों के हिंदुत्व के मुताबिक अपना धर्म मानने की अनिवार्यता पर तीखे प्रहार करते हुए साफ साफ लिखा है कि जो समाज अपने अभिन्न हिस्सों का काटकर अलग फेंकता है,उसका पतन अनिवार्य है।

रवींद्रनाथ ने यह भी लिखा हैःअपना धर्म मानने वाले शूद्रों की संख्या ही भारत में सबसे ज्यादा है और इस दृष्टि से देखें तो भारत शूद्रों का ही देश है।

मुझे नये सिरे से इस विषय पर सिलसिलेवार चर्चा करनी पड़ रही है।मूल पांडुलिपि के सौ से ज्यादा पेज शायद मेरे पास बचे नहीं हैं जो आधे अधूरे हैं।

इसलिए मेरी कोशिश यह है कि तकनीक की सुविधा का इ्सतेमाल करते हुए सारी संदर्भ समाग्री सोशल मीडिया के मार्फत आप तक पहुंचा दी जाये,ताकि इस अति महत्ववपूर्ण मुद्दे पर खुले दिमाग से संवाद हो सके।

इसी सिलसिले में आज सुबह से नेट पर रवींद्र नाथ टैगोर के बहुचर्चित आलेख शूद्र धर्म को खोज रहा था।

हिंदी,बांग्ला और अंग्रेजी में मुझे 1925 में लिखा  यह निबंध नहीं मिला है।

आपसे निवेदन यह है कि किसी के पास यह आलेख किसी भाषा में उपलब्ध हो तो उसे सार्वजनिक जरुर करें।

जाहिर है कि यह संवाद साहित्यिक शोध या संवाद नहीं है,यह सामाजिक असमानता, अन्याय, उत्पीड़न, बेदखली अभियान, कारपोरेट फासिस्ट राजकाज और राजनीति, बेदखली की नरसंहार संस्कृति और रंगभेदी वर्ण वर्ग वर्चस्व के शिकार किसानों,मेहनतकशों,दलितों,स्त्रियों,युवाओं,पिछड़ों,आदिवासियों और गैरनस्ली विधर्मी भारत की बहुसंख्य आमजनता के सामने भारतीय इतिहास,साहित्य और संस्कृति का परत दर परत सच रखने का प्रयास है।

तकनीकी और मोबाइल क्रांति से जो आम लोग सोशल मीडिया में मौजूद हैं,उन् तक पहुंचना हमारा मकसद है।जाहिर है कि किसी विश्वविद्यालय से कोई डिग्री हासिल करने के लिए यह कोई शोध निबंध नहीं है और न ही यह विद्वतजनों तक सीमाबद्ध बौद्धिक कवायद है।


1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के  बाद नमोशूद्र आंदोलन के बिखराव का ब्यौरा शेखर बंद्योपाध्याय के निंबंध में सिलसिलेवार है।अंबेडकर के बंगाल के नमोशूद्र नेताओं के साथ संबंध का ब्यौरा भी यही है।कृपया देखेंः

১৯৩৭ সালের মার্চ মাসে গুরুচাঁদের মৃত্যু ঘটলে যে প্রভাব নমশূদ্র আন্দোলনকে কংগ্রেসি রাজনীতির থেকে দূরে সরিয়ে রেখেছিল তা অন্তর্হিত হয় এবং এই একই বছরে গঠিত 'ক্যালকাটা শিডিউল্ড কাস্ট লীগ'এই দুই গোষ্ঠীর মধ্যে সেতুবন্ধনের কাজ শুরু করে। যে সমস্ত বিশিষ্ট নমশূদ্র নেতা এই নতুন সংগঠনের সঙ্গে যুক্ত ছিলেন তাঁদের মধ্যে গুরুচাঁদের পৌত্র প্রথমরঞ্জন ঠাকুরের নাম উল্লেখ করা যেতে পারে২৮। অন্যদিকে কংগ্রেসের পক্ষে যাঁরা এই নতুন মৈত্রীবন্ধনের উদ্যোগ নিয়েছিলেন তাঁদের মধ্যে ছিলেন সুভাষ এবং শরৎ বসু-ভ্রাতৃদ্বয়। ১৯৩৮ সালের ১৩ই মার্চ অ্যালবার্ট হলের এক সভায় কংগ্রেসের নবনির্বাচিত সভাপতি সুভাষ বসু গুরুচাঁদকে বর্ণনা করেন 'অতিমানব'বলে, 'যিনি বাংলার হিন্দু সমাজে এক নতুন প্রাণের সঞ্চার করে তাকে পুনর্জাগরিত করেছিলেন।'২৯এই সভার তিনদিন পরে তফসিলি জাতির প্রায় কুড়িজন সাংসদ, যাদের মধ্যে ছিলেন প্রথমরঞ্জন ঠাকুর এবং যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল, শরৎ বসুর বাড়িতে মিলিত হয়ে কংগ্রেসের সঙ্গে সহযোগিতা করার এবং সম্মিলিত সরকারের প্রতি সমর্থন তুলে নেওয়ার সিদ্ধান্ত নেন৩০। তাঁরা একটি নতুন সংসদীয় দল গঠন করেন, যার নাম দেওয়া হয় Independent Scheduled Caste Party। যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন এর সচিব এবং এই দল 'কংগ্রেসের সঙ্গে সহযোগিতা করে চলবে'বলে ঠিক হয়৩১

 

১৯৩৮ সালের ১৮ই মার্চ কলকাতায় গান্ধীজীও কয়েকজন বিশিষ্ট নমশূদ্র সাংসদের সঙ্গে দেখা করেন। তাঁর ব্যক্তিগত অনুরোধেই জুলাই মাসে প্রথমরঞ্জন ঠাকুর কংগ্রেস-শাষিত প্রদেশগুলি সফর করেন এবং সফর শেষে এক প্রেস বিজ্ঞপ্তিতে জানান যে এইসব কংগ্রেসি সরকারগুলি তফসিলি জাতির উন্নয়নের জন্য যা করেছে তা দেখে তিনি গভীরভাবে প্রভাবিত হয়েছেন৩২। এরপর আগস্ট মাসে হক মন্ত্রীসভার দশজন মন্ত্রীর বিরুদ্ধে দশটি পৃথক কংগ্রেস-সমর্থিত প্রস্তাব আনা হয় আইনসভায়। নমশূদ্র মন্ত্রী মুকুন্দবিহারী মল্লিকের বিরুদ্ধে প্রস্তাবটি আনেন নমশূদ্র নেতা প্রথমরঞ্জন ঠাকুর এবং সমর্থন জানান আরেক নমশূদ্র নেতা যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল। এই আস্থা ভোটে ভোটাভুটির নমুনা থেকে দেখা যায় যে এই সময় তফসিলি জাতিভুক্ত একত্রিশ জন এম.এল.এ-র মধ্যে অন্তত ষোল জন ছিলেন কংগ্রেস সমর্থক৩৩। নমশূদ্রদের ক্ষেত্রে এই রাজনৈতিক স্থান পরিবর্তন আনুষ্ঠানিকভাবে ঘোষিত হয় ১৯৩৯ সালের ২৯শে মে তমলুকের নিখিলবঙ্গ নমশূদ্র সম্মেলনে, যেখানে প্রথমরঞ্জন ঠাকুর তাঁর সভাপতির ভাষণে নমশূদ্র সম্প্রদায়কে 'জাতীয় কংগ্রেসে যোগদান করে ভারতের স্বাধীনতার জন্য সংগ্রাম করতে'উপদেশ দেন৩৪। পিতামহের রাজনৈতিক পৃথকীকরণের নীতির বদলে আসে পরবর্তী প্রজন্মের একীকরণের আশীর্বাদ। এদের সাহায্যই ১৯৪১ সালের অক্টোবর মাসে মুসলিম-লীগ সমর্থিত হক মন্ত্রীসভার পতন ঘটিয়ে ক্ষমতা দখল করে কংগ্রেস-সমর্থিত প্রগ্রেসিভ কো-অ্যালিশন সরকার, সাধারণভাবে যা 'শ্যামা-হক মন্ত্রীসভা'নামেই পরিচিত ছিল। রাজবংশী নেতা উপেন্দ্রনাথ বর্মন এই মন্ত্রীসভায় তফসিলি জাতির প্রতিনিধি হিসেবে যোগদান করেন (বর্মন, ১৯৮৫, পৃঃ ৮১-৮৪)।

 

তবে সব নমশূদ্র নেতাই যে কংগ্রেসের সঙ্গে একীকরণের নীতি মেনে নিয়েছিলেন তা নয়, বরং এই সময়ে তাঁদের আন্দোলনে একটা স্পষ্ট ভাগাভাগির চিহ্ন পরিস্ফুট হয়ে ওঠে। যে সব নেতারা এই কয়েক বছর ধরে মুকুন্দবিহারী মল্লিককে ঘিরে সংগঠিত হচ্ছিলেন, তাঁরা তাঁদের ইংরেজ সরকারের প্রতি পার্থিব এবং নৈতিক সমর্থনের পুরোনো নীতিই ধরে রইলেন। আগের মতোই তাঁরা অধিক চাকরি এবং শিক্ষার সুযোগ দাবি করতে থাকলেন এবং মন্দিরের দ্বার উন্মোচন অথবা অস্পৃশ্যতা দূরীকরণের মতো কংগ্রেসি আন্দোলনগুলির শূন্যগর্ভতা উন্মোচিত করার চেষ্টা করে চললেন৩৫। প্রস্তাবিত ক্রিপস মিশন এবং সাংবিধানিক সংস্কারের সম্ভাবনা সর্বপ্রথম মল্লিকগোষ্ঠীকে কংগ্রেস-সমর্থক ঠাকুরগোষ্ঠীর কাছাকাছি নিয়ে আসতে পেরেছিল। ১৯৪২ সালের ২৬শে মার্চ তাঁরা ঘোষণা করেন যে এক যৌথ দল দিল্লী গিয়ে স্ট্যাফোর্ড ক্রিপস-এর কাছে তাঁদের দাবিদাওয়া জানাবে৩৬। কিন্তু ক্রিপস মিশন অসফল হলে এই দুই গোষ্ঠীর মধ্যে স্থায়ী সমঝোতার সম্ভাবনাও নষ্ট হয়ে যায়।

 

নতুন করে সন্ধিস্থাপনের সম্ভাবনা আরেকবার দেখা গিয়েছিল ১৯৪২-এর এপ্রিল মাসে, যখন কলকাতায় তফসিলি জাতির বেশ কিছু নেতা মিলিত হয়ে স্থাপন করলেন এক নতুন সংগঠন, যার নাম রাখা হল বেঙ্গল শিডিউল্ড কাস্ট লীগ, এবং যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন তার সভাপতি। প্রথম দিকে এই সংগঠন কংগ্রেস সমর্থনের নীতি বজায় রাখে এবং ভারত ছাড়ো আন্দোলনে গান্ধিজী গ্রেপ্তার হলে তার নিন্দা করে৩৭। তবে ইতিমধ্যেই সুভাষ-বসু বিতর্কের কারণে মন্ডল কংগ্রেস সম্বন্ধে বীতশ্রদ্ধ হয়ে পড়েছিলেন। এই দূরত্ব আরো বাড়ে ১৯৪৩-এ তিনি মুসলিম-লীগ সমর্থিত নাজিমুদ্দিন মন্ত্রীসভায় যোগদান করলে। কারণ আর সব তফসিলি নেতাই এই মন্ত্রীসভাকে 'সম্পূর্ণ সাম্প্রদায়িক'বলে বর্জনের সিদ্ধান্ত নিয়েছিলেন (বর্মন ১৯৮৫, পৃঃ ৮৪; মন্ডল ১৯৭৫, পৃঃ ৫১)। তবে নতুন মন্ত্রীসভায় ছিলেন আরো একজন নমশূদ্র নেতা, পুলিনবিহারী মল্লিক (মুকুন্দবিহারীর ভাই) এবং একজন রাজবংশী নেতা, প্রেমহরি বর্মা, আর মুকুন্দবিহারী হলেন নতুন সংযুক্ত দলের সহযোগী নেতা। এই অবস্থা থেকে নমশূদ্র নেতৃত্বের মধ্যে একটা স্পষ্ট বিভাজন সহজেই চোখে পড়ে। দুই মাসের মধ্যেই আম্বেদকর কর্তৃক ১৯৪২ সালে স্থাপিত সর্বভারতীয় তফসিলি জাতি ফেডারেশনের বঙ্গীয় শাখা প্রতিষ্ঠিত হয়। আম্বেদকর-রাজনীতিতে ইতিমধ্যেই গভীরভাবে দীক্ষিত যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন এই শাখার প্রথম সভাপতি। ১৯৪৫-এর এপ্রিল মাসে ফরিদপুর জেলার গোপালগঞ্জে অনুষ্ঠিত এই শাখার প্রথম প্রাদেশিক সম্মেলনে যোগেন্দ্রনাথ তাঁর সভাপতির ভাষনে ঘোষণা করেন যে ফেডারেশনের প্রথম এবং প্রধান উদ্দেশ্য হবে তফসিলি জাতিগুলির জন্য এক পৃথক রাজনৈতিক আত্মপরিচয় প্রতিষ্ঠা করা৩৮। তবে এই সময় সমগ্র তফসিলি সম্প্রদায়ের মনের কথা তিনি বলেছিলেন একথা ভাবাটা বোধহয় ঠিক হবে না। কারণ অনেক বিশিষ্ট নেতাই এই সম্মেলন বর্জনের সিদ্ধান্ত নিয়েছিলেন। একটি বর্ণনা অনুযায়ী এই সময় সমগ্র বাংলার ৩১ জন তফসিলি এম.এল.এ-র মধ্যে মাত্র তিনজন এই সম্মেলনে যোগ দিয়েছিলেন। আম্বেদকর সম্ভবত এই অবস্থার কথা জানতে পেরেই শেষ মূহুর্তে তাঁর সম্মেলনে যোগদানের কর্মসূচি বাতিল করেন৩৯



रवींद्र का दलित विमर्श-छह समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता, उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छाप है। पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-छह

समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता, उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छाप है।

पलाश विश्वास

चंडाल आंदोलन के भूगोल में रवींद्र की जड़ें है जो पीर फकीर बाउल साधु संतों की जमीन है और उसके साथ ही बौद्धमय भारत की निरंतता के साथ लगातार जल जंगल जमीन के हकहकूक का मोर्चा भी है।श्रावंती नगर की चंडालिका की कथा का सामाजिक यथार्थ अविभाजित बंगाल का चंडाल वृत्तांत है,जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाल का नवजागरण और ब्रह्मसमाज  है।

रवींद्र के व्यक्तित्व कृत्तित्व में वैदिकी प्रभाव की खूब चर्चा होती रही है।लोकसंस्कृति में उनकी जड़ों के बारे में भी शोध की निरंतरता है।लेकिन चंडालिका के अलावा कथा ओ कहानी की सभी लंबी कविताओं में जो बौद्ध आख्यान और वृत्तांत हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर महात्मा गौतम बुद्ध का जो प्रभाव है,उसके बारे में बांग्लादेश में थोड़ी बहुत चर्चा होती रही है,लेकिन भारत के विद्वतजनों ने रवींद्र जीवन दृष्टि पर उपनिषदों के प्रभाव पर जोर देते हुए बौद्ध साहित्य के स्रोतों से व्यापक पैमाने पर रवींद्र के रचनाकर्म पर कोई खास चर्चा नहीं की है।

चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ,मनुस्मृति के खिलाफ उनकी युद्धघोषणा को सिरे से नजरअंदाज किया गया है।

जड़ों से,लोक और लोकायत में रचे बसे रवींद्र साहित्य में प्रकृति,पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता के प्रति प्रेम उनके गीतों को रवींद्र संगीत बनाता है,जो बंगाल के आमलोगों का कंठस्वर उसीतरह है जैसे वह स्त्री अस्मिता का पितृसत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध और उनकी मुक्ति का माध्यम है तो बांग्ला राष्ट्रीयता का प्रतीक भी वही है।

जड़ों से जड़ने की इसी अनन्य जीजिविषा की वजह से रोमांस से सरोबार मामूली से लगने वाले उनके गीत के बोल आमार बांग्ला आमि तोमाय भालोबासि सैन्य राष्ट्र के नस्ली नरसंहार अभियान के विरुद्ध बांग्ला राष्ट्रीयता की संजीवनी में तब्दील हो गयी और जाति धर्म से ऊपर उठकर मुक्तिसंग्राम में इसी गीत को होंठों पर सजाकर लाखों लोगों ने अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया।भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास भूगोल बदल गया स्वतंत्र बांग्लादेश के अभ्युदय से जहां राष्ट्रीयता उनकी मातृभाषा है।

इसी तरह स्वतंत्र भारतवर्ष की समग्र परिकल्पना जहां रवींद्र की कविता भारत तीर्थ है,राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता का राष्ट्रगान जनगण मन अधिनायक है तो भारतीय दर्शन परंपरा,भारतीय इतिहास,भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अंतरतम अभिव्यक्ति गीतांजलि है।

हमने स्पष्ट कर दिया है कि मनुस्मृति विधान के तहत जाति व्यवस्था की विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार के खिलाफ खड़े गांधी,अंबेडकर और रवींद्र तीनों पर महात्मा गौतम बुद्ध और उनके धम्म का प्रभाव है।

हम मौजूदा रंगभेद की राजनीति, सत्ता और अर्थव्यवस्था की नरसंहार संस्कृति के लिए बार बार महात्मा गौतम बुद्ध के दिखाये रास्ते पर चलने और धम्म के अनुशीलन पर जोर देते रहे हैं।समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता,उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छा                                                                       प है।

इसी सिलसिले में रवींद्र साहित्य के बौद्ध प्रसंग पर आज सुबह मैंने ढाका बांग्ला अकादमी के उपसंचालक कवि डा.तपन बागची का बांग्ला में लिखे मूल शोध निबंध को अपने हे मोर चित्त,prey for humanity video के साथ सोशल मीडिया पर सेयर किया है।हिंदी पाठकों के लिए इस आलेख में उस शोध निबंध के तथ्यों पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे।बाकी उपलब्ध सामग्री पर भी बात करेंगे और अगर नेट पर कोई प्रासंगिक सामगग्री मिली तो उसे भी शेयर करेंगे।

हम ब्लाग और सोशल मीडिया पर रवींद्र के दलित विमर्श को आम पाठकों के लिए इसलिए शेयर कर रहे हैं कि यह कुलीन सवर्ण विद्वतजनों के लिए निषिद्ध विषय है,जिसपर हमारे लिए साहित्य के परिसर में या अकादमिक स्तर पर चर्चा करने का मौका नहीं है और यह प्रयास करके हम 2002 में भी हार गये हैं।हम चाहते हैं कि सिर्फ लाइक न करके ,आप स्वयं भी इस संवाद में अपनी सहमति और असहमति दर्ज करें और जितना हो सकें,शेयर करके इसे एक व्यापक बहस बना दें ताकि समर्थ लोग आगे इस पर कायदे से बात शुरु करें।

रवींद्रनाथ ने अचानक चंडालिका नहीं लिखी है।इससे पहले रुस की चिट्ठी,शूद्र धर्म,राष्ट्रवाद और मनुष्य का धर्म जैसे महत्वपूर्ण कृतियों में उन्होंने भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण वर्चस्व की वजह से नस्ली विषमता बताते हुए भारत को खंडित राष्ट्रीयताओं का समूह बताया है और इसे सामाजिक समस्या माना है।

औपनिवेशिक भारत की समस्या को वे वैसे ही राजनीतिक समस्या नहीं मानते थे,जैसे गुरुचांद ठाकुर,महात्मा ज्योतिबा फूले,अयंकाली,नारायणगुरु और पेरियार।

फूले और गुरुचांद ठाकुर अंग्रेजी हुकूमत के बदले ब्राह्मणों के हुकूमत के विरोध में गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में दलितों,पिछड़ों की हिस्सेदारी से मना किया था।बंगाल में चंडाल आंदोलन भी ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध न होकर सवर्म जमींदारों के खिलाफ था और राजनीतिक आजादी के बजाये वे जाति व्यवस्था के तहत अपनी अस्पृश्यता से मुक्ति और सबके लिए समान अवसर,समानता और न्याय की मांग कर रहे थे।बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर भी अस्पृश्यताविरोधी आंदोलन से राजनीति की शुरुआत की और उन्होंने जाति उन्मूलन का एजंडा सामने रखा।बहुजनों के नेता जिस सामाजिक बदलाव की बात करते हुए अंग्रेजों से ब्राह्मणतंत्र को सत्ता हस्तांतरण का विरोध कर रहे थे,रवींद्र साहित्य में भी उसी सामाजिक बदलाव की मांग प्रबल है।

बहुचर्चित चंडालिका रवींद्रनाथ ने 1933 में लिखी।चंडालिका को उन्होंने चंडाल आंदोलन के बिखराव से पहले सामाजिक बदलाव के लिए जाति व्यवस्था पर आधारित रंगभेदी नस्ली विषमता के खिलाफ पेश किया,इस पर खास गौर किये जाने की जरुरत है।

1937 में चंडाल आंदोलन के महानायक गुरुचांद ठाकुर, जिनके आंदोलन की वजह से 1911 की जनगणना में बंगाल के अस्पृश्य चंडालों को नमोशूद्र बतौर दर्ज किया गया और बंगाल में अस्पृश्यता निषेध लागू हो गया,का निधन हो गया,उसी वर्ष रवींद्रनाथ ने चंडालिका को नृत्यनाटिका के रुप में पेश करके बाकायदा अपनी तरफ से अस्पृश्यता के विरोध में एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत कर दी।

क्योंकि बंगाल में बाकी देश की तरह मंदिर प्रवेश आंदोलन या पेयजल के अधिकार के लिए आंदोलन नहीं हुए,चंडालिका का यह सांस्कृतिक रंगकर्म चंडाल आंदोलन के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण है,खासकर जबकि तमाम बहुजन नेता ब्राह्मणधर्म के विकल्प के रुप में गौतम बुद्ध के धम्म का प्रचार कर रहे थे और रवींद्रनाथ की चंडालिका कथा बंगाल के सामाजिक यथार्त की अभिव्यक्ति के लिए सीधे बौद्ध साहित्य से ली गयी।

चंडालिका की रचना से बहुत  पहले जिस गीतांजलि पर नोबेल पुरस्कार मिलने की वजह से रवींद्र को कविगुरु,गुरुदेव और विश्वकवि जैसी वैश्विक उपाधियां मिलीं,उसी गीताजलि में उन्होंने लिखाः

शतेक शताब्दी धरे नामे सिरे असम्मानभार

मानुषेर नारायणे तबु करो ना नमस्कार।

तबु नतो करि आंखि देखिबारे पाओ नाकि

नेमेछे धुलार तले दीन पतितेर भगवान

अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान।

मेरे पिता शरणार्थी नेता जो पूर्वी बंगाल से उखाड़े गये और भारतभर में छितरा दिये गये अछूत विभाजनपीड़ित शरणार्थियों के पुनर्वास,मातृभाषा,आरक्षण, नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के लिए तजिंदगी लड़ते रहे,वे इस कविता को बंगाल के और बाकी भारत के अछूतों के आत्मसम्मान आंदोलन का मूल मंत्र मानते थे।वे मानते थे कि सामाजिक विषमता की वजह सेही विस्थापन होता है।

नस्ली रंगभेद की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी हिंसा की वजह से आज आधी मनुष्यता शरणार्थी हैं तो आजादी के बाद इसी नस्ली भेदभाव के कारण पूरा का पूरा आदिवासी भूगोल विस्थापन का शिकार है।

विस्थापन का शिकार है हिमालय और हिमालयी लोग भी इसी नस्ली विषमता की वजह से दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं।

उन्नीसवीं सदी से शुरु चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग अछूतों को सवर्णों की तरह हिंदू समाज में बराबरी और सम्मान देने की मांग थी जिस वजह से पूर्वी बंगाल के चंडाल भूगोल में महीनों तक अभूतपूर्व आम हड़ताल रही।केरल में भी अयंकाली ने किसानों और मछुआरों की मोर्चांबदी से इसीतरह की हड़ताल की तो तमिलनाडु की द्रविड़ अनार्य अस्मिता का आत्मसम्मान आंदोलन भी इसी नस्ली भेदभाव के खिलाफ था और इसी जातिव्यवस्था और मनुस्मृति विधान के तहत बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने नागपुर में हमारे जन्म से पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली।

लेकिन असमानता और अन्याय की व्यवस्था कारपोरेट हिंदुत्व से  देश के विभाजन और सत्ता हस्तांतरण के सत्तर साल बाद राष्ट्रवाद की अंध आत्मघाती सुनामी में तब्दील है और इस व्यवस्था के शिकार तमाम जन समुदाय जल जंगल जमीन नागरिकता नागरिक और मानव अधिकारों से लगातार बेदखली के बाद उसी नरसंहार संस्कृति की पैदल सेना है।

रवींद्रनाथ जिस परिवार में जनमे,वह मूर्तिपूजा के खिलाफ ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था।वे जाति से पीराली ब्राह्मण थे जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और सामाजिक बहिस्कार की वजह से उनका परिवार पूर्वी बंगाल छोड़क कोलकाता चला आया।उनेक दादा प्रिंस द्वारका नाथ टैगोर को फोर्ट विलियम का ठेका मिला और वे बंगाल में ब्रिटिश राज के दौरान उद्यमियों में अगुवा बन गये,जिनका लंदन के स्टाक एक्सचेंज में भी कारोबार था तो पूर्वीबंगाल में उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी।इसके बावजूद उनका परिवार कुलीन हिंदू समाज के लिए अछूत था।रवींद्र के पिता महर्षि द्वारका नाथ टैगोर ब्रह्म समाज आंदोलन के स्तंभ थे।ठैगोर परिवार और ब्रह्मसमाज आंदोलन के नेताओं पर बौद्धधर्म का गहरा असर था और उन सभी ने इस पर काफी कुछ लिखा।इस पारिवारिक पृष्ठभूमि पर हम अलग से चर्चा करेंगे।

रवींद्रनाथ की रचनाओं में चंडालिका के अलावा नेपाली बौद्ध साहित्य से लिये गये आख्यान पर आधारित भिक्षा, उपगुप्त, पुजारिनी, मालिनी, परिशोध, चंडाली, नगरलक्ष्मी,मस्तकविक्रय जैसी रचनाएं लिखी गयी हैं।उनका कविता संकलन कथा ओ काहिनी की सारी रचनाएं इसी नेपाली बौद्ध साहित्य के आख्यान पर आधारित हैं।कथा ओ काहिनी की 33 कविताएं इसी तरह लिखी गयी,जिनमें लंबी कविताएं दो बिघा जमीन,विसर्जन,देवतार ग्रास और पुरातन भृत्य जैसी रचनाएं शामिल हैं।पुनश्च की कविताओं का स्रोतभी बौद्ध साहित्य है।जिनमें शाप मोचन बेहद लोकप्रिय और चर्चित है।


नीरज कुमार के आलेख में रवींद्र साहित्य में गौतम बुद्ध और उनके धम्म के प्रभाव की सिलसिलेवार चर्चा की गयी है।इसके कुछ चुनिंदा अश पेश हैंः

Was Tagore Buddhist? Tagore was Buddhist!

Rabindranath Tagore was  born on 7th May,1861. His own grooming coincided with revival of Buddhism in India.  Tagore's father   Devendranath Tagore had mystical propensity. Tagore senior  joined Brahmo Samaj in 1846.  Brahmo Samaji did not believe in idol worship, just like Buddha.The Brahmo Samaj founder   Keshab Chandra Sen(1838-1884), accompanied Tagore's father  Debendraath Tagore and Satyendranath Tagore, Rabindra's elder brother  to Ceylon in 1859. Thus, the family  had  direct Buddhist encounter dating back to 1859. Two elder brother,  of Rabindra ;Dwijendranath Tagore and Satyendranath Tagore wrote historical work on Buddha in 1899 & 1901 respectively. As a child, Rabindra  was most influenced by the works of  Rajender Lal Mitra(1822-1891), who was a member of the Asiatic Society of Bengal. Mitra's work,The Sanskrit Buddhist literature of Nepal(1883) had tremendous influence over Tagore's imagination about Buddha. Tagore used anecdotes and legends about Buddha in his writings and speeches from here. In his memoirs (Jibansmriti), Tagore writes :

" So far I have met many stalwarts among our writers. But the image of no one else rules mind as brightly as the memory of Rajendralal Mitra."

……..

Tagore too embarked on journey to BodhGaya for the first time in 1904 accompanied by  Sister Nivedita and J.C.Bose. The inspiration might have come from Pkakura who had given reference to the crumpbling walls of Bharhut and Bodhgaya on which once India's proud history rested, in his work. Buddhism and the idea of "Light of Asia' virtually became the foundation for his future action. Tagore started translating Dhammapada into Bengali very next year.

                                           


To The Buddha

                                                Tagore


The world today is wild with the

delirium of hatred,

the conflicts are cruel and unceasing in

anguish,

Crooked are its path, tangled its bond

of greed.

All creatures are crying for a new birth

of Thine,

Oh Thou of boundless life,

Save the, raise thine eternal voice of

Hope,

Let love's lotus with its inexhaustible

treasure of honey

Open its petal in Thy  light.


O Serene, O Free

in Thine immeasurable mercy and goodness

wipe away all dark stains from the heart

of this earth.

Man's heart is anguished with the fever

Of unrest,

With the poison of self-seeking,

With athirst that knows no end.

Countries far and wide flaunt on their

Foreheads

The blood-red mark of hatred.

Touch them with thy right hand,

Make them one in spirit,

Bring harmony into their life,

Bring rhythm of beauty.




O Serene, O Free

In Thine immeasurable mercy and goodness

Wipe away all dark stains from

The heart of this earth!

(Natir Puja,1932,Bengali original- Hingshay Unmatta Prithvi, 1927)



Boro-Budur

23 September, 1927


THE SUN shone on a far-away morning, while the forest murmured its hymn of praise to light; and the hills, veiled in vapor, dimly glimmered like earth's dream in purple.

The King sat alone in the coconut grove, his eyes drowned in a vision, his heart exultant with the rapturous hope of spreading the chant of adoration along the unending path of time:

'Let Buddha be my refuge.'

His words found utterance in a deathless speech of delight, in an ecstasy of forms.

The island took it upon her heart; her hill raised it to the sky.

Age after age, the morning sun daily illumined its great meaning.

While the harvest was sown and reaped in the near-by fields by the stream, and life, with its chequered light, made pictured shadows on its epochs of changing screen, the prayer, once Uttered in the quiet green of an ancient morning, ever rose in the midst of the hide-and-seek of tumultuous time:

'Let Buddha be my refuge.'

The King, at the end of his days, is merged in the shadow of a nameless night among the unremembered, leaving his salutation in an imperishable rhythm of stone which ever cries:

'Let Buddha be my refuge.'

Generations of pilgrims came on the quest of an immortal voice for their worship; and this sculptured hymn, in a grand symphony of gestures, took up their lowly names and uttered for them:

'Let Buddha be my refuge.'

The spirit of those words has been muffled in mist in this mocking age of unbelief, and the curious crowds gather here to gloat in the gluttony of an irreverent sight.

Man to-day has no peace,his heart arid with pride. He clamours for an ever-increasing speed in a fury of chase for objects that ceaselessly run, but never reach a meaning.

And now is the time when he must come groping at last to the sacred silence, which stands still in the midst of surging centuries of noise, till he feels assured that in an immeasurable love dwells the final meaning of Freedom, whose prayer is:

'Let Buddha be my refuge.'

23 September, 1927

 Buddher sharan loilam( neelam karata hoon Buddha ke sharan mein)

(Rabindra-Rachanabali, vol.15, p. 277)


"Tagore :I also have one  "guru". All of you know him. He is Buddhadev ."


( To a student at Karachi  in March,1923, quoted by Sudhangshu Bimal Barua, Rabindranath O Baudhasanskriti p.155)


"In this full moon night, on the occasion of the celebration of his birth anniversary, I have come to bow at his feet whom I hold in my heart  as the greatest of men."

Tagore address, Calcutta,1935, at Dharamrajik Chaitya Bihar,Calcutta



"Now you-the great Buddhist poet-come from the original country of the Buddha to our sister-country with all your milk of thought; surely as a result  we realize your flowerily giving all world round where your elephant-like steps reach; ….. You- as a star of great love, perfect gladness, unlimited goodness & continuous newness as well as a representative of the Buddhist civilization-may kindly accept our request as we think."

Young Men's Buddhist Association invitation  to Tagore at Peking for a meeting on 27 April, 1924.

(Asian ideas of East and West,  Stephen Hay, Harvard university Press, 1970, p.15,)


He was born in a Brahmo family and was trained to worship Nirakar Brahma (formless or invisible Brahma) of the Upanishad. But, it was only before the image of Lord Buddha in Bodhgaya that he felt  prostrated .

K.Kripalani, Rabindranath Tagore: A Biography, Vishwa Bharati, Calcutta, 1962.

" it has been my desire for many years to have the opportunity to visit Siam for two main reasons. The first is that Siam is  country in the East, and the second is that his majesty the King of Siam is a devout Buddhist like myself. The hospitality and welcome extended to me have been above my higher expectations."

(trs, from Siamese)

The last speech made by Tagore before leaving Thailand on October, 18,1927

Bangkok Daily Mail, October 19, 1927 in Shakti dasgupta,  Tagore's Asian Outlook,1961, pp.126-127)



                                      I

Rabindranath Tagore was  born on 7th May,1861. His own grooming coincided with revival of Buddhism in India.  Tagore's father   Devendranath Tagore had mystical propensity. Tagore senior  joined Brahmo Samaj in 1846.  Brahmo Samaji did not believe in idol worship, just like Buddha.The Brahmo Samaj founder   Keshab Chandra Sen(1838-1884), accompanied Tagore's father  Debendraath Tagore and Satyendranath Tagore, Rabindra's elder brother  to Ceylon in 1859. Thus, the family  had  direct Buddhist encounter dating back to 1859. Two elder brother,  of Rabindra ;Dwijendranath Tagore and Satyendranath Tagore wrote historical work on Buddha in 1899 & 1901 respectively. As a child, Rabindra  was most influenced by the works of  Rajender Lal Mitra(1822-1891), who was a member of the Asiatic Society of Bengal. Mitra's work,The Sanskrit Buddhist literature of Nepal(1883) had tremendous influence over Tagore's imagination about Buddha. Tagore used anecdotes and legends about Buddha in his writings and speeches from here. In his memoirs (Jibansmriti), Tagore writes :

" So far I have met many stalwarts among our writers. But the image of no one else rules mind as brightly as the memory of Rajendralal Mitra."



Thus, we see that Tagore was already in a Buddhist ambit even at home.

There were three historic events during British rule which contributed significantly to the revival of Buddhism in Indiacreating a milieu in the capital of British India i.e. Calcutta in which Tagore found himself  very much at  home. The three events pertain to the spread of the British empire to other regions of South Asia, Nepal, Burma and Ceylon. While Ceylonwas conquered in 1815, Nepal  lost Sikkim, Darjeeling and many regions after treaty of Sugauli in 1816 and Burma was annexed finally in 1885 after first annexation in 1824. All these regions were Buddhist and the young British civil servants as well as orientalists   discovered ancient manuscripts  that finally reached Calcutta's literati circle.


Brian Houghton Hodgson , a civil, servant in Bengal  from 1820s onwards, collected Mahayana prajnaparamita texts inNepal. He donated manuscripts to Asiatic Society libraries inFrance, India, Britain. This became the  basis for further study on Buddhism. French orientalist, Eugene Burnouf used some of  Hodgson texts & published  first introductory history of Indian Buddhism ,   Al'histoire Du Buddhisme Indien V1 (1844). The opening up of Buddhist treasure took explorers to the hert of Himalayas viz. Tibet.


Hungarian traveler Csomo de  Koros visted Tibet during 1830s & collected manuscripts. He published grammar and dictionary of Tibetan in 1834.His summary of Kanjur & Tanjur appeared in 1836 in Asiatique researches. Edwin Arnold, the Principal of Deccan College, Poona wrote  biographical work on Buddha  in verse under the title "Light of Asia" in 1879. This book ran many editions and was even translated in Hindi. Buddha now stirred Bengali imagination.


Arnold's work led to proliferation of work by Bengali literary circle on Buddha as the Light of Asia. Girishchandra Ghosh, noted dramatist wrote a play "Buddhadev Charit" based on  Arnold's "Light of Asia". It was staged in  1885  and later  published in 1887. Nabinchandra Sen (1847-1909) wrote biography in verse, Amitav(1895) imitating Arnold.


The publication of Edwin Arnold's (1837-1904) book attracted  the western intellectuals  towards  Buddhism. German philosophers like  Schopenhauer and Nietzsche vouchsafed for  the virtue of Buddhism as the world  religion. The Theosophists thronged to Buddhaland in quest of the Maiteya(Buddha's next incarnation)..

Ceylon was rediscovered as a Buddhist land. Theosophist founder H.P. Blavatsky and Colonel Olcott Colonel Olcott and Madam H.P.Blavatsky arrived in Ceylon in May,1880 and soon publicly converted to Buddhism visited Ceylon. This event is considered as the "Commencement of modern Buddhist revival on the Island of Srilanka'. Theosophists declared in 1889 that  Maitreya as a World Teacher would soon arrive and they started preparing for the twentieth century. Since the Headquarter of Theosophists was centered in Adyar, in India; this must have caused excitement among the literati circle in India's capital,Calcutta. We can see in this pattern how Bengali bhadraloka supported Swami Vivekananda's vision in the very next decade.

From 1891, the Colombo-born Buddhist reformer and  Olcot's translator cum-colleague  Anagarika Dharmapala(1864-1933)  settled in  Calcutta for establishing global Buddhist mission . He began to work tirelessly for the preservation of Bodh Gaya  and established a network of Buddhists  in Burma, Ceylon andSiam. He founded Mahabodhi  Society in  Calcutta in 1891.It was the same time when Mathew Arnold also stated international campaign for preservation of Buddhist heritage at Bodh Gaya. At that very turn of decade, another incidence catapulted bodh gaya into Asian imagination.


The full annexation of Burma was completed  by the British in 1885. The  fall of Mandalay and the last Burmese dynasty had  caused a lot of concern in Bengal as well as   Buddhist territories of British India like Ceylone. Burmese  King Kyanzittha was married to a Bengali Mahyanist, Abeyadana. Missions were sent to the Buddhist centers of Bihar and Bengal. The Buddhist circuit of bodh-Gaya-Rajgir- Varanasi became important for Buddhists from Burma. The monks, who came on pilgrimage also  drew their inspiration from Indian national movement  and   launched the  Dobama Thakin Movement .


Burma reignited  memory of Buddhist past in  Bengal. Burmaand Bengal's fortune got inextricably weaved.  Calcutta became a centre of revival of Buddhist spirit with the closer association of Buddhists from Ceylon, Burma and Bengal's literati who found in Buddha the Light of Asia to assert against the British imperialism. Anagarika Dharmapal's Mahabodhi Society  established a  Calcutta-Bodhgaya-Kandy-Rangoon axis . Earlier an attempt to forge a Buddhist revival by Burmese monk,  Saramitra Mahasthabir (1801- 1882), met with little success. But, he  successfully established Bengali Buddhist Association.


In  1892, Buddhist Text Society was established by Sarat Chandra Das and

Maha Bodhi Journal was launched  by Anagarika Dharmapal.


Rejuvenation of Buddhism in Calcutta (Bengal)  became a subject of the  growing intelligentsia. The most important site for this churning  was the Tagore family's residence in Calcuttasuburb of Jorasanko . Tagore family  entertained  guests fromEurope fascinated by the "East" after growing discourse of glorious Eastern civilization gained audience in West.  Likes of Sister Nivedita and Josephine McLeod were part of the visitors.  Other Asian intellectual leaders like  Angarika  Dharampal who too attended Chicago World Religion Conference along with Swami Vivekananda in 1893, might have been one of them. But, most important influence to come over Tagore was from Kakuzo Okakura, a visitor from Japan.


Surendranath Tagore, who made Okakura's acquaintance at aCalcutta reception organized in Okakura  honor by Sister Nivedita  brought Okakura to  Jorasanko where he worked on his book on "The Awakening of Asia"(published later in 1905). Okakura and another Buddhist monk Oda arrived in Bengal in  1901 from Japan. They  had visited the Belur Math to request Swami Vivekananda to attend a Congress of Religions that was being contemplated in Japan at that time. Okakura accompanied Swami Vivekananda to a visit to Bodh-Gaya, where Buddha had attained enlightenment in January- February,1902. Since likes of   Dharampal and Mathew Arnold had made revival of Bodh Gaya temple into a grand objective, it became customary for any  votary of Eastern civilization, either from east or the west to visit BodhGaya-Varanasi-Rajgir.


Soon swami Vivekananda left this world on July 4, 1902.  Okakura found solace in Tagore's family now. Okakura  produced his first major book, The Ideals of the East(1903). Okakura talked about India as the land of Buddha and how"Buddhism—that great ocean of idealism, in which merge all the river systems of Eastern Asiatic thought—is not coloured only with the pure water of the Ganges, for the Tartaric nations that joined it made their genius also tributary, bringing new symbolism, new organisation, new powers of devotion, to add to the treasures of the Faith."(p.4, The Ideals of theEast,1903)

Tagore became  his "intimate friend" following their first  meeting in 1902.  "The Ideals of the East" became as popular and disseminated in India as earlier the "Light of Asia". Buddhist societies in Colombo and Calcutta seized on Okakura's  idea that India was the original well-spring of an Asian civilization that had spread out through " the land of Buddha viz. India".


Tagore too embarked on journey to BodhGaya for the first time in 1904 accompanied by  Sister Nivedita and J.C.Bose. The inspiration might have come from Pkakura who had given reference to the crumpbling walls of Bharhut and Bodhgaya on which once India's proud history rested, in his work. Buddhism and the idea of "Light of Asia' virtually became the foundation for his future action. Tagore started translating Dhammapada into Bengali very next year.


It was at this time that another visitor from Ceylon became a regular at Tagore's house in Jorasanko. Anananda Kentish Coomaraswamy wrote classics  on Asian aesthetics and  enunciated the "Asiatic philosophy of Art" that underlay its essential "diversity in unity". Even he gave the boost to the idea that India was the wellspring of all Asian civilization. He was trying to bring Hinduism and Buddhism closer and Sister  Nivedita coauthored with him works just as she worked with Okakura in completing the "The Ideals of the East".  His "Myths of the Hindus and Buddhists" (with Sister Nivedita) was published in  1914 and "Buddha and the Gospel of Buddhism" was printed from London  in 1916.


Combined influence of Okakura and Coomaraswami over Tagore  made him  to envision a resurgent spiritual Asia . By 1909, the news of the grooming of new Maitreya (J.Krishnamurthy found by Theosophist, Leadbeater) must have been an exciting time for re reading of Buddha's meassage. Buddha became his ideal man with the message of love and compassion.


In 1910, the  Dharampala's Maha Bodhi Journal published that  Count Otani had arrived in Calcutta from Japan to persuade  Angarika Dharmapala for  taking up Buddhist propagation inJapan .  In February 1913, Tagore visited Okakura in Bostonand during their meeting Okakura  raised the  theme of  an Asian civilization and spirituality awaiting "another opportunity to have the fullness of illumination". Okakura requested Tagore to accompany him to China. Okakura died a few months after this meeting in September, 1913.  Tagore received Nobel Prize for literature in November, 1913 and he perceived that he could become the  new light of Asia by treading the path of Buddhism.  Tagore's merger  with Buddhism became more  intense when he took sojourn to the holy sites of Buddhism in South east Asia.


After the Nobel Prize , Tagore again visited  Bodh Gaya. The first world War started in 1914.Tgore had premonition that the year would bring global tragedy. He was certain of his own mystical leanings. Maitreya stories would have come back circling  in his mindscape.  Tagore might have thought it to be the  apt  time to spread the message of spiritual civilization. Since Count Otani was learnt to be inviting Buddhist monks and scholars to Japan, which after having emerged as a great power wanted to showcase its own soft power of Buddhism. We have noted how a decade back Oda and Okakura came toCalcutta to invite spiritual luminaries for a world Congregation of Religious leaders.  Tagore thus undertook the first  eastern odyssey  in 1916, to Japan. Coomaraswamy had propounded in his  work on Asian aesthetics that , "India under Buddhist rule had spread civilization to both China and Japan". It was important for Tagore to exhort India's Buddhist past and his own inclination  to attract wider audience in Buddhist Asia for his idea of Asia's spiritual resurgence.

Buddhism appeared to him as the ideal alternative religion which could save India as well as Asia  from caste and racial discrimination. Buddhism could also bring India closer to her Asian neighbors, including China and Japan. He had  this firm  belief that only a Buddhist India can spread the fragrance across Asia. He wrote :


" Buddhism is not the religion of material attachment. This must be acknowledged by all. Yet the kind of flourishing that took place in the arts, science and commerce or the imperialist expansion  that happened under the impact of the Buddhist civilization in our country was never witnessed before or after."

(In Yatrar Purabatra(Letter on eve of voyage) compiled in Pather Sanchay Wayside collection quoted in  Rama Kundu)


In Dhammapadam, compiled in  Prachin Sahitya, Tagore writes

"European scholars have engaged in the act of excavating this resource.. and we are just waiting to follow in their footsteps. This is sufficient cause for great shame for our country. Could not there be at least even 5 people in the entire country who could take up this work of restoring the Buddhist writings as their lifelong commitments? Owing to our lack of knowledge about this area, the entire history of India remain impaired."

(quoted in  Rama Kundu)

রবীন্দ্রনাথের সাহিত্যে বৌদ্ধ প্রসঙ্গ

লেখক: ড. তপন বাগচী

উনিশ শতক বাঙালির নবজাগরণের সূচনায় সাহিত্য-সংস্কৃতির উপলব্ধির সঙ্গে ধর্মচিন্তাজাত দার্শনিক উপলব্ধির সংযোগ ঘটে। বৌদ্ধসাহিত্যের অনুবাদ ও সমালোচনা এই উপলব্ধিকে জাগ্রত রাখে। দ্বিজেন্দ্রনাথ ঠাকুর, সত্যেন্দ্রনাথ ঠাকুর, হরপ্রসাদ শাস্ত্রী, রামদাস সেন, রাজকৃষ্ণ মুখোপাধ্যায়, কেশবচন্দ্র সেন, অঘোরনাথ গুপ্ত, নবীনচন্দ্র সেন, শরচ্চন্দ্র দেব, সতীশচন্দ্র বিদ্যাভূষণ প্রমুখ মনীষীতুল্য ব্যক্তি বুদ্ধদেবের জীবন ও দর্শন নিয়ে গ্রন্থ রচনা করেছেন। রবীন্দ্রমানস গঠনে এদের চিন্তাাধারা প্রভাব ফেলেছিল। বুদ্ধ সম্পর্কে পাশ্চাত্য দৃষ্টিভঙ্গিও তাঁর অজানা ছিল না। হীনযান-মহাযান সম্পর্কেও তাঁর ধারণা স্পষ্ট ছিল। বুদ্ধদেবকে নিয়ে তাঁর নানামাত্রিক ভাবনা নিয়ে গ্রন্থও রয়েছে। রবীন্দ্রনাথের পারিবারিক আবহেও ছিল বৌদ্ধ দর্শনের চর্চা। তাঁর ভাই দ্বিজেন্দ্রনাথ ঠাকুর রচিত 'আর্যধর্ম এবং বৌদ্ধধর্মের পরস্পর ঘাতপ্রতিঘাত ও সঙ্ঘাত' (১৮৯৯) এবং সত্যেন্দ্রনাথ ঠাকুর রচিত 'বৌদ্ধধর্ম' (১৯০১) গ্রন্থদুটিই তার প্রমাণ বহন করে। এছাড়া রাজেন্দ্রলাল মিত্রের 'দি সংস্কৃত বুদ্ধিস্ট লিটারেচার অফ নেপাল' গ্রন্থটি তাঁকে অনেক বৌদ্ধআখ্যানের সন্ধান দেয়। এই গ্রন্থ থেকে কবি যে সকল আখ্যান তাঁর সৃষ্টিসম্ভারে ব্যবহার করেছেন, তা হলো, শ্রেষ্ঠ 'ভিক্ষা, পূজারিণী, উপগুপ্ত, মালিনী, পরিশোধ, চন্ডালী, মূল্যপ্রাপ্তি, নগরলক্ষ্মী ও মস্তকবিক্রয়। 'কথা ও কাহিনী' কবিতাগ্রন্থের সকল আখ্যানই তিনি গ্রহণ করেছেন বৌদ্ধ কাহিনী থেকে। এই গ্রন্থের আখ্যা-অংশে 'বিজ্ঞাপন' শিরোনামে রবীন্দ্রনাথের বক্তব্য থেকে মেলে-

'এই গ্রন্থে যে-সকল বৌদ্ধ-কথা বর্ণিত হইয়াছে তাহা রাজেন্দ্রনাথ মিত্র-সংকলিত নেপালী বৌদ্ধসাহিত্য সম্বন্ধীয় ইংরাজি গ্রন্থ হইতে গৃহিত। রাজপুত-কাহিনীগুলি টডের রাজস্থান ও শিখ-বিবরণগুলি দুই-একটি ইংরাজি শিখ-ইতিহাস হইতে উদ্ধার করা হইয়াছে। ভক্তমাল হইতে বৈষ্ণব গল্পগুলি প্রাপ্ত হইয়াছি। মূলের সহিত এই কবিতা গুলির কিছু কিছু প্রভেদ লক্ষিত হইবে-আশা করি, সেই পরিবর্তনের জন্য সাহিত্য-বিধান-মতে দন্ডনীয় গণ্য হইব না।'

'কথা ও কাহিনী' গ্রন্থের প্রেক্ষাপট সম্পর্কে কবি অন্যত্র বলেছেন,

'এক সময়ে আমি যখন বৌদ্ধ কাহিনী এবং ঐতিহাসিক কাহিনীগুলি জানলুম তখন তারা স্পষ্ট ছবি গ্রহণ করে আমার মধ্যে সৃষ্টির প্রেরণা নিয়ে এসেছিল। অকস্মাৎ 'কথা ও কাহিনী'র গল্পধারা উৎসের মতো নানা শাখায় উচ্ছ্বসিত হয়ে উঠল। সেই সময়কার শিক্ষায় এই-সকল ইতিবৃত্ত জানবার অবকাশ ছিল, সুতরাং বলতে পারা যায় 'কথা ও কাহিনী' সেই কালেরই বিশেষ রচনা।' [সাহিত্যে ঐতিহাসিকতা, সাহিত্যের স্বরূপ]

'কথা' কাব্যে যে কয়েকটি কবিতা আছে তা হলো: কথা কও, কথা কও, শ্রেষ্ঠভিক্ষা, প্রতিনিধি, ব্রাহ্মণ, মস্তকবিক্রয়, পূজারিণী, অভিসার, পরিশোধ, সামান্য ক্ষতি, মূল্যপ্রাপ্তি, নগরলক্ষ্মী, অপমান-বর, স্বামীলাভ, স্পর্শমণি, বন্দী বীর, মানী, প্রার্থনাতীত দান, রাজবিচার, গুরু গোবিন্দ, শেষ শিক্ষা, নকল গড়, হোরিখেলা, বিবাহ, বিচারক, পণরক্ষা

আর 'কাহিনী' কাব্যে রয়েছে ৮টি কবিতা। তা হলো: কত কী যে আসে, গানভঙ্গ, পুরাতন ভৃত্য, দুই বিঘা জমি, দেবতার গ্রাস, নিষ্ফল উপহার, দীনদান, বিসর্জন। অর্থাৎ 'কথা' ও 'কাহিনী'র এই ৩৩টি কবিতাই বৌদ্ধকাহিনীজাত। এর বাইরেও অজস্র কবিতা রয়েছে যাতে বৌদ্ধসংস্কৃতির উপকরণ রয়েছে। তবে 'পুনশ্চ' কাব্যের 'শাপমোচন', 'পরিশেষ' কাব্যের 'বুদ্ধজন্মোৎসব', 'বোরোবুদুর', 'সিয়াম, 'বুদ্ধদেবের প্রতি, 'প্রার্থনা, 'বৈশাখী পূর্ণিমা; 'পত্রপুট' কাব্যের ১৭-সংখ্যক কবিতা, 'নবজাতক' কাব্যের 'বুদ্ধভক্তি' এবং 'জন্মদিনে' কাব্যের ৩ ও ৬ সংখ্যক কবিতায় তীব্রভাবে রয়েছে ভগবান বুদ্ধের উপস্থিতি।

'কথা ও কাহিনী' কাব্যের প্রায় পুরোটাই বুদ্ধ প্রসঙ্গ। 'শ্রেষ্ঠভিক্ষা, 'মস্তক বিক্রয়, 'পূজারিণী', 'অভিসার', 'পরিশোধ', 'সামান্য ক্ষতি', 'মূল্যপ্রাপ্তি', 'নগরলক্ষ্মী', 'শাপমোচন' প্রভৃতি কবিতায় বৌদ্ধআখ্যানের প্রত্যক্ষ গ্রহণ রয়েছে। এছাড়া 'পুনশ্চ' কাব্যের 'শাপমোচন' কবিতায় আছে বৌদ্ধধর্মীয় আখ্যান-

গান্ধর্ব সৌরসেন সুরলোকের সংগীতসভায়

কলানায়কদের অগ্রণী।

সেদিন তার প্রেয়সী মধুশ্রী গেছে সুমেরুশিখরে

সূর্যপ্রদক্ষিণে।

সৌরসেনের মন ছিল উদাসী।

'পরিশেষ' কাব্যের 'বুদ্ধজন্মোৎসব (১) এ আমরা রবীন্দ্রনাথের বুদ্ধপ্রশস্তি উপলব্ধি করতে পারি-

হিংসায় উন্মত্ত পৃথ্বী,

নিত্য নিঠুর দ্বন্দ্ব

ঘোর কুটিল পন্থ তার,

লোভজটিল বন্ধ।

নূতন তব জন্ম লাগি কাতর যত প্রাণী,

কর ত্রাণ মহাপ্রাণ, আন অমৃতবাণী,

বিকশিত কর প্রেমপদ্ম

চিরমধুনিষ্যন্দ।

'বোরোবুদুর' দেখার প্রতিক্রিয়ায় রবীন্দ্রনাথ একটি অসাধারণ কবিতা লিখেছেন। তাতে তিনি বোরাবুদুরের বর্ণনার পাশাপাশি বুদ্ধের আদর্শের কথা প্রকাশ করেছেন একান্ত অনুসারীর মতো। সবশেষে তিনি লিখেছেন-

তাই আসিয়াছে দিন,

পীড়িত মানুষ মুক্তিহীন,

আবার তাহারে

আসিতে হবে যে তীর্থদ্বারে

শুনিবারে

পাষাণের মৌনতটে যে বাণী রয়েছে চিরস্থির-

কোলাহল ভেদ করি শত শতাব্দীর

আকাশে উঠিছে অবিরাম

অমেয় প্রেমের মন্ত্র,-চ্বুদ্ধের শরণ লইলাম।

সারনাথে মূলগন্ধকুটিবিহার প্রতিষ্ঠা-উপলক্ষে 'বুদ্ধদেবের প্রতি' নামের এক কবিতায় তিনি বুদ্ধদেবের নামের মহিমা প্রচার করেছেন। বুদ্ধের নামে এই দেশ ধন্য হয়েছে, সেই গৌরবও প্রকাশ পেয়েছে অই কবিতায়। রবীন্দ্রনাথের কাছে বুদ্ধের জন্ম মানে মহাজাগরণ। তাই তিনি লিখেছেন-

ওই নামে একদিন ধন্য হল দেশে দেশান্তরে

তব জন্মভূমি।

সেই নাম আরবার এ দেশের নগর প্রান্তরে

দান করো তুমি।

বোধিদ্রুমতলে তব সেদিনের মহাজাগরণ

আবার সার্থক হোক, মুক্ত হোক মোহ-আবরণ,

বিস্মৃতির রাত্রিশেষে এ ভারতে তোমারে স্মরণ

নবপ্রাতে উঠুক কুসুমি।

চিত্ত হেথা মৃতপ্রায়, অমিতাভ, তুমি অমিতায়ু,

আয়ু করো দান।

তোমার বোধনমন্ত্রে হেথাকার তন্দ্রালস বায়ু

হোক প্রাণবান।

খুলে যাক রুদ্ধদ্বার, চৌদিকে ঘোষুক শঙ্খধ্বনি

ভারত-অঙ্গনতলে, আজি তব নব আগমনী,

অমেয় প্রেমের বার্তা শতকণ্ঠে উঠুক নিঃস্বনি-

এনে দিক অজেয় আহ্বান।

'সিয়াম' নামে দুটি কবিতা আছে তাঁর। প্রাচীন সিয়াম হলো থাইল্যান্ডের ব্যাংকক শহর থেকে সুখুমভিট সড়কে ৩০ মিনিটের দূরত্বের একটি দর্শনীয় স্থান। এটি সমুট পার্কন প্রদেশে অবস্থিত। প্রায় ৩২০ একর স্থান জুড়ে রয়েছে বিচিত্র স্থাপনা। প্রায় ১১৬টি সৌধ রয়েছে এখানে।

প্রথম দর্শনে এবং বিদায়কালে কবির যে অনুভূতি তারই প্রকাশ এই দুটি কবিতায়। প্রধম দর্শনের উপলব্ধি করতে গিয়ে কবি লিখেছেন বুদ্ধের কথা-

হৃদয়ে হৃদয়ে মিল করি

বহু যুগ ধরি

রচিয়া তুলেছ তুমি সুমহৎ জীবনমন্দির,-

পদ্মাসন আছে স্থির,

ভগবান বুদ্ধ সেথা সমাসীন

চিরদিন-

মৌন যাঁর শান্তি অন্তহারা,

বাণী যাঁর সকরুণ সান্ত্বনার ধারা।

আবার সিয়াম দেখে বিদায় নেওয়ার কালেও কবি বুদ্ধের নাম বিস্মৃত হননি। কেবল বুদ্ধের কারণে সিয়ামকে কবির আপন মনে হয়েছে। সেখানে এক সপ্তাহের অবস্থানেই রবীন্দ্রনাথের মনে হয়েছে শতাব্দীর শব্দীহ গান।

কোন্? সে সুদূর মৈত্রী আপন প্রচ্ছন্ন অভিজ্ঞানে

আমার গোপন ধ্যানে

চিহ্নিত করেছে তব নাম,

হে সিয়াম,...

বিদায়ের সময়ে তাই বুদ্ধের কথা স্মরণ করেন কবি। সিয়ামের পুরাকীর্তি এবং বুদ্ধমূর্তি দেখে রবীন্দ্রনাথ কেবল আপ্লুত নন, শ্রদ্ধায় আনত হন। তাই তাঁর সশ্রদ্ধ উচ্চারণ ধ্বনিত হয়-

পূজার প্রদীপে তব, প্রজ্বলিত ধূপে।

আজি বিদায়ের ক্ষণে

চাহিলাম সি্নগ্ধ তব উদার নয়নে,

দাঁড়ানু ক্ষণিক তব অঙ্গনের তলে,

পরাইনু গলে

বরমাল্য পূর্ণ অনুরাগে-

অমস্নান কুসুম যার ফুটেছিল বহুযুগ আগে।

'প্রার্থনা' শিরোনামের কবিতায় রয়েছে ভগবান বুদ্ধের নানাকৌণিক উপস্থাপনা। 'পত্রপুট' কাব্যের ১৭ সংখ্যক কবিতাও বুদ্ধের প্রসঙ্গ নিয়ে রচিত। 'নবজাতক' কাব্যের 'বুদ্ধভক্তি' এবং 'জন্মদিনে' কাব্যের ৩ ও ৬ সংখ্যক কবিতা বুদ্ধদর্শনধন্য। 'খাপছাড়া' কাব্যের ৬৬-সংখ্যক কবিতায় বুদ্ধের এক ভিন্ন আঙ্গিকে তুলে ধরা হয়েছে-

বটে আমি উদ্ধত,

নই তবু ক্রুদ্ধ তো,

শুধু ঘরে মেয়েদের সাথে মোর যুদ্ধ তো ।

যেই দেখি গুন্ডায়

ক্ষমি হেঁটমুন্ডায়,

দুর্জন মানুষেরে ক্ষমেছেন বুদ্ধ তো ।

পাড়ায় দারোগা এলে দ্বার করি রুদ্ধ তো-

সাত্তি্বক সাধকের এ আচার শুদ্ধ তো ।

প্রবন্ধসাহিত্য যেহেতু চিন্তামূলক, তাই তাতে বুদ্ধ প্রসঙ্গ বেশি উচ্চারিত হয়েছে। 'সমালোচনা ১৮৮৮' গ্রন্থের 'অনাবশ্যক' নামের প্রবন্ধে রয়েছে বুদ্ধের উপস্থিতি। 'আত্মশক্তি' গ্রন্থে স্বদেশী সমাজ ও দেশীয় রাজ নামের প্রবন্ধদুটিতে রয়েছে বুদ্ধের কথা। 'ভারতবর্ষ' গ্রন্থে 'সমাজভেদ', 'নববর্ষ', 'ব্রাহ্মণ', 'চীনেম্যানের চিঠি' ও 'অত্যুক্তি' প্রবন্ধে বুদ্ধের উল্লেখ রয়েছে।

প্রবন্ধগ্রন্থ 'সমালোচনা', 'ভারতবর্ষ', 'বিচিত্র প্রবন্ধ', 'প্রাচীন সাহিত্য', 'সাহিত্য', 'সমাজ', 'শিক্ষা', 'রাজাপ্রজা', 'ধর্ম', 'সঞ্চয়', 'পরিচয়', 'জাপানযাত্রী', 'লিপিকা', 'জাভাযাত্রীর পত্র', 'মানুষের ধর্ম', 'ভারতপথিক রামমোহন', শান্তিনিকেতন', 'কালান্তর', 'পথের সঞ্চয়', 'আত্মপরিচয়', 'সাহিত্যের স্বরূপ' 'বিশ্বভারতী', 'ইতিহাস', 'বুদ্ধদেব', 'খৃস্ট' প্রভৃতি গ্রন্থে একাধিকবার বৌদ্ধধর্ম, সংস্কৃতি ও আখ্যানের উল্লেখ রয়েছে।

রবীন্দ্রসাহিত্যে গৌতম বুদ্ধ, বৌদ্ধধর্ম ও বৌদ্ধআখ্যান এসেছে নানাভাবে। নাটকে, কবিতায় ও প্রবন্ধে বুদ্ধ প্রসঙ্গের অবতারণা ব্যাপক হলেও উপন্যাস এবং ছোটগল্পে সরাসরি বুদ্ধপ্রসঙ্গ নেই বললেই চলে। নাটকে আমরা দেখতে পাই ১০টি নাটকে বৌদ্ধআখ্যান রয়েছে। মালিনী (১৮৯৬), রাজা (১৯১০), অচলায়তন (১৯১২), গুরু (১৯১৮), অরূপরতন (১৯২০), নটীর পূজা (১৯২৬), চন্ডালিকা (১৯৩৮), নৃত্যনাট্য চন্ডালিকা (১৯৩৮), শ্যামমোচন (১৯৩১) নাটকে বৌদ্ধআখ্যান রয়েছে। তবে শাপমোচনকে কেউ কেউ নাটক না বলে 'কথিকা' বলতে চান। এই ১০টি নাটক ছাড়াও 'শোধবোধ' নাটকে প্রাসঙ্গিক উক্তি ও সংলাপে বৌদ্ধপ্রসঙ্গ রয়েছে।

বৌদ্ধআখ্যান নিয়ে রবীন্দ্রনাথ কোনো উপন্যাস রচনা করেননি। তবে 'ঘরে বাইরে" (১৯১৬) উপন্যাসে নিখিলেশের আত্মকথায় এবং 'শেষের কবিতা' (১৯২৯) উপন্যাসে ১৩শ পরিচ্ছেদের প্রাসঙ্গিক উক্তিতে বুদ্ধপ্রসঙ্গ রয়েছে। 'শোধবোধ' (১৯২৬) নাটকে বুদ্ধদর্শনের প্রভাব নেই, কিন্তু বুদ্ধপ্রসঙ্গের উল্লেখ রয়েছে। যেমন সতীশ ও নলিনীর সংলাপে-

নলিনী । আমি যদি তোমাকে সত্যি কথা বলি, খুশি হোয়ো, অন্যে বললে রাগ করতে পার।

সতীশ। তুমি আমাকে অযোগ্য বলে জান, এতে আমি খুশি হব?

নলিনী। এই টেনিস্?কোর্টের অযোগ্যতাকে তুমি অযোগ্যতা বলে লজ্জা পাও? এতেই আমি সব চেয়ে লজ্জা বোধ করি। তুমি তো তুমি, এখানে স্বয়ং বুদ্ধদেব এসে যদি দাঁড়াতেন, আমি দুই হাত জোড় করে পায়ের ধুলো নিয়েই তাঁকে বলতুম, ভগবান, লাহিড়িদের বাড়ির এই টেনিস্?কোর্টে আপনাকে মানায় না, মিস্টার নন্দীকে তার চেয়ে বেশি মানায়। শুনে কি তখনই তিনি হার্মানের বাড়ি ছুটতেন টেনিস্?সুট অর্ডার দিতে।

সতীশ । বুদ্ধদেবের সঙ্গে-

নলিনী । তোমার তুলনাই হয় না, তা জানি। আমি বলতে চাই, টেনিস্?কোর্টের বাইরেও একটা মস্ত জগৎ আছে-সেখানে চাঁদনির কাপড় পরেও মনুষ্যত্ব ঢাকা পড়ে না। এই কাপড় পরে যদি এখনই ইন্দ্রলোকে যাও তো উর্বশী হয়তো একটা পারিজাতের কুঁড়ি ওর বাট্?ন্?হোলে পরিয়ে দিতে কুণ্ঠিত হবে না-অবিশ্যি তোমাকে যদি তার পছন্দ হয়।

সতীশ । বাট্?ন্?হোল তো এই রয়েছে, গোলাপের কুঁড়িও তোমার খোঁপায়-এবারে পছন্দর পরিচয়টা কি ভিক্ষে করে নিতে পারি।

নলিনী । আবার ভুলে যাচ্ছ, এটা স্বর্গ নয়, এটা টেনিস্?কোর্ট।

এখানে গৌতম বুদ্ধদেবকে সর্বমান্য গণ্য করা হয়েছে। বুদ্ধের প্রতি প্রবল শ্রদ্ধাবোধের কারণেই এখানে তাঁর প্রসঙ্গ উত্থাপিত হয়েছে। সনাতনধর্মাবলম্বী চরিত্রের মুখে রাম, কৃষ্ণ কিংবা কোনো দেবতার নাম না বলে বুদ্ধের নাম বলার মাধ্যমে বুদ্ধধর্মের প্রতি রবীন্দ্রনাথের আস্থারই প্রমাণ বহন করে।

'ঘরে বাইরে' (১৯১৬) উপন্যাসেও আছে বুদ্ধের উল্লেখ। নিখিলেশের আত্মকথা-য় এসেছে রাজপুত্র সিদ্ধার্থের প্রসঙ্গ। যেমন-

'এই-সব কথা ভাববার কথা। স্থির করেছিলুম এই ভাবনাতেই প্রাণ দেব। সেদিন বিমলাকে এসে বললুম, বিমল, আমাদের দুজনের জীবন দেশের দুঃখের মূল-ছেদনের কাজে লাগাব।

বিমল হেসে বললে, তুমি দেখছি আমার রাজপুত্র সিদ্ধার্থ, দেখো শেষে আমাকে ভাসিয়ে চলে যেয়ো না।

আমি বললুম, সিদ্ধার্থের তপস্যায় তাঁর স্ত্রী ছিলেন না, আমার তপস্যায় স্ত্রীকে চাই।'

বুদ্ধদেব যে তাঁর স্ত্রীপরিজন ছেড়ে সাধনার পথে নেমেছিলেন, অর্থাৎ সর্বত্যাগী হয়ে পথে নেমেছিলেন। তাঁর এই ত্যাগের উদাহরণকে সামনে এনে নিখিলেশ তাঁর বিপরীতে স্ত্রীকে সঙ্গে নিয়েই তপস্যার কথা বলেছেন। একই উপন্যাসে আছে সমস্ত ভারতবর্ষে জাগরণের নায়ক হিসেবে বুদ্ধের প্রসঙ্গ। যেমন-

'মানুষ এত বড়ো যে সে যেমন ফলকে অবজ্ঞা করতে পারে তেমনি দৃষ্টান্তকেও। দৃষ্টান্ত হয়তো নেই, বীজের ভিতরে ফুলের দৃষ্টান্ত যেমন নেই; কিন্তু বীজের ভিতরে ফুলের বেদনা আছে। তবু, দৃষ্টান্ত কি একেবারেই নেই? বুদ্ধ বহু শতাব্দী ধরে যে সাধনায় সমস্ত ভারতবর্ষকে জাগিয়ে রেখেছিলেন সে কি ফলের সাধনা?'

আলেকজান্ডার নয় গৌতম বুদ্ধ যে পৃথিবী জয় করেছিলেন তার উল্লেখও আছে এই উপন্যাসের অন্যত্র। এই উক্তির মাধ্যমে বুদ্ধের মানবপ্রেমের কথা প্রকাশিত হয়েছে। আলেকজান্ডার জয় করেছিলেন অস্ত্রে, বুদ্ধ জয় করেছেন প্রেমে। উপন্যাসে উলি্লখিত প্রসঙ্গটি এমন-

'আমি বললুম, মাস্টারমশায়, অমন করে কথায় বলতে গেলে টাক-পড়া উপদেশের মতো শোনায়; কিন্তু যখনই চোখে ওকে আভাসমাত্রেও দেখি তখন যে দেখি ঐটেই অমৃত। দেবতারা এইটেই পান করে অমর। সুন্দরকে আমরা দেখতেই পাই নে যতক্ষণ না তাকে আমরা ছেড়ে দিই। বুদ্ধই পৃথিবী জয় করেছিলেন, আলেক্?জান্ডার করেন নি, এ কথা যে তখন মিথ্যেকথা যখন এটা শুকনো গলায় বলি। এই কথা কবে গান গেয়ে বলতে পারব? বিশ্বব্রহ্মান্ডের এই-সব প্রাণের কথা ছাপার বইকে ছাপিয়ে পড়বে কবে, একেবারে গঙ্গোত্রী থেকে গঙ্গার নির্ঝরের মতো?'

'শেষের কবিতা' (১৯২৯) উপন্যাসেও আছে বুদ্ধপ্রসঙ্গের অবতারণা। লাবণ্য ও অমিতের সংলাপে পাওয়া যায় বৌদ্ধধর্ম প্রচারের পথ সম্পর্কে। শোভনলালের পরিকল্পনার কথা বলতে গিয়ে ঔপন্যাসিক রবীন্দ্রনাথ হিউয়েন সাঙের তীর্থযাত্রা ও আলেকজান্ডারের রণযাত্রার খবর জানিয়েছেন। বৌদ্ধধর্মের প্রচার কোন এলাকা দিয়ে বিস্তৃত হয়েছে তার রূপরেখাটিও লেখক তুলে ধরেছেন। এতে লেখকের ঐতিহাসিক জ্ঞানের পাশাপাশি বৌদ্ধধর্ম সম্পর্কে ধারণারও প্রকাশ ঘটেছে। উপন্যাসের পাঠ থেকেই তা তুলে ধরা যায়।-

লাবণ্যর বুকের ভিতরে হঠাৎ খুব একটা ধাক্কা দিলে। কথাটাকে বাধা দিয়ে অমিতকে বললে, ুশোভনলালের সঙ্গে একই বৎসর আমি এম.এ. দিয়েছি। তার সব খবরটা শুনতে ইচ্ছা করে।চ্

ুএক সময়ে সে খেপেছিল, আফগানিস্থানের প্রাচীন শহর কাপিশের ভিতর দিয়ে একদিন যে পুরোনো রাস্তা চলেছিল সেইটেকে আয়ত্ত করবে। ঐ রাস্তা দিয়েই ভারতবর্ষে হিউয়েন সাঙের তীর্থযাত্রা, ঐ রাস্তা দিয়েই তারও পূর্বে আলেকজান্ডারের রণযাত্রা। খুব কষে পুশতু পড়লে, পাঠানি কায়দাকানুন অভ্যেস করলে। সুন্দর চেহারা, ঢিলে কাপড়ে ঠিক পাঠানের মতো দেখতে হয় না, দেখায় যেন পারসিকের মতো। আমাকে এসে ধরলে, সেখানে ফরাসি পন্ডিতরা এই কাজে লেগেছেন, তাঁদের কাছে পরিচয়পত্র দিতে। ফ্রান্সে থাকতে তাঁদের কারো কারো কাছে আমি পড়েছি। দিলেম পত্র, কিন্তু ভারত-সরকারের ছাড়চিঠি জুটল না। তার পর থেকে দুর্গম হিমালয়ের মধ্যে কেবলই পথ খুঁজে খুঁজে বেড়াচ্ছে, কখনো কাশ্মীরে কখনো কুমায়ুনে। এবার ইচ্ছে হয়েছে, হিমালয়ের পূর্বপ্রান্তটাতেও সন্ধান করবে। বৌদ্ধধর্ম-প্রচারের রাস্তা এ দিক দিয়ে কোথায় কোথায় গেছে সেইটে দেখতে চায়। ঐ পথ-খেপাটার কথা মনে করে আমারও মন উদাস হয়ে যায়। পুঁথির মধ্যে আমরা কেবল কথার রাস্তা খুঁজে খুঁজে চোখ খোয়াই, ঐ পাগল বেরিয়েছে পথের পুঁথি পড়তে, মানববিধাতার নিজের হাতে লেখা। আমার কী মনে হয় জান?চ্

আর গানের কথা যদি বলা হয়, তাহলে অজস্র গানে রয়েছে বুদ্ধের বাণী ও দর্শনের অভিঘাতসৃষ্ট চরণ।

রবীন্দ্রনাথের সমগ্র সাহিত্যকর্মের বিচারেই বলা যায় যে, গৌতম বুদ্ধের শিক্ষা ও দর্শন যতখানি প্রভাব বিস্তার করেছে, আর কোনো একক মনীষী তা করতে পারেননি।

রবীন্দ্রনাথ বৌদ্ধধর্মে দীক্ষিত না থেকেও বুদ্ধের বাণী প্রচারে যতটা ভূমিকা রেখেছেন, আর কোনো লেখক তা পেরেছেন বলে মনে হয় না। গৌতম বুদ্ধ এবং বৌদ্ধধর্ম নিয়ে রবীন্দ্রনাথের উপলব্ধি ও মূল্যায়ন বিধৃত রয়েছে বিভিন্ন রচনায়। সেখান থেকে কয়েক মন্তব্য এখানে উল্লেখ করা যায়।

১. বৌদ্ধযুগের যথার্থ আরম্ভ কবে তাহা সুস্পষ্টরূপে বলা অসম্ভব ্ত শাক্যসিংহের বহু পূর্বেই যে তাহার আয়োজন চলিতেছিল এবং তাঁহার পূর্বেও যে অন্য বুদ্ধ ছিলেন তাহাতে সন্দেহ নাই । ইহা একটি ভাবের ধারাপরম্পরা যাহা গৌতমবুদ্ধে পূর্ণ পরিণতি লাভ করিয়াছিল । মহাভারতের যুগও তেমনি কবে আরম্ভ তাহা স্থির করিয়া বলিলে ভুল বলা হইবে । পূর্বেই বলিয়াছি সমাজের মধ্যে ছড়ানো ও কুড়ানো এক সঙ্গেই চলিতেছে । ভারতবর্ষে ইতিহাসের ধারা, পরিচয়]

২. ভগবান বুদ্ধ একদিন যে ধর্ম প্রচার করেছিলেন সে ধর্ম তার নানা তত্ত্ব, নানা অনুশাসন, তার সাধনার নানা প্রণালী নিয়ে সাধারণচিত্তের আন্তর্ভৌম স্তরে প্রবেশ করে ব্যাপ্ত হয়েছিল। তখন দেশ প্রবলভাবে কামনা করেছিল এই বহুশাখায়িত পরিব্যাপ্ত ধারাকে কোনো কোনো সুনির্দিষ্ট কেন্দ্রস্থলে উৎসরূপে উৎসারিত করে দিতে সর্বসাধারণের স্নানের জন্য, পানের জন্য, কল্যাণের জন্য। [ সংযোজন, শিক্ষা]

৩. মহাপুরুষেরাই পুরাতন সত্য বলিতে পারেন-বুদ্ধ, খৃস্ট, চৈতন্যেরাই পুরাতন সত্য বলিতে পারেন। সত্য তাঁহাদের কাছে চিরদিন নূতন থাকে, কারণ সত্য তাঁহাদের যথার্থ প্রিয়ধন। [সত্য, সমাজ]

৪. মনে ক্রোধ দ্বেষ লোভ ঈর্ষা থাকলে এই মৈত্রীভাবনা সত্য হয় নাু এইজন্য শীলগ্রহণ শীলসাধন প্রয়োজন। কিন্তু শীলসাধনার পরিণাম হচ্ছে সর্বত্র মৈত্রীকে দয়াকে বাধাহীন করে বিস্তার। এই উপায়েই আত্মাকে সকলের মধ্যে উপলব্ধি করা সম্ভব হয়। .. এই মৈত্রীভাবনার দ্বারা আত্মাকে সকলের মধ্যে প্রসারিত করা এ তো শূন্যতার পন্থা নয়। তা যে নয় তা বুদ্ধ যাকে ব্রহ্মবিহার বলছেন তা অনুশীলন করলেই বোঝা যাবে। [শান্তনিকেতন ৭]

৫. জাপান স্বর্গমর্ত্যকে বিকশিত ফুলের মতো সুন্দর করে দেখছে; ভারতবর্ষ বলছে, এই যে এক বৃন্তে দুই ফুল, স্বর্গ এবং মর্ত্য, দেবতা এবং বুদ্ধুমানুষের হৃদয় যদি না থাকত তবে এ ফুল কেবলমাত্র বাইরের জিনিস হত এই সুন্দরের সৌন্দর্যটিই হচ্ছে মানুষের হৃদয়ের মধ্যে। [জাপান-যাত্রী ১৩]

৬. বৌদ্ধধর্মের প্রভাবে জনসাধারণের প্রতি শ্রদ্ধা প্রবল হয়ে প্রকাশ পেয়েছে; এর মধ্যে শুদ্ধ মানুষের নয়, অন্য জীবেরও যথেষ্ট স্থান আছে। জাতককাহিনীর মধ্যে খুব একটা মস্ত কথা আছে, তাতে বলেছে, যুগ যুগ ধরে বুদ্ধ সর্বসাধারণের মধ্য দিয়েই ক্রমশ প্রকাশিত। প্রাণীজগতে নিত্যকাল ভালোমন্দর যে দ্বন্দ্ব চলেছে সেই দ্বন্দ্বের প্রবাহ ধরেই ধর্মের শ্রেষ্ঠ আদর্শ বুদ্ধের মধ্যে অভিব্যক্ত। অতি সামান্য জন্তুর ভিতরেও অতি সামান্য রূপেই এই ভালোর শক্তি মন্দর ভিতর দিয়ে নিজেকে ফুটিয়ে তুলছে; তার চরম বিকাশ হচ্ছে অপরিমেয় মৈত্রীর শক্তিতে আত্মত্যাগ। জীবে জীবে লোকে লোকে সেই অসীম মৈত্রী অল্প অল্প করে নানা দিক থেকে আপন গ্রন্থি মোচন করছে, সেই দিকেই মোক্ষের গতি। জীব মুক্ত নয় কেননা, আপনার দিকেই তার টান; সমস্ত প্রাণীকে নিয়ে ধর্মের যে অভিব্যক্তি তার প্রণালীপরম্পরায় সেই আপনার দিকে টানের 'পরে আঘাত লাগছে। সেই আঘাত যে পরিমাণে যেখানেই দেখা যায় সেই পরিমাণে সেখানেই বুদ্ধের প্রকাশ। [জাভাযাত্রীর পত্র ১৯]

৭. ইতিহাসের যে-একটা আবছায়া দেখতে পাচ্ছি সেটা এই রকম-বাংলা সাহিত্য যখন তার অব্যক্ত কারণ-সমুদ্রের ভিতর থেকে প্রবাল-দ্বীপের মতো প্রথম মাথা তুলে দেখা দিলে তখন বৌদ্ধধর্ম জীর্ণ হয়ে বিদীর্ণ হয়ে টুকরো টুকরো হয়ে নানাপ্রকার বিকৃতিতে পরিণত হচ্ছে। স্বপ্নে যেমন এক থেকে আর হয়, তেমনি করেই বুদ্ধ তখন শিব হয়ে দাঁড়িয়েছিলেন। শিব ত্যাগী, শিব ভিক্ষু, শিব বেদবিরুদ্ধ, শিব সর্বসাধারণের। বৈদিক দক্ষের সঙ্গে এই শিবের বিরোধের কথা কবিকঙ্কণ এবং অন্নদামঙ্গলের গোড়াতেই প্রকাশিত আছে। শিবও দেখি বুদ্ধের মতো নির্বাণমুক্তির পক্ষে; প্রলয়েই তাঁর আনন্দ। [বাতায়নিকের পত্র, কালান্তর]

৮. বুদ্ধ যখন অপরিমেয় মৈত্রী মানুষকে দান করেছিলেন তখন তো তিনি কেবল শাস্ত্র প্রচার করেন নি, তিনি মানুষের মনে জাগ্রত করেছিলেন ভক্তি। সেই ভক্তির মধ্যেই যথার্থ মুক্তি। খৃষ্টকে যাঁরা প্রত্যক্ষভাবে ভালোবাসতে পেরেছেন তাঁরা শুধু একা বসে রিপু দমন করেন নি, তাঁরা দুঃসাধ্য সাধন করেছেন। তাঁরা গিয়েছেন দূর-দূরান্তরে, পর্বত সমুদ্র পেরিয়ে মানবপ্রেম প্রচার করেছেন। মহাপুরুষেরা এইরকম আপন জীবনের প্রদীপ জ্বালান; তাঁরা কেবল তর্ক করেন না, মত প্রচার করেন না। তাঁরা আমাদের দিয়ে যান মানুষরূপে আপনাকে। [খৃষ্ট]

৯. যখন ভারতবর্ষে উন্নতির মধ্যাহ্নকাল তখন ধীরে ধীরে কতকগুলি নূতন দর্শন ও নূতন দল নির্মিত হইতে লাগিল এবং তাহাদের প্রভাবে বৌদ্ধধর্ম উত্থিত হইয়া সমাজে একটি ঘোরতর বিপ্লব বাধাইয়া দিল। পৌরাণিক ঋষিরা ভুল বুঝিলেন, তাঁহারা মনে করিলেন এরূপ বিপ্লব অনিষ্টজনক। অমনি পুরাণে, সংহিতায় ও অন্যান্য নানাপ্রকার সমাজের হস্তপদ অষ্টপৃষ্ঠে বন্ধন করিয়া ফেলিলেন এবং ভবিষ্যতে এরূপ বিপ্লব না বাধে তাহার নানা উপায় করিয়া রাখিলেন। সমাজের স্বাস্থ্য নষ্ট হইল এবং সমাজ ক্রমশই অবনতির অন্ধকারে আচ্ছন্ন হইয়া পড়িল। সংস্কারশীলতার অভাবে ও রক্ষণশীলতার বাড়াবাড়িতেই হিন্দুসমাজ নির্জীব হইয়া পড়িল। [বঙ্গে সমাজ-বিপ্লব, পরিশিষ্ট]

১০. বৌদ্ধধর্ম সন্ন্যাসীর ধর্ম। কিন্তু তা সত্ত্বেও যখন দেখি তারই প্রবর্তনায় গুহাগহ্বরে চৈত্যবিহারে বিপুলশক্তিসাধ্য শিল্পকলা অপর্যাপ্ত প্রকাশ পেয়ে গেছে তখন বুঝতে পারি, বৌদ্ধধর্ম মানুষের অন্তরতম মনে এমন একটি সত্যবোধ জাগিয়েছে যা তার সমস্ত প্রকৃতিকে সফল করেছে, যা তার স্বভাবকে পঙ্গু করে নি। ভারতের বাহিরে ভারতবর্ষ যেখানে তার মৈত্রীর সোনার কাঠি দিয়ে স্পর্শ করেছে সেখানেই শিল্পকলার কী প্রভূত ও পরমাশ্চর্য বিকাশ হয়েছে। শিল্পসৃষ্টি-মহিমায় সে-সকল দেশ মহিমান্বিত হয়ে উঠেছে। [বৃহত্তর ভারত, কালান্তর]

১১. বাংলায় যত ধর্মবিপ্লব হয়েছে তার মধ্যেও বাংলা নিজমাহাত্ম্যের বিশিষ্ট প্রকাশ দেখিয়েছে। এখানে বৌদ্ধধর্ম বৈষ্ণবধর্ম বাংলার যা বিশেষ রূপ, গৌড়ীয় রূপ, তাই প্রকাশ করেছে। [ছাত্রদের প্রতি সম্ভাষণ, সংগীতচিন্তা]

১২. বুদ্ধদেব যে অভ্রভেদী মন্দির রচনা করিলেন, নবপ্রবুদ্ধ হিন্দু তাহারই মধ্যে তাঁহার দেবতাকে লাভ করিলেন। বৌদ্ধধর্ম হিন্দুধর্মের অন্তর্গত হইয়া গেল। মানবের মধ্যে দেবতার প্রকাশ, সংসারের মধ্যে দেবতার প্রতিষ্ঠা, আমাদের প্রতি মুহূর্তের সুখদুঃখের মধ্যে দেবতার সঞ্চার, ইহাই নবহিন্দুধর্মের মর্মকথা হইয়া উঠিল। শাক্তের শক্তি, বৈষ্ণবের প্রেম, ঘরের মধ্যে ছড়াইয়া পড়িল; মানুষের ক্ষুদ্র কাজে-কর্মে শক্তির প্রত্যক্ষ হত, মানুষের স্নেহপ্রীতির সম্বন্ধের মধ্যে দিব্যপ্রেমের প্রত্যক্ষ লীলা অত্যন্ত নিকটবর্তী হইয়া দেখা দিল। এই দেবতার আবির্ভাবে ছোটোবড়োয় ভেদ ঘুচিবার চেষ্টা করিতে লাগিল। সমাজে যাহারা ঘৃণিত ছিল তাহারাও দৈবশক্তির অধিকারী বলিয়া অভিমান করিল, প্রাকৃত পুরাণগুলিতে তাহার ইতিহাস রহিয়াছে। [মন্দির, ভারতবর্ষ]

সূত্র: http://www.karatoa.com.bd/details.php…

লেখক: কবি-প্রাবন্ধিক, উপপরিচালক, বাংলা একাডেমী, ঢাকা।


रवींद्र का दलित विमर्श-सात रंगभेदी फासिज्म के प्रतिरोध की बची हुई जमीन हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं। पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-सात

रंगभेदी फासिज्म के प्रतिरोध की बची हुई जमीन

हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं।

पलाश विश्वास

भारत का इतिहास लोकतंत्र का इतिहास है।

भारत का इतिहास लोकगणराज्य का इतिहास है।

धर्म और आस्था चाहे जो हो,भारत में धर्म कर्म लोक संस्कृति,परंपरा और रीति रिवाजों के लोकतंत्र के मुताबिक होता रहा है।

मनुस्मृति के कठोर अनुशासन के बावजूद,अस्पृश्यता और बहिस्कार के वर्ण वर्ग वर्चस्व नस्ली रंगभेद के बावजूद सहिष्णुता और बहुलता का लोकतंत्र भारतीय संस्कृति रही है,जहां मनुष्यता ही हमारी संस्कृति और हमारा लोकतंत्र है।

देशभक्ति हमारी नसों में है लेकिन यह देशभक्ति मनुष्यता के बुनियादी मूल्यों के विरुद्ध कभी नहीं रही है।मनुष्यता के मूल्यों की रक्षा के लिए धर्म युद्ध हमारा राष्ट्रवाद रहा है और यह राष्ट्रवाद मनुष्यता का राष्ट्रवाद है।

पश्चिमी अंध सैन्य राष्ट्रवाद और निरंकुश राष्ट्रवाद भारत का इतिहास नहीं है।

इस राष्ट्रवाद के मसीहा हिटलर और मुसोलिनी हैं तो अमेरिकी साम्राज्यवाद का नस्ली रंगभेद भी यही राष्ट्रवाद है।

भारत का स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश हुकूमत के इसी साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के विरोध में था और उसके समर्थन में थीं भारत की फासिस्ट नाजी ताकतें जो अब भारत और भारतीय जनता के खिलाफ नस्ली नरसंहार संस्कृति के धर्मावतार  बन गये हैं और वे गांधी के हत्यारे भी हैं।

महात्मा गौतम बुद्ध के बाद अंबेडकर,नेताजी और शहीदे आजम की विरासत का वे भगवाकरण कर चुके हैं,इतिहास का वे भगवाकरण कर चुके हैं।फिरभी वे गांधी और रवींद्र का भगवाकरण करने में नाकाम है।

हिंदुत्व की राजनीति के प्रतिरोध की जमीन कुल मिलाकर यही है।

रवींद्र के दलित विमर्श का मकसद इसी प्रतिरोध की जमीन की खोज है।

इसीलिए रवींद्र के दलित विमर्श का आख्यान हमने मनुष्यता के धर्म की चर्चा से की थी जो भारत की विविधता,बहुलतता,उदारता,लोक तंत्र,लोक गणराज्य की साझा सहिष्णु लोक विरासत है।जो सिरे से इस अंध राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।इसलिए लंबा खींचने के बावजूद हम इस विमर्श को जारी रखना चाहते हैं।

गांधी और रवींद्रनाथ पश्चिम के इसी अंध साम्राज्यवादी फासिस्ट नाजी राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे जो अब भारत में मनुस्मृति का कारपोरेट राष्ट्रवाद है,जो उसी तरह गांधी के हिंद स्वराज और रामराज्य के खिलाफ है, जिसतरह रवींद्रनाथ के भारततीर्थ के खिलाफ और भारतीय संविधान,भारत के इतिहास, धर्म, संस्कृति, परंपरा, लोक,जनपद,मातृभाषा,जीवन ,जीविका,मनुष्यता,सभ्यता के खिलाफ भी।

विडंबना यही है कि जिस जर्मनी और इटली में फासीवाद और नाजीवाद में तब्दील हो गया राष्ट्रवाद,वहां लोकतंत्र की ताकतें इसतरह मोर्चाबद्ध है कि नवनाजियों की थोड़ी सी हलचल के विरोध में जनप्रतिरोध की सुनामी खड़ी हो जाती है।

अंध राष्ट्रवाद की भारी कीमत जर्मनी और इटली के साथ उनके सहयोगी जापान ने भी चुकायी है।रोम की प्राचीन सभ्यता अब खंडहर में तब्दील है।

जर्मनी दो दो विश्वयुद्ध में भारी पराजय और विभाजन के बाद फिर अखंड जर्मनी है तो इतिहास को दोहराने की गलती वह नहीं कर सकता।

अमेरिका के आदिवासी अपनी जल जंगल जमीन से बेदखल है और अमेरिका राष्ट्रवाद बेदखली का राष्ट्रवाद है,युद्धक राष्ट्रवाद है और श्वेत आतंकवाद के रंगबेदी राष्ट्रवाद का धारक वाहक अमेरिका है जो इजराइल के जायनी नरसंहारी राष्ट्रवाद से नत्थी है।भारत का रंगभेदी राष्ट्रवाद भी वही है।

जापान ने फासिस्ट सहयोग की वजह से हिरोशिमा और नागासाकी का परमाणु विध्वस झेलने के बाद युद्धक राष्ट्रवाद को तिलांजलि देकर विज्ञान और तकनीक को अपनी बौद्धमय संस्कृति में आत्मसात करके एक मजबूत अर्थव्यवस्था है।

हम बार बार देख रहे हैं कि जर्मनी की आम जनता कैसे बार बार नवनाजियों के पुनरूत्थान के प्रयासों को विफल करने के लिए मोर्चाबंद हो रही है और उनके प्रतिरोध से पुनरूत्थान की हर कोशिश सिरे से नाकाम हो रही है।

जर्मनी में हिटलर को दी जाने वाली सलामी निषिद्ध है।नाजी युद्धक नरसंहारी राष्ट्रवाद के प्रतीक स्वस्तिक पर भी प्रतिबंध है।

अभी हाल ही में ड्रेस्डेन में बार-बार नाजी सल्यूट दे रहे नशे में धुत्त एक अमेरिकी सैलानी को पीट दिया गया।फिर भी नवनाजी फासिस्ट ताकतें बाज नहीं आतीं और जमीन के अंदर उनकी गतिविधियां जारी हैं जो मौका पाते ही सतह पर आ जाती हैं।फिर फिर अपना फन काढ़ लेती हैं।

नागवंशियों के भारत में हम लेकिन उसी विष दंश के शिकार हो रहे हैं।

फिर बर्लिन में जुलूस और रैली करने की योजना थी नवनाजियों की लेकिन हमेशा की तरह जागरुक देशभक्त जर्मनी की नाजीविरोधी फासीवाद विरोधी आम जनता के सशक्त प्रतिरोध से उनका मंसूबा पूरा नहीं हो सका।

हिटलर के सहयोगी रुडलफ हेस की युद्धअपराध की सजा में उम्रकैद के दौरान स्पानी जेल में खुदकीशी करने की तारीख 17 अगस्त को हर बार जर्मनी के नाजी इसी तरह का उपक्रम करते हैं और आम जनता के प्रतिरोध की वजह से नाकाम हो जाते हैं।

अमेरिका के वर्जीनिया के शार्लत्सविले में श्वेत आतंकवादियों के उपद्रव से जरमनी के नाजी कुछ ज्यादा ही जोश में थे।श्वेत आतंकवादियों को अमेरिकी राष्ट्रपति के खुल्ला समर्थन से जरमनी के नवनाजियों का मनोबल बढ़ा हुआ था।लेकिन जर्मनी की वाम और उदारवादी शक्तियों के नेतृत्व में उनका यह उपक्रम भी हर बार की तरह फेल हो गया।

उधर अमेरिका में वर्जीनिया के बाद बोस्टन में रंगभेदी श्वेत आतंकवादियों ने फ्री स्पीच रैली निकालने की कोशिश की तो अमेरिकी सत्ता के समर्थन के बावजूद जनता के प्रतिरोध ने उसे विफल कर दिया।

लोकतांत्रिक उदारवादियों की जवाबी रैली के सामने खड़े ही नहीं हो सके अमेरिकी श्वेत आतंकवादी।हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ने श्वेत आतंकवादियों की इस रैली को पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कहकर मटियाने की कोशिश की।फिर रंगभेद के किलाप लोकतांत्रिक रैली की भी तारीफ कर दी अपना दामन बचाने के मकसद से।

इन घटनाओं का ब्यौरा आप अन्यत्र देख सकते हैं।

हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं।

भारत में शहीदेआजम भगतसिंह की देशभक्ति पर आजतक किसी ने सावल खड़ा नहीं किया है लेकिन अंध राष्ट्रवाद की सुनामी में आगे क्या होगा,कहना मुश्किल है क्योंकि इतिहास बदलने का फासिस्ट उपक्रम जारी है और हम उसका कोई प्रतिरोध अभीतक कर नहीं सके हैं।

शहीदेआजम भगतसिंह नास्तिक थे।

शहीदेआजम भगतसिंह कम्युनिस्ट थे।

शहीदेआजम भगतसिंह साम्राज्यवादविरोधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक हैं,जो फासीवाद और नाजीवाद के विरुद्ध थे।

परम सात्विक,वर्णाश्रम और रामराज्य के प्रवक्ता गांधी के हत्यारों का महिमामंडन अब फासिज्म का राजकाज है और मनुष्यता,सभ्यता और लोकतंत्र के सारे प्रतीकों की मिटाने की कारपोरेट मुक्तबाजारी राजनीति के निशाने पर हैं रवींद्रनाथ समेत भारतीय साहित्य और संस्कृति के तमाम स्तंभ।

धर्म और राष्ट्रवाद,दोनों अब नवनाजी फासिस्ट ताकतों के सबसे बड़े हथियार हैं,जिनके मुकाबले हम निःशस्त्र हैं।

आस्था की जडें भारतीय आम जनता के मानस में इतनी गहरी बैठी हैं कि उनकी आड़ में भावनाओं को भड़काकर धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल नस्ली रंगभेद के राजकाज निरंकुश है और उनके अस्मिता विमर्श के प्रतिरोध में आम जनता के मानस को स्पर्श करने वाले विमर्श का हमने अभीतक सृजन करने का कोई प्रयास नहीं किया है तो दिनोंदिन फासिज्म का प्रतिरोध असंभव होता जा रहा है।

गौरतलब है कि शहीदेआजम भगतसिंह की देशभक्ति का भारतीय जनमास पर अमिट छाप है लेकिन उनकी नास्तिकता,उनके साम्यवाद,उनके साम्राज्यवादविरोध, फासिज्म के खिलाफ प्रतिरोध के उनके क्रांतिकारी विमर्श को हम आगे बढ़ाने और जनता तक संप्रेषित करने के कार्यभार का निर्वाह करने की अभीतक कोशिश नहीं की है तो उनकी देशभक्ति और उनके सर्वोच्च बलिदान का  इस्तेमाल फासीवादी नस्ली रंगभेद की शक्तियां अपने अंध राष्ट्रवाद को मजबूत करने में कर रहे हैं।

इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत को स्वतंत्र कराने के प्रयास में देश से बाहर निकलकर अंग्रेजों के दुश्मन हिटलर के साथ संवाद करने,जापान के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज बनाकर भारत को अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से रिहा कराने के प्रयासों की वजह से भारत में फासिज्म के विरोद में उनकी राजनीति और अखंड भारती की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की उनकी विरासत को समझने  की कोई कोशिश ही नहीं हुई है।

स्वतंत्रता के लिए युद्ध के मकसद से भारत छोड़ने से पहले युवाओं और छात्रों को संबोधित करके नेताजी ने फासीवादी हिंदुत्व को सबसे बड़ा खतरा बताया था।

हम नेताजी के इस भाषण को शेयर कर चुके हैं और इस पर सिलसिलेवार चर्चा कर चुके हैं।लेकिन हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करने वाले लोकतांत्रिक ताकतों की नेताजी के फासीवाद विरोधी विचारों में कोई दिलचस्पी नहीं है और जाहिर है कि इस पर आगे कोई बात चली नहीं है।हमने नेताजी को फासिस्ट मानकर नवनाजियों के हवाले कर दिया है।

इसी तरह बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का भगवाकरण भी निर्विरोध हो गया क्योंकि नस्ली रंगभेद पर आधारित जाति व्यवस्था के अन्याय और असमानता के सामाजिक यथार्थ को वाम,उदार और लोकतांत्रिक ताकतों के सवर्ण नेतृत्व और तमाम माध्यमों,विधाओं पर काबिज सवर्ण विद्वतनों ने मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त को जारी रखने के मकसद से सिरे से नजरअंदाज किया है।

रवींद्र के दलित विमर्श को नजरअंदाज करने का नजरिया भी वहीं है।

रवींद्र विमर्श में वैदिकी प्रभाव का महिमामंडन ही लोकतंत्र का उदार,वाम और धर्मनिरपेक्ष विमर्श है।लेकिन रवींद्र साहित्य में दलित विमर्श और बौद्धमय भारत की अटूट छाप और उनकी रचनाधर्मता के बौद्ध साहित्यस्रोतों और प्रभावों पर भारत में चर्चा नहीं होती.यह भी हिंदुत्व की राजनीति है।

गांधी और रवींद्रनाथ भगतसिंह की तरह नास्तिक नहीं हैं।

गांधी और रवींद्रनाथ अंबेडकर की तरह वैदिकी साहित्य या वैदिकी इतिहास के विरुद्ध नहीं हैं।वे भारतीय जनमानस की आस्था पर चोट किये बिना ब्राह्मणधर्म के नस्ली रंगभेदी राजनीति और विमर्श के विपरीत बौद्धमय अखंड भारत की साझा विरासत की विविधता,बहुलता,सहिषणुता और लोकतंत्र के मुताबिक स्वराज और स्वतंत्रता की बात करते रहे हैं और भारतीय जनमानस पर उनका इसीलिए इतना गहरा असर है।

गांधी के रामराज्य की परिकल्पना ने उन्हें भारतीय जनता के साम्राज्यवाद विरोधी एकताबद्ध महासंग्राम के नेतृ्तव से नहीं रोका क्योंकि उनका हिंदुत्व रवींद्र के भारत तीर्थ का हिंदुत्व है जो फासीवादी हिंदुत्व के विरुद्ध है।

इसीलिए परम सात्विक वैष्णव और वर्णाश्रम के समर्थक गांधी की हत्या  के बिना भारत में नवनाजी हिंदुत्व का पुनरूत्थान असंभव था।

गांधी का राष्ट्रवाद हिंदुत्व का नवनाजी फासिज्म का राष्ट्रवाद नहीं था और उनके हिंद स्वराज में मुसलमान विदेशी नहीं थे।

अंबेडकर चूंकि मनुस्मृति और जाति व्यवस्था के साथ साथ ब्राह्मणधर्म और वैदिकी साहित्य के विरोधी रहे हैं तो भारतीय आम जनता में यहां तक कि सभी दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों के लिए वे गांधी की तरह मान्य नहीं है क्योंकि इन तमाम जन समुदायों की दि्नचर्या और जीनवनयापन,सामाजिक यथार्थ मनुस्मृति अनुशासन  के शिकंजे में हैं और उनकी आस्था ब्राह्मण धर्म कर्म रीति रिवाज जन्म मृत्यु पुनर्जन्म संस्कारों में हैं।

अंबेडकर की राजनीति के समर्थक भी इस ब्राह्मणवाद से मुक्त नहीं है और मौका पाते ही वे ब्राह्मण तंत्र के तिलिस्म के पहरुए और पैदल सेना में तब्दील हो जाते हैं।

किसी अछूत के साहित्य में नोबेल पुरस्कार पाने की उपलब्धि,उनके गीत संगीत सवर्ण संस्कृति के राष्ट्रवाद और अस्मिता में बदल जाने का सच और भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अलावा बांग्लादेश के राष्ट्र और राष्ट्रवाद के निर्माता बन जाने का यथार्थ फासीवादी ताकतों के हिंदू कारपोरेट राष्ट्र के लिए गांधी से कम बड़ा खतरा नहीं है,जिसे सिरे से खारिज करने में लगा है फासीवाद।

इसके विपरीत हम उस विमर्श को सिरे से नजरअंदाज कर रहे  हैं,जो भारत में फासिज्म के खिलाफ प्रतिरोध की सबसे मजबूत जमीन है।

नेताजी,भगतसिंह और अंबेडकर आम जनता की आस्था को कहीं स्पर्श नहीं करते तो गांधी और रवींद्र उसी आस्था को बौद्धमय भारत के आदर्शों और मूल्यों के तहत फासीवादी रंगभेदी हिंदुत्व के खिलाफ भारतीय मनुष्यता  के धर्म की साझा विरासत बना देते हैं और विडंबना यही है कि हम उस जमीन पर खड़ा होेने से सिरे से इंकार करते हैं।

इसी सिलसिले में पहले लिखे कुछ जरुरी तथ्यों को फिर दोहराना चाहता हूं।मेरे पास वक्त बहुत कम है।ईश्वर में मेरी कोई आस्था नहीं रही है।इसलिए अनिश्चित भविष्य पर मैं निर्भर नहीं हूं।रवींद्र विमर्श के बहाने इतिहास की कुछ अनकही जरुरी बातें भी सामने आ रही  हैं।मुझे संवाद के परिसर से हमेशा के लिए बाहर हो जाने से पहले इस संवाद को अंजाम तक पहुंचाना है।चूंकि यह प्रिंट में नहीं हो रहा है तो फिर फिर उलट पलुट कर देखने का मौका यहां नहीं है।

जितनी तेजी से हम संवाद आगे बढ़ाना चाहते हैं,पाठक शायद इसके लिए तैयार न हों और सोशल मीडिया की भी अपनी सीमायें हैं।जाहिर है कि कुछ जरुरी प्रसंगों को बीच बहस में दोहराने की जरुरत होगी ,जिनके बिना बात कहीं नहीं पहुंचेगी।

इससे पहले हमने जो लिखा है,उस पर नये तथ्यों के आलोक में दोबारा विचार करें।मसलनः

चंडाल आंदोलन के भूगोल में रवींद्र की जड़ें है जो पीर फकीर बाउल साधु संतों की जमीन है और उसके साथ ही बौद्धमय भारत की निरंतता के साथ लगातार जल जंगल जमीन के हकहकूक का मोर्चा भी है।

श्रावंती नगर की चंडालिका की कथा का सामाजिक यथार्थ अविभाजित बंगाल का चंडाल वृत्तांत है,जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाल का नवजागरण और ब्रह्मसमाज  है।

रवींद्र के व्यक्तित्व कृत्तित्व में वैदिकी प्रभाव की खूब चर्चा होती रही है। लोकसंस्कृति में उनकी जड़ों के बारे में भी शोध की निरंतरता है।लेकिन चंडालिका के अलावा कथा ओ कहानी की सभी लंबी कविताओं में जो बौद्ध आख्यान और वृत्तांत हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर महात्मा गौतम बुद्ध का जो प्रभाव है,उसके बारे में बांग्लादेश में थोड़ी बहुत चर्चा होती रही है,लेकिन भारत के विद्वतजनों ने रवींद्र जीवन दृष्टि पर उपनिषदों के प्रभाव पर जोर देते हुए बौद्ध साहित्य के स्रोतों से व्यापक पैमाने पर रवींद्र के रचनाकर्म पर कोई खास चर्चा नहीं की है।

चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ,मनुस्मृति के खिलाफ उनकी युद्धघोषणा को सिरे से नजरअंदाज किया गया है।

जड़ों से,लोक और लोकायत में रचे बसे रवींद्र साहित्य में प्रकृति,पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता के प्रति प्रेम उनके गीतों को रवींद्र संगीत बनाता है,जो बंगाल के आमलोगों का कंठस्वर उसीतरह है जैसे वह स्त्री अस्मिता का पितृसत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध और उनकी मुक्ति का माध्यम है तो बांग्ला राष्ट्रीयता का प्रतीक भी वही है।

जड़ों से जड़ने की इसी अनन्य जीजिविषा की वजह से रोमांस से सरोबार मामूली से लगने वाले उनके गीत के बोल आमार बांग्ला आमि तोमाय भालोबासि सैन्य राष्ट्र के नस्ली नरसंहार अभियान के विरुद्ध बांग्ला राष्ट्रीयता की संजीवनी में तब्दील हो गयी और जाति धर्म से ऊपर उठकर मुक्तिसंग्राम में इसी गीत को होंठों पर सजाकर लाखों लोगों ने अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया।भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास भूगोल बदल गया स्वतंत्र बांग्लादेश के अभ्युदय से जहां राष्ट्रीयता उनकी मातृभाषा है।

इसी तरह स्वतंत्र भारतवर्ष की समग्र परिकल्पना जहां रवींद्र की कविता भारत तीर्थ है,राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता का राष्ट्रगान जनगण मन अधिनायक है तो भारतीय दर्शन परंपरा,भारतीय इतिहास,भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अंतरतम अभिव्यक्ति गीतांजलि है।

हमने स्पष्ट कर दिया है कि मनुस्मृति विधान के तहत जाति व्यवस्था की विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार के खिलाफ खड़े गांधी,अंबेडकर और रवींद्र तीनों पर महात्मा गौतम बुद्ध और उनके धम्म का प्रभाव है।

हम मौजूदा रंगभेद की राजनीति, सत्ता और अर्थव्यवस्था की नरसंहार संस्कृति के लिए बार बार महात्मा गौतम बुद्ध के दिखाये रास्ते पर चलने और धम्म के अनुशीलन पर जोर देते रहे हैं।समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता,उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छाप                                                              है।

इसी सिलसिले में रवींद्र साहित्य के बौद्ध प्रसंग पर मैंने ढाका बांग्ला अकादमी के उपसंचालक कवि डा.तपन बागची का बांग्ला में लिखे मूल शोध निबंध को अपने हे मोर चित्त,prey for humanity video के साथ सोशल मीडिया पर शेयर किया है।

रवींद्रनाथ ने अचानक चंडालिका नहीं लिखी है।इससे पहले रुस की चिट्ठी,शूद्र धर्म,राष्ट्रवाद और मनुष्य का धर्म जैसे महत्वपूर्ण कृतियों में उन्होंने भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण वर्चस्व की वजह से नस्ली विषमता बताते हुए भारत को खंडित राष्ट्रीयताओं का समूह बताया है और इसे सामाजिक समस्या माना है।

औपनिवेशिक भारत की समस्या को वे वैसे ही राजनीतिक समस्या नहीं मानते थे,जैसे गुरुचांद ठाकुर,महात्मा ज्योतिबा फूले,अयंकाली,नारायणगुरु और पेरियार।

फूले और गुरुचांद ठाकुर अंग्रेजी हुकूमत के बदले ब्राह्मणों के हुकूमत के विरोध में गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में दलितों,पिछड़ों की हिस्सेदारी से मना किया था।बंगाल में चंडाल आंदोलन भी ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध न होकर सवर्म जमींदारों के खिलाफ था और राजनीतिक आजादी के बजाये वे जाति व्यवस्था के तहत अपनी अस्पृश्यता से मुक्ति और सबके लिए समान अवसर,समानता और न्याय की मांग कर रहे थे।बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर भी अस्पृश्यताविरोधी आंदोलन से राजनीति की शुरुआत की और उन्होंने जाति उन्मूलन का एजंडा सामने रखा।

बहुजनों के तमाम पुरखे, नेता जिस सामाजिक बदलाव की बात करते हुए अंग्रेजों से ब्राह्मणतंत्र को सत्ता हस्तांतरण का विरोध कर रहे थे,रवींद्र साहित्य में भी उसी सामाजिक बदलाव की मांग प्रबल है।

बहुचर्चित चंडालिका रवींद्रनाथ ने 1933 में लिखी।

चंडालिका को उन्होंने चंडाल आंदोलन के बिखराव से पहले सामाजिक बदलाव के लिए जाति व्यवस्था पर आधारित रंगभेदी नस्ली विषमता के खिलाफ पेश किया, इस पर खास गौर किये जाने की जरुरत है।

1937 में चंडाल आंदोलन के महानायक गुरुचांद ठाकुर, जिनके आंदोलन की वजह से 1911 की जनगणना में बंगाल के अस्पृश्य चंडालों को नमोशूद्र बतौर दर्ज किया गया और बंगाल में अस्पृश्यता निषेध लागू हो गया,का निधन हो गया,उसी वर्ष रवींद्रनाथ ने चंडालिका को नृत्यनाटिका के रुप में पेश करके बाकायदा अपनी तरफ से अस्पृश्यता के विरोध में एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत कर दी।

क्योंकि बंगाल में बाकी देश की तरह मंदिर प्रवेश आंदोलन या पेयजल के अधिकार के लिए आंदोलन नहीं हुए,चंडालिका का यह सांस्कृतिक रंगकर्म चंडाल आंदोलन के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण है,खासकर जबकि तमाम बहुजन नेता ब्राह्मणधर्म के विकल्प के रुप में गौतम बुद्ध के धम्म का प्रचार कर रहे थे और रवींद्रनाथ की चंडालिका कथा बंगाल के सामाजिक यथार्त की अभिव्यक्ति के लिए सीधे बौद्ध साहित्य से ली गयी।

चंडालिका की रचना से बहुत  पहले जिस गीतांजलि पर नोबेल पुरस्कार मिलने की वजह से रवींद्र को कविगुरु,गुरुदेव और विश्वकवि जैसी वैश्विक उपाधियां मिलीं,उसी गीताजलि में उन्होंने लिखाः

शतेक शताब्दी धरे नामे सिरे असम्मानभार

मानुषेर नारायणे तबु करो ना नमस्कार।

तबु नतो करि आंखि देखिबारे पाओ नाकि

नेमेछे धुलार तले दीन पतितेर भगवान

अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान।

मेरे पिता शरणार्थी नेता जो पूर्वी बंगाल से उखाड़े गये और भारतभर में छितरा दिये गये अछूत विभाजनपीड़ित शरणार्थियों के पुनर्वास,मातृभाषा,आरक्षण, नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के लिए तजिंदगी लड़ते रहे,वे इस कविता को बंगाल के और बाकी भारत के अछूतों के आत्मसम्मान आंदोलन का मूल मंत्र मानते थे।वे मानते थे कि सामाजिक विषमता की वजह सेही विस्थापन होता है।

नस्ली रंगभेद की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी हिंसा की वजह से आज आधी मनुष्यता शरणार्थी हैं तो आजादी के बाद इसी नस्ली भेदभाव के कारण पूरा का पूरा आदिवासी भूगोल विस्थापन का शिकार है।

विस्थापन का शिकार है हिमालय और हिमालयी लोग भी इसी नस्ली विषमता की वजह से दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं।

उन्नीसवीं सदी से शुरु चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग अछूतों को सवर्णों की तरह हिंदू समाज में बराबरी और सम्मान देने की मांग थी जिस वजह से पूर्वी बंगाल के चंडाल भूगोल में महीनों तक अभूतपूर्व आम हड़ताल रही।

केरल में भी अयंकाली ने किसानों और मछुआरों की मोर्चांबदी से इसीतरह की हड़ताल की तो तमिलनाडु की द्रविड़ अनार्य अस्मिता का आत्मसम्मान आंदोलन भी इसी नस्ली भेदभाव के खिलाफ था और इसी जातिव्यवस्था और मनुस्मृति विधान के तहत बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने नागपुर में हमारे जन्म से पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली।

लेकिन असमानता और अन्याय की व्यवस्था कारपोरेट हिंदुत्व से  देश के विभाजन और सत्ता हस्तांतरण के सत्तर साल बाद राष्ट्रवाद की अंध आत्मघाती सुनामी में तब्दील है और इस व्यवस्था के शिकार तमाम जन समुदाय जल जंगल जमीन नागरिकता नागरिक और मानव अधिकारों से लगातार बेदखली के बाद उसी नरसंहार संस्कृति की पैदल सेना है।

रवींद्रनाथ जिस परिवार में जनमे,वह मूर्तिपूजा के खिलाफ ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था।वे जाति से पीराली ब्राह्मण थे जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और सामाजिक बहिस्कार की वजह से उनका परिवार पूर्वी बंगाल छोड़क कोलकाता चला आया।उनेक दादा प्रिंस द्वारका नाथ टैगोर को फोर्ट विलियम का ठेका मिला और वे बंगाल में ब्रिटिश राज के दौरान उद्यमियों में अगुवा बन गये,जिनका लंदन के स्टाक एक्सचेंज में भी कारोबार था तो पूर्वीबंगाल में उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी।

इसके बावजूद उनका परिवार कुलीन हिंदू समाज के लिए अछूत था।रवींद्र के पिता महर्षि द्वारका नाथ टैगोर ब्रह्म समाज आंदोलन के स्तंभ थे।

टैगोर परिवार और ब्रह्मसमाज आंदोलन के नेताओं पर बौद्धधर्म का गहरा असर था और उन सभी ने इस पर काफी कुछ लिखा।

इस पारिवारिक पृष्ठभूमि पर हम अलग से चर्चा करेंगे।

रवींद्रनाथ की रचनाओं में चंडालिका के अलावा नेपाली बौद्ध साहित्य से लिये गये आख्यान पर आधारित भिक्षा, उपगुप्त, पुजारिनी, मालिनी, परिशोध, चंडाली, नगरलक्ष्मी,मस्तकविक्रय जैसी रचनाएं लिखी गयी हैं।उनका कविता संकलन कथा ओ काहिनी की सारी रचनाएं इसी नेपाली बौद्ध साहित्य के आख्यान पर आधारित हैं।कथा ओ काहिनी की 33 कविताएं इसी तरह लिखी गयी,जिनमें लंबी कविताएं दो बिघा जमीन,विसर्जन,देवतार ग्रास और पुरातन भृत्य जैसी रचनाएं शामिल हैं।

पुनश्च की कविताओं का स्रोत भी बौद्ध साहित्य है।जिनमें शाप मोचन बेहद लोकप्रिय और चर्चित है।


रवींद्र का दलित विमर्श-आठ मजहबी सियासत के हिंदुत्व एजंडे से मिलेगी आजादी स्त्री को? जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये। पलाश विश्वास

Previous: रवींद्र का दलित विमर्श-सात रंगभेदी फासिज्म के प्रतिरोध की बची हुई जमीन हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं। पलाश विश्वास
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रवींद्र का दलित विमर्श-आठ
मजहबी सियासत के हिंदुत्व एजंडे से मिलेगी आजादी स्त्री को?
जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों  के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये।
पलाश विश्वास
तीन तलाक की प्रथा खत्म हो गयी है,यह दावा करना जल्दबाजी होगी।
इसी सिलिसिले सामाजिक,मजहबी बदलाव की किसी हलचल के बिना सियासती सरगर्मियां हैरतअंगेज हैं।
सवाल यह है कि अगर सचमुच तीन तलाक सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खत्म हो गया है तो इसका श्रेय भारत सरकार,भारत के प्रधानमंत्री, संघ परिवार और सत्ता दल को कैसे जाता है।
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका क्या भारत सरकार,भारत के प्रधानमंत्री, संघ परिवार और सत्ता दल के मतहत हैं और उन्हींके निर्देश पर उनके फैसले बनते बिगड़ते हैं?
अगर ऐसा ही सच है तो बाकी तमाम नाजुक मामलों में भी सत्ता का हस्तक्षेप निर्णायक होगा।यह लोकतंत्र और संविधान के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है। मुसलमान औरतों को न्याय दिलाने का श्रेय लूटने वाले पहले इस सवाल का जवाब दें।
बहरहाल हम रवींद्र के दलित विमर्श के तहत स्त्री मुक्ति के लिए भारत में उन्नीसवीं सदी से जारी मुक्ति संघर्ष की चर्चा करेंगे।
रवींद्र ,शरत और प्रेमचंद के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि में स्त्री मुक्ति प्रसंग और आधुनिक भारत में मेहनतकश, दलित, पिछड़ी, आदिवासी,विधर्मी गरीब औरतों के हकहकूक की लड़ाई के संदर्भ में स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता की चुनौतियों की जांच पड़ताल करके ही हम सामाजिक और मजहबी बदलाव की दिशा बना सकते हैं,जिनके बिना सियासती और कानूनी पहल भी बेमतलब हैं।
रवींद्र नाथ भारत की मूल समस्या सामाजिक मानते थे और इसकी जड़ें नस्ली विषमता मानते थे।रवींद्र साहित्य में नवजागरण और ब्रहमसमाज के प्रभाव से स्त्री मुक्ति प्रसंग बेहद मुखर हैं तो बौद्धमय भारत के आख्यानों के तहत स्त्री मुक्ति प्रसंग को उन्होंने समानता और न्याय की लड़ाई से भी जोड़ा है।उनकी तमाम नृत्य
नाटिकाएं चंडालिका, चित्रांगदा, रक्तकरबी, श्यामा, शाप मोचन स्त्री मुक्ति प्रसंग समता और न्याय के संघर्ष में बदल जाते हैं।
प्रेमचंद के गोदान में जिस तरह होरी धनिया की जीवन यंत्रणा है। अंधे सूरदास की आंखों में जैसे पूंजी के हमले से तबाह जनपद हैं,वैसा साहित्य आजाद भारत में भी लिखा नहीं गया है।सद्गति की कथा नस्ली रंगभेद की निरंतरता बनकर अब भी जारी है।इसके साथ ही शरतचंद्र  के कथासंसार में स्त्री अस्मिता की पक्षधरता शायद सबसे प्रबल है।लेकिन वहां स्त्री स्वतंत्रता का मुद्दा सामाजिक बदलाव का मुद्दा बना नहीं है क्योंकि स्त्री मुक्ति प्रसंग वहां सामाजिक न्याय और समानता के साथ जुड़े नहीं हैं।
आजाद भारत में स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे को लगभग सभी भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं ने बेहद प्रामाणिकता के साथ उठाया है लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्त्री अस्मिता और स्वतंत्रता को जिस तरह रवींद्र और प्रेमचंद ने सामाजिक बदलाव,समता और न्याय के मुद्दों के साथ जोड़ा है,ऐसे पुरुष रचनाकारों की कमी खलती हैं।शरत जैसा हर स्थिति में स्त्री अस्मिता का पक्षधर लेखक बी कोई दूसरा नहीं हुआ।
बहरहाल,अगर हम बतौर दलील यह मान भी लेते हैं कि तीन तलाक का मसला हमेशा के लिए सुलझ गया है और कमसकम मुस्लिम महिलाएं आजाद हो गयी हैं और इसका श्रेय संघ परिवार,हिंदुत्व के एजंडे और भाजपा की केंद्र सरकार और उसके प्रधानमंत्री  को जाता है,तो यह इस लड़ाई को जारी रखने वाली तमाम महिलाओं और उनके साथ खड़े कानूनी, सामाजिक और मजहबी चुनौतियों का मुकाबला करने वाले संगठनों की लंबी लड़ाई को सिरे से खारिज करना होगा।
फिर इस फैसले में तीन तलाक को इस्लाम धर्म और संविधान दोनों के खिलाफ बताया गया है तो इस्लाम और संविधान के बारे में इन श्रेय लुटेरों की राय और नीयत को समझना भी जरुरी है।
भारतीय इतिहास से इस्लाम का नामोनिशां मिटाने वालों का इस्लाम से क्या वास्ता है,यह भी समझना होगा।
दूसरी तरफ,भारतीय संविधान को बदलकर जो संस्थागत तौर पर लगातार मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है,स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के बारे में पवित्र धर्मग्रंर्थों के हवाले से उनके विचारों की पड़ताल भी जरुरी है।पाठक यह खुद कर सकते हैं तो हम इस पर खामखां ज्यादा वक्त जाया नहीं करेंगे।
रवींद्र साहित्य में स्त्री मुक्ति के विचार ब्रह्मसमाज के विचार रहे हैं और ब्रह्म समाज के विघटन के बाद आदि ब्रह्मसमाज बनने से पहले  आदि ब्रह्मसमाज आंदोलन में शामिल मुख्य लोगों को स्त्री स्वतंत्रता दल के रुप में बंगाल में जाना जाता रहा है।रवींद्र इसी आदि ब्रह्मसमाज के सचिव बनाये गये तथे
रवींद्र के समय में भी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के राजा राममोहन राय और विद्यासागर के आंदोलन में शामिल तमाम  ब्रहम समाजी स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के मामले में उनके उतने भी प्रबल समर्थक नहीं थे।
इस बारे में उनमें मतभेद भी थे और रवींद्र साहित्य में भी स्त्री मुक्ति प्रसंग में इस द्वंद्व की मौजूदगी है।
आदि ब्रहमसमाज आंदोलन के स्त्री अधिकार दल भी नीतिगत तौर पर हिंदू समाज के संस्कारों से मुक्त नहीं थे।रवींद्रनाथ नैतिकता वादी इस शुद्धता के खिलाफ खड़े होकर स्त्री मुक्ति के पक्ष में खुलकर खड़े हो गये।
रवींद्र के उपन्यासों चोखेर बाली की विनोदिनी का विद्रोह नष्टनीड़ में नहीं है।तो घरे बाइरे और गोरा में स्त्री अस्मिता की दृष्टि कही ज्यादा प्रखर है।
रवींद्र के अपने घर जोड़ासांकू में उनके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर अपने बेटों के पश्चिमी नवजागरण और आधुनिकता के तहत स्त्री को स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थे।रवींद्र परिवार की महिलाओं ने इस सीमाबद्धता को तोड़ने की कोशिशें की हैं.जिसका बहुत असर रवींद्र के चिंतन मनन पर हुआ है।
स्त्री मुक्ति का संघर्ष किसी धर्म,जाति,क्षेत्र,नस्ल,भाषा या अस्मिता के दायरे में सीमाबद्ध नहीं है।अब भी दुनियाभर में स्त्री तकनीक और विज्ञान,शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के बावजूद लैंगिक रंगभेदी भेदभाव की वजह से घर बाहर समान रुप से असुरक्षित है।
अब भी स्त्री पितृसत्तात्मक समाज में जाति धर्म स्थान काल निर्विशेष निजी संपत्ति में शामिल है।इसलिए स्त्री अस्मिता या स्त्री स्वतंत्रता की लड़ाई एक निरंतर जारी रहने वाली लड़ाई है।समता और न्याय की लड़ाई का अंग है यह।
पश्चिमी देशों में नवजागरण से पहले स्त्री को नहाने तक की इजाजत नहीं थी क्योंकि धर्म स्त्री को सूरज की रोशनी के सामने खड़े होने का मौका देने को तैयार नहीं था।
भारत में उन्नीसवीं के नवजागरण के दौरान बहुआयामी सामाजिक बदलाव के आंदोलनों की वजह से स्त्री को नागरिक और मानवअधिकार मिलने शुरु हुए।
स्त्री को मनुष्य मानने में ही पितृसत्ता तैयार नहीं थी।
वह लड़ाई अब भी जारी है।
कुरान और हदीस में बताये गये कायदे कानून के खिलाफ तात्कालिक तौर पर तीन बार तलाक कहकर,लिखकर,नेट और तकनीक के जरिये संप्रेषित करने की इस्लामविरोधी धर्मविरोधी रिवाज पर छह महीने के लिए रोक लगायी गयी है।
संसद में कानून बनाने के बाद ही यह रोक स्थाई तौर पर लागू हो सकेगी लेकिन तलाक की दूसरी मजहबी पद्धतियों पर इसका कोई असर नहीं होगा।
गौरतलब है कि इससे पहले शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सत्ता की मजहबी सियासत के तहत बेकार कर दिया गया था तो मजहबी सियासत के मौजूदा दौर में जब तक संसद में कानून नहीं बन जाता,इसे मुस्लिम औरतों की निर्णायक जीत बताना जल्दबाजी होगी।
खासकर तब जबकि मुस्लिम समाज मजहब के मामले में अदालती हस्तक्षेप के खिलाफ है।सामाजिक तौर पर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड जैसी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे को सुलझाने की कोई कोशिश नहीं हुई है तो मजहबी सियासत के सत्ता समीकरण के तहत इस मसले का स्थाई हल निकलना फिलहाल मुश्किल ही दिखता है।
उन्नीसवीं सदी में बंगाल के नवजागरण के दौरान ब्राह्मसमाज आंदोलन के दौरान हिंदू समाज में सतीप्रथा पर कानूनन रोक लगी तो विधवा विवाह का प्रचलन शुरु हुआ।बाल विवाह,बेमेल विवाह पर रोक अब भी नहीं लग सकी।कानून बनने के बावजूद।
स्त्री शिक्षा के आंदोलन में बंगाल के नवजागरण के अलावा मतुआ आंदोलन, महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले के आंदोलनों का भी असर रहा है।सामाजिक सुधार के लिए हिंदू समाज और इसके साथ ही मुस्लिम समाज में भी उन्नीसवीं सदी से निरंतर आंदोलन होते रहे हैं।
भारत में स्त्री को मिले तमाम हकहकूक इन सुधार आंदोलनों,ब्रह्म समाज आंदोलन और बंगाल के नवजागरण के सौजन्य से हैं तो बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के ब्रिटिश राज के श्रम मंत्री की हैसियत से बनाये गये श्रम कानून मातृत्व अवकाश कानून और भारतीय संविधान में समानता के अधिकारों के तहत मताधिकार की निरंतरता की वजह से हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की बड़े पैमाने पर भागेदारी और अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों स्त्री नेतृत्व  के विकास ने भी स्त्री सशक्तीकरण की दिशा बनायी।
उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था में स्त्री की बढती हुई भूमिका की वजह से,ज्ञान विज्ञान और तकनीक में मिले समान अवसरों के कारण आधुनिक भारत में स्त्री अस्मिता की ठोस जमीन तैयार हुई है।
यह सारा कुछ एक निरंतर सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया है और सामाजिक मसलों को सुलझाने के लिए समाज और सामाजिक संगठनों की कारगर पहल के कारण यह प्रगति संभव हो सकी है।
यह सारा सामाजिक बदलाव सियासत या मजहबी सियासत की वजह से नहीं हुआ।हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करने में हिंदू समाज में व्यापक सहमति हुई तभी सती के महिमामंडन के बावजूद सती प्रथा प्रचलित नहीं है।
इसी तरह मजहबी रोक के बावजूद भिन्न धर्म और भिन्न जाति में विवाह का प्रचलन भी आम हो गया है और खाप पंचायतों की वजह से यह सामाजिक बदलाव रुका नहीं है और न रुकनेवाला है।
फिरभी समाज में पितृसत्ता का वर्चस्व नहीं टूटने की वजह से स्त्री अभी भी दासी,शूद्र,गुलाम,भोग्या  मानी जाती है।
लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं हुआ है और सामाजिक वर्ग वर्ण वर्चस्व,बेदखली और नरसंहार संस्कृति के लिए स्त्री पर अत्याचार,स्त्री उत्पीड़न का सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है।
यह सारा खेल मनुस्मृति के स्थाई बंदोबस्त को भारत के संविधान ,कानून के राज और लोकतंत्र को खत्म करने के लिए चल रहा है तो समझा जा सकता है कि मजहबी सियासत के खिलाड़ियों की कितनी दिलचस्पी स्त्री अस्मिता और स्त्री की स्वतंत्रत्ता और उसके हक हकूक में होने वाली है।
जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों  के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये।
चूंकि स्त्री मुक्ति प्रसंग में बंगाल के नवजागरण की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है तो इसलिए इस सिलसिले में मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से यह ब्यौरा पेश है,जिसे इस बहुआयामी सामाजिक बदलाव के बारे में हमारी धारणा बन सकती है क्योंकि फिलहाल देश में सामाजिक बदलाव के लिए ऐसा कोई आंदोलन नहीं चला रहा है और सत्ता की राजनीति से समाज और धर्म को बदलने की मुहिम उसी हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक चल रही है,जिसकी मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ उन्नीसवी सदी के सामाजिक ांदोलनों की वजह से आज स्त्री अस्मिता और स्वत्त्रता की बात हम कर रहे हैें।

इस अवधि का सुव्यव्यस्थित अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशोभन सरकार लिखते हैं, 'अंग्रेज़ी राज, पूँजीवीदी अर्थव्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी संस्कृति का सबसे पहला प्रभाव बंगाल पर पड़ा जिससे एक ऐसा नवजागरण हुआ जिसे आमतौर पर बंगाल के रिनेसाँ के नाम से जाना जाता है। करीब एक सदी तक बदलती हुई आधुनिक दुनिया के प्रति बंगाल की सचेत जागरूकता शेष भारत के मुकाबले आगे रही। इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि भारत के आधुनिक जागरण में बंगाल द्वारा निभायी गयी भूमिका की तुलना युरोपीय रिनेसाँ के संदर्भ में इटली की भूमिका से की जा सकती है।'इतालवी रिनेसाँ की ही तरह बंगाल का नवजागरण कोई जनांदोलन नहीं था। इसकी प्रक्रिया और प्रसार भद्रलोक (उच्च वर्गों) तक ही सीमित था। भद्रलोक में भी नवजागरण का प्रभाव अधिकतर उसके हिंदू हिस्से पर ही पड़ा। इस दौरान कुछ मुसलमान हस्तियाँ भी उभरीं (जैसे, सैयद अमीर अली, मुशर्रफ हुसैन, साके दीन महमूद, काज़ी नज़रुल इस्लाम और रुकैया सखावत हुसैन), पर बंगाल का नवजागरण आंशिक रूप से ही मुसलमान नवजागरण कहा जा सकता है। मोटे तौर पर माना जाता है कि बंगाल के नवजागरण की शुरुआत राममोहन राय से हुई और रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उसका समापन हो गया। सुशोभन सरकार ने इसे पाँच चरणों में बाँट कर देखने का प्रयास किया है : पहली अवधि 1814 से 1933, जिसकी केंद्रीय हस्ती राजा राममोहन राय थे। 1814 में वे कोलकाता रहने के लिए आये और 1933 में उनका लंदन में देहांत हुआ। दूसरी अवधि उनकी मृत्यु से 1957 के विद्रोह तक जाती है। तीसरी अवधि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना तक फैली हुई है। चौथी अवधि 1905 में बंगाल के विभाजन तक और पाँचवीं अवधि स्वदेशी आंदोलन से असहयोग आंदोलन और महात्मा गाँधी के नेतृत्व की शुरुआत तक यानी 1919 तक मानी गयी है। राममोहन राय के बारे में एक दृष्टांत है जिसे उनकी शख्सियत के रूपक की तरह पढ़ा जा सकता है। कहा जाता है कि उनके दो घर थे। खान-पान, वेषभूषा और रहन-सहन के लिहाज़ से एक में किसी विक्टोरियन जेंटिलमेन की भाँति रहते थे और दूसरे में पारम्परिक बंगाली ब्राह्मण की तरह। दरअसल, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी पूर्व और पश्चिम का संश्लेषण। लेकिन, यह दृष्टांत भी उनके रूढ़िभंजक व्यक्तित्व को परिभाषित नहीं करता। 1820 में उनकी कृति 'परसेप्ट्स ऑफ़ जीसस'का प्रकाशन हुआ जिसमें ईसा के नैतिक संदेश को ईसाई तत्त्वज्ञान और चमत्कार कथाओं से अलग करके पेश किया गया था। बंगाल में सक्रिय ईसाई पादरी वर्ग उनकी इस कोशिश से नाराज़ हो गया। उसके विरोध के परिणामस्वरूप राममोहन राय ने ईसाई जनता के नाम तीन अपीलें जारी करके अपने विचारों को और स्पष्टता प्रदान की। इसी के साथ उन्होंने ब्राह्मनीकल मैग़ज़ीन का प्रकाशन करके हिंदू आस्तिकता के वैचारिक नैरंतर्य को वेदों के हवाले से रेखांकित करने की चेष्टा भी की। राममोहन ने अपने धार्मिक विचारों को धरती पर उतारने के लिए 20 अगस्त 1828 को 'ब्रह्म सभा'का गठन किया। इस प्रक्रिया का परिणाम 1830 में एक चर्च की स्थापना के रूप में निकला और ब्रह्म समाज आंदोलन शुरू हुआ जो लम्बे समय तक बंगाली समाज की चेतना को प्रभावित करता रहा। 1818 से 1829 के बीच राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी बुराई पर आक्रमण करते हुए तीन रचनाएँ प्रकाशित कीं। सती प्रथा के ख़िलाफ़ जनमत बनाने और अंग्रेज़ों को उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए मनाने का श्रेय उनके प्रयासों को ही दिया जाता है। राममोहन ने आधुनिक शिक्षा और विशेष तौर से स्त्री शिक्षा के प्रसार में अगुआ भूमिका निभायी। उन्हें बांग्ला गद्य का निर्माता भी कहा जाता है।
बंगाल रिनेसाँ के इस दौर में राममोहन के प्रयासों को दोहरे विरोध का सामना करना पड़ा। एक तरफ़ उनका विरोध राधाकांत देब, गौरीकांत भट्टाचार्य और भवानी चरण बनर्जी जैसे सुधार विरोधी परम्परानिष्ठ लेखक और विद्वान कर रहे थे, वहीं उन्हें फ़्रांसीसी क्रांति और इंगलिश रैडिकलिज़म से अनुप्राणित आलोचना का भी सामना करना पड़ा जिसका नेतृत्व 'यंग बंगाल'और उसके एंग्लो-इण्डिन नेता हेनरी विवियन डेरॉज़ियो के हाथों में था। यह अलग बात है कि डेरॉज़ियो के अनुयायी अपने कामों और वक्तृताओं से समाज को चौंकाने के अलावा कोई स्थाई असर नहीं डाल पाये। लेकिन, राममोहन की परम्परा के आधार पर समाज सुधारों का नरम कार्यक्रम उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहा। उसकी कमान देवेंद्रनाथ ठाकुर और अक्षय कुमार दत्त के हाथों में थी। इसी दौरान ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह और बहुविवाह के ख़िलाफ़ मुहिम चलायी। हालाँकि यंग बंगाल आंदोलन 1842 में विधवा विवाह के पक्ष में आवाज़ उठा चुका था, पर विद्यासागर के प्रयासों से ही इसे लोकप्रिय आंदोलन का रूप मिला।
1857 के विद्रोह के बाद बंगाल के पुनर्जागरण ने साहित्यिक क्रांति और उसके ज़रिये राष्ट्रवादी चिंतन के युग में प्रवेश किया। नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज़ों के जुल्मों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष में बंगाली बुद्धिजीवियों ने भी अपनी आवाज़ मिलायी। दीनबंधु मित्र के नाटक 'नील दर्पण'ने बंगाल के मानस को झकझोर दिया। माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया जिसके ख़िलाफ़ अदालत ने एक हज़ार रुपये के ज़ुर्माने की सज़ा सुनायी। माइकेल ने 1860 में मेघनाद-वध की रचना करके नयी बंगाली कविता की सम्भावनाओं का उद्घोष किया। 1865 में बंकिम चंद्र चटर्जी का सूर्य उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास दुर्गेशनंदिनी के साथ बंगाली सांस्कृतिक क्षितिज पर उगा। 1873 में विषबृक्ष के ज़रिये उन्होंने सामाजिक उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया। 1879 में 'साम्य'शीर्षक से निबंध लिख कर बंकिम ने समतामूलकता और यूटोपियन समाजवाद के प्रति रुझान दिखाया, पर 1882 में आनंदमठ लिख कर वे देशभक्तिपूर्ण पुनरुत्थानवाद की लहर में बह गये। इसी रचना में दर्ज 'वंदेमातरम'गीत भारत के तीन राष्ट्रगीतों में से एक है। साहित्यिक उन्मेष के साथ- साथ बंगाली नवजागरण ने इतिहास लेखन (राजेंद्रलाल मित्र) और समाज-विज्ञान (बंगाल सोशल साइंस एसोसिएशन) के अन्य क्षेत्रों में योगदान की परम्परा का सूत्रपात भी किया। धार्मिक सुधारों और पुनरुत्थानवाद के लिहाज़ से भी यह दौर ख़ासा घटनाप्रद था। एक तरफ़ तो केशव चंद्र सेन के नेतृत्व में युवा ब्रह्म समाजी सुधार आंदोलन की अलख जगाये हुए थे, दूसरी तरफ़ वहाबी असंतोष खदबदा रहा था और नव- हिंदूवाद की पदचाप सुनायी दे रही थी। इसी अवधि में दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण परमहंस ने अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व के माध्यम से सभी धार्मिक आस्थाओं को पवित्र घोषित किया। ईसाई धर्मांतरण को हवा देने वाला प्रोटेस्टेंट उग्रवाद इससे कमज़ोर हुआ और परम्परा के पैरोकारों को थोड़ी राहत मिली। परमहंस के युवा शिष्य स्वामी विवेकानंद ने 1893 में वर्ल्ड रिलीजस कांफ्रेंस में दिये गये अपने भाषण से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की और अपनी ख़ास शैली के आदर्शवादी राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण किया। चार साल तक पश्चिम का दौरा करके लौटे तो 1897 में उनका राष्ट्रीय नायक की तरह स्वागत किया गया।
1861 के बाद की अवधि तो कुछ इस तरह की थी जिसमें बंगाली बुद्धिजीवी समाज का सबसे प्रिय शब्द 'राष्ट्रीय'बन गया। राजनारायण बोस, नवगोपाल मित्र, ज्योतिरिंद्रनाथ ठाकुर और भूदेव मुखर्जी की अगुआई में कई तरह की गतिविधियाँ चलीं जिनमें हिंदू मेले का आयोजन उल्लेखनीय था जो करीब दस साल तक कोलकाता को आलोड़ित करता रहा। 1870 के बाद की अवधि राजनीतिक आंदोलनों की अवधि थी जिसमें सुरेंद्रनाथ बनर्जी का नेतृत्व उभरा जिन्हें 'बंगाल के बेताज के बादशाह'के तौर पर जाना गया। सुरेंद्रनाथ के जुझारूपन कारण के कारण अंग्रेज़ उनका नाम बिगाड़ कर 'सरेंडर नॉट'बनर्जी भी कहते थे। 1876 में बनर्जी ने 'इण्डिन एसोसिएशन'की स्थापना की जिसके 1883 के राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पैदा हुआ। इसका परिणाम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थापना के रूप में निकला। बंगाली बुद्धिजीवियों कांग्रेस की गतिविधियों में जम कर भागीदारी की और 1903 तक कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता सात बार उनके खाते में गयी। बंगाल ने महाराष्ट्र और पंजाब के साथ मिल कर कांग्रेस के गरमदली धड़े की रचना करने में निर्णायक भूमिका निभायी।
बंगाल के नवजारण के आख़िरी दौर पर गिरीश चंद्र घोषजैसे नाटककार, बंकिम की परम्परा में रमेश चंद्र दत्तजैसे ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासकार (जिन्हें हम महान आर्थिक इतिहासकार के तौर पर भी जानते हैं), मीर मुशर्रफ़ हुसैनजैसे मुसलमान कवि, जगदीश चंद्र बोसऔर प्रफुल्ल चंद्र रायजैसे वैज्ञानिकों की छाप रही। लेकिन, रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा के सामने ये सभी प्रतिभाएँ फीकी पड़ गयीं। हिंदू मेलेमें अपनी देशभक्तिपूर्ण कविताओं के पाठ से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले रवींद्रनाथ ने अपने रचनात्मक और वैचारिक साहित्य से एक पूरे युग को नयी अस्मिता प्रदान की। उन्होंने अपने युग पर आलोचनात्मक दृष्टि फेंकी। 1901 में अपनी रचना नष्टनीड़ के ज़रिये वे बंगाली रिनेसाँ के ऐसे पैरोकारों को आड़े हाथों लेते नज़र आये जो अपने पारिवारिक जीवन में उन आदर्शों को लागू करने के लिए तैयार नहीं थे। 1913 में गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले रवींद्रनाथ ने बंग- भंग विरोध और स्वदेशी आंदोलन की राजनीति को सर्वथा नये दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने इस आंदोलन में मुसलमानों की न के बराबर भागीदारी पर अफ़सोस जताया और राष्ट्रवाद में निहित अशुभ आयामों की आलोचना प्रस्तुत की। गाँधी के साथ उनकी बहसों में आने वाले भारत की दुविधाओं की झलक देखी जा सकती थी।

रवींद्र का दलित विमर्श- नौ रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे? खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं। पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र! पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श- नौ

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र!

पलाश विश्वास

हमने समकालीन ज्वलंत सवालों के संदर्भ में रवींद्र के दलित विमर्श पर संवाद का प्रस्ताव रखा था।इसी सिलसिले में रवींद्र की भारत परिकल्पना की आज चर्चा कर रहे हैं।इसी सिलसिले में निराधार आधार पर आधारित कारपोरेट डिजिटल हिंदू राष्ट्र की चर्चा जरुरी है जो हमारे पुरखों के भारत वर्ष की हत्या कर रहा है।

निजता का अधिकार  मौलिक अधिकार है,सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है।अब इस फैसले से पहले नागरिकों के शरीर पर नागरिकों के हक न होने का हलफनामा दायर करने वाली भारत सरकार का दावा है कि यह फैसला उसके नजरिये के मुताबिक है।इसका सीधा मतलब है कि निजता को मौलिक अधिकार मान लिये जाने के बावजूद आधार परियोजना के तहत नागरिकों के निजता के अधिकार का हनन करते हुए उनके निजी तथ्यों को कारपोरेट कंपनियों को शेयर करने का सिलसिला रुकने वाला नहीं है।क्योंकि यह गैरजरुरी जनसंख्या के सफाये के नरसंहारी एजंडा है जिसके मार्फत अर्थव्यवस्था और राष्ट्रव्यवस्था पर नस्ली वर्चस्व बहाल रखकर जीवन के हर क्षेत्र में नस्ली रंगभेद के तहत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों,गैर नस्ली और विधर्मी समुदायों,किसानों,मेहनतकशों के बहिस्कार और निगरानी की योजना है।

नागरिकों की न निगरानी न सिर्फ राष्ट्र कर रहा है बल्कि देशी विदेशी निजी कंपनियां और दुनियाभर के आपराधिक माफिया गिरोह को भी नागरिकों की निजी जानकारियां दी जा रही हैं क्योंकि जरुरी सेवाओं के लिए आधार की अनिवार्यता की वजह से गैरसरकारी अज्ञात तत्वों के हवाले नागरिकों के आधार तथ्य के साथ साथ उनकी उंगलियों की छाप भी हैं जिससे साइबर जालसाजी से लेकर जान माल का गंबीर खतरा भी है क्योंकि नागरिकों की क्रयशक्ति के आधार पर बैंक बैलेंस और चल अचल संपत्ति की जानकारियां भी निजी कंपनियों के साथ साथ अज्ञात और आपराधिक तत्वों तक शेयर करने की अनिवार्यता है।

मोबाइल,फोन,मेल के जरिये क्रेडिट कार्ड,बैंक लोन और खरीददारी के तमाम आफर इन्हीं तथ्यों के आधार पर नागरिकों को चौबीसों घंटे थोकभाव से मिल रहे हैं क्योंकि मोबाइल और गैस कनेक्शन से लेकर यात्रा टिकट तक आधार की अनिवार्यता है।आधार परियोजान जारी रहा तो निजता का अधिकार का कोई मतलब नहीं है।

इस सिलसिले में हम लगातार चर्चा करते रहे हैं और आप हस्तक्षेप के पुराने आलेखों को पढ़ सकते हैं।

अब सवाल यह है कि कारपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति क्या कारपोरेट नस्ली  वर्चस्व के डिजिटल इंडिया के खिलाफ नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हक में खड़े होने की हिम्मत करेंगी क्योंकि राजनीति ने अभी तक इसका विरोध नहीं किया है क्योंकि सत्ता वर्ग की राजनीति दरअसल नस्ली वर्चस्व की राजनीति है और वह अन्याय,असमानता,उत्पीड़न,अत्याचार,बेदखली और नरसंहार संस्कृति के समर्थन में खड़ी है।उसके तमाम तर्क भी अंध राष्ट्रवाद और सैन्य हिंदू राष्ट्र के वर्ण वर्ग वर्चस्व के हित में हैं।

गौरतलब है कि एक बेहद अहम फैसले के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार, यानी राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकारों, यानी फन्डामेंटल राइट्स का हिस्सा करार दिया है। नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है। राइट टू प्राइवेसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आती है। अब  लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी। हालांकि आधार को योजनाओं से जोड़ने पर सुनवाई आधार बेंच करेगी। इसमें 5 जज होंगे।

रवींद्रनाथ ने 7 अगस्त,1941 को अपनी मृत्यु से पहले 14 मई,1941 को शांतिनिकेतन में पढ़े अपने निबंध सभ्यता के संकट में भारतीय मानस के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के आधार पर फासीवादी राष्ट्रवाद के खिलाफ चेतावनी दे गये।इस निबंध के पहले ही वाक्य में खंडित भारतीय राष्ट्रीयता का चित्र इस तरह प्रस्तुत किया हैः

আজ আমার বয়স আশি বৎসর পূর্ণ হল, আমার জীবনক্ষেত্রের বিস্তীর্ণতা আজ আমার সম্মুখে প্রসারিত। পূর্বতম দিগন্তে যে জীবন আরম্ভ হয়েছিল তার দৃশ্য অপর প্রান্ত থেকে নিঃসক্ত দৃষ্টিতে দেখতে পাচ্ছি এবং অনুভব করতে পারছি যে, আমার জীবনের এবং সমস্ত দেশের মনোবৃত্তির পরিণতি দ্বিখণ্ডিত হয়ে গেছে, সেই বিচ্ছিন্নতার মধ্যে গভীর দুঃখের কারণ আছে।

(अनुवादःआज मेरे जीवन के अस्सी साल पूरे हो गये,मेरे जीवनक्षेत्र की विस्तीर्णता आज मेरे सामने प्रसारित है।पूर्वतम दिगंत पर जिस जीवन का आरंभ हुआ,उसके दृश्य दूसरे सिरे से निःसक्त दृष्टि से देख रहा हूं और मुझे इसका अनुभव हो रहा है कि मेरे जीवन और समूचे देश की मानसिकता द्विखंडित हो गयी है और इस विभाजन में दुःख के कारण है।)

रवींद्रनाथ की यह चेतावनी भारत विभाजन की भी चेतावनी है क्योंकि खंडित राष्ट्रीयता की नियति अंततः विभाजन की त्रासदी है।वे इस सच को जानचुके थे कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का अंत दूर नहीं है और इससे भय़ंकर सछ उनके सामने शायद यह था कि जिस भारतवर्ष की परिकल्पना वे बना रहे थे,सत्ता हस्तातंरण के बाद वह भारत धर्म और राष्ट्रवाद के शिकंजे में सभ्यता के संकट का पर्याय बनने वाला है।हम बार बार यह निवेदन कर रहे हैं कि हमारा लिखा कोई शोध प्रबंध नहीं है और न यह किसी प्रकाशन के माध्यम से कहीं प्रकाशित होने वाला है। यह सोशल मीडिया पर रवींद्र के दलित विमर्श पर एक संवाद है,जिसकी अपनी सीमा है।हम विस्तार से संदर्भ और प्रसंग के साथ बातें रख नहीं सकते।इसलिए संदर्भ संबंधी नेट पर उपलब्ध सारी सामग्री मूल पाठ और वीडियो अलग से शेयर कर रहे हैं।उन्हें देखे बिना इस संवाद में शामिल होना मुश्किल है।

आज हमने सभ्यता के संकट का मूल बांग्ला पाठ शेयर किया है और इसका हिंदी अनुवाद मुझे नेट पर मिला नहीं है।कोलकाता के आलोचक अरुण माहेश्वरी ने दिल्ली में रवींद्रनाथ पर 2011 में आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार में इस निबंध के अंतिम हिस्से का अनुवाद अपने वक्तव्य में शामिल किया है और वह वक्तव्य जनपक्ष में प्रकाशित हुआ है।संवाद के इस क्रम में अंत में वह हिस्सा हम दे रहे हैं।

इस निबंध में बारत की आजादी के बाद की स्थितियों के बारे में उन्होंने जो आशंका जतायी है,वह उनके जीवन काल में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फासीवादी नाजीवादी शक्तियों के धार्मिक राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति के उथल पुथल परिदृश्य के संदर्भ में है,यह समझना मुश्किल नहीं है क्योंकि वे खंडित राष्ट्रीयता की बात शुरु में ही उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि संविधान सभा में अपने पहले भाषण में बाबासाहेब भीमराव अबेडकर ने आपस में लड़ रहे कैंप के हवाले खंडित राष्ट्रीयता की बात की है।

रवींद्र ने भारती की स्वतंत्रता की भविष्यवाणी करते हुए जो अंदेशा जताया है,वर्तमान चुनौतियां उसी को सही साबित करती हैं।रवींद्र ने लिखा हैः

ভাগ্যচক্রের পরিবর্তনের দ্বারা একদিন না একদিন ইংরেজকে এই ভারতসাম্রাজ্য ত্যাগ করে যেতে হবে। কিন্তু কোন্‌ ভারতবর্ষকে সে পিছনে ত্যাগ করে যাবে, কী লক্ষ্মীছাড়া দীনতার আবর্জনাকে? একাধিক শতাব্দীর শাসনধারা যখন শুষ্ক হয়ে যাবে তখন এ কী বিস্তীর্ণ পঙ্কশয্যা দুৰ্বিষহ নিস্ফলতাকে বহন করতে থাকবে। জীবনের প্রথম-আরম্ভে সমস্ত মন থেকে বিশ্বাস করেছিলুম যুরোপের সম্পদ অন্তরের এই সভ্যতার দানকে। আর আজ আমার বিদায়ের দিনে সে বিশ্বাস একেবারে দেউলিয়া হয়ে গেল। আজ আশা করে আছি, পরিত্রাণকর্তার জন্মদিন আসছে আমাদের এই দারিদ্র্যলাঞ্ছিত কুটীরের মধ্যে; অপেক্ষা করে থাকব, সভ্যতার দৈববাণী সে নিয়ে আসবে, মানুষের চরম আশ্বাসের কথা মানুষকে এসে শোনাবে এই পূর্বদিগন্ত থেকেই। আজ পারের দিকে যাত্রা করেছি—পিছনের ঘাটে কী দেখে এলুম, কী রেখে এলুম, ইতিহাসের কী অকিঞ্চিৎকর উচ্ছিষ্ট সভ্যতাভিমানের পরিকীর্ণ ভগ্নস্তূপ! কিন্তু, মানুষের প্রতি বিশ্বাস হারানো পাপ, সে বিশ্বাস শেষ পর্যন্ত রক্ষা করব। আশা করব, মহাপ্রলয়ের পরে বৈরাগ্যের মেঘমুক্ত আকাশে ইতিহাসের একটি নির্মল আত্মপ্রকাশ হয়তো আরম্ভ হবে এই পূর্বাচলের সূর্যোদয়ের দিগন্ত থেকে। আর-একদিন অপরাজিত মানুষ নিজের জয়যয়যাত্রার অভিযানে সকল বাধা অতিক্রম করে অগ্রসর হবে তার মহৎ মৰ্যাদা ফিরে পাবার পথে। মনুষ্যত্বের অন্তহীন প্রতিকারহীন পরাভবকে চরম বলে বিশ্বাস করাকে আমি অপরাধ মনে করি।

अरुण माहेश्वरी का अनुवाद इस प्रकार हैः

"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...

इससे पहले फासीवादी नाजी खतरे को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैंः

इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

रवींद्रनाथ का भारतवर्ष भारत के इतिहास,दर्शन और सांस्कृतिक लोकतंत्र की समग्र विरासत पर आधारित है जिसे वे खंडित होते हुए देख रहे थे।

डा.अमर्त्यसेन ने रवींद्र की आशंका और चेतावनी के मद्देनजर नेहरु की जेल डायरी के हवाले से नोबेल प्राइज डाटआर्ग पर रवींद्र की भारत परिकल्पना और गांधी और रवींद्र के बीच निरंतर जारी संवाद पर लिखे अपने आलेख में लिखा हैः


In his prison diary, Nehru wrote: "Perhaps it is as well that [Tagore] died now and did not see the many horrors that are likely to descend in increasing measure on the world and on India. He had seen enough and he was infinitely sad and unhappy." Toward the end of his life, Tagore was indeed becoming discouraged about the state of India, especially as its normal burden of problems, such as hunger and poverty, was being supplemented by politically organized incitement to "communal" violence between Hindus and Muslims. This conflict would lead in 1947, six years after Tagore's death, to the widespread killing that took place during partition; but there was much gore already during his declining days. In December 1939, he wrote to his friend Leonard Elmhirst, the English philanthropist and social reformer who had worked closely with him on rural reconstruction in India (and who had gone on to found the Dartington Hall Trust in England and a progressive school at Dartington that explicitly invoked Rabindranath's educational ideals):5

"It does not need a defeatist to feel deeply anxious about the future of millions who, with all their innate culture and their peaceful traditions are being simultaneously subjected to hunger, disease, exploitations foreign and indigenous, and the seething discontents of communalism."

How would Tagore have viewed the India of today? Would he see progress there, or wasted opportunity, perhaps even a betrayal of its promise and conviction? And, on a wider subject, how would he react to the spread of cultural separatism in the contemporary world?

(Tagore and His India

by Amartya Sen*,/www.nobelprize.org)


इस निबंध में रूस,चीन और जापान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व के आधार पर पश्चिम के साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के विपरीत नये सिरे से राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की उन्होंने विस्तार से चर्चा की है।

भारत में मुसलमानों,अस्पृश्यों को बराबरी का द्रजा न दिये जाने की चर्चा वे बार बार करते रहे हैं और भारती की मुख्य समस्या वे नस्ली विषमता मानते हुए विविधता में एकता को इस समस्या का समाधान बताते रहे हैं।यूरोप के नस्ली संघर्षों और रंगभेदी विषमता के विपरीत सोवियत संघ और चीन में मुसलमानों को बराबारी देने की बात वे सिलसिलेवार कहते हैं तो पश्चिम एशिया के इस्लामी राष्ट्रों के नस्ली सामाजिक य़थार्थ को सामने रखते हुए नये भारत की परिकल्पना पेश करते हैं।


पश्चिम में अंध राष्ट्रवाद के फासीवाद और नाजीवाद से हिंसा और युद्ध से ध्वस्त पृथ्वी का कोना कोना घूमने के बाद गुरुदेव विश्वयुद्धों के विध्वंस का सच का सामना करते हुए सभ्यता के खतरों से बेहद चिंतित थे।मनुष्यता का धर्म और राष्ट्रवाद पर लिखे निबंधों में इसीलिए उन्होंने बार बार सहिष्णुता,विविधता और बहुलता की भारतीय विरासत की बात करते हुए समानता और न्याय पर आधारित मनुष्यता के वैश्विक भूगोल और विश्व मानव की बात करते हुए अंध राष्ट्रवाद और धार्मिक कटट्रता के खिलाफ मनुष्यता के आदर्शों औऱ भारतीय साझा विरासत के आध्यात्म के जरिये विश्वशांति की बातें की हैं।



अरुण माहेश्वरी ने लिखा हैः

इसमें शक नहीं कि यह विश्वयुद्ध  रवीन्द्रनाथ के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना था। वस्तुतः 1939 से लेकर अपनी मृत्यु (7 अगस्त 1941) तक वे इस युद्ध की परिस्थितियों के बारे में लगातार चिंतित रहे। इस युद्ध में वे साफ तौर पर पूरी मनुष्यता के अस्तित्व पर खतरे को देख रहे थे और इसीलिये फासिस्ट ताकतों के खिलाफ मित्र शक्तियों के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्थन में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं था। रूस का अनुभव उनके साथ था और उसके प्रति प्रकट सहानुभूति भी। अपने अंतिम दिनों के इसीकाल में कवि ने अंतिम इच्छा के रूप में 'सभ्यता का संकट'ऐतिहासिक लेख लिखा जिसे 14 मई 1941 के दिन शान्तिनिकेतन में पढ़ा गया। कवि तब अस्सी साल के हो गये थे। इस लेख का प्रारंभ वे इन शब्दों से करते हैंः


"आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण हुए। अपने जीवन-क्षेत्र का दीर्घ विस्तार आज मेरे सामने आता है।                   ...  "पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब असंभव होगया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी। मनुष्य का मनुष्य के साथ वह सम्बन्ध, जो सबसे अधिक मूल्यवान है और जिसे वास्तव में सभ्यता कहा जा सकता है, यहां नहीं मिलता। ...


इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?


"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...


महामानव का आगमन है।

दिशा-दिशा में घास का तिनका-तिनका रोमांचित है।

देवलोक में शंख बज उठा...

'जय-जय-जय रे मानव अभ्युदय' -"


रवीन्द्रनाथ के जीवन के इस पूरे आख्यान को यदि कोई गहराई से देखेगा तो उसे इसमें शुरू से अंत तक महाविश्व के महामानव की प्रतिमा का एक ऐसा सूत्र पिरोया हुआ दिखाई देगा जिस प्रतिमा को उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही अपने आध्यात्मिक संस्कार से हृदय में बहुत गहरे बसा लिया था, और उम्र की अंतिम घड़ी तक वे उसी महामानव की जयकार का गीत गाते रहे। उसमें किसी भी प्रकार की लघुता का कोई स्थान नहीं था।


रवीन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्म-आधारित विश्व-दृष्टि ( जनपक्ष में प्रकाशित) से साभार

(यह लेख हाल में दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसिअलिस्ट एजुकेसन द्वारा आयोजित रवीन्द्रनाथ पर राष्ट्रीय सेमिनार (१६-१७ दिसम्बर २०११)में पढ़ा गया था. )


रवींद्र का दलित विमर्श- नौ रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे? खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं। पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र! पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श- नौ

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र!

पलाश विश्वास

हमने समकालीन ज्वलंत सवालों के संदर्भ में रवींद्र के दलित विमर्श पर संवाद का प्रस्ताव रखा था।इसी सिलसिले में रवींद्र की भारत परिकल्पना की आज चर्चा कर रहे हैं।इसी सिलसिले में निराधार आधार पर आधारित कारपोरेट डिजिटल हिंदू राष्ट्र की चर्चा जरुरी है जो हमारे पुरखों के भारत वर्ष की हत्या कर रहा है।

निजता का अधिकार  मौलिक अधिकार है,सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है।अब इस फैसले से पहले नागरिकों के शरीर पर नागरिकों के हक न होने का हलफनामा दायर करने वाली भारत सरकार का दावा है कि यह फैसला उसके नजरिये के मुताबिक है।इसका सीधा मतलब है कि निजता को मौलिक अधिकार मान लिये जाने के बावजूद आधार परियोजना के तहत नागरिकों के निजता के अधिकार का हनन करते हुए उनके निजी तथ्यों को कारपोरेट कंपनियों को शेयर करने का सिलसिला रुकने वाला नहीं है।क्योंकि यह गैरजरुरी जनसंख्या के सफाये के नरसंहारी एजंडा है जिसके मार्फत अर्थव्यवस्था और राष्ट्रव्यवस्था पर नस्ली वर्चस्व बहाल रखकर जीवन के हर क्षेत्र में नस्ली रंगभेद के तहत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों,गैर नस्ली और विधर्मी समुदायों,किसानों,मेहनतकशों के बहिस्कार और निगरानी की योजना है।

नागरिकों की न निगरानी न सिर्फ राष्ट्र कर रहा है बल्कि देशी विदेशी निजी कंपनियां और दुनियाभर के आपराधिक माफिया गिरोह को भी नागरिकों की निजी जानकारियां दी जा रही हैं क्योंकि जरुरी सेवाओं के लिए आधार की अनिवार्यता की वजह से गैरसरकारी अज्ञात तत्वों के हवाले नागरिकों के आधार तथ्य के साथ साथ उनकी उंगलियों की छाप भी हैं जिससे साइबर जालसाजी से लेकर जान माल का गंबीर खतरा भी है क्योंकि नागरिकों की क्रयशक्ति के आधार पर बैंक बैलेंस और चल अचल संपत्ति की जानकारियां भी निजी कंपनियों के साथ साथ अज्ञात और आपराधिक तत्वों तक शेयर करने की अनिवार्यता है।

मोबाइल,फोन,मेल के जरिये क्रेडिट कार्ड,बैंक लोन और खरीददारी के तमाम आफर इन्हीं तथ्यों के आधार पर नागरिकों को चौबीसों घंटे थोकभाव से मिल रहे हैं क्योंकि मोबाइल और गैस कनेक्शन से लेकर यात्रा टिकट तक आधार की अनिवार्यता है।आधार परियोजान जारी रहा तो निजता का अधिकार का कोई मतलब नहीं है।

इस सिलसिले में हम लगातार चर्चा करते रहे हैं और आप हस्तक्षेप के पुराने आलेखों को पढ़ सकते हैं।

अब सवाल यह है कि कारपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति क्या कारपोरेट नस्ली  वर्चस्व के डिजिटल इंडिया के खिलाफ नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हक में खड़े होने की हिम्मत करेंगी क्योंकि राजनीति ने अभी तक इसका विरोध नहीं किया है क्योंकि सत्ता वर्ग की राजनीति दरअसल नस्ली वर्चस्व की राजनीति है और वह अन्याय,असमानता,उत्पीड़न,अत्याचार,बेदखली और नरसंहार संस्कृति के समर्थन में खड़ी है।उसके तमाम तर्क भी अंध राष्ट्रवाद और सैन्य हिंदू राष्ट्र के वर्ण वर्ग वर्चस्व के हित में हैं।

गौरतलब है कि एक बेहद अहम फैसले के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार, यानी राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकारों, यानी फन्डामेंटल राइट्स का हिस्सा करार दिया है। नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है। राइट टू प्राइवेसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आती है। अब  लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी। हालांकि आधार को योजनाओं से जोड़ने पर सुनवाई आधार बेंच करेगी। इसमें 5 जज होंगे।

रवींद्रनाथ ने 7 अगस्त,1941 को अपनी मृत्यु से पहले 14 मई,1941 को शांतिनिकेतन में पढ़े अपने निबंध सभ्यता के संकट में भारतीय मानस के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के आधार पर फासीवादी राष्ट्रवाद के खिलाफ चेतावनी दे गये।इस निबंध के पहले ही वाक्य में खंडित भारतीय राष्ट्रीयता का चित्र इस तरह प्रस्तुत किया हैः

আজ আমার বয়স আশি বৎসর পূর্ণ হল, আমার জীবনক্ষেত্রের বিস্তীর্ণতা আজ আমার সম্মুখে প্রসারিত। পূর্বতম দিগন্তে যে জীবন আরম্ভ হয়েছিল তার দৃশ্য অপর প্রান্ত থেকে নিঃসক্ত দৃষ্টিতে দেখতে পাচ্ছি এবং অনুভব করতে পারছি যে, আমার জীবনের এবং সমস্ত দেশের মনোবৃত্তির পরিণতি দ্বিখণ্ডিত হয়ে গেছে, সেই বিচ্ছিন্নতার মধ্যে গভীর দুঃখের কারণ আছে।

(अनुवादःआज मेरे जीवन के अस्सी साल पूरे हो गये,मेरे जीवनक्षेत्र की विस्तीर्णता आज मेरे सामने प्रसारित है।पूर्वतम दिगंत पर जिस जीवन का आरंभ हुआ,उसके दृश्य दूसरे सिरे से निःसक्त दृष्टि से देख रहा हूं और मुझे इसका अनुभव हो रहा है कि मेरे जीवन और समूचे देश की मानसिकता द्विखंडित हो गयी है और इस विभाजन में दुःख के कारण है।)

रवींद्रनाथ की यह चेतावनी भारत विभाजन की भी चेतावनी है क्योंकि खंडित राष्ट्रीयता की नियति अंततः विभाजन की त्रासदी है।वे इस सच को जानचुके थे कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का अंत दूर नहीं है और इससे भय़ंकर सछ उनके सामने शायद यह था कि जिस भारतवर्ष की परिकल्पना वे बना रहे थे,सत्ता हस्तातंरण के बाद वह भारत धर्म और राष्ट्रवाद के शिकंजे में सभ्यता के संकट का पर्याय बनने वाला है।हम बार बार यह निवेदन कर रहे हैं कि हमारा लिखा कोई शोध प्रबंध नहीं है और न यह किसी प्रकाशन के माध्यम से कहीं प्रकाशित होने वाला है। यह सोशल मीडिया पर रवींद्र के दलित विमर्श पर एक संवाद है,जिसकी अपनी सीमा है।हम विस्तार से संदर्भ और प्रसंग के साथ बातें रख नहीं सकते।इसलिए संदर्भ संबंधी नेट पर उपलब्ध सारी सामग्री मूल पाठ और वीडियो अलग से शेयर कर रहे हैं।उन्हें देखे बिना इस संवाद में शामिल होना मुश्किल है।

आज हमने सभ्यता के संकट का मूल बांग्ला पाठ शेयर किया है और इसका हिंदी अनुवाद मुझे नेट पर मिला नहीं है।कोलकाता के आलोचक अरुण माहेश्वरी ने दिल्ली में रवींद्रनाथ पर 2011 में आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार में इस निबंध के अंतिम हिस्से का अनुवाद अपने वक्तव्य में शामिल किया है और वह वक्तव्य जनपक्ष में प्रकाशित हुआ है।संवाद के इस क्रम में अंत में वह हिस्सा हम दे रहे हैं।

इस निबंध में बारत की आजादी के बाद की स्थितियों के बारे में उन्होंने जो आशंका जतायी है,वह उनके जीवन काल में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फासीवादी नाजीवादी शक्तियों के धार्मिक राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति के उथल पुथल परिदृश्य के संदर्भ में है,यह समझना मुश्किल नहीं है क्योंकि वे खंडित राष्ट्रीयता की बात शुरु में ही उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि संविधान सभा में अपने पहले भाषण में बाबासाहेब भीमराव अबेडकर ने आपस में लड़ रहे कैंप के हवाले खंडित राष्ट्रीयता की बात की है।

रवींद्र ने भारती की स्वतंत्रता की भविष्यवाणी करते हुए जो अंदेशा जताया है,वर्तमान चुनौतियां उसी को सही साबित करती हैं।रवींद्र ने लिखा हैः

ভাগ্যচক্রের পরিবর্তনের দ্বারা একদিন না একদিন ইংরেজকে এই ভারতসাম্রাজ্য ত্যাগ করে যেতে হবে। কিন্তু কোন্‌ ভারতবর্ষকে সে পিছনে ত্যাগ করে যাবে, কী লক্ষ্মীছাড়া দীনতার আবর্জনাকে? একাধিক শতাব্দীর শাসনধারা যখন শুষ্ক হয়ে যাবে তখন এ কী বিস্তীর্ণ পঙ্কশয্যা দুৰ্বিষহ নিস্ফলতাকে বহন করতে থাকবে। জীবনের প্রথম-আরম্ভে সমস্ত মন থেকে বিশ্বাস করেছিলুম যুরোপের সম্পদ অন্তরের এই সভ্যতার দানকে। আর আজ আমার বিদায়ের দিনে সে বিশ্বাস একেবারে দেউলিয়া হয়ে গেল। আজ আশা করে আছি, পরিত্রাণকর্তার জন্মদিন আসছে আমাদের এই দারিদ্র্যলাঞ্ছিত কুটীরের মধ্যে; অপেক্ষা করে থাকব, সভ্যতার দৈববাণী সে নিয়ে আসবে, মানুষের চরম আশ্বাসের কথা মানুষকে এসে শোনাবে এই পূর্বদিগন্ত থেকেই। আজ পারের দিকে যাত্রা করেছি—পিছনের ঘাটে কী দেখে এলুম, কী রেখে এলুম, ইতিহাসের কী অকিঞ্চিৎকর উচ্ছিষ্ট সভ্যতাভিমানের পরিকীর্ণ ভগ্নস্তূপ! কিন্তু, মানুষের প্রতি বিশ্বাস হারানো পাপ, সে বিশ্বাস শেষ পর্যন্ত রক্ষা করব। আশা করব, মহাপ্রলয়ের পরে বৈরাগ্যের মেঘমুক্ত আকাশে ইতিহাসের একটি নির্মল আত্মপ্রকাশ হয়তো আরম্ভ হবে এই পূর্বাচলের সূর্যোদয়ের দিগন্ত থেকে। আর-একদিন অপরাজিত মানুষ নিজের জয়যয়যাত্রার অভিযানে সকল বাধা অতিক্রম করে অগ্রসর হবে তার মহৎ মৰ্যাদা ফিরে পাবার পথে। মনুষ্যত্বের অন্তহীন প্রতিকারহীন পরাভবকে চরম বলে বিশ্বাস করাকে আমি অপরাধ মনে করি।

अरुण माहेश्वरी का अनुवाद इस प्रकार हैः

"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...

इससे पहले फासीवादी नाजी खतरे को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैंः

इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

रवींद्रनाथ का भारतवर्ष भारत के इतिहास,दर्शन और सांस्कृतिक लोकतंत्र की समग्र विरासत पर आधारित है जिसे वे खंडित होते हुए देख रहे थे।

डा.अमर्त्यसेन ने रवींद्र की आशंका और चेतावनी के मद्देनजर नेहरु की जेल डायरी के हवाले से नोबेल प्राइज डाटआर्ग पर रवींद्र की भारत परिकल्पना और गांधी और रवींद्र के बीच निरंतर जारी संवाद पर लिखे अपने आलेख में लिखा हैः


In his prison diary, Nehru wrote: "Perhaps it is as well that [Tagore] died now and did not see the many horrors that are likely to descend in increasing measure on the world and on India. He had seen enough and he was infinitely sad and unhappy." Toward the end of his life, Tagore was indeed becoming discouraged about the state of India, especially as its normal burden of problems, such as hunger and poverty, was being supplemented by politically organized incitement to "communal" violence between Hindus and Muslims. This conflict would lead in 1947, six years after Tagore's death, to the widespread killing that took place during partition; but there was much gore already during his declining days. In December 1939, he wrote to his friend Leonard Elmhirst, the English philanthropist and social reformer who had worked closely with him on rural reconstruction in India (and who had gone on to found the Dartington Hall Trust in England and a progressive school at Dartington that explicitly invoked Rabindranath's educational ideals):5

"It does not need a defeatist to feel deeply anxious about the future of millions who, with all their innate culture and their peaceful traditions are being simultaneously subjected to hunger, disease, exploitations foreign and indigenous, and the seething discontents of communalism."

How would Tagore have viewed the India of today? Would he see progress there, or wasted opportunity, perhaps even a betrayal of its promise and conviction? And, on a wider subject, how would he react to the spread of cultural separatism in the contemporary world?

(Tagore and His India

by Amartya Sen*,/www.nobelprize.org)


इस निबंध में रूस,चीन और जापान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व के आधार पर पश्चिम के साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के विपरीत नये सिरे से राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की उन्होंने विस्तार से चर्चा की है।

भारत में मुसलमानों,अस्पृश्यों को बराबरी का द्रजा न दिये जाने की चर्चा वे बार बार करते रहे हैं और भारती की मुख्य समस्या वे नस्ली विषमता मानते हुए विविधता में एकता को इस समस्या का समाधान बताते रहे हैं।यूरोप के नस्ली संघर्षों और रंगभेदी विषमता के विपरीत सोवियत संघ और चीन में मुसलमानों को बराबारी देने की बात वे सिलसिलेवार कहते हैं तो पश्चिम एशिया के इस्लामी राष्ट्रों के नस्ली सामाजिक य़थार्थ को सामने रखते हुए नये भारत की परिकल्पना पेश करते हैं।


पश्चिम में अंध राष्ट्रवाद के फासीवाद और नाजीवाद से हिंसा और युद्ध से ध्वस्त पृथ्वी का कोना कोना घूमने के बाद गुरुदेव विश्वयुद्धों के विध्वंस का सच का सामना करते हुए सभ्यता के खतरों से बेहद चिंतित थे।मनुष्यता का धर्म और राष्ट्रवाद पर लिखे निबंधों में इसीलिए उन्होंने बार बार सहिष्णुता,विविधता और बहुलता की भारतीय विरासत की बात करते हुए समानता और न्याय पर आधारित मनुष्यता के वैश्विक भूगोल और विश्व मानव की बात करते हुए अंध राष्ट्रवाद और धार्मिक कटट्रता के खिलाफ मनुष्यता के आदर्शों औऱ भारतीय साझा विरासत के आध्यात्म के जरिये विश्वशांति की बातें की हैं।



अरुण माहेश्वरी ने लिखा हैः

इसमें शक नहीं कि यह विश्वयुद्ध  रवीन्द्रनाथ के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना था। वस्तुतः 1939 से लेकर अपनी मृत्यु (7 अगस्त 1941) तक वे इस युद्ध की परिस्थितियों के बारे में लगातार चिंतित रहे। इस युद्ध में वे साफ तौर पर पूरी मनुष्यता के अस्तित्व पर खतरे को देख रहे थे और इसीलिये फासिस्ट ताकतों के खिलाफ मित्र शक्तियों के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्थन में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं था। रूस का अनुभव उनके साथ था और उसके प्रति प्रकट सहानुभूति भी। अपने अंतिम दिनों के इसीकाल में कवि ने अंतिम इच्छा के रूप में 'सभ्यता का संकट' ऐतिहासिक लेख लिखा जिसे 14 मई 1941 के दिन शान्तिनिकेतन में पढ़ा गया। कवि तब अस्सी साल के हो गये थे। इस लेख का प्रारंभ वे इन शब्दों से करते हैंः


"आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण हुए। अपने जीवन-क्षेत्र का दीर्घ विस्तार आज मेरे सामने आता है।                   ...  "पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब असंभव होगया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी। मनुष्य का मनुष्य के साथ वह सम्बन्ध, जो सबसे अधिक मूल्यवान है और जिसे वास्तव में सभ्यता कहा जा सकता है, यहां नहीं मिलता। ...


इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?


"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...


महामानव का आगमन है।

दिशा-दिशा में घास का तिनका-तिनका रोमांचित है।

देवलोक में शंख बज उठा...

'जय-जय-जय रे मानव अभ्युदय' -"


रवीन्द्रनाथ के जीवन के इस पूरे आख्यान को यदि कोई गहराई से देखेगा तो उसे इसमें शुरू से अंत तक महाविश्व के महामानव की प्रतिमा का एक ऐसा सूत्र पिरोया हुआ दिखाई देगा जिस प्रतिमा को उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही अपने आध्यात्मिक संस्कार से हृदय में बहुत गहरे बसा लिया था, और उम्र की अंतिम घड़ी तक वे उसी महामानव की जयकार का गीत गाते रहे। उसमें किसी भी प्रकार की लघुता का कोई स्थान नहीं था।


रवीन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्म-आधारित विश्व-दृष्टि ( जनपक्ष में प्रकाशित) से साभार

(यह लेख हाल में दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसिअलिस्ट एजुकेसन द्वारा आयोजित रवीन्द्रनाथ पर राष्ट्रीय सेमिनार (१६-१७ दिसम्बर २०११)में पढ़ा गया था. )


रवींद्र का दलित विमर्श -10 नियति से अभिसार का सच और भारत तीर्थ का हश्र ईश्वर और धर्म के नाम अपराधियों का तांडव,देश में न संविधान है और कानून का राज विशुद्धता के नाम पर ,धर्म के नाम पर देशभक्ति का कारोबार और धर्म कर्म के नाम पर सत्ता में शामिल होकर कारपोरेट मुनाफा कमाने वाले कटकटेला अंधियारे के कारोबारी भगवा ब्रिगेड का भारत की संस्कृति,भारत की धार्मिक विरासत और भारत के इतिहास के खिलाफ

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रवींद्र का दलित विमर्श -10

नियति से अभिसार का सच और भारत तीर्थ का हश्र ईश्वर और धर्म के नाम अपराधियों का तांडव,देश में न संविधान है और कानून का राज

विशुद्धता के नाम पर ,धर्म के नाम पर देशभक्ति का कारोबार और धर्म कर्म के नाम पर सत्ता में शामिल होकर कारपोरेट मुनाफा कमाने वाले कटकटेला अंधियारे के कारोबारी भगवा ब्रिगेड का भारत की संस्कृति,भारत की धार्मिक विरासत और भारत के इतिहास के खिलाफ,हिंदू धर्म के खिलाफ और मनुष्यता के खिलाफ भारत की नियति से बलात्कार है।भारत माता की जयजयकार करते हुए,वंदे मातरम गाते हुए देश की हत्या का यह युद्ध अपराध है।

धर्म के नाम सांप्रदायिक तौर पर विभाजित देश के मानस का यह हाल है कि सैकडो़ं बच्चों के आक्सीजन के बिना तड़पकर मर जाने के बाद,प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लाखों लोगों के चरम संकट के बीच सिरे से तटस्थ है लेकिन धर्म कर्म के नाम पर अपराधी राम रहीम के नाम पर हुजूम के हुजूम लोग अपने ही धर्म,भाषा और क्षेत्र के लोगों को मारने और खुद मरने को उतारु है।

जिन लोगों ने गांधी की हत्या कर दी,रवींद्र को निषिद्ध किया,जो लोग ब्रिटिश हुकूमत का साथ दे रहे थे,जो लोग गुजरात नरसंहार और सिखों के कत्लेआम,असम और पूर्वोत्तर में नरसंहार को अंजाम दे रहे थे,वे ही हमारे भाग्यविधाता हैं और हमारी साधु संतों,गुरुओं,फकीरों,बाउलों की महान पंरपरा के खिलाफ भगवा चोला पहनकर धर्म की कारपोरेट कंपनियों के तमाम मैनेजर बने अपराधी तत्व देश में अमन चैन की फिजां को जहरीली बना रहे हैं और हम लोग खामोश तमाशबीन है।


पलाश विश्वास

बेहद जल्दी में लिख रहा हूं और टाइपिंग में वर्तनी व्याकरण की गलतियां हो सकती है।हम आज रवींद्र पर अपनी चर्चा को थोड़ी विलंबित करने की सोच रहे थे।क्योंकि अभीतक वह संवाद शुरु नहीं हो सका है,जो हमारा मकसद है।

कल ही हमने भारत के भविष्य की चर्चा की चर्चा करते हुए रवींद्र के निबंध सभ्यता के संकट और डा.अमर्त्य सेन के रवींद्र और गांधी के संवाद के परिप्रेक्ष्य में भारत की परिकल्पना के बारे में नोबेल डाटआर्ग की चर्चा की थी,जिसे आज अमलेंदु ने वीडियों पर पढ़कर सुनाया और हम इसे अहिंदी भाषी पाठकों तक शेयर करने में लगे थे।आज रवींद्र साहित्य से हमने कुछ शेयर नहीं किया है।लेकिन रवींद्र के भारत के भविष्य को लेकर जो अंदेशा था और सत्ता हस्तातंरण के भारत के भविष्य के सांप्रदाटिक रुप में अंध राष्ट्रवाद के तहत खंडित राष्ट्रीयता को लेकर जो आतंक के चित्र हैं,वे हरियाणा,राजधानी नई दिल्ली और पंजाब में खुलकर सामने आ गये हैं।

अंग्रेजी हुकूमत के अंत पर स्वतंत्रता की मध्यरात्रि को भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने जो ट्रिस्ट विद डेस्टिनी का विश्वविख्यात भाषण में नियति के साथ अभिसार के कथानक के साथ नये भारत के निर्माण का संकल्प किया था,सीधे स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय जनता की ऐतिहासिक जीत की लड़ाई का नेतृत्व करते हुए संविधान सभा में पहुंचे हमारे पुरखों ने नये भारत का संविधान रचते हुए भारत की विविधता,बहुलता और सहिष्णुता के मानव धम्म की प्रस्तावना के साथ समता और न्याय पर आधारित जो भारत बनाने का संकल्प किया था,प्रार्थना सभा में गांधी की हत्या के बाद भारत विभाजन के होलोकास्ट की पृष्ठभूमि में आत्मघाती गृहयुद्ध का वह नजारा आर्यावर्त के प्राचीन भूगोल और महाभारत के इंद्रप्रस्थ को केंद्रित बेलगाम हिंसा के उत्सव में दोबारा देखने को मजबूर हैं।

अदालती फैसले के बाद बलात्कार के आरोप में दोषी पाये गये एक राम रहीम गुरु के चेलों ने कानून अपने हाथ में ले लिया है और पंजाब की कांग्रेस सरकार,नई दिल्ली में आप की सरकार के बावजूद कानून और व्यवस्था,पुलिस प्रशासन के लिए सीधे जिम्मेदार केंद्र सरकार और इस हिंसा के तांडव के एपिसेंटर हरियाणा की संघी सरकार  हिंसा की आशंका और कानून व्यवस्था अमन चैन बनाये रखने के लिए फैसले से पहले जो चेतावनी जारी की है,उसके विपरीत धर्म के नाम सीधे सड़कों पर उतरकर जिस तरह से बेगुनाह आम जनता पर हमले करके अब तक मिली खबरों के मुताबिक कम से कम 30 लोगों को मौत के घाट उतार दिया है,वह भारत की नियति का सच है जो बाबाओं और बाबियों के हवाले हैं।

विशुद्धता के नाम पर ,धर्म के नाम पर देशभक्ति का कारोबार और धर्म कर्म के नाम पर सत्ता में शामिल होकर कारपोरेट मुनाफा कमाने वाले कटकटेला अंधियारे के कारोबारी भगवा ब्रिगेड का भारत की संस्कृति,भारत की धार्मिक विरासत और भारत के इतिहास के खिलाफ,हिंदू धर्म के खिलाफ और मनुष्यता के खिलाफ भारत की नियति से बलात्कार है।

भारत माता की जयजयकार करते हुए,वंदे मातरम गाते हुए देश की हत्या का यह युद्ध अपराध है।

धर्म के नाम सांप्रदायिक तौर पर विभाजित देश के मानस का यह हाल है कि सैकडो़ं बच्चों के आक्सीजन के बिना तड़पकर मर जाने के बाद,प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लाखों लोगों के चरम संकट के बीच सिरे से तटस्थ है लेकिन धर्म कर्म के नाम पर अपराधी राम रहीम के नाम पर हुजूम के हुजूम लोग अपने ही धर्म,भाषा और क्षेत्र के लोगों को मारने और खुद मरने को उतारु है।

यही रवींद्र के भारत तीर्थ की नियति है और धर्म की राजनीति का हश्र यही है।ईश्वर और धर्म के नाम खुलेआम कत्लेआम करने वाले और संवैधानिक पदों से उनका बचाव करने वाले गुजरात नरसंहार संस्कृति के कातिलों के हावले हमने भारत का भविष्य छोड़ दिया है।

सत्ता हस्तातंरण के बाद भारत का भविष्य क्या होगा,इसके लिए सिर्फ गांधी,अंबेडकर और रवींद्र ही चिंतित नहीं थे,भारतीय बहुजन समाज के दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फासीवादी नाजी ताकतों के सांप्रदायिक मंसूबे से यही अंदेशा था।

महात्मा ज्योतिबा फूले और गुरुचांद ठाकुर को आशंका थी कि सत्ता हस्तातंरण के बाद पूरे देश पर नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व कायम हो जायेगा और ब्रिटिश हुकूमत के दौरान उन्हें मिले हकहकूक छिन जायेंगे।

हूबहू वही हो रहा है लेकिन बहुसंख्य बहुजन जनता का समूचा नेतृत्व उसी नस्ली सत्तावर्ग में शामिल है और बहुजन बहुसंख्य जनता धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर उनकी पैदल सेना में तब्दील है।

मंडल कमीशन की रपट लागू होने के बाद कमंडल की राजनीति के तहत मंदिर मस्जिद विवाद के तहत देश का धर्मांध ध्रूवीकरण रवींद्र का सभ्यता का संकट है तो मंडल कमीशन के मुताबिक पिछड़ों को जनसंख्या के मुताबिक अवसर देने के कार्यभार के तहत पिछड़ों की गिनती अभी तक नहीं हुई है और नस्ली विषमता की राजनीति के तहत नस्ली फासिज्म का राजकाज पिछड़ों को फिर तीन भागों में बांटने पर आमादा है।

समता और न्याय के लक्ष्यों का यह त्रासद अंत है और कोई पूछने वाला नहीं है कि संविधान का क्या हुआ,कानून के राज का क्या हुआ,क्याइसके लिए चीन,अमेरिका,इजराइल या पाकिस्तान जिम्मेदार हैं।

अदालती फैसले बेमतलब हो गये हैं।सुविधा के मुताबिक अपराधियों और युद्ध अपराधियों को फिर कत्लेआम के लिए खुल् ला छोड़ा जा जा रहा है।

निजता का मौलिक अधिकार को मान्यता मिल गयी है लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए आधार परियोजना लागू करके आम जनता के कत्लेआम का कारपोरेट हिंदुत्व का एजंडा लागू है।

जिन लोगों ने गांधी की हत्या कर दी,जो लोग ब्रिटिश हुकूमत का साथ दे रहे थे,जो लोग गुजरात नरसंहार और सिखों के कत्लेआम,असम और पूर्वोत्तर में नरसंहार को अंजाम दे रहे थे,वे ही हमारे भाग्यविधाता हैं और हमारी साधु संतों,गुरुओं,फकीरों,बाउलों की महान पंरपरा के खिलाफ भगवा चोला पहनकर धर्म की कारपोरेट कंपनियों के तमाम मैनेजर बने अपराधी तत्व देश में अमन चैन की फिजां को जहरीली बना रहे हैं और हम लोग खामोश तमाशबीन है।


रवींद्र दलित विमर्श-11 जैसे भारतवर्ष है ही नहीं ,जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं,सिर्फ वे ही हैं। युद्ध अपराधियों के सत्ता संघर्ष में भारतवर्ष लापता। पलाश विश्वास

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रवींद्र दलित विमर्श-11

जैसे भारतवर्ष है ही नहीं ,जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं,सिर्फ वे ही हैं।

युद्ध अपराधियों के सत्ता संघर्ष में भारतवर्ष लापता।


पलाश विश्वास

रवींद्र नाथ टैगोर ने भारतवर्षेर इतिहास में लिखा था कि मारकाट खूनखराबा के इतिहास के नजरिये से देखें तो जैसे भारतवर्ष है ही नहीं,जो मारकाट खूनखराबा करते हैं,सिर्फ वे ही हैं।नस्ली दृष्टि से हम जिस भारतवर्ष को देखते हैं,वह रवींद्रनाथ का भारत तीर्थ नहीं है और न वह जनगणमन का भारतवर्ष है।

समय और समाज का यथार्थ यही है कि भारतवर्ष कहीं है ही नहीं,जो हैं वे मारकाट खूनखराबा करनेवाले हैं।

युद्ध अपराधियों के सत्ता संघर्ष में भारतवर्ष लापता।

परसों से सोशल मीडिया के जरिये यह संवाद फेसबुक अपडेट न कर पाने से बाधित है।राम रहीम प्रसंग पर आगे कुछ भी कहना शायद विशेषाधिकार है।

जैसे गोरक्षकों के तांडव के खिलाफ प्रधान सेवक ने चेतावनी दी थी,पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा देश के प्रधानमंत्री या भाजपा के प्रधानमंत्री की हैसियत पर सवालिया निशान टांग दिये जाने के बाद आज फिर बहुलता विविधता और लोकंतंत्र की वाणी और साथ में आस्था के नाम हिंसा के खिलाफ कानून और व्यवस्था की दुहाई की गूंज अनुगूंज मीडिया में वसंत विहार है।

हमारे लिए यह संवाद जारी रखना अब मुश्किल लग रहा है क्योंकि बातें शायद कहीं पहुंच नहीं रही हैं।कोई प्रश्न प्रतिप्रश्न नहीं है,जिससे संवाद का क्रम बन सकें। संदर्भ सामग्री शेयर करने में भी अब बाधा पड़ रही है।

रवींद्र विमर्श की जो बची हुई पांडुलिपि है,उसे जस का तस पेश करना संभव नहीं है क्योंकि वह अकादमिक ज्यादा है।जो शायद सोशल मीडिया के लायक नहीं है।

रवींद्र का दलित विमर्श भारत के बहुजन आंदोलन के मुताबिक नहीं है और न इसकी भाषा बहुजन आंदोलन के मुताबिक है।

यह सीधे भारत की संत परंपरा के मुताबिक आध्यात्म और तात्विक विमर्श है,जो सामाजिक यथार्थ के मुताबिक बिना किसी की आस्था भावना को चोट पहुंचाए समानता और न्याय के पक्ष में संवाद है,जो बेहद जटिल है और सामाजिक यथार्थ की परत दर परत गहरी पैठी यह जीवनदृष्टि सीधे तौर पर वैदिकी सभ्यता के खिलाफ भी नहीं है तो बहुजन राजनीति के लिए यह काम की चीज नहीं है।

गांधी फिर भी अपने को हिंदू कहते रहे हैं और उनका यह हिंदुत्व उनकी राजनीति भी है।उनकी यह हिंदुत्व की राजनीति हिंदू समाज की एकता के पक्ष में है जो ब्राह्मणधर्म या ब्राह्मण वर्चस्व का विरोध नहीं करती।

ब्रह्मसमाजी पीराली ब्राह्मण रवींद्र हिंदुत्व के बजाय भारतीयता की बात करते रहे हैं लेकिन उनकी भारतीयता में हिंदुओं के साथ साथ मुसलमान और दूसरे गैर हिंदू, आर्यों के साथ साथ अनार्य, द्रविड़, शक, हुण, कुषाण, मुगल,पठान,अंग्रेज समेत मनुष्यता की समस्त धाराओं का एकीकरण और विलय है।

भारतीय इतिहास, संस्कृति और साझा विरासत का यह रसायन बेहद जटिल है।इसलिए वैदिकी साहित्य और बौद्ध साहित्य में अबाध विचरण करने वाले प्राच्य और पाश्चात्य के मेलबंधन से रवींद्र जिस मनुष्यता के धर्म की बात करते हैं,उसमें अस्पृश्यता के खिलाफ खुला विद्रोह होने के बावजूद वैदिकी संस्कृति और ब्राह्मण धर्म का विरोध नहीं है लेकिन वे मनुस्मृति अनुशासन के पक्ष में कहीं खड़े नहीं होते।

मेहनतकशों और किसानों के पक्ष में उनकी रचनाधसंदर्भ रूस की चिट्ठी।

इसीतरह विषमता के खिलाफ सामाजिक न्याय के बारे में उनका दलित विमर्श बहुजन आंदोलन के खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता।

रवींद्र नाथ राष्ट्रवाद के विरुद्ध थे तो अस्मिताओं के विलय से उनका भारत तीर्थ का निर्माण होता है जबकि समता और सामाजिक न्याय का बहुजन आंदोलन ब्राह्मणधर्म की विशुद्धता की रंगभेदी जातिव्यवस्था के तहत बनी अस्मिताओं का आंदोलन है।

राहुल सांकृत्यायन साम्यवादी थे और बौद्ध साहित्य और इतिहास के विद्वान भी थे।इसलिए भारतीय इतिहास के बारे में उनके अध्ययन में वैदिकी संस्कृति का वह महिमामंडन नहीं है जो रवींद्र के इतिहास बोध में है।

रवींद्र की गीतांजलि,उनके उपन्यासों,उनकी कविताओं और खासतौर पर दो हजार के करीब उनके गीतों में न्याय और समता,लोक और जनपद के जो सामाजिक यथार्थ हैं,उनके मुकाबले उनके निबंधों में वैदिकी संस्कृति का महिमामंडन कुछ ज्यादा ही है।वे हमेशा वैदिकी सभ्यता का महिमामंडन करते नजर आते हैं जिससे बौद्धमय भारत की उनकी रचनाधर्मिता लोगों को साफ साफ नजर नहीं आती।

इस बिंदू पर गांधी और रवींद्रनाथ दोनों ने समकालीन यथार्थ और भारत के भविष्य के मद्देनजर बहुसंख्य जनता की आस्था और भावनाओं के मुताबिक बहुलता और विविधता के लोकतंत्र पर फोकस किया है और बौद्धमय भारत के मूल्यों और आदर्शों के मुताबिक मनुष्यता के धर्म को अपने दर्शन का प्रस्थानबिंदू बनाया है।

अतीत के युद्धों के हिसाब किताब के मुताबिक गांधी और रवींद्र का भारत नहीं है।

हमने कल और परसो रवींद्रनाथ के लिखे निबंध भारतवर्षेर इतिहास का मूल पाठ शेयर करने की कोशिश की थी क्योंकि यह उनकी मशहूर कविता भारत तीर्थ और भारतवर्ष के उनके विमर्श का सामाजिक यथार्थ है।

इस निबंध में रवींद्र नाथ ने शुरुआत में ही लिखा हैः

ভারতবর্ষের যে ইতিহাস আমরা পড়ি এবং মুখস্থ করিয়া পরীক্ষা দিই, তাহা ভারতবর্ষের নিশীথকালের একটা দুঃস্বপ্নকাহিনীমাত্র। কোথা হইতে কাহারা আসিল, কাটাকাটি মারামারি পড়িয়া গেল, বাপে-ছেলেয় ভাইয়ে-ভাইয়ে সিংহাসন লইয়া টানাটানি চলিতে লাগিল, একদল যদি বা যায় কোথা হইতে আর-একদল উঠিয়া পড়ে–পাঠান-মোগল পর্তুগীজ-ফরাসী-ইংরাজ সকলে মিলিয়া এই স্বপ্নকে উত্তরোত্তর জটিল করিয়া তুলিয়াছে।

भारतवर्ष का जो इतिहास हम पढ़ते हैं और जिसे रटकर हम परीक्षाओं में बैठते हैं,वह भारत वर्ष के निशीथकाल की एक दुःस्वप्नमय कहानी मात्र है।कहां से कौन आया, मारकाट शुरु हो गयी,खूनखराबा हो गया,राजगद्दी लेकर बाप बेटे,भाई भाई में रस्साकशी होने लगी,एक समूह कहीं चला जाता है तो कहीं और से किसी और समूह का उत्थान हो जाता-पठान-मुगल पुर्तगीज फ्रांसीसी सभी मिलकर इस बुरे सपने को लगातार जटिल बनाते चले गये।

কিন্তু এই রক্তবর্ণে রঞ্জিত পরিবর্তমান স্বপ্নদৃশ্যপটের দ্বারা ভারতবর্ষকে আচ্ছন্ন করিয়া দেখিলে যথার্থ ভারতবর্ষকে দেখা হয় না। ভারতবাসী কোথায়, এ-সকল ইতিহাস তাহার কোনো উত্তর দেয় না। যেন ভারতবাসী নাই, কেবল যাহারা কাটাকাটি খুনাখুনি করিয়াছে তাহারাই আছে।

लेकिन इस रक्तरंग रंजित परिवर्तनमान स्वप्नदृश्यपट द्वारा भारतवर्ष को आच्छन्न करके देखने पर यथार्थ के भारतवर्ष का दर्शन नहीं होता।भारतवर्ष कहां है,इस तरह का इतिहास इसका कोई जवाब नहीं देता।इससे लगता है कि भारतवर्ष है ही नहीं ,जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं,वे ही हैं।

তখনকার দুর্দিনেও এই কাটাকাটি-খুনাখুনিই যে ভারতবর্ষের প্রধানতম ব্যাপার তাহা নহে। ঝড়ের দিনে যে ঝড়ই সর্বপ্রধান ঘটনা, তাহা তাহার গর্জনসত্ত্বেও স্বীকার করা যায় না–সেদিনও সেই ধূলিসমাচ্ছন্ন আকাশের মধ্যে পল্লীর গৃহে গৃহে যে জন্মমৃত্যু-সুখদুঃখের প্রবাহ চলিতে থাকে, তাহা ঢাকা পড়িলেও, মানুষের পক্ষে তাহাই প্রধান। কিন্তু বিদেশী পথিকের কাছে এই ঝড়টাই প্রধান, এই ধূলিজালই তাহার চক্ষে আর-সমস্তই গ্রাস করে; কারণ, সে ঘরের ভিতরে নাই, সে ঘরের বাহিরে। সেইজন্য বিদেশীর ইতিহাসে এই ধূলির কথা ঝড়ের কথাই পাই, ঘরের কথা কিছুমাত্র পাই না। সেই ইতিহাস পড়িলে মনে হয়, ভারতবর্ষ তখন ছিল না, কেবল মোগল-পাঠানের গর্জনমুখর বাত্যাবর্ত শুষ্কপত্রের ধ্বজা তুলিয়া উত্তর হইতে দক্ষিণে এবং পশ্চিম হইতে পূর্বে ঘুরিয়া ঘুরিয়া বেড়াইতেছিল।

तत्कालीन दुःसमय के दौरान भी यह मारकाट,खूनखराबा भारतवर्ष का मुख्य मसला रहा हो,ऐसा भी नहीं है।आंधी के दिन आंधी सबसे बड़ी घटना है,वह उसके गर्जन के बावजूद माना नहीं जा सकता-उसदिन भी उस धूल में ओझल आसमान के नीचे गांव देहात के घर घर में जो जन्म मृत्यु-सुख दुःख का प्रवाह जारी रहता है,वह छुप जाने के बावजूद मनुष्यों के लिए वही मुख्य है। लेकिन किसी विदेशी पर्यटक के लिए वह आंधी ही मुख्य है,यह धूल से बना जाल ही उसकी आंखों में सबकुछ है क्योंकि वह घर के भीतर नहीं है,वह घर के बाहर है।इसलिए विदेशी इतिहास में हम इस धूल,इस आंधी की कहानी पाते हैं,घर की कोई बात वहां एकदम होती नहीं है।वह इतिहास पढ़ने पर लगता है कि तब भारतवर्ष कहीं था नहीं,सिर्फ मुगल पठान के वर्चस्व का गर्जनमुखर सूखे पत्तों का ध्वज की आंधियां उत्तर से दक्षिण एवं पश्चिम से पूरब तक चल रही थीं।

কিন্তু বিদেশ যখন ছিল দেশ তখনো ছিল, নহিলে এই-সমস্ত উপদ্রবের মধ্যে কবীর নানক চৈতন্য তুকারাম ইঁহাদিগকে জন্ম দিল কে? তখন যে কেবল দিল্লি এবং আগ্রা ছিল তাহা নহে, কাশী এবং নবদ্বীপও ছিল। তখন প্রকৃত ভারতবর্ষের মধ্যে যে জীবনস্রোত বহিতেছিল, যে চেষ্টার তরঙ্গ উঠিতেছিল, যে সামাজিক পরিবর্তন ঘটিতেছিল, তাহার বিবরণ ইতিহাসে পাওয়া যায় না।

किंतु विदेश जब रहा है तब स्वदेश भी था।वरना इसी उपद्रव के मध्य कबीर नानक चैतन्य तुकाराम जैसे मनीषियों को किसने जन्म दिया?उस वक्त सिर्फ दिल्ली और आगरा ही नहीं,काशी और नवद्वीप भी मौजूद थे।तभी असल भारतवर्ष के भीतर जो जीवनस्रोत बह रहा था,जो चेष्टाओं की तरंगें उठ रही थीं,जो सामाजिक परिवर्तन हो रहे थे,उसका विवरण इतिहास में नहीं है।

इस पूरे निबंध में अनेकता में एकता और सत्ता संघर्ष के विपरीत जनपदों की लोकजमीन पर संस्कृतियों की साझा विरासत में मौजूद भारतवर्ष की बात रवींद्रनाथ ने की है।इसी आलेख में भारतवर्ष की संस्कृति को मनुष्यता के धर्म के रुप में देखते हुए रवींद्र नाथ ने सामाजिक और लोक जीवन को धार्मिक मानते हुए लोक आस्था की सार्वजनिक साझा विरासत की बातें की हैं जो राजनीति और सत्ता संघर्ष के इतिहास के दायरे से बाहर है।

बाकी आलेख का मूल पाठ इस प्रकार हैः

মামুদের আক্রমণ হইতে লর্ড্ কার্জনের সাম্রাজ্যগর্বোদ্‌গার-কাল পর্যন্ত যে-কিছু ইতিহাসকথা তাহা ভারতবর্ষের পক্ষে বিচিত্র কুহেলিকা; তাহা স্বদেশ সম্বন্ধে আমাদের দৃষ্টির সহায়তা করে না, দৃষ্টি আবৃত করে মাত্র। তাহা এমন স্থানে কৃত্রিম আলোক ফেলে, যাহাতে আমাদের দেশের দিকটাই আমাদের চোখে অন্ধকার হইয়া যায়। সেই অন্ধকারের মধ্যে নবাবের বিলাসশালার দীপালোকে নর্তকীর মণিভূষণ জ্বলিয়া উঠে, বাদশাহের সুরাপাত্রের রক্তিম ফেনোচ্ছ্বাস উন্মত্ততার জাগররক্ত দীপ্তনেত্রের ন্যায় দেখা দেয়; সেই অন্ধকারে আমাদের প্রাচীন দেবমন্দির-সকল মস্তক আবৃত করে এবং সুলতান-প্রেয়সীদের শ্বেতমর্মররচিত কারুখচিত কবরচূড়া নক্ষত্রলোক চুম্বন করিতে উদ্যত হয়। সেই অন্ধকারের মধ্যে অশ্বের ক্ষুরধ্বনি, হস্তীর বৃংহিত, অস্ত্রের ঝঞ্ঝনা, সুদূরব্যাপী শিবিরের তরঙ্গিত পাণ্ডুরতা, কিংখাব-আস্তরণের স্বর্ণচ্ছটা, মসজিদের ফেনবুদ্‌বুদাকার পাষাণমণ্ডপ, খোজাপ্রহরিরক্ষিত প্রাসাদ-অন্তঃপুরে রহস্যনিকেতনের নিস্তব্ধ মৌন–এ-সমস্তই বিচিত্র শব্দে ও বর্ণে ও ভাবে যে প্রকাণ্ড ইন্দ্রজাল রচনা করে তাহাকে ভারতবর্ষের ইতিহাস বলিয়া লাভ কী? তাহা ভারতবর্ষের পুণ্যমন্ত্রের পুঁথিটিকে একটি অপরূপ আরব্য উপন্যাস দিয়া মুড়িয়া রাখিয়াছে–সেই পুঁথিখানি কেহ খোলে না, সেই আরব্য উপন্যাসেরই প্রত্যেক ছত্র ছেলেরা মুখস্থ করিয়া লয়। তাহার পরে প্রলয়রাত্রে এই মোগলসাম্রাজ্য যখন মুমূর্ষু, তখন শ্মশানস্থলে দূরাগত গৃধ্রগণের পরস্পরের মধ্যে যে-সকল চাতুরী প্রবঞ্চনা হানাহানি পড়িয়া গেল, তাহাও কি ভারতবর্ষের ইতিবৃত্ত? এবং তাহার পর হইতে পাঁচ পাঁচ বৎসরে বিভক্ত ছক-কাটা শতরঞ্চের মতো ইংরাজশাসন, ইহার মধ্যে ভারতবর্ষ আরো ক্ষুদ্র; বস্তুত শতরঞ্চের সহিত ইহার প্রভেদ এই যে ইহার ঘরগুলি কালোয় সাদায় সমান বিভক্ত নহে, ইহার পনেরো-আনাই সাদা। আমরা পেটের অন্নের বিনিময়ে সুশাসন সুবিচার সুশিক্ষা সমস্তই একটি বৃহৎ হোআইট্যাওয়ে লেড্‌ল'র দোকান হইতে কিনিয়া লইতেছি–আর-সমস্ত দোকানপাট বন্ধ। এ কারখানাটির বিচার হইতে বাণিজ্য পর্যন্ত সমস্তই সু হইতে পারে, কিন্তু ইহার মধ্যে কেরানিশালার এক কোণে আমাদের ভারতবর্ষের স্থান অতি যৎসামান্য। ইতিহাস সকল দেশে সমান হইবেই, এ কুসংস্কার বর্জন না করিলে নয়। যে ব্যক্তি রথ্‌চাইল্‌ডের জীবনী পড়িয়া পাকিয়া গেছে, সে খ্রীস্টের জীবনীর বেলায় তাঁহার হিসাবের খাতাপত্র ও আপিসের ডায়ারি তলব করিতে পারে; যদি সংগ্রহ করিতে না পারে তবে তাহার অবজ্ঞা জন্মিবে এবং সে বলিবে, যাহার এক পয়সার সংগতি ছিল না তাহার আবার জীবনী কিসের? তেমনি ভারতবর্ষের রাষ্ট্রীয় দফ্‌তর হইতে তাহার রাজবংশমালা ও জয়পরাজয়ের কাগজপত্র না পাইলে যাঁহারা ভারতবর্ষের ইতিহাস সম্বন্ধে হতাশ্বাস হইয়া পড়েন এবং বলেন'যেখানে পলিটিক্স্‌ নাই সেখানে আবার হিস্ট্রি কিসের', তাঁহারা ধানের খেতে বেগুন খুঁজিতে যান এবং না পাইলে মনের ক্ষোভে ধানকে শস্যের মধ্যেই গণ্য করেন না। সকল খেতের আবাদ এক নহে, ইহা জানিয়া যে ব্যক্তি যথাস্থানে উপযুক্ত শস্যের প্রত্যাশা করে সেই প্রাজ্ঞ।

যিশুখ্রীস্টের হিসাবের খাতা দেখিলে তাঁহার প্রতি অবজ্ঞা জন্মিতে পারে, কিন্তু তাঁহার অন্য বিষয় সন্ধান করিলে খাতাপত্র সমস্ত নগণ্য হইয়া যায়। তেমনি রাষ্ট্রীয় ব্যাপারে ভারতবর্ষকে দীন বলিয়া জানিয়াও অন্য বিশেষ দিক হইতে সে দীনতাকে তুচ্ছ করিতে পারা যায়। ভারতবর্ষের সেই নিজের দিক হইতে ভারতবর্ষকে না দেখিয়া আমরা শিশুকাল হইতে তাহাকে খর্ব করিতেছি ও নিজে খর্ব হইতেছি। ইংরাজের ছেলে জানে, তাহার বাপ-পিতামহ অনেক যুদ্ধজয় দেশ-অধিকার ও বাণিজ্যব্যবসায় করিয়াছে; সেও নিজেকে রণগৌরব ধনগৌরব রাজ্যগৌরবের অধিকারী করিতে চায়। আমরা জানি, আমাদের পিতামহগণ দেশ-অধিকার ও বাণিজ্যবিস্তার করেন নাই–এইটে জানাইবার জন্যই ভারতবর্ষের ইতিহাস। তাঁহারা কী করিয়াছিলেন জানি না, সুতরাং আমরা কী করিব তাহাও জানি না। সুতরাং পরের নকল করিতে হয়। ইহার জন্য কাহাকে দোষ দিব? ছেলেবেলা হইতে আমরা যে প্রণালীতে যে শিক্ষা পাই তাহাতে প্রতিদিন দেশের সহিত আমাদের বিচ্ছেদ ঘটিয়া ক্রমে দেশের বিরুদ্ধে আমাদের বিদ্রোহভাব জন্মে।

আমাদের দেশের শিক্ষিত লোকেরাও ক্ষণে ক্ষণে হতবুদ্ধির ন্যায় বলিয়া উঠেন, দেশ তুমি কাহাকে বল, আমাদের দেশের বিশেষ ভাবটা কী, তাহা কোথায় আছে, তাহা কোথায় ছিল? প্রশ্ন করিয়া ইহার উত্তর পাওয়া যায় না। কারণ, কথাটা এত সূক্ষ্ম, এত বৃহৎ, যে ইহা কেবলমাত্র যুক্তির দ্বারা বোধগম্য নহে। ইংরাজ বল, ফরাসি বল, কোনো দেশের লোকই আপনার দেশীয় ভাবটি কী, দেশের মূল মর্মস্থানটি কোথায়, তাহা এক কথায় ব্যক্ত করিতে পারে না–তাহা দেহস্থিত প্রাণের ন্যায় প্রত্যক্ষ সত্য, অথচ প্রাণের ন্যায় সংজ্ঞা ও ধারণার পক্ষে দুর্গম। তাহা শিশুকাল হইতে আমাদের জ্ঞানের ভিতর, আমাদের প্রেমের ভিতর, আমাদের কল্পনার ভিতর নানা অলক্ষ্য পথ দিয়া নানা আকারে প্রবেশ করে। সে তাহার বিচিত্র শক্তি দিয়া আমাদিগকে নিগূঢ়ভাবে গড়িয়া তোলে–আমাদের অতীতের সহিত বর্তমানের ব্যবধান ঘটিতে দেয় না–তাহারই প্রসাদে আমরা বৃহৎ, আমরা বিচ্ছিন্ন নহি। এই বিচিত্র-উদ্যম-সম্পন্ন গুপ্ত পুরাতনী শক্তিকে সংশয়ী জিজ্ঞাসুর কাছে আমরা সংজ্ঞার দ্বারা দুই-চার কথায় ব্যক্ত করিব কী করিয়া? ভারতবর্ষের প্রধান সার্থকতা কী, এ কথার স্পষ্ট উত্তর যদি কেহ জিজ্ঞাসা করেন সে উত্তর আছে; ভারতবর্ষের ইতিহাস সেই উত্তরকেই সমর্থন করিবে। ভারতবর্ষের চিরদিনই একমাত্র চেষ্টা দেখিতেছি প্রভেদের মধ্যে ঐক্যস্থাপন করা, নানা পথকে একই লক্ষ্যের অভিমুখীন করিয়া দেওয়া এবং বহুর মধ্যে এককে নিঃসংশয়রূপে অন্তরতররূপে উপলব্ধি করা–বাহিরে যে-সকল পার্থক্য প্রতীয়মান হয় তাহাকে নষ্ট না করিয়া তাহার ভিতরকার নিগূঢ় যোগকে অধিকার করা।

এই এককে প্রত্যক্ষ করা এবং ঐক্যবিস্তারের চেষ্টা করা ভারতবর্ষের পক্ষে একান্ত স্বাভাবিক। তাহার এই স্বভাবই তাহাকে চিরদিন রাষ্ট্রগৌরবের প্রতি উদাসীন করিয়াছে। কারণ, রাষ্ট্রগৌরবের মূলে বিরোধের ভাব। যাহারা পরকে একান্ত পর বলিয়া সর্বান্তঃকরণে অনুভব না করে তাহারা রাষ্ট্রগৌরবলাভকে জীবনের চরম লক্ষ্য বলিয়া মনে করিতে পারে না! পরের বিরুদ্ধে আপনাকে প্রতিষ্ঠিত করিবার যে চেষ্টা তাহাই পোলিটিক্যাল উন্নতির ভিত্তি; এবং পরের সহিত আপনার সম্বন্ধবন্ধন ও নিজের ভিতরকার বিচিত্র বিভাগ ও বিরোধের মধ্যে সামঞ্জস্য-স্থাপনের চেষ্টা, ইহাই ধর্মনৈতিক ও সামাজিক উন্নতির ভিত্তি। য়ুরোপীয় সভ্যতা যে ঐক্যকে আশ্রয় করিয়াছে তাহা বিরোধমূলক; ভারতবর্ষীয় সভ্যতা যে ঐক্যকে আশ্রয় করিয়াছে তাহা মিলনমূলক। য়ুরোপীয় পোলিটিক্যাল ঐক্যের ভিতরে যে বিরোধের ফাঁস রহিয়াছে তাহা তাহাকে পরের বিরুদ্ধে টানিয়া রাখিতে পারে, কিন্তু তাহাকে নিজের মধ্যে সামঞ্জস্য দিতে পারে না। এইজন্য তাহা ব্যক্তিতে ব্যক্তিতে, রাজায় প্রজায়, ধনীতে দরিদ্রে, বিচ্ছেদ ও বিরোধকে সর্বদা জাগ্রত করিয়াই রাখিয়াছে। তাহারা সকলে মিলিয়া যে নিজ নিজ নির্দিষ্ট অধিকারের দ্বারা সমগ্র সমাজকে বহন করিতেছে তাহা নয়,তাহারা পরস্পরের প্রতিকূল–যাহাতে কোনো পক্ষের বলবৃদ্ধি না হয়,অপর পক্ষের ইহাই প্রাণপণ সতর্ক চেষ্টা। কিন্তু সকলে মিলিয়া যেখানে ঠেলাঠেলি করিতেছে সেখানে বলের সামঞ্জস্য হইতে পারে না–সেখানে কালক্রমে জনসংখ্যা যোগ্যতার অপেক্ষা বড়ো হইয়া উঠে, উদ্যম গুণের অপেক্ষা শ্রেষ্ঠতা লাভ করে এবং বণিকের ধনসংহতি গৃহস্থের ধনভাণ্ডারগুলিকে অভিভূত করিয়া ফেলে–এইরূপে সমাজের সামঞ্জস্য নষ্ট হইয়া যায় এবং এই-সকল বিসদৃশ বিরোধী অঙ্গগুলিকে কোনোমতে জোড়াতাড়া দিয়া রাখিবার জন্য গবর্মেন্ট্‌ কেবলই আইনের পর আইন সৃষ্টি করিতে থাকে। ইহা অবশ্যম্ভাবী। কারণ, বিরোধ যাহার বীজ বিরোধই তাহার শস্য; মাঝখানে যে পরিপুষ্ট পল্লবিত ব্যাপারটিকে দেখিতে পাওয়া যায় তাহা এই বিরোধশস্যেরই প্রাণবান বলবান বৃক্ষ।

ভারতবর্ষ বিসদৃশকেও সম্বন্ধবন্ধনে বাঁধিবার চেষ্টা করিয়াছে। যেখানে যথার্থ পার্থক্য আছে সেখানে সেই পার্থক্যকে যথাযোগ্য স্থানে বিন্যস্ত করিয়া, সংযত করিয়া, তবে তাহাকে ঐক্যদান করা সম্ভব। সকলেই এক হইল বলিয়া আইন করিলেই এক হয় না। যাহারা এক হইবার নহে তাহাদের মধ্যে সম্বন্ধস্থাপনের উপায়-তাহাদিগকে পৃথক অধিকারের মধ্যে বিভক্ত করিয়া দেওয়া। পৃথককে বলপূর্বক এক করিলে তাহারা একদিন বলপূর্বক বিচ্ছিন্ন হইয়া যায়, সেই বিচ্ছেদের সময় প্রলয় ঘটে। ভারতবর্ষ মিলনসাধনের এই রহস্য জানিত। ফরাসি বিদ্রোহ গায়ের জোরে মানবের সমস্ত পার্থক্য রক্ত দিয়া মুছিয়া ফেলিবে এমন স্পর্ধা করিয়াছিল, কিন্তু ফল উল্‌টা হইয়াছে–য়ুরোপের রাজশক্তি, প্রজাশক্তি, ধনশক্তি, জনশক্তি ক্রমেই অত্যন্ত বিরুদ্ধ হইয়া উঠিতেছে। ভারতবর্ষের লক্ষ্য ছিল সকলকেই ঐক্যসূত্রে আবদ্ধ করা, কিন্তু তাহার উপায় ছিল স্বতন্ত্র। ভারতবর্ষ সমাজের সমস্ত প্রতিযোগী বিরোধী শক্তিকে সীমাবদ্ধ ও বিভক্ত করিয়া সমাজকলেবরকে এক এবং বিচিত্র কর্মের উপযোগী করিয়াছিল, নিজ নিজ অধিকারকে ক্রমাগতই লঙ্ঘন করিবার চেষ্টা করিয়া বিরোধবিশৃঙ্খলা জাগ্রত করিয়া রাখিতে দেয় নাই। পরস্পর প্রতিযোগিতার পথেই সমাজের সকল শক্তিকে অহরহ সংগ্রামপরায়ণ করিয়া তুলিয়া ধর্ম কর্ম গৃহ সমস্তকেই আবর্তিত আবিল উদ্‌ভ্রান্ত করিয়া রাখে নাই। ঐক্যনির্ণয় মিলনসাধন এবং শান্তি ও স্থিতির মধ্যে পরিপূর্ণ পরিণতি ও মুক্তিলাভের অবকাশ, ইহাই ভারতবর্ষের লক্ষ্য ছিল। বিধাতা ভারতবর্ষের মধ্যে বিচিত্র জাতিকে টানিয়া আনিয়াছেন। ভারতবর্ষীয় আর্য যে শক্তি পাইয়াছে সেই শক্তি চর্চা করিবার অবসর ভারতবর্ষ অতি প্রাচীনকাল হইতেই পাইয়াছে। ঐক্যমূলক যে সভ্যতা মানবজাতির চরম সভ্যতা, ভারতবর্ষ চিরদিন ধরিয়া বিচিত্র উপকরণে তাহার ভিত্তিনির্মাণ করিয়া আসিয়াছে। পর বলিয়া সে কাহাকেও দূর করে নাই, অনার্য বলিয়া সে কাহাকেও বহিষ্কৃত করে নাই, অসংগত বলিয়া সে কিছুকেই উপহাস করে নাই। ভারতবর্ষ সমস্তই গ্রহণ করিয়াছে, সমস্তই স্বীকার করিয়াছে। এত গ্রহণ করিয়াও আত্মরক্ষা করিতে হইলে এই পুঞ্জীভূত সামগ্রীর মধ্যে নিজের ব্যবস্থা নিজের শৃঙ্খলা স্থাপন করিতে হয়–পশুযুদ্ধ-ভূমিতে পশুদলের মতো ইহাদিগকে পরস্পরের উপর ছাড়িয়া দিলে চলে না। ইহাদিগকে বিহিত নিয়মে বিভক্ত স্বতন্ত্র করিয়া একটি মূল ভাবের দ্বারা বদ্ধ করিতে হয়। উপকরণ যেখানকার হউক সেই শৃঙ্খলা ভারতবর্ষের, সেই মূলভাবটি ভারতবর্ষের। য়ুরোপ পরকে দূর করিয়া, উৎসাদন করিয়া, সমাজকে নিরাপদ রাখিতে চায়; আমেরিকা অস্ট্রেলিয়া নিয়ুজীলাণ্ড কেপ-কলনীতে তাহার পরিচয় আমরা আজ পর্যন্ত পাইতেছি। ইহার কারণ, তাহার নিজের সমাজের মধ্যে একটি সুবিহিত শৃঙ্খলার ভাব নাই–তাহার নিজেরই ভিন্ন সম্প্রদায়কে সে যথোচিত স্থান দিতে পারে নাই এবং যাহারা সমাজের অঙ্গ তাহাদের অনেকেই সমাজের বোঝার মতো হইয়াছে–এরূপ স্থলে বাহিরের লোককে সে সমাজ নিজের কোন্‌খানে আশ্রয় দিবে? আত্মীয়ই যেখানে উপদ্রব করিতে উদ্যত সেখানে বাহিরের লোককে কেহ স্থান দিতে চায় না। যে সমাজে শৃঙ্খলা আছে, ঐক্যের বিধান আছে, সকলের স্বতন্ত্র স্থান ও অধিকার আছে, সেই সমাজেই পরকে আপন করিয়া লওয়া সহজ। হয় পরকে কাটিয়া মারিয়া খেদাইয়া নিজের সমাজ ও সভ্যতাকে রক্ষা করা, নয় পরকে নিজের বিধানে সংযত করিয়া সুবিহিত শৃঙ্খলার মধ্যে স্থান করিয়া দেওয়া, এই দুইরকম হইতে পারে। য়ুরোপ প্রথম প্রণালীটি অবলম্বন করিয়া সমস্ত বিশ্বের সঙ্গে বিরোধ উন্মুক্ত করিয়া রাখিয়াছে–ভারতবর্ষ দ্বিতীয় প্রণালী অবলম্বন করিয়া সকলকেই ক্রমে ক্রমে ধীরে ধীরে আপনার করিয়া লইবার চেষ্টা করিয়াছে। যদি ধর্মের প্রতি শ্রদ্ধা থাকে, যদি ধর্মকেই মানবসভ্যতার চরম আদর্শ বলিয়া স্থির করা যায়, তবে ভারতবর্ষের প্রণালীকেই শ্রেষ্ঠতা দিতে হইবে।

রকে আপন করিতে প্রতিভার প্রয়োজন। অন্যের মধ্যে প্রবেশ করিবার শক্তি এবং অন্যকে সম্পূর্ণ আপনার করিয়া লইবার ইন্দ্রজাল, ইহাই প্রতিভার নিজস্ব। ভারতবর্ষের মধ্যে সেই প্রতিভা আমরা দেখিতে পাই। ভারতবর্ষ অসংকোচে অন্যের মধ্য প্রবেশ করিয়াছে এবং অনায়াসে অন্যের সামগ্রী নিজের করিয়া লইয়াছে। বিদেশী যাহাকে পৌত্তলিকতা বলে ভারতবর্ষ তাহাকে দেখিয়া ভীত হয় নাই, নাসা কুঞ্চিত করে নাই। ভারতবর্ষ পুলিন্দ শবর ব্যাধ প্রভৃতিদের নিকট হইতেও বীভৎস সামগ্রী গ্রহণ করিয়া তাহার মধ্যে নিজের ভাব বিস্তার করিয়াছে, তাহার মধ্য দিয়াও নিজের আধ্যাত্মিকতাকে অভিব্যক্ত করিয়াছে। ভারতবর্ষ কিছুই ত্যাগ করে নাই এবং গ্রহণ করিয়া সকলই আপনার করিয়াছে।

এই ঐক্যবিস্তার ও শৃঙ্খলাস্থাপন কেবল সমাজব্যবস্থায় নহে, ধর্মনীতিতেও দেখি। গীতায় জ্ঞান প্রেম ও কর্মের মধ্যে যে সম্পূর্ণ সামঞ্জস্য-স্থাপনের চেষ্টা দেখি তাহা বিশেষরূপে ভারতবর্ষের। য়ুরোপে রিলিজন বলিয়া যে শব্দ আছে ভারতবর্ষীয় ভাষায় তাহার অনুবাদ অসম্ভব; কারণ, ভারতবর্ষ ধর্মের মধ্যে মানসিক বিচ্ছেদ ঘটিতে বাধা দিয়াছে–আমাদের বুদ্ধি-বিশ্বাস-আচরণ, আমাদের ইহকাল-পরকাল, সমস্ত জড়াইয়াই ধর্ম। ভারতবর্ষ তাহাকে খন্ডিত করিয়া কোনোটাকে পোশাকি এবং কোনোটাকে আটপৌরে করিয়া রাখে নাই। হাতের জীবন, পায়ের জীবন, মাথার জীবন, উদরের জীবন যেমন আলাদা নয়–বিশ্বাসের ধর্ম, আচরণের ধর্ম, রবিবারের ধর্ম, অপর ছয়দিনের ধর্ম, গির্জার ধর্ম, এবং গৃহের ধর্মে ভারতবর্ষ ভেদ ঘটাইয়া দেয় নাই। ভারতবর্ষের ধর্ম সমস্ত সমাজেরই ধর্ম, তাহার মূল মাটির ভিতরে এবং মাথা আকাশের মধ্যে; তাহার মূলকে স্বতন্ত্র ও মাথাকে স্বতন্ত্র করিয়া ভারতবর্ষ দেখে নাই–ধর্মকে ভারতবর্ষ দ্যুলোকভূলোকব্যাপী মানবের-সমস্তজীবন-ব্যাপী একটি বৃহৎ বনস্পতিরূপে দেখিয়াছে। পৃথিবীর সভ্যসমাজের মধ্যে ভারতবর্ষ নানাকে এক করিবার আদর্শরূপে বিরাজ করিতেছে, তাহার ইতিহাস হইতে ইহাই প্রতিপন্ন হইবে। এককে বিশ্বের মধ্যে ও নিজের আত্মার মধ্যে অনুভব করিয়া সেই এককে বিচিত্রের মধ্যে স্থাপন করা, জ্ঞানের দ্বারা আবিষ্কার করা, কর্মের দ্বারা প্রতিষ্ঠিত করা, প্রেমের দ্বারা উপলব্ধি করা এবং জীবনের দ্বারা প্রচার করা–নানা বাধা-বিপত্তি দুর্গতি-সুগতির মধ্যে ভারতবর্ষ ইহাই করিতেছে। ইতিহাসের ভিতর দিয়া যখন ভারতের সেই চিরন্তন ভাবটি অনুভব করিব তখন আমাদের বর্তমানের সহিত অতীতের বিচ্ছেদ বিলুপ্ত হইবে।

বিদেশের শিক্ষা ভারতবর্ষকে অতীতে ও বর্তমানে দ্বিধা বিভক্ত করিতেছে। যিনি সেতু নির্মাণ করিবেন তিনি আমাদিগকে রক্ষা করিবেন। যদি সেই সেতু নির্মিত হয় তবে এই দ্বিধারও সফলতা আছে; কারণ, বিচ্ছেদের আঘাত না পাইলে মিলন সচেতন হয় না। যদি আমাদের মধ্যে কিছুমাত্র পদার্থ থাকে তবে বিদেশ আমাদিগকে যে আঘাত করিতেছে সেই আঘাতে স্বদেশকেই আমরা নিবিড়তররূপে উপলব্ধি করিব। প্রবাসে নির্বাসনই আমাদের কাছে গৃহের মাহাত্ম্যকে মহত্তম করিয়া তুলিবে।

মামুদ ও মহম্মদ ঘোরির বিজয়বার্তার সন তারিখ আমরা মুখস্থ করিয়া পরীক্ষায় প্রথম শ্রেণীতে উত্তীর্ণ হইয়াছি, এখন যিনি সমস্ত ভারতবর্ষকে সম্মুখে মূর্তিমান করিয়া তুলিবেন অন্ধকারের মধ্যে দাঁড়াইয়া সেই ঐতিহাসিককে আমরা আহ্বান করিতেছি। তিনি তাঁহার শ্রদ্ধার দ্বারা আমাদের মধ্যে শ্রদ্ধার সঞ্চার করিবেন, আমাদিগকে প্রতিষ্ঠা দান করিবেন, আমাদের আত্ম-উপহাস আত্ম-অবিশ্বাস অতি অনায়াসে তিরস্কৃত করিবেন, আমাদিগকে এমন প্রাচীন সম্পদের অধিকারী করিবেন যে পরের ছদ্মবেশ নিজের লজ্জা লুকাইবার আর প্রবৃত্তি থাকিবে না। তখন এ কথা আমরা বুঝিব, পৃথিবীতে ভারতবর্ষের একটি মহৎ স্থান আছে, আমাদের মধ্যে মহৎ আশার কারণ আছে; আমরা কেবল গ্রহণ করিব না, অনুকরণ করিব না, দান করিব, প্রবর্তন করিব, এমন সম্ভাবনা আছে; পলিটিক্‌স্‌ এবং বাণিজ্যই আমাদের চরমতম গতিমুক্তি নহে, প্রাচীন ব্রহ্মচর্যের পথে বৈরাগ্যকঠিন দারিদ্র্যগৌরব শিরোধার্য করিয়া দুর্গম নির্মল মাহাত্ম্যের উন্নততম শিখরে অধিরোহণ করিবার জন্য আমাদের ঋষি-পিতামহদের সুগম্ভীর নিদেশ-নির্দেশ প্রাপ্ত হইয়াছি–সে পথে পণ্যভারাক্রান্ত অন্য কোনো পানথ নাই বলিয়া আমরা ফিরিব না, গ্রনথভারনত শিক্ষকমহাশয় সে পথে চলিতেছেন না বলিয়া লজ্জিত হইব না। মূল্য না দিলে কোনো মূল্যবান জিনিসকে আপনার করা যায় না। ভিক্ষা করিতে গেলে কেবল খুদকুঁড়া মেলে; তাহাতে পেট অল্পই ভরে, অথচ জাতিও থাকে না। বিদেশকে যতক্ষণ আমরা কিছু দিতে পারি না, বিদেশ হইতে ততক্ষণ আমরা কিছু লইতেও পারি না; লইলেও তাহার সঙ্গে আত্মসম্মান থাকে না বলিয়াই তাহা তেমন করিয়া আপনার হয় না, সংকোচে সে অধিকার চিরদিন অসম্পূর্ণ ও অসংগত হইয়া থাকে। যখন গৌরবসহকারে দিব তখন গৌরবসহকারে লইব। হে ঐতিহাসিক, আমাদের সেই দিবার সংগতি কোন্‌ প্রাচীন ভাণ্ডারে সঞ্চিত হইয়া আছে তাহা দেখাইয়া দাও, তাহার দ্বার উদ্‌ঘাটন করো। তাহার পর হইতে আমাদের গ্রহণ করিবার শক্তি বাধাহীন ও অকুন্ঠিত হইবে, আমাদের উন্নতি ও শ্রীবৃদ্ধি অকৃত্তিম ও স্বভাবসিদ্ধ হইয়া উঠিবে। ইংরাজ নিজেকে সর্বত্র প্রসারিত, দ্বিগুণিত, চতুর্গুণিত করাকেই জগতের সর্বশ্রেষ্ঠ শ্রেয় বলিয়া জ্ঞান করিয়াছে; তাহাদের বুদ্ধিবিচারের এই উন্মত্ত অন্ধ অবস্থায় তাহারা ধৈর্যের সহিত আমাদিগকে শিক্ষাদান করিতে পারে না। উপনিষদে অনুশাসন আছে: শ্রদ্ধয়া দেয়ম্‌, অশ্রদ্ধয়া অদেয়ম্‌। শ্রদ্ধার সহিত দিবে, অশ্রদ্ধার সহিত দিবে না। কারণ, শ্রদ্ধার সহিত না দিলে যথার্থ জিনিস দেওয়াই যায় না, বরঞ্চ এমন একটা জিনিস দেওয়া হয় যাহাতে গ্রহীতাকে হীন করা হয়। আজকালকার ইংরাজ শিক্ষকগণ দানের দ্বারা আমাদিগকে হীন করিয়া থাকেন; তাঁহারা অবজ্ঞা-অশ্রদ্ধার সহিত দান করেন, সেইসঙ্গে প্রত্যহ সবিদ্রূপে স্মরণ করাইতে থাকেন,'যাহা দিতেছি, ইহার তুল্য তোমাদের কিছুই নাই এবং যাহা লইতেছ তাহার প্রতিদান দেওয়া তোমাদের সাধ্যের অতীত।'প্রত্যহ এই অবমাননার বিষ আমাদের মজ্জার মধ্যে প্রবেশ করে, ইহাতে পক্ষাঘাত আনিয়া আমাদিগকে নিরুদ্যম করিয়া দেয়। শিশুকাল হইতেই নিজের নিজত্ব উপলব্ধি করিবার কোনো অবকাশ কোনো সুযোগ পাই নাই। পরভাষার বানান-বাক্য-ব্যাকরণ ও মতামতের দ্বারা উদ্‌ভ্রান্ত অভিভূত হইয়া আছি–নিজের কোনো শ্রেষ্ঠতার প্রমাণ দিতে না পারিয়া মাথা হেঁট করিয়া থাকিতে হয়। ইংরেজের নিজের ছেলেদের শিক্ষাপ্রণালী এরূপ নহে–অক্‌স্‌ফোর্ড-কেম্‌ব্রিজে তাঁহাদের ছেলে কেবল যে গিলিয়া থাকে তাহা নহে, তাহারা আলোক আলোচনা ও খেলা হইতে বঞ্চিত হয় না। অধ্যাপকদের সঙ্গে তাহাদের সুদূর কালের সম্বন্ধ নহে। একে তো তাহাদের চতুর্দিগ্‌বর্তী স্বদেশীসমাজ স্বদেশীশিক্ষাকে সম্পূর্ণরূপে আপন করিয়া লইবার জন্য শিশুকাল হইতে সর্বতোভাবে আনুকূল্য করিয়া থাকে, তাহার পরে শিক্ষাপ্রণালী ও অধ্যাপকগণও অনুকূল। আমাদের আদ্যোপান্ত সমস্তই প্রতিকূল; যাহা শিখি তাহা প্রতিকূল, যে উপায়ে শিখি তাহা প্রতিকূল, যে শেখায় সেও প্রতিকূল। ইহা সত্ত্বেও যদি আমরা কিছু লাভ করিয়া থাকি, যদি এ শিক্ষা আমরা কোনো কাজে খাটাইতে পারি, তাহা আমাদের গুণ। অবশ্য, এই বিদেশী শিক্ষাধিক্‌কারের হাত হইতে স্বজাতিকে মুক্তি দিতে হইলে শিক্ষার ভার আমাদের নিজের হাতে লইতে হইবে এবং যাহাতে শিশুকাল হইতে ছেলেরা স্বদেশীয় ভাবে, স্বদেশী প্রণালীতে, স্বদেশের সহিত হৃদয়মনের যোগ রক্ষা করিয়া স্বদেশের বায়ু ও আলোক-প্রবেশের দ্বার উন্মুক্ত রাখিয়া, শিক্ষা পাইতে পারে, তাহার জন্য আমাদিগকে একান্ত প্রযত্নে চেষ্টা করিতে হইবে। ভারতবর্ষ সুদীর্ঘকাল ধরিয়া আমাদের মনের যে প্রকৃতিকে গঠন করিয়াছে তাহাকে নিজের বা পরের ইচ্ছামত বিকৃত করিলে আমরা জগতে নিস্ফল ও লজ্জিত হইব। সেই প্রকৃতিকেই পূর্ণ পরিণতি দিলে সে অনায়াসেই বিদেশের জিনিসকে আপনার করিয়া লইতে পারিবে এবং আপনার জিনিস বিদেশকে দান করিতে পারিবে।

এই স্বদেশী প্রণালীর শিক্ষার প্রধান ভিত্তি স্বার্থত্যাগপর ভৃতিনিরপেক্ষ অধ্যয়ন-অধ্যাপনরত নিষ্ঠাবান গুরু এবং তাঁহার অধ্যাপনের প্রধান অবলম্বন স্বদেশের একখানি সম্পূর্ণ ইতিহাস। একদিন এইরূপ গুরু আমাদের দেশে গ্রামে গ্রামেই ছিলেন–তাঁহাদের জুতামোজা গাড়িঘোড়া আসবাবপত্রের প্রয়োজনই ছিল না–নবাব ও নবাবের অনুকারিগণ তাঁহাদের চারি দিকে নবাবি করিয়া বেড়াইত, তাহাতে তাঁহাদের দৃকপাত ছিল না, তাঁহাদের অগৌরব ছিল না। এখনো আমাদের দেশে সেই-সকল গুরুর অভাব নাই। কিন্তু শিক্ষার বিষয় পরিবর্তিত হইয়াছে–এখন ব্যাকরণ স্মৃতি ও ন্যায় আমাদের জঠরানলনির্বাণের সহায়তা করে না এবং আধুনিককালের জ্ঞানস্পৃহা মিটাইতে পারে না। কিন্তু যাঁহারা নূতন শিক্ষাদানের অধিকারী হইয়াছেন তাঁহাদের চাল বিগড়াইয়া গেছে। তাঁহাদের আদর্শ বিকৃত হইয়াছে, তাঁহারা অল্পে সন্তুষ্ট নহেন, বিদ্যাদানকে তাঁহারা ধর্মকর্ম বলিয়া জানেন না, বিদ্যাকে তাঁহারা পণ্যদ্রব্য করিয়া বিদ্যাকেও হীন করিয়াছেন নিজেকেও হীন করিয়াছেন। নব্যশিক্ষিতদের মধ্যে আমাদের সামাজিক উচ্চ আদর্শের এই বিপর্যয়দশা একদিন সংশোধিত হইবে, ইহা আমি দুরাশা বলিয়া গণ্য করি না। আমাদের বৃহৎ শিক্ষিতমন্ডলীর মধ্যে ক্রমে ক্রমে এমন দুই-চারিটি লোক নিশ্চয়ই উঠিবেন যাঁহারা বিদ্যাব্যবসায়কে ঘৃণা করিয়া বিদ্যাদানকে কৌলিকব্রত বলিয়া গ্রহণ করিবেন। তাঁহারা জীবনযাত্রার উপকরণ সংক্ষিপ্ত করিয়া, বিলাস বিসর্জন দিয়া, দেশের স্থানে স্থানে যে আধুনিক শিক্ষার টোল করিবেন, ইন্‌স্‌পেক্টরের গর্জন ও য়ুনিভার্‌সিটির তর্জন-বর্জিত সেই-সকল টোলেই বিদ্যা স্বাধীনতা লাভ করিবে, মর্যাদা লাভ করিবে। ইংরাজ রাজ-বণিকের দৃষ্টান্ত ও শিক্ষা সত্ত্বেও বাংলাদেশ এমনতরো জনকয়েক গুরুকে জন্ম দিতে পারিবে, এ বিশ্বাস আমার মনে দৃঢ় রহিয়াছে।

 

 




रवींद्र का दलित विमर्श-बारह हिटलर समर्थक हिंदुत्ववादियों ने 1916 में ही अमेरिका में रवींद्रनाथ की हत्या की साजिश की थी क्यों नस्ली नाजी फासीवाद के निशाने पर थे गांधी और टैगोर? क्योंकि बौद्धमय भारत के मूल्य और आदर्श, बहुलता विविधता सहिष्णुता की साझा विरासत के वे प्रवक्ता थे और हिंदुत्व के एजंडे का प्रतिरोध भी यही है। पलाश विश्वास

Next: रवींद्र का दलित विमर्शःतेरह ब्राह्मणों की भूमिका,अनार्यों की देन और हिंदुत्व के भगवा एजंडे में भारत तीर्थ के आदिवासी! मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में क
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रवींद्र का दलित विमर्श-बारह

हिटलर समर्थक हिंदुत्ववादियों ने 1916 में ही अमेरिका में रवींद्रनाथ की हत्या की साजिश की थी

क्यों नस्ली नाजी फासीवाद के निशाने पर थे गांधी और टैगोर?

क्योंकि बौद्धमय भारत के मूल्य और आदर्श, बहुलता विविधता सहिष्णुता की साझा विरासत के वे प्रवक्ता थे और हिंदुत्व के एजंडे का प्रतिरोध भी यही है।

पलाश विश्वास

विकीपीडिया में राजनीतिक विचारों के लिए हिंदू जर्मन क्रांतिकारियों की तरफ से रवींद्र नाथ की ह्त्या की साजिश के बारे में थोड़ा उल्लेख है।

Tagore opposed imperialism and supported Indian nationalists,[128][129][130] and these views were first revealed in Manast, which was mostly composed in his twenties.[51]Evidence produced during the Hindu–German Conspiracy Trial and latter accounts affirm his awareness of the Ghadarites, and stated that he sought the support of Japanese Prime Minister Terauchi Masatake and former Premier Ōkuma Shigenobu.[131] Yet he lampooned the Swadeshi movement; he rebuked it in The Cult of the Charkha, an acrid 1925 essay.[132] He urged the masses to avoid victimology and instead seek self-help and education, and he saw the presence of British administration as a "political symptom of our social disease". He maintained that, even for those at the extremes of poverty, "there can be no question of blind revolution"; preferable to it was a "steady and purposeful education".[133][134]

Such views enraged many. He escaped assassination—and only narrowly—by Indian expatriates during his stay in a San Francisco hotel in late 1916; the plot failed when his would-be assassins fell into argument.[136]

बंगाल में अनुशीलन समिति और देशभर में सक्रिय गदरपार्टी के क्रांतिकारियों के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती जर्मनी के संबंध थे।

देश को आजाद कराने के लिए नेताजी भी जर्मनी,इटली और जापान की मदद से सशस्त्र क्रांति की कोशिश में थे।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनुशीलन समिति और गदर पार्टी दोनों का भारी योगदान रहा है।लेकिन इन संगठन में शामिल हिंदुत्ववादियों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विरुदध रवींद्रनाथ के विचार आपत्तिजनक थे।

इसलिए 30 जनवरी,1948 में हिंदुत्ववादियोें के गांधी की हत्या करने से पहले 1916 में ही भारत के हिंदुत्ववादियों ने और जर्मनी के फासीवादियों ने मिलकर रवींद्रनाथ की उनके अमेरिका यात्रा के दौरान हत्या की साजिश की जिसमें वे नाकाम हो गये।

यही नहीं,रवींद्र नाथ की चीन यात्रा के दौरान भी हिंदुत्ववादियों ने उनकी हत्या की नाकाम कोशिश की।

भारत में हिंदुत्ववादियों के इस कारनामे की कोई खास चर्चा नहीं हुई है।

गांधी की हत्या के बारे में सभी भारतीयों को मालूम है लेकिन गांधी की हत्या से पहले टैगोर को मारने की साजिश के बारे में भारत में कम ही लोगों को पता है।

कई दिनों से फेसबुक पर अपडेट पोस्ट नहीं कर पा रहा था।आज यह रोक हटते ही इन साजिशों के बारे में बांग्लादेश में लिखे गये दो महत्वपूर्ण आलेख हमने शेयर किये हैं।Tagore`s Crisis in america:An overview एक शोध निबंध है और इसके लेखक हैं बीडीनावेल्स डाट आर्ग के सुब्रत कुमार दास तो अमेरिका और चीन में रवींद्र के खिलाफ हिंदुत्ववादी साजिश पर रवींद्रनाथ ओ कयेकटि षड़यंत्र शीर्षक आलेख रोबिन पाल ने लिखा है।परवास डाट काम पर यह आलेख उपलब्ध है।

नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले ब्रह्मसमाजी,अस्पृश्य पीराली ब्राह्मण रवींद्रनाथ को बांग्ली की कुलीन साहित्य बिरादरी बाकी भारत के दलितो,पिछड़ों आदिवासियों की तरह कवि या साहित्यकार मानने को तैयार नहीं थे।नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उन्हें कवि क्या कविगुरु विश्वकवि,गुरुदेव कहने से न अघाने वाले लोग उनके विचारों को हजम नहीं कर पा रहे थे।राष्ट्रवाद पर उनके विचारों का आज जैसे विरोध हिंदुत्ववादी कर रहे हैं,उससे तीखा विरोध उनके नोबेल मिलने के बाद हिंदुत्ववादी फासीवादी ताकतें कर रही थीं और ऐसी ताकतें क्रांतिकारी संगठनों अनुशीलन समिति और गदरपार्टी में भी थीं,जिनके तार सीधे जर्मनी से जुड़े थे।

मई ,1916 में जापान की यात्रा के दौरान रवींद्रनाथ ने उग्र जापानी राष्ट्रवाद की तीखी आलोचना कर दी।इसके बाद वे 18 सितंबर को अमेरिका पहुंचे।अमेरिका में तब गदरपार्टी संगठित हो रही थी।पहला विश्वयुद्ध शुरु हो गया था इंग्लैंड के खिलाप जर्मनी का युद्ध शुरु हो जाने पर भरत की आजादी के लिए सक्रियक्रांतिकारी जाहिर है कि बहुत जोश में थे।चूंकि जर्मनी इंग्लैड के किलाफ युद्ध लड़ रही थी तो भारत के क्रांतिकारी जर्मनी को भारत का मित्र मान रहे थे और इसी के तहत अनुशीलन समिति और गदरपार्टी के क्रांतिकारी जर्मनी के समर्थन में आ गये।

इसके विपरीत जर्मनी की नाजी सत्ता के अंध राष्ट्रवाद का और सैन्य राष्ट्रवाद के खिलाफ रवींद्र शुरु से मुखर रहे हैं।जापान के बाद अमेरिका में बी राष्ट्रवाद के खिलाफ उनके भाषण से हिंदुत्ववादी जर्मनीसमर्थक क्रातिकारी सख्त नाराज हो गये।

सानफ्राससिंस्को में गदरपार्टी का केंद्र था।जहां रवींद्रनाथ ने अपने भाषण में कहा,पश्चिम तबाही की दिशा में बढ़ रहा है।इसके जवाब में गदरपार्टी केरामचंद्र ने अखबार में बयान जारी करके कहा कि रवींद्रनाथ आद्यात्मिक कवि हैं जो विज्ञान नहीं मानते।वे मुगल साम्राज्य और दूसरे शासकों के राजकाज से अंग्रेजी हुकूमत को बेहतर मानते हैं।अगर रवींद्र प्राचीन भारतीय सभ्यता के पक्ष में हैं,तो अंग्रेजों की दी सर की उपाधि उन्होनें क्यों स्वीकार कर ली।

गौरतलब है कि हिंदुत्ववादी तत्व अब भी यही प्रचार करते हैं कि रवींद्र नाथ अंग्रेजों के गुलाम थे और उन्होने जन गण मन अधिनायक  जार्ज पंचम के भारत आने के अवसर पर उनकी प्रशस्ति में गाया है।इसी तर्क के आधार पर  राष्ट्रवाद की आड़ में जनगण को अनिवार्य करने वाले हिंदुत्ववादी ही कल तक इसे खारिज करके वंदे मातरम को राष्ट्रगान बनाने की मुहिम चला रहे थे।

राष्ट्रवाद के खिलाप रवींद्र के बयान के खिलाफ थे अमेरिका में गदर पार्टी के क्रांतिकारी।रवींद्र के अमेरिका प्रवेश से पहले रामचंद्र ने बयान जारी किया कि रवींद्रनाथ का अमेरिका में आने का मकसद साहित्यिक नहीं है बल्कि वे हिंदू क्रांतिकारी प्रचार के खिलाफ आ रहे हैं।रवींद्र ने ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में वक्तव्य रखते हुए भारतीयो के स्वायत्त शासन के खिलाफ भाषण दिया तो इसपर गदर पार्टी ने तीखी प्रतिक्रिया जतायी।इस विरोध के मध्य 5 अक्तूबर को पैलेस होटल के सामने रवींद्रनाथ पर हमले की कोशिश हो गयी।इस हमले के पीछे गदरपार्टी का हाथ बताया गया और अमेरिकी अखबारों में इस रवींद्र की हत्या का नाकाम प्रयास बताया गया।हालांकि रवींद्र नाथ ने इसे हत्या की साजिश मानने से इंकार कर दिया।

रवींद्र की चीन यात्रा के दौरान भी रवींद्र की यात्रा के मकसद पर सवाल खड़े किये गये और बीजिंग से लेकर नानकिंग तक रवींद्र की सभाओं में गड़बड़ी फैलाने की कोशिशें हुईं।

जर्मनी में रवींद्र को खुले तौर पर गद्दार कहा जाता रहा और उनकी रचनाएं निषिद्ध की जाती रही।उनके बाषण सेंसर होते रहे।वहां रवींदर्नाथ को यहूदी बताया गया और उनका नाम रब्बी नाथन प्रचारित किया गया।उनके खिलाफ लगातार विषैले प्रचार जारी रहे और उनकी जरमनी यात्रा की भी आलोचना की जाती रही।

1925 में इटली जाने पर तो रवींद्र को मुसोलिनी के समर्तन में बयान जारी करना पड़ा और जिसे इटली के समाचार पत्रों में खूब प्रचारित किया गया।बाद में रवींद्र ने अपनी गलती भी मान ली।  

इन साजिशोें पर चर्चा से पहले बुनियादी सवाल यह है कि गांधी और टैगोर दोनों हिंदुत्ववादियों के निशाने पर क्यों हैं,यह हिंदुत्व के फासीवादी नस्ली जनसंहारी एजंडे को समझने के लिए बेहद जरुरी है।

अनुशीलन समिति और गदर पार्टी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारी योगदान रही है और इसके हिंदुत्ववादी तत्वों ने ही रवींद्र की हत्या की कोशिश की।इसके विपरीत गांधी के हत्यारों से जुड़े हिंदुत्ववादी संगठनों का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं है बल्कि शुरु से आखिर तक वे क्रातिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम के विरुद्ध ब्रिटिश हुकूमत के पक्ष में लामबंद थे।

टैगोर के वैदिकी साहित्य के महिमामंडन से बहुजनों और प्रगतिशील साथियों में भी यह धारणा बनी है कि जमींदार तबके के कुलीन रवींद्रनाथ हिंदुत्व के प्रवक्ता हैं।गौरतलब है कि बंकिम के वंदेमातरम में बंगमाता को भारतमाता में रवींद्रनाथ ने ही बदला और कांग्रेस के मंच से इस गीत को राष्ट्रीय गान में बदलने की पहल भी रवींद्र नाथ ने।

रचनाओं और निबंधों में भारत की समस्या को सामाजिक मानते हुए अस्पृश्यता का विरोध करते हुए और बौद्धमय मूल्यों और आदर्शों को बौद्ध कथानक के आधार पर भारत में मनुष्यता के धर्म के रुप में प्रस्तुत करने वाले रवींद्र नाथ ने ब्राह्मणों या ब्राह्मणवाद के खिलाफ कुछ नहीं लिखा है।

पुरोहित तंत्र का विरोध करते हुए धर्मस्थलों में कैद ईश्वर की चर्चा करते हुए वे ब्राह्मणों की जन्मगत द्विजता के संदर्भ में सभी आर्यों की द्विजता की बात करते हैं तो सामाजिक नेतृत्व में ब्राह्मणों की भूमिका के नस्ली वर्चस्ववाद में बदल जानने की आलोचना के बावजूद ब्राह्मणों के सामाजिक नेतृत्व पर वैदिकी संस्कृति के अनुरुप जोर देते हैं।ब्राह्मणों की उनकी आलोचना ही ब्राह्मणवाद और ब्रहा्मणतंत्र पर कुठाराघात है और इसके लिए हिंदुत्ववादियों ने उन्हें कभी माफ नहीं किया।

गौरतलब है कि भारत में संत परंपरा में सामंतवाद विरोधी आंदोलन में भी मनुष्यता के धर्म पर जोर है और वहां भी आस्था का लोकतंत्र है और पुरोहित तंत्र औरदैवी वर्चस्व के किळाफ मनुष्यता के पक्ष में मनुष्यकेंद्रित आध्यात्म है जो रवींद्र के गीतांजलि का लोक और आध्यात्म दोनों हैं,इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे।लेकिन यह खास गौरतलब है कि सामंतवाद विरोधी दैवीसत्ता विरोधी संत आंदोलन में भी ब्राह्मण,ब्राह्मणवाद और वैदिकी संस्कृति का मुखर  विरोध नहीं है।लेकिन यह सारा आंदोलन ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणवाद के विरोध में है और सबसे खास बात यह है कि भारत का बहुजन आंदोलन की नींव इसी संत आंदोलन में है।

दलित आदिवासी पिछड़ा विमर्श बौद्धमय भारत की नींव पर खड़ा है जिसे संतों के आंदोलन ने मजबूत किया है और टैगोर और गांधी दोनों इसी विरासत के तहत सामाजिक यथार्थ के मुताबिक बहुसंख्य भारतीयों को संबोधित करते हुए औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के साथ साथ फासीवादी हुंदुत्व का विरोध कर रहे थे।इसलिए हिंदुत्ववादियों की निगाह में आज भी ये दोनों सबसे बड़े शत्रु बने हुए हैं।

यह मामला बहुत आसान नहीं है क्योंकि टैगोर और गांधी दोनों ने भारतीय समाज के धार्मिक चरित्र के हिसाब से भारतीय यथार्थ का मूल्यांकन करते हुए बोला और लिखा है।

भारतीय समाज के इस धार्मिक चरित्र और आचरण को समझे बिना खालिस राजनीतिक वैचारिक विशुद्धता से फासीवादी नस्ली हिंदुत्व के एजंडा का मुकाबला असंभव है और भारत में प्रगतिशील,बहुजन और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के अलावा खुद गांधीवादी भी भारतीय समाज के इस यथार्थ और चरित्र को समझने से सिरे से इंकार करते रहे हैं और जाने अनजाने हिंदुत्ववादियों के पाले में बहुसंख्य जनता को धकेलने का काम करते रहे हैं।

रवींद्र ने शूद्रधर्म शीर्षक निबंध में साफ भी किया है कि शूद्रों की हिंदुत्व में अटूट आस्था ही नस्ली विषमता की व्यवस्था मजबूत होते रहने का मुख्य आधार है।

दिनचर्या और संस्कारों में ब्राह्मणधर्म के मनुस्मृति अनुशासन से बंधा जकड़ा भारत के बहुजन आंदोलन का सारा विमर्श ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के खिलाफ है,जिसके तहत गांधी और रवींद्र के बौद्धमय भारत केंद्रित दर्शन को समझना मुश्किल है।इसलिए बहुजन गांधी को दुश्मन नंबर वन मानते हैं और बहुजन पुरखों की विरासत में अस्पृश्य रवींद्र को शामिल करने के बजाय उन्हें ब्राह्मण मानते हैं।

इस सामाजिक यथार्थ को समझे बिना राष्ट्रवाद और राष्ट्र के विरोध में रवींद्र के विचारों से असहमति की वजह से हिंदुत्ववादियों के रवींद्र विरोध के तर्क को समझा जा सकता है लेकिन मनुस्मृति,जाति वर्णव्यवस्था और हिंदुत्व के प्रवक्ता गांधी की हत्या का तर्क समझना मुश्किल है।

रवींद्र और गांधी में मतभेद भी भयंकर रहे हैंं।रवींद्र ने गांधी की चरखा क्रांति की कड़ी आलोचना की है तो प्राकृतिक विपदा को गांधी के ईश्वर का रोष बताने का भी उन्होंने जमकर विरोध किया है।लेकिन दोनों का स्वराज कुल मिलाकर हिंद स्वराज है जो हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ है।

भारत के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष लोग भारत के सामाजिक यथार्थ और सामाजिक संरचना को सिरे से समझने से लगातार इंकार करते रहे हैं और हिंदुत्व के एजेंडे और फासीवाद के विरोध में वे बहुसंख्य हिंदुओं की आस्था पर चोट करते रहे हैं जिसके नतीजतन नस्ली वर्चस्व के फासीवादी हिंदुत्व के पुनरूत्थान की जमीन बीतर ही भीतर पकती चली गयी और सतह से बाहर निकलकर वह भयंकर सुनामी में तब्दील है।

रवींद्रनाथ और गांधी दोनों भारतीय समाज और आम जनता पर धर्म के सर्वव्यापी असर को बेहद गहराई से समझते थे और आम जनता की आस्था को चोट पहुंचाये बिना वैदिकी संस्कृति का हवाला देकर बौद्धमय भारत के समता और न्याय, सत्य, अहिंसा और प्रेम पर आधारित मनुष्यता के धर्म को भारत की साझा विरासत के रुप में मजबूत कर रहे थे।

पूंजीवादी विकास और पूंजी पर आधारित सैन्य राष्ट्र के खिलाफ इसलिए टैगोर और गांधी के विचार हिंदुत्व के फासीवादी एजंडे के लिए सबसे खतरनाक है।

रवींद्र ने अपने निबंध भारतवर्षेर इतिहास में सत्ता संघर्ष में शामिल सत्ता वर्ग के इतिहास के बजाय जनपद और लोक में रचे बसे भारतीयों की बात की है।

कल हमने इसकी चर्चा करते हुए जानबूझकर भारतवासी का अनुवाद भारतवर्ष किया है क्योंकि यह रवींद्र विमर्श का ,उनके दलित विमर्श का भी प्रस्थानबबिंदु है कि भातरवर्ष भारतवासियों से बना है,सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व से नहीं और इस भारत वर्ष का आधार विविधता बहुलता अनेकता में एकता और सहिष्णुता की साझा लोक लोकतांत्रिक जनपदकेंद्रित विरासत है।

रवींद्र और गांधी दोनों इसी भारतवर्ष के प्रवक्ता थे जो आज भी हिंदुत्व के फासीवादी कारपोरेटएजंडे के विरोध में है।

कृपया अब कल के अनुवाद को सुधार कर पढ़ेंः

কিন্তু এই রক্তবর্ণে রঞ্জিত পরিবর্তমান স্বপ্নদৃশ্যপটের দ্বারা ভারতবর্ষকে আচ্ছন্ন করিয়া দেখিলে যথার্থ ভারতবর্ষকে দেখা হয় না। ভারতবাসী কোথায়, এ-সকল ইতিহাস তাহার কোনো উত্তর দেয় না। যেন ভারতবাসী নাই, কেবল যাহারা কাটাকাটি খুনাখুনি করিয়াছে তাহারাই আছে।

लेकिन इस रक्तरंग रंजित परिवर्तनमान स्वप्नदृश्यपट द्वारा भारतवर्ष को आच्छन्न करके देखने पर यथार्थ के भारतवर्ष का दर्शन नहीं होता।भारतवासी कहां है,इस तरह का इतिहास इसका कोई जवाब नहीं देता।इससे लगता है कि भारतवासी हैं ही नहीं ,जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं,वे ही हैं।


गांधी और रवींद्र के संवाद और संबंध को समझने के लिए डा.अमर्त्य सेन के नोबल डाट आर्ग पर रवींद्रक के बारतवर्ष पर लिखे इस मंतव्य को गौर से पढ़ेंः

Gandhi and Tagore

Since Rabindranath Tagore and Mohandas Gandhi were two leading Indian thinkers in the twentieth century, many commentators have tried to compare their ideas. On learning of Rabindranath's death, Jawaharlal Nehru, then incarcerated in a British jail in India, wrote in his prison diary for August 7, 1941:



"Gandhi and Tagore. Two types entirely different from each other, and yet both of them typical of India, both in the long line of India's great men ... It is not so much because of any single virtue but because of the tout ensemble, that I felt that among the world's great men today Gandhi and Tagore were supreme as human beings. What good fortune for me to have come into close contact with them."

Romain Rolland was fascinated by the contrast between them, and when he completed his book on Gandhi, he wrote to an Indian academic, in March 1923: "I have finished my Gandhi, in which I pay tribute to your two great river-like souls, overflowing with divine spirit, Tagore and Gandhi." The following month, he recorded in his diary an account of some of the differences between Gandhi and Tagore written by Reverend C.F. Andrews, the English clergyman and public activist who was a close friend of both men (and whose important role in Gandhi's life in South Africa as well as India is well portrayed in Richard Attenborough's film Gandhi [1982]). Andrews described to Rolland a discussion between Tagore and Gandhi, at which he was present, on subjects that divided them:

"The first subject of discussion was idols; Gandhi defended them, believing the masses incapable of raising themselves immediately to abstract ideas. Tagore cannot bear to see the people eternally treated as a child. Gandhi quoted the great things achieved in Europe by the flag as an idol; Tagore found it easy to object, but Gandhi held his ground, contrasting European flags bearing eagles, etc., with his own, on which he has put a spinning wheel. The second point of discussion was nationalism, which Gandhi defended. He said that one must go through nationalism to reach internationalism, in the same way that one must go through war to reach peace."4

Tagore greatly admired Gandhi but he had many disagreements with him on a variety of subjects, including nationalism, patriotism, the importance of cultural exchange, the role of rationality and of science, and the nature of economic and social development. These differences, I shall argue, have a clear and consistent pattern, with Tagore pressing for more room for reasoning, and for a less traditionalist view, a greater interest in the rest of the world, and more respect for science and for objectivity generally.

Rabindranath knew that he could not have given India the political leadership that Gandhi provided, and he was never stingy in his praise for what Gandhi did for the nation (it was, in fact, Tagore who popularized the term "Mahatma" - great soul - as a description of Gandhi). And yet each remained deeply critical of many things that the other stood for. That Mahatma Gandhi has received incomparably more attention outside India and also within much of India itself makes it important to understand "Tagore's side" of the Gandhi-Tagore debates.

In his prison diary, Nehru wrote: "Perhaps it is as well that [Tagore] died now and did not see the many horrors that are likely to descend in increasing measure on the world and on India. He had seen enough and he was infinitely sad and unhappy." Toward the end of his life, Tagore was indeed becoming discouraged about the state of India, especially as its normal burden of problems, such as hunger and poverty, was being supplemented by politically organized incitement to "communal" violence between Hindus and Muslims. This conflict would lead in 1947, six years after Tagore's death, to the widespread killing that took place during partition; but there was much gore already during his declining days. In December 1939, he wrote to his friend Leonard Elmhirst, the English philanthropist and social reformer who had worked closely with him on rural reconstruction in India (and who had gone on to found the Dartington Hall Trust in England and a progressive school at Dartington that explicitly invoked Rabindranath's educational ideals):5

"It does not need a defeatist to feel deeply anxious about the future of millions who, with all their innate culture and their peaceful traditions are being simultaneously subjected to hunger, disease, exploitations foreign and indigenous, and the seething discontents of communalism."

How would Tagore have viewed the India of today? Would he see progress there, or wasted opportunity, perhaps even a betrayal of its promise and conviction? And, on a wider subject, how would he react to the spread of cultural separatism in the contemporary world?

अनुशीलन समिति और गदरपार्टी के हिंदुत्व और जर्मनी से संबंध के बारे में विकीपीडिया का यह ब्यौर देखें:

The Hindu–German Conspiracy(Note on the name) was a series of plans between 1914 and 1917 by Indian nationalist groups to attempt Pan-Indian rebellion against the British Raj during World War I, formulated between the Indian revolutionary underground and exiled or self-exiled nationalists who formed, in the United States, the Ghadar Party, and in Germany, the Indian independence committee, in the decade preceding the Great War.[1][2][3] The conspiracy was drawn up at the beginning of the war, with extensive support from the German Foreign Office, the German consulate in San Francisco, as well as some support from Ottoman Turkey and the Irish republican movement. The most prominent plan attempted to foment unrest and trigger a Pan-Indian mutiny in the British Indian Army from Punjab to Singapore. This plot was planned to be executed in February 1915 with the aim of overthrowing British rule over the Indian subcontinent. The February mutiny was ultimately thwarted when British intelligence infiltrated the Ghadarite movement and arrested key figures. Mutinies in smaller units and garrisons within India were also crushed.

Other related events include the 1915 Singapore Mutiny, the Annie Larsen arms plot, the Jugantar–German plot, the German mission to Kabul, the mutiny of the Connaught Rangers in India, as well as, by some accounts, the Black Tom explosion in 1916. Parts of the conspiracy included efforts to subvert the British Indian Army in the Middle Eastern theatre of World War I.

The Indo-German alliance and the conspiracy were the target of a worldwide British intelligence effort, which was successful in preventing further attempts. American intelligence agencies arrested key figures in the aftermath of the Annie Larsen affair in 1917. The conspiracy resulted in the Lahore conspiracy case trials in India as well as the Hindu–German Conspiracy Trial—at the time the longest and most expensive trial ever held in the United States.[1]

This series of events was consequential to the Indian independence movement. Though largely subdued by the end of World War I, it came to be a major factor in reforming the Raj's Indian policy.[4] Similar efforts were made during World War II in Germany and in Japanese-controlled Southeast Asia, where Subhas Chandra Bose formed the Indische Legion and the Indian National Armyrespectively, and in Italy where Mohammad Iqbal Shedai formed the Battaglione Azad Hindoustan.

गदर पार्टी के बारे में विकीपीडियाः

The Ghadar Party, initially the 'Pacific Coast Hindustan Association', was formed in 1913 in the United States under the leadership of Har Dayal, with Sohan Singh Bhakna as its president. It drew members from Indian immigrants, largely from Punjab.[17] Many of its members were also from the University of California at Berkeley including Dayal, Tarak Nath Das, Kartar Singh Sarabha and V.G. Pingle. The party quickly gained support from Indian expatriates, especially in the United States, Canada and Asia. Ghadar meetings were held in Los Angeles, Oxford, Vienna, Washington, D.C., and Shanghai.[34]

Ghadar's ultimate goal was to overthrow British colonial authority in India by means of an armed revolution. It viewed the Congress-led mainstream movement for dominion statusmodest and the latter's constitutional methods as soft. Ghadar's foremost strategy was to entice Indian soldiers to revolt.[17] To that end, in November 1913 Ghadar established the Yugantar Ashram press in San Francisco. The press produced the Hindustan Ghadarnewspaper and other nationalist literature.[34]


रवींद्र का दलित विमर्शःतेरह ब्राह्मणों की भूमिका,अनार्यों की देन और हिंदुत्व के भगवा एजंडे में भारत तीर्थ के आदिवासी! मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में क

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रवींद्र का दलित विमर्शःतेरह

ब्राह्मणों की भूमिका,अनार्यों की देन और हिंदुत्व के भगवा एजंडे में भारत तीर्थ के आदिवासी!

मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में कारपोरेट राजकाज के तरह जिन बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधनों की खुलेआम डकैती हो रही हैं,वे आदिवासी भूगोल में ही है तो यह दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और नरसंहार आदिवासासियों की दिनचर्या है।

यह भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति और भारतवर्ष की परिकल्पना के खिलाफ एक अक्षम्य युद्ध अपराध है।

राम के नाम रामराज्य का स्वराज अब भगवा आतंकवाद में तब्दील है।

पलाश विश्वास

संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने कहा थाः

"आज़ादी की इस लड़ाई में हम सबको एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी ही हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और हर तरह से प्रताड़ित किया गया, लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।"

लेकिन स्वतंत्र भारत में आदिवासियों का अलगाव,दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और उनका सफाया विकास का पर्याय बन गया है।बाकी भारतवासियों को इन आदिवासियों की कोई परवाह नहीं है और इसके उलट अंध राष्ट्रवाद की आड़ में कारपोरेट हित में आदिवासियों के खिलाफ इस अश्वमेधी नरसंहारी अभियान की वैदिकी संस्कृति का समर्थन करती है गैरआदिवासी भारतीय जनता।

26 जनवरी से पहले भारत कोई राष्ट्र नहीं था।दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बाद बचे खुचे भारतवर्ष को भारतीय संविधान के तहत एक स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य घोषित किया गया।इससे पहले भारत एक देश था।जनपदों का देश जो प्राचीन काल में लोक गणराज्यों का देश रहा है।

जनसंख्या स्थानातंरण के तहत हिंदुओं के लिए भारत और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाने की परिकल्पना फेल हो गयी और भारत में मुसलमानों की जैसे अच्छी खासी तादाद मौजूद रही वैसे ही पाकिस्तान और खासतौर पर पूर्वी पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदुओं की आबादी रह गयी।

पाकिस्तान के विभाजन के बाद बांग्लादेश में अब भी करीब दो करोड़ गैर मुसलमान हैं जिनमें सबसे ज्यादा हिंदू हैं तो बौद्ध और आदिवासी भी हैं।

देश के विभाजन से पहले जिस तरह संस्कृतियों और नस्लों के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी,दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत भारत पाकिस्तान बनने के बाद वह प्रक्रिया सिरे से रुक गयी।बांग्ला राष्ट्रीयता के नाम पर बांग्लादेश बना तो भारत में सिख राष्ट्रीयता के तहत खालिस्तान आंदोलन से खून खराबा हुआ।

खालिस्तानी आंदोलन की हिंसा की वजह से अमृतसर के  स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के आपरेशन ब्लू स्टार के तहत जालियांवाला कांड दोहराया गया और इस  वजह से हुए उथल पुथल के नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और इसकी प्रतिक्रिया में देश भर में सिखों का कत्लेआम हुआ और आज तक पीड़ित सिखों को न्याय नहीं मिला।

सिखों का यह सदाबहार जख्म राष्ट्रवाद का चेहरा है।

बंगाल में अलग गोरखालैंड और वृहत्तर गोरखालेैंड आंदोलन के तहत अस्सी के दशक में खूनखराबा हुआ।असम में अल्फाई अहमिया राष्ट्रीयता का उपद्रव जारी है तो कश्मीरी राष्ट्रीयता भारत पाक युद्धों का प्रमुख कारण है।इसी तरह पूर्वोत्तर में अलग अलग राष्ट्रीयता आंदोलन चल रहे हैं।असम और पूर्वोत्तर में भी अलग राष्ट्रवाद के नाम नरसंहार होते रहे हैं।

मराठा राष्ट्रवाद का भगवा एजंडा अब हिंदुत्व का कारपोरेट एजंडा है तो द्रविड़नाडु आंदोलन अब तमिल आत्ममर्यादा आंदोलन की जगह ले चुका है।

राम के नाम रामराज्य का स्वराज अब भगवा आतंकवाद में तब्दील है।

गनीमत है कि फिलहाल आदिवासी और दलित अपने लिए अलग राष्ट्र की मांग नहीं कर रहे हैं।

राष्ट्र बनने से पहले ,राष्ट्र के सैन्यीकरण से पहले,संविधान लागू होने से पहले हजारों साल से भारत में विविधता,बहुलता और सहिष्णुता के लोकतंत्र के तहत विभिन्न नस्लों और राष्ट्रीयताओं के निरंतर विलय और एकीकरण से भारतवर्ष बनता रहा,वह राष्ट्र बनने के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं का एक आत्मघाती अनंत युद्धस्थल में तब्दील हो गया और जिस दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत भारत का विभाजन हुआ,उसी सिद्धांत के तहत हिंदू राष्ट्र के एजंडे के तहत आजादी के बाद से अब तक दंगोल का सिलसिला जारी है।गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस के बाद देश व्यापी दंगे उसी अंध फासीवादी राष्ट्रवाद की फसल है,जिसका विरोध रवींद्रनाथ कर रहे थे।

मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में कारपोरेट राजकाज के तरह जिन बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधनों की खुलेआम डकैती हो रही हैं,वे आदिवासी भूगोल में ही है तो यह दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और नरसंहार आदिवासासियों की दिनचर्या है।

यह भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति और भारतवर्, की परिकल्पना के खिलाफ एक अक्षम्य युद्ध अपराध है।

गौरतलब है कि अनार्यों की देन शीर्षक आलेख में रवींद्रनाथ ने संस्कृतियों के एकीकरण और विलय के मार्फत भारतवर्ष की परिकल्पना की है जो गीतांजलि से लेकर उनकी अनेक रचनाओं का मुख्य स्वर है।

अनार्यों की देन में उन्होंने लिखा हैः

किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्व-ज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वस्तुकला में कुशल थे। सभी कलाविद्याओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला-वधू थी। आर्यों के विशुद्ध तत्वज्ञान के साथ द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनी शक्ति के मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थी, न पूरी तरह अनार्य -यह हिंदू थी। दो विरोधी प्रवृत्तियों के निरंतर समन्वय-प्रयास से भारतवर्ष को एक आश्चर्यजनक संपदा मिली है। उसने अनंत को अंत के बीच उपलब्ध करना सीखा है, और भूमा को प्रात्यहिक जीवन की तुच्छता के बीच प्रत्यक्ष करने का अधिकार प्राप्त किया है। इसलिए भारत में जहाँ भी ये दो विरोधी शक्तियाँ नहीं मिल सकीं वहाँ मूढ़ता और अंधसंस्कार की सीमा न रही; लेकिन जहाँ भी उनका मिलन हुआ वहाँ अनंत के रसमय रूप की अबाधित अभिव्यक्ति हुई। भारत को ऐसी चीज मिली है जिसका ठीक से व्यवहार करना सबके वश का नहीं है, और जिसका दुर्व्यवहार करने से देश का जीवन गूढ़ता के भार से धूल में मिल जाता है। आर्य और द्रविड़, ये दो विरोधी चित्तवृत्तियाँ जहाँ सम्मिलित हो सकी हैं वहाँ सौंदर्य जगा है; जहाँ ऐसा मिलन संभव नहीं हुआ, वहाँ हम कृपणता और छोटापन देखते हैं। यह बात भी स्मरण रखनी होगी कि बर्बर अनार्यों की सामग्री ने भी एक दिन द्वार को खुला देखकर नि:संकोच आर्य-समाज में प्रवेश किया था। इस अनधिकृत प्रवेश का वेदनाबोध हमारे समाज ने दीर्घ काल तक अनुभव किया।

यह निबंध महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी समय पर आनलाइन उपलब्ध है।आज हमने रवींद्र के लिखे इसी निबंध अनार्यों की देन सोशल मीडिया पर शेयर किया है।रवींद्र इस आलेख में भी समकालीन परिदृश्य और सामाजिक यथार्थ बतौर वैदिकी सभ्यता को भारतीय समाज की मुख्यधारा मानते हुए उसमें आर्य और अनार्य सभ्यता के विलय से भारतीयता के निर्माण की बातें की हैं।

हम जानबूझकर गीतांजलि,रवींद्र संगीत,रवींद्र उपन्यास या उनके गीति नाट्य और रंगकर्म पर फिलहाल विस्तार से चर्चा नहीं कर रहे हैं।क्योंकि इनके बारे में कमोबेश चर्चा होती रही है।हम रवींद्र के दलित विमर्श के तहत उनके दर्शन और खासतौर पर उनके राष्ट्रवाद,उनके मनुष्यता के धर्म पर चर्चा केंद्रित कर रहे हैं,जिसपर बांग्ला में भी चर्चा कम हुई है।

जाहिर है कि इस अनार्य द्रविड़ सभ्यता के वंशज और उत्तराधिकारी भारत के आदिवासी हैं।आज के डिजिटल भारत के हिंदुत्व एजंडे में आदिवासी कहां हैं,इसकी पड़ताल किये बिना मनुष्यता की धाराओं के विलय से भारतीयता और भारत के निर्माण की प्रक्रिया समझना जरुरी है।

रवींद्र नाथ जिस अंध राष्ट्रवाद और सैन्य राष्ट्र की पश्चिमी सभ्यता के विरुद्ध भारतीय संस्कृति की साझा विरासत की बात कर रहे थे,उस अंध राष्ट्रवाद और सैन्य राष्ट्र के फासीवादी हिंदुत्व के एजंडे में आदिवासी भूगोल एक अखंड वधस्थल है और भारतीय मानस में आदिवासी विमर्श के लिए कोई स्थान नहीं है तो समझा जा सकता है कि नस्ली वर्चस्व के मनुस्मृति बंदोबस्त के तहत अनार्यों और द्रविड़ों, शक, हुण, कुषाण, पठान,मुगल और दूसरे गैरनस्ली जनसमुदायों की स्थिति क्या है।

रवींद्र नाथ टैगोर ने भारतवर्ष मासिक पत्रिका में लिखे ब्राह्मण शीर्षक आलेख की शुरुआत में ही ब्रिटिश हुकूमत में मनुस्मृति विधान के तहत ब्राह्मण के साथ गलत आचरण के दंडविधान के टूटने का उल्लेख करते हैं।

यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि भारत में बहुजन आंदोलन के नेताओं का विचार यही था कि ब्रिटिश हुकूमत की वजह से मनुस्मृति विधान के ब्राह्मणतंत्र के शिकंजे से उन्हें आजादी मिली है।उन्हें शिक्षा के साथ साथ आजीविका बदलने की आजादी मिली है।सेना और पुलिस में भर्ती होकर हथियार उठाने,कारोबार करने और संपत्ति अर्जित करने के हकहकूक मिले हैं।उन्हें डर था कि अंग्रेजी हुकूमत के बाद सत्ता फिर ब्राह्मणों क हाथों में होगी।

भारत के बहुजन पुरखे बौद्धमय भारत के अवसान के बाद हिंदू और गैरहिंदू तमाम शासकों के मुकाबले ब्रिटिश राजकाज को बेहतर मानते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ब्राह्मण तंत्रक ब्रिटिश हुकूमत की वजह से टूटने लगा है।जन्मगत पेशा बदलने की छूट ब्रिटिश हुकूमत की वजह से ही मिली है।

ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास गणदेवता  और हांसुली बांकेर उपकथा में इस संक्रमण काल का विवरण है।गणदेवता में जन्म और जाति के हिसाब से तय पेशा बदलने के लिए ग्रामीण समाज में मची खलबली का ब्यौरा है तो हांसुली बांकेर उपकथा में आदिवासी समाज में हो रहे बदलाव के आख्यान हैं।

ताराशंकर बंद्योपाध्याय इस बदलाव के खिलाफ थे और वे गांधीवादी भी थे। अरोग्य निकेतन में भी पुरातन चिकित्सा पद्धति का महिमामंडन है तो उनके बाकी कथा साहित्य में ब्रिटिश राज और भूमि के स्थाई बंदोबस्त,पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के कारण जमींदारों और सामंतोें के संकट का सिलसिलेवार ब्यौरा हैं जिसमें आदिवासी और दलित भी हैं।

दलितों और आदिवासी दिनचर्या और जीवन यापन का सही ब्यौरा पेश करते हुए उनके हक में सामंतों के खिलाफ हो रहे सामाजिक बदलाव को ताराशंकर बंद्योपाध्याय सामंती व्यवस्था का अवसान मान रहे थे।

गौरतलब है कि बंगाल का भद्र सवर्ण समाज और जमींदारी भूस्वामी वर्ग पलाशी युद्ध और उसके बाद लगातार ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में बने रहे हैं।

चुआड़ विद्रोह, संन्यासी विद्रोह,संथाल मुंडा विद्रोह नील विद्रोह,1857 की क्रांति और आदिवासी किसान जनविद्रोह के खिलाफ वे ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में ही थे।

बंगाल का नव जागरण भद्रलोक समाज तक सीमाबद्ध था और नव जागरण के मसीहा आदिवासियों और किसानों के विद्रोह और 1857 की क्रांति के पूरे दौर में अंग्रेजों के साथ थे।लेकिन पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली,तेज होते बहुजन आंदोलन और सामाजिक बदलाव से स्थाई भूमि बंदोबस्त के तहत बने जमींदारों और भूस्वामियों का संकट गहराते ही बंग भंग के बाद बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के समर्थन में भद्र कुलीन वर्ग शामिल हुआ।उसका नेतृत्व भी इसी भद्र समाज तक सीमाबद्ध था।

इसके विपरीत इससे पहले तक अंग्रेजों के खिलाफ सारी लड़ाई आदिवासी, शूद्र, अछूत ,मुसलमान ,किसान और मजदूर ही लड़ रहे थे।

स्वदेशी आंदोलन में भद्र समाज और जमींदार तबके के वर्चस्व के खिलाफ ही शुरु से आखिर तक अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने वाले तबकों में अंग्रेजी हकूमत के बदले ब्राह्मणों की हुकूमंत का डर पैदा हुआ और वे स्वदेशी आंदोलन से अलग हो गये।

रवींद्रनाथ भी बहुजन पुरखों की तरह ब्रिटिश हुकूमत के राजकाज को बेहतर मानते थे।1905 में बंगभंग के खिलाफ नाइट की उपाधि वापस करने और जालियांवाला नरसंहार के खिलाफ सबसे पहले मुखर होने,स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बावजूद वे सामाजिक बदलाव और प्रगति के सिलसिले में लगातार ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे।

इसके साथ ही फासीवाद नाजी नरसंहारी अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ दुनिया भर में नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद व्याख्यान दे रहे थे।लिख रहे थे।

इसी लिए वे हिंदुत्ववादियों के निशाने पर आ गये।

मौजूदा डिजिटल कारपोरेट भारत के अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर अनार्य द्रविड़ और दूसरी नस्लों के बहुसंख्य भारतवासी। सामाजिक विषमता लगातार बढ़ रही है,जिसे रवींद्रनाथ भारत की मुख्य समस्या मानते रहे हैं।

अनार्यों की देन के बारे में रवींद्र नाथ के भारत विमर्श में सर्वत्र विस्तार से उल्लेख है हालांकि आदिवासियों के बारे में अलग से उनका लिखा हमारे सामने फिलहाल नहीं है।

अनार्य और द्रविड़ सभ्यता से आदिवासियों को अलग रखा नहीं जा सकता तो अलग से आदिवासियों पर लिखने की शायद रवींद्रनाथ ने जरुरत न समझी हो।

गौरतलब है कि बहुजन आंदोलन के नेताओं ने भी आदिवासियों को अलगाव से निकालने की कोई कोशिश नहीं की जबकि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बहुजन समाज,शूद्र अछूत और मुसलमान किसान भी आदिवासियों के नेतृत्व में जल जंगल जमीन की साम्राज्यवाद सामंतवाद विरोधी हर लड़ाई में शामिल थे।

आदिवासी अस्मिता के बारे में वैदिकी आर्य नस्ली वर्चस्व की वजह से कोई समाजिक विमर्श ही शुरु नहीं हो सका और इसीि वजह से आनंदमठ के सौजन्य से ईस्टइंडिया कंपनी के खिलाफ साधु संतों पीर फकीर बाउलों,आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों,किसानों के जनविद्रोह का हिंदुत्वकरण हो गया और इसे संन्यासी विद्रोह कहकर आदिवासियों,शूद्रों,दलितों,मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व से बेदखल कर दिया गया और इसी प्रक्रिया के तहत स्वदेशी आंदोलन पर जमींदार तबकों,रियासतों और रजवाडो़ं का वर्चस्व कायम हो गया और अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता पर भी उन्हीं सवर्ण जमींदार रजवाड़ा वर्ग का ही वर्चस्व है और हिंदुत्व का फासीवादी अंध राष्ट्रवाद उन्हीं आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों के किलाफ नरसंहार संस्कृति है,जिसका रवींद्रनाथ शुरु से ही विरोध कर रहे थे।

बहुजन समाज से आदिवासियों का अलगाव खत्म करने के लिए शूद्र,दलित और मुसलमान नेताओं ने खास कुछ किया नहीं है तो पिछड़ों को अलग हांककर उन्हें सवर्ण का दर्जा देकर ब्राह्मणतंत्र और मजबूत होता चला गया।

भारतीय इतिहास में जिन शूद्रों ने सामती वर्चस्व को बार तोड़ा वही शूद्र नई कारपोरेट व्यवस्था के मुक्तबाजार में नस्ली वर्चस्व की फासिस्ट सत्ता की पैदल सेना हैं और आदिवासी लगातार अलगाव में हैं हालांकि जल जंगल जमीन की लड़ाई में वे आज भी सबसे आगे हैं लेकिन साम्राज्यवाद के खिलाफ जन विद्रोहों की तरह शूद्र,अछूत और मुसलमान आदिवासियों के साथ अब कहीं नहीं है।

आदिवासी विमर्श में सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के दौरान लिखे सरकारी गजट में प्रकाशित सामग्री या मानवशास्त्रियों,समाजशास्त्रियों और नृतत्वविदों के अध्ययन ही काफी नहीं है,उसके लिए समूचे भारतीय इतिहास की नये सिरे से जांच पड़ताल जरुरी है।इतिहास के खोये हुए पन्नों को खोज निकालकर रोशनी में लाना जरुरी है।

क्योंकि नस्ली वजूद के हिसाब से आदिवासी सिर्फ वे ही नहीं हैं जो आज आदिवासी हैं बल्कि शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों के धर्मांतरण से पहले के अतीत में मोहनजोदोड़ो हड़प्पा समय से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी एक अखंड आदिवासी समय है जिसे रवींद्रनाथ अनार्य और द्रविड़ सभ्यता कह रहे हैं।

हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि सिर्फ आर्यावर्त भारत का भूगोल नहीं है।आर्यावर्त से बाहर समूचा भारतवर्ष अनार्य द्रविड़ सभ्यता का भूगोल है तो हिमालय में भी जनजाति मूल के गैर आर्य लोगों की बहुसंख्य आबादी है।

इसी सिलसिले में आदिवासी विमर्श पर सिलसिलेवार चर्चा जरुरी है और आदिवासी इतिहास में ही भारत का अनार्य द्रविड़ इतिहास की पहेलियां सुलझायी जा सकती है।अभी हाल में  डाक से रांची से अश्विनी कुमार पंकज की भेजी चार कितांबें मिल गयी हैं।अंग्रेजी में जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों पर आधारित आदिवासीडम,ऱघुवीर प्रसाद की आदिवासी रियासतों के इतिहास पर ऐतिहासिक कृति झारखंड झंकार,पंकज संपादित प्राथमिक आदिवासी विमर्श और पहली आदिवासी कवियत्री सुशीला सामत का पहला कविता संग्रह।

जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी 1903 – 20 मार्च 1970)[1]भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलनके एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और 1925 में 'ऑक्सफोर्ड ब्लू'का खिताब पाने वाले हॉकीके एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे।[2]उनकी कप्तानी में १९२८ के ओलिंपिक में भारतने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।[3]

जयपाल सिंह छोटा नागपुर (अब झारखंड) राज्य की मुंडा जनजातिके थे। मिशनरीज की मदद से वह ऑक्सफोर्डके सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए।[4]वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया।

महेंद्र नारायण सिंह यादव ने यूथ की आवाज में लिखा हैः

मरांग गोमके यानी ग्रेट लीडर के नाम से लोकप्रिय हुए जयपाल सिंह मुंडा ने 1938-39 में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का गठन करके आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ने का निश्चय किया।

मध्य-पूर्वी भारत में आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए उन्होंने अलग आदिवासी राज्य बनाने की माँग की। उनके प्रस्तावित राज्य में वर्तमान झारखंड, उड़ीसा का उत्तरी भाग, छत्तीसगढ़ और बंगाल के कुछ हिस्से शामिल थे। उनकी माँग पूरी नहीं हुई, जिसका नतीजा यह रहा कि इन इलाकों में शोषण के खिलाफ नक्सलवाद जैसी समस्याएँ पैदा हुईं, जो आज तक देश के लिए परेशानी बनी हुई है। हालाँकि करीब साठ साल बाद वर्ष 2000 में झारखंड राज्य के निर्माण के साथ उनकी माँग आंशिक रूप से पूरी हुई, लेकिन तब तक आदवासियों की संख्या राज्य में घटकर करीब 26 फीसदी बची, जबकि 1951 में ये आबादी 51 फीसदी हुआ करती थी।

जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के लिए सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे। संविधान सभा के लिए जब वे बिहार प्रांत से निर्वाचित हुए तो उन्होंने आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए कड़े प्रयास किए।

अगस्त 1947 में जब अल्पसंख्यकों और वंचितों के अधिकारों पर पहली रिपोर्ट प्रकाशित ही तो उसमें केवल दलितों के लिए ही विशेष प्रावधान किए गए थे। दलित अधिकारों के लिए डॉ अंबेडकर बहुत ताकतवर नेता बन चुके थे, जिसका लाभ दलितों को तो मिलता दिख रहा था, लेकिन आदिवासियों को अनदेखा किया जा रहा था। ऐसे में जयपाल सिंह मुंडा ने कड़े तेवर दिखाए और संविधान सभा में ज़ोरदार भाषण दिया।

"आज़ादी की इस लड़ाई में हम सबको एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी ही हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और हर तरह से प्रताड़ित किया गया, लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।"

प्राथमिक आदिवासी विमर्श में शरत चंद्र राय का 1936 में लिखा आदिवासी अस्मिता पर ऐतिहासिक दस्तावेज भी शामिल है,जिसका मूल अंग्रेजी से मैंने हिंदी में अनुवाद किया है।इसके लिए आभारी हूूं।

बेहतर होता कि भारत राष्ट्र में आदिवासियों की स्थिति के विवेचन के सिलसिले में इन पुस्तकों पर भी चर्चा कर दी जाती।लेकिन इस परिसर की सीमा के मद्देनजर ऐसा संभव नहीं है।इन पुस्तकों पर अलग अलग लिखने की जरुरत है।

बहरहाल मैं अपने को आदिवासी समाज में शामिल मानता हूं और यह जानता हूं कि भारत की अश्वेत जनता के कृषि समुदाय के तमाम लोग हिंदुत्व में धर्मांतरित होने से पहले आदिवासी रहे हैं।इसलिए शुरु से मैं आदिवासी इतिहास में अपने पुरखों की भूमिका की खोज में रहा हूूं।इस दृष्टि से इस तरह की शोध सामग्री बेहद महत्वपूर्ण है।

मेरी हैसियत कुछ नहीं है लेकिन फिर भी सत्ता वर्ग मुझे जीने का मौका देने से इंकार कर रहा है।ऐसे कामों में संलग्न रहकर ही मैं जीवित रह सकता हूं।मुझे झारखंड और आदिवासी भूगोल से दस्तावेजों के अनुवाद के इसी तरह के काम का इंतजार है जिससे इतिहास को नये सिरे से देखने समझने की दृष्टि मिले और उस पारिश्रामिक से मेरा सार्थक जीविका निर्वाह हो सके।

पंकज जी अनुमति दें तो आदिवासी विमर्श की समीक्षा के साथ मैं शरत चंद्र राय के अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज को सोशल मीडिया पर उन लोगों के लिए शेयर करना चाहुंगा,जो आगे इस दस्तावेज को पढ़ने के बाद आदिवासी विमर्श की प्रासंगिकता को समझने में और उससे अपनी पहचान और जमीन को तलाशने में दिलचस्पी लें।

इन पुस्तकों का उल्लेख सिर्फ इसी मकसद से कर रहा हूं कि आदिवासियों को शामिल किये बिना भारतवर्ष बनता नहीं है।इसलिए आदिवासी विमर्श पर हम जितनी जल्दी व्यापक संवाद शुरु कर सकें तो बेहतर।

इसी तरह ब्राह्मणतंत्र के खिलाफ और वैदिकी सभ्यता के विरुद्ध कुछ भी नहीं लिखनेवाले रवींद्रनाथ लगातार सामाजिक न्याय और समता की बात करते हुए सामाजिक बदलाव की बात कर रहे थे।ब्राह्मणतंत्र के टूटने की प्रक्रिया पर बात कर रहे थे ब्राह्मणों की सामाजिक नेतृ्त्व के नस्ली वर्चस्व में बदलने की चर्चा करते हुए। उनका लिखे ब्राह्मण शीर्षक निबंध में ब्राह्मणों की भूमिका में बदलाव के साथ साथ ब्राह्मणतंत्र के टूटते जाने का ब्यौरा भी है।

इसमें वर्ण व्यवस्था के तहत तीनों वर्णों के द्विजत्व की चर्चा उन्होंने की है और ब्राह्मणत्व अर्जित करने की बात भी की है लेकिन शूद्रों और अवर्णों को इस आर्य समाज से बाहर ही रखा है।गौरतलब है कि हिंदू मुसलमान दो राष्ट्रीयताओं के सावल खड़े हो जाने पर हिंदुओं की आबादी मुसलमानों से कम पड़ जाने से सत्ता से बेदखली का खतरा पैदा होने से पहले तक भारत में शूद्रों और अछूतों को हिंदू नहीं माना जाता है।यह वैसा ही है जैसा कि  ओबीसी की जनगणना न कराने की कुल वजह यह है कि शूद्रों की जनसंख्या आधा से ज्यादा होने की स्थिति में उन्हें जनसंख्या के हिसाब से मौके दिये जाने पर तीन वर्णों के आधार पर हिंदुत्व के नस्ली वर्चस्व का बेड़ा गर्क तय है।

जन्मजात पेशे को बदलने की निषेधाज्ञा भी इन्हीं शूद्रों और अछूतों के खिलाफ थी।गौरतलब है कि भारत के  आदिवासी समाज में ऐसी पेशागत सामाजिक निषेधाज्ञा और उसके उल्लंघन पर सजा और बहिस्कार न होने की वजह से वहां दलितों और शूद्रों की तरह हीनताबोध कभी नहीं रहा है और मानसिक तौर पर वे कभी गुलाम नहीं रहे हैं।उऩका चरित्र स्वतंत्रता का धारक वाहक है।वे इसलिए लड़ाई से भागते भी नहीं है और न नस्ली वर्चस्व की पैदल सेना बनते हैं।आखिरी आदमी या औरत के बलिदान से पहले तक वे किसी विद्रोह या युद्ध में हार नहीं मानते।यही अनार्य द्रविड़ सभ्यता है।

जाहिर है कि ब्राह्मणतंत्र से बहिस्कृत शूद्रों और अवर्णों के लिए ही वे सामाजिक न्याय और समता की आवाज बुलंद करते हुए बौद्धमय भारत के आदर्शों और मूल्यों को अपनी रचनाधर्मिता का कथानक बना रखा था तो वे अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर इस वंचित तबके की स्थिति के मद्देनजर ब्राह्मणतंत्र के टूटने के सामाजिक आर्थिक बदलाव के सिलसिले में ही फासीवादी नाजी नरसंहारी राष्ट्रवाद के विरुद्ध ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे लेकिन वे किसी भी सूरत में साम्राज्यवादी औपनिवेशिक ब्रिटिश हुकूमत के पक्ष में नहीं थे और आजादी की लड़ाई में वे भारतीय जनता के पक्ष में ही मोर्चाबंद थे।

रवींद्रनाथ  सिर्फ ब्राहमणतंत्र के मुताबिक सामंती नस्ली वर्चस्व के तहत सामाजिक विषमता के खिलाफ न्याय,समता और कानून के राज के सिलसिले में बहुजन पुरखों की तरह ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे।

ब्राह्मण शीर्षक आलेख की शुरुआत में ही उन्होंने लिखा हैः

সকলেই জানেন, সম্প্রতি কোনো মহারাষ্ট্রী ব্রাহ্মণকে তাঁহার ইংরাজ প্রভু পাদুকাঘাত করিয়াছিল; তাহার বিচার উচ্চতম বিচারালয় পর্যন্ত গড়াইয়াছিল–শেষ, বিচারক ব্যাপারটাকে তুচ্ছ বলিয়া উড়াইয়া দিয়াছেন।

सभी जानते हैं कि हाल में महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण को उसके अंग्रेज प्रभु ने जूतों से पीटा है।इस मामले में इंसाफ की फरियाद उच्चतम न्यायलय तक पहुंची और अंत में न्यायाधीश ने इसे तुच्छ मामला मानकर खारिज कर दिया।

ঘটনাটা এতই লজ্জাকর যে, মাসিক পত্রে আমরা ইহার অবতারণা করিতাম না। মার খাইয়া মারা উচিত বা ক্রন্দন করা উচিত বা নালিশ করা উচিত, সে-সমস্ত আলোচনা খবরের কাগজে হইয়া গেছে–সে-সকল কথাও আমরা তুলিতে চাহি না। কিন্তু এই ঘটনাটি উপলক্ষ করিয়া যে-সকল গুরুতর চিন্তার বিষয় আমাদের মনে উঠিয়াছে তাহা ব্যক্ত করিবার সময় উপস্থিত।

यह घटनी इतनी शर्मनाक है कि मासिक पत्रिका में हम इसका उल्लेख नहीं करते।मार खाकर मारना चाहिए या रोना चाहिए या शिकायत करनी चाहिेए,ऐसी तमाम चर्चाएं अखबारों में हो चुकी है और हम वे मुद्दे उठाना नहीं चाहते।किंतु इस घटना के उपलक्ष्य में जिन गंभीर चिंता के मसले हमारे मन में उठ खड़े हुए हैं,उन्हें व्यक्त करने का यह समय है।

বিচারক এই ঘটনাটিকে তুচ্ছ বলেন–কাজেও দেখিতেছি ইহা তুচ্ছ হইয়া উঠিয়াছে, সুতরাং তিনি অন্যায় বলেন নাই। কিন্তু এই ঘটনাটি তুচ্ছ বলিয়া গণ্য হওয়াতেই বুঝিতেছি, আমাদের সমাজের বিকার দ্রুতবেগে অগ্রসর হইতেছে।

न्यायाधीश ने इस घटना को तुच्छ बता दिया है और वास्तव में भी हम देख रहे हैं कि यह घटना तुच्छ हो गयी है।किंतु इस घटना के तुच्छ हो जाने से यह बात समज में आ रही है कि हमारे समाज का विकार तेजी से बढ़ रहा है।

ইংরাজ যাহাকে প্রেস্টিজ, অর্থাৎ তাঁহাদের রাজসম্মান বলেন, তাহাকে মূল্যবান জ্ঞান করিয়া থাকেন। কারণ, এই প্রেষ্টিজের জোর অনেক সময়ে সৈন্যের কাজ করে। যাহাকে চালনা করিতে হইবে তাহার কাছে প্রেস্টিজ রাখা চাই। বোয়ার যুদ্ধের আরম্ভকালে ইংরাজ সাম্রাজ্য যখন স্বল্প পরিমিত কৃষকসম্প্রদায়ের হাতে বারবার অপমানিত হইতেছিল তখন ইংরাজ ভারতবর্ষের মধ্যে যত সংকোচ অনুভব করিতেছিল এমন আর কোথাও নহে। তখন আমরা সকলেই বুঝিতে পারিতেছিলাম, ইংরাজের বুট এ দেশে পূর্বের ন্যায় তেমন অত্যন্ত জোরে মচ্‌মচ্‌ করিতেছে না।

अंग्रेज जिसे प्रेस्टिज अर्थात राजकीय सम्मान कहते हैं और उसे बेशकीमती मानते हैं।क्योंकि इस प्रेस्टिज का जोर समय समय पर सेना के बहुत काम आता है।जिसे चलाना है,उसकी नजर में प्रेस्टिज बनाये रखना जरुरी है।बोयार युद्ध के आरंभकाल में जब सीमित संख्यक किसानों के हाथों ब्रिटिस साम्राज्य बार बरा अपमानित हो रहा था तब भारतवर्ष में अंग्रेजों को जो संकोच महसूस होने लगा,ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं हुआ।तभी हम सभी समझने लग गये थे कि अंग्रेजों के बूटों की धमक इस देश में पहले की तरह उतने जोर से गूंज  नहीं रही है।

আমাদের দেশে এককালে ব্রাহ্মণের তেমনি একটা প্রেস্টিজ ছিল। কারণ, সমাজচালনার ভার ব্রাহ্মণের উপরেই ছিল। ব্রাহ্মণ যথারীতি এই সমাজকে রক্ষা করিতেছেন কি না এবং সমাজরক্ষা করিতে হইলে যে-সকল নিঃস্বার্থ মহদ্‌গুণ থাকা উচিত সে-সমস্ত তাঁহাদের আছে কি না, সে কথা কাহারো মনে উদয় হয় নাই–যতদিন সমাজে তাঁহাদের প্রেস্টিজ ছিল। ইংরাজের পক্ষে তাঁহার প্রেস্টিজ যেরূপ মূল্যবাণ ব্রাহ্মণের পক্ষেও তাঁহার নিজের প্রেস্টিজ সেইরূপ।

हमारे देश में कभी ब्राह्मणों का ऐसा ही प्रेस्टिज रहा है।क्योंकि समाज के संचालन का कार्यभार ब्राह्मण का ही था।ब्राह्मण विधिपूर्वक समाज की रक्षा कर रहे हैं या नहीं एवं समाज की रक्षा के लिए जिन समस्त निःस्वार्थ महान गुणों की जरुरत होती है,वे गुण उनमें हैं या नहीं,ऐसा संशय किसी के मन में तबतक कभी पैदा नहीं हुआ,जबतक ब्राह्मणों का प्रेस्टिज बना रहा है।अंग्रेजों के लिए उनका प्रेस्टिज जितना बेशकीमती है,ब्राह्मणों के लिए बी अपना प्रेस्टिज उतना ही बेशकीमती है।



जयपाल सिंह के सशक्त हस्तक्षेप के बाद संविधान सभा को आदिवासियों के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि 400 आदिवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। उस समय इनकी आबादी करीब 7 फीसदी आँकी गई थी। इस लिहाज से उनके लिए नौकरियों और लोकसभा-विधानसभाओं में उनके लिए 7.5% आरक्षण सुनिश्चित किया जा सका।

इसके बाद आदिवासी हितों की रक्षा के लिए जयपाल सिंह मुंडा ने 1952 में झारखंड पार्टी का गठन किया। 1952 में झारखंड पार्टी को काफी सफलता मिली थी। उसके 3 सांसद और 23 विधायक जीते थे। स्वयं जयपाल सिंह लगातार चार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुँचे थे। बाद में झारखंड के नाम पर बनी तमाम पार्टियाँ उन्हीं के विचारों से प्रेरित हुईं।

पूर्वोत्तर के आदिवासियों में फैले असंतोष को उस समय भी जयपाल सिंह मुंडा पहचान रहे थे। नागा आंदोलन के जनक जापू पिजो को भी उन्होंने झारखंड की ही तर्ज पर अलग राज्य की माँग के लिए मनाने की कोशिश की थी, लेकिन पिजो सहमत नहीं हुए। इसी का नतीजा ये रहा कि आज तक नागालैंड उपद्रवग्रस्त इलाका बना हुआ है।

जयपाल सिंह मुंडा के ही कारण जनजातियों को  संविधान में कुछ विशिष्ट अधिकार मिल सके, हालाँकि, व्यवहार में उनका शोषण अब भी जारी है। खासकर, भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और गुजरात में तो इनके सामूहिक खात्मे का अभियान छिड़ा हुआ है। किसी को भी नक्सली बताकर गोली से उड़ा दिए जाने की परंपरा स्थापित हो चुकी है। यह दुखद स्थिति खत्म करने के लिए एक बार फिर से जयपाल सिंह मुंडा की विचारधारा का अनुसरण किए जाने की जरूरत है। पूरे जीवन आदिवासी हितों के लिए लड़ते-लड़ते 20 मार्च 1970 को जयपाल सिंह मुंडा का निधन हो गया।

उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंडचले गए थे। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया (बाबूगीरी का आलम तब भी वही था जो आज है!)। उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

उन्होंने बिहार के शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस संबंध में पत्र लिखा. परंतु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. 1938 की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया. इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया.[5]

1939 जनवरी में उन्होंने आदिवासी महासभाकी अध्यक्षता ग्रहण की जिसने बिहारसे इतर एक अलग झारखंडराज्य की स्थापना की मांग की। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय तब आया जब उन्होंने संविधान सभामें बेहद वाकपटुता से देश की आदिवासियों के बारे में सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखी।



अनार्यों की देन

रवींद्रनाथ टैगोर




किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्व-ज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वस्तुकला में कुशल थे। सभी कलाविद्याओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला-वधू थी। आर्यों के विशुद्ध तत्वज्ञान के साथ द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनी शक्ति के मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थी, न पूरी तरह अनार्य -यह हिंदू थी। दो विरोधी प्रवृत्तियों के निरंतर समन्वय-प्रयास से भारतवर्ष को एक आश्चर्यजनक संपदा मिली है। उसने अनंत को अंत के बीच उपलब्ध करना सीखा है, और भूमा को प्रात्यहिक जीवन की तुच्छता के बीच प्रत्यक्ष करने का अधिकार प्राप्त किया है। इसलिए भारत में जहाँ भी ये दो विरोधी शक्तियाँ नहीं मिल सकीं वहाँ मूढ़ता और अंधसंस्कार की सीमा न रही; लेकिन जहाँ भी उनका मिलन हुआ वहाँ अनंत के रसमय रूप की अबाधित अभिव्यक्ति हुई। भारत को ऐसी चीज मिली है जिसका ठीक से व्यवहार करना सबके वश का नहीं है, और जिसका दुर्व्यवहार करने से देश का जीवन गूढ़ता के भार से धूल में मिल जाता है। आर्य और द्रविड़, ये दो विरोधी चित्तवृत्तियाँ जहाँ सम्मिलित हो सकी हैं वहाँ सौंदर्य जगा है; जहाँ ऐसा मिलन संभव नहीं हुआ, वहाँ हम कृपणता और छोटापन देखते हैं। यह बात भी स्मरण रखनी होगी कि बर्बर अनार्यों की सामग्री ने भी एक दिन द्वार को खुला देखकर नि:संकोच आर्य-समाज में प्रवेश किया था। इस अनधिकृत प्रवेश का वेदनाबोध हमारे समाज ने दीर्घ काल तक अनुभव किया।


युद्ध बाहर का नहीं, शरीर के भीतर का था। अस्त्र ने शरीर के भीतर प्रवेश कर लिया; शत्रु घर के अंदर पहुँच गया। आर्य-सभ्यता के लिए ब्राह्मण अब सब-कुछ हो गए। जिस तरह वेद अभ्रांत धर्म-शास्त्र के रूप में समाज-स्थिति का सेतु बन गया, उसी तरह ब्राह्मण भी समाज में सर्वोच्च पूज्य पद ग्रहण करने की चेष्टा करने लगे। तत्कालीन पुराणों, इतिहासों और काव्यों में सर्वत्र यह चेष्टा प्रबल रूप से बार-बार व्यक्त हुई है जिससे हम समझ सकते हैं कि यह प्रतिकूलता के विरुद्ध प्रयास था, धारा के विपरीत दिशा में यात्रा थी। यदि हम ब्राह्मणों के इस प्रयास को किसी विशेष संप्रदाय का स्वार्थ-साधन और क्षमता-लाभ का प्रयत्न मानें, तो हम इतिहास को संकीर्ण और मिथ्या रूप में देखेंगे। यह प्रयास उस समय की संकट-ग्रस्त आर्य-जाति का आंतरिक प्रयास था। आत्मरक्षा का उत्कट प्रयत्न था। उस समय समाज के सभी लोगों के मन में ब्राह्मणों का प्रभाव यदि अक्षुण्ण न होता तो चारों दिशाओं में टूट कर गिरने वाले मूल्यों को जोड़ने का कोई उपाय न रह जाता।


इस अवस्था में ब्राह्मणों के सामने दो काम थे - एक, पहले से चली आ रही धारा की रक्षा करना, और दूसरा, नूतन को उसके साथ मिलाना। जीवन-क्रम में ये दोनों काम अत्यंत बाधाग्रस्त हो उठे थे, इसलिए ब्राह्मणों की क्षमता और अधिकार को समाज ने इतना अधिक बढ़ाया। अनार्य देवता को वेद के प्राचीन मंच पर स्थान दिया गया। रुद्र की उपाधि ग्रहण करके शिव ने आर्य-देवताओं के समूह में पदार्पण किया। इस तरह भारतवर्ष में सामाजिक मिलन ने ब्रह्मा-विष्णु-महेश का रूप ग्रहण किया। ब्रह्मा में आर्य-समाज का आरंभकाल था, विष्णु में मध्याह्नकाल, और शिव में उसकी शेष परिणति।


यद्यपि शिव ने रुद्र के नाम से आर्य-समाज में प्रवेश किया, फिर भी उसमें आर्य और अनार्य दोनों मूर्तियाँ स्वतंत्र हैं। आर्य के पक्ष से वह योगीश्वरी है - मदन को भस्म करके निर्वाण के आनंद में मग्न। उसका दिग्वास संन्यासी के त्याग का लक्षण है। अनार्य के पक्ष से वह वीभत्स है - रक्तरंजित गजचर्मधारी, भाँग और धतूरे से उन्मत्त। आर्य के पक्ष से वह बुद्ध का प्रतिरूप है और वह सर्वत्र बौद्ध मंदिरों पर सहज ही अधिकार करता है। दूसरी ओर, वह भूत-प्रेत इत्यादि श्मशानचर विभीषिकाओं को, और सर्प-पूजा, वृषभ-पूजा, लिंग-पूजा और वृक्ष-पूजा को आत्मसात करते हुए समाज के अंतर्गत अनार्यों की सारी तामसिक उपासना को आश्रय देता है। एक ओर, प्रवृत्ति को शांत कर के निर्जन स्थान में ध्यान और जप द्वारा उसकी साधना की जाती है; दूसरी ओर, चड़क पूजा इत्यादि विधियों से अपने-आपको प्रमत्त करके, और शरीर को तरह-तरह के क्लेश में उत्तेजित करके उसकी आराधना होती है। इस तरह आर्य-अनार्य की धाराएँ गंगा-जमुना की तरह एक हुईं; लेकिन उसके दो रंग एक-दूसरे के समीप हो कर पृथक रहे।

http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2050&pageno=1

ভারতবর্ষ/ব্রাহ্মণ

https://bn.wikisource.org/s/2e4

লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

সকলেই জানেন, সম্প্রতি কোনো মহারাষ্ট্রী ব্রাহ্মণকে তাঁহার ইংরাজ প্রভু পাদুকাঘাত করিয়াছিল; তাহার বিচার উচ্চতম বিচারালয় পর্যন্ত গড়াইয়াছিল–শেষ, বিচারক ব্যাপারটাকে তুচ্ছ বলিয়া উড়াইয়া দিয়াছেন।


ঘটনাটা এতই লজ্জাকর যে, মাসিক পত্রে আমরা ইহার অবতারণা করিতাম না। মার খাইয়া মারা উচিত বা ক্রন্দন করা উচিত বা নালিশ করা উচিত, সে-সমস্ত আলোচনা খবরের কাগজে হইয়া গেছে–সে-সকল কথাও আমরা তুলিতে চাহি না। কিন্তু এই ঘটনাটি উপলক্ষ করিয়া যে-সকল গুরুতর চিন্তার বিষয় আমাদের মনে উঠিয়াছে তাহা ব্যক্ত করিবার সময় উপস্থিত।


বিচারক এই ঘটনাটিকে তুচ্ছ বলেন–কাজেও দেখিতেছি ইহা তুচ্ছ হইয়া উঠিয়াছে, সুতরাং তিনি অন্যায় বলেন নাই। কিন্তু এই ঘটনাটি তুচ্ছ বলিয়া গণ্য হওয়াতেই বুঝিতেছি, আমাদের সমাজের বিকার দ্রুতবেগে অগ্রসর হইতেছে।


ইংরাজ যাহাকে প্রেস্টিজ, অর্থাৎ তাঁহাদের রাজসম্মান বলেন, তাহাকে মূল্যবান জ্ঞান করিয়া থাকেন। কারণ, এই প্রেষ্টিজের জোর অনেক সময়ে সৈন্যের কাজ করে। যাহাকে চালনা করিতে হইবে তাহার কাছে প্রেস্টিজ রাখা চাই। বোয়ার যুদ্ধের আরম্ভকালে ইংরাজ সাম্রাজ্য যখন স্বল্প পরিমিত কৃষকসম্প্রদায়ের হাতে বারবার অপমানিত হইতেছিল তখন ইংরাজ ভারতবর্ষের মধ্যে যত সংকোচ অনুভব করিতেছিল এমন আর কোথাও নহে। তখন আমরা সকলেই বুঝিতে পারিতেছিলাম, ইংরাজের বুট এ দেশে পূর্বের ন্যায় তেমন অত্যন্ত জোরে মচ্‌মচ্‌ করিতেছে না।


আমাদের দেশে এককালে ব্রাহ্মণের তেমনি একটা প্রেস্টিজ ছিল। কারণ, সমাজচালনার ভার ব্রাহ্মণের উপরেই ছিল। ব্রাহ্মণ যথারীতি এই সমাজকে রক্ষা করিতেছেন কি না এবং সমাজরক্ষা করিতে হইলে যে-সকল নিঃস্বার্থ মহদ্‌গুণ থাকা উচিত সে-সমস্ত তাঁহাদের আছে কি না, সে কথা কাহারো মনে উদয় হয় নাই–যতদিন সমাজে তাঁহাদের প্রেস্টিজ ছিল। ইংরাজের পক্ষে তাঁহার প্রেস্টিজ যেরূপ মূল্যবাণ ব্রাহ্মণের পক্ষেও তাঁহার নিজের প্রেস্টিজ সেইরূপ।


আমাদের দেশে সমাজ যেভাবে গঠিত, তাহাতে সমাজের পক্ষেও ইহার আবশ্যক আছে। আবশ্যক আছে বলিয়াই এত সম্মান ব্রাহ্মণকে দিয়াছিল।


আমাদের দেশে সমাজতন্ত্র একটি সুবৃহৎ ব্যাপার। ইহাই সমস্ত দেশকে নিয়মিত করিয়া ধারণ করিয়া রাখিয়াছে। ইহাই বিশাল লোকসম্প্রদায়কে অপরাধ হইতে, স্খলন হইতে, রক্ষা করিবার চেষ্টা করিয়া আসিয়াছে। যদি এরূপ না হইত তবে ইংরাজ তাঁহার পুলিস ও ফৌজের দ্বারা এতবড়ো দেশে এমন আশ্চর্য শান্তিস্থাপন করিতে পারিতেন না। নবাব-বাদশাহের আমলেও নানা রাজকীয় অশান্তিসত্ত্বেও সামাজিক শান্তি চলিয়া আসিতেছিল-তখনো লোকব্যবহার শিথিল হয় নাই, আদানপ্রদানে সততা রক্ষিত হইত, মিথ্যা সাক্ষ্য নিন্দিত হইত, ঋণী উত্তমর্ণকে ফাঁকি দিত না এবং সাধারণ ধর্মের বিধানগুলিকে সকলে সরল বিশ্বাসে সম্মান করিত।


সেই বৃহৎ সমাজের আদর্শ রক্ষা করিবার ও বিধিবিধান স্মরণ করাইয়া দিবার ভার ব্রাহ্মণের উপর ছিল। ব্রাহ্মণ এই সমাজের চালক ও ব্যবস্থাপক। এই কার্যসাধনের উপযোগী সম্মানও তাঁহার ছিল।


প্রাচ্যপ্রকৃতির অনুগত এই-প্রকার সমাজবিধানকে যদি নিন্দনীয় বলিয়া না মনে করা যায়, তবে ইহার আদর্শকে চিরকাল বিশুদ্ধ রাখিবার এবং ইহার শৃঙ্খলাস্থাপন করিবার ভার কোনো-এক বিশেষ সম্প্রদায়ের উপর সমর্পণ করিতেই হয়। তাঁহারা জীবনযাত্রাকে সরল ও বিশুদ্ধ করিয়া, অভাবকে সংক্ষিপ্ত করিয়া, অধ্যয়নঅধ্যাপন যজনযাজনকেই ব্রত করিয়া, দেশের উচ্চতম আদর্শকে সমস্ত দোকানদারির কলুষস্পর্শ হইতে রক্ষা করিয়া, সামাজিক যে সম্মান প্রাপ্ত হইতেছেন তাহার যথার্থ অধিকারী হইবেন–এরূপ আশা করা যায়। যথার্থ অধিকার হইতে লোক নিজের দোষে ভ্রষ্ট হয়। ইংরাজের বেলাতেও তাহা দেখিতে পাই। দেশী লোকের প্রতি অন্যায় করিয়া যখন প্রেস্টিজ রক্ষার দোহাই দিয়া ইংরাজ দণ্ড হইতে অব্যাহতি চায়, তখন যথার্থ প্রেস্টিজের অধিকার হইতে নিজেকে বঞ্চিত করে। ন্যায়পরতার প্রেস্টিজ সকল প্রেস্টিজের বড়ো–তাহার কাছে আমাদের মন স্বেচ্ছাপূর্বক মাথা নত করে–বিভীষিকা আমাদিগকে ঘাড়ে ধরিয়া নোয়াইয়া দেয়, সেই প্রণতিঅবমাননার বিরুদ্ধে আমাদের মন ভিতরে ভিতরে বিদ্রোহ না করিয়া থাকিতে পারে না।


ব্রাহ্মণও যখন আপন কর্তব্য পরিত্যাগ করিয়াছে তখন কেবল গায়ের জোরে পরলোকের ভয় দেখাইয়া সমাজের উচ্চতম আসনে আপনাকে রক্ষা করিতে পারে না।


কোনো সম্মান বিনা মূল্যের নহে। যথেচ্ছ কাজ করিয়া সম্মান রাখা যায় না। যে রাজা সিংহাসনে বসেন তিনি দোকান খুলিয়া ব্যবসা চালাইতে পারেন না। সম্মান যাঁহার প্রাপ্য তাঁহাকেই সকল দিকে সর্বদা নিজের ইচ্ছাকে খর্ব করিয়া চলিতে হয়। গৃহের অন্যান্য লোকের অপেক্ষা আমাদের দেশে গৃহকর্তা ও গৃহকর্ত্রীকেই সাংসারিক বিষয়ে অধিক বঞ্চিত হইতে হয়–বাড়ির গৃহিণীই সকলের শেষে অন্ন পান। ইহা না হইলে আত্মম্ভরিতার উপর কর্তৃত্বকে দীর্ঘকাল রক্ষা করা যায় না। সম্মানও পাইবে, অথচ তাহার কোনো মূল্য দিবে না, ইহা কখনোই চিরদিন সহ্য হয় না।


আমাদের আধুনিক ব্রাহ্মণেরা বিনা মূল্যে সম্মান আদায়ের বৃত্তি অবলম্বন করিয়াছিলেন। তাহাতে তাঁহাদের সম্মান আমাদের সমাজে উত্তরোত্তর মৌখিক হইয়া আসিয়াছে। কেবল তাহাই নয়; ব্রাহ্মণেরা সমাজের যে উচ্চকর্মে নিযুক্ত ছিলেন সে কর্মে শৈথিল্য ঘটাতে, সমাজেরও সন্ধিবন্ধন প্রতিদিন বিশ্লিষ্ট হইয়া আসিতেছে।


যদি প্রাচ্যভাবেই আমাদের দেশে সমাজ রক্ষা করিতে হয়, যদি য়ুরোপীয় প্রণালীতে এই বহুদিনের বৃহৎ সমাজকে আমূল পরিবর্তন করা সম্ভবপর বা বাঞ্ছনীয় না হয়, তবে যথার্থ ব্রাহ্মণসম্প্রদায়ের একান্ত প্রয়োজন আছে। তাঁহারা দরিদ্র হইবেন, পণ্ডিত হইবেন, ধর্মনিষ্ঠ হইবেন,সর্বপ্রকার আশ্রমধর্মের আদর্শ ও আশ্রয়-স্বরূপ হইবেন ও গুরু হইবেন।


যে সমাজের একদল ধনমানকে অবহেলা করিতে জানেন, বিলাসকে ঘৃণা করেন–যাঁহাদের আচার নির্মল, ধর্মনিষ্ঠা দৃঢ়, যাঁহারা নিঃস্বার্থভাবে জ্ঞান-অর্জন ও নিঃস্বার্থভাবে জ্ঞান-বিতরণে রত–পরাধীনতা বা দারিদ্র্যে সে সমাজের কোনো অবমাননা নাই। সমাজ যাঁহাকে যথার্থভাবে সম্মাননীয় করিয়া তোলে, সমাজ তাঁহার দ্বারাই সম্মানিত হয়।


সকল সমাজেই মান্যব্যক্তিরা, শ্রেষ্ঠ লোকেরাই, নিজ নিজ সমাজের স্বরূপ। ইংলণ্ডকে যখন আমরা ধনী বলি তখন অগণ্য দরিদ্রকে হিসাবের মধ্যে আনি না। য়ুরোপকে যখন আমরা স্বাধীন বলি, তখন তাহার বিপুল জনসাধারণের দুঃসহ অধীনতাকে গণ্য করি না। সেখানে উপরের কয়েকজন লোকই ধনী, উপরের কয়েকজন লোকই স্বাধীন, উপরের কয়েকজন লোকই পাশবতা হইতে মুক্ত। এই উপরের কয়েকজন লোক যতক্ষণ নিম্নের বহুতর লোককে সুখস্বাস্থ্য জ্ঞানধর্ম দিবার জন্য সর্বদা নিজের ইচ্ছাকে প্রয়োগ ও নিজের সুখকে নিয়মিত করে ততক্ষণ সেই সভ্যসমাজের কোনো ভয় নাই।


য়ুরোপীয় সমাজ এই ভাবে চলিতেছে কি না সে আলোচনা বৃথা মনে হইতে পারে, কিন্তু সম্পূর্ণ বৃথা নহে।


যেখানে প্রতিযোগিতার তাড়নায়, পাশের লোককে ছাড়াইয়া উঠিবার অত্যাকাঙ্ক্ষায়, প্রত্যেককে প্রতি মুহূর্তে লড়াই করিতে হইতেছে, সেখানে কর্তব্যের আদর্শকে বিশুদ্ধ রাখা কঠিন। এবং সেখানে কোনো একটা সীমায় আসিয়া আশাকে সংযত করাও লোকের পক্ষে দুঃসাধ্য হয়।


য়ুরোপের বড়ো বড়ো সাম্রাজ্যগুলি পরস্পর পরস্পরকে লঙ্ঘন করিয়া যাইবার প্রাণপণ চেষ্টা করিতেছে, এ অবস্থায় এমন কথা কাহারো মুখ দিয়া বাহির হইতে পারে না যে, বরঞ্চ পিছাইয়া প্রথম শ্রেণী হইতে দ্বিতীয় শ্রেণীতে পড়িব, তবু অন্যায় করিব না। এমন কথাও কাহারো মনে আসে না যে, বরঞ্চ জলে স্থলে সৈন্যসজ্জা কম করিয়া রাজকীয় ক্ষমতায় প্রতিবেশীর কাছে লাঘব স্বীকার করিব, কিন্তু সমাজের অভ্যন্তরে সুখসন্তোষ ও জ্ঞানধর্মের বিস্তার করিতে হইবে। প্রতিযোগিতার আকর্ষণে যে বেগ উৎপন্ন হয় তাহাতে উদ্দামভাবে চালাইয়া লইয়া যায়–এবং এই দুর্দান্তগতিতে চলাকেই য়ুরোপে উন্নতি কহে, আমরাও তাহাকেই উন্নতি বলিতে শিখিয়াছি। কিন্তু যে চলা পদে পদে থামার দ্বারা নিয়মিত নহে তাহাকে উন্নতি বলা যায় না। যে ছন্দে যতি নাই তাহা ছন্দই নহে। সমাজের পদমূলে সমুদ্র অহোরাত্র তরঙ্গিত ফেনায়িত হইতে পারে, কিন্তু সমাজের উচ্চতম শিখরে শান্তি ও স্থিতির চিরন্তন আদর্শ নিত্যকাল বিরাজমান থাকা চাই।


সেই আদর্শকে কাহারা অটলভাবে রক্ষা করিতে পারে? যাহারা পুরুষানুক্রমে স্বার্থের সংঘর্ষ হইতে দূরে আছে, আর্থিক দারিদ্র্যেই যাহাদের প্রতিষ্ঠা, মঙ্গলকর্মকে যাহারা পণ্যদ্রব্যের মতো দেখে না, বিশুদ্ধ জ্ঞান ও উন্নত ধর্মের মধ্যে যাহাদের চিত্ত অভ্রভেদী হইয়া বিরাজ করে, এবং অন্য-সকল পরিত্যাগ করিয়া সমাজের উন্নততম আদর্শকে রক্ষা করিবার মহদ্ভারই যাঁহাদিগকে পবিত্র ও পূজনীয় করিয়াছে।


য়ুরোপেও অবিশ্রাম কর্মালোড়নের মাঝে মাঝে এক-একজন মনীষী উঠিয়া ঘূর্ণগতির উন্মত্ত নেশার মধ্যে স্থিতির আদর্শ, লক্ষ্যের আদর্শ, পরিণতির আদর্শ ধরিয়া থাকেন। কিন্তু দুই দণ্ড দাঁড়াইয়া শুনিবে কে? সম্মিলিত প্রকাণ্ড স্বার্থের প্রচণ্ড বেগকে এই প্রকারের দুই-একজন লোক তর্জনী উঠাইয়া রুখিবেন কী করিয়া! বাণিজ্য-জাহাজে উনপঞ্চাশ পালে হাওয়া লাগিয়াছে, য়ুরোপের প্রান্তরে উন্মত্ত দর্শকবৃন্দের মাঝখানে সারিসারি যুদ্ধ-ঘোড়ার ঘোড়দৌড় চলিতেছে–এখন ক্ষণকালের জন্য থামিবে কে?


এই উন্মত্ততায়, এই প্রাণপণে নিজ শক্তির একান্ত উদ্‌ঘট্টনে, আধ্যাত্মিকতার জন্ম হইতে পারে এমন তর্ক আমাদের মনেও ওঠে। এই বেগের আকর্ষণ অত্যন্ত বেশি; ইহা আমাদিগকে প্রলুব্ধ করে; ইহা যে প্রলয়ের দিকে যাইতে পারে, এমন সন্দেহ আমাদের হয় না।


ইহা কী প্রকারের? যেমন চীরধারী যে-একটি দল নিজেকে সাধু ও সাধক বলিয়া পরিচয় দেয় তাহারা গাঁজার নেশাকে আধ্যাত্মিক আনন্দলাভের সাধনা বলিয়া মনে করে। নেশায় একাগ্রতা জন্মে, উত্তেজনা হয়, কিন্তু তাহাতে আধ্যাত্মিক স্বাধীন সবলতা হ্রাস হইতে থাকে। আর-সমস্ত ছাড়া যায়, কিন্তু এই নেশার উত্তেজনা ছাড়া যায় না–ক্রমে মনের বল যত কমিতে থাকে নেশার মাত্রাও তত বাড়াইতে হয়। ঘুরিয়া নৃত্য করিয়া বা সশব্দে বাদ্য বাজাইয়া, নিজেকে উদ্‌ভ্রান্ত ও মূর্ছান্বিত করিয়া, যে ধর্মোন্মাদের বিলাস সম্ভোগ করা যায় তাহাও কৃত্রিম। তাহাতে অভ্যাস জন্মিয়া গেলে, তাহা অহিফেনের নেশার মতো আমাদিগকে অবসাদের সময় কেবলই তাড়না করিতে থাকে। আত্মসমাহিত শান্ত একনিষ্ঠ সাধনা ব্যতীত যথার্থ স্থায়ী মূল্যবান কোনো জিনিস পাওয়া যায় না ও স্থায়ী মূল্যবান কোনো জিনিস রক্ষা করা যায় না।


অথচ আবেগ ব্যতীত কাজ ও কাজ ব্যতীত সমাজ চলিতে পারে না। এই জন্যই ভারতবর্ষ আপন সমাজে গতি ও স্থিতির সমন্বয় করিতে চাহিয়াছিল। ক্ষত্রিয় বৈশ্য প্রভৃতি যাহারা হাতে কলমে সমাজের কার্যসাধন করে তাহাদের কর্মের সীমা নির্দিষ্ট ছিল। এইজন্যই ক্ষত্রিয় ক্ষাত্রধর্মের আদর্শ রক্ষা করিয়া নিজের কর্তব্যকে ধর্মের মধ্যে গণ্য করিতে পারিত। স্বার্থ ও প্রবৃত্তির ঊর্ধ্বে ধর্মের উপরে কর্তব্য স্থাপন করিলে, কাজের মধ্যেও বিশ্রাম এবং আধ্যাত্মিকতালাভের অবকাশ পাওয়া যায়।


য়ুরোপীয় সমাজ যে নিয়মে চলে তাহাতে গতিজনিত বিশেষ একটা ঝোঁকের মুখেই অধিকাংশ লোককে ঠেলিয়া দেয়। সেখানে বুদ্ধিজীবী লোকেরা রাষ্ট্রীয় ব্যাপারেই ঝুঁকিয়া পড়ে, সাধারণ লোকে অর্থোপার্জনেই ভিড় করে। বর্তমানকালে সাম্রাজ্যলোলুপতা সকলকে গ্রাস করিয়াছে এবং জগৎ জুড়িয়া লঙ্কাভাগ চলিতেছে। এমন সময় হওয়া বিচিত্র নহে যখন বিশুদ্ধজ্ঞানচর্চা যথেষ্ট লোককে আকর্ষণ করিবে না। এমন সময় আসিতে পারে যখন আবশ্যক হইলেও সৈন্য পাওয়া যাইবে না। কারণ, প্রবৃত্তিকে কে ঠেকাইবে? যে জর্মনি একদিন পণ্ডিত ছিল সে জর্মনি যদি বণিক হইয়া দাঁড়ায়, তবে তাহার পাণ্ডিত্য উদ্ধার করিবে কে? যে ইংরাজ একদিন ক্ষত্রিয়ভাবে আর্তত্রাণব্রত গ্রহণ করিয়াছিল সে যখন গায়ের জোরে পৃথিবীর চতুর্দিকে নিজের দোকানদারি চালাইতে ধাবিত হইয়াছে, তখন তাহাকে তাহার সেই পুরাতন উদার ক্ষত্রিয়ভাবে ফিরাইয়া আনিবে কোন্‌ শক্তিতে? এই ঝোঁকের উপরেই সমস্ত কর্তৃত্ব না দিয়া সংযত সুশৃঙ্খল কর্তব্যবিধানের উপরে কর্তৃত্বভার দেওয়াই ভারতবর্ষীয় সমাজপ্রণালী। সমাজ যদি সজীব থাকে, বাহিরের আঘাতের দ্বারা অভিভূত হইয়া না পড়ে, তবে এই প্রণালী অনুসারে সকল সময়েই সমাজে সামঞ্জস্য থাকে–এক দিকে হঠাৎ হুড়ামুড়ি পড়িয়া অন্য দিক শূন্য হইয়া যায় না। সকলেই আপন আদর্শ রক্ষা করে এবং আপন কাজ করিয়া গৌরব বোধ করে।


কিন্তু কাজের একটা বেগ আছেই। সেই বেগে সে আপনার পরিণাম ভুলিয়া যায়। কাজ তখন নিজেই লক্ষ্য হইয়া উঠে। শুদ্ধমাত্র কর্মের বেগের মুখে নিজেকে ছাড়িয়া দেওয়াতে সুখ আছে। কর্মের ভূত কর্মী লোককে পাইয়া বসে।


শুদ্ধ তাহাই নহে। কার্যসাধনই যখন অত্যন্ত প্রাধান্য লাভ করে তখন উপায়ের বিচার ক্রমেই চলিয়া যায়। সংসারের সহিত, উপস্থিত আবশ্যকের সহিত কর্মীকে নানাপ্রকারে রফা করিয়া চলিতেই হয়।


অতএব যে সমাজে কর্ম আছে সেই সমাজেই কর্মকে সংযত রাখিবার বিধান থাকা চাই, অন্ধ কর্মই যাহাতে মনুষ্যত্বের উপর কর্তৃত্ব লাভ না করে এমন সতর্ক পাহারা থাকা চাই। কর্মিদলকে বরাবর ঠিক পথটি দেখাইবার জন্য, কর্মকোলাহলের মধ্যে বিশুদ্ধ সুরটি বরাবর অবিচলিতভাবে ধরিয়া রাখিবার জন্য, এমন এক দলের আবশ্যক যাঁহারা যথাসম্ভব কর্ম ও স্বার্থ হইতে নিজেকে মুক্ত রাখিবেন। তাঁহারাই ব্রাহ্মণ।


এই ব্রাহ্মণেরাই যথার্থ স্বাধীন। ইঁহারাই যথার্থ স্বাধীনতার আদর্শকে নিষ্ঠার সহিত, কাঠিন্যের সহিত, সমাজে রক্ষা করেন। সমাজ ইঁহাদিগকে সেই অবসর, সেই সামর্থ্য, সেই সম্মান দেয়। ইঁহাদের এই মুক্তি, ইহা সমাজের মুক্তি। ইঁহারা যে সমাজে আপনাকে মুক্তভাবে রাখেন ক্ষুদ্র পরাধীনতায় সে সমাজের কোনো ভয় নাই, বিপদ নাই। ব্রাহ্মণ-অংশের মধ্যে সে সমাজ সর্বদা আপনার মনের–আপনার আত্মার স্বাধীনতা উপলব্ধি করিতে পারে। আমাদের দেশের বর্তমান ব্রাহ্মণগণ যদি দৃঢ়ভাবে উন্নতভাবে অলুব্ধভাবে সমাজের এই পরমধনটি রক্ষা করিতেন তবে ব্রাহ্মণের অবমাননা সমাজ কখনোই ঘটিতে দিত না এবং এমন কথা কখনোই বিচারকের মুখ দিয়া বাহির হইতে পারিত না যে,ভদ্র ব্রাহ্মণকে পাদুকাঘাত করা তুচ্ছ ব্যাপার। বিদেশী হইলেও বিচারক মানী ব্রাহ্মণের মান আপনি বুঝিতে পারিতেন।


কিন্তু যে ব্রাহ্মণ সাহেবের আপিসে নতমস্তকে চাকরি করে, যে ব্রাহ্মণ আপনার অবকাশ বিক্রয় করে, আপনার মহান্‌ অধিকারকে বিসর্জন দেয়, যে ব্রাহ্মণ বিদ্যালয়ে বিদ্যাবণিক, বিচারালয়ে বিচারব্যবসায়ী, যে ব্রাহ্মণ পয়সার পরিবর্তে আপনার ব্রাহ্মণ্যকে ধিক্‌কৃত করিয়াছে–সে আপন আদর্শ রক্ষা করিবে কী করিয়া? সমাজ রক্ষা করিবে কী করিয়া? শ্রদ্ধার সহিত তাহার নিকট ধর্মের বিধান লইতে যাইব কী বলিয়া? সে তো সর্বসাধারণের সহিত সমানভাবে মিশিয়া ঘর্মাক্তকলেবরে কাড়কাড়ি-ঠেলাঠেলির কাজে ভিড়িয়া গেছে। ভক্তির দ্বারা সে ব্রাহ্মণ তো সমাজকে ঊর্ধ্বে আকৃষ্ট করে না, নিম্নেই লইয়া যায়।


এ কথা জানি কোনো সম্প্রদায়ের প্রত্যেক লোকই কোনো কালে আপনার ধর্মকে বিশুদ্ধভাবে রক্ষা করে না, অনেকে স্খলিত হয়। অনেকে ব্রাহ্মণ হইয়াও ক্ষত্রিয় ও বৈশ্যের ন্যায় আচরণ করিয়াছে, পুরাণে এরূপ উদাহরণ দেখা যায়। কিন্তু তবু যদি সম্প্রদায়ের মধ্যে আদর্শ সজীব থাকে, ধর্মপালনের চেষ্টা থাকে, কেহ আগে যাক কেহ পিছাইয়া পড়ুক, কিন্তু সেই পথের পথিক যদি থাকে, যদি এই আদর্শের প্রত্যক্ষ দৃষ্টান্ত অনেকের মধ্যে দেখিতে পাওয়া যায়, তবে সেই চেষ্টার দ্বারা, সেই সাধনার দ্বারা, সেই সফলতাপ্রাপ্ত ব্যক্তিদের দ্বারাই সমস্ত সম্প্রদায় সার্থক হইয়া থাকে। আমাদের আধুনিক ব্রাহ্মণসমাজে সেই আদর্শই নাই! সেইজন্যই ব্রাহ্মণের ছেলে ইংরাজি শিখিলেই ইংরাজি কেতা ধরে–পিতা তাহাতে অসন্তুষ্ট হন না। কেন এম. এ. -পাস-করা মুখোপাধ্যায়, বিজ্ঞানবিৎ চট্টোপাধ্যায়, যে বিদ্যা পাইয়াছেন তাহা ছাত্রকে ঘরে ডাকিয়া আসন হইয়া বসিয়া বিতরণ করিতে পারেন না? সমাজকে শিক্ষাঋণে ঋণী করিবার গৌরব হইতে কেন তাঁহারা নিজেকে ও ব্রাহ্মণসমাজকে বঞ্চিত করেন?


তাঁহারা জিজ্ঞাসা করিবেন, খাইব কী? যদি কালিয়া-পোলোয়া না খাইলেও চলে, তবে নিশ্চয়ই সমাজ আপনি আসিয়া যাচিয়া খাওয়াইয়া যাইবে। তাঁহাদের নহিলে সমাজের চলিবে না, পায়ে ধরিয়া সমাজ তাঁহাদিগকে রক্ষা করিবে। আজ তাঁহারা বেতনের জন্য হাত পাতেন, সেইজন্য সমাজ রসিদ লইয়া টিপিয়া টিপিয়া তাঁহাদিগকে বেতন দেয় ও কড়ায় গণ্ডায় তাঁহাদের কাছ হইতে কাজ আদায় করিয়া লয়। তাঁহারাও কলের মতো বাঁধা নিয়মে কাজ করেন; শ্রদ্ধা দেনও না, শ্রদ্ধা পানও না–উপরন্তু মাঝে মাঝে সাহেবের পাদুকা পৃষ্ঠে বহন করা-রূপ অত্যন্ত তুচ্ছ ঘটনার সুবিখ্যাত উপলক্ষ হইয়া উঠেন।


আমাদের সমাজে ব্রাহ্মণের কাজ পুনরায় আরম্ভ হইবে, এ সম্ভাবনাকে আমি সুদূরপরাহত মনে করি না এবং এই আশাকে আমি লঘুভাবে মন হইতে অপসারিত করিতে পারি না। ভারতবর্ষের চিরকালের প্রকৃতি তাহার ক্ষণকালের বিকৃতিকে সংশোধন করিয়া লইবেই।


এই পুনর্জাগ্রত ব্রাহ্মণসমাজের কাজে অব্রাহ্মণ অনেকেও যোগ দিবেন। প্রাচীন ভারতেও ব্রাহ্মণেতর অনেকে ব্রাহ্মণের ব্রত গ্রহণ করিয়া জ্ঞানচর্চা ও উপদেষ্টার কাজ করিয়াছেন, ব্রাহ্মণও তাঁহাদের কাছে শিক্ষালাভ করিয়াছেন, এমন দৃষ্টান্তের অভাব নাই।


প্রাচীনকালে যখন ব্রাহ্মণই একমাত্র দ্বিজ ছিলেন না, ক্ষত্রিয়-বৈশ্যও দ্বিজসম্প্রদায়ভুক্ত ছিলেন, যখন ব্রহ্মচর্য অবলম্বন করিয়া উপযুক্ত শিক্ষালাভের দ্বারা ক্ষত্রিয়-বৈশ্যের উপনয়ন হইত, তখনই এ দেশে ব্রাহ্মণের আদর্শ উজ্জ্বল ছিল। কারণ, চারি দিকের সমাজ যখন অবনত তখন কোনো বিশেষ সমাজ আপনাকে উন্নত রাখিতে পারে না, ক্রমেই নিম্নের আকর্ষণ তাহাকে নীচের স্তরে লইয়া আসে। ভারতবর্ষে যখন ব্রাহ্মণই একমাত্র দ্বিজ অবশিষ্ট রহিল–যখন তাহার আদর্শ স্মরণ করাইয়া দিবার জন্য, তাহার নিকট ব্রাহ্মণত্ব দাবি করিবার জন্য, চারি দিকে আর কেহই রহিল না–তখন তাহার দ্বিজত্বের বিশুদ্ধ কঠিন আদর্শ দ্রুতবেগে ভ্রষ্ট হইতে লাগিল। তখনই সে জ্ঞানে বিশ্বাসে রুচিতে ক্রমশ নিকৃষ্ট অধিকারীর দলে আসিয়া উত্তীর্ণ হইল। চারি দিকে যেখানে গোলপাতার কুঁড়ে সেখানে নিজের বিশিষ্টতা রক্ষা করিতে হইলে একটা আটচালা বাঁধিলেই যথেষ্ট–সেখানে সাত-মহল প্রাসাদ নির্মাণ করিয়া তুলিবার ব্যয় ও চেষ্টা স্বীকার করিতে সহজেই অপ্রবৃত্তি জন্মে।


প্রাচীনকালে ব্রাহ্মণ-ক্ষত্রিয়-বৈশ্য দ্বিজ ছিল, অর্থাৎ সমস্ত আর্যসমাজই দ্বিজ ছিল; শূদ্র বলিতে যে-সকল লোককে বুঝাইত তাহারা সাঁওতাল ভিল কোল ধাঙড়ের দলে ছিল। আর্যসমাজের সহিত তাহাদের শিক্ষা রীতিনীতি ও ধর্মের সম্পূর্ণ ঐক্যস্থাপন একেবারেই অসম্ভব ছিল। কিন্তু তাহাতে কোনো ক্ষতি ছিল না, কারণ, সমস্ত আর্যসমাজই দ্বিজ ছিল–অর্থাৎ আর্যসমাজের শিক্ষা একই রূপ ছিল। প্রভেদ ছিল কেবল কর্মে। শিক্ষা একই থাকায় পরস্পর পরস্পরকে আদর্শের বিশুদ্ধিরক্ষায় সম্পূর্ণ আনুকূল্য করিতে পারিত। ক্ষত্রিয় এবং বৈশ্য ব্রাহ্মণকে ব্রাহ্মণ হইতে সাহায্য করিত এবং ব্রাহ্মণও ক্ষত্রিয়-বৈশ্যকে ক্ষত্রিয়-বৈশ্য হইতে সাহায্য করিত। সমস্ত সমাজের শিক্ষার আদর্শ সমান উন্নত না হইলে এরূপ কখনোই ঘটিতে পারে না।


বর্তমান সমাজেরও যদি একটা মাথার দরকার থাকে, সেই মাথাকে যদি উন্নত করিতে হয় এবং সেই মাথাকে যদি ব্রাহ্মণ বলিয়া গণ্য করা যায়, তবে তাহার স্কন্ধকে ও গ্রীবাকে একেবারে মাটির সমান করিয়া রাখিলে চলিবে না। সমাজ উন্নত না হইলে তাহার মাথা উন্নত হয় না, এবং সমাজকে সর্বপ্রযত্নে উন্নত করিয়া রাখাই সেই মাথার কাজ।


আমাদের বর্তমান সমাজের ভদ্রসম্প্রদায়–অর্থাৎ বৈদ্য কায়স্থ ও বণিক-সম্প্রদায়–সমাজ যদি ইঁহাদিগকে দ্বিজ বলিয়া গণ্য না করে তবে ব্রাহ্মণের আর উত্থানের আশা নাই। এক পায়ে দাঁড়াইয়া সমাজ বকবৃত্তি করিতে পারে না।


বৈদ্যেরা তো উপবীত গ্রহণ করিয়াছেন। মাঝে মাঝে কায়স্থেরা বলিতেছেন তাঁহারা ক্ষত্রিয়, বণিকেরা বলিতেছেন তাঁহারা বৈশ্য–এ কথা অবিশ্বাস করিবার কোনো কারণ দেখি না। আকারপ্রকার বুদ্ধি ও ক্ষমতা, অর্থাৎ আর্যত্বের লক্ষণে, বর্তমান ব্রাহ্মণের সহিত ইঁহাদের প্রভেদ নাই। বঙ্গদেশের যে-কোনো সভায় পইতা না দেখিলে, ব্রাহ্মণের সহিত কায়স্থ সুবর্ণবণিক প্রভৃতিদের তফাত করা অসম্ভব। কিন্তু যথার্থ অনার্য অর্থাৎ ভারতবর্ষীয় বন্যজাতির সহিত তাঁহাদের তফাত করা সহজ। বিশুদ্ধ আর্যরক্তের সহিত অনার্যরক্তের মিশ্রণ হইয়াছে, তাহা আমাদের বর্ণে আকৃতিতে ধর্মে আচারে ও মানসিক দুর্বলতায় স্পষ্ট বুঝা যায়–কিন্তু সে মিশ্রণ ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য সকল সম্প্রদায়ের মধ্যেই রহিয়াছে।


তথাপি এই মিশ্রণ এবং বৌদ্ধযুগের সামাজিক অরাজকতার পরেও সমাজ ব্রাহ্মণকে একটা বিশেষ গণ্ডি দিয়া রাখিয়াছে। কারণ, আমাদের সমাজের যেরূপ গঠন, তাহাতে ব্রাহ্মণকে নহিলে তাহার সকল দিকেই বাধে, আত্মরক্ষার জন্য যেমন তেমন করিয়া ব্রাহ্মণকে সংগ্রহ করিয়া রাখা চাই। আধুনিক ইতিহাসে এমনও দেখা যায়, কোনো কোনো স্থানে বিশেষ-প্রয়োজন-বশত রাজা পইতা দিয়া একদল ব্রাহ্মণ তৈরি করিয়াও লইয়াছেন। বাংলাদেশে যখন ব্রাহ্মণেরা আচারে ব্যবহারে বিদ্যাবুদ্ধিতে ব্রাহ্মণত্ব হারাইয়াছিলেন তখন রাজা বিদেশ হইতে ব্রাহ্মণ আনাইয়া সমাজের কাজ চালাইতে বাধ্য হইয়াছিলেন। এই ব্রাহ্মণ যখন চারি দিকের প্রভাবে নত হইয়া পড়িতেছিল তখন রাজা কৃত্রিম উপায়ে কৌলীন্য স্থাপন করিয়া ব্রাহ্মণের নির্বাণোন্মুখ মর্যাদাকে খোঁচা দিয়া জাগাইতেছিলেন। অপর পক্ষে, কৌলীন্যে বিবাহসম্বন্ধে যেরূপ বর্বরতার সৃষ্টি করিল তাহাতে এই কৌলীন্যই বর্ণমিশ্রণের এক গোপন উপায় হইয়া উঠিয়াছিল।


যাহাই হউক, শাস্ত্রবিহিত ক্রিয়াকর্ম রক্ষার জন্য, বিশেষ আবশ্যকতাবশতই, সমাজ বিশেষ চেষ্টায় ব্রাহ্মণকে স্বতন্ত্রভাবে নির্দিষ্ট করিয়া রাখিতে বাধ্য হইয়াছিল। ক্ষত্রিয়-বৈশ্যদিগকে সেরূপ বিশেষভাবে তাহাদের পূর্বতন আচার কাঠিন্যের মধ্যে বদ্ধ করিবার কোনো অত্যাবশ্যকতা বাংলাসমাজে ছিল না। যে খুশি যুদ্ধ করুক, বাণিজ্য করুক, তাহাতে সমাজের বিশেষ কিছু আসিত যাইত না–এবং যাহারা যুদ্ধ বাণিজ্য কৃষি শিল্পে নিযুক্ত থাকিবে তাহাদিগকে বিশেষ চিহ্নের দ্বারা পৃথক করিবার কিছুমাত্র প্রয়োজন ছিল না। ব্যবসায় লোকে নিজের গরজেই করে, কোনো বিশেষ ব্যবস্থার অপেক্ষা রাখে না–ধর্মসম্বন্ধে সে বিধি নহে; তাহা প্রাচীন নিয়মে আবদ্ধ, তাহার আয়োজন রীতিপদ্ধতি আমাদের স্বেচ্ছাবিহিত নহে।


অতএব জড়ত্বপ্রাপ্ত সমাজের শৈথিল্যবশতই এক সময়ে ক্ষত্রিয়-বৈশ্য আপন অধিকার হইতে ভ্রষ্ট হইয়া একাকার হইয়া গেছে। তাঁহারা যদি সচেতন হন, যদি তাঁহারা নিজের অধিকার যথার্থভাবে গ্রহণ করিবার জন্য অগ্রসর হন, নিজের গৌরব যথার্থভাবে প্রমাণ করিবার জন্য উদ্যত হন, তবে তাহাতে সমস্ত সমাজের পক্ষে মঙ্গল, ব্রাহ্মণদের পক্ষে মঙ্গল।


ব্রাহ্মণদিগকে নিজের যথার্থ গৌরব লাভ করিবার জন্য যেমন প্রাচীন আদর্শের দিকে যাইতে হইবে, সমস্ত সমাজকেও তেমনি যাইতে হইবে; ব্রাহ্মণ কেবল একলা যাইবে এবং আর-সকলে যে যেখানে আছে সে সেখানেই পড়িয়া থাকিবে, ইহা হইতেই পারে না। সমস্ত সমাজের এক দিকে গতি না হইলে তাহার কোনো এক অংশ সিদ্ধিলাভ করিতে পারে না। যখন দেখিব আমাদের দেশের কায়স্থ ও বণিকগণ আপনাদিগকে প্রাচীন ক্ষত্রিয় ও বৈশ্য-সমাজের সহিত যুক্ত করিয়া বৃহৎ হইবার, বহু পুরাতনের সহিত এক হইবার চেষ্টা করিতেছেন এবং প্রাচীন ভারতের সহিত আধুনিক ভারতকে সম্মিলিত করিয়া আমাদের জাতীয় সত্তাকে অবিচ্ছিন্ন করিবার চেষ্টা করিতেছেন, তখনই জানিব আধুনিক ব্রাহ্মণ ও প্রাচীন ব্রাহ্মণের সহিত মিলিত হইয়া ভারতবর্ষীয় সমাজকে সজীবভাবে যথার্থভাবে অখন্ডভাবে এক করিবার কার্যে সফল হইবেন। নহিলে কেবল স্থানীয় কলহবিবাদ দলাদলি লইয়া বিদেশী প্রভাবের সাংঘাতিক অভিঘাত হইতে সমাজকে রক্ষা করা অসম্ভব হইবে, নহিলে ব্রাহ্মণের সম্মান অর্থাৎ আমাদের সমস্ত সমাজের সম্মান ক্রমে তুচ্ছ হইতে তুচ্ছতম হইয়া আসিবে। আমাদের সমস্ত সমাজ প্রধানতই দ্বিজসমাজ; ইহা যদি না হয়, সমাজ যদি শুদ্রসমাজ হয়, তবে কয়েকজনমাত্র ব্রাহ্মণকে লইয়া এ সমাজ য়ুরোপীয় আদর্শেও খর্ব হইবে, ভারতবর্ষীয় আদর্শেও খর্ব হইবে।


সমস্ত উন্নত সমাজই সমাজস্থ লোকের নিকট প্রাণের দাবি করিয়া থাকে,আপনাকে নিকৃষ্ট বলিয়া স্বীকার করিয়া আরামে জড়ত্বসুখভোগে যে সমাজ আপনার অধিকাংশ লোককে প্রশ্রয় দিয়া থাকে সে সমাজ মরে, এবং না'ও যদি মরে তবে তাহার মরাই ভালো।


য়ুরোপ কর্মের উত্তেজনায়, প্রবৃত্তির উত্তেজনায় সর্বাদাই প্রাণ দিতে প্রস্তুত–আমরা যদি ধর্মের জন্য প্রাণ দিতে প্রস্তুত না হই তবে সে প্রাণ অপমানিত হইতে থাকিলে অভিমান প্রকাশ করা আমাদের শোভা পায় না।


য়ুরোপীয় সৈন্য যুদ্ধানুরাগের উত্তেজনায় ও বেতনের লোভে ও গৌরবের আশ্বাসে প্রাণ দেয়, কিন্তু ক্ষত্রিয় উত্তেজনা ও বেতনের অভাব ঘটিলেও যুদ্ধে প্রাণ দিতে প্রস্তুত থাকে। কারণ, যুদ্ধ সমাজের অত্যাবশ্যক কর্ম, এক সম্প্রদায় যদি নিজের ধর্ম বলিয়াই সেই কঠিন কর্তব্যকে গ্রহণ করেন তবে কর্মের সহিত ধর্মরক্ষা হয়। দেশ-সুদ্ধ সকলে মিলিয়াই যুদ্ধের জন্য প্রস্তুত হইলে মিলিটারিজ্‌ম'এর প্রাবল্যে দেশের গুরুতর অনিষ্ট ঘটে।


বাণিজ্য সমাজরক্ষার পক্ষে অত্যাবশ্যক কর্ম। সেই সামাজিক আবশ্যকপালনকে এক সম্প্রদায় যদি আপন সাম্প্রদায়িক ধর্ম, আপন কৌলিক গৌরব বলিয়া গ্রহণ করেন, তবে বণিকবৃত্তি সর্বত্রই পরিব্যাপ্ত হইয়া সমাজের অন্যান্য শক্তিকে গ্রাস করিয়া ফেলে না। তা ছাড়া কর্মের মধ্যে ধর্মের আদর্শ সর্বদাই জাগ্রত থাকে।


ধর্ম এবং জ্ঞানার্জন, যুদ্ধ এবং রাজকার্য, বাণিজ্য এবং শিল্পচর্চা–সমাজের এই তিন অত্যাবশ্যক কর্ম। ইহার কোনোটাকেই পরিত্যাগ করা যায় না। ইহার প্রত্যেকটিকেই ধর্মগৌরব কুলগৌরব দান করিয়া সম্প্রদায়বিশেষের হস্তে সমর্পন করিলে তাহাদিগকে সীমাবদ্ধও করা হয়, অথচ বিশেষ উৎকর্ষসাধনেরও অবসর দেওয়া হয়।


কর্মের উত্তেজনাই পাছে কর্তা হইয়া আমাদের আত্মাকে অভিভূত করিয়া দেয়, ভারতবর্ষের এই আশঙ্কা ছিল। তাই ভারতবর্ষে সামাজিক মানুষটি লড়াই করে, বাণিজ্য করে, কিন্তু নিত্যমানুষটি, সমগ্র মানুষটি শুধুমাত্র সিপাই নহে, শুধুমাত্র বণিক নহে। কর্মকে কুলব্রত করিলে, কর্মকে সামাজিক ধর্ম করিয়া তুলিলে, তবে কর্মসাধনও হয়, অথচ সেই কর্ম আপন সীমা লঙ্ঘন করিয়া, সমাজের সামঞ্জস্য ভঙ্গ করিয়া, মানুষের সমস্ত মনুষ্যত্বকে আচ্ছন্ন করিয়া, আত্মার রাজসিংহাসন অধিকার করিয়া বসে না।


যাঁহারা দ্বিজ তাঁহাদিগকে এক সময় কর্ম পরিত্যাগ করিতে হয়। তখন তাঁহারা আর ব্রাহ্মণ নহেন, ক্ষত্রিয় নহেন, বৈশ্য নহেন–তখন তাঁহারা নিত্যকালের মানুষ–তখন কর্ম তাঁহাদের পক্ষে আর ধর্ম নহে, সুতরাং অনায়াসে পরিহার্য। এইরূপে দ্বিজসমাজ বিদ্যা এবং অবিদ্যা উভয়কে রক্ষা করিয়াছিলেন–তাঁহারা বলিয়াছিলেন, অবিদ্যয়া মৃত্যুং তীর্‌ত্বা বিদ্যয়ামৃতমশ্নুতে, অবিদ্যার দ্বারা মৃত্যু উত্তীর্ণ হইয়া বিদ্যার দ্বারা অমৃত লাভ করিবে। এই সংসারই মৃত্যুনিকেতন, ইহাই অবিদ্যা–ইহাকে উত্তীর্ণ হইতে হইলে ইহার ভিতর দিয়াই যাইতে হয়; কিন্তু এমনভাবে যাইতে হয়, যেন ইহাই চরম না হইয়া উঠে। কর্মকেই একান্ত প্রাধান্য দিলে সংসারই চরম হইয়া উঠে; মৃত্যুকে উত্তীর্ণ হওয়া যায় না; অমৃত লাভ করিবার লক্ষ্যই ভ্রষ্ট হয়, তাহার অবকাশই থাকে না। এইজন্যই কর্মকে সীমাবদ্ধ করা, কর্মকে ধর্মের সহিত যুক্ত করা–কর্মকে প্রবৃত্তির হাতে, উত্তেজনার হাতে, কর্মজনিত বিপুল বেগের হাতে, ছাড়িয়া না দেওয়া–এবং এইজন্যই ভারতবর্ষে কর্মভেদ বিশেষ বিশেষ জনশ্রেণীতে নির্দিষ্ট করা।


ইহাই আদর্শ। ধর্ম ও কর্মের সামঞ্জস্য রক্ষা করা এবং মানুষের চিত্ত হইতে কর্মের নানা পাশ শিথিল করিয়া তাহাকে এক দিকে সংসারব্রতপরায়ণ অন্য দিকে মুক্তির অধিকারী করিবার অন্য কোনো উপায় তো দেখি না। এই আদর্শ উন্নততম আদর্শ, এবং ভারতবর্ষের আদর্শ। এই আদর্শে বর্তমান সমাজকে সাধারণভাবে অধিকৃত ও চালিত করিবার উপায় কী, তাহা আমাদিগকে চিন্তা করিতে হইবে। সমাজের সমস্ত বন্ধন ছেদন করিয়া কর্মকে ও প্রবৃত্তিকে উদ্দাম করিয়া তোলা–সেজন্য কাহাকেও চেষ্টা করিতে হয় না। সমাজের সে অবস্থা জড়ত্বের দ্বারা, শৈথিল্যের দ্বারা আপনি আসিতেছে। বিদেশী শিক্ষার প্রাবল্যে, দেশের অর্থনৈতিক অবস্থার প্রতিকূলতায়, এই ভারতবর্ষীয় আদর্শ সত্বর এবং সহজে সমস্ত সমাজকে অধিকার করিতে পারিবে না–ইহা আমি জানি। কিন্তু য়ুরোপীয় আদর্শ অবলম্বন করাই যে আমাদের পক্ষে সহজ এ দুরাশাও আমার নাই। সর্বপ্রকার আদর্শ পরিত্যাগ করাই সর্বাপেক্ষা সহজ, এবং সেই সহজ পথই আমরা অবলম্বন করিয়াছি। য়ুরোপীয় সভ্যতার আদর্শ এমন একটা আলগা জিনিস নহে যে, তাহা পাকা ফলটির মতো পাড়িয়া লইলেই কবলের মধ্যে অনায়াসে স্থান পাইতে পারে।


সকল পুরাতন ও বৃহৎ আদর্শের মধ্যেই বিনাশ ও রক্ষার একটি সামঞ্জস্য আছে। অর্থাৎ তাহার শক্তি বাড়াবাড়ি করিয়া মরিতে চায়, তাহার অন্য শক্তি তাহাকে সংযত করিয়া রক্ষা করে। আমাদের শরীরেও যন্ত্রবিশেষের যতটুকু কাজ প্রয়োজনীয়, তাহার অতিরিক্ত অনিষ্টকর, সেই কাজটুকু আদায় করিয়া সেই অকাজটুকুকে বহিস্কৃত করিবার ব্যবস্থা আমাদের শরীরতন্ত্রে রহিয়াছে; পিত্তের দরকারটুকু শরীর লয়, অদরকারটুকু বর্জন করিবার ব্যবস্থা করিতে থাকে।


এই-সকল সুব্যবস্থা অনেকদিনের ক্রিয়া প্রক্রিয়া প্রতিক্রিয়া-দ্বারা উৎকর্ষ লাভ করিয়া সমাজের শরীরবিধানকে পরিণতি দান করিয়াছে। আমরা অন্যের নকল করিবার সময় সেই সমগ্র স্বাভাবিক ব্যবস্থাটি গ্রহণ করিতে পারি না। সুতরাং অন্য সমাজে যাহা ভালো করে, নকলকারীর সমাজে তাহাই মন্দের কারণ হইয়া উঠে। য়ুরোপীয় মানবপ্রকৃতি সুদীর্ঘকালের কার্যে যে সভ্যতা-বৃক্ষটিকে ফলবান করিয়া তুলিয়াছে, তাহার দুটোএকটা ফল চাহিয়া-চিন্তিয়া লইতে পারি, কিন্তু সমস্ত বৃক্ষকে আপনার করিতে পারি না। তাহাদের সেই অতীতকাল আমাদের অতীত।


কিন্তু আমাদের ভারতবর্ষের অতীত যদি বা যত্নের অভাবে আমাদিগকে ফল দেওয়া বন্ধ করিয়াছে তবু সেই বৃহৎ অতীত ধ্বংস হয় নাই, হইতে পারে না; সেই অতীতই ভিতরে থাকিয়া আমাদের পরের নকলকে বারংবার অসংগত ও অকৃতকার্য করিয়া তুলিতেছে। সেই অতীতকে অবহেলা করিয়া যখন আমরা নূতনকে আনি তখন অতীত নিঃশব্দে তাহার প্রতিশোধ লয়–নূতনকে বিনাশ করিয়া, পচাইয়া, বায়ু দূষিত করিয়া দেয়। আমরা মনে করিতে পারি, এইটে আমাদের নূতন দরকার, কিন্তু অতীতের সঙ্গে সম্পূর্ণ আপসে যদি রফা নিষ্পত্তি না করিয়া লইতে পারি, তবে আবশ্যকের দোহাই পাড়িয়াই যে দেউড়ি খোলা পাইব তাহা কিছুতেই নহে। নূতনটাকে সিঁধ কাটিয়া প্রবেশ করাইলেও, নূতনে পুরাতনে মিশ না খাইলে সমস্তই পণ্ড হয়।


সেইজন্য আমাদের অতীতকেই নূতন বল দিতে হইবে, নূতন প্রাণ দিতে হইবে। শুষ্কভাবে শুদ্ধ বিচারবিতর্কের দ্বারা সে প্রাণসঞ্চার হইতে পারে না। যেরূপ ভাবে চলিতেছে সেইরূপ ভাবে চলিয়া যাইতে দিলেও কিছুই হইবে না। প্রাচীন ভারতের মধ্যে যে একটি মহান্‌ ভাব ছিল, যে ভাবের আনন্দে আমাদের মুক্তহৃদয় পিতামহগণ ধ্যান করিতেন, ত্যাগ করিতেন, কাজ করিতেন, প্রাণ দিতেন, সেই ভাবের আনন্দে, সেই ভাবের অমৃতে আমাদের জীবনকে পরিপূর্ণ করিয়া তুলিলে, সেই আনন্দই অপূর্ব শক্তিবলে বর্তমানের সহিত অতীতের সমস্ত বাধাগুলি অভাবনীয়রূপে বিলুপ্ত করিয়া দিবে। জটিল ব্যাখ্যার দ্বারা জাদু করিবার চেষ্টা না করিয়া, অতীতের রসে হৃদয়কে পরিপূর্ণ করিয়া দিতে হইবে। তাহা দিলেই আমাদের প্রকৃতি আপনার কাজ আপনি করিতে থাকিবে। সেই প্রকৃতি যখন কাজ করে তখনই কাজ হয়–তাহার কাজের হিসাব আমরা কিছুই জানি না–কোনো বুদ্ধিমান লোকে বা বিদ্বান লোকে এই কাজের নিয়ম বা উপায় কোনোমতেই আগে হইতে বলিয়া দিতে পারে না। তর্কের দ্বারা তাহারা যেগুলিকে বাধা মনে করে সেই বাধাগুলিও সহায়তা করে, যাহাকে ছোটো বলিয়া প্রমাণ করে সেও বড়ো হইয়া উঠে।


কোনো জিনিসকে চাই বলিলেই পাওয়া যায় না অতীতের সাহায্য এক্ষণে আমাদের দরকার হইয়াছে বলিলেই যে তাহাকে সর্বতোভাবে পাওয়া যাইবে তাহা কখনোই না। সেই অতীতের ভাবে যখন আমাদের বুদ্ধি-মন-প্রাণ অভিষিক্ত হইয়া উঠিবে তখন দেখিতে পাইব, নব নব আকারে নব নব বিকাশে আমাদের কাছে সেই পুরাতন, নবীন হইয়া, প্রফুল্ল হইয়া ব্যক্ত হইয়া উঠিয়াছে–তখন তাহা শ্মশানশয্যার নীরস ইন্ধন নহে, জীবননিকুঞ্জের ফলবান বৃক্ষ হইয়া উঠিয়াছে। অকস্মাৎ উদ্‌বেলিত সমুদ্রের বন্যার ন্যায় যখন আমাদের সমাজের মধ্যে ভাবের আনন্দ প্রবাহিত হইবে তখন আমাদের দেশে এই-সকল প্রাচীন নদীপথগুলিই কূলে কূলে পরিপূর্ণ হইয়া উঠিবে। তখন স্বভাবতই আমাদের দেশ ব্রহ্মচর্যে জাগিয়া উঠিবে, সামসংগীতধ্বনিতে জাগিয়া উঠিবে, ব্রাহ্মণে ক্ষত্রিয়ে বৈশ্যে জাগিয়া উঠিবে। যে পাখিরা প্রভাতকালে তপোবনে গান গাহিত তাহারাই গাহিয়া উঠিবে, দাঁড়ের কাকাতুয়া বা খাঁচার কেনারি-নাইটিঙ্গেল নহে।


আমাদের সমস্ত সমাজ সেই প্রাচীন দ্বিজত্বকে লাভ করিবার জন্য চঞ্চল হইয়া উঠিতেছে, প্রত্যহ তাহার পরিচয় পাইয়া মনে আশার সঞ্চার হইতেছে। এক সময় আমাদের হিন্দুত্ব গোপন করিবার, বর্জন করিবার জন্য আমাদের চেষ্টা হইয়াছিল–সেই আশায় আমরা অনেকদিন চাঁদনির দোকানে ফিরিয়াছি ও চৌরঙ্গি-অঞ্চলের দেউড়িতে হাজরি দিয়াছি। আজ যদি আপনাদিগকে ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য বলিয়া প্রতিপন্ন করিবার উচ্চাকাঙ্খা আমাদের মনে জাগিয়া থাকে, যদি আমাদের সমাজকে পৈতৃক গৌরবে গৌরবান্বিত করিয়াই মহত্বলাভ করিতে ইচ্ছা করিয়া থাকি, তবে তো আমাদের আনন্দের দিন। আমরা ফিরিঙ্গি হইতে চাই না, আমরা দ্বিজ হইতে চাই। ক্ষুদ্র বুদ্ধিতে ইহাতে যাঁহারা বাধা দিয়া অনর্থক কলহ করিতে বসেন, তর্কের ধুলায় ইহার সুদূরব্যাপী সফলতা যাঁহারা না দেখিতে পান, বৃহৎ ভাবের মহত্বের কাছে আপনাদের ক্ষুদ্র পাণ্ডিত্যের ব্যর্থ বাদবিবাদ যাঁহারা লজ্জার সহিত নিরস্ত না করেন, তাঁহারা যে সমাজের আশ্রয়ে মানুষ হইয়াছেন সেই সমাজেরই শত্রু। দীর্ঘকাল হইতে ভারতবর্ষ আপন ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য সমাজকে আহ্বান করিতেছে। য়ুরোপ তাহার জ্ঞানবিজ্ঞানকে বহুতর ভাগে বিভক্ত বিচ্ছিন্ন করিয়া তুলিয়া বিহ্বল বুদ্ধিতে তাহার মধ্যে সম্প্রতি ঐক্য সন্ধান করিয়া ফিরিতেছে–ভারতবর্ষের সেই ব্রাহ্মণ কোথায় যিনি স্বভাবসিদ্ধপ্রতিভাবলে অতি অনায়াসেই সেই বিপুল জটিলতার মধ্যে ঐক্যের নিগূঢ় সরল পথ নির্দেশ করিয়া দিবেন? সেই ব্রাহ্মণকে ভারতবর্ষ নগরকোলাহল ও স্বার্থসংগ্রামের বাহিরে তপোবনে ধ্যানাসনে অধ্যাপকের বেদীতে আহ্বান করিতেছে–ব্রাহ্মণকে তাহার সমস্ত অবমাননা হইতে দূরে আকর্ষণ করিয়া ভারতবর্ষ আপনার অবমাননা দূর করিতে চাহিতেছে। বিধাতার আশীর্বাদে ব্রাহ্মণের পাদুকাঘাতলাভ হয়তো ব্যর্থ হইবে না। নিদ্রা অত্যন্ত গভীর হইলে এইরূপ নিষ্ঠুর আঘাতেই তাহা ভাঙাইতে হয়। য়ুরোপের কর্মিগণ কর্মজালে জড়িত হইয়া তাহা হইতে নিস্কৃতির কোনো পথ খুঁজিয়া পাইতেছে না, সে নানা দিকে নানা আঘাত করিতেছে–ভারতবর্ষে যাঁহারা ক্ষাত্রব্রত বৈশ্যব্রত গ্রহণ করিবার অধিকারী আজ তাঁহারা ধর্মের দ্বারা কর্মকে জগতে গৌরবান্বিত করুন–তাঁহারা প্রবৃত্তির অনুরোধে নহে, উত্তেজনার অনুরোধে নহে, ধর্মের অনুরোধেই অবিচলিত নিষ্ঠার সহিত, ফলকামনায় একান্ত আসক্ত না হইয়া, প্রাণ সমর্পন করিতে প্রস্তুত হউন। নতুবা ব্রাহ্মণ প্রতিদিন শূদ্র, সমাজ প্রত্যহ ক্ষুদ্র এবং প্রাচীন ভারতবর্ষের মাহাত্ম্য যাহা অটল পর্বতশৃঙ্গের ন্যায় দৃঢ় ছিল তাহা দূরস্মৃত ইতিহাসের দিক্‌প্রান্তে মেঘের ন্যায়, কুহেলিকার ন্যায়, বিলীন হইয়া যাইবে এবং কর্মক্লান্ত একটি বৃহৎ কেরানি সম্প্রদায় এক পাটি বৃহৎ পাদুকা প্রাণপণে আকর্ষণ করিয়া ক্ষুদ্র কৃষ্ণপিপীলিকাশ্রেণীর মতো মৃত্তিকাতলবর্তী বিবরের অভিমুখে ধাবিত হওয়াকেই জীবনযাত্রানির্বাহের একমাত্র পদ্ধতি বলিয়া গণ্য করিবে।


रवींद्र दलित विमर्शः14 रक्तकरबी(Red Oleanders)- राष्ट्रवाद वहीं है जो कुलीन सवर्ण सत्ता वर्ग का हित है। राष्ट्र मेहनतकश अवर्ण बहुजन बहुसंख्य जनगण की निगरानी,उनके,दमन,उत्पीड़न सफाये, नागरिकता नागरिक और मानवाधिकार हनन का सैन्य तंत्र है। इस हिंदू राष्ट्र के रामराज्य में किसी नंदिनी की आवाज की कोई गूंज नहीं है न लावारिश खून का कोई नामोनिशां है और न कातिल का कोई सुराग। मनुष्यता का वजूद आधार न�

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रवींद्र दलित विमर्शः14

रक्तकरबी(Red Oleanders)- राष्ट्रवाद वहीं है जो कुलीन सवर्ण सत्ता वर्ग का हित है।

राष्ट्र मेहनतकश अवर्ण बहुजन बहुसंख्य जनगण की निगरानी,उनके,दमन,उत्पीड़न सफाये, नागरिकता नागरिक और मानवाधिकार हनन का सैन्य तंत्र है।


इस हिंदू राष्ट्र के रामराज्य में किसी नंदिनी की आवाज की कोई गूंज नहीं है न लावारिश खून का कोई नामोनिशां है और न कातिल का कोई सुराग।


मनुष्यता का वजूद आधार नंबर है और आधार नंबर नहीं है तो आपका कोई वजूद नहीं है।बुनियादी सेवाओं और जरुरतों,नागरिक और मानवाधिकार से आप वंचित है।

इस अंधियारे के तिलिस्म में अभिव्यक्ति कैद है और नागरिकों की चौबीसों घंटे निगरानी है।निजता और गोपनीयता  के अधिकार की क्या कहिये, संवैधानिक अधिकार,मौलिक अधिकार,नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के हनन का अंध राष्ट्रवाद नरसंहारी सुनामी है,जिसके खिलाफ जन प्रतिरोध संगठित करने वाला यक्षपुरी का कोई अध्यापक कहीं नहीं है।

नंदिनी का चरित्र जी रही तृप्ति मित्र के अवसान के बाद नंदिनी की आवाज की कोई गूंज बची नहीं है और  न बचा है शंभू मित्र का वह रंगकर्म।

पलाश विश्वास

मुझे नेट पर हिंदी में रक्तकरबी से संबंधित कोई समाग्री नहीं मिली है।अगर किसी के पास संबंधित सामग्री की जानकारी है तो कृपया शेयर करें।

कोलकाता से नई दिल्ली पहुंचे फिल्मकार राजीव कुमार और उनकी पत्नी मीनाभाभी कई दिनों से कोलकाता में अपने पुराने घर में हैं और आज शाम फिर नई दिल्ली वापस हो जायेंगे।राजीव हमारे डीएसबी नैनीताल जमाने के मित्र हैं।कल का दिन उनके नाम रहा। सविता अपने साथ दवाएं और इंसुलिन लेकर नहीं गयीं तो इस बहना रात को साथ खाना खाने के बाद ही लौट सके।लौटकर फिर पीसी का सामना नहीं किया।हम दोनों शुगरिये हैं और जीने के लिए जूझ रहे हैं।

इसलिए नोटबंदी संबंधी रिजर्व बैंक के आंकड़ों के बचाव में कारपोरेट वकील के अपने वित्तीय प्रबंधन के बचाव में नोटबंदी का मुख्य उद्देश्य डिजिटल लेन देन बताने पर कोई बात नहीं सकी।

टीवी पर नोटबंदी पर बहस को लेकर हंसी आ रही थी क्योंकि मीडिया डिमोनीटाइजेशन को कल तक गेमचेंजर बता रहा था।

कालाधन निकालने के लिए प्रधान स्वयंसेवक का हिज मास्टर्स वायस बना मीडिया अब भी नोटबंदी की उपलबधियां गिनाने के लिए डिजिटल स्मार्ट इंडिया को फोकस बनाये हुए है।

अब भी रिजर्व बैंक को हुए नोट छापने के खर्च की वजह से हुए नुकसान की ही  चर्चा हो रही है।नोटबंदी के बाद से लेकर अब तक करीब तीस लाख लोगों के बेरोजगार होने की कोई चर्चा नहीं हो रही है।डिजिटल लेनदेन की वजह से कारोबार से बाहर हो गये छोटे और मंझौले कारोबारियों की हालत पर कोई चर्चा नहीं हो रही है।

पचास दिन में ही शेयर बाजार में निवेशकों के साढ़े छह लाखो करोड़ रुपये डूब जाने और नोटबंदी के बाद अब तक शेयर बाजार  के सूचकांक उछालू खेल के जरिये छोटे और मंझौले निवेशकों के सत्यानाश और सत्ता वर्ग के चहेते उद्योगपतियों के देश भक्ति, विशुद्धता, धर्म,अस्मिता. राष्ट्रवाद और सुरक्षा संप्रभुता के नाम पर बाकी कारोबारियों और उद्यमियों और यहां तक कि प्रतिष्ठित औद्योगिक घरानों और लोकप्रिय ब्रांडों को हाशिये पर रखकर बाजार पर एकाधिकार कायम करने के डिजिटल तंत्र की चर्चा नहीं हो रही है।

कालेधन को सफेद बनाने का राजनीतिक खेल,घोटालों पर पर्दा अभी हटा नहीं है।आधार नंबर के जरिये ईटेलिंग के जरिये खुदरा कारोबार के बंडाधार का कोई ब्योरा नहीं है और नहीं ही आर्थिक साइबर डिजिटल अपराधों की कोई चर्चा है।

सरकार ने भी कालाधन निकालने की बात छोड़कर हकीकत छुपाने के लिए झट से असल गोलपोस्ट डिजिटल इंडिया का बेपर्दा कर दिया।

हम इस सिलसिले में नोटबंदी के पहले दिन से कहते लिखते रहे हैं कि कालाधन निकालने के लिए नहीं,यह कालाधन सफेद करने का और आधार को वैधता देते हुए डिजिटल लेनदेन के जरिये अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार कारपोरेट एकाधिकार कायम रखने का हिंदुत्व एजंडा है।

हस्तक्षेप के तमाम लेखों को पढ़ लें।

हम आधार परियोजना के प्रस्तावित होने के समय से इसे अर्थव्यवस्था से दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों,किसानों,मेहनतकशों और छोटे कारोबारियोे के बहिस्कार के तहत कारपोरेट एकाधिकार के सत्ता वर्चस्व के लिए नागरिकों की निगरानी का बंदोबस्त बताते लिखते रहे हैं।

आधार पर हस्तक्षेप में प्रकाशित तमाम आलेखों को आप संदर्भ सामग्री मानकर दोबारा पढ़ सकते हैं।

बाकी रिजर्व बैंक के आंकड़े हकीकत बयान करते हैं और सोशल मीडिया पर इस पर सारी सामग्री उपलब्ध है।इसलिए नोटबंदी पर हमें नया कुछ फिलहाल नहीं कहना है।मीडियावालों को यह भंग छाने की छूट रही।बाकी जनता अफीम के नशे में है।

बहरहाल नोटबंदी का आधार निराधार डिजिटल इंडिया के कारपोरेट राष्ट्रवाद को समझना जरुरी है।इसी सिलसिले में रवींद्र नाथ के गीति नाट्य रक्तकरबी (Red Oleanders) में बेनकाब राष्ट्र और राष्ट्रवाद की चर्चा हम कर रहे हैं।

रवींद्र नाथ के रक्तकरबी (Red Oleanders) में राष्ट्रवाद वहीं है जो कुलीन सवर्ण सत्ता वर्ग का हित है।

आज के भारत का सच और औपनिवेशिक उपनिवेश अखंड भारत का सच हूबहू एक है।नील विद्रोह किसानों की बेदखली और उनको जबरन मजदूर बनाये जाने के खिलाफ आदिवासी  बहुजन किसानों का जन विद्रोह है।अब जनता लापता है।

रक्तकरबी का राजा सोना निकालने के लिए किसानों को यक्षपुरी में कैद करके उनकी चौबीसों घंटे निगरानी करते हुए उन्हें नागरिक और मानवाधिकार से वंचित करता है और आज भारत की अर्थव्यवस्था निरंकुश सत्ता की वही यक्षपुरी है जहां कटकटेला अंधियारा के सिवाय कोई रोशनी नहीं है।

इस हिंदू राष्ट्र के रामराज्य में किसी नंदिनी की आवाज की कोई गूंज नहीं है ना लावारिश खून का कोई नामोनिशां है और न कातिल का कोई सुराग है।

मनुष्यता का वजूद आधार नंबर है और आधार नंबर नहीं है तो आपका कोई वजूद नहीं है।

बुनियादी सेवाओं और जरुरतों,नागरिक और मानवाधिकार से आप वंचित है।

इस अंधियारे के तिलिस्म में अभिव्यक्ति कैद है और नागरिकों की चौबीसों घंटे निगरानी है।निजता और गोपनीयता  के अधिकार की क्या कहिये, संवैधानिक अधिकार,मौलिक अधिकार,नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के हनन का अंध राष्ट्रवाद नरसंहारी सुनामी है,जिसके खिलाफ जन प्रतिरोध संगठित करने वाला यक्षपुरी का कोई अध्यापक कहीं नहीं है।

नंदिनी का चरित्र जी रही तृप्ति मित्र के अवसान के बाद नंदिनी की आवाज की कोई गूंज बची नहीं है और  न बचा है शंभू मित्र का वह रंगकर्म।

राष्ट्र मेहनतकश अवर्ण बहुजन बहुसंख्य जनगण की निगरानी, उनके, दमन, उत्पीड़न सफाये, नागरिकता नागरिक और मानवाधिकार हनन का सैन्य तंत्र है।

इसी सिलसिले में  जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 और उससे संबंधित सामग्री और वीडियो,रवींद्र का गीत नाट्य रक्तकरबी(Red Oleanders) से संबंधित सामग्री और वीडियो के साथ चार्ली चैपलिन की फिल्म माडर्न टाइम्स के वीडियो पोस्ट किये।

आधार से जरुरी सेवाओं को जोड़ने की मोहलत निजता के मौलिक अधिकार बन जाने के बावजूद दिसंबर तक बढ़ाकर कारपोरेट डिजिटल इंडिया के हिंदू राष्ट्र एजंडा को वैधता देने के सिलिसले में  निरंकुश अंध राष्ट्रवाद की आड़ में नागरिकों की निगरानी, नागरिक स्वतंत्रता और नागरिक मानवाधिकार हनन के अबाध पूंजी प्रवाह की जांच पड़ताल के मकसद से संदर्भ सामग्री पाठकों तक पहुंचाने के नजरिये से हमने ऐसा किया है।

जार्ज आरवेल का उपन्यास 1949 में प्रकाशित हुआ।हमने याहू ग्रुप के जमाने से इस उपन्यास के कथानक के क्रम में नागरिक और मानव अधिकारों की लगातार चर्चा की है।उनके लिखे एनीमल फार्म पर भी इसी सिलसिले में खासकर सिंगुर नंदीग्राम भूमि आंदोलन में सत्ता वर्ग के कारपोरेट राज के सिलसिले में चर्चा  की है।

चार्ली चैप्लिन का फासीवादी राष्ट्र के शिकंजे में फंसी नागरिकता पर और नागरिकों की निगरानी पर 1936 में बनी कामेडी फिल्म माडर्न टाइम्स भी हमने कई दफा शेयर किया है।

गौरतलब है कि 1949 में लिखे जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 और 1936 में बनी चैपलिन की फिल्म माडर्न टाइम्स से काफी पहले 1917 में ही रवींद्रनाथ ने राष्ट्र के इस निरंकुश मनुष्यता और सभ्यता विरोधी चरित्र को अपने निबंध नेशनालिज्म (राष्ट्रवाद) में बेनकाब कर दिया था।

रक्तकरबी(Red Oleanders) रवींद्रनाथ ने 1923 में लिखा।

इसे भी पहले भारत के छोटे से राज्य त्रिपुरा के राजतंत्र पर लिखे ऐतिहासिक उपन्यास राजर्षि में रवींद्रनाथ ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद के मनुष्यता के दमन के चरित्र को बेनकाब किया है।इस उपन्यास पर हम बाद में अलग से चर्चा करेंगे।

गौरतलब है कि फासीवाद नाजी राष्ट्र से बहुत पहले पश्चिमी राष्ट्र की अवधारणा के विरुद्ध रवींद्र भारतीय लोक गणराज्य की संस्कृति में विविधात बहुलता और संस्कृति के लोकतंत्र का विमर्श चला रहे थे।जिसका भारत  के हिंदुत्ववादियों के फासीवादी हिंदु राष्ट्र के एजंडे के साथ टकराव हिंदुत्ववादियों के फासीवाद और नाजी जर्मनी से संपर्क होते ही शुरु हो गया था।

रक्तकरबी के विचार स्वप्न अभिव्यक्ति निजता नागरिकता और स्वतंत्रता नियंत्रण के राजकाज और सत्ता राजनीति के नस्ली वर्चस्व में निष्णात राष्ट्रवाद के खिलाफ मनुष्यता की पुकार की गूंज आरवेल के उपन्यास 1984 और चार्ली चैपलिन की फिल्म माडर्न टाइम्स में है तो रक्तकरबी का संदर्भ समझने के लिए सैन्य राष्ट्र में मनुष्यता और सभ्यता के संकट के गहराते जाने की प्रक्रिया भारत के आजाद होने तक समझने के लिए इन दोनों कृतियों को जानना जरुरी है।

इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए रक्त करबी,1984 और माडर्न टाइम्स को एकसाथ रखकर देखें तो समझ में आता है कि पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने के बाद स्वतंत्र नागरिक किस तरह सैन्य राष्ट्र के नियंत्रित मनुष्यताहीन यंत्रमानव में तब्दील होता जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार माना है लेकिन आधार की तकनीकी निगरानी के तहत इस निजता की रक्षा के लिए अभी कोई फैसला नहीं हुआ है और सुप्राीम कोर्ट की राय बदलने के लिए सत्ता वर्ग के कब्जे में संसदीय प्रणाली में नागरिकों का खासकर अवर्णों, गैरनस्ली दीगर समुदायों,मेहनतकशों, किसानों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों का कारगर प्रतिनिधित्व न होने की वजह से नये कानून के तहत इस राय को उलट देने का खतरा बना हुआ है।

आर्थिक सुधारों के हवाले कारपोरेट जनसंहारी कार्यक्रम के तहत संवैधानिक रक्षा कवच और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए तमाम कायदे कानून इसी तरह बदले जाते रहे हैं।कारपोरेट एकाधिकार के लिए तीन हजार के करीब कानून अभी भगवा रामराज के तीन साल में ही बदल दिये गये हैं।

कारपोरेट खेल का कमाल यह है कि दुनियाभर में घूम घूमकर प्रधान स्वयंसेवक विदेशी कंपनियों के हवाले कर रहे  हैं भारत की अर्यव्यवस्था,कारोबार,उद्योग और जलजंगल जमीन और उनका बाबा बाबी संप्रदाय संस्थागत हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक स्वराज,विशुद्धता,धर्म,देशभक्ति का स्वांग रचते हुए अपना अपना कारोबार का कारपोरेट एकाधिकार वर्चस्व कायम कर रहे हैं।विदेशी पूंजी और स्वदेशी राष्ट्रवाद की दुधारी तलवार से आम जनता की गर्दन उतारी जा रही है।

राज्यसभा में विपक्ष के बहुमत को बाईपास करते हुए अर्थ विधेयक बतौर लोकसभा में बहुमत के जरिये जिस तरह आधार कानून बनाया गया है उससे जनपदों के कब्रिस्थान और श्मशानघाट के नींव पर सत्ता सवर्ण वर्ग के डिजिटल यांत्रिक इंडिया का निरमाण का स्टार्ट अप शुरु हो गया है और स्मार्ठ फोन के ऐप के जरिये नागरिकों की जान माल का सफाया अभियान,बेदखली विस्थापन बहसि्कार और छंटनी की नई वर्मव्यवस्था का ब्राह्मणधर्म का पुनरूत्तान हो गया है और इसका पुरोहित तंत्र है समूचा कारपोरेटपंडेड राजनेता वर्ग तो लोकतंत्र और कानून के राज में आम नागरिक गुलाम में बदल गये हैं और किसान अपनी जमीन से बेदखल गुलाम कैद मजदूर हैं।

यही रक्तरबी की यक्षपुरी का सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक यथार्थ है,जिसमें अभिव्यक्ति,निजता,सपनों,विचारों के नियंत्रण का माडर्न टाइम बदस्तूर  24 घंटा लाइव है और इसीमें 1984 की निरंतरता है और  नागरिक एनीमल फार्म में कैद जीव जंतुओं की तरह जनविद्रोह भी कर नहीं सकते क्योंकि आधार नंबर के सिवाय रक्त मांस का उनका कोई वजूद नहीं है।क्योंकि उनके विचार और सपने भी राष्ट्र नियंत्रित हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही नहीं।सारे माध्यम,विधाएं और मातृभाषाएं तक जनपदों और जनता के खिलाफ सत्तावर्ग के नस्ली वर्म वर्चस्व के पक्ष में लामबंद है और सैन्यतंत्र लगातार मजबूत होता जा रहा है।

आपातकाल के इस अंधियारे का कहीं कोई असर किसी नागरिक पर होने का अंदेशा भी नहीं है क्योंकि मनुष्य का कोई वजूद ही नहीं है और वह सिर्फ एक डिजिटल कार्यक्रम के अधीन यंत्रमानव है जिसके रोबोटिक प्रोग्राम में अंध राष्ट्रवाद के सिवाय कोई मानवीय संवेदना है ही नहीं।

इसलिए किसी नंदिनी को रोशनी की तलाश नहीं है और समूचा अध्यापक वर्ग सिरे से लापता है जो कि आम नागरिकों की शिक्षा दीक्षा पूरी करके उन्हें मनुष्य बना दें।शिक्षा का ज्ञान से कोई मतलब नहीं है और न विमर्श की कोई इजाजत है।तमाम नागरिक और मानवाधिकार ऐप्पस और स्टर्ट अप से नत्थी है जो आधार लिकंड हैं।

समूची युवापीढ़ी नीले शार्क के खेल में शामिल है और आत्महत्या उनकी अनिवार्य नियति है।समता,न्याय और अवसरों,रोजगार और आजीविका से बेदखल पीढ़ियों का कोई भविष्य है नहीं और हम एक अनंत ब्लैक होल में दाखिल यंत्रमानव हैं।

भविष्यद्रष्टा रवींद्र लगातार यह चेतावनी जारी करते रहे हैं और चार्ली चैपलिन की कामेडी का विमर्स वहीं है जो 1984 का कथानक है।

1923 में लिखे अपने नाटक रक्तकरबी(Red Oleanders) को रवींद्र भावीकाल के फासीवादी समय के सामाजिक यथार्त के रुप में पेश कर रहे थे।1924 के नवंबर दिसंबर के दौरान वे अर्जेंटीना की यात्रा पर थे उस यात्रा के दौरान एलमहर्स्ट से रवींद्र का लंबा संवाद चला जिसमें रक्तकरबी की चर्चा भी हुई।

फासीवाद के खतरे के मद्देनजर भावीकाल के संकट से सचेत रवींद्र गैरबंगाली पाठकों तक इस नाटक को संप्रेषित करना चाहते थे।

नील विद्रोह और उसमें शामिल आदिवासी बहुजन किसान,इस विद्रोह पर लिखे दीनबंधु मित्र के लिखे नाटक नील दर्पण और नवान्न से शुरु गणनाट्य आंदोलन,बंगाल की भुखमरी,तेभागा आंदोलन तक जारी किसान आदिवासी जनविद्रोंहों की निरंतरता की  वजह से अभूतपूर्व कृषि संकट के संदर्भ में बंगाल में रक्तकरबी की प्रासंगिकता और उसकी समझ को लेकर को कभी संशय नहीं रहा लेकिन पूंजीवादी साम्राज्यवादी उत्पादन प्रणाली और कारपोरेट राज में समूचे बारत में गहराते कृषि संकट,जल जंगल जमीन से किसानों की अनंत बेदखली के बावजूद अस्मिता राजनीति के हिंदुत्व एजंडे के अंध राष्ट्रवाद के सर्वव्यापी वर्चस्व की वजह से बाकी भारत में राष्ट्रवाद  के इस जनविरोधी वीभत्स चेहरे के सच का सामना हुआ ही नहीं है और प्रेमचंद के बाद किसानों और कृषि पर साहित्य के क्षेत्र में रचनाधर्मिता की अनुपस्थिति से हिंदुत्व के पुनरूत्थान की सुनामी में सैन्य राष्ट्र के निरंतर मजबूत होते जाने से आदिवासी भूगोल के अलावा धर्म जाति के नाम नरसंहारों की निरंतरता के बावजूद राष्ट्र और सत्ता की कारपोरेट राजनीति में रक्तकरबी  पर बाकी भारत में विमर्श का कोई स्पेस ही तैयार नहीं हो सका।

भविष्यद्रष्टा रवींद्रनाथ को इस संकट का शायद आभास रहा होगा तो गैरबंगाली पाठकों के लिए उन्होंने इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी में खुद रेडआलियंडर्स शीर्षक से किया तो 1925 में ही इस नाटक की व्याख्या अंग्रेजी में कर दी।

इस व्याख्या में रवींद्र नाथ ने मनुष्य की निजी सत्ता संप्रभुता का संगठित मनुष्यों के तंत्र द्वारा नियंत्रण को ही राष्ट्र तंत्र माना है।फासीवादी नाजीवादी सैन्य राष्ट्र के अभ्युदय से ही संस्थागत दमन उत्पीड़न का यह तंत्र बना है।रवींद्र ने इस व्याख्या और अपने निबंधों में इसकी विस्तार से चर्चा की है।

Red Oleanders

Tagore's preoccupation with life, death, and God in the first decade of the twentieth century gave way to a more overt analysis of political and social subjects during the 1920's. Red Oleanders epitomizes the best work of this phase. Set in an imaginary town called Yakshapuri (in Hindu mythology, the god of wealth rules over the city of this name), the play presents a society in which the hoarding of gold demands strict discipline and a stratified class structure based on the suppression of human rights. Tagore himself explained its several layers of meaning later to his English readers: He had condemned the principle of organization for utilitarian purposes, which subjugates the individuality of people and turns "a multitude of men . . . into a gigantic system"; the passion of greed among colonial powers, "stalking abroad in the name of European civilization," and humiliating subject races; and the impersonal attitude in modern humanity that transforms the spirit of science into the tyranny of the machine, preferring mechanization over humanitarianism. The playwright had become increasingly troubled by the evils of twentieth century civilization and seemed to offer an alternative solution in the person of Nandini, the heroine of this play. Nandini symbolizes spontaneity, love, altruism, and the spirit of humanity in communion with nature. The rebellion she instigates against the dehumanizing and exploitative order succeeds; the invisible King of Yakshapuri comes out and joins forces with her to destroy his own Frankenstein after he sees the havoc it has wrought. Red Oleanders has been variously interpreted as a call to Indians to take up arms against the British government and as a socialistic revolt against the agencies of capitalism. Such flag-waving restrictions of its theme only constrict its essential beauty, which exists in its universal qualities, applicable to all societies.

https://www.enotes.com/topics/rabindranath-tagore/critical-essays


रवींद्र का दलित विमर्श-15 मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!.. सभ्यता का संकटःफर्जी तानाशाह बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन मनुस्मृति राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है। भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्तता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट �

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रवींद्र का दलित विमर्श-15

मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है

मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!..

सभ्यता का संकटःफर्जी तानाशाह  बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन मनुस्मृति  राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है।

भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्तता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट सत्ता के ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता राजनीति का हाथ रहा है। जिससे इन आंदोलनों के मार्फत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नियंत्रण में रखकर मनुस्मृति राज बहाल किया जाये और बहुजनों के सामुदायिक जीवन और साझा संस्कृति की विरासत और उनके मनुष्यता के धर्म का हिंदुत्वकरण कर दिया जाये।

पलाश विश्वास

बंगाल के नबाव के दरबारी दो पूर्वज गोमांस की गंध सूंघने का आरोप में मुसलमान बना दिये गये थे तो रवींद्र के पूर्वज अछूत पीराली ब्राह्मण बन गये थे।

नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले सामाजिक बहिस्कार की वजह से अपने बचपन की अस्पृश्यता यंत्रणा पर उन्होंने कोई दलित आत्मकथा नहीं लिखी लेकिन उनकी स्मृतियों में इस अस्पृश्यता का दंश है।

नोबेल पुरस्कार पाने के बावजूद हिंदुत्व के पवित्र धर्मस्थलों में उनका प्रवेशाधिकार निषिद्ध रहा है।

ब्रहामसमाजी टैगोर परिवार  जमींदारी और कारोबार के तहत कोलकाता में प्रतिष्ठित थे लेकिन भद्रलोक समाज से बहिस्कृत थे।

गीताजंलि में इसीलिए उनका अंतरतम लालन फकीर का मनेर मानुष और उनका प्राणेर मानुष है और दैवी शक्ति की आराधना के बजाय विश्वमानव के अंत-स्थल में वे अपने ईश्वर को खोज रहे थे।

अस्पृश्यता  के इसी दंश के चलते कोलकाता का जोड़ासांको छोड़कर वीरभूम के आदिवासी गांवों में उन्होंने शांतिनिकेतन को अपनी कर्मभूमि बनाया उसीतरह जैसे नव जागरण के मसीहा ईश्वर चंद्र विद्यासागर कोलकाता,भद्रलोक समाज और अपने परिजनों को भी छोड़कर आदिवासी गांव में अपना अंतिम जीवन बिताया।

आदिवासी के अनार्य द्रविड़ सामुदायिक जीवन के लोकतंत्र को दोनों ने जीवन का उत्सव मान लिया और उसीमें समाहित हो गये।

भविष्यद्रष्टा रवींद्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि में जो लिखा वहीं नियति के साथ भारत का साक्षात्कार है और ये पंक्तियां भारत में सभ्यता के संकट की निर्मम अभिव्यक्ति हैंः

हे मोर दुर्भागा देश,जादेर कोरेछो अपमान

अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान

मानुषेर परशेरे प्रतिदिन ठेकाइया दूरे

घृणा करियाछो तुमि मानुषेर प्राणेर ठाकुरे

(ओ मेरे अभागा देश,जिनका तुमने किया है अपमान

अपपमान में ही होना होगा उन्हीं के समान

मनुष्य के स्पर्श को प्रतिदिन तुमने ठुकराया है

तुमने घृणा की है मनुष्य के प्राण में बसे ईश्वर से)

इसी तरह उन्होंने 1936 में पत्रपुट कवितासंग्रह के 15वीं कविता में लिखाः

आमि व्रात्य,आमि मंत्रहीन,

देवतार बंदीशालाय

आमार नैवेद्य पौंचालो ना!..

हे महान पुरुष,धन्य आमि,देखेछि तोमाके

तामसेर परपार होते

         आमि व्रात्य,आमि जातिहारा

      (मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है

       देवता के बंदीगृह में

      मैरा नैवेद्य पहुंचा नहीं!..

हे महान पुरुष,मैं धन्यहूं,मैंने तुम्हें देखा है

     अंधकार के दूसरे छोर से

     मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!..


नस्ली राष्ट्रवाद के फासीवादी चरित्र रवींद्र समय की युद्ध विध्वस्त पृथ्वी का ही सच नहीं है,यह दरअसल भारत का ज्वलंत सामाजिक यथार्थ का निरंतर समयप्रवाह है। भारत में अस्पृश्यता की मनुस्मृति व्यवस्था रंगभेदी फासीवाद से अलग नहीं है और यही भारत की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है जो असमानता और अन्याय की निरंकुश नरसंहार संस्कृति भी है।यही फासिज्म का राजकाज,सभ्यता का संकट है।

भारत में ब्रिटिश राजकाज के दौरान मनुस्मृति के तहत निषिद्ध अधिकारों से वंचित बहुजन समाज को लगता था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने पर भारत में फिर सत्ता ब्राह्मणतांत्रिक वर्ण वर्ग वर्चस्व की हो जायेगी तो रवींद्र नाथ अपनी मृत्यु से पहले अंग्रेजों के भारत छोड़ जाने के से पहले इस नस्ली राष्ट्रवाद के हिंदुत्व अभ्युत्थान की आशंका से बेहद चिंतित थे,जिसकी हम चर्चा कर चुके हैं।

सभ्यता का संकट शीर्षक उनके मृत्युपूर्व आलेख में भारत में सत्ता हस्तांतरण के बाद मनुष्यता के संकट में भारत के विखंडन की उन्होंने विस्तार से चर्चा की है।

भारत विभाजन की त्रासदी में अखंड भारत और विखंडित भारत में हिंसा और घृणा का सिलसिला अभी जारी है और यही  हिंसा और घृणा की संस्कृति ही भारत में सत्ता की राजनीति है,जिसके शिकार दलित,पिछड़े,मुसलमान और तमाम विधर्मी लोग, अनार्य द्रविड़ और दूसरे अनार्य जनसमुदाय, आदिवासी और मजबूत होती पितृसत्ता के शिकंजे में फंसी स्त्री,तमाम मेहनतकश लोग,किसान और मजदूर हैं।

रवींद्र नाथ ने भारतीय जनता के सामाजिक जीवन को धार्मिक माना है और इस धर्म को उन्होंने मनुष्यता का धर्म माना है जो सत्ता वर्ग के रंगभेदी अस्मिता आधारित विशुद्धता का नस्ली धर्म नहीं है।

वे अंत्यज अछूत और बहुजनों की आस्था और बहुजन समाज की बात ही कर रहे थे। वे आस्था की स्वतंत्रता और आस्था के लोकतंत्र की बात कर रहे थे।

सत्ता हस्तांतरण के बाद सत्ता के वर्ग वर्ण वर्चस्व के लिए बहुजनों के राजनीतिक सामाजिक धार्मिक आर्थिक विघटन बिखराव विस्थापन दमन उत्पीड़न का सबसे भयंकर सच अगर शरणार्थी समस्या और आदिवासियों का सफाया अभियान है तो बहुजन राजनीति और धर्म आस्था में भी सत्ता नियंत्रित बाबा बाबियों के अभ्युत्थान मार्फत हिंदुत्व का यह पुनरुत्थान उत्सव है।

बहुजन राजनीति भी बहुजनों के सामुदायिक जीवनयापन और साझा विरासत की संस्कृति के विरुद्ध यही बाबा बाबी संस्कृति में निष्णात है और इसी वजह से सत्ता का वर्ग वर्ण वर्चस्व निरंकुश ब्राह्मणतंत्र में निष्णात है,जिसकी आशंका बहुजन पुरखों मसलन महात्मा ज्योतिबा फूले और गुरुचांद ठाकुर के साथ साथ पीराली अछूत ब्राह्मण ब्रह्मसमाजी कवि रवींद्रनाथ को थी।

गौरतलब है कि सत्ता वर्ग के तमाम संगठन और उनकी रंगभेदी नस्ली फासीवादी राजनीति संस्थागत है और वही संगठित राष्ट्र व्यवस्था का पर्याय है तो बहुजन समाज में संस्थागत संगठन के विघटन और बिखराव के तहत धार्मिक राजनीतिक बाबा बाबियों को खड़ा करके,उन्हें कठपुतलियां बनाकर बहुजन समाज को गुलाम बनाये रखने का खेल ही अस्मिता निर्भर धर्मांध अंध राष्ट्रवादी राजनीतिक वर्चस्व का समीकरण है।

इन्हें स्थापित करने ,इनके महिमामंडन करने में यही राजनीति काम करती है और फिर रस्म अदायगी के बाद इन्हीं प्रतिमाओं का सार्वजनिक विसर्जन का रिवाज है।समूचा प्रचारतंत्र महिमामंडन,प्राण प्रतिष्ठा और विसर्जन उत्सव में लगा रहता है। विसर्जन के समयभी ढोल नगाड़े पीटने का सार्वजनिक विजयोत्सव का महिषासुर वध है।यही कुल मिलाकर भारत में समता,न्याय और कानून का राज है।

धर्म और राजनीति में सत्ता समर्थित तमाम महानायकों महानायिकाओं और बाबा बाबियों के प्रकरण में यही वैज्ञानिक प्रक्रिया चलती रहती है।

पवित्र धर्मस्थलों और संस्थागत धार्मिक संस्थानों में प्रवेशाधिकार वंचित जनसमुदाओं की आस्था और सामुदायिक जीवन के साथ साथ समान मताधिकार के लोकतंत्र में वंचित दलित बहुजन जनसमुदायों के लिए तमाम डेरे,मठ और ऐसे ही वैकल्पिक धार्मिक संगठन,पंथ उनकी राजनीतिक ताकत के आधार भी हैं,जिसका नियंत्रण आजादी से पहले उन्हीं के हाथों में हुआ करता था और यही उनकी राजनीतिक धार्मिक स्वायत्तता का आधार था।

बंगाल का मतुआ और कर्नाटक का लिंगायत धर्म इसके उदाहरण हैं तो पंजाब में सिख समाज के सत्ता वर्गीय अकालियों के मुकाबले यही फिर डेरा संस्कृति है तो बाकी देश में तमाम मठ और बाबा बाबियों के अखाड़े इसीतरह के  वैकल्पिक परिसर हैं।

बंगाल में मतुआ धर्म ब्राह्मण धर्म के खिलाफ बहुजनों का चंडाल आंदोलन रहा है तो कर्नाटक में लिंगायत आंदोलन बहुजनों का ब्राह्णधर्म के खिलाफ सामाजिक सशक्तीकरण आंदोलन रहा है।

जैसे तमिलनाडु का ब्राह्मणधर्म संस्कृति विरोधी द्रविड़ आंदोलन।

देशभर में बंगला के चैतन्य महाप्रभू और पंजाब के गुरुनानक के सुधार आंदोलनों के तहत सामंती दैवी सत्ता के विरुद्ध मनुष्यता के धर्म के तहत साधुओं, संतों, पीर, फकीरों, बाउलों और समाज सुधारकों के ये आंदोलन बहुजन पुरखों के नेतृत्व में बहुजनों के राजनीतिक धार्मिक स्वयायत्ता के आंदोलन रहे हैं।

इनमें आदिवासी धर्म और राजनीति के स्वायत्तता आंदोलन और आदिवासी किसान जनविद्रोह की परंपरा भी है,जो सामंती और साम्राज्यवादी सत्ता के साथ साथ ब्राह्मणतंत्र के नस्ली वर्चस्व और मनुस्मृति विधान की असमानता और अन्याय के विरुद्ध थे।

भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्ता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट सत्ता के ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता राजनीति का हाथ रहा है।

जिससे इन आंदोलनों के मार्फत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नियंत्रण में रखा जाये और बहुजनों के सामुदायिक जीवन और साझा संस्कृति की विरासत और उनके मनुष्यता के धर्म का हिंदुत्वकरण कर दिया जाये।

इसी राजनीति के तहत अकाली अब पूरी तरह संघ परिवार के शाखा संगठन में तब्दील हैं तो महात्मा गौतम बुद्ध,महात्मा महावीर,गुरुनानक, महात्मा ज्योतिबा फूले,बाबासाहेब भीमारव अंबेडकर,नारायण स्वामी,हरिचांद गुरुचांद,अयंकाली,पेरियार से लेकर मान्यव कांशीराम के तमाम आंदोलनों का हिंदुत्वकरण उसीतरह हो गया जैसे कि तमाम मठों,जिनमें गोरखपुर का मठ भी शामिल है,तमाम डेरों,मतुआ,लिंगायत और द्रविड़ आंदोलनों का हिंदुत्वकरण हुआ है और इससे बीरसा मुंडा का आंदोलन भी अछूता नहीं है।

फर्जी तानाशाह  बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन सत्ता राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है।

हमारे बेहद प्रिय युवा मित्र अभिषेक श्रीवास्तव ने राम रहीम प्रकरण पर फेसबुक पर एक बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी,जिस पर अलग से चर्चा करने की जरुरत थी।भारत की परिकल्पना ही दरअसल रवींद्र का दलित विमर्श है।

लोक और जनपदों में रचे बसे भारत में बहुलता,विविधता,सहिष्णुता के लोकतंत्र में मनुष्यों की आस्था और धर्म,खासतौर पर सामंती वर्ण वर्ग वर्चस्वी सत्ता वर्ग के संरक्षित परिसर से बहिस्कृत और अछूत अंत्यज बहुजन समाज के सामाजिक यथार्थ के सिलसिले में आस्था और धर्म के अधिकार से वंचित समुदाओं का सच ही भारत में बहुजन आंदोलन के बिखराव और राजनीति में सवर्ण राजनीति के हित में प्रायोजित  दूल्हा दुल्हन बारात संस्कृति को समझने के लिए अभिषेक का यह मंतव्य गौरतलब है।

अभिषेक ने लिखा हैः

इन तमाम बाबाओं के अपने-अपने पंथ हैं। ये पंथ हिंदू धर्म में बहुलता का बायस रहे हैं। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, गोरख, कबीर, नानक, सूफ़ी, सांख्‍य, अघोर... गिनते जाइए। जितनी शाखाएं, उतने बाबा। ये रंग-बिरंगे पंथ हिंदू धर्म को मोनोलिथ यानी एकांगी नहीं बनने देते। जो जनता इन पंथों के बाबाओं की भक्‍त है, वह स्ट्रिक्‍टली वैष्‍णव या शैव नहीं है। उसकी धार्मिक आस्‍थाओं में राम-कृष्‍ण या अन्‍य अवतार उस तरह से नहीं आते जैसे एक सामान्‍य शहरी सवर्ण हिंदू के मानस में रचे-बसे होते हैं। इसीलिए इन पंथों के बाबा लोग भले पंथ के नाम पर राजनीति करते हों, लेकिन इनके सामान्‍य गंवई निम्‍नवर्गीय अवर्ण भक्‍त कर्मकांड के ऊपर व्‍यक्तिगत आचरण को जगह देते हैं। सौ में दस भले हिंसा करते हैं लेकिन बाकी नब्‍बे ऐसी घटनाओं के बाद टूट जाते हैं।

मुझे लगता है कि हिंदू धर्म के एकांगी बनने की राह में जो आस्‍थाएं रोड़ा हैं, वे ही आरएसएस के निशाने पर हैं। निशाने का मतलब गलत न समझिएगा। पंथ-प्रधान का भ्रष्‍ट होना एक सामान्‍य बात है लेकिन उन्‍हीं पंथ-प्रधानों को कुकृत्‍यों की सज़ा मिलना बेशक एक स्‍कीम का हिस्‍सा हो सकता है जो आरएसएस की वैचारिकी में फिट नहीं बैठते। जो लोग दो दिन से डिमांड कर रहे हैं कि ऐसे तमाम बाबाओं की नकेल कसी जाए, वे शायद व्‍यापक तस्वीर को मिस कर रहे हैं। आप चेहरों को भूल जाइए, तो उनके पीछे के तमाम पंथ दरअसल आरएसएस का एंटीडोट हैं/थे/होने की क्षमता रखते हैं। मैं इसमें गोरक्षनाथ मठ की परंपरा को भी गिनता हूं। रामदेव और रविशंकर सरीखे तो सरेंडर किए हुए धार्मिक कारोबारी हैं, वे इस नैरेटिव में नहीं आते।


रवींद्र का दलित विमर्श-16 आंतरिक उपनिवेश में नस्ली नरसंहार के प्रतिरोध में आदिवासी अस्मिता के झरखंड आंदोलन के दस्तावेजों का अनिवार्य पाठ भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच দুই ছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমি লইব কিনে।'কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর ম�

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रवींद्र का दलित विमर्श-16

आंतरिक उपनिवेश में नस्ली नरसंहार के प्रतिरोध में आदिवासी अस्मिता के झरखंड आंदोलन के दस्तावेजों का अनिवार्य पाठ

भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच

দুই ছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমি লইব কিনে।' কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর মরিবার মতো ঠাঁই। শুনি রাজা কহে, 'বাপু, জানো তো হে, করেছি বাগানখানা, পেলে দুই বিঘে প্রস্থে ও দিঘে সমান হইবে টানা - ওটা দিতে হবে।'

पलाश विश्वास


দুইছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমিলইব কিনে।' কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর মরিবার মতো ঠাঁই। শুনি রাজা কহে, 'বাপু, জানো তো হে, করেছি বাগানখানা, পেলে দুইবিঘে প্রস্থে ও দিঘে সমান হইবে টানা - ওটা দিতে হবে।'

  (दो बीघा जमीन ही बची है मेरी,बाकी सारी जमीन हुई कर्ज के हवाले।बाबू बोले,समझे उपेन?उसे मेरे हवाले करना होगा।यह जमीन मैं खरीद लुंगा।मैने कहा,तुम हो भूस्वामी,तुम्हारी भूमि का अंत नहीं।मुझे देखो,मेरी मौत के बाद शरण के लिए इतनी ही जमीन बची है।सुनकर राजा बोले-बापू,जानते हो ना,बागान तैयार किया है मैंने,तुम्हारी दो बिघा जमीन शामिल कर लूं तो लंबाई चौड़ाई में होगा बराबर,उसे देना होगा।)

राष्ट्रीयताओं के दमन और आदिवासी भगोल में अनंत बेदखली अभियान और भारतीय किसानों की अपनी जमीन छिन जाने के बारे में रवींद्र नाथ की लिखी कविता दो बिघा जमीन आज भी मुक्तबाजारी कारपोरेट हिंदुतव की नरसंहारी संस्कृति का सच है।यही फासिज्म का राजकाज और राष्ट्रवाद दोनों है।

हो सकें तो विमल राय की रवींद्र नाथ की कविता दो बीघा जमीन पर केंद्रित फिल्म को दोबारा देख लें।

भारत में राष्ट्रीयता का मतलब हिंदुत्व का नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद और उसके कारपोरेट साम्राज्य के सैन्यतंत्र के अश्वमेधी का महिमामंडन है।

अनार्य द्रविड़ दलित शूद्र आदिवासी स्त्री अस्मिताओं का विमर्श इस राष्ट्रवाद के विरुदध है तो रवींद्र के राष्ट्रवाद विरोध बौद्धमय भारत के मनुष्यता का धर्म है और दलित विमर्श के तहत अस्पृश्यता विरोधी चंडाल आंदोलन भी,जो अपने आप में आदिवासी किसान जनविद्रोह का परिणाम है।

राष्ट्रवाद के विरोध का सिलसिला रवींद्र के त्रिपुरा पर लिखे 1885 में प्रकाशित  उपन्यास राजर्षि से लेकर मृत्युपूर्व उनके लिखे निबंध सभ्यता के संकट तक जारी रहा है।वे जब बहुलता,विविधताऔर सहिष्णुता के जनपदीयलोकगणराज्यों की परंपरा में मनुष्यता की विविध धाराओं के महामिलन तीर्थ भारततीर्थ बतौर नये भारत की परिकल्पना कर रहे थे, तब उनके लिए फासीवादी नाजी नस्ली राष्ट्रवाद के परिदृश्य में भारत में हिंदुत्व के नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के सामंती साम्राज्यवादी हिंदुत्व पुनरूत्थान का सच सबसे भयंकर था।

तब तक राष्ट्र के अंतर्गत राष्ट्रीयताओं के दमन के नजरिये से राष्ट्रीयताओं की समस्या पर कम से कम भारत में कोई चर्चा नहीं हुई है।

रूस की चिट्ठी में,चीन और जापान के प्रसंग में उऩ्होंने अंध राष्ट्रवाद की चर्चा तो की है लेकिन राष्ट्र के अंतर्गत राष्ट्रीयता के दमन की नरसंहार संस्कृति  की चर्चा नहीं की है।बल्कि रूस में विविध राष्ट्रीयताओं के विलय के साम्यवाद की उन्होंने प्रशंसा की है।भारतीय किसानों और कृषि संकट के संदर्भ में दलितों की दशा का चित्रण भी उन्होंने शुरु से लेकर आखिर तक की है।

वास्तव में रवींद्र नाथ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के जिन विविध बहुल घटकों के विलय के कथानक को अपनी रचनाधर्मिता का केंद्रीय विषय बनाया है,वह राष्ट्रीयताओं की समस्या ही है और फर्क सिर्फ इतना है कि रवींद्र नाथ इन राष्ट्रीयताओं के समन्वय और सहअस्तित्व की बात कर रहे थे।

लेनिन,स्टालिन और माओ त्से तुंग की तरह राष्ट्रीयताओं की समस्या मानकर सभ्यता और मनुष्यता की रवींद्रनाथ ने चर्चा नहीं की है।

वास्तव में फासीवादी राष्ट्रवाद के उनके निरंतर विरोध राष्ट्रीयताओं की राष्ट्र के नस्ली वर्चस्व के अंतर्गत राष्ट्रीयताओे की इसी समस्या को ही रेखांकित करता है और इसीलिए फासिस्ट मनस्मृति राष्ट्रवादियों को उनके साहित्य से उसी तरह घृणा है जैसे भारत के अवर्ण अनार्य द्रविड़ अल्पसंख्यका  कृषि और प्रकृति से जुड़े जन समुदाओं और मेहनतकशों से।

मुक्तबाजारी अर्थव्वस्था इन जन समुदायों की नरसंहारी संस्कृति पर आधारित है तो कारपोरे टहिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद का आधार भी यही है।मनुस्मृति विधान का नस्ली वर्चस्व,आदिवासी भूगोल का दमन और अस्पृश्यता का सारा तंत्र यही है।

भारत में राष्ट्रीयताओं की समस्या पर संवाद निषिद्ध है तो जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका समानता न्याय किसानों,दलितों.शूद्रों,पिछड़ों,मुसलमानों और विधर्मियों, हिमालयक्षेत्र की आदिवासी और गैर आदिवासी राष्ट्रीयताओं,कश्मीर और आदिवासी भूगोल के नागरिक मानवाधिकार के पक्ष में आवाज उठाने वाले तमाम लोगों अरुंधति राय, सोनी सोरी, नंदिता सुंदर, साईबाबा से लेकर हिमांशु कुमार तक राष्ट्रवादियों के अंध राष्ट्रवाद के तहत राष्ट्रद्रोही हैं और इसके विपरीत मनुष्यता के विरुद्ध तमाम युद्ध अपराधी राष्ट्रनायक महानायक हैं,जो बंकिम की राष्ट्रीयता के धारक वाहक  हिंदुत्व के मनुस्मृति विधान के भगवा झंडेवरदार हैं।

इसलिए हमने कल नेट पर उपलब्ध राष्ट्रीयता की समस्या पर उपलब्ध सारी सामग्री शेयर की है और आदिवासियों के दमन उत्पीड़न और सफाया के दस्तावेज भी शेयर किये हैं।

भारत में राष्ट्रीयता समस्या को लेकर रवींद्र के दलित विमर्श को समझने के लिए कामरेड एके राय के आंतरिक उपनिवेश के विमर्श को समझना जरुरी है और जयपाल सिंह मुंडा  का आदिवासी अस्मिता विमर्श भी।

इस सिलसिले में सत्ता राजनीति से जुड़ने से पहले शिबू सोरेन,विनोद बिहारी महतो और ईएन होरो के झारखंड आंदोलन से संबंधित दस्तावेज भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। सत्ता में निष्णात होने से पहले आदिवासी आंदोलन के इतिहास को दोबारा पलटकर देखना भारत में राष्ट्रीयता की समस्या को समझने में मददगार हो सकता है।

प्रतिरोध के सिनेमा के लिए बहुचर्चित युवा फिल्मकार संजय जोशी ने डाक से वीरभारत तलवार संपादित नवारुण पब्लिशर्स की तरफ से प्रकाशित पुस्तक झारखंड आंदोलन के दस्तावेज खंड 1 भेजी है।264 पेज की यह पुस्तक भारत में राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को समझने के लिए एक अनिवार्य पाठ है,लेकिन इसकी कीमत जन संस्करण 299 रुपये और पुस्तकालय संस्करण 549 रुपये हैं जो हिंदी पुस्तकों की कीमत के हिसाब से बराबर है लेकिन आम जनता तक इस पुस्तक को उपलब्ध कराने में यह कीमत कुछ ज्यादा है।

हमने पत्रकारिता की शुरुआत 1980 में धनबाद से ही की और झारखंड आंदोलन के तहत राष्ट्रीयताओं की समस्या पर केंद्रित विमर्श में उस दौरान हमारी भी सक्रिय भागेदारी रही है।कामरेड एक राय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो के साथ साथ इस पुस्तक में शामिल आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या के लेखक सीताराम शास्त्री से हमारा निरंतर संवाद रहा है।

हमारे दैनिक आवाज में शामिल होने से पहले कवि मदन कश्यप वहां संपादकीय में थे और तब हमने अंतर्गत का एक अंक राष्ट्रीयता की समस्या  और झारखंड आंदोलन पर निकाला था।

हमारे धनबाद आने से पहले वीर भारत तलवार भी दैनिक आवाज में थे  और हमारे ज्वाइन करने से पहले वे आवाज छोड़ चुके थे लेकिन तब भी  वे धनबाद में थे और  शालपत्र निकाल रहे थे।वीरभारत तलवार की ज्यादा अंतरंगता उपन्यासकार (गगन घटा गहरानी) मनमोहन पाठक के साथ थी।

वीर भारत तलवार लगातार झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं और झारखंडी विमर्श के वे निर्माता भी रहे हैं।इस पुस्तक में शामिल तमाम दस्तावेज या तो उन्होंने खुद अनूदित किये हैं या उन्हें शालपत्र में प्रकाशित किया है, इसलिए इन दस्तावेजों की प्रामाणिकता के बारे में किसी तरह के संदेङ का कोई अवकाश नहीं है।

सरायढेला.धनबाद के पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा केंद्रीय सम्मेलन में मैं भी मौजूद था।इसी सम्मेलन में झारखंड आंदोलन दो फाड़ हो गया था और एके राय से शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा अलग हो गया था।

एके राय से अलगाव के बाद झारखंड आंदोलन का लगातार बिखराव और विचलन होता रहा है और अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आंदोलन सिरे से लापता है।नये राज्य में एके राय के विचारों के लिए कोई जगह नहीं है।

विनोद बिहारी महतो दिवंगत हैं और शिबू सोरेन सिरे से बदल गये हैंं।

पुस्तक की भूमिका में वीर भारत तलवार ने सही लिखा हैः

अगर आप झारखंड और आदिवासियों के नाप पर राजनीति करने वाले संगठनों और पार्टियों के उन पुराने दस्तावेजों को देखें ,जिन्हें इन पार्टियों ने झारखंड आंदोलन के दौरान स्वीकृत किया था ,तो आप हैरान हो जायेंगे।खासकर झारखंड मुक्तिमोर्चा और आजसू के उस समय के पार्टी कार्यक्रम और घोषणापत्र को देखकर किसी के भी  मन में यही सवाल उठेगा कि क्या यही झारखंड मुक्ति मोर्चा है? यही आजसू है?...झारखंड आंदोलन के दौरान इन पार्टियों ने जो कुछ कहा और झारखंड बन जाने के बाद ,सत्ता में रहते हुए इन्होंने जो कुछ किया,इन दोनों के बीच,इनकी कथनी और करनी के बीच,क्या कोई संबंध है?..

इस पुस्तक में राज्य पुनर्गठन आयोग को 1954 में झारखंड पार्टी के जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में दिया गया मेमोरेंडम है तो 1973 में झारखंड पार्टी के एनई होरो के नेतृ्त्व में भारत के प्रधान मंत्री को दिया गया मेमोरंडम भी है।

भारत में राष्ट्रीयताओं की समस्या को समझने के लिए बेहद जरुरी दस्तावेज सीताराम शास्त्री ने तलवार के सहयोग से तैयार बंगाल के कामरेडों को समझाने के लिए लिखा। यह दस्तावेज- भारत में राष्ट्रीय प्रश्न और आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।तो आदिवासी विमर्श और राष्ट्रीयता की समस्या पर वीरभारत का आलेख झारखंडः क्या,क्यों और कैसे? भी अनिवार्य पाठ है।बाकी सांगठनिक दस्तावेजो के अलावा कामरेड एके राय के तीन दस्तावेज इस पुस्तक में शामिल किये गये हैं।1.भारत में आंतरिक उपनिवेशवाद और झारखंड की समस्या 2.भारत में असमान विकास तथा उत्पीड़ित जातियों का शोषण 3.झारखंड आंदोलन की नई दिशा और झारखंडी चरित्र

ऋषि बंकिमचंद्र बांग्ला सवर्ण राष्ट्रवाद के साहित्य सम्राट हैं तो हिंदुत्व के नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद की जड़ें उनके आनंदमठ, दुर्गेश नंदिनी जैसे आख्यान में हैं। इतिहास में हिंदुत्व के नस्ली वर्चस्व को महिमामंडित करने वाले बंकिम के वंदे मातरम साहित्य के खिलाफ दो बीघा जमीन पर खड़े हैं रवींद्रनाथ और उनका सामाजिक यथार्थ, उनका इतिहास बोध,,उऩका बौद्धमय भारत इस नस्ली राष्ट्रवाद के खिलाफ मुकम्मल दलित विमर्श है तो यह आदिवासी भूगोल के दमन और उत्पीड़न पर आधारित फासीवादी नस्ली सैन्य राष्ट्र और आंतरिक उपनिवेशवाद का सच भी है।

आर्यावर्त के भूगोल से बाहर बाकी बचा भारत अनार्य,द्रविड़ और दूसरी राष्ट्रीयताओं का भूगोल है और महाभारत का इंद्रप्रस्थ उसके दमन का केंद्र है।

रवींद्र के दलित विमर्श बहुलता ,विविधता और सहिष्णुता के जनपदीय लोक गणराज्यों से बने स्वदेश के हिंद स्वराज की कथा है,जहां गांधी का दर्शन और रवींद्र का दलित विमर्श पश्चिमी उस फासीवादी नस्ली राष्ट्रवाद के विरुद्ध एकाकार है जो नस्ली सत्ता वर्चस्व के लिए नरसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध की दो बिघा जमीन भी है।

सवर्ण विमर्श में राष्ट्र के सामंती साम्राज्यवादी चरित्र पर,राष्ट्रीयताओं की समस्या पर घनघोर संवाद होने के बावजूद सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व पर आधारित राष्ट्र और राष्ट्रवाद के संदर्भ और प्रसंग में सिरे से सन्नाटा है।

दलित विमर्श इस नस्ली वर्चस्व के विरोध में है और चूंकि बहुजन कृषि और प्रकृति से जुड़े तमाम जनसमुदायों की जड़ें आ्रर्यों की वैदिकी सभ्यता से अलग अनार्य द्रविड़ और अन्य अनार्य नस्लों, सभ्यताओं और राष्ट्रीयताओं में है,जिनके उत्तराधिकारी आज के आदिवासी है तो रवींद्र के इस दलित विमर्श की समझ के लिए आदिवासी अस्मिता की समझ भी जरुरी है।

इसलिए हमने इस चर्चा में इससे पहले रांची से प्रकाशित चार पुस्तकों की चर्चा की थी।इन चार पुस्तकों में आदिवासी अस्मिता पर भारत की संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आवाज उठाने वाले जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों का संग्रह (अंग्रेजी में) अश्विनी कुमार पंकज संपादित आदिवासीडम भी है।

गौरतलब है कि किसी एक राष्ट्रीयता के वर्चस्व पर आधारित पश्चिमी राष्ट्र दूसरी राष्ट्रीयताओं के दमन का तंत्र है और उसके इसी फासीवादी नाजी साम्राज्यवादी चरित्र के खिलाफ गांधी और रवींद्र राष्ट्रवाद के खिलाफ खड़े हो गये।

जर्मनी,जापान और इटली के फासीवादी नाजी समय के बारे में सबको कमोबेश मालूम है।इस फासीवादी नाजी कालखंड से भी पहले ब्रिटिश,फ्रांसीसी,पुर्तगीज,स्पेनीश साम्राज्यवाद ने नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के तहत उपनिवेशों में नस्ली नरसंहार के जरिये राष्ट्रीयताओं का सफाया किया है।

अमेरिका,लातिन अमेरिका के मूलनिवासियों का सफाया इस नस्ली नरसंहार का वीभत्स इतिहास है और नई दुनिया के खोज के तमाम महानायकों मसलन कोलंबस और वास्कोडिगामा के हाथ लाखों मूलनिवासियों के कत्लेआम के खून से लहूलुहाऩ हैं और नस्ली इतिहासकारों के आख्यान में वही महिमामंडित पाठ्यक्रम है।

अमेरिका में लोकतंत्र के मूल्यों के खात्मे के सात उसी रंगभेदी नस्ली नरसंहार कार्यकर्म का पुनरूत्थान अमेरिका साम्राज्यवाद का मुक्तबाजारी बहुराष्ट्रीय पूंजी का चेहरा है।जिसके साथ हुंदुत्व के नस्ली राष्ट्रवादियों की सत्ता का युद्धक गठजोड़ है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की शुरुआत  1857 की क्रांति से होती है और उसमें 1757 के तुरंत बाद शुरु आदिवासी शूद्रों दलितों के चुआड़ विद्रोह की कथा नहीं है जिसकी कोख से अंग्रेजी हुकूमत को बनाये रखने के लिए स्थायी भूमि बंदोबस्त के तहत जमींदारियों का सृजन हुआ और ब्रिटिश हुकूमत के साथ जमींदारियों के सवर्ण वर्चस्व के विरोध में आदिवासी किसानों का सामंतवादविरोधी साम्राज्यवाद विरोधी महासंग्राम का सिलसिला भी इसीके साथ शुरु हुआ और शुरु हुआ  भारत में अनार्य द्रविड़ और दूसरी अनार्य राष्ट्रीयताओं के दमन के सैन्य राष्ट्रवाद का निर्माण बंकिम के आनंदमठ  के साथ।

भारत के आदिवासी खुद को असुरों के वंशज कहते हैं और दुर्गा का मिथक रचा गढ़ा गया आनंदमठीय नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के तहत जो सत्ता वर्ग के खिलाफ राष्ट्रीयताओं के महासंग्राम में आदिवासी असुरों का वध कार्यक्रम है।

हिंदुत्व के फासवीवादी पुनरूत्थान की जमीन आनंदमठ है और भारतामाता का दुर्गावतार भी यही आनंदमठीय राष्ट्रवाद का आंतरिक उपनिवेशवाद है।

राष्ट्रीयताओं के दमन का इतिहास  इसलिए जर्मनी,इटली या जापान तक सीमाबद्ध नहीं है और न साम्राज्यवादी पश्चिमी राष्ट्रों के दनियाभर में फैले उपनिवेशी की ही यह व्यथा कथा है।

साम्यवादी राष्ट्रों में भी राष्ट्रीयताओं के दमन का इतिहास है।

सोवियत संघ और चीन में भी.सोवियत संघ का विघटन राष्ट्रीयताओं के गृहयुद्ध का परिणाम है तो चीन में राष्ट्रीयता के दमन को तिब्बत के सच के संदर्भ में समझा जा सकता है।जबकि लेनिन,स्टालिन और माओ त्से तुंग जैसे राष्ट्र नेताओं ने राष्ट्रीयता की समस्या के समाधान के लिए अपनी तरफ से लगातार कोशिशें की हैं और सच यह है कि साम्यवादी राष्ट्रों ने राष्ट्रीयता के यथार्थ को मानकर इस समस्या के समाधान की लगातार कोशिश की है लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों में ऐसा कोई विमर्श नहीं चला।

पश्चिम के माडल पर निर्मित भारतीय राष्ट्र में भी राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित करने का प्रयास नहीं हुआ और गांधी और रवींद्रनाथ को पश्चिम के इसी राष्ट्रवाद से विरोध था।

गौरतलब है कि झारखंड आंदोलन के साम्यवादी नेता कामरेड एक राय ने इसी नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद को आतंरिक उपनिवेशवाद कहा है और मैंने भी अपने उपन्यास अमेरिका से सावधान में साम्राज्यवादी मुक्तबाजार की चुनौती के संदर्भ में लगातार इस आंतरिक साम्राज्यवाद की चर्चा की है।

राष्ट्रीयता के इस राष्ट्रीय प्रश्न को समझने के लिए हमने मुक्तबाजार के पहले  शहीद शंकर गुहा नियोगी के निर्माण और संघर्ष की राजनीति की चर्चा की है और झारखंड राज्य की परिकल्पना में झारखंड के आंदोलनकारियों की अर्थव्यवस्था,जल जंगल जमीन राष्ट्रीय संसाधन खनिज संपदा और औद्योगीकरण के बारे में आंदोलन की रणनीति भी कमोबेश उसी निर्माण और संघर्ष की राजनीति पर आधारित है।

बंगाल में सार्वजनीन दुर्गोत्सव के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के तहत ही महिषासुर वध के मिथक का भारतीय नस्ली राष्ट्रवाद का प्रतीक दुर्गावतार बनाया गया है।

ब्रिटिश हुकूमत,स्थाई भूमि बंदोबस्त के जरिये किसानों की जल जंगल जमीन आजीविका और रोजगार से बेदखली के 1757 से शुरु चुआड़ विद्रोह के दमन में ही दुर्गावतार के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के हिंदुत्व पुनरुत्थान के बीज हैं तो सैन्य राष्ट्रवाद के विमर्श के मुकाबले रवींद्र के दलित विमर्श की अनार्य द्रविड़ जमीन बंगाल में सामंती व्यवस्था के संकट के दौरान जमींदारी तबके के जर्मनी से जुड़े जमींदारों के हित में किसानों के हक हकूक के खिलाफ मनुस्मृति विधान के पक्ष स्वेदशी आंदोलन और अनुशीलन समिति के सवर्ण राष्ट्रवाद के दौरान दुर्गा के महिषमर्दिनी मिथक को राष्ट्रवाद बना देने के हिंदुत्व उपक्रम को समझने के लिए चुआड़ विद्रोह के भूगोल इतिहास को समझना जरुरी है।

गौरतलब है कि आदिवासी,शूद्र दलित शासकों के  चुआड़ विद्रोह भारतीय विमर्श और भारतीय इतिहास में किसी भी स्तर पर दर्ज नहीं है और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनार्य असुरों के आदिवासी किसान जनविद्रोहों को कभी शामिल ही नहीं किया गया है और इस इतिहास में वंदेमातरम के अखंड राष्ट्रवाद के सिवाय बाकी राष्ट्रीयताओं के वजूद को सिरे से खारिज कर दिया गया है,जबकि रवींद्र की भारत परिकल्पना में इन राष्ट्रीयताओं के लोक गणराज्यों के विलय का कथानक है।

चुआड़ विद्रोह,संथाल विद्रोह और मुंडा विद्रोह से लेकर बंकिम के आनंदमठ में बहुचर्चित संन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह के भूगोल में बिहार झारखंड ओड़ीशा छत्तीसगढ़ आंध्र मध्यप्रदेश और बंगाल के आदिवासी भूगोल नस्ली वर्चस्व के इस राष्ट्रवाद की सामंती संरचना और ब्रिटिश साम्रज्यवाद के खिलाफ भारतीय अनार्य द्रविड़ राष्ट्रीयताओं के महासंग्राम का इतिहास है जो भारत के मुक्ति संग्राम के सवर्ण नस्ली विमर्श में कहीं शामिल नहीं है।

इसीलिए भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच


रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है महात्मा फूले की गुलामगिरि और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरं�

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रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह

नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है

महात्मा फूले की गुलामगिरि  और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है

गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार

राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरंकुश वर्चस्व की सत्ता देश तोड़ती है

पलाश विश्वास

नस्ली वर्चस्व के फासीवादी नाजी निरंकुश राष्ट्रवाद पश्चिम से और खासतौर पर यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों से आयातित सबसे खतरनाक हाइड्रोजन बम है।

फासीवादी अंध राष्ट्रवाद की कीमत  जापान को हिरोसिमा और नागासाकी के परमाणु विध्वंस से चुकानी पड़ी है।

रवींद्र नाथ ने जापान यात्रा के दौरान इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ जापानियों को चेतावनी दी थी।हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरने से पहले 1941 में ही रवींद्रनाथ दिवंगत हो गये लेकिन उनकी वह चेतावनी अब हाइड्रोजन बम की शक्ल में विभाजित कोरिया के साथ साथ परमाणु साम्राज्यवाद के रचनाकार महाबलि अमेरिका के लिए अस्तित्व संकट बन गया है।

इसी अंध राष्ट्रवाद के कारण दो दो विश्वयुद्ध हारने वाले जर्मनी का विभाजन हुआ लेकिन फासीवाद और नवनाजियों के प्रतिरोध में कामयाबी के बाद बर्लिन की दीवारे ढह गयीं और जर्मनी फिर अखंड जर्मनी है जो बार बार नवनाजियों का प्रतिरोध जनता की पूरी ताकत के साथ कर रहे हैं।

कोरिया खुद जापानी साम्राज्यवाद का गुलाम रहा है और साम्राज्यवाद के हाथों खिलौना बनकर वह उत्तर और दक्षिण में ठीक उसी तरह विभाजित है जैसे अखंड भारत के तीन टुकड़े भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश।

नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादियों के खेल की वजह से विभाजित भारतवर्ष के भविष्य को लेकर चिंतित थे रवींद्रनाथ।

1890 में रवींद्रनाथ ने अपने समाज निबंधों की शृंखला में जूता व्यवस्था लिखकर औपनिवेशिक भारत में नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद की सामंती साम्राज्यवादपरस्ती की कड़ी आलोचना की थी और मृत्युपूर्व अंतिम निबंध सभ्यता के संकट तक सामंतवाद और साम्राज्यवाद के पिट्ठू आंतरिक उपनिवेशवाद के नस्ली वर्चस्ववाद पर उन्होंने लगातार प्रहार किये क्योंकि वे जानते थे कि पश्चिम के इस फासीवादी नाजी राष्ट्रवाद की अंतिम और निर्णा्यक नियति विभाजन की निरंतरता की त्रासदी है और अंतिम सांस तक रवींद्रनाथ ने नस्ली राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व से बने अखंड दुर्भागा देश को इस भयंकर नियति के खिलाफ चेतावनी दी है।

ब्राजील और अर्जेंटीना में श्वेत अश्वेत संघर्ष के बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। लातिन अमेरिका में यह रंगभेद उस तरह नजर नहीं आता जैसे दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में।

रंगभेद की यह तीव्रता यूरोपीय देशों में अब बुहत ज्यादा नजर नहीं आती।बल्कि इस रंगभेद के प्रवर्तक इंग्लैंड में जीवन के हर क्षेत्र में अश्वेतों का ही वर्चस्व हो गया है।

इसके विपरीत भारत में जाति व्यवस्था के तहत असमानता और अन्याय की व्यवस्था अमेरिका की तरह नस्ली वर्चस्व के रंगभेद में तब्दील है।

अमेरिका का श्वेत आतंकवाद और ग्लोबल हिंदुत्व का नस्ली वर्चस्ववाद एकाकार है।फिरभी अमेरिका का विभाजन नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण अमेरिकी राष्ट्र का संघीय ढांचा है,जिसमें अमेरिका की बहुलता और विवधता का लोकतंत्र बना हुआ है जो श्वेत आतंकवाद का लगातार प्रतिरोध कर रहा है।

सोवियत संघ में जब तक संघीय ढांचा बना रहा और विविधताओं की बहुलता के खिलाफ राष्ट्रीयताओं का निर्मम दमन नहीं हुआ तब तक सोवियत संघ बना रहा और संघीय ढांचा टूटने के बाद ही सोवियत संघ का विभाजन हुआ।

रवींद्र नाथ के विविधता के दलित विमर्श,गांधी के हिंद स्वराज और यहां तक कि नेताजी के आजाद हिंद फौज की संरचना में संघीय ढांचा के बीज हैं जहां केंद्र की निरंकुश नस्ली वर्चस्व की सत्ता के बजाय जनपदों के लोक गणराज्यों का लोकतंत्र है।

स्वतंत्रता सेनानियों से बनी भारत की संविधान सभा ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार बने भारत के संविधान के लिए विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की रक्षा के लिए समानता और न्याय के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान की प्रस्तावना में महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के सिद्धांतों के तहत नागरिक और मनवाधिकार की आधारशिला रखते हुए स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य भारत के लिए संघीय ढांचा का विकल्प चुना जो राष्ट्रीयताओं की समस्या के समाधान का रास्ता था।

नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद ने उस संघीय ढांचा को तहस नहस करके दिल्ली केंद्रित निरंकुश फासीवादी सत्ता की स्थापना कर दी है,जिसके खिलाफ रवींद्रनाथ उन्नीसवीं सदी से अपने मृत्यु से पहले तक लगातार चेतावनी देते रहे हैं।

रवींद्र रचनाधर्मिता की यही मुख्यधारा है जो भारत की साझा संस्कृति की विरासत है जो बौद्धमय भारत के समता और लक्ष्यों के अनुरुप हैं।

बहुजन पुरखों और सामंतवादविरोधी मनुष्यता के धर्म के पक्षधर इस महान देश का धर्म और आध्यात्म भी सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के विरुद्ध है लेकिन सवर्ण विद्वजतजनों की इसमें दिलचस्पी नहीं है तो पीड़ित शोषित अत्याचार के शिकार और नरसंहार संस्कृति के तहत वध्य बहुसंख्य जनगण इसे भारतीय इतिहास और संस्कृति,लोक और जनपद के नजरिये से समझने के लिए तैयार नहीं हैं।


गौरतलब है कि महात्मा ज्योतिबा फूले ने  गुलामगिरी की प्रस्तावना में शुरुआती दो पैरा में इसी नस्ली वर्चस्व के विशुद्ध राष्ट्रवाद की चर्चा की हैः


सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।

उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।

(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा)

रवींद्रनाथ ने यूरोपीय सभ्यता के अनुकरण के तहत बंगाली भद्रलोक सवर्ण नस्ली राष्ट्र वाद पर तीखा प्रहार करते हुए जूता व्यवस्था निबंध में वैदिकी धर्म संस्कृति के यूरोपीय सभ्यता के साथ सामंजस्य बैठकर ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी कर रहे भद्रलोक बिरादरी के ओहदे के हिसाब से बूट से लेकर भांति भाति के जूतों से पीटे जाने की अनिवार्यता का स्वीकार करने के तर्कों का ब्यौरा पेश किया है।पहले पहल जूता खाने की यूरोपीय सभ्यता में नजीर न होने की वजह से विरोध करनेवाले प्रभुवर्ग वर्ण के लोगों ने लाट साहेब के उन्हीं के हितों का हवाला देने पर उसी जूता व्यवस्था का कैसे महिमामंडन किया है,उसका सिलिसलेवार ब्यौरा दिया है।

गौरतलब है कि बंकिम के आनंदमठ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसानों के जनविद्रोह को मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्व के जिहाद बताकर कंपनी राज को हिंदू राष्ट्र बनने से पहले तक हिंदुओं का हित बताने की दैवी वार्ता के साथ वंदेमातरम का उद्घोष हुआ और हिंदुत्व राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रतता संग्राम के दौरान जूता व्यवस्था को अपनी नियति मान ली।अंग्रेजी हुकूमंत की जूताखोरी का महिमामंडन वैदिकी संस्कृति के हवाले से भद्रलोक बिरादरी ने निःसंकोच किया और वे दूसरों के मुकाबले अपने ऊंचे ओहदों को लेकर खुश रहे।यह गुलामगिरी का बांग्ला राष्ट्रवाद है जो आनंदमठ के जरिये हिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद है।

সমাজলিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

জুতা-ব্যবস্থা

লাটসাহেব রুখিয়া দরখাস্তের উত্তরে কহিলেন, 'তোমরা কিছু বোঝ না, আমরা যাহা করিয়াছি, তোমাদের ভালোর জন্যই করিয়াছি। আমাদের সিদ্ধান্ত ব্যবস্থা লইয়া বাগাড়ম্বর করাতে তোমাদের রাজ-ভক্তির অভাব প্রকাশ পাইতেছে। ইত্যাদি।'

নিয়ম প্রচলিত হইল। প্রতি গবর্নমেন্ট-কার্যশালায় একজন করিয়া ইংরাজ জুতা-প্রহর্তা নিযুক্ত হইল। উচ্চপদের কর্মচারীদের এক শত ঘা করিয়া বরাদ্দ হইল। পদের উচ্চ-নীচতা অনুসারে জুতা- প্রহার-সংখ্যার ন্যূনাধিক্য হইল। বিশেষ সম্মান-সূচক পদের জন্য বুট জুতা ও নিম্ন-শ্রেণীস্থ পদের জন্য নাগরা জুতা নির্দিষ্ট হইল।

যখন নিয়ম ভালোরূপে জারি হইল, তখন বাঙালি কর্মচারীরা কহিল, 'যাহার নিমক খাইতেছি, তাহার জুতা খাইব, ইহাতে আর দোষ কী? ইহা লইয়া এত রাগই বা কেন, এত হাঙ্গামাই বা কেন? আমাদের দেশে তো প্রাচীনকাল হইতেই প্রবচন চলিয়া আসিতেছে, পেটে খাইলে পিঠে সয়। আমাদের পিতামহ-প্রপিতামহদের যদি পেটে খাইলে পিঠে সইত তবে আমরা এমনই কী চতুর্ভুজ হইয়াছি, যে আজ আমাদের সহিবে না? স্বধর্মে নিধনং শ্রেয়ঃ পরধর্মোভয়াবহঃ। জুতা খাইতে খাইতে মরাও ভালো, সে আমাদের স্বজাতি-প্রচলিত ধর্ম।'যুক্তিগুলি এমনই প্রবল বলিয়া বোধ হইল যে, যে যাহার কাজে অবিচলিত হইয়া রহিল। আমরা এমনই যুক্তির বশ! (একটা কথা এইখানে মনে হইতেছে। শব্দ-শাস্ত্র অনুসারে যুক্তির অপভ্রংশে জুতি শব্দের উৎপত্তি কি অসম্ভব? বাঙালিদের পক্ষে জুতির অপেক্ষা যুক্তি অতি অল্পই আছে, অতএব বাংলা ভাষায় যুক্তি শব্দ জুতি শব্দে পরিণত হওয়া সম্ভবপর বোধ হইতেছে!) কিছু দিন যায়। দশ ঘা জুতা যে খায়, সে একশো ঘা-ওয়ালাকে দেখিলে জোড় হাত করে, বুটজুতা যে খায় নাগরা-সেবকের সহিত সে কথাই কহে না। কন্যাকর্তারা বরকে জিজ্ঞাসা করে, কয় ঘা করিয়া তাহার জুতা বরাদ্দ। এমন শুনা গিয়াছে, যে দশ ঘা খায় সে ভাঁড়াইয়া বিশ ঘা বলিয়াছে ও এইরূপ অন্যায় প্রতারণা অবলম্বন করিয়া বিবাহ করিয়াছে। ধিক্‌, ধিক্‌, মনুষ্যেরা স্বার্থে অন্ধ হইয়া অধর্মাচরণে কিছুমাত্র সংকুচিত হয় না। একজন অপদার্থ অনেক উমেদারি করিয়াও গবর্নমেন্টে কাজ পায় নাই। সে ব্যক্তি একজন চাকর রাখিয়া প্রত্যহ প্রাতে বিশ ঘা করিয়া জুতা খাইত। নরাধম তাহার পিঠের দাগ দেখাইয়া দশ জায়গা জাঁক করিয়া বেড়াইত, এবং এই উপায়ে তাহার নিরীহ শ্বশুরের চক্ষে ধুলা দিয়া একটি পরমাসুন্দরী স্ত্রীরত্ন লাভ করে। কিন্তু শুনিতেছি সে স্ত্রীরত্নটি তাহার পিঠের দাগ বাড়াইতেছে বৈ কমাইতেছে না। আজকাল ট্রেনে হউক, সভায় হউক, লোকের সহিত দেখা হইলেই জিজ্ঞাসা করে, 'মহাশয়ের নাম? মহাশয়ের নিবাস? মহাশয়ের কয় ঘা করিয়া জুতা বরাদ্দ?' আজকালকার বি-এ এম- এ'রা নাকি বিশ ঘা পঁচিশ ঘা জুতা খাইবার জন্য হিমসিম খাইয়া যাইতেছে, এইজন্য পূর্বোক্ত রূপ প্রশ্ন জিজ্ঞাসা করাকে তাঁহারা অসভ্যতা মনে করেন, তাঁহাদের মধ্যে অধিকাংশ লোকের ভাগ্যে তিন ঘায়ের অধিক বরাদ্দ নাই। একদিন আমারই সাক্ষাতে ট্রেনে আমার একজন এম-এ বন্ধুকে একজন প্রাচীন অসভ্য জিজ্ঞাসা করিয়াছিল, 'মহাশয়, বুট না নাগরা?' আমার বন্ধুটি চটিয়া লাল হইয়া সেখানেই তাহাকে বুট জুতার মহা সম্মান দিবার উপক্রম করিয়াছিল। আহা, আমার হতভাগ্য বন্ধু বেচারির ভাগ্যে বুটও ছিল না, নাগরাও ছিল না। এরূপ স্থলে উত্তর দিতে হইলে তাহাকে কী নতশির হইতেই হইত! আজকাল শহরে পাকড়াশী পরিবারদের অত্যন্ত সম্মান। তাঁহারা গর্ব করেন, তিন পুরুষ ধরিয়া তাঁহারা বুট জুতা খাইয়া আসিয়াছেন এবং তাঁহাদের পরিবারের কাহাকেও পঞ্চাশ ঘা'র কম জুতা খাইতে হয় নাই। এমন-কি, বাড়ির কর্তা দামোদর পাকড়াশী যত জুতা খাইয়াছেন, কোনো বাঙালি এত জুতা খাইতে পায় নাই। কিন্তু লাহিড়িরা লেপ্টেনেন্ট-গবর্নরের সহিত যেরূপ ভাব করিয়া লইয়াছে, দিবানিশি যেরূপ খোশামোদ আরম্ভ করিয়াছে, শীঘ্রই তাহারা পাকড়াশীদের ছাড়াইয়া উঠিবে বোধ হয়। বুড়া দামোদর জাঁক করিয়া বলে, 'এই পিঠে মন্টিথের বাড়ির তিরিশটা বুট ক্ষয়ে গেছে।' একবার ভজহরি লাহিড়ি দামোদরের ভাইঝির সহিত নিজের বংশধরের বিবাহ প্রস্তাব করিয়া পাঠাইয়াছিল, দামোদর নাক সিটকাইয়া বলিয়াছিল, 'তোরা তো ঠন্‌ঠোনে।' সেই অবধি উভয় পরিবারে অত্যন্ত বিবাদ চলিতেছে। সেদিন পূজার সময় লাহিড়িরা পাকড়াশীদের বাড়িতে সওগাতের সহিত তিন জোড়া নাগরা জুতা পাঠাইয়াছিল; পাকড়াশীদের এত অপমান বোধ ইহয়াছিল যে, তাহারা নালিশ করিবার উদ্যোগ করিয়াছিল; নালিশ করিলে কথাটা পাছে রাষ্ট্র হইয়া যায় এইজন্য থামিয়া গেল। আজকাল সাহেবদিগের সঙ্গে দেখা করিতে হইলে সম্ভ্রান্ত 'নেটিব'গণ কার্ডে নামের নীচে কয় ঘা জুতা খান, তাহা লিখিয়া দেন, সাহেবের কাছে গিয়া জোড়হস্তে বলেন, 'পুরুষানুক্রমে আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাইয়া আসিতেছি; আমাদের প্রতি গবর্নমেন্টের বড়োই অনুগ্রহ।' সাহেব তাঁহাদের রাজভক্তির প্রশংসা করেন। গবর্নমেন্টের কর্মচারীরা গবর্নমেন্টের বিরুদ্ধে কিছু বলিতে চান না; তাঁহারা বলেন, 'আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাই, আমরা কি জুতা-হারামি করিতে পারি!'


अब गोरक्षकों के राष्ट्रवादी तांडव के संदर्भ में समाज निबंध शृंखला के तहत आचरण अत्याचार विषय पर रवींद्रनाथ के इस मंत्वय पर गौर करें जिसमें उन्होंने गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर प्रहार किया है।इस निबंध में जाति व्यवस्था के तहत अस्पृश्यता के वैदिकी धर्म में नीची जातियों,अस्पृश्यों के उत्पीड़न के सामाजिक यथार्थ,उनकी जल जंगल जमीन से बेदखली का भी ब्यौरा है

একজন লোক গোরু মারিলে সমাজের নিকট নির্যাতন সহ্য করিবে এবং তাহার প্রায়শ্চিত্ত স্বীকার করিবে , কিন্তু মানুষ খুন করিয়া সমাজের মধ্যে বিনা প্রায়শ্চিত্তে স্থান পাইয়াছে এমন দৃষ্টান্তের অভাব নাই । পাছে হিন্দুর বিধাতার হিসাবে কড়াক্রান্তির গরমিল হয় , এইজন্য পিতা অষ্টমবর্ষের মধ্যেই কন্যার বিবাহ দেন এবং অধিক বয়সে বিবাহ দিলে জাতিচ্যুত হন ; বিধাতার হিসাব মিলাইবার জন্য সমাজের যদি এতই সূক্ষ্মদৃষ্টি থাকে তবে উক্ত পিতা নিজের উচ্ছৃঙ্খল চরিত্রের শত শত পরিচয় দিলেও কেন সমাজের মধ্যে আত্মগৌরব রক্ষা করিয়া চলিতে পারে । ইহাকে কি কাকদন্তির হিসাব বলে । আমি যদি অস্পৃশ্য নীচজাতিকে স্পর্শ করি , তবে সমাজ তৎক্ষণাৎ সেই দন্তিহিসাব সম্বন্ধে আমাকে সতর্ক করিয়া দেন , কিন্তু আমি যদি উৎপীড়ন করিয়া সেই নীচজাতির ভিটামাটি উচ্ছিন্ন করিয়া দিই , তবে সমাজ কি আমার নিকট হইতে সেই কাহনের হিসাব তলব করেন । প্রতিদিন রাগদ্বেষ লোভমোহ মিথ্যাচরণে ধর্মনীতির ভিত্তিমূল জীর্ণ করিতেছি , অথচ স্নান তপ বিধিব্যবস্থার তিলমাত্র ত্রুটি হইতেছে না । এমন কি দেখা যায় না ।

সমাজ লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

আচারের অত্যাচার


आज सुबह हमारे एक पुराने मित्र,सरकारी अस्पताल के अधीक्षक पद से रिटायर शरणार्थी नेता ने फोन करके कहा कि आप हिंदुत्व के खिलाफ हैं और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में कुछ भी नहीं लिखते।

उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि आप लोग तो रोहिंगा मुसलमानों के बारे में लिखेंगे और असम बांग्लादेश और बंगाल के मिलाकर ग्रेटर इस्लामी बांग्लादेश के एजंडा पर आप खामोश रहेंगे।

उन्होमने दावा किया की वे मरा लिखा सबकुछ पढ़ते हैं और मरे तमाम वीडियो भी देखते हैं।

पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,शरणार्थी समस्या पर मैं लगातार लिखता रहा हूं जिसे वे हिंदुत्व के खिलाफ राजनीति बता रहे हैं और बंगाल के नस्ली सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श को भी वे गैर प्रासंगिक मानते हैं।

गौरतलब है कि बंगाल के ज्यादातर शरणार्थी नेताओं और आम शरणार्थियों की तरह वे भी हिंदुत्व के झंडवरदार और संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के समर्थक हैं और उन्हें समझाना मुश्किल हैं।

वे सुनते नहीं हैं और न वे पढ़ते हैं बल्कि उन्हें हिंदुओं के खतरे में होने की फिक्र ज्यादा है और राष्ट्रवाद की वजह से हुए युद्ध गृहयुद्ध देश के विभाजन और विश्वव्यापी शरणार्थी समस्या और नस्ली वर्चस्व के फासीवाद नाजीवादके बारे में कुछ बी समझाना मुश्किल है।

विभाजनपीड़ितों के भारत विभाजन और शरणार्थी समस्या के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने की बात समझ में आती है लेकिन नस्ली वर्चस्व के फासीवादी विशुद्धता के हिंदुत्व एजंडे पर किसी संवाद के लिए सवर्ण विद्वतजन उसीतरह तैयार नहीं हैं जैसे वे बहुजनों के जीवन और आजीविका,उनकी नागरिकता,उनके नागरिक और मानवाधिकार और शरणार्थी समस्या पर कुछ भी कहने लिखने को तैयार नहीं हैं।

जाहिर है कि हम उन विद्वतजनों के लिए रवींद्र विमर्श पर यह संवाद नहीं चला रहे हैं।हम उन्हीं को सीधे संबोधित कर रहे हैं जो नियति के साथ सवर्ण अभिसार के शिकार नरसंहारी संस्कृति के वध्य मानुष हैं।

बहारहाल जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और मेरा वीडियो देखते हैं,उन्हें मालूम होगा कि पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों के बारे में,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,सलाम आजाद और तसलिमा नसरीन के साथ इस मुद्दे पर लिखे हर किसी के साहित्य पर,शरणार्थी समस्या,नागरिकता कानून,शरणार्थि्यों के देश निकाला अभियान और आधार के बारे में कितना लिखा और कितना कहा है।

पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ितों के बारे में हमने जिलावार पूरे भारत के हर हिस्से में बसे शरणार्थियों की समस्या पर विस्तार से लगातार लिखा है।लेकिन मेरी चूंकि किताबें नहीं छपतीं और अखबारों,पत्रिकाओं में भी मैं नहीं छपता तो राष्ट्रवाद के प्रसंग में रवींद्र के दलित विमर्श  पर विभाजन पीड़ित हिंदुत्व सेना में तब्दील शरणार्थियों की इससे बेहतर प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत देश के विभाजन के साथ ही राष्ट्रवाद के नस्ली वर्चस्व आधारित राष्ट्र में राष्ट्रीयता का संकट शुरु हो गया था।

विभाजन  के वक्त ही मास्टर तारासिंह ने पूछा था,हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला और मुसलमानों को पाकिस्तान,तो सिखों को क्या मिला।

सिखों की राष्ट्रीयता के सवाल पर खालिस्तान आंदोलन और सिखों के नरसंहार के बारे में हम जानते हैं।

आदिवासी राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल के अलावा हिमालय क्षेत्र में सबसे ज्यादा हैं लेकिन उनकी राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित किये बिना छत्तीसगढ़ और झारखंड आदिवासी राज्य बनाकर आदिवासी भूगोल में गैरआदिवासियों के नस्ली वर्चस्व को बहाल रखकर आदिवासी राष्ट्रीयता के सवाल को और उलझा दिया गया है।इसी तरह उत्तराखंड और तेलंगना अलग राज्य बने और वहां भी आम जनता अपने संसाधनों से बेदखल किये जा रहे हैं।

समस्याओं को बनाये रखकर नस्ली वर्चस्व बहाल करने की यह सत्ता राजनीति है तो निरंकुश कारपोरेट अर्थव्यवस्था का माफियातंत्र भी।

अखंड भारत में हिंदू बहुसंख्यक थे तो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने के बाद इस्लामी राष्ट्रीयता वहां बड़ी राष्ट्रीयता बन गयी।ज

नसंख्या स्थानांतरण का कार्यक्रम भारी खून खराबे के बावजूद सिरे से फेल हो जाने से भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक हो गये।

विभाजन के तुरंत बाद सीमाओं के आर पार अल्पसंख्यक उत्पीड़न शुरु हो गया।पाकिस्तानी इस्लामी राष्ट्रीयता बंगाली भाषायी राष्ट्रीयता के दमन पर आमादा हो गयी तो पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हो गया और भारत के सैन्य हस्तक्षेप से बांग्लादेश बना।

बांग्लादेश बनते ही फिर इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के तहत बांग्ला राष्ट्रवाद के विरुद्ध अभियान और भारत में अल्पसंख्यक खिलाफ हिंदुत्व की दंगाई राजनीति बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और तेज हो गया।

विभाजन पीड़ित हिंदुत्व की पैदल सेना को इस्लामी राष्ट्रवाद का यथार्थ समझ में आता है लेकिन हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद की सीमापार होने वाली भयंकर प्रतिक्रिया की कहानी समझ में नहीं आती।

तसलिमा के उपन्यास लज्जा में हिंदुओं का उत्पीड़न और बांग्लादेश से उनका पलायन से हिंदुत्व की सुनामी बनती है लेकिन बांग्लादेश और दुनियाभर में राम के नाम बाबरी विध्वंस के राष्ट्रवाद की परिणति जो लज्जा की पृष्ठभूमि है,समझ में नहीं आती।दुनियाभर में अंध राष्ट्रवाद के नतीजतन युद्ध गृहयुद्ध और आधी दुनिया के शरणार्थी बन जाने और देश के बीतर जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार से अनंत बेदखली का नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मति विधान की निरंकुश फासीवादी सत्ता के यथार्थ उन्हें और बाकी नागरिकों को समझ में नहीं आता।वे नरसंहारों के मूक दर्शक हैं और अपनी हत्या के इंतजाम के समर्थक भी।

बंगाल और पंजाब और आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताएं ही नहीं, बल्कि भारत और पाकिस्तान में कश्मीरियों की राष्ट्रीयता का संकट भी इस दास्तां का भयानक सच है।भारत में शामिल कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर सीमा के आर पार कश्मीरियत के भूगोल के दोनों हिस्सों में आजादी की मांग उठ रही है और भारत में यह मांग हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है तो पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्रवाद के खिलाफ।

भारत और पाकिस्तान में कश्मीरी राष्ट्रीयता की इस समस्या को सिरे से नजरअंदाज किये जाने के नतीजतन किसी को समझ में नहीं आता कि कश्मीर समस्या हिंदू मुस्लिम राष्ट्रीयताओं का सवाल नहीं है और यह कश्मीरी राष्ट्रीयता की समस्या है,जिसे सीमायुद्ध में तब्दील करने वाले नस्ली राष्ट्रवाद की सत्ता पाकिस्तान और भारत में सिरे से मानने से इंकार करता है और कश्मीर की समस्या का समाधान आज तक नहीं हो सका।यह निषिद्ध विषय है।

मानवाधिकार के हनन का विरोध के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है उसीतरह जैसे बौद्ध अनुयायी नम्यांमार में बहुसंख्यक बौद्धों की ओर से रोहिंगा मुसलमानों के नरसंहार के खिलाफ खामोश हैं तो हिंदुत्ववादी इस मुद्दे पर चुप्पी के साथ बंगालादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न पर मुखर हैं।

जनसंख्या की इस राजनीति पर हमने पहले चर्चा की है।आगे भी करेंगे।

बंगाल में ही गोरखालैंड आंदोलन गोरखा राष्ट्रीयता बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता अस्सी के दशक से चल रहा है।

अस्सी के दशक में अलग गोरखालैंड राष्ट्र के आंदोलन में हजारों लोग मारे गये।दार्जिलिंग के पहाड़ों को राजनीतिक स्वायत्तता देकर इस समस्या का तदर्थ हल निकाला गया लेकिन नस्ली वर्चस्व की राजनीति के तहत दार्जिलिंग के पहाड़ फिर ज्वालामुखी है और फिर गोरखालैंड का आंदोलन जारी है जो सिर्फ दार्जिलिंग के पहाडो़ं तक सीमाबद्ध नहीं है।

गोराखा राष्ट्रीयता के भूगोल  और इतिहास में समूचा नेपाल,उत्तराखंड के गोरखा शासित हिस्से.सिक्किम और भूटान भी शामिल है और महागोरखालैंड का एजंडा भी पुराना है।सत्ता के नस्ली वर्चस्व की राजनीति से यह आग बूझेगी नहीं।

आदिवासी राष्ट्रीयताओं की समस्या को संबोधित किये बिना असम को कई टुकड़ों में विभाजित किया जाता रहा है।लेकिन पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं का आपसी विवाद थमा नहीं है।

मणिपुर में नगा और मैती संघर्ष लगातार जारी है तो असम में ही बोरोलैंड को स्वशासी इलाका बनाने के बाद भी अल्फाई अहमिया राष्ट्रवाद,इस्लामी ग्रेटर बांग्लादेश और आदिवासी राष्ट्रीयताओं का गृहयुद्ध जारी है।

इसी तरह त्रिपुरा में आदिवासी राष्ट्रीयता उग्रवाद में तब्दील है।

सत्ता की राजनीति राष्ट्रीयता आंदोलन के उग्रवादी धड़ों का का शुरु से इ्स्तेमाल उसीतरह करती रही है जैसे मेघालय में हाल में भाजपाई राजकाज है और असम में अल्फाई राजकाज है तो त्रिपुरा में फिर वामसत्ता को उखाड़ फेंकने का हिंदुत्व एजंडा है।

कश्मीर में सत्ता हड़पने की राजनीति का किस्सा बंगाल में भी दोहराने की तैयारी के तहत गोरखालैंड बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता के गृहयुद्ध के पीछे भी नस्ली वर्चस्ववाद के हिंदुत्व एजंडे का हाथ है।यह हिंदुत्ववादियों को समझाना मुश्किल है तो सवर्ण धर्मनिरपेक्षता के झंडेवरदार बी राष्ट्रीयताओं की समस्या पर उसी नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के तहत किसी भी संवाद से पिछले सात दशकों से इंकार करते रहे हैं,जिनमें वामपंथी भी शामिल है।

ऐसा तब है जबकि लेनिन,स्टालिन और माओ ने भी राष्ट्रीयता की समस्या को संबोधित करने के गंभीर प्रयास किये हैं।



रवींद्र दलित विमर्श-18 गौरी लंकेश असुर संस्कृति की अनार्य सभ्यता की द्रविड़ प्रवक्ता थीं,इसीलिए उनका वध हुआ। गांधी,दाभोलकर,पनेसर,कुलबर्गी,रोहित वेमुला के बाद गौरी लंकेश की हत्या फिर मनुस्मृति के स्थाई बंदोबस्त को लागू करने का नस्ली राष्ट्रवाद है,जिसका रवींद्रनाथ विरोध कर रहे थे। संत तुकाराम और चैतन्य महाप्रभु की हत्या कर दी और असहिष्णुता का वही आतंकवाद जारी है। भारत में बुद्ध�

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रवींद्र दलित विमर्श-18

गौरी लंकेश असुर संस्कृति की अनार्य सभ्यता की द्रविड़ प्रवक्ता थीं,इसीलिए उनका वध हुआ।

गांधी,दाभोलकर,पनेसर,कुलबर्गी,रोहित वेमुला के बाद गौरी लंकेश की हत्या फिर मनुस्मृति के स्थाई बंदोबस्त को लागू करने का नस्ली राष्ट्रवाद है,जिसका रवींद्रनाथ विरोध कर रहे थे।

संत तुकाराम और चैतन्य महाप्रभु की हत्या कर दी और असहिष्णुता का वही आतंकवाद जारी है।

भारत में बुद्धमय भारत के अवसान के बाद हिंदुत्व पुनरूत्थान की प्रक्रिया महिषासुर वध की निरंतरता है और नस्ली राष्ट्रवाद का प्रतीक वही दुर्गावतार है,जिसकी ताजा शिकार गौरी लंकेश है।किसी मोमबत्ती जुलूस से इस व्यवस्था का अंत नहीं होने वाला है।

पलाश विश्वास

कल हमने रवींद्र के दलित विमर्श के तहत रवींद्र के दो निबंधों जूता व्यवस्था और आचरण अत्याचार की चर्चा की थी।आचरण अत्याचार में जाति व्यवस्था की अस्पृश्यता पर प्रहार करते हुए रवींद्र ने लिखा है कि गाय मारने पर प्रायश्चित्त का विधान है लेकिन मनुष्य को मारने पर सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है , उसी तरह अछूतों को छूने पर जाति चली जाती है लेकिन अछूतों पर अत्याचार,उत्पीड़न और उनकी बेदखली से जाति मजबूत हो जाती है।गोरक्षकों के तांडव में प्रायश्चित्त का विधान अब वध है।

जिस सामाजिक यथार्थ की बात रवींद्र ने उन्नीसवीं सदी में कही थी,वह आजादी के सत्तर साल बाद नरसंहार संस्कृति का नस्ली राष्ट्रवाद है।गोरक्षकों के तांडव पर हिंदू गांधी के पोते की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला बताता है कि कानून का राज और संविधान कितना बेमायने है और कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए राष्ट्र की जिम्मेदारी और जबावदेही का क्या हाल है।

गोरक्षकों से नागरिकों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है और इसमें भी नागरिकों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है क्योंकि गोरक्षा तांडव अब नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के हिंदुत्व का पर्याय है तो कारोपेरट फासिज्म के राजकाज की राजनीति और सत्ता इसी गोरक्षक सेना के समर्थन से हैं।

हमारी विकास यात्रा हमें लगातार मध्यकालीन बर्बर अंधकार युग की तरफ ले जा रही है,जिसका विकास दर से कोई संबंध नहीं है।विशुद्धता का यह रंगभेदी नस्ली वर्चस्व सभ्यता का संकट है।

ब्रिटिश हुकूमत का अंत हुआ और जैसा कि रवींद्र नाथ ने अपने मृत्युपूर्व लिखे निबंध में ब्रिटिश हुकूमत के स्थानांतरण के बाद भारत के भविष्य को लेकर चिंता जताते हुए चेतावनी जारी की थी,जैसे कि महात्मा ज्योति बा फूले और मतुआ चंडाल आंदोलन के नेता गुरुचांद ठाकुर समेत बहुजन पुरखों को आशंका थी,सत्ता ब्राह्मणवाद के नस्ली वर्चस्व को हस्तातंरित हो जाने के बाद हूबहू वही हो रहा है।

ब्रिटिश हुकूमत में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के तहत पेशा बदलने की छूट के तहत जाति व्यवस्था टूटने लगी थी और मनुस्मृति विधान के तहत ज्ञान,आस्था और उपासना,शस्त्र और संपत्ति के अधिकारों से वंचित बहुजनों को वे अधिकार मिलने लग गये थे,जो अब संवैधानिक रक्षाकवच के बावजूद छीने जा रहे हैं और भारतीय नस्ली वर्चस्व की मनुस्मृति संस्कृति फिर वही महिषासुर वध कथा है।

गांधी,दाभोलकर,पनेसर,कुलबर्गी,रोहित वेमुला के बाद गौरी लंकेश की हत्या फिर मनुस्मृति के स्थाई बंदोबस्त को लागू करने का नस्ली राष्ट्रवाद है,जिसका रवींद्रनाथ विरोध कर रहे थे।गौरी लंकेश असुर संस्कृति की अनार्य सभ्यता की द्रविड़ प्रवक्ता थीं, इसीलिए उनका वध हुआ।

यह मामला अभिव्यक्ति का संकट है या असहमति के विरुद्ध असहिष्णुता है,ऐसा राजनीतिक सरलीकरण सामाजिक यथार्थ के खिलाफ है। देशभर में ऐसे तमाम कांड लगातार होते जा रहे हैं और विरोध की रस्म अदायगी के बाद फिर अखंड मौन के मद्य़फिर फिर वध दृश्य की पुनरावृत्ति है।गांधी हत्या के बाद तो फिरभी एक लंबा अंतराल रहा है और दंगों और नरसंहारों में वैदिकी संस्कृति के वध उत्सव के मौन दर्शक बने नागरिक विद्वतजनों पर हो रहे ताजा हमलों में अपनी मौत की दस्तक सुनकर विचलित हो रहा है नागरिक समाज का पढ़ा लिखा तबका।

विरोध जताने की राजनीति के अलावा सामाजिक सक्रियता का अगला कदम उठाने की वह सोच ही नहीं सकता क्योंकि इसी तंत्र के बने रहने में उसके हित हैं।उसका वर्ग वर्ण हितों के विरुद्ध सत्ता परिवर्तन की राजनीति उसके लिए सुविधाजनक विकल्प है और सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिरोध की संस्कृति उसके हितों के खिलाफ है।

गोरक्षकों के तांडव के मानस से भी ज्यादा खतरनाक यह सुविधा का विमर्श।

यही जूता व्यवस्था है ताकि जूता खाकर अपनी खाल बचायी जा सके।यही सवर्ण सत्ता वर्ग का मानस है।

रवींद्र के दलित विमर्श पर संवाद इसी सामाजिक यथार्थ की जांच पड़ताल है।रवींद्र भारत की समस्या को सामाजिक मानतेे रहे हैं और यह सामाजिक समस्या जितनी गुलामगिरि की कथा है,उतनी ही रवींद्र के सामाजिक यथार्थ जूता व्यवस्था यानी नस्ली सत्ता वर्चस्व के अंतर्गत जूता खाते रहकर अपनी हैसियत बचाने की संस्कृति है,जो अब बहुजन संस्कृति है तो यह वैदिकी विशुद्धता की संस्कृति भी है।

गुलामगिरि की जूता व्यवस्था में समाहित बहुजन समाज का यथार्थ यही है और यही बहुजनों का हिंदुत्वकरण है,जिसके दायरे से बाहर बने रहने के लिए इस देश में अनार्य द्रविड़ और दूसरी अनार्य नस्लों की जल जंगल जमीन की लड़ाई है,जिसके दमन के लिए नरसंहार संस्कृति का अंध नस्ली राष्ट्रवाद है।

बुद्धमय भारत के अवसान के बाद नस्ली सत्ता वर्चस्व के मनुस्मृति बंदोबस्त की यह संस्कृति भारत में इस्लामी शासन के करीब सात सौ सालों और ब्रिटिश हुकूमत के दो सौ सालों के दरम्यान बनाये रखने के लिए सत्ता वर्ग ने उनकी गुलामी का महिमामंडन करते हुए उनकी सत्ता में भागेदारी के जरिये बहुजनों और खासतौर पर आदिवासियों का उत्पीड़न और दमन का सिलसिला जारी रखा है और इसीलिए हिंदुत्व एजंडे के तहत हिंदू राष्ट्र के वास्तुकार हिंदू महासभा और संघ परिवार ने भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया तो आज वे श्वेत आतंकवाद के अमेरिकी साम्राज्यवाद और इजराइली जायनी आतंकवाद के साथ खड़े हैं।

मनुस्मृति व्यवस्था के सत्ता वर्ण और वर्ग ने इसी तरह शक हुण पठान मुगल विदेशी हुकूमत का कभी विरोध नहीं किया और उनके खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम भी बहुजन और आदिवासी समुदायों के लोग, किसान और मेहनतकश तबके लड़ते रहे हैं।

भारत में बुद्धमयभारत के अवसान के बाद हिंदुत्व पुनरूत्थान की प्रक्रिया महिषासुर वध की निरंतरता है और नस्ली राष्ट्रवाद का प्रतीक वही दुर्गावतार है,जिसकी ताजा शिकार गौरी लंकेश है।किसी मोमबत्ती जुलूस से इस व्यवस्था का अंत नहीं होने वाला है।

भारत की मौजूदा समस्याएं राजनीतिक नहीं हैं ,आज भी असमानता,अन्याय और उत्पीड़न,बेदखली और नरसंहार की ये तमाम समस्याएं सामाजिक समस्याएं हैं और उनका राजनीतिकरण करने से वे समस्याएं सुलझने वाली नहीं हैं। सामाजिक बदलाव के बिना सामाजिक यथार्थ बदलेगा नहीं।इसिए सामाजिक यथार्थ को समझना बेहद जरुरी है।

कल हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी का फोन आया था और हमारी उनपर रवींद्र के दलित विमर्श पर लंबी बातचीत हुई।वे रवींद्र के भारतवर्षेर इतिहास की तर्ज हमें इतिहास पढ़ाते रहे हैं और हम इस पर हस्तक्षेप पर चर्चा पहले ही कर चुके हैं।रवींद्र की तरह ही वे मानते हैं कि इतिहास शासक वर्ग का नहीं होता,इतिहास जनता बनाती है और इतिहास जनता का इतिहास होता है।रवींद्र के दलित विमर्श में भारत की समूची दर्शन परंपरा की जनपदीय लोकसंस्कृति की साझा विरासत को सत्ता वर्ग के नस्ली राष्ट्रवाद का एकमात्र प्रतिरोध वे भी मानते हैं।उन्होंने इस संवाद को पुस्तक में समेटने का सुझाव भी दिया है।हमने उनसे यही निवेदन किया कि हम आलोचकों,संपादकों और प्रकाशकों की दुनिया के बाहर के जीव हैं और इसलिए हम पुस्तकें छापने के चक्कर में नहीं पड़ते जो अंततः पढ़े लिखे सवर्म विद्वतजनों तक सीमाबद्ध हो जाती हैं और आम जनता और बहुजनों के साथ संवाद की कोई स्थिति नहीं बनती। इसीलिए हम वैकल्पिक मीडिया की बात करते रहे हैं और इसी सिलसिले में सोशल मीडिया में मोबाइल क्रांति के जरिये जुड़े भारी संख्या में मौजूद बहुजनों और आदिवासियों को सीधे संबोधित करने का प्रयास करते हैं।

इस संवाद की मुख्य समस्या सोशल मीडिया में स्पेस की कमी है।जिस वजह से कल रवींद्र विमर्श-सत्रह को दो भागो में बांटकर हस्तक्षेप में लगाना पड़ा।हमने कल सारा दिन बाउल साहित्य,बाउल गान,बाउल आंदोलन और बाउल रवीद्र के साथ लालन फकीर से संबंधित सामग्री सोशल मीडिया पर शेयर किया है।

हमने रवींद्र रचना धर्मिता में बुद्धमय भारत की चर्चा की है और वैदिकी संस्कृति के असर की मुख्यधारा में रवींद्र विमर्श के बारे में चर्चा फिलहाल नहीं कर रहे हैं।बाकी लोग ऐसा ही करते रहे हैं।रवींद्र संगीत के प्रेम पर्व और पूजा पर्व विभाजन से इसमें समाहित संत परंपरा और लोक संस्कृति की साझा विरासत का अता पता गायब है।भारत के भक्ति आंदोलन के नामकरण में भी वही विभ्रम है क्योकि दैवी सत्ता के विरोध में भक्ति की प्रासंगिकता नहीं है। इसीतरह रवींद्र संगीत में प्रेम मनुष्यता का धर्म है तो पूजा दैवी सत्ता का विरोध।रवींद्र संगीत और गीतांजली के गीत की भावभूमि सीधे तौर पर बाउल परंपरा से जुड़ती है और रवींद्र को इसलिए बंगाल का सबसे महान बाउल कहा जाता है।

गीताजंलि की रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि बाउल लालन फकीर के लोकसंस्कृति में रचे बसे लोक बोली में  अभिव्यक्त दर्शन को रवींद्र ने गीतांजलि में परोसा है।रवींद्र ने बार बार लालन फकीर के बारे में लिखा भी है।

गीतांजलि और रवींद्र संगीत को समझने के लिए बाउल आंदोलन,बाउल पंरपरा और बाुल दर्शन पर विस्तार से चर्चा की जरुरत है।जो एकसाथ संभव नहीं है।जाहिर है कि यह चर्चा लंबी चलने वाली है।

बांग्लादेश में बाउल आंदोलन और संस्कृति पर व्यापक पैमाने पर काम हुआ है और सारी सामग्री बांग्ला में है.वहां जनपदों की लोकसंस्कृति पर लगातार विमर्श और संवाद जारी रहता है और बांग्लादेशी साहित्य भी जनपदों की बोलियों में लिखा जाता है।

हमारे यहां बोलियों की कोई संस्कृति नहीं बची है और मुक्त बाजार ने भारतीय कृषि,किसानों और मेहनतकश तबके, कारोबारियों के साथ साथ जनपदों का और जनपदों की लोक संस्कृति की साझा विरासत का सत्यानाश कर दिया है और इसी के नतीजतन सत्ता वर्चस्व की मुक्तबाजारी कारोपोरेट वध संस्कृति के नस्ली राष्ट्रवाद की यह नस्ली सुनामी है और जनपदों के लोकतंत्र की कृषि व्यवस्था के पांरपारिक उत्पादन संबंधों की साझा विरासत की बहाली के बिना हम मनुस्मृति राष्ट्रवाद के महिषासुर वध की निरंतरता को रोक नहीं सकते।यह बेहद कठिन कार्यभार है।

गौरतलब है कि हम रवींद्र विमर्श से संबंधित संदर्भसामग्री लगातार सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं।मेरे फेसबुक पेज Palash Biswas Updates पर सारी संदर्भ सामग्री और हस्तक्षेप के तमाम लिंक हैं,आप उन्हें अलग से देखते पढ़ते रहे तो हम सोशल मीडिया पर इस विमर्श की सीमाओं को तोड़ सकते हैं।

आज हम बाउल आंदोलन के बारे में थोडी च्रचा करना चाहते हैं।बाउल परंपरा में दैवी सत्ता का निषेध है।मनुष्य की देह ही उनकी आस्था का आधार है।रवींद्र पर बाउल देहतत्व का असर नहीं हुआ,लेकिन पुरोहित तंत्र और ब्राह्मण धर्म के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष मनुष्यता के धर्म की बाउल परंपरा के शायद वे सबसे बड़े प्रवक्ता

थे।रवींद्र के जिन गीतों के लिए नोबेल पुरस्कार मिला, वे सारे गीत बााउल मनुष्यता के धर्म के मुताबिक पुरोहित तंत्र और ब्राह्मण धर्म दोनों के खिलाफ हैं।

रवींद्र के बाद हाल में दूसरी बार गीतों के लिए जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला, वे बाब डिलान भी रवींद्र की तरह अपने को बाुल कहते रहे हैं।बाुल परंपरा से जुड़ने के लिए वे बंगाल के बाउलों के साथ बंगाल में रह चुके हैं।

बाउल जाति धर्म से ऊपर हैं।जाति उनकी कुछ भी हो सकती है और धर्म भी उनका कुछ भी हो सकता है।बाउल शब्द की उत्पत्ति चैतन्यलीलामृत में परम वैष्णवों के लिए इस्तेमाल किये गये महाबाउल शब्द में बतायी जाती है।

बाउल दर्शन पर वैष्णव और सूफी दोनों आंदोलनों का असर है और उनकी सहजिया जीवनपद्धति में धार्मिक कर्मकांड,संस्कारों का निषेध है।यह ब्राह्मण धर्म के खिलाफ एक और जनविद्रोह है।

वैष्णव आंदोलन हिंदुत्व में समाहित हो गया लेकिन बाउल परंपरा का जाति धर्म अस्मिताओं से कुछ भी लेना देना नहीं है।उनके लिए मनुष्य की अंतरात्मा ही सार्वभौम है और वही अंतिम सत्ता है और इस अंतरात्मा के अलावा कोई दैवी सत्ता नहीं है।रवींद्र रचनासमग्र में भी दैवी सत्ता के स्थान पर यही अंतरात्मा का स्थान है।चूंकि आत्मा का आधार मनुष्यदेह  है इसलिए बाउलों के लिए देह पवित्रतम है।बाउल गान आत्मचेतना का गीत है।यह अंतरात्मा का आवाहन है।रवींद्र संगीत का पूजा पर्व भी अंतरात्मा का आवाहन है।

सूफी मत का जैसे बौद्ध सहजिया पंथ में समायोजन हुआ तो बाउल आंदोलन बंगाल में बौद्ध,सूफी और वैष्णव धाराओं की मनुष्यता का धर्म और प्रेम और अहिंसा का दर्शन है।इसी बिंदू पर गांधी और रवींद्र के जीवन दर्शन एकाकार हैं,जहां मनुष्यता का उत्कर्ष ही सभ्यता का प्रतिमान है।

लालन फकीर मुसलमान थे लेकिन संत कबीर की तरह उनके जन्म और धर्म को लेकर किंवदंतियां प्रचलित है।

माना जाता है कि वे जन्मजात हिंदू थे और तीर्थयात्रा के दौरान चेचक निकलने पर मरणासण्ण हो जाने की वजह से उनके साथी उन्हें छोड़कर गांव वापस आकर उनके मरने की खबर फैला दी। बीमार हालत में एक मुसलमान परिवार ने उनकी सेवा की और वे बच गये लेकिन उनका धर्म चला गया और वे मुसलमान हो गये।परिवार ने भी उन्हें विधर्मी मानकर त्याग दिया।

बाउल बनने के बाद उन्हीं लालन फकीर के अनुयायीू संत कबीर दास की तरह हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायों के हैं।

रवींद्र पर वैदिकी साहित्य,बौद्ध साहित्य,बाउल गान के अलावा भारत के संत आंदोलन का गहरा असर रहा है।गुरु नानक,सूरदास और कबीर दास का उनपर गहरा असर रहा है,इस पर हम अलग से चर्चा करेंगे।

बंगाल के बाउलों का बंकिम के आनंदमठ के तथाकथित सन्यासी विद्रोह यानी आदिवासी किसान विद्रोह में साधुओं और फकीरों के साथ बड़ी भूमिका रही है तो बांग्लादेश की लड़ाई में भी वे शामिल रहे हैं।

संस्कृत काव्यधारा के अंतिम महाकवि जयदेव आदिबाउल माने जाते हैं।कवि जयदेव बंगाल में सेनवंश के अंतिम शासक राजा लक्ष्मणसेन के सभाकवि थे।उनके लिखे गीतगोविन्द में श्रीकृष्णकी गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है।

संस्कृत काव्य धारा के विपरीत उन्होंने कृष्ण और राधा को हाड़ मांस के मनुष्य के रुप में चित्रित किया और छंद और अलंकार में संस्कृत का व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र को तोड़ते हुए देशज छंद और अलंकार का प्रयोग किया। डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने 'संस्कृत साहित्य के इतिहास'में इसे 'अप्रतिम काव्य'माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्सद्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) 'ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज' (एसियाटिक रिसर्चेज, खंड-3) पुस्तक में गीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् 'गोपनाट्य'के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे 'लिरिकल ड्रामा'या 'गीतिनाट्य'कहा है। वान श्रोडर ने 'यात्रा प्रबन्ध'तथा पिशाल लेवी ने 'मेलो ड्रामा', इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को 'धर्मनाटक'कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटेमहोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम्और मेघदूतम्के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।


कवि जयदेव के राधा कृष्ण प्रेम में बंगाल के दो बड़े आंदोलनों की उत्पत्ति हुई और ये दोनों आंदोलन ब्राह्मण धर्म और पुरोहित तंत्र के खिलाफ हैं।बाउल आंदोलन और वैष्णव आंदोलन की मूल प्रेरणा कवि जयदेव और उनका गीत गोविंदम है जहां प्रेम ही मनुष्यता का दर्शन है।

कवि जयदेव की स्मृति में ही बीरभूम के केंदुुली में सदियों से दुनियाभर के बाउल जयदेव मेले में जुटते हैं।केंदुलि शांतिनिकेतन से 42 किमी दूर है।

বাউল মতবাদকে একটি মানস পুরাণ বলা হয়। দেহের আধারে যে চেতনা বিরাজ করছে, সে-ই আত্মা । এই আত্মার খোঁজ বা সন্ধানই হচ্ছে বাউল মতবাদের প্রধান লক্ষ । ধর্মীয় দৃষ্টিকোণ থেকে দেখলে একে পৃথক দর্শন বুঝায়। কিন্তু আসলে এ কোন পৃথক মতবাদ নয়।

শান্তিনিকেতনের বাটিক প্রিন্টিং-এ বাউলের চিত্র।

এটি ধর্মীয় দর্শন থেকে সৃষ্ট আত্ম চিন্তার রুপভেদ। যা মুলতঃ আত্মার অধ্যাত্ম চেতনার বহিপ্রকাশ। বাংলাদেশের লোক সাহিত্য ও লোকঐতিহ্য, লালন শাহ বিবেচনা-পূর্নবিবেচনা প্রভৃতি গ্রন্থে গবেষকগণ লিখেছেন; আরবের রাজ শক্তির প্রতিঘাতে জন্ম হয়েছে সুফি মতবাদের । এটিকে লালন-পালন করেছে পারস্য। বিকাশ ইরান ও মধ্য এশিয়ায়। পরবর্তিতে যতই পূর্ব দিকে অগ্রসর হতে থাকে এর মধ্যে ততই পূর্বদেশীয় ভাবধারার সম্মিলন ঘটতে থাকে। দহ্মিণ এশিয়ায় এসে অধ্যাত্ম সঙ্গীত চর্যাগীতিতেরুপান্তর হয়। অতপর তুর্কী বিজয়ের মধ্যদিয়ে মধ্যপ্রাচ্যের সূফী-দরবেশ গণের আগমনে বৌদ্ধ সিদ্ধাচর্যাগণের আদর্শ মানবতাবাদ, সুফীবাদে সম্মিলিত হয়ে ভাবসঙ্গীতে রুপান্তর হয় । ফলে সুফী দর্শন অতি সহজে বৌদ্ধের কাছের প্রশংসনীয় হয় । কাজেই একদিকে সূফীবাদ এবং অন্যদিকে বৌদ্ধ সাধনা এই সকলের সমম্বয়ে গড়ে উঠে মরমী ভাব-সাধনা [১][২][৩]। গবেষক সৈয়দ মোস্তফা কামাল, ডঃ আশরাফ সিদ্দিকী সহ অনেকে এ অভিমত পোষন করেন; মধ্যযুগের প্রারম্ভে বাংলার শ্যামল জমিনে অদৈত্ববাদের মধ্যদিয়ে ভারতে চৈতন্যবাদ বিকশিত হয় পঞ্চদশ শতাব্দিতে। তখন ভাগবতধর্ম, আদি রামধর্ম ও কৃষ্ণধর্মের মিলনে বৈঞ্চবধর্ম আত্মপ্রকাশ করে। এতে করে বৈঞ্চবী সাধন পদ্ধতির মধ্যে অনিবার্য রূপে শামিল হয় প্রাচীন মরমীবাদ । ফলে পূর্বরাগ, অনুরাগ, বংশী, বিরহ, দেহকাঁচা ও সোয়া-ময়না সম্মেলিত ইত্যাদি মরমী সাহিত্যের শব্দ, নামে উপনামে বৈঞ্চববাদে বা বৈঞ্চব সাহিত্যে সরাসরি ধার করা হয় । এ ভাবে মরমীবাদের হূদয়স্পর্সী শব্দমালায় রচিত সঙ্গীত বাউল সঙ্গীত নামে আত্মপ্রকাশ করে এক নতুন সম্প্রদায়ের জন্ম দেয়, যা আজকাল বাউলনামে অভিহিত [১]। 'বাহুল' বা 'ব্যাকুল' থেকে 'বাউল' নিষ্পন্ন হতে পারে বলে অনেকেই মনে করেন। আবার আরবি 'আউল' বা হিন্দি 'বাউর' থেকেও শব্দটি আসতে পারে। যেভাবে যে অর্থই আভিধানিক হোক না কেন, মূলত এর ভাব অর্থ হলো, স্রষ্টা প্রেমিক, স্বাধীন চিত্ত, জাতি সম্প্রদায়ের চিহ্নহীন এক দল সত্য সাধক, ভবঘুরে[২]। বাউলদের মনের ভাব প্রকাশের মাধ্যম হচ্ছে বাউল সঙ্গীত নামে পরিচিত আধ্যাত্মচেতনার গান । এ বিষয়ে দেওয়ান মোহাম্মদ আজরফ বলেছেন : ইদানিং বাউল শব্দের উৎপত্তি নিয়ে নানা বাক-বিতন্ডার সৃষ্টি হয়েছে। কেউ বা একে সংস্কৃত 'বতুল' (উন্মাদ, পাগল, ক্ষেপা, ছন্নছাড়া, উদাসী) শব্দের অপভ্রংশ বলে মনে করেন । তবে যা থেকেই বাউল শব্দের উৎপত্তি হোক না কেন, বর্তমানে বাউল মতবাদ একটি বিশেষ মতবাদে পরিণত হয়েছে। [১]

বাউল মতবাদ

https://bn.wikipedia.org/s/21xy


The Kenduli Mela provides a unique opportunity to catch a glimpse of the wandering minstrels called Bauls, who believe in the simplicity of love of life and who propagate universal love that transcends religion. Thousands of people from all over the country and overseas flock to this three-day musical event which celebrates soulful music and is an opportunity to meet the Bauls in their saffron attire carrying a musical instrument called the Ektara.

प्रेम के इसी दर्शन पर आधारित है चैत्नय महाप्रभू का वैष्णव आंदोलन जिसके तहत हरिमाम के जाप के तहत अछूतों को व्यापक पैमाने पर हिंदू मान लिया गया।बंगाल में अस्पृश्यता बाकी बारत की तुलना में उतना कठोर न होने का बड़ा कारण अनार्य द्रविड़ सभ्यता के साथ साथ बौद्धमय विरासत है तो दूसरा बड़ा कारण चैतन्य महाप्रभू का वैष्णव आंदोलन है,जो वैदिकी कर्म कांड के विपरीत पुरोहित तंत्र के विपरीत विशुद्ध मनुष्यता के धर्म पर आधारित प्रेम का दर्शन है और यही प्रेम का दर्शन बाउल पंरपरा है।

गौरतलब है कि लालन फकीर पर भी हमले होते रहे और बाउलों के साथ साथ वैष्णवों के अखाड़ों पर भी कट्टरपंथियों के हमले होते रहे।बाउल धर्मनिरपेक्षता हमेशा निशाने पर रही है तो पुरी यात्रा के दौरान चैतन्य महाप्रभु की रहस्यमय मृत्यु हो गयी और उनकी देह का पता ही नहीं चला जैसे संत तुकाराम सशरीर वैकुंठ चले गये,उसी तरह कहा गया कि चैतन्य महाप्रभु भी भगवान जगन्नाथ के शरीर में समाहित हो गये।

दरअसल पुरोहित तंत्र ने ही संत तुकाराम और चैतन्य महाप्रभु की हत्या कर दी और असहिष्णुता का वही आतंकवाद जारी है।

The word Baul comes from the Sanskrit "Batul," which means mad, or "afflicted by the wind disease." The Bauls are India's wandering minstrels of West Bengal, whose song and dance reflect the joy, love and longing for mystical union with the Divine. Bauls are free thinkers who openly declare themselves to be mad for the God who dwells within us all.

The Bauls of Bengal have made no effort to record their practices, lives or beliefs, for they are reluctant to leave a trace behind. Therefore little concrete documentation is available when exploring the group's origin. Scholars have instead turned to the songs of the Bauls to piece together their potential history. Examining the style and language of the Bauls' music, links the sect to distinct groups that share their unique style of worship.

The first traces of practices similar to those of the Bauls appear in the caryāpadas, the oldest texts recorded in Bengali tongue. These ancient documents – dating back nearly one thousand years – contain poems once sung by a religious sect of Bengal known as the Siddhācāryas. The caryāpadas reference the appropriate behaviors and restraints for an individual wishing to be find the "ultimate release." The Bauls share this early sect's philosophy of achieving personal freedom through practical means and worship, also known as Tantra. The poems of the Siddhācāryas also have a similar metaphoric nature to those of the Bauls vague and often enigmatic songs.

The Siddhācāryas are thought to have been diverse in background, as the caryāpadas contain ideas and phrases of both Buddhist and Saivite Hindu origins. Their religious diversity and shared goal of personal liberation strongly link this Bengali group to the Bauls that had yet to exist as we know them today.

However as India has progressed drastically over the course of history, the religious make-up of Bengal has shifted as well. Islam and Vaisnavism dominate where Buddhism and Saivite Hinduism once did. The dramatic shift in religious climate opened the door for individuals to combine the influence of the various forms of spirituality. A few of the Bauls recorded songs mention Nerā, a caste derived from the former Buddhist monks and nuns who, with the slow decline of Buddhism, abandoned celibacy for a tantric style of worship similar to the Bauls. The references to this caste in Baul music again supplies scholars a thread with which to connect this mysterious group to the past.

Before, the Bauls roamed Bengal on foot; nomads spreading their music and dance. In each village there was a special house set aside for them to stay in, and they would stay as long as they pleased. When they would arrive, the villagers would supply them with food and the necessities of life for as long as their visit lasted. Subhendu "Bapi" Das says:

"That was the responsibility of the village people. And the bauls' responsibility is to make them happy, give them happy, give them a clear message of life, so they can go on with their happy soul."

He has also said that unfortunately modern India can no longer support their nomadic way of living, so therefore they have had to adapt. "Now it is totally different. Before, people have respect for many things, and now those things are gone because the time is changing. Now bauls have their own house and they stay in one place, not moving around. Baba (Purna Das Baul) has a house in Calcutta, and he is very famous for this type of music and this tradition and philosophy. People respect him and they are making lots of concerts to him, and that's how the life is going on," says Bapi Das.

https://bauls.wordpress.com/history/



रवींद्र का दलित विमर्श-19 लालन फकीर का मनेर मानुष गीतांजलि का प्राणेर मानुष। ज्यों-की -त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।। संत कबीर को समझे तो रवींद्र और लालन फकीर को भी समझ लेंगे। पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-19

लालन फकीर  का मनेर मानुष गीतांजलि का प्राणेर मानुष।

ज्यों-की -त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।।

संत कबीर को समझे तो रवींद्र और लालन फकीर को भी समझ लेंगे।

पलाश विश्वास

बौद्धमय बंगाल का अवसान ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ।आठवीं सदी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक बंगाल में बौद्ध पाल राजाओं का शासन रहा जिसका ग्यारहवीं सदी में सेन वंश के अभ्युत्थान के साथ अंत हुआ।सेन वंश के राजा बल्लाल सेन के शासनकाल में बंगाल में ब्राह्मण धर्म का प्रचलन हुआ लेकिन सेन वंश के शासन का अंत तेरहवीं सदी में हो गया।बंगाल में पठान सुल्तानों,हिंदू राजाओं और बारह भुइयां के साथ शूद्र और आदिवासी राजाओं का राजकाज अलग अलग क्षेत्र में चला।

बंगाल प्राचीन काल में आर्यों के लिए निषिद्ध रहा है और इसे असुरों का देश माना गया है।

From Wikipedia, the free encyclopedia

The history of Bengal includes modern-day Bangladesh and West Bengal in the eastern part of the Indian subcontinent, at the apex of the Bay of Bengal and dominated by the fertileGanges delta. The advancement of civilization in Bengaldates back four millennia.[1] The region was known to the ancient Greeks and Romans as Gangaridai. The Ganges and the Brahmaputrarivers act as a geographic marker of the region, but also connect it to the broader Indian subcontinent.[2] Bengal, at times, has played an important role in the history of the Indian subcontinet.

Etymology


The exact origin of the word Bangla is unknown, though it is believed to be derived from the Dravidian-speaking tribe Bang/Banga that settled in the area around the year 1000 BCE.[12][13] Other accounts speculate that the name is derived from Venga (Bôngo), which came from the Austric word "Bonga" meaning the Sun-god. According to the Mahabharata, the Puranas and the Harivamsha, Vanga was one of the adopted sons of King Vali who founded the Vanga Kingdom. It was either under Magadh or under Kalinga Rules except few years under Pals.The Muslim accounts refer that "Bong", a son of Hind (son of Hām who was a son of Prophet Noah/Nooh) colonised the area for the first time.[14] The earliest reference to "Vangala" (Bôngal) has been traced in the Nesari plates (805 CE) of RashtrakutaGovinda III which speak of Dharmapala as the king of Vangala. The records of Rajendra Chola I of the Chola dynasty, who invaded Bengal in the 11th century, speak of Govindachandra as the ruler of Vangaladesa.[15][16][17] Shams-ud-din Ilyas Shah took the title "Shah-e-Bangla" and united the whole region under one government.

Some references indicate that the primitive people in Bengal were different in ethnicity and culture from the Vedic people beyond the boundary of Aryavarta and who were classed as "Dasyus". The Bhagavata Purana classes them as sinful people while Dharmasutra of Baudhayana prescribes expiatory rites after a journey among the Pundras and Vangas. Mahabharataspeaks of Paundraka Vasudeva who was lord of the Pundras and who allied himself with Jarasandha against Krishna. The Mahabharata also speaks of Bengali kings called Chitrasena and Sanudrasena who were defeated by Bhima and Kalidasamentions Raghu defeating a coalition of Vanga kings.

अनार्य असुरों के बंगाल में सेन वंश के राजकाज के दौरान  पहले शैब और शाक्तधर्म का प्रचलन रहा है,जो वैदिकी सभ्यता के दायरे से बाहर अनार्य संस्कृति हैं।सेन वंश के अंतिम राजा लक्ष्मण सेन के सभाकवि जयदेव के गीतगोविंदम् से बंगाल में बाउल और वैष्णव धर्म का प्रचलन हुआ जो ब्राह्मण धर्म और पुरोहित तंत्र के साथ साथ दैवी सत्ता के खिलाफ हैं।

तेरहवीं सदी से इस्लामी राजकाज और सेन वंश के शासन के दौरान बड़े पैमाने पर बौद्धों और अनार्यों असुरों के हिंदुत्वकरण और हिंदुत्वकरण के तहत जाति व्यवस्था को अस्वीकार करने के कारण इस्लाम में धर्मांतरण की वजह से बंगाल में साझा संस्कृति का जन्म हो गया।यह साझा संस्कृति वैष्णव बाउल,बौद्ध और इस्लाम के सूफी पंथ के मुताबिक मनुष्यता का धर्म है,जो सामंती और दैवी सत्ताओं को सिरे से नामंजूर करता है।

रवींद्र साहित्य और दर्शन में इसी साझा बाउल फकीर संस्कृति  का सबसे ज्यादा असर है,जिसके तहत आध्यात्म का अर्थ मनुष्य देह में बसी अंतरात्मा की खोज के तहत मनुष्यता के उत्कर्ष का अनुसंधान है.जो धर्म सत्ता और राजसत्ता दोनों के विरुद्ध है।प्राचीन काल से बंगाल में अनार्यों,असुरों के जनपद रहे हैं।

फिर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी आदिवासी और शूद्र शासक निरंकुश सत्ता की राष्ट्रव्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे हैं।इसलिए राजसत्ता का विरोध इस आध्यात्म के अंतर्गत है।

इस्लामी शासन के दौरान बाकी भारत में भी राजसत्ता और दैवी सत्ता दोनों के विरुद्ध हिंदू मुस्लिम एकता की साझा विरासत के तहत संतों और सूफी फकीरों का आंदोलन जारी रहा है।बंगाल में इन सूफी फकीरों का असर बहुजन संस्कृति पर सबसे ज्यादा रहा है,जिसमें बौद्ध,वैष्णव,बाउल और सूफी धर्म समाहित है।

इस परंपरा के सबसे बड़े बाउल फकीर लालन फकीर रहे हैं।

लालन फकीर लालन साँई के नाम से मशहूर हैं।इसे लेकर विवाद है कि रवींद्रनाथ की उनसे कभी मुलाकात हुई या नहीं हुई।पूर्वी बंगाल में टैगोर परिवार की जमींदारी सिलाईदह में थी,जहां युवा रवींद्रनाथ जमींदारी के कामकाज के सिलिसिले में जाया करते थे।रवींद्र की युवावस्था में ही लालन फकीर का निधन हो गया और तब उनकी आयु 116 साल के करीब बतायी जाती है।इसलिए संभावना यही है कि सिलाईदह से नजदीक लालन का अखाड़ा होने के बावजूद इन दोनों की शायद मुलाकात नहीं हुई होगी।लेकिन लालन के अनुयायियों के संपर्क में थे रवींद्र।लालन ने खुद अपने गीतों को लिपिबद्ध नहीं किया,उनके अनुयायियों ने उनके गीतों को संकलित किया और उन्हीं के मार्फत वे गीत रवींद्र तक पहुंचे।जिनके बारे में रवींद्र ने बार बार चर्चा की है।

लालन फकीर मानवतावादी थे और जाति धर्म नहीं मानते थे।मनुष्यता का धर्म उनका धर्म था और वे अपने अतःस्थल में ही ईश्वर का अनुसंधान करते थे और यही अनुसंधान  उऩकी साधना थी।उनका गीत हैः

'ডানে বেদ, বামে কোরান,

মাঝখানে ফকিরের বয়ান,

যার হবে সেই দিব্যজ্ঞান

সেহি দেখতে পায় ।'

(दाहिने वेद,बाँए कुरान,

बीच में फकीर का बयान

जिसको होगा वह दिव्यज्ञान

वही देख सके हैं)

यह भारत की सूफी और संत परंपरा की साझा विरासत है।

रवींद्र रचना में इसी दिव्यज्ञान की झलक हैः

'সীমার মাঝে, অসীম, তুমি

বাঁজাও আপন সুর।

আমার মধ্যে তোমার প্রকাশ

তাই এত মধুর।

কত বর্ণে কত গন্ধে

কত গানে কত ছন্দে,

অরূপ, তোমার রূপের লীলায়

জাগে হৃদয়পুর।'

(सीमा के मध्य,असीम,तुम्हीं

बजाओ अपना सुर

मेरे बीतर तुम्हारी अभिव्यक्ति

इसीलिए इतना मधुर।

कितने रंगों में,कितने गंध में

कितने गीतों में कितने छंद में

अरुप तुम्हारे रुप की लीला में

जागे ह्रदयपुर)

ब्रह्म समाज के निराकार ईश्वर हिंदू मुस्लिम संत सूफी परंपरा में फिर वही निराकार हैं,जिसे अपने अंतःस्थल में देखते हैं लालन फकीर और रवींद्रनाथ दोनों।लालन फकीर की कोई धार्मिक पहचान उसीतरह नहीं है,जैसे संत कबीर की नहीं थी।संत कबीर का ईश्वर भी निराकार था।

कबीर का धर्म भी मनुष्यता का धर्म है।संत रविदास के लिए कठौती में ही गंगा है।सूफी संतों की वाणी में समानता और न्याय की गूंज अनुगूंज है और वे मनुष्य में ही ईश्वर को देखते हैं।

रवींद्रनाथ सदाचार को भारत की सभ्यता मानते थे और सभ्यता केइतिहास में उन्होंने पश्चिमी सभ्यता के प्रतिमानों को खारिज करते हुए सदाचार की भारतीय संस्कृति को ही भारत की सभ्यता बताते हैं।भारत में संत और सूफी आंदोलन में सदाचार ही मनुष्यता की उत्कृष्टता की कसौटी है।लालन फकीर और संत कबीर दास सदाचार का आदर्श बताते हैं तो यही सदाचार फिर गांधी का दर्शन है।

जाति धर्म के भेदभाव के खिलाफ लालन फकीर और संत कबीर दोनों तीखे प्रहार करते हैं तो अस्पृश्यता के नस्ली रंगभेद की विषमता को भारत की मुख्य समस्या मानने वाले रवींद्र नाथ जल को जीवन का आधार मानकर अस्पृश्यता के खिलाफ जलदान के अधिकार को लेकर चंडालिका लिखते हैं।

बंगाल के बाउल धर्म की गूंज कबीर दास की रचना में हैः

झीनी -झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै ताना,काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया।।

इंगला पिंगला ताना भरनी,

सुषमन-तार से बीनी चदरिया।।

आठकंवल दल चरखा डोलै,

पांच तत्त गुन तीनि चदरिया।।

साँई को सियत मास दस लागे,

ठोंक ठोंक के बीनी चदरिया।।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,

ओढ़ि के मैली कीन्हीं चदरिया।।

दास कबीर जतन सौं ओढ़ी,

ज्यों-की -त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।।

 रवींद्र नाथ पर संत कबीर का भी गहरा असर है,जिसका हम अलग से चर्चा करेंगे।सफी बाउल संतों की तरह कबीर पर बी बौद्ध दर्शन का असर है,इसकी भी आगे चर्चा करेंगे।

रवींद्र लालन प्रसंग में कबीर दास के संदर्भ बाउल संत परंपरा की साझा विरासत को समझने में हिंदी पाठकों के लिए मददगार साबित हो सकती है।

सूफी परंपरा के बारे में कमोबेश जानकारी और समझ होने के बावजूद हिंदी के आम पाठकों को बंगाल के बाउल फकीरों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है।

लालन फकीर के देहत्तव,उनकी धर्मनिरपेक्षता,समता और न्याय की उनकी पक्षधरता और समंतवाद के किलाप उनके प्रतिरोध,जाति धर्म के आधार पर भेदभाव और पुरोहित मुल्ला तंत्र पर  कड़े प्रहार,मनुष्यता के धर्म कबीर और नानक के साहित्य और बाकी भारत की साझा विरासत के मुताबिक हैं।

कबीर दास की रचनाओं से आम पाठक काफी हद तक परिचित हैं,इसलिए हम रवींद्र लालन प्रसंग में कबीर का उल्लेख कर रहे हैं।

आप कबीर को समझते हैं तो लालन फकीर को समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।लालन फकीर के दर्शन को समाने लाने में रवींद्रनाथ ने ही पहल की थी।लालन फकीर का एकमात्र चित्र जो उपलब्ध है,वह ज्योतिंद्रनाथ टैगोर ने बनायी  है,जिसके आधार पर रवींद्र और लालन की मुलाकात की किंवदंती प्रचलित हो गयी।लालन फकीर के बीस गीतों का प्रकाशन रवींद्रनाथ ने 1905 में प्रवासी पत्रिका में कराया।इसे साहित्य की अमूल्य संपदा बतौर प्रकाशित किया गया।

বিশ্বকবি রবীন্দ্রনাথের নিজের ভাষায় - 'আমার লেখা যারা পড়েছেন, তাঁরা জানেন বাউল পদাবলীর প্রতি আমার অনুরাগ আমি অনেক লেখায় প্রকাশ করেছি। শিলাইদহে যখন ছিলাম, বাউল দলের সঙ্গে আমার সর্বদাই দেখা সাক্ষাৎ ও আলাপ- আলোচনা হতো। আমার অনেক গানে আমি বহু সুর গ্রহন করেছি এবং অনেক গানে অন্য রাগরাগিনীর সাথে আমার জ্ঞাত বা অজ্ঞাতসারে বাউল সুরের মিল ঘটেছে। এর থেকে বোঝা যাবে, বাউলের সুর ও বানী কোন এক সময় আমার মনের মধ্যে সহজ হয়ে মিশে গেছে। আমার মনে আছে, তখন আমার নবীন বয়স- শিলাইদহ (কুস্টিয়া) অঞ্চলের এক বাউল একতারা হাতে বাজিয়ে গেয়েছিল -


'কোথায় পাবো তাঁরে - আমার মনের মানুষ যেঁরে।

হারায়ে সেই মানুষে- তাঁর উদ্দেশে

দেশ বিদেশে বেড়াই ঘুরে ।'


(এই গানটি গেয়েছিল-ফকির লালন শাহের ভাবশিষ্য গগন হরকরা। যার আসল নাম বাউল গগনচন্দ্র দাস।)

रवींद्रनाथ ने लिखा हैः मेरा लिखा जिन्होंने पढ़ा है,वे जानते हैं कि बाउस पदावली से मुझे किस हद तक प्रेम है,जनिके बारे में मैंने अपने अनेक लेखों में लिखा है।मैं जब सिलाईदह में था,बाउलों के दल के साथ मेरी हमेशा मुलाकात बातचीत हुआ करती थी।मैंने अपने अनेक गीतों में उनके अनेक सुरों को अपनाया है और दूसरे अनेक गीतों में दूसरी राग रागिनियों के सात मेरे जाने अनजाने में बाउल सुर मिल गया है।इसीसे समझा जा सकता है कि बाउल सुर और वाणी मेरे मन में कितनी सहजता के साथ एकाकार हैं।मुझे याद है कि जब मेरी उम्र कम थी,सिलाईदह (कुष्टिया) इलाके में एक बाउल ने हाथों में इकतारा बजाते हुए गाया था-

कहां मिलेगा वह-मेरे अंतःस्थल का मानुष जो

उस मानुष को खोकर-उसीकी खोज में

देश विदेश भटकूं मैं।

लालन फकीर के इस गीत को गा रहे थे उन्ही के अनुयायी गगन हरकरा।

लालन फकीर  का मनेर मानुष गीतांजलि का प्राणेर मानुष है।

हम लालन फकीर और खास तौर पर गीतांजलि पर चर्चा जारी रखेंगे।फिलहाल रवींद्र संगीत पर आधिकारिक गीतवितान डाट काम से हम रवींद्र के उन गीतों की सूची दे रहे हैं,जिनमें बाउल प्रभाव है।गौरतलब है कि रवींद्र के सारे गीत गीतवितान शीर्षक से संकलित हैं।  

Tagore songs composed in Baul style

List of related Tagore songs

The following Tagore songs which are correspond to Baul style. These songs contain ideas with double meaning and the style of the tune pertaining to a homeless minstrel. They are fit for singing with modest or even without accompaniment. Rabindranath had combined this style with other formats of Hindustani classical music in order to suit his compositions.

Baul-Sur

  • Agune Holo Agunmoy

  • Akash Hote Khoslo Tara

  • Akashe Dui Hate Prem Bilay

  • Amader Bhoy Kahare

  • Amader Khepiye Beray

  • Amader Pakbe Na Chul

  • Amar Mon Bole Chai Chai

  • Amar Mon Jakhon Jagli Na Re

  • Amar Naiba Holo Pare

  • Amar Pothe Pothe Pathor

  • Amar Praner Manus Ache

  • Amar Sonar Bangla Ami

  • Amare Paray Paray

  • Ami Marer Sagor Pari

  • Amra Bosbo Tomar Sone

  • Amra Chas Kori Anande

  • Bachan Bachi Maren Mori

  • Bajre Tomar Baje Banshi

  • Bare Bare Peyechi

  • Bhenge Mor Ghorer Chabi

  • Bhule Jai Theke Theke

  • Bolo Bolo Bondhu Bolo

  • Byartho Praner Aborjona

  • Chi Chi Chokher

  • Choli Go Choli

  • Dao Hey Amar

  • Dukkha Jodi Na

  • E Din Aji Kon

  • Ebar Dukkho Amar

  • Ei Ekla Moder

  • Ei Shraboner Buker

  • Ei To Bhalo Legechilo

  • Gan Amar Jay Bhese

  • Ganer Bhelay Bela

  • Ghore Mukh Molin

  • Gram Chara Oi Rangamatir

  • Hay Hemantalaksmi

  • Hridoy Amar Oi Bujhi

  • Ja Chilo Kalo

  • Jakhon Porbe Na

  • Jakhon Tomay Aghat

  • Jani Jani Tomar

  • Jani Nai Go

  • Jatri Ami Ore

  • Je Ami Oi Bhese

  • Je Tomay Chare

  • Je Tore Pagol Bole

  • Jethay Tomar Lut

  • Jhnakra Chuler Meyer Kotha

  • Jodi Tor Bhabna

  • Jodi Tor Dak Shune

  • Khyapa Tui Achis

  • Kon Alote Praner Pradip

  • Kothin Loha Kothin

  • Ma Ki Tui Porer

  • Mati Toder Dak Diyeche

  • Matir Prodip Khani

  • Megher Kole Kole Jay

  • Moder Kichu Nai Re

  • Moner Modhye Nirobodhi

  • Na Re Na Re Hobe

  • Nirabe Thakis Sokhi

  • O Amar Mon Jakhan

  • O Bhai Kanai

  • O Dekha Diye Je Chole Gelo

  • O Jaler Rani

  • O Nithur Aro Ki Ban

  • Oder Kathay Dhnada Lage

  • Ogo Tomra Sabai Bhalo

  • Oi Asontaler Matir Pore

  • Or Maner E Bandh

  • Ore Agun Amar Bhai

  • Ore Jhor Neme Ay

  • Ore Tora Nei Ba Katha Bolli

  • Pagla Hawar Badoldine

  • Paye Pori Shono Bhai

  • Phagun Haway Haway

  • Phaguner Shuru Hotei

  • Phire Chal Matir Tane

  • Pothik Megher Dol Jote

  • Roilo Bole Rakhle Kare

  • Sabai Jare Sab Diteche

  • Se Ki Bhabe Gopon Robe

  • Sedine Apad Amar Jabe

  • Sharote Aj Kon Atithi

  • Sokhi Tora Dekhe Ja Ebar

  • Tar Anto Nai Go

  • Tomar Surer Dhara Jhare

  • Tor Apon Jone Charbe

  • Tor Shikol Amay Bikol

  • Tora Nei Ba Kotha Bolli

  • Tumi Bahir Theke Dile Bisam

  • Tumi Ebar Amay Laho

  • Tumi Je Surer Agun

  • Tumi Khushi Thako

Bahar-Baul

  • Basante Ki Shudhu

  • Ore Ay Re Tabe Mat

Behag-Baul

  • Akash Jure Shuninu Oi

  • Amay Dao Go Bole

  • Basanta Tor Shesh

  • Elem Natun Deshe

  • Jini Sakol Kajer

  • Mon Re Ore Mon

  • Or Bhab Dekhe Je Pay

  • Tora Je Ja Bolis Bhai

Behag-Khambaj-Baul

  • O Amar Chander Alo

  • Shiter Hawar Laglo Nachon

  • Dujone Dekha Holo

Bhairavi-Baul

  • Amay Bhulte Dite Naiko

  • Apnake Ei Jana Amar Phurabe

  • Ay Re Mora Phasal Kati

  • Biswajora Phad Petecho

  • Biswasathe Joge Jethay

  • Eto Alo Jaliyecho

  • Hey Nobina

  • Keno Re Ei Duwartuku

  • Lakshmi Jakhon Asbe

  • Oder Sathe Melao Jara

  • Pran Chay Chokshu Na Chay

  • Tomar Mohon Rupe Ke

  • Tui Phele Esechis

Bibhas-Baul

  • Aj Dhaner Khete Roudro

  • Aji Bangladesher Hridoy

  • Aji Pronomi Tomare

  • Aji Sharototapone Probhat

  • Ami Bhoy Korbo Na Bhoy

  • Ami Kan Pete Roi

  • E Bela Dak Poreche

  • Ei Je Tomar Prem

  • Ei Kothata Dhore

  • Ei To Tomar Prem Ogo

  • Ek Hate Or Kripan

  • Megher Kole Rod Heseche

  • Nayan Mele Dekhi Amay

  • Nishidin Bharasa Rakhis

  • Ogo Bhagyodebi Pitamohi

  • Ore Grihobasi Khol Dar

  • Pous Toder Dak Diyeche

  • Shrabon Tumi Batase Kar

Chhayanat-Baul

  • Amar Nayan Bhulano Ele

Desh-Baul

  • Amay Bandhbe Jodi Kajer

  • Aro Aro Probhu

  • Oi Je Jhorero Megher Kole

GourSarang-Baul

  • Badol Baul Bajay Re

Hameer-Baul

  • Basante Phul Gathlo

Iman-Baul

  • Akash Hote Akash Pothe

  • Ek Din Chine

  • Nityo Tomar Je Phul

  • Noy Noy E Modhur Khela

  • Sakal Snaje Dhay Je Ora

Iman-Kalingara-Baul

  • Poth Ekhono Sesh Holo Na

Jhijhit-Baul

  • Bajramanik Diye Gnatha

  • Sab Dibi Ke Sab Dibi Pay

Jogia-Baul

  • Ore Jete Habe Ar Deri

Kalingara-Baul

  • Amare Dak Dilo Ke

  • Ami Tarei Khuje Berai

  • Diner Pore Din

  • Kanna Hasir Dol

  • Sahaj Habi Sahaj Habi

Khambaj-Baul

  • Amar Kontho Hote

  • Amar Shesh Paranir Kori

  • Ami Phirbo Na Re

  • Bhalo Manush Noi Re

  • Chokh Je Oder

  • Ganer Jhornatolai

  • Kon Khela Je Khelbo

  • Moder Jemon Khela Temni

  • Nayan Chere Gele Chole

  • O To Ar Phirbe Na

  • Ore Pothik Ore Premik

  • Phul Tulite Bhul Korechi

  • Tomari Nam Bolbo Nana Chole

  • Tumi Hothath Haway

Mishra Behag-Baul

  • Jibon Jakhon Chilo

Mishra Jhijhit-Baul

  • Ore Shikol Tomay Kole

Pancham-Baul

  • Apon Hote Bahir Hoye

Pilu-Baul

  • Ami Jabo Na Go Omni

  • Ami Tarei Jani

  • E Poth Geche Konkhane

  • Nahoy Tomar Ja Hoyeche

  • O Amar Desher Mati

  • Rangiye Diye Jao Jao Jao

  • Sab Kaje Hat Lagai

  • Se Je Moner Manush Keno

Pilu-Bhimpalasi-Baul

  • Apni Amar Konkhane

Pilu-Khambaj-Baul

  • Kon Bhiruke Bhoy

Tilak-Kamod-Baul

  • Amar Kontho Tare Dake

http://www.geetabitan.com/raag/light-classical-and-regional-forms/baul.html


रवींद्र का दलित विमर्श-20 क्या यह देश हत्यारों का है? हम किस देश के वासी हैं? भविष्य के प्रति जबावदेही के बदले घूसखोरी? गौरी लंकेश की हत्या के बाद 25 कन्नड़, द्रविड़ साहित्यकार निशाने पर! मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है। भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्

Next: रवींद्र का दलित विमर्श-21 बौद्ध,वैष्णव,बाउल फकीर सूफी आंदोलन की जमीन ही रवींद्र की रचनाधर्मिता और यही लालन फकीर का उन पर सबसे गहरा असर। গীতাঞ্জলির গীতধারায় লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা। कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्र को स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनाया और क्रूर जमींदार सामंत के पुत्र रवींद्र किसानों, मेहनतकशों, शूद्रों, अछूतों, आदिवास�
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रवींद्र का दलित विमर्श-20

क्या यह देश हत्यारों का है? हम किस देश के वासी हैं?

भविष्य के प्रति जबावदेही के बदले घूसखोरी?

गौरी लंकेश की हत्या के बाद 25 कन्नड़, द्रविड़ साहित्यकार निशाने पर!

मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है।

भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्यौरा हमारे इतिहास और साहित्य में नहीं है।अब हम फिर उसी धर्मसत्ता के शिकंजे में हैं और राजसत्ता निरंकुश है।किसान और कृषि विमर्श से बाहर हैं।

पलाश विश्वास

इंडियन एक्सप्रेस की खबर है।गौरी लंकेश की हत्या के बाद कन्नड़ के 25 साहित्यकारों को जान के खतरे के मद्देनर सुरक्षा दी जा रही है।

जाहिर है कि दाभोलकर,पनासरे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला,गौरी लंकेश के बाद वध का यह सिलसिला खत्म नहीं होने जा रहा है।

हम किस देश के वासी हैं?

अब यकीनन राजकपूर की तरह यह गाना मुश्किल हैःहम उस देश के वासी हैं,जहां गंगा बहती है।

सत्तर के दशक में हमारे प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य ने लिखा थाःयह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है।

अब वही मृत्यु उपत्यका मेरा देश बन चुका है।शायद अब यह कहना होगा कि मेरा देश हत्यारों का देश है।सत्य,अहिंसा और प्रेम का भारत तीर्थ अब हत्यारों का देश बन चुका है,जिसमें भारतवासी वही है जो हत्यारा है।बाकी कोई भारतवासी हैं ही नहीं।

रवींद्रनाथ के लिखे भारतवर्षेर इतिहास की चर्चा हम कर चुके हैं।जिसमें उन्होंने साफ साफ लिखा है कि शासकों के इतिहास में लगता है कि भारतवर्ष हत्यारों को देश है और भारतवासी कहीं हैं ही नहीं।आज समय और समाज का यही यथार्थ है।

रवींद्र नाथ की लिखी कविता दो बीघा जमीन की भी हम चर्चा कर चुके हैं।जल जंगल जमीन के हकहकूक के बारे में उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है।क्योंकि वे जिस भारतवर्ष की बात करते रहे हैं,वह समाज का मतलब जनपदों का ग्रामीण समाज है।किसानों का समाज है।ईंट के ऊपर ईंट से बनी नयी सभ्यता के मुक्तबाजार में कीट बने मनुष्यों की कथा विस्तार से उन्होंने लिखी है।

साहित्य के बारे में लिखते हुए उन्होंने सम्राट अशोक के शिला लेखों की चर्चा की है।उनके निबंध साहित्य पर हम आगे चर्चा करेंगे।

रोम में कुलीन तंत्र में आदिविद्रोही स्पार्टकस के नेतृत्व में दासों के विद्रोह के बाद करीब दो हजार साल हो गये हैं,मनुष्यों को दास बनाने का वह कुलीन तंत्र खत्म हुआ नहीं है।

जर्मनी और इंग्लैंड समेत यूरोप में राजसत्ता और धर्म सत्ता के विरुद्ध किसानों के विद्रोह के बाद सही मायने में स्वतंत्रता का विमर्श शुरु हुआ।इंग्लैंड में 1381 के किसान विद्रोह से एक सिलसिला शुरु हुआ किसानों के विद्रोह और आंदोलन का,जिसके तहत राजसत्ता और धर्मसत्ता के कुलीन तंत्र में दास मनुष्यों का मुक्ति संघर्ष शुरु हुआ।इंग्लैंड और जर्मनी के किसानों ने धर्मसत्ता को सिरे से उखाड़ फेंका।

1381 के इंग्लैंड में किसानों का वह विद्रोह का एक बड़ा कारण प्लेग से हुई व्यापक पैमाने पर मृत्यु को बताया जाता है तो दूसरा कारण सौ साल के धर्मयुद्ध क्रुसेड के लिए किसानों पर लगा टैक्स है।यह पहला युद्ध विरोधी किसान विद्रोह भी है।यूरोप की रिनेशां भी इसी धर्मयुद्ध की परिणति है।

धर्मसत्ता और राजसत्ता के कुलीन तंत्र के खिलाफ फ्रांसीसी क्रांति हुई और अमेरिकी क्रांति में लोकतंत्र  की स्थापना से धर्म सत्ता और राजसत्ता के विरुद्ध मनुष्यता और स्वतंत्रता के मूल्यों की जीत का सिलसिला शुरु हुआ।

पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और औद्योगीकीकरण से पहले इतिहास बदलने में किसानों की निर्णायक भूमिका रही है।वह भूमिका अभी खत्म नहीं हुई है।

विचारधारा की राजनीति करने वालों को शायद ऐसा नहीं लगता और वे अपना अपना लालकिला बनाकर भगवा आतंक के प्रतिरोध का जश्न मनाते हुए नजर आते हैं।

यह सारा इतिहास विश्व इतिहास का हिस्सा है और कला साहित्य,माध्यमों और विधाओं का विषय भी है।

इसके विपरीत पश्चिमी देशों की नगरकेंद्रित आधुनिक सभ्यता के मुकाबले डिजिटल मुक्तबाजार के बहुसंख्यक मनुष्य अब भी किसान हैं।

शहरीकरण और औद्योगीकीकरण के नतीजतन पेशा बदलने की वजह से जो शहरी लोग अब किसान नहीं हैं,उऩकी जड़ें भी गांवों में हैं।

भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्यौरा हमारे इतिहास और साहित्य में नहीं है।अब हम फिर उसी धर्मसत्ता के शिकंजे में हैं और राजसत्ता निरंकुश है।

किसान और कृषि विमर्श से बाहर हैं।

ब्रिटिश हुकूमत की शुरुआत से भारत के किसान औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लगातार विद्रोह करते रहे हैं,लेकिन यह इतिहास भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में शामिल नहीं है।

साहित्य से भी किसान बहिस्कृत हैं।ऐसा क्यों है?

अभी वर्धा के छात्रों ने सारस पत्रिका के प्रवेशांक मे किसानों पर एक विमर्श की शुरुआत की है।इसकी निरंतरता बनाये रखने की जरुरत है।पत्रिका अभी हम तक पहुंची नहीं है।जब आयेगी तब इसपर अलग से चर्चा करेंगे।इस शुरुआत के लिए उन्हें बधाई।

रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद पर लिखते हुए भारत की समस्या को सामाजिक माना है और इस सामाजिक समस्या को उन्होंने  विषमता की समस्या कहा है। इस विषमता की वजह नस्ली वर्चस्व है और इसीलिए नस्ली वर्चस्व पर आधारित पश्चिम के फासीवादी राष्ट्रवाद का उन्होंने शुरु से लेकर अंत तक विरोध किया है।

जाति वर्ण व्यवस्था के तहत भारत के किसान शूद्र, अछूत, आदिवासी या विधर्मी हैं।यही भारत का किसान समाज है।इसी वजह से इतिहास और साहित्य, कला, माध्यमों में किसान वर्ग वर्ण नस्ली वर्चस्व की वजह से अनुपस्थित हैं।

बाकी दुनिया में और फासीवादी राष्ट्रवाद की जमीन पर भी किसानों को ऐसा बहिस्कार नहीं है।न अन्यत्र कहीं अन्नदाता किसान और मेहनतकश लोग शूद्र या अछूत हैं।विषमता का यह नस्ली वर्चस्ववाद श्वेत आतंकवाद से भी भयंकर है।

बंगाल में भुखमरी के बाद गणनाट्य आंदोलन में किसानों को पहली बार विमर्श के केंद्र में रखा गया और फिर नक्सलबाड़ी आंदोलन में भारतीय कृषि पर फोकस हुआ।सत्तर के दशक के अंत के हिंदुत्व पुनरूत्थान और मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था के तहत मनुस्मृति की धर्मसत्ता और राजसत्ता के एकाकार हो जाने से बहुसंख्य बहुजन अवर्ण आदिवासी और विधर्मी गैरनस्ली अनार्य द्रविड़ किसान,उनके गांव, जनपद, जल, जंगल जमीन वैदिकी सभ्यता की अश्वमेधी नरसंहार संस्कृति के निशाने पर हैं और सत्ता वर्ग को उनसे कोई सहानुभूति नहीं है।किसान से पेशा बदलकर भद्रलोक बने शहरी मुक्तबाजारी सत्ता समर्थकों को भी किसानों से कोई सहानुभूति नहीं है।

गौरतलब है कि भारतीय किसान समाज,उनकी लोकसंस्कृति और उनके आंदोलन  देशी विदेशी शासकों,जमींदारों,महाजनों और सूदखोरों के साथ साथ इस भद्रलोक बिरादरी के खिलाफ रहे हैं तो जाहिर है कि भद्रलोक बिरादरी के सत्ता वर्ग,उनकी राजनीति,उनके इतिहास और उनके साहित्य में बहुजन, अवर्ण, शूद्र, अछूत, आदिवासी,अनार्य,द्रविड़ किसानों की कोई जगह नहीं है।

कल हमने  विश्वभऱ के किसान आंदोलनों के बारे में उपलब्ध समाग्री शेयर करने की कोशिश की तो ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी या बांग्ला में मिली और हिंदी में कम से कम सूचना क्रांति में ओतप्रोत हिंदी समाज की तरफ से दर्ज किसान आंदोलनों का कोई दस्तावेज हमें नहीं मिला।

शोध पुस्तकें हैं लेकिन वे खरीदने के लिए हैं और अंग्रेजी और बांग्ला की तरह ओपन सोर्स नहीं है।

बांग्ला में भी ज्यादातर सामग्री बांग्लादेश से है.जहां सवर्ण वर्चस्व नहीं है।

हिंदी में 1857 की क्रांति से पहले 1757 में पलाशी युद्ध के तत्काल बाद शुरु चुआड़ विद्रोह और पूर्वी बंगाल के पाबना और रंगपुर के किसान विद्रोहों के बारे में कुछ भी उपलब्ध नहीं है।शोध सामग्री हो सकता है कि हो,लेकिन आम जनता के लिए उपलब्ध जनविमर्श में ऐसे दस्तावेज नहीं है।

कल हमने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ फकीर संन्यासी विद्रोह के दस्तावेज भी शेयर पेश किये है,जिसके बारे में हिंदी में आनंदमठ के संन्यासी विद्रोह और वंदेमातरम प्रसंग में चर्चा होती रही है।बंगाल में विद्रोह दमन के बावजूद यह विद्रोह नेपाल, बिहार, असम और पूर्वी बंगाल में जारी रहा है और इसके नेतृ्त्व में फकीर बाउल सन्यासी के अलावा आदिवासी और किसान भी थे।

भारत में धर्मसत्ता का वर्चस्व कभी नहीं रहा है।वैदिकी सभ्यता के ब्राह्मण धर्म या बौद्धमय भारत के बौद्ध धर्म या पठान मुगलों के सात सौ साल के दौरान  इस्लाम धर्म शासकों का धर्म होने के बावजूद यूरोप में धर्म सत्ता और राजसत्ता के किसी दोहरे तंत्र को  भारत में आम जनता के किसान समाज ने स्वीकारा नहीं है।कुलीन सत्ता वर्ग के धर्म और राजनीति से अलग उनकी लोक संस्कृति की साझा विरासत गांव देहात जनपदों में मनुष्यता के धर्म के रुप में हमेशा जीवित रही है।

यही भारत की सूफी संत गुरु परंपरा है,जो सत्ता वर्ग के दायरे से बाहर जल जंगल जमीन और जनपद का विमर्श रहा है।

सात सौ साल के इस्लामी राजकाज के दौरान आम जनता का व्यापक जबरन धर्मांतरण हुआ होता तो भारत में बौद्धों की तरह हिंदुओं की जनसंख्या भी कुछ लाख तक सीमित हो जाती और अस्सी प्रतिशत से ज्यादा यह जनसंख्या उसी तरह नहीं होती जैसे बौद्ध शासकों के बाद भारत में बौद्धों की जनसंख्या का अंत हो गया।

बंगाल में तेरहवीं सदी में जिस तरह बौद्धों का धर्मांतरण हुआ है,भारत के इतिहास में सात सौ साल के मुसलमान शासकों के राजकाज के दौरान उतना व्यापक धर्मंतरण हुआ नहीं है।होता तो जैसे भारत फिर बुद्धमय नहीं बना,उसीतरह हिंदू राष्ट्र का विमर्श चलाने वाले पुरोहित तंत्र और सत्ता वर्ग् के साथ हिंदू भी नहीं होते।

इस्लामी शासन के दौरना भी हिंदुओं की दिनचर्या जीवन यापन मनुस्मृति विधान के कठोर अनुशासन में पुरोहित तंत्र के निंयत्रण में रहने का इतिहास है  और मुसलमान शासकों ने अंग्रेजों की तरह ब्राह्मणतंत्र में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है।

मनुस्मृति विधान ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज के दौरान समाज सुधार के ब्राह्मणतंत्र विरोधी बहुजन आंदोलनों को तहत टूटना शुरु हुआ क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान उन्हें उनके वे हकहकूक मिलने शुरु हो गये जो मनुस्मृति विधान के तहत निषिद्ध थे।

अब आजादी के बाद हिंदुत्व के पुनरुत्थान के फासीवादी नस्ली राजकाज और राष्ट्रवाद के तहत फिर मनुस्मृति विधान लागू है तो जाहिर है कि बहजनों, अवर्णों, आदिवासियों,द्रविड़ और अनार्य, किसान और मेहनतकश समुदायों का सफाया लाजिमी है।

इसीलिए मुक्त बाजार में किसान समाज की हत्या हो रही है तो बोलियों का लोकतंत्र खत्म है और लोकसंस्कृति जनपदों के साथ साथ विलुप्तप्राय है।

साहित्य,कला,इतिहास और संस्कृति का प्रस्थानबिंदू सिरे से खत्म है तो वर्तमान सामाजिक यथार्थ हत्यारों का आतंकराज है,जहां कबीर सूर नानक तुकाराम लालन फकीर या रवींद्र या गांधी या प्रेमचंद के लिए कोई स्पेस नहीं है।

भारत में लोक संस्कृति का आध्यात्म,आस्था और धर्म प्रकृति और पर्यावरण, जल जंगल जमीन और सामुदायिक जीवन पर आधारित है जो उपभोक्तावाद और नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद दोनों, धर्म सत्ता और राजसत्ता दोनों के विरुद्ध है।

रवींद्रनाथ ने पल्ली प्रकृति में लिखा हैः

आम जनता में विशेष कालखंड में सामयिक तौर पर भावनाओं की सुनामी बनती है-सामाजिक,राष्ट्रवादी या धार्मिक संप्रदायिक। आम जनता की भावनाओं की इस सुनामी की ताकीद अगर ज्यादा हो गया तो भविष्य की यात्रापथ की दिशाएं बदल जाती हैं।कवियों में यह प्रवृत्ति होती है कि कई बार वे वर्तमान से रिश्वत लेकर भविष्य को वंचित कर देते हैं।कभी कभी ऐसा समय आता है,जब रिश्वत का यह बाजार बेहद लोभनीय बन जाता है।देशभक्ति,सांप्रदायिकता के खाते खुल जाते हैं।तब नकदी की लालच से बचना मुश्किल हो जाता है..(रवींद्र रचनावली,जन्मशतवार्षिकी संस्करण,पल्ली प्रकृति,पृष्ठ 570)

मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है।

जल जंगल जमीन और प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य के सर्वग्रासी लोभ और आक्रमण के खिलाफ अरण्य देवता निबंध में उन्होंने लिखा है कि अपने लोभ के कारण मनुष्य अपनी मौत को दावत दे रहा है। इसी कृषि विरोधी जनपद विरोधी विकास को गांधा ने पागल दौड़ कहा और सत्ता वर्ग इसे आज आर्थिक सुधार कहता है।

जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ पर्यावरण बचाओ चिपको आंदोलन से बहुत पहले रवींद्र नाथ ने लिखा हैः

রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর এসব বুঝেছিলেন বলে 'অরণ্য দেবতা'প্রবন্ধে বলেছেন- 'মানুষের সর্বগ্রাসী লোভের হাত থেকে অরণ্য সম্পদ রক্ষা করাই সর্বত্র সমস্যা হয়ে দাঁড়িয়েছে। বিধাতা পাঠিয়েছিলেন প্রাণকে, চারিদিকে তারই আয়োজন করে রেখেছিলেন। মানুষই নিজের লোভের দ্বারা মরণের উপকরণ জুগিয়েছে।… মানুষ অরণ্যকে ধ্বংস করে নিজেরই ক্ষতি ডেকে এনেছে। বায়ুকে নির্মল করার ভার যে গাছের উপর, যার পত্র ঝরে গিয়ে ভূমিকে উর্বরতা দেয়, তাকেই সে নির্মূল করেছে। বিধাতার যা কিছু কল্যাণের দান, আপনার কল্যাণ বিস্মৃত হয়ে মানুষ তাকেই ধ্বংস করেছে।'

रवींद्र नाथ ने मनुष्य के लिए जो भी कुछ हितकर है,उसे प्रकृति पर निर्भर माना है।उनके मुताबिक प्रकृति से तादाम्य ही मनुष्यता का धर्म है। प्रकृति से व्याभिचार के लिए धर्म कर्म से विचलन के खिलाफ वे मुखर रहे हैंः

আমরা লোভবশত প্রকৃতির প্রতি ব্যভিচার যেন না করি। আমাদের ধর্মে-কর্মে, ভাবে-ভঙ্গিতে প্রত্যহই তাহা করিতেছি, এই জন্য আমাদের সমস্যা উত্তরোত্তর জটিল হইয়া উঠিয়াছে- আমরা কেবলই অকৃতকার্য এবং ভারাক্রান্ত হইয়া পড়িতেছি। বস্তুত জটিলতা আমাদের দেশের ধর্ম নহে। উপকরণের বিরলতা, জীবনযাত্রার সরলতা আমাদের দেশের নিজস্ব- এখানেই আমাদের বল, আমাদের প্রাণ, আমাদের প্রতিজ্ঞা।'

छिन पत्र और तपोवन में भी उन्होंने जल जंगल जमीन के हकहकूक की आवाज बुलंद की हैः

বৃক্ষের প্রয়োজনীয়তা সম্পর্কে এ এক বিস্ময়কর অনুধ্যান নিঃসন্দেহে। ছিন্নপত্রের ৬৪ তথা ছিন্নপত্রাবলির ৭০ সংখ্যক পত্রে কবি বৃক্ষের সঙ্গে নিজের সম্পর্কের পরিচয় উন্মোচন করে বলেন-


'এক সময়ে যখন আমি এই পৃথিবীর সঙ্গে এক হয়ে ছিলাম, যখন আমার উপর সবুজ ঘাস উঠত, শরতের আলো পড়ত, সূর্যকিরণে আমার সুদূর বিস্তৃত শ্যামল অঙ্গের প্রত্যেক রোমক‚প থেকে যৌবনের সুগন্ধ উত্তাপ উত্থিত হতে থাকত, আমি কত দূরদূরান্তর দেশদেশান্তরের জলস্থল ব্যাপ্ত করে উজ্জ্বল আকাশের নীচে নিস্তব্ধভাবে শুয়ে পড়ে থাকতাম, তখন শরৎসূর্যালোকে আমার বৃহৎ সর্বাঙ্গে যে-একটি আনন্দরস, যে-একটি জীবনীশক্তি অত্যন্ত অব্যক্ত অর্ধচেতন এবং অত্যন্ত প্রকাণ্ড বৃহৎভাবে সঞ্চারিত হতে থাকত, তাই যেন খানিকটা মনে পড়ল। আমার এই যে মনের ভাব, এ যেন এই প্রতিনিয়ত অঙ্কুরিত মুকুলিত পুলকিত সূর্যনাথ আদিম পৃথিবীর ভাব। যেন আমার এই চেতনার প্রবাহ পৃথিবীর ঘাসে এবং গাছের শিকড়ে শিকড়ে শিরায় শিরায় ধীরে ধীরে প্রবাহিত হচ্ছে, সমস্ত শস্যক্ষেত রোমাঞ্চিত হয়ে উঠেছে, এবং নারকেল গাছের প্রত্যেক পাতা জীবনের আবেগে থর থর করে কাঁপছে।'


আবার 'তপোবন'এ তিনি বলেন-


'…ভারতবর্ষের একটি আশ্চর্য ব্যাপার দেখা গেছে এখানকার সভ্যতার মূল প্রস্রবণ শহরে নয়, বনে। ভারতবর্ষের প্রথমত আশ্চর্য বিকাশ দেখিতে পাই সেখানে, মানুষের সঙ্গে মানুষের অত্যন্ত ঘেঁষাঘেঁষি একেবারে পিণ্ড পাকিয়ে ওঠেনি। সেখানে গাছপালা, নদী সরোবর মানুষের সঙ্গে মিলে থাকার যথেষ্ট অবকাশ পেয়েছিল।'

जल जंगल जमीन और किसानों के समाज का यह विमर्श ही सूफी संत आंदोलन का धर्म कर्म और रचनाधर्मिता है तो यही रवींद्र का दलित विमर्श है।

इसलिए कबीर,सूरदास,तुलसी, नानक,तुकाराम,नामदेव,गुरुनानक ,बसेश्वर, चैतन्य, जयदेव, लालन फकीर और रवींद्र को समझने के लिए भारतीय कृषि,किसान और कृषक समाज,आदिवासी और किसान आंदोलन में रची बसी जनपदों की लोक जमीन पर खड़ा होना जरुरी है।


रवींद्र का दलित विमर्श-21 बौद्ध,वैष्णव,बाउल फकीर सूफी आंदोलन की जमीन ही रवींद्र की रचनाधर्मिता और यही लालन फकीर का उन पर सबसे गहरा असर। গীতাঞ্জলির গীতধারায় লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা। कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्र को स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनाया और क्रूर जमींदार सामंत के पुत्र रवींद्र किसानों, मेहनतकशों, शूद्रों, अछूतों, आदिवास�

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रवींद्र का दलित विमर्श-21

बौद्ध,वैष्णव,बाउल फकीर सूफी आंदोलन की जमीन ही रवींद्र की रचनाधर्मिता और यही लालन फकीर का उन पर सबसे गहरा असर।

গীতাঞ্জলির গীতধারায় লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা।

कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्र को स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनाया और क्रूर जमींदार सामंत के पुत्र रवींद्र किसानों, मेहनतकशों, शूद्रों, अछूतों, आदिवासियों, मुसलमानों  के हकहकूक के हक में खड़े हो गये।

नरसंहार संस्कृति का धर्म और राष्ट्रवाद दोनों कृषि और किसानों के खिलाफ,बोलियों,भाषाओं और संस्कृतियों की साझा विरासत के खिलाफ है।

बदनाम हिंदी पट्टी की तुलना में दूसरे गैरहिंदी प्रदेशों में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का तांडव,सामाजिक बदलाव की जमीन गायपट्टी में ही प्रतिरोध निरंकुश फासीवाद का प्रतिरोध संभव है।

मुक्बाजार में धर्म भी एक अंतहीन पाखंड है जो जाति, वर्ण ,नस्ल के आधार पर वर्ग वर्ण वर्चस्व सुनिश्चित करता है और इसीलिए कारपोरेट एकाधिकार के मुक्तबाजार में धर्मोन्माद का यह नंगा कत्लेआम कार्निवाल है,जिसे राष्ट्रवाद कहा जा रहा है।

यह आस्था का नहीं,राजनीति का मामला है,सत्ता समीकरण का मामला है।यही जनसंहार संस्कृति का जायनी तंत्र है तो मनुस्मृति विधान भी।

दूध घी की नदियां इसीलिए अब खून की नदियों में तब्दील हैं।


पलाश विश्वास

पांच अक्तूबर को मैं नई दिल्ली रवाना हो रहा हूं और वहां से गांव बसंतीपुर पहुंचना है।आगे क्या होगा,कह नहीं सकते।कोलकाता में बने रहना मुश्किल हो गया है और कोलकाता छोड़ना उससे मुश्किल तो गांव लौटना शायद सबसे ज्यादा मुश्किल। मैंने जिंदगी से लिखने पढ़ने की आजादी के सिवाय कुछ नहीं मांगा और गांव के घर से अलग कहीं और घर बसाने की नहीं सोची।इसलिए आगे लिखना हो सकेगा कि नहीं,कह नहीं सकते।होगा तो भी एक बड़ा अंतराल चाहिए फिर दोबारा खड़े होने के लिए।किखने पढ़ने का नया ठिकाना जुगाड़ना सबसे जरुरी है।वैसे भी जनता के हकहकूक के हम में खड़े होकर लिखने पढ़ने की आजादी अब खतरे में हैं तो लिख पढ़कर गुजारा करने के मौके नहीं के बराबर है।बाजार से जुड़ना हमारी सेहत के मुताबिक नहीं है और बिना बाजार से जुड़े जिंदा रहने की भी आजादी नहीं है।

इसलिए रवींद्र दलित विमर्श लगातार जारी रखने की मजबूरी है।

हिंदी के पाठकों को कितना पहुंच पा रहा है यह विमर्श,हम नहीं जानते।लेकिन हिंदी वालों को खुशी होगी कि बांग्लादेश में हस्तक्षेप पर हिंदी में जारी यह रवींद्र मविमर्स बांग्लादेश में खूब पढ़ा और शेयर किया जा रहा है।

कोई अंतराल की गुंजाइश नहीं है।जितना समेट सकते हैं,समेटने की कोशिश करेंगे।पाठकों को इस बमबारी से तकलीफ हो रही होगी,हम समझते हैं।लेकिन यह तय है कि कुछ समय की बात है और फिर हमारे मोर्चे पर लंबा सन्नाटा होना है।तब तक झेलते रहें।

लालन फकीर और रवींद्र की चर्चा के मध्य हमने किसान आंदोलनों पर चर्चा की है क्योंकि साहित्य और संस्कृति का मूल आधार मनुष्य और प्रकृति के अंतर्संबंध हैं और यही धर्म कर्म का आधार भी है।

सभ्यता और मनुष्यता का विकास दुनियाभर में कृषि से हुई।

खानाबदोश कबाइली सभ्यता से पशुपालन और खेती के बाद सत्रहवीं सदी से औद्योगीकरण का सिलसिला शुरु हुआ।उत्पादन संबंधों की बुनियाद पर मनुष्य सामाजिक प्राणी बना तो कृषि आजीविकाओं और कृषि की वजह से।

औद्योगीकरण ने उस कृषि व्यवस्था को तहस नहस कर दिया है और उत्पादन संबंधों का ताना बाना सिरे से उलझ गया है।

पूंजी और मुनाफा की अर्थव्यवस्था में शहरीकरण के मार्फत जो नई सभ्यता का जन्म हुआ,उसकी जड़ें पश्चिम में हैं।

भारत ही नहीं समूची एशिया और अफ्रीका की सभ्यता का इतिहास किसानों का इतिहास है।जिसे विद्वतजनों का कुलीन तबका सिरे से नजरअंदाज कर रहा है।

विज्ञान और तकनीक से औद्योगीकरण तेज हुआ।

बाजार का विस्तार हुआ और शहरीकरण हुआ।

पूंजीवादी व्यवस्था साम्राज्यवादी व्यवस्था में बदल गयी है।

कृषि व्यवस्था का देश और पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के राष्ट्र में बहुत अंतर है।देश जनपदों से बनता है और जनपद किसानों से बनता है।राष्ट्र जनपदों और किसानों के सफाये का तंत्र है।

देशभक्ति अपनी जमीन से जुड़ी मनुष्यता की चेतना है तो राष्ट्रवाद अंध नस्ली वर्चस्व है जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के साथ साथ सामंती वर्ग वर्ण वर्चस्व को मजबूत करता है।यही सभ्यता का संकट है।

अंधाधुध शहरीकरण और पूंजीवादी औद्योगीकीकरण अब आधार नंबर और आटोमेशन से लेकर रोबोटिक्स के दौर में है और इस उ्त्पादन प्रणाली में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है।

इस कारपोरेट मुक्तबाजार में मनुष्य कृषि व्यवस्था की तरह न उत्पादक है और न सामाजिक है।वह उपभोक्ता मात्र है और मनुष्यता के आदर्शों और मूल्यों का कोई मायने उसके लिए नहीं है।मनुष्यविरोधी प्रकृतिविरोधी नरसंहार संस्कृति है यह। नरसंहार संस्कृति का धर्म और राष्ट्रवाद दोनों कृषि और किसानों के खिलाफ,बोलियों,भाषाओं और संस्कृतियों की साझा विरासत के खिलाफ है।

मुक्बाजार में धर्म भी एक अंतहीन पाखंड है जो जाति,वर्ण,नस्ल के आधार पर वर्ग वर्ण वर्चस्व सुनिश्चित करता है और इसीलिए कारपोरेट एकाधिकार के मुक्तबाजार में धर्मोन्माद का यह नंगा कत्लेआम कार्निवाल है,जिसे राष्ट्रवाद कहा जा रहा है।यह आस्था का नहीं,राजनीति का माला ,सत्ता समीकरण का मामला है।यही जनसंहार संस्कृति का जायनी तंत्र है  तो मनुस्मृति विधान भी।

रवींद्र नाथ जमींदार थे।उनके पिता की विरासत की वजह से रवींद्रनाथ जमींदार बने।उनके पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर ब्रहमसमाजी थे तो स्वभाव चरित्र से भद्रलोक बिरादरी से बाहर एक सामंती जमींदार भी थे।टैगोर की रचनाधर्मिता उनके बचपन से इस सामंती शिकंजे को तोड़ते हुए बनी।

जोड़ासांकू के ठैगोर परिवार में बच्चों की कोई आजादी नहीं थी और स्त्रियों की भी कोई आजादी नहीं थी।

ज्योतिंद्र नाथ टैगोर की पत्नी कादंबरी देवी ने आत्महत्या की तो इस मामले को रफा दफा करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया।

इस प्रकरण का पर्दाफाश रवींद्र ने ही किया और कादंबरी देवी की उस मृत्यु ने रवींद्रनाथ को स्त्री स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बना दिया।

नष्टनीड़ उपन्यास और उस पर बनी सत्यजीत रे की फिल्म चारुलता कादंबरी देवी की कुचल दी गयी स्त्री अस्मिता को नये सिरे से रवींद्र ने रचा तो आंख की किरकिरी,चोखेर बाली की विनोदिनी सामंती समाज के खिलाफ स्त्री अस्मिता का महाविस्फोट है।

महर्षि देवेंद्रनाथ क्रूर जमींदार थे।

पूर्वी बंगाल के ग्रामीण पत्रकार कंगाल हरनाथ ने जमींदार देवेंद्र नाथ टैगोर के खिलाफ अपनी पत्रिका में लगातार लिखा तो उनका भयानक उत्पीड़न हुआ।

प्रजाजनों पर अत्याचार करने के मामले में देवेंद्र नाथ टैगोर निरंकुश थे।यहीं नहीं,रवींद्र नाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर कोलकाता के फोर्ट विलियम के ठेके और शेयरबाजर से ही बड़े उद्योगपति नहीं बने,वे पश्चिमी देशों में काले गुलामों का निर्यात भी करते थे। असम के चायबागानों और पूर्वी बंगाल में आदिवासी मजदूरों को सप्लाई करना भी उनका धंधा था।

इस जमींदारी पृष्ठभूमि के जमींदार रवींद्रनाथ के किसानों और मेहनतकश तबके के हक हकूक के हक में खुलकर खड़े होने की रचनाधर्मिता में बंगाल के बाउल फकीरों के किसान आंदोलन और बंगाल के किसान समाज से जुड़ी उनकी रचनाधर्मिता की निर्णायक भूमिका रही है।

रवींद्र के मानस को सामंती जमींदारी पृष्ठभूमि से मुक्त करने में बौद्ध साहित्य,संत साहित्य और बाउलों का सबसे बड़ा योगदान है।

इसीकी परिणति गीताजंलि है।

कृषि आधारित उत्पादन संबंधों की साझा लोकसंस्कृति में विकसित उनकी रचनाधर्मिता का मुख्य स्वर सामाजिक न्याय और समानता है तो इसके लिए लालन फकीर और बंगाल की सूफी संत परंपरा और उनके आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है।किसान समाज पर सामंती शिकंजे की दैवी सत्ता और राजसत्ता और फासिस्ट नस्ली राष्ट्रवाद के विरुद्ध उनकी रचनाधर्मिता का आध्यात्म किसानों के सामुदायिक जीवन और उनकी जीवन यंत्रणा पर आधारित है,जिसे भारत में किसान आंदोलनों के इतिहास में साधू संतों पीरों फकीरों बाउलों की निर्णायक भूमिका को समझे बिना समझना मुश्किल है।

रवींद्र का यह आध्यात्म चार्बाक दर्शन से लेकर शहीदे आजम भगतसिंह की नास्तिकता में एकाकार है।

हिंदी पाठकों के सामने समूचा संत साहित्य है।यह समूचा साहित्य जनपदों की पृष्ठभूमि में भारत के किसान समाज को संबोधित बोलियों में लिखा गया साहित्य है जिसमें मीरा बाई का जीवन और साहित्य भारतीय स्त्री अस्मिता को लोक विमर्श है तो कबीरदास सूरदास रहीमदास रसखान तुकाराम नामदेव और गुरुनानक का सारा साहित्य उस सामंती दैवी सत्ता के खिलाफ जो जनपदों और किसान समाज के दमन उत्पीड़न पर बनी है और इस साहित्य में नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के विरुद्ध न्याय और समानता का वह लोकतंत्र है जो शहरीकरण औद्योगीकीरण के आधुनिक साहित्य में सिरे से अनुपस्थित है।

संत कबीर का प्रतिरोध हो या सूफी संतों का प्रतिरोध,सत्ता की राजनीति सामाजिक शक्तियों के सामने टिक ही नहीं सकी।

आज अगर प्रतिरोध का साहित्य रचा नहीं जाता तो इसका सबसे बड़ा कारण है कि साहित्य और संस्कृति की जड़ें जनपदों से कट चुकी हैं और सामाजिक शक्तियों के एकाधिकार नस्ली वर्चस्व के निरंकुश फासिस्ट सैन्यतंत्र में खत्म होते जाना है।

किसान के साहित्य और संस्कृति से बाहर होना उत्पादन प्रणाली के कायाकल्प की कथा है और इस उत्पादन प्रणाली या राष्ट्र के विकास दर में कृषि और किसानों की कोई भूमिका न होना है।

कबीरदास ने जिस दो टुकभाषा में मूर्ति पूजा,पंडित पुरोहित मौलवी मुल्ला,पोथी पुराण,धर्मस्थल,तीर्थ,कर्मकांड,मंदिर मस्जिद और धर्म जाति अस्मिताओं का विरोध किया है,आज आजाद भारत में दाभोलकर,पनसारे कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश की हत्या की पृष्ठभूमि में उसकी कल्पना करना असंभव है।

इनमें गौरी लंकेश लिंगायत थीं और कन्नड़ के जिन 25 साहित्यकारों के लिए सुरक्षा इंतजाम करना पड़ रहा है,वे सभी अनार्य द्रविड़ है तो उनमें भी अनेक लिंगायत आंदोलन से जुड़े हैं।

कर्नाटक में ब्राह्मण तंत्र के खिलाफ लिंगायत आंदोलन का व्यापक असर रहा है और कर्नाटक में जीवन के सभी क्षेत्रों में लिंगायत वर्चस्व है।इसके बावजूद कर्नाटक में जो हो रहा है,वह उत्तर भारत की बदनाम गायपट्टी से भयंकर है।

यहीं नहीं,जिन लेखकों पर हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के खिलाफ लिखने के लिए हमले हुए,वे महाराष्ट्र और कर्नाटक के हैं तो रोहित वेमुला की हत्या तेलंगना राष्ट्रीयता और तेलंगना किसान आंदोलन की जमीन हैदराबाद में हुई।

दाभोलकर और पानसारे उस महाराष्ट्र में मारे गये जहां शिवाजी महाराज ने दिल्ली की निरकुंश सत्ता को चुनौती देकर महाराष्ट्र में ब्राह्मण तंत्र के खिलाफ शूद्रों का राज कायम किया,जहां महात्मा ज्योतिबा फूले और सावित्रबाी फूले की कर्म भूमि है,जहां से बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ समानता, न्याय और संवैधानिक हकहकूक का मिशन शुरु किया,जहां आज भी लाखों अबेंडकरी संगठन सक्रिय हैं।

कर्नाटक,महाराष्ट्र,पेरियार के तमिलनाडु और नारायण स्वामी,अयंकाली के केरल में जनपदों और किसान समाज का व्यापक हिंदुत्वकरण हुआ है वैसे ही जैसे बंगाल,बिहार और असम का।

हिंदी पट्टी में संतों के आंदोलन और सूफी आंदोलन के पीछे जो किसान समाज है, वही बंगाल के फकीर बाउल आंदोलन का किसान समाज है।

रवींद्र साहित्य का आध्यात्म और प्रेम मनुष्यता का धर्म और विश्व मानवता का दर्शन इसी जमीन की उपज है।

इस जमीन के पकाने का काम किया है बाउल फकीर आंदोलन ने।

इसी फकीर बाउल आदिवासी किसान आंदोलन के हिंदुत्वकरण से जन्मा फासिज्म का नस्ली राष्ट्रवाद,जिस कारण भारत का विभाजन हुआ और फिर फिर फिर विभाजन का खतरा देश और जनता को लहूलुहान कर रहा है।

दूध घी की नदियां इसीलिए अब खून की नदियों में तब्दील हैं।

गीतवितान में दो हजार से ज्यादा रवींद्र नाथ के गीत हैं जिनमें सैकड़ों बाउल गान से सीधे प्रभावित हैं,जिनकी एक आधिकारिक सूची भी हमने शेयर की है।

गीतांजलि की चर्चा हमेशा भारतीय आध्यात्म और रहस्यवाद,आस्था और धर्म के संदर्भ और प्रसंग में होती है।लेकिन यह आध्यात्म वैदिकी सभ्यता और ब्राह्मण धर्म का आध्यात्म नहीं है।यह बौद्ध विरासत,वैष्णव बाउल और फकीर,सूफी आंदोलन की साझा विरासत की पूर्वी बंगाल के शूद्र अछूत मुसलमान किसानों की लोकसंस्कृति है,जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि लालन फकीर हैं।

हिंदी के पाठक अगर गोस्वामी तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को मनुस्मृति संविधान का रक्षक मानते हैं तो वे राम चरित मानस में मनुष्यता के धर्म को समझ नहीं सकते।कबीर दास,रसखान,सूरदास,रहीम दास,तुकाराम,नामदेव और गुरु नानक की साझा विरासत को अगर नहीं समझते तो समता न्याय का विमर्श रहा दूर,भारते के संविधान ,कानून के राज,लोकतंत्र और लोक गणराज्य को बी नहीं समझेंगे और जिस राजसत्ता और धर्मसत्ता के खिलाफ जनपदों और किसान समाज की आजादी के लिए संतों गुरुओं का आंदोलन है,उसी के शिकंजे में फंसते चले जायेेंगे और सामाजिक शक्तियों की जगह फासीवादी निरंकुश नस्ली सत्ता की नरसंहार संस्कृति के शिकार हो जायेंगे।

दिल्ली की सत्ता के लिए हिंदी पट्टी बेकार बदनाम हो रही है।हिंदुत्व या इस्लामी राष्ट्रवाद,नस्ली और क्षेत्रीय राष्ट्रवाद का तांडव गैर हिंदी प्रदेशों में सबसे ज्यादा है।कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र,असम,बंगाल जैसे राज्यों में,जहां नस्ली वर्चस्व के खिलाफ,ब्राह्मणधर्म के खिलाफ सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ आदिवासियों किसानों के साथ साथ साधु संतों फकीरों बाउलों का आंदोलन चलता रहा है और समता न्याय के संघर्ष भी जहां तेज हुए हैं।

इस लिहाज से उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में सामाजिक बदलाव बाकी भारत की तुलना में ज्यादा हुआ है और सत्ता में और जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी  दलितों, मुसलमानों, पिछडो़ं, आदिवासियों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है और स्त्री अस्मिता के स्वर भी इन्हीं क्षेत्रों में सबसे मुखर हैं तो इस निरंकुश नस्ली सत्ता के प्रतिरोध की जमीन भी गाय पट्टी में बनेगी।इसकी तैयारी में रवींद्र का दलित विमर्श और नस्ली राष्ट्रवाद के मुकाबले बाउल फकीरोें आदिवासियों किसानों के आंदोलन के इतिहास को समझना बेहद जरुरी है।

बांग्लादेश के कबीर हुमायूं ने गीताजंलि में लालन फकीर के असर का सिलसिलेवार विश्लेषण किया है।उनके मुताबिक लालन की रचनाओं का परिष्कार गीतांजलि में रवींद्रनाथ ने किया है।उनके इस दावे की पुष्टि दूसरे तमाम अध्ययनों से होती रही है।फिलहाल उनके आलेख में रवींद्र और लालन के गीतों का यह  तुलनात्मक अध्ययन देखें और रचनाधर्मतिा में किसान समाज की प्रासंगरिकता को समझेंः

রবীন্দ্রনাথের গীতাঞ্জলির গীতধারায় যদি আমরা আধ্যাত্মিকতার চেতনায় নিবিষ্টতায় রসাস্বাদন করি তা'হলে আমরা দেখবো যে লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা।লালনের কালামে বিনয় ও মানবীয় আমিত্ব শূন্যতার এক কৌশল মাত্র। গুরুর চরণে নিজেকে অধম ও গুরুত্বহীনভাবে তুলে ধরে গুরুকে সর্বোত্তমরূপে প্রকাশ করার এক কৌশল সাঁইজী তুলে ধরেছেন তাঁর সুরে ও কালামে। পরম আত্মাকে কল্পনা করেছেন গুরুর ভনিতায়। সেই কথাই যেন আমরা শুনতে পাই কবিগুরু রবী ঠাকুরের কন্ঠে -


'তুমি কেমন করে গান কর যে, গুণী,

অবাক হয়ে শুনি কেবল শুনি।

সুরের আলো ভূবন ফেলে ছেয়ে,

সুরের হাওয়া চলে গগন বেয়ে,

পাষান টুটে ব্যাকুল বেগে ধেয়ে

বহিয়া যায় সুরের সুরধুনী।'




রবীন্দ্রনাথ অরূপের (নিরাকার) অপরূপ রূপে অবগাহনের নিমিত্তে অতল রূপ সাগরে ডুব দিয়েছেন অরূপ রতন (অমূল্য রতন) আশা করি, তাঁর ভাষায়-


'রূপসাগরে ডুব দিয়েছি

অরূপ রতন আশা করি ;

ঘাটে ঘাটে ঘুরব না আর

ভাসিয়ে আমার জীর্ণ তরী ।

সময় যেন হয় রে এবার

ঢেউ-খাওয়া সব চুকিয়ে দেবার

সুধায় এবার তলিয়ে গিয়ে

অমর হয়ে রব মরি।'


লালন তাঁর একতারার তারে সুরে ও ছন্দে গেয়ে গেছেন -


'রূপের তুলনা রূপে।

ফণি মণি সৌদামিনী

কী আর তাঁর কাছে শোভে ।

যে দেখেছে সেই অটল রূপ

বাক্ নাহি তার, মেরেছে চুপ।

পার হলো সে এ ভবকূপ

রূপের মালা হৃদয়ে জপে ।'


এই রূপের তুলনা মানবসত্ত্বায় নিহিত বস্তুমোহমুক্ত নিষ্কামী মহা মানবের স্বরূপ। যে মহা মানব সম্যক গুরুদেবের কাছে সম্পূর্ন আত্ম-সমর্পিত চিত্তে কঠিন ধ্যানব্রত অবস্থায় শিক্ষা গ্রহন করেন। যেখানে অরূপে( অস্থিত্বহীনতায়) খুঁজে ফেরে রূপের সন্ধান। যেখানে 'নিজেকে জানা'এর জন্য পরিপূর্ন আত্মদর্শনে ব্যাপৃত থাকে। তাই লালন ফকির দ্বিধাহীন চিত্তে প্রকাশ করেছেন -


'যার আপন খবর আপনার হয় না।

একবার আপনারে চিনতে পারলেরে

যাবে অচেনারে চেনা ।

আত্মরূপে কর্তা হরি,

নিষ্ঠা হলে মিলবে তাঁরই ঠিকানা।

ঘুরে বেড়াও দিল্লি লাহোর

কোলের ঘোর তো যায় না ।'


ধর্ম তত্ত্বে পরমাত্মা বা ঈশ্বরকে অনুসন্ধানের জন্য বৈরাগ্য সাধন প্রক্রিয়ায় বনে-জঙ্গলে, পাহার-পর্বতে, অথবা মক্কা-কাশীতে যাওয়ার তাগিদ অনুভব করেনি লালন শাহ; তেমনি তাঁর ভাবশিষ্য রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরও লালন দর্শনের মতোই ঈশ্বরের মহিমা খুঁজে ফিরেছেন মানুষের মাঝে। মানুষই ঈশ্বর, মানুষই দেবতা, মানুষের মাঝেই পরমাত্মার অস্থিত্ব লীন। তাই লালন শাহের কন্ঠে যেমন শুনি-


'ভবে মানুষ গুরুনিষ্ঠা যার।

সর্বসাধন সিদ্ধি হয় তার ।

নিরাকারে জ্যোতির্ময় যে

আকার সাকার হইল সে

যে জন দিব্যজ্ঞানী হয়, সেহি জানতে পায়

কলি যুগে হল মানুষ অবতার ।'


অপরদিকে রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর লালন শাহের ভাব দর্শনের দ্যোতনাকে আরও উচ্চমার্গ্মে তুলে ধরেছেন। মনে হয় লালনের চিন্তা-চেতনাকে শালীন ও সুন্দরভাবে তুলে ধরেছেন স্বয়ং কবিগুরু। মার্জিত ভাষার পরিশীলিত সুরের মাধুর্য দিয়ে কবিগুরু একতারার সুরের স্থানে বীণার তারে ঝংকৃত করেছেন মানব ও মানবতার মাঝেই পরমাত্মার অস্তিত্ব। সেই পরমাত্মাকে পেতে হলে আমিত্বের অহংবোধকে লীন করে দিতে হবে মানুষ-গুরু সাধনে; মানবতার পরাকাষ্ঠা দেদীপ্যমান করে। কবিগুরুর ভাষায় তা হলো -


'ভজন পূজন সাধন আরাধনা

সমস্ত থাক পড়ে।

রুদ্ধদ্বারে দেবালয়ের কোণে

কেন আছিস ওরে।

তিনি গেছেন যেথায় মাটি ভেঙে

করছে চাষা চাষ -

পাথর ভেঙে কাটছে যেথায় পথ,

খাটছে বারো মাস।

রৌদ্রে জলে আছেন সবার সাথে,

ধূলা তাঁহার লেগেছে দুই হাতে -

তাঁরই মতন শুচি বসন ছাড়ি

আয় রে ধুলার 'পরে।'


অপরদিকে, ফকির লালন শাহ মানবদেহে নিহিত আলোকিত সত্তার উন্মেষের ইচ্ছায় স্বীয় কন্ঠে উচ্চারন করেন -


'মানুষ ভজলে সোনার মানুষ হবি।

মানুষ ছাড়া ক্ষ্যাপারে তুই

মূল হারাবি ।

মানুষ ছাড়া মনরে আমার

দেখিরে সব শূন্যকার

লালন বলে মানুষ আকার

ভজলে পাবি ।'


লালন ফকির তাঁর পরমাত্মার সাথে মিলনের প্রচন্ড আকাঙ্খা তাঁকে উন্মাতাল করে রাখতো, তাই সে প্রভুর সাথে মিলনের আকাঙ্খায় বেদন সুরে গেয়ে বেড়ায়-


'মিলন হবে কতোদিনে।

আমার মনের মানুষের সনে ।

ঐ রূপ যখন স্মরণ হয়

থাকে না লোক লজ্জার ভয়

লালন ফকির ভেবে বলে সদাই

ও প্রেম যে করে সেই জানে ।'


প্রভুর সাথে মিলনের ইচ্ছা লালনকে যেমন চাতক প্রায় জোছনালোকের প্রত্যাশায় দিন গুনতো , তেমনি প্রভুর সান্নিধ্য পাবার আশায় রবীন্দ্রনাথ ব্যাকুল হৃদয়ে গাইতেন -


'যদি তোমার দেখা না পাই প্রভু,

এবার এ জীবনে,

তবে তোমায় আমি পাইনি যেন,

সে কথা রয় মনে ।

যেন ভুলে না যাই, বেদনা পাই

শয়নে স্বপনে।'


অথবা


'আমার মিলন লাগি তুমি

আসছ কবে থেকে।

তোমার চন্দ্র সূর্য তোমায়

রাখবে কোথায় ঢেকে।

কত কালের সকাল-সাঁঝে

তোমার চরণধ্বনি বাজে,

গোপনে দূত হৃদয়-মাঝে

গেছে আমায় ডেকে।'


বাউল সম্রাট লালন ফকির এবং কবিগুরু রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর- এ দু'জন মহৎ-প্রাণ ও সাধুর কর্ম ও রচনার কিছু দিক নিয়ে আলোকপাত করেছি বটে। লালন শাহের প্রয়াণের সময়কালে রবীন্দ্রনাথের পূর্ণ যৌবনকাল। তখন তাঁর বয়স ২৮/২৯ বছর। যে 'গীতাঞ্জলি'রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরকে এবং বাংলা ভাষাকে এনে দিয়েছে সুনাম, সম্মৃদ্ধি ও বিশ্বজনীনতা। সেই গীতাঞ্জলির প্রতিটি 'গীত'ধীর-স্থীরতার সাথে পাঠ করলে নিজের অজান্তে মনে হবে - এ কথাগুলোতো তাঁর পূর্ব-পুরুষ বাউল কবি ফকির লালন শাহ আগেই বলে গেছেন। অর্থাৎ, গীতাঞ্জলির গানগুলো লেখার সময় কবিগুরু প্রচন্ডভাবে বাউল কবি লালনের রচনার দ্বারা প্রভাবিত হয়েছিলেন। কিন্তু বড়ই পরিতাপের বিষয় এশিয়ার প্রথম নোভেল বিজয়ী কবিগুরু রবীন্দ্রনাথকে নিয়ে যেভাবে দুই বাংলায় বাঙালীগণ উচ্ছ্বাসিত ও উদ্বেলিত হয়ে স্মরন করেন; সেইরূপ হয়না বাউল সম্রাট লালন শাহের ক্ষেত্রে।

https://www.amarblog.com/kabirkabir/posts/154289


रवींद्र का दलित विमर्श-22 गोदान की धनिया,सद्गति की झुरिया और रवींद्र की चंडालिका भारतीय स्त्री अस्मिता का यथार्थ! देहमुक्ति के विमर्श में विषमता के रंगभेदी नस्ली विमर्श शामिल नहीं है और इसीलिए बलात्कार सुनामी मुक्तबाजार का धर्म कर्म है।सद्गति का सिलसिला थमा नहीं है।नरसंहार संस्कृति में सद्गति तो मुफ्त उपहार है। महिमामंडन और चरित्रहनन के शिकार रवींद्रनाथ! नोबेल पुरस्कार से प�

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रवींद्र का दलित विमर्श-22

गोदान की धनिया,सद्गति की झुरिया और रवींद्र की चंडालिका भारतीय स्त्री अस्मिता का यथार्थ!

देहमुक्ति के विमर्श में विषमता के रंगभेदी नस्ली विमर्श शामिल नहीं है और इसीलिए बलात्कार सुनामी मुक्तबाजार का धर्म कर्म है।सद्गति का सिलसिला थमा नहीं है।नरसंहार संस्कृति में सद्गति तो मुफ्त उपहार है।

महिमामंडन और चरित्रहनन के शिकार रवींद्रनाथ!

नोबेल पुरस्कार से पहले अछूत ब्रह्मसमाजी रवींद्र को बांग्ला भद्रलोक सवर्ण समाज कवि साहित्यकार मानने को तैयार नहीं था तो नोबेल पुरस्कार मिल जाने के बाद उन्होंने  रवींद्र को वैदिकी धर्म और बांग्ला  ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद  का प्रतीक बना डाला।अछूत रवींद्र की जगह जमींदार रवींद्रनाथ ने ले ली और भद्रलोक रवींद्र विमर्श में रवींद्र लंपट जमींदार के सिवाय कुछ नहीं है।

पलाश विश्वास

सवर्ण भद्रलोक विद्वतजनों ने नोबेल पुरस्कार पाने के बाद से लेकर अबतक रवींद्र के महिमामंडन के बहाने रवींद्र का लगातार चरित्र हनन किया है।रवींद्र साहित्य पर चर्चा अब रवींद्र के प्रेमसंंबंधों तक सीमाबद्ध हो गया है जैसे उनके लिखे साहित्य को वैदिकी धर्म के आध्यात्म और सत्तावर्ग के प्रेम रोमांस के नजरिये से ही देखने समझने का चलन है।कादंबरी देवी,विक्टोरिया ओकैम्पो से लेकर लेडी रानू मुखर्जी तक के साथ प्रेमसंबंधों के किस्सों पर लगातार लिखा जा रहा है।

दूसरी तरफ, बहुजनों, मुसलमानों, स्त्रियों, किसानों, मेहनतकशों और अछूतों के लिए उनकी रचनाधर्मिता में समानत और न्याय की गुहार या सत्ता वर्ग वर्ण के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के खिलाफ उनके प्रतिरोध की चर्चा कहीं नहीं होती।

इसके विपरीत,भारत में स्त्री अस्मिता का सच प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की धनिया,उन्हींकी कहानी सद्गति की झुरिया और रवींद्र की चंडालिका के सामाजिक यथार्थ हैं।सामाजिक विषमता,नस्ली वर्चस्व, पितृसत्ता, अन्याय, असमानता, बहिस्कार, अत्याचार उत्पीड़न की सामंती महाजनी मनुस्मृति व्यवस्था में धार्मिक सांस्कृतिक पाखंड के हिसाब से सवर्ण स्त्री देवी है लेकिन पितृसत्ता की मनुस्मृति के विधान के तहत स्त्री आज भी शूद्र दासी है।

धर्म कर्म समाज राष्ट्र राजनीति और अर्थव्यवस्था के हिसाब से स्त्री उपभोक्ता वस्तु है और उसकी मनुष्यता की कोई पहचान नहीं है।

शूद्र,अछूत और आदिवासी स्त्री का मौजूदा सामाजिक यथार्थ तो गोदान,सद्गति और चंडालिका से भी भयंकर है।

मुक्तबाजार में एक तरफ देवी की पूजा का उत्सव और बाजार है तो दूसरी तरफ घर और बाहर सर्वत्र देवी की देह का आखेट है और अछूत आदिवासी स्त्रियों पर अन्याय,अत्याचार और उत्पीड़न की बलात्कार सुनामी ही आज का नस्ली राष्ट्रवाद है,जिसपर कानून का कोई अंकुश नहीं है।

चंडालिका इसी उत्पीड़ित स्त्री का विद्रोह है तो यही भारत में स्त्री अस्मिता का सच है लेकिन सवर्ण स्त्री विमर्श में चंडालिका,धनिया और झुरिया के लिए कोई जगह उसी तरह नहीं है जैसे साहित्य,संस्कृति और इतिहास में कृषि और किसानों,अछूतों और आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है।

देहमुक्ति के विमर्श में विषमता के रंगभेदी नस्ली विमर्श शामिल नहीं है और इसीलिए बलात्कार सुनामी मुक्तबाजार का धर्म कर्म है।तो दूसरी तरफ सद्गति का सिलसिला थमा नहीं है।नरसंहार संस्कृति में सद्गति तो मुफ्त उपहार है।

सत्ता वर्ण और वर्ग के लिए नोबेल पुरस्कार की वजह से रवींद्र नाथ को निगलना और उगलना हमेशा मुश्किल रहा है।

आधुनिक बांग्ला साहित्य के महामंडलेश्वर सुनील गंगोपाध्याय का दावा है कि विश्वभर में इने गिने लोग रवींद्रनाथ का नाम जानते हैं और जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला तब पूर्व के बारे में पश्चिम को कुछ भी मालूम नहीं था और इसीलिए तब रवींद्र की इतनी चर्चा हुई।कुल मिलाकर मान्यता यही है कि रवींद्र के सामाजिक यथार्थ के दलित विमर्श का कोई वजूद नहीं है और वैदिकी धर्म और आध्यात्म के बारे में पश्चिम की अज्ञानता के कारण ही रवींद्र को नोबेल मिला।राष्ट्रवादियों के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत की दलाल करने की वजह से रवींद्र को नोबेल पुरस्कार मिला।

हाल में रवींद्र साहित्य के खिलाफ राष्ट्रवादियों के फतवे से बांग्ला राष्ट्रवाद को धक्का लगा है और बंगाल में इस फतवे के खिलाफ आवाजें भी उठने लगी है।जैसे एकबार खुशवंत के रवींद्र को पवित्र गाय कह देने पर बंगाली भावनाओं को भारी सदमा लगा था।लेकिन सच यह है कि नोबेल पुरस्कार से पहले अछूत ब्रह्मसमाजी रवींद्र को बांग्ला भद्रलोक सवर्ण समाज कवि साहित्यकार मानने को तैयार नहीं था तो नोबेल पुरस्कार मिल जाने के बाद उन्होंने  रवींद्र को वैदिकी धर्म और बांग्ला  ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद  का प्रतीक बना डाला।अछूत रवींद्र की जगह जमींदार रवींद्रनाथ ने ले ली और भद्रलोक रवींद्र विमर्श में रवींद्र लंपट जमींदार के सिवाय कुछ नहीं है।

फासीवादी राष्ट्रवाद के निशाने पर रवींद्र नाथ शुरु से हैं और 1916 में ही उनपर अमेरिका और चीन में हमले हुए।1941 में उनके अवसान के बाद रवींद्र विरासत को खारिज करने के लिए उनपर हमलों का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं हुआ।

मई, 2014 से बहुत पहले 17 सितंबर,2003 में बंगाल की गौरवशाली देश पत्रिका में  एक पाठक सुजीत चौधरी,करीमगंज ने रवींद्र के चरित्रहनन के विरोध में लिखाःसांप्रतिक काल में देश पत्रिका में रवींद्रनाथ के संबंध में अनेक निबंध और पत्र प्रकाशित हुए हैं।जिन्हें पढ़कर आम पाठक की हैसियत से मुझे कुछ धारणाएं मिलीं,जो इसप्रकार हैंःएक-रवींद्रनाथ सांप्रदायिक थे।इसलिए अपने मुसलिम बहुल जमींदारी इलाके में नहीं,हिंदूबहुल वीरभूम में उन्होंने विश्वविद्यालय की स्थापना की।दो- वे कापुरुष थे और उनका देशप्रेम नकली था।तीन-उनकी कथनी और करनी में कोई सामजस्य नहीं था।कथनी में वे विधवा विवाह के समर्थक थे और असली वक्त पर खुद बाधा खड़ी कर देते थे।चार-वे जाति प्रथा के समर्थक थे।पांच-वे प्रणय संबंधों में निरंकुश थे।आठ साल के शिशु से लेकर अपनी भाभी तक किसी को उन्होंने नहीं बख्शा। छह-अपनी बालिकावधु पर उन्होंने प्रकांतर से अनेक अत्याचार किये।सात- कविता वविता कुछभी नहीं,कुछ गीतों के लिए वे जिंदा हैं।इसके विपरीत उम्मीद की बात यह है कि बांग्लाभाषी दूसरे सारे आलोचक,गवेषक,कवि,साहित्यकार,पत्रलेखक सभी आदर्सवादी,प्रगतिशील एवं निर्मल चरित्र के हैं।शुक्र है,वरना रवींद्र नाथ ने तो लगभग पूरे देश का ध्वंस कर दिया होता।(संदर्भःकी खाराप लोक छिलेन रवींद्रनाथ!देश,17 सितंबर,2003)

पत्र लेखक ने जिन बिंदुओं पर रवींद्र के चरित्र हनन की बात की है,वे सारे भद्रलोक रवींद्र विमर्श के तत्व हैं।आज भी रवींद्र विमर्श रवींद्र के प्रेमसंबंधों पर शोध का अनंत सिलसिला है।कम से कम हिंदी में ऐसे चरित्रहनन की नजीर नहीं है।

गौरतलब है कि देश के संपादक सागरमय घोष के निधन के बाद इस पत्रिका की भूमिका सुनील गंगोपाध्याय के नेतृत्व में बदल गयी जो रवींद्र को दौ कौड़ी का साहित्यकार नहीं मानते।उन्होंने इसी देश पत्रिका में समय को सूत्रधार मानकर तीन उपन्यासों की एक ट्रिलाजी प्रकाशित की,एई समय,पूर्व पश्चिम और भोरेर आलो और बांग्ला विद्वत समाज इसे नवजागरण,स्वतंत्रता संग्राम,भारत विभाजन,बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम,नक्सलबाड़ी आंदोलन,शरणार्थी समस्या और आधुनिक भारत का समग्र इतिहास बताते हैं।

इस इतिहास में बंगाल के नमोशूद्र सुनील गंगोपाध्याय के मुताबिक हिंदू कभी नहीं थे,दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में इन अछूतों को भी सवर्णों को हिंदू मान लेने की मजबूरी थी।

इस इतिहास में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसान जनविद्रोहों के लिए कोई स्थान नहीं है और मां काली को उन्होंने भोरेर आलो में लैंग्टा संथाल मागी याऩी नंगी संथाल औरत बताया है।

इस इतिहास में विभाजन पीड़ित शरणार्थियों की दंडकारण्य कथा है लेकिन मरीचझांपी नरसंहार नहीं है और शरणार्थी जीवन यंत्रणा को आपराधिक गतिविधियों से जोड़ते हुए शरणार्थियों को बंगाल की सारी समस्याओं की जड़ बताया गया है।

सुनील गंगोपाध्याय ने नवजागरण के राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे चरित्रों को अपने हिसाब से गढ़ा है तो रवींद्र कादंबरी प्रेम प्रसंग भी इस ट्रिलाजी का आख्यान है।

गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। यह महाजनी सभ्यता अब मुक्तबाार के कारपोरेटएकाधिकार में बदल गया है और एक नहीं,लाखों होरियों की मर्यादा की लड़ाई का अंतिम विकल्प अब आत्महत्या है।

आजादी से पहले किसान आदिवासी शूद्र अछूत मुसलमान समूचा बहुजन समाज जल जंगल जमीन के हकूक के लिए लगातार हजारोंहजार साल से लड़ता रहा है और आजादी के बाद में किसान आंदोलन सवर्ण सत्ता की राजनीतिक मनुस्मृति का शिकार है तो मुक्तबाजारी फासीवादी सैन्य राष्ट्रवाद में बेदखली की यह महाजनी सभ्यता निरंकुश नरसंहार संस्कृति है।

गोदान का नायक होरी एक किसान है जो किसान वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद है। 'आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष के बावजूद उसकी एक गाय की आकांक्षा पूर्ण नहीं हो पाती'। गोदान भारतीय कृषक जीवन के संत्रासमय संघर्ष की कहानी है।

अब होरी सिरे से दो बीघा जमीन की तरह लापता है और कोई शोकसंदेश नहीं है।

गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष जनपदीय लोक संस्कृति की साझा विरासत को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुबास भरी है।कृषि और किसानों की बेदखली और उनके वध उत्सव के इस दुःसमय में गोदान की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है।

गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन - उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता ओर बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता- का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है। उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसे सहलाता, क्लेश और वेदना को झुठलाता, 'मरजाद' की झूठी भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर आगे बढ़ता, भारतीय समाज का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।

गोदान के कथानक में नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, पत्रसंपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं, गोदान में ये सभी तत्व नखदर्पण के समान प्रत्यक्ष हो गए हैं।

यही आज का सच है और नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद में बहुजनों की सद्गति का सिलसिला  जारी है।इस कहानी को दोबारा पढ़ें और हो सके तो इस कहानी पर बनी सत्यजीत रे की फिल्म को देखते हुए समकालीन डिजिटल इंडिया की नरसंहारी संस्कृति और समय के सच का सामना करें।


सद्गति -प्रेमचंद

दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, 'तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायँ।'

दुखी –'हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज़ पर ?'

झुरिया –'क़हीं से खटिया न मिल जायगी ? ठकुराने से माँग लाना।'

दुखी –'तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुरानेवाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जायँ। ले अपनी खटोली धोकर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जायगी।'

झुरिया –'वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।'

दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा, 'हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाय। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।'

झुरिया –'पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ ?'

दुखी –'क़हीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाय और थाली भी फूटे ! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी विरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज

तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत।'

झूरी –'गोंड़ की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीज़ें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़

की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जायगा।'

 

इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। ख़ाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या

था। उसे ख़ाली देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते। पं. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की

गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी। आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका हृदय

श्रृद्धा से परिपूर्ण हो गया ! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आँखें। रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले – 'आज कैसे चला रे दुखिया ?'

दुखी –'ने सिर झुकाकर कहा, बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी ?'

घासी –'आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ साँझ तक आ जाऊँगा।'

दुखी –'नहीं महराज, जल्दी मर्जी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ ?

घासी –'इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।'

दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी भोजन करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की भूख लगी; पर वहाँ

खाने को क्या धारा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाय, तो पंडितजी बिगड़ जायँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना ज़ोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।

उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का पूरा है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ ज़रूर चिलम-तमाखू होगी। तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सुफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा, आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीज़ें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला, 'मालिक, रचिके आग मिल जाय, तो चिलम पी लें।'

पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा, 'यह कौन आदमी आग माँग रहा है ?'

पंडित –'अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा, है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।'

पंडिताइन ने भॅवें चढ़ाकर कहा, 'तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रो के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाय, नहीं तो इस लुआठे से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं।'

पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा, 'भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो

कम-से-कम चार आने लेता।'

पंडिताइन ने गरजकर कहा, 'वह घर में आया क्यों !'

पंडित ने हारकर कहा, 'ससुरे का अभाग था और क्या !'

पंडिताइन--'अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।'

दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान

है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर ज़मीन पर माथा टेकता हुआ बोला, 'पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते।'

पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी। जल्दी से पीछे हटकर सिर के झोटे देने लगा। उसने मन में कहा, यह एक पवित्तर बाह्मन के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं बाह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले ! घर भर का सत्यानाश हो जाय, पाँव गल-गलकर गिरने लगे। बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजें आने लगीं। उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं –'इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।'

पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा, 'रोटियाँ हैं ?'

पंडिताइन –'दो-चार बच जायँगी।'

पंडित –'दो-चार रोटियों में क्या होगा ? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जायगा।'

पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं, 'अरे बाप रे ! सेर भर ! तो फिर रहने दो।'

पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा, 'क़ुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जायगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।'

पंडिताइन ने कहा, 'अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।'

 

दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आधा घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया। इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला, 'क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।'

दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा, 'अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई !'

गोंड़ –'क़ुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं ?'

दुखी –'क़ैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी !'

गोंड़ –'पचने को पच जायगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। ज़मींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।'

दुखी –'धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाय।'

यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आधा घंटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाय।'

दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक-न-एक चीज़ घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता। चलूँ जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा। उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलांग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जल्द खत्म हो जाता; फि र झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले –'अरे, दुखिया तू सो रहा है ? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या

रहा ? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना ! इसी से कहा, है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली।'

दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धॉसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना ही पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाय। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर

खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे हाँ, मार कसके, और मार क़सके मार अबे ज़ोर से मार तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है हाँ बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में ! दुखी अपने होश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमज़ोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आधा घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।

पंडितजी ने पुकारा, 'उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जायँ। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले ! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा –'अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी, चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न ? दुखी फिर भी न उठा।'

अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे और पंडिताइन से बोले, 'दुखिया तो जैसे मर गया।'

पंडिताइन हकबकाकर बोलीं—'वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न ?'

पंडित –'हाँ लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा ?'

पंडिताइन ने शान्त होकर कहा, 'होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो मुर्दा उठा ले जायँ।'

 

एक क्षण में गाँव भर में खबर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएं का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाय ! चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाय। एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा, अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं ? कोई गाँव में पानी पीयेगा या नहीं। इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे। इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ, हाँ दुखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करती वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पण्डितजी ने चमारों को बहुत धामकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आखिर निराश होकर लौट आये।

आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ? कहीं कोई दिखा दे। पंडिताइन ने झुँझलाकर कहा, 'इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं पकता। पंडित ने कहा, रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।'

पंडिताइन –'चमार का रोना मनहूस है।'

पंडित –'हाँ, बहुत मनहूस।'

पंडिताइन –'अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।'

पंडित –'चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।'

पंडिताइन –'इन सबों को घिन भी नहीं लगती।'

पंडित—'भ्रष्ट हैं सब।'

रात तो किसी तरह कटी; मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गन्ध कुछ-कुछ फैलने लगी। पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।

उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।


रवींद्र का दलित विमर्श-23 संविधान बदलकर मनुस्मृति बहाली के हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ आदिवासी किसानों के प्रतिरोध की विरासत में रवींद्र रचनाधर्मिता! रवींद्र उस भारतवर्ष के प्रतीक है कारपोरेट डिजिटल इंडिया का नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व जिसकी रोज हत्या कर रहा है। ब्रह्म समाज आंदोलन और औपनिवेशिक ब्रिटिश राज से भी पहले पठान मुगल इस्लामी राजकाज के दौरान समाज सुधार आंदोलनों नवजागरण क�

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रवींद्र का दलित विमर्श-23

संविधान बदलकर मनुस्मृति बहाली के हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ आदिवासी किसानों के प्रतिरोध की विरासत में रवींद्र रचनाधर्मिता!

रवींद्र उस भारतवर्ष के प्रतीक है कारपोरेट डिजिटल इंडिया का नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व जिसकी रोज हत्या कर रहा है।

ब्रह्म समाज आंदोलन और औपनिवेशिक ब्रिटिश राज से भी पहले पठान मुगल इस्लामी राजकाज के दौरान समाज सुधार आंदोलनों  नवजागरण की चर्चा खूब होती रही है लेकिन जाति तोड़ो अस्मिता तोड़ो के एकीकरण के बहुजन आंदोलन,आदिवासी किसान जनविद्रोहों के सिलिसिले में बाउल फकीर आंदोलन और लालन फकीर कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी के रवींद्र संगीत के दलित विमर्श पर चर्चा कभी नहीं हुई है।

बहुजनों के असल नवजागरण के हिंदुत्वकरण के इसी धतकरम से नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के नस्ली राष्ट्रवाद का जन्म औद्योगिक उत्पादन प्रणाली और ब्रिटिश राज में बहुजनों को मिले हकहकूक की वजह से टूटती जाति व्यवस्था आधारित मनुस्मृति प्रणाली की बहाली के लिए हुआ।इसे समझे बिना नरसंहारी कारपोरेट फासिज्म का प्रतिरोध मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।


पलाश विश्वास


कापीराइट मुक्त रवीद्रनाथ अब मुक्त बाजार के आइकन में तब्दील हैं।उनके वाणिज्यिक विपणन से उसी नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के राष्ट्रवाद को मजबूत किया जा रहा है जिसका रवींद्रनाथ आजीवन विरोध करते रहे हैं।

चर्यापद के बाद आठवीें सदी से लेकर ग्यारवीं सदी के इतिहास में भारत भर में शूद्रों आदिवासियों दलितों के इतिहास पर जिस तरह कोई चर्चा नहीं हुई है,जिस तरह परातत्व अनुसंधान और इतिहास पर वर्ग वर्ण वर्चस्व की वजह से हड़प्पा सिंधु सभ्यता और अनार्य द्रविड़ सभ्यता की निरंतरता और उसे जुड़ी आम भारतीयों की रक्तधारा के विलय के इतिहास को लगातार दबाया जाता रहा है,जिस तरह शासक वर्ग के इतिहास और साहित्य से किसान,आदिवासी और दलित शूद्र बहुजन सिरे से गायब हैं,उसी तरह भारत में आदिवासी किसानों के इतिहास को मिटाने का कार्यक्रम फासिज्म के सैन्य राष्ट्रवाद का एजंडा है और इसी एजंडे के तहत रवींद्र का भगवाकरण है तो रवींद्र के साहित्य के किसान आदिवासी दलित शूद्र आंदोलन,मेहनतकशों के हक हकूक,जल जंगल जमीन के प्रतिरोध संघर्षों  की जमीन और रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा निषिद्ध है।

इसीलिए दलितों,शूद्रों,स्त्रियों,बहुजनों,अल्पसंख्यकों,मेहनतकशों,किसानों और उत्पीड़न अत्याचार के खिलाफ समानता और न्याय के लिए सामंतवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद,ब्राह्मणवाद,मनुस्मृति व्यवस्था और नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के खिलाफ रवींद्र के आजीवन प्रतिबद्ध संघर्ष पर विमर्श का कोई स्पेस नहीं बना है।

साहित्य,संस्कृति,माध्यमों में सत्ता वर्ग के एकाधिकार के लिए हमें रवींद्र के  दलित विमर्श पर संवाद की यह कोशिश इसीलिए सोशल मीडिया पर करनी पड़ रही है और तकनीक के जरिये इस वर्चस्ववाद के खिलाफ लड़ना पड़ रहा है।

अब अंदाजा लगाइये कि सत्ता वर्ग के निरंकुश वर्चस्व के खिलाफ मनुस्मृति के तहत सारे हकहकूक से वंचित बहुसंख्य बहुजन जन गण के लिए एक मुस्त दैवी सत्ता और राजसत्ता का विरोध कितना कठिन रहा होगा।

कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर की युगलबंदी से नील विद्रोह के समय ब्रहमसमाज और नवजागरण आंदोलन के दौरान बंगाल में किसानों और आदिवासियों के बहुजन आंदोलन और जनविद्रोहों की जमीन पर जो सक्रिय रचनाधर्मिता थी,उसके पीछे कोई तकनीक नहीं थी,जिसके तहत अगर कोई अकेला व्यक्ति भी साहस विवेक और जीजिविषा के साथ फासिज्म की निरंकुश सत्ता के खिलाफ रीढ़ सीधी करके वैसा ही उपक्रम करें तो सत्ता के वर्म वर्ग वर्चस्व की चूलें हिल जाये।

विडंबना यह है कि तकनीक का सत्ता वर्ग के हित में इस्तेमाल कर रहे हैं जूता व्यवस्था और गुलामगिरि की बहुजन सेनाएं और उनके मानस और विवेक का सिरे से भगवाकरण हो गया है जो आजादी से पहले कभी नहीं हुआ था।

रवींद्र च्रचा में गुरुदेव रवींद्रनाथ,भारतीय तपवन, वैदिकी साहित्य, उपनिषद ऋषिक्लप रवींद्रनाथ की आड़ में रवींद्र साहित्य में महाकवि कीट्स के शब्दों में वर्णित इगोस्टिक सब्लाइम और नेगेटिव कैपेबिलिटि के विलयन की प्रक्रिया को सिरे से नजरअंदाज किया जाता है,जो रवींद्र का समूचा जीवन वृत्तांत है।

अहम् और एकात्मता,व्यक्ति और समाज,व्यक्ति और परंपरा,व्यक्ति और समाज,समाज और इतिहास के सारे रंग और आयाम सत्ता वर्ग की व्याकरण विशुद्धता के कुलीन सौंदर्यबोध की वजह से साहित्य और संस्कृति के विमर्श से बाहर है और इसमें बोलियों,लोक और जनपदों के साथ साथ अस्पृश्यता के सिद्धांत के तहत आम जनता का पूरीतरह बहिस्कार है।

इसी वजह से शुरु से आखिर तक देश दुनिया के परिदृश्य में रवींद्र नाथ व्यक्ति और कवि की हैसियत से जिसतरह राजनैतिक आर्थिक सामाजिक समता औलर न्याय के लिए,औपनिवेशिक शासन की पराधीनता से भारतीय जनगण की स्वतंत्रता के लिए रचनात्मक तौर पर निरंतर सक्रिय रहे,जिसतर साम्राज्यवाद विरोधी,फासीवाद विरोधी युद्धविरोधी वैश्विक महासंग्राम में महात्मा गौतम बुद्ध के पंचशील के तहत राष्ट्रनेताओं और विश्वनेताओं के साथ साथ दुनियाभर के चितकों,बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों के साथ मोर्चाबंद रहे हैं,यह लोकसंस्कृति और बाउल फकीर सूफी संत वैष्णव गुरु परंपरा में उनकी जड़ें होने की वजह से है।

इन्हीं जड़ों को कोजने के सिलसिले में हम एक तरफ आदिवासी किसान आंदोलनों की विरासत की जांच पड़ताल कर रहे हैं,तो बहुजनों के नवजागरण की लोकसंस्कृति की साझा विरासत पर निरंतर फोकस बनाये हुए हैं और संदर्भ और प्रसंग की प्रासंगिकता के लिए समसामयिक मुद्दों और समस्याओं पर जनप्रतिरोध की जनपदीय लोकसंस्कृति की रोशनी में च्रचा भी कर रहे हैं।

लालन फकीर के बाद इसी सिलसिले में आज हम कंगाल हरिनाथ की चर्चा कर रहे हैं।लालन फकीर की रचनाओं के साथ साथ रवींद्र की रचनाधर्मिता पर बाउल फकीर सूफी संत आंदोलन की बौद्धमय विरास का गहरा असर रहा है,इसकी हम चर्चा करते रहे है।

इन्हीं लालन फकीर ने जाति तोड़ो आंदोलन बंगाल में शुरु किया था,जिसमें भारतीय ग्रामीण पत्रकारिता के भीष्म पितामह कंगाल हरिनाथ बाउल उनके अनुयायी और सहयोगी थे।जो नील की खेती कराने वाले किसानों के हक में अंग्रेजों से एकतरफ लोहा ले रहे थे तो दूसरी तरफ रवींद्र के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ की जमींदारी और बंगाल के जमींदारों,सामंतों के खिलाफ पत्रकारिता कर रहे थे और जाति तोड़ो आंदोलन के तहत बाउल गान बी रच रहे थे।

जमींदार सामंत भद्रलोक कुलीन वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श की जमीन यही है।इसीलिए शुरु से रवींद्रनाथ मनुसमृति व्यवस्था के निशाने पर हैं।

लालन फकीर जात पांत और धर्म की पहचान से इंकार कर रहे थे और उनके जाति तोड़ो आंदोलन से ब्रह्मसमाज में भी खलबली मची हुई थी।जाति तोड़ो आंदोलन बंगाल में तब वैष्णवों की गौर सभा भी चला रही थी और हरिचांद ठाकुर का मतुआ आंदोलन भी शुरु हो गया था।

संत कबीर की तरह सभी जाति धर्म के लोग लालन फकीर से प्यार करते थे तो सबी जाति धर्मों के कट्टरपंथी लोग उनका विरोध करते थे।हिंदू उन्हें हिंदू मानते थे तो मुसलमान उन्हें मुसलमान मानते थे।वे निराकार ईश्वर के मानवधर्म की बात करते थे तो ब्रह्मसमाजी उन्हें ब्रमसमाज आंदोलन का हिस्सा मानते थे।जबकि वैष्णव उन्हें वैष्णव मानते थे।

लालन का जवाब एक वाक्य का हैः'সব লোকে কয় লালন কী জাত সংসারে।'सभी पूछते हैं कि लालन इस संसार में किस जाति के हैं।

रवींद्र नाथ लालन फकीर से नहीं मिले  और न वे कंगाल हरिनाथ से मिले।लेकिन लालन फकीर और उनके बाउल अनिवार्य से वे सिलाईदह में लगातार संवाद करते रहे हैं और लालन फकीर की रचनाओं को संकलित और प्रकाशित करने की पहल भी उन्होने ही की।

लालनगीति डाट काम में इसी का ब्यौरा इस प्रकार दिया गया हैः

রবীন্দ্রনাথ ও লালন সম্ভবত লালনের সঙ্গে রবীন্দ্রনাথের দেখা হয়নি। তবে সভ্য সমাজে লালনকে পরিচয় করিয়ে দিয়েছিলেন খোদ রবীন্দ্রনাথ। লালনের একটি গানে বেশ মোহিত হয়েছিলেন তিনি, 'খাঁচার ভেতর অচিন পাখি/কমনে আসে যায়।/ধরতে পারলে মনো-বেড়ি/দিতাম পাখির পায়।'দেহতত্ত্বের এ গানটিকে রবীন্দ্রনাথ ইংরেজি অনুবাদও করেছিলেন। তিনি চেয়েছিলেন গানের মর্মার্থ বোঝাতে। আর সে কারণেই বুঝি ১৯২৫ সালের ভারতীয় দর্শন মহাসভায় ইংরেজি বক্তৃতায় এই গানের উদ্ধৃতি দিয়েছিলেন। বলেছিলেন, অচিন পাখি দিয়ে সাধারণ মানুষের কাছে কত সহজে মরমি অনুভব পৌঁছে দিয়েছিলেন লালন। লালনের সঙ্গে দেখা না হলেও লালন-অনুসারীদের সঙ্গে দেখা হয়েছে রবিবাবুর। এক চিঠির মধ্যে পাওয়া যায় সেই কথা, 'তুমি তো দেখেছ শিলাইদহতে লালন শাহ ফকিরের শিষ্যদের সঙ্গে ঘণ্টার পর ঘণ্টা আমার কিরূপ আলাপ জমত। তারা গরিব। পোশাক-পরিচ্ছদ নাই। দেখলে বোঝার জো নাই তারা কত মহৎ। কিন্তু কত গভীর বিষয় সহজভাবে তারা বলতে পারত।'শুধু কি তাই! লালনের মৃত্যুর পর তাঁর গানের খাতাও সংগ্রহ করেছিলেন রবীন্দ্রনাথ। লালনগীতি সংগ্রাহক একজনকে লালনশিষ্য ভোলাই শা বলেছিলেন- 'দেখুন, রবিঠাকুর আমার গুরুর গান খুব ভালোবাসতেন, আমাদের খাতা তিনি নিয়ে গেছেন।'সেই খাতা গত শতকের শেষার্ধে পাওয়া যায় এবং প্রকাশিত হয়।

हम आनंदमठ के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के सच पर लगातार चर्चा करते रहे हैं और बंगाल के बाउल फकीर सूफी वैष्णव बौद्ध आंदोलनों पर भी लगातार चर्चा करते रहे हैं। कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर से संबंधित उपलब्ध सामग्री भी हम लगातार शेयर कर रहे हैं। करते रहेंगे।

बहुजनों को रवींद्र का दलित विमर्श समझ में आये तो उन्हें बहुजन आंदोलन की अल विरासत की समझ आयेगी और नस्ली वर्ण वर्चस्व का यह कारपोरेटफासिस्ट तिलिस्म भी टूटेगा।इस संवाद का मकसद यही है।


बीबीसी की ताजा खबर हैः

'संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का 'हिडेन एजेंडा' है'!

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए.

संघ प्रमुख भागवत ने हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और ज़रूरत है कि आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर ग़ौर किया जाए.

आरक्षण पर फिर से विचार हो: मोहन भागवत

'वेद और विज्ञान' पर मोहन भागवत के कमेंट को लेकर चर्चा

आरक्षण पर फिर से विचार हो: मोहन भागवत

आरएसएस का 'हिडेन एजेंडा'


भारतीय लोक गणराज्य और भारतीय संविधान के साथ नरसंहार संस्कृति के वध्य भारतीय जनगण को बचाने के लिए समता और न्याय, मनुष्यता, सभ्यता और प्रकृति, नागरिकता, आजीविका, जल जंगल जमीन, नागरिक अधिकार और मानवाधिकार के लिए निरंकुश नस्ली वर्चस्व की कारपोरेट राजकाज, राष्ट्रवाद और राजनीति के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सामंतवाद विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी एकताबद्ध जनप्रतिरोध की साझा विरासत से जुड़ने की सख्त जरुरत है।

यह साझा विरासत सीधे तौर पर आदिवासी किसानों के जनविद्रोहों की निरंतरता, बाउल फकीर आंदोलन,नील विद्रोह और भारतीय सूफी संत बाउल फकीर गुरु परंपरा की जमीन है तो बहुजन आंदोलन की हजारों साल की विरासत, बौद्धमय भारत और विविधता बहुलता सहिष्णुता की अनेकता में एकता की साझा विरासत है।

रवींद्र का दलित विमर्श का सार यही है।

रवींद्र उस भारतवर्ष के प्रतीक है कारपोरेट डिजिटल इंडिया का नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व जिसकी रोज हत्या कर रहा है।

नस्ली वर्चस्व की राष्ट्रवाद के प्रतिरोध के खिलाफ तथाकथित संन्यासी विद्रोह के आनंदमठ के झूठ के खिलाफ बाउल साधु फकीर आंदोलन का सच जानने की जरुरत है। संन्यासी फकीर आंदोलन और चुआड़ विद्रोह के तुरंत बाद शुरु संथाल मुंडा भील विद्रोह के साथ नील विद्रोह से भारत में महात्मा गौतम बुद्ध, वैष्णव बाउल,सन्यासी फकीर सूफी आंदोलन के साथ लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ का जाति तोड़ो आंदोलन एक तरफ तो दूसरी तरफ हरिचांद ठाकुर के मतुआ आंदोलन से गुरुचांद ठाकुर के चंडाल आंदोलन और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन एजंडा मिशन की शुरुआत महात्मा ज्योति बा फूले के शब्दों में बहुजनों की गुलामगिरि खत्म करने के लिए शुरु हो चुकी थी।

बहुजन विमर्श,आदिवासी विमर्श,दलित विमर्श,स्त्री विमर्श और रवींद्र के दलित विमर्श का प्रस्थानबिंदू यही आदिवासी दलित बहुजन किसान असल नवजागरण है,जो इतिहास और साहित्य में नहीं है।

ब्रह्म समाज आंदोलन और औपनिवेशिक ब्रिटिश राज से भी पहले पठान मुगल इस्लामी राजकाज के दौरान समाज सुधार आंदोलनों  नवजागरण की चर्चा खूब होती रही है लेकिन जाति तोड़ो अस्मिता तोड़ो के एकीकरण के बहुजन आंदोलन,आदिवासी किसान जनविद्रोहों के सिलिसिले में बाउल फकीर आंदोलन और लालन फकीर कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी के रवींद्र संगीत के दलित विमर्श पर चर्चा कभी नहीं हुई है।

बंगाल के बाहर बाकी भारत में रवींद्र और बाब डिलान के नोबेल पुरस्कार के सौजन्य से लालन फकीर के बारे में पढ़े लिखों को थोड़ी बहुत सूचना हो सकती है लेकिन दक्षिण एशिया में ग्रामीण पत्रकारिता की शुरुआत नील विद्रोह, बाउल फकीर आंदोलन और जमींदारों के प्रजा उत्पीड़न के प्रतिरोध बतौर शुरु करने वाले लालन फकीर के नवजागरण ब्रहमसमाज के समकालीन,समानंतर  जाति धर्म पहचान तोड़ो आंदोलन में सहयोगी,अनुयायी पत्रकार बाउल कंगाल हरिनाथ की चर्चा अभी शुरु नही हुई है।

बहुजनों के असल नवजागरण के हिंदुत्वकरण के इसी धतकरम से नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के नस्ली राष्ट्रवाद का जन्म औद्योगिक उत्पादन प्रणाली और ब्रिटिश राज में बहुजनों को मिले हकहकूक की वजह से टूटती जाति व्यवस्था आधारित मनुस्मृति प्रणाली की बहाली के लिए हुआ।इसे समझे बिना नरसंहारी कारपोरेट फासिज्म का प्रतिरोध मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

कंगाल हरिनाथ देवेंद्र नाथ टैगोर की जमींदारी के प्रजाजनों के प्रतिरोध के नेता थे और लालन फकीर के अखाडा़ के बाउल पत्रकार भी थे।वे एक साथ नीलसामंत देशी विदेशी काले गोरे शासकों का प्रतिरोध कर रहे थे तो वर्म वर्ग वर्चस्व के साहित्य कला माध्यम के खिलाफ वैकल्पिक पत्रकारिता की जमीन भी रच रहे थे और मजे की बात यह है कि अपनी ही जमींदारी के खिलाफ प्रतिरोध की यही लालन कंगाल जमीन ही रवींद्र रचनाधर्मिता में तब्दील हो गयी है।

जैसे बाउल फकीर आंदोलन का नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के हित में भगवाकरण हुआ,जैसे संतों सूफियों,फकीरों के सामंतविरोधी राजसत्ता और दैवीसत्तो के खिलाफ लोक जमीन के प्रतिरोध आंदोलन का भक्ति आंदोलन बतौर हिंदुत्वकरण हुआ,जैसे गौतम बुद्ध,महात्मा महावीर,गुरु नानक और गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी महाराज,चंडाल मतुआ आंदोलन,लिंगायत आंदोलन,द्रविड़ आंदोलन,अयंकाली और लोखांडे के आंदोलन महात्मा ज्योतिबा फूले और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के मिशन का हिंदुत्वकरण हुआ ,उसीतरह लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ के जाति तोड़ो आंदोलन का हिंदुत्वकरण हुआ और इसी के तहत रवींद्रनाथ का महिमामंडन और चरित्रहनन का सिलसिला बारतीयजनगण और खासतौर पर भारतीयबहुजन समाज को साझा विरासत की जमीन से बेदखल करने के लिए जारी है।

रवींद्र को विश्वकवि,ऋषि रवींद्र,कविगुरु बनाकर उन्हे लालन फकीर कंगाल हरिनाथ के दलित बहुजन विमर्श और आदिवासी किसान आंदोलन से अलग रखने का कार्यक्रम आनंद मठ का दूसरा पहलू है।

आज इसी मुद्दे पर हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। विस्तार से यह आलेख हस्तक्षेप पर पढ़ें। पूरा आलेख पढ़ने से पहले मेरे फेसबुक पेज पर संबंधित संदर्भ सामग्री बाउल फकीर आंदोलन,लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ के बारे में देख लें तो बेहतर।

लालनफकीर और कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी का ब्यौरा इसप्रकार हैः

কাঙাল হরিনাথের 'শখের বাউল'১৮৮০ সালের কথা। তখন গ্রীষ্মকাল। কাঙাল হরিনাথের জীবনে এক অভাবনীয় মুহূর্ত ছিল সেটা। তিনি লালনের গান শুনে মোহিত হয়ে পড়লেন। ভাবলেন নিজেও একটা বাউল গানের দল গড়বেন। তাঁর গ্রামবার্তা-প্রেসে কাজ করার সময় পাশে পেলেন অক্ষয় কুমার মৈত্রেয় ও জলধর সেনকে। ব্যস, জমে গেল সাঙ্গ। পাশে পণ্ডিত প্রসন্ন কুমার বললেন, 'নতুন করে গান তৈরি করতে হবে।'শুরু হলো কাজ। সে এক অপার্থিব দৃশ্য ছিল বটে। নকল বাউল গানের দল। গানের সঙ্গে ছিল নৃত্য। জলধর সেন সেই বর্ণনা দিয়েছিলেন চমৎকার করে, 'দেখিতেছি একদল ফকির; সকলেরই আলখাল্লা পরা, কাহারও মুখে কৃত্রিম দাড়ি, কাহারও মাথায় কৃত্রিম বাবরি চুল, সকলেরই নগ্ন পদ।'এই দল দেখেছিলেন প্রাণকৃষ্ণ অধিকারী। তাঁর বর্ণনা থেকে পাওয়া যায়, 'খেলকা, চুল, দাড়ি, টুপি ব্যবহার এবং কাহার কাহার পায়ে নূপুরও থাকিত। বাদ্যযন্ত্রের মধ্যে ডুগি, খোমকা, খুঞ্জুরি, একতারা প্রভৃতি ফকিরের সাজে তাহারা বাহির হইত। ফিকিরচাঁদ ফকিরের দল দেখিয়া শেষে গ্রামে গ্রামে অনেক দল সৃষ্টি হইল।'তবে এ কথা কিন্তু সত্যি লালন যা পারেননি, সেই কাজ করতে পেরেছিলেন তাঁরা। তাঁরা গানকে পৌঁছে দিয়েছিলেন বাংলার বিস্তৃত সীমানায়। লালনের গান চারদিকে যতটা ছড়িয়েছিল তার চেয়ে বেশি ছড়িয়েছিল নকল বাউলদের গান। অথচ লালনকে দেখে, তাঁর গান শুনে অনুপ্রাণিত হয়েই দল গড়েছিলেন কাঙাল হরিনাথ।(साभार लालनगीति डाट काम)

जाति व्यवस्था पर लालन फकीर ने जाति धर्म की पहचान पर चोट के जरिये प्रहार किया है जो संत कबीर की भाषा के अनुरुप हैः

'কেউ মালা কেউ তসবি গলায়/তাইতে যে জাত ভিন্ন বলায়- /যাওয়া কিংবা আসার বেলায়/জাতের চিহ্ন রয় কার রে।'

किसी के हाथों में माला है तो तसवी किसी के गले में।इसी से अलग जाति (धर्म) की पहचान है तो जाते वक्त (मृत्यु के समय) किसकी जाति की क्या पहचान होती है।

लालन फकीर की जीवनी लिखने वाले वसंत कुमार पाल ने उनकी धर्म जाति की किसी पहचतान को मानने से इंकार करते हुए लिखा हैः

'সাঁইজি হিন্দু কি মুসলমান, এ কথা আমিও স্থির বলিতে অক্ষম।'

कंगाल हरिनाथ ने जाति तोड़ो आंदोलन का ब्यौरा देते हुए लालन फकीर के जाति तोड़ो आंदोलन और वैष्णवों के गौरसभा आंदोलन की चर्चा अपने अखबार ग्रामवार्ता में इस तरह की हैः

গ্রামবার্ত্তা প্রকাশিকা'র প্রবন্ধ-নিবন্ধ, সম্পাদকীয়, উপ-সম্পাদকীয় ও সংবাদ নিবন্ধকার হরিনাথ মজুমদার নিজেই লিখতেন। সেই সূত্রে 'জাতি' নামক নিবন্ধে 'গ্রামবার্ত্তার' নিবন্ধকার লিখেছেন :

'...সকলেই ব্রাম্ম ও ধর্ম্মসভার নাম শুনিয়াছেন। গৌরসভা নামে নিম্নশ্রেণীর লোকেরা আর এক সভা স্থাপন করিয়াছেন। ইহার নির্দ্দিষ্ট স্থান নাই। গৌরবাদী বক্তা এক ২ পল্লীগ্রামে উপস্থিত হইয়া, সভা করিয়া গৌরাঙ্গের চরিত ও লীলা বর্ণনা করে, স্ত্রীপুরুষে ৩/৪ শত লোক এক ২ সভায় উপস্থিত থাকে। ইহারা স্বধম্র্মের মধ্যে, জাতিভেদ স্বীকার করেনা; কামার, কুমার, তেলি, জালিক, ছুতার প্রভৃতি সকলেই একসঙ্গে আহার করে। এই দলে মুসলমান আছে কিনা জানিতে পারা যায় নাই। লালনশাহ নামে এক কায়স্থ আর এক ধর্ম্ম আবিষ্কার করিয়াছে। হিন্দু-মুসলমান সকলেই এই সম্প্রদায়ভুক্ত। আমরা মাসিক পত্রিকায় ইহার বিশেষ বিবরণ প্রকাশ করিব। ৩/৪ বৎসরের মধ্যে এই সম্প্রদায় অতিশয় প্রবল হইয়াছে। ইহারা যে জাতিভেদ স্বীকার করে না সে কথা বলা বাহুল্য। এখন পাঠকগণ চিন্তা করিয়া দেখুন, এদিকে ব্রাহ্মধর্ম্ম জাতির পশ্চাতে খোঁচা মারিতেছে, ওদিকে গৌরবাদিরা তাহাকে আঘাত করিতেছে, আবার সে দিকে লালন সম্প্রদায়িরা, ইহার পরেও স্বেচ্ছাচারের তাড়না আছে। এখন জাতি তিষ্ঠিতে না পারিয়া, বাঘিনীর ন্যায় পলায়ন করিবার পথ দেখিতেছে।'

कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर की युगलबंदी के बारे इस ब्यौरे पर गौर करेंः

এখানে প্রসঙ্গক্রমে উল্লেখ্য যে সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়ের উপন্যাস অবলম্বনে গৌতম ঘোষ পরিচালিত চলচ্চিত্র 'মনের মানুষ'-এও সরাসরি উপস্থিতি দেখানো হয়েছে সাঁইজি লালনের সঙ্গে কাঙ্গাল হরিনাথ মজুমদার ও সাহিত্যিক মীর মশাররফ হোসেনকে (১৮৪৭-১৯১১)।

অন্যদিকে, কাঙ্গাল হরিনাথশিষ্য জলধর সেন (১৮৬০-১৯৩৯) সাঁইজি লালন কাঙ্গাল কুটিরে এসে সঙ্গীত পরিবেশনের পর হরিনাথ-শিষ্যদের মনে যে ভাব উদয় হয়েছিল এর বিবরণ দিয়েছেন তার রচিত কাঙ্গাল জীবনীতে :

'সে দিন প্রাতঃকালে লালন ফকির নামক একজন ফকির কাঙ্গালের সহিত সাক্ষাৎ করিতে আসিয়াছিলেন। লালন ফকির কুমারখালীর অদূরবর্তী কালীগঙ্গার তীরে বসবাস করিতেন। তাঁহার অনেক শিষ্য ছিল। তিনি কোন্ সম্প্রদায়ভুক্ত ছিলেন তাহা বলা বড় কঠিন, কারণ তিনি সকল সম্প্রদায়ের অতীত পেঁৗছিয়াছিলেন। তিনি বক্তৃতা করিতেন না, ধর্ম্মকথাও বলিতেন না। তাঁহার এক অমোঘ অস্ত্র ছিল তাহা বাউলের গান। তিনি সেই সকল গান করিয়া সকলকে মুগ্ধ করিতেন। ... সেই লালন ফকির কাঙালের কুটীরে, আমরা দিনের যে কথা বলিতেছি, সেই দিন আসিয়াছিলেন এবং কয়েকটি গান করিয়াছিলেন। সব কয়টী গান আমার মনে নাই; একটি গান মনে আছে। যথা_

আমি একদিনও না দেখেছিলাম তারে;

আমার ঘরের কাছে আরসী-নগর,

তাতে এক পড়সী বসত করে।'

অন্যদিকে, সাঁইজি লালনের গানের প্রেরণাতেই অক্ষয় কুমার মৈত্রের (১৮৬১-১৯৩০) মাথায় প্রথম বাউলের দল গঠনের চিন্তা আসে এবং পরে কাঙ্গাল হরিনাথের শিষ্যদল তা বাস্তবতায় রূপ দেয় 'ফিকির চাঁদ' নামে। সাঁইজি লালনের গানের সুরের প্রভাবে প্রভাবিত হয়ে কাঙ্গাল হরিনাথ প্রথম গান রচনা করেন :

'আমি করব রাখালী কতকাল...।'

এরপর হরিনাথ মজুমদার একের পর এক বাউল গান রচনা করতে থাকেন। কাঙ্গাল হরিনাথ ফিকির চাঁদের দল এবং বাউল গান রচনা প্রসঙ্গে তার দিনলিপিতে উল্লেখ করেছেন :

"শ্রীমান অক্ষয় ও শ্রীমান প্রফুল্লের গানগুলির মধ্যে আমি যে মাধুর্য্য পাইলাম, তাহাতে স্পষ্টই বুঝিতে পাইলাম। এই ভাবে সত্য, জ্ঞান ও প্রেম-সাধনাতত্ত্ব প্রচার করিলে, পৃথিবীর কিঞ্চিৎ সেবা হইতে পারে। এতএব কতিপয় গান রচনার দ্বারা তাহার স্রোত সত্য, জ্ঞান ও প্রেম-সাধনের উপায়স্বরূপ পরমার্থ-পথে ফিরাইয়া আনিলাম এবং ফিকিরচাঁদের আগে 'কাঙ্গাল' নাম দিয়া দলের নাম 'কাঙ্গাল-ফিকিরচাঁদ' রাখিয়া তদনুসারেই গীতাবলীর নাম করিলাম। ... অল্পদিনের মধ্যেই কাঙ্গাল ফিকিরচাঁদের গান নিম্নশ্রেণী হইতে উচ্চশ্রেণীর লোকের আনন্দকর হইয়া উঠিল। মাঠের চাষা, ঘাটের নেয়ে, পথের মুটে, বাজারের দোকানদার এবং তাহার উপর শ্রেণীর সকলেই প্রার্থনাসহকারে ডাকিয়া কাঙ্গাল ফিকিরচাঁদের গান শুনিতে লাগিলেন।'

সাঁইজি লালনের গান লালন-পালন ও সংগ্রহে যেমন গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা পালন করেছেন কাঙ্গাল হরিনাথ তেমনি কাঙ্গালের গানের পেছনে লালনের উৎসাহ-প্রেরণা ও লালন কর্তৃক প্রভাবিত হওয়ার প্রবণতারও উল্লেখযোগ্য প্রমাণ মেলে :

... কাঙ্গাল একদিন [লালন] ফকিরকে ডাকিয়া তাঁহার [কাঙ্গালের] রচিত কতগুলি গান শুনাইয়া জিজ্ঞাসা করিরেন, 'ভাই আমার এ কথাগুলি কেমন লাগিল?' ফকির হাসিয়া উত্তর দিলেন, 'তোমার এ ব্যঞ্জন বেশ হয়েছে, তবে নূনে কিছু কম আছে।'

লালনের এই উৎসাহ-প্রেরণা ও সুরের প্রভাবে পরবর্তীতে কাঙ্গাল হরিনাথের গান উত্তরোত্তর সহজ-সরল, সুন্দর ও শ্রুতিমধুর ভাবগাম্ভীর্যময় হয়েছিল।

আধ্যাত্মিক জীবনদর্শন ও বাউল গান রচনায় সাঁইজি লালন কর্তৃক যে কাঙ্গাল হরিনাথ প্রভাবিত হয়েছিলেন শুধু তা নয়, সাঁইজি লালন নিজেও কাঙ্গাল হরিনাথের উৎসাহ-প্রেরণায় প্রভাবিত হয়েছিলেন । যেমন কাঙ্গাল হরিনাথের এই গানটি_

যারা সব জাতের ছেলে, জাত নিয়ে যাক্ যমের হাতে।

বুঝেছি জাতের ধর্ম, কর্মভোগ কেবল জেতে

একই আঙ্গিকে লালনের গান_

সব লোকে কয় লালন কি জাত সংসারে।

লালন বলে জাতের কি রূপ দেখলাম না এ নজরে

অথবা কাঙ্গাল হরিনাথ রচিত_

এখন, আমার মনের মানুষ কোথা পাই।

যার তরে মনোখেদে প্রাণ কাঁদে সর্বদাই

সাঁইজি লালন রচিত_

মিলন হবে কত দিনে

আমার মনের মানুষেরই সনে

উপরের দুটি গানই ভাবের দিক থেকে একই সাদৃশ্যমূলক ও একে অন্যের সম্পূরক। সাময়িকপত্র সম্পাদনা, সংবাদ সংগ্রহ-প্রকাশ, সাহিত্যচর্চা ও প্রজানিপীড়নবৈরী কাঙ্গাল হরিনাথ মজুমদার লালনতীর্থে এসে সাঁইজির গানের সুরের স্পর্শে হয়ে ওঠেন আর এক নতুন বাউল সুরের সম্রাট। অন্যদিকে সাঁইজি লালন কাঙ্গাল স্পর্শে এবং মাঝেমধ্যে কুটিরে সমবেত হয়ে তার গান ও সুরের দ্যুতি ছড়িয়েছেন আধ্যাত্মিক জীবনদর্শন ও বাউল গানের মাধ্যমে। মানবপ্রেম, সমাজ সংস্কার ও জীবনের জয়গানের আলোর দ্যুতি ছড়ানোর দিক থেকে সাঁইজি লালন এবং কাঙ্গাল হরিনাথ ছিলেন একই চিন্তা, ধ্যান-ধারণার এক অভিন্ন সমীকরণের অধিকারী।

http://www.jaijaidinbd.com/…


कंगाल हरिनाथ फकीर की पत्रिका के बारे में बांग्ला पीडिया में लिखा हैः

Grambarta Prakashika influential nineteenth-century journal, first published in April 1863 under the editorship of kangal harinath Majumdar. In June-July 1864 it became a fortnightly and a weekly in April-May 1871. Initially it was printed at Girish Vidyaratna Press, Kolkata. In 1864 Grambarta was shifted to Mathuranath Press at Kumarkhali. In 1873 the Kumarkhali press was donated to Harinath by its owner, Mathuranath Moitreya.

Grambarta Prakaxika published articles on literature, philosophy, science etc. Reputed Bengali scholars used to write in the journal. rabindranath tagore's essays on literature, philosophy and science as well as poems were also published in it. The well-known Muslim writer mir mosharraf hossain began his literary activities through this paper for which he first worked as a mofussil correspondent. jaladhar sen, well-known as a writer of Himalayan travels and journalist, also began his literary career through this journal.

Harinath edited Grambarta Prakasika for 18 years. During this period he led a relentless struggle to promote education in Bengal and create public opinion against exploitation. He published articles exposing social and political wrongs, and his pen was particularly uncompromising against the oppression of British indigo farmers and moneylenders. [Md Masud Parvez]

http://en.banglapedia.org/index.php…


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