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फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय यह, हर चुनरी में लागा दाग!

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फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय यह, हर चुनरी में लागा दाग!


पलाश विश्वास

Forward Press

फारवर्ड प्रेस के दिसंबर अंक में आपने डॉ. आम्‍बेडकर पर विशेष सामग्री पढी। अब जनवरी, 2014 में पढिए सावित्री बाई फूले पर विशेष सामग्री। इस बार की कवर स्‍टोरी प्रसिद्ध दलित लेखिक Anita Bhartiने लिखी है।

नया अंक जल्‍दी ही स्‍टॉलों पर उपलब्‍ध होगा।

Like·  · Share· 2414· 17 hours ago·


आज  का संवाद

फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय यह, हर चुनरी में लागा दाग

Farook Shahइन सब से निर्माण हो गई है कई सारी फर्जी भाषाएँ और उनके व्याकरण. सच का भेष बनाकर घुमती डोलती, सच का भ्रांत दिशाएं निर्मित करने में गैर-इस्तेमाल करती छलने वाली भाषाएँ... आखिर तो ले डूबेगी सब कुछ बचा-खुचा.

42 minutes ago· Like

Buddhi Lal Pal· 130 mutual friends

Kamal ka sondrya shastra ki khoj ki gai hai..jaise sondrya ka kurupan..badhai

52 minutes ago via mobile· Like



C Sekhar Mumbai commented on your post in Support India's indigenous peoples' rights to natural & cultural resources.

*

C Sekhar Mumbai

10:52pm Dec 22

ALL forms of oppressions are being strengthened under NEO -COLONIAL globalisation process . So all efforts of all oppressed sections for liberations , WILL have to be Oriented against globalisation [[[ against corporate rule ]





মহাকাল বিয়ন্ড দ্যা টাইম commented on your post in Conscious Bengal সচেতন বাংলা.

*

দেবযানীকে এই কারণে যদি গ্রেপ্তার করা না যায় তাহলেই এটা দুঃখের । ভিয়েনা চুক্তি তো একটা চুক্তি মাত্র । মানুষের মুক্তির সংগ্রামে, শ্রমের মুক্তির সংগ্রামে এই চুক্তি নুতন ভাবে করে হবে । শুধুই টাকা কম দেওয়া নয়,গৃহকর্মীদের সাথে কি ব্যবহার হয় তার কিছু নমুনা নিচের ভিডিও টাতে দেখুন। ...........


http://www.bbc.co.uk/news/world-us-canada-25473825





DN Yadav (friends with Aibsf Jnu) also commented on Virendra Yadav's status.

DN wrote: "मुझे तो आजकल " दो बाँके " के उस्ताद बार बार याद आते है। वही अदा, वही भंगिमा और वही स्वांग ........ भारतीय राजनीति का अद्भुत दृश्य देखने को मिल रहा है......."







Urmilesh Urmil also commented on his post.

Urmilesh wrote: "धन्यवाद, मित्र पलाश।"




जय भीम कुरुक्षेत्र भारत commented on your post in Lord Buddha TV.

*

श्रीमान पलाश जी, मुझे नहीं लगता की जब तक हम सब एक होकर सभी वर्गों को अपने साथ लेकर नहीं चलेंगे या उन्हें अपनी ओर नहीं ले कर आयेंगे तब तक हमारा अंतिम लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता ...




Castists have harmed the left movement the most - up to the hilt - do you have any point against it?

तेइस साल महानगर कोलकाता में हो गये।नैनीताल से उतरकर मैदान में सबसे पहले इलाहाबाद पहुंचा था 1979 में प्राध्यापकी के लिए अंग्रेजी में शोध करने। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गाइड के साथ पटी नहीं तो कवि मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के सुझाव पर उर्मिलेश के साथ जेएनयू में जाकर पूर्वांचल में उनके कमरे में डेरा डालकर खर्च चलाने के लिए दिल्ली में फ्रीलांचिग शुरु की।दिल्ली से मन उकताने लगा तो फिर नैनीताल पहुंच गया। जेएनयू में नया सेशन शुरु होता इससे पहले उर्मिलेश धनबाद पहुंच गये मदन कश्यप से मिलने। लौटा तो मुझे संदेश भेजकर महीने दो महीने धनबाद जाकर आवाज में पत्रकारिता का सुझाव दे डाला। उत्तराखंडी होने के कारण झारखंड और छत्तीसगढ़ से अपनापा था ही और सीधे पहुंच गया धनबाद।पत्रकारिता की शुरुआत कोयला खानों से जो शुरु हुई तो फिर पीछे देखने का मौका ही नहीं मिला।विवाह 1983 में हुआ।सविता धनबाद पहुंच गयी।फिर हम रांची चले गये। वहां से 1984 में मेरठ पहुंचे। वहां से 90 में बरेली।फिर वहां से 1991 में कोलकाता।


लेकिन मेरी दृष्टि तबसे आजतक नही बदली। मेरा अवस्थान नहीं बदला। जैसे अपने गांव बसंतीपुर में अपने खेतों पर खड़ा होकर पूरा का पूरा हिमालय मेरी आंखों में हुआ करता था,आज भी हिमालय मेरी आंखों में है।हिमालय को अलग रखकर मैं किसी विमर्श में शामिल हो ही नहीं सकता। हालांकि हिमालय से आज हजार मील दूर हूं। लेकिन मेरा गांव अब भी हिमालय की तराई में हैं।बसंतीपुर के वे लोग, समूची पीढ़ी अब मेरा अतीत है।


बिना नागा मेरे भाई का फोन आता है सविता को। मुझे भी। एक ही सवाल ,घर कब लौटोगे।पद्दोलोचन या राजीव दाज्यू के इस सवाल का जवाब आज भी मेरे पास नहीं है।


पिताजी पुलिनबाबू की स्मृति में फुटबाल प्रतियोगिता दिनेशपुर में शुरु हो चुकी है।इस बार उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश की भी काफी टीमें हैं। मैं वहां पहुंच ही नहीं सकता। हालांकि बंगाल और कोलकाता में मेरा कुछ भी नहीं है।


आज ही राजीव नयन बहुगुणा के फेसबुक पोस्ट पर मैंने लिखाः


ऎसी तस्वीरे पोस्ट न करें ।वक्त बहुत स‌ंदेहमय है।किसी दिन आप पर भी छुआछूत का आरोप लग जाये तो फिर स‌फाई देते रहियेगा और स‌ुनवाई कहीं नहीं होगी।नयनदाज्यू,हम बेहद खतरनाक दौर स‌े गुजर रहे हैं।जहां स‌ंवेदनाएं और स‌ारे कला माध्यम यौनगंधी हो गये हैं।हम स‌ब लोग बिग बास के पात्र हैं।


पहाड़ से मेरा संवाद कुछ इसीतरह का अविराम जारी है।


लेकिन अपने गांव में अपने खेत पर खड़े हिमालय को आंखों में भरने का सपना पूरा करनेकी मोहलत शायद जिंदगी अब कभी न दे। सविता की तबीयत खराब रहने लगी है। मैं तो अपने कामकाज में इतना व्यस्त रहता हूं कि अच्छी बुरी सेहत का कोई अहसास नहीं होता।


आज के विमर्श से इस प्रस्तावना का संबंध है भी और नहीं भी है।

दिल्ली में जनसुनवाई के मार्फत देश की पहली सरकार बन रही है।जबकि कारपोरेट राज के कायाकल्प की सारी तैयारियां चाकचौबंद हैं।

जुड़वां ईश्वर की प्रणप्रतिष्ठा हो गयी है।

मोदी ने गर्जना रैली में दस हजार चायवालों को वीआईपी बना दिया।

लोकपाल के जरिये भ्रष्टाचार के मुद्दे को खत्म करने में कामयाबी के बाद दिल्ली में खारिज कांग्रेस ने आप की सरकार बनवाकर लोकसभा चुनावों में सत्ता बेदखल होने के बावजूद फिर सत्ता में वापसी के तमाम दरवाजे और खिड़कियां खोल दी हैं।


इसके जवाब में जन पक्षधरता के मोर्चे पर यथास्थिति बनी हुई है।


आज की पारमाणविक रासायनिक जैविक बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक वैश्विक युद्ध तंत्र के प्रतिरोध के सवाल पर हमारे मुकाबले के मोर्चे पर अब भी मध्ययुगीन ढाल तलवार,तीर कमान, भाले का विमर्श चल रहा है। जैसे हम इक्कीसवीं सदी में नहीं,अब भी बीसवीं सदी में जी रहे हैं। हमारे तौर तरीके, हमारे मुद्दे,हमारे मुहावरे अति उच्चतकनीकी दक्षता के बावजूद अब भी सामती हैं। हम उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के विचारों,विमर्श और मानसिकता में जी रहे हैं।


संवाद के सारे आयोजन सत्ता पक्ष की ओर से है और उन्हीं के प्रवक्ता बतौर लोग लिख बोल चल रहे हैं। जनादेश उन्ही की रचना है,जिसे हम मौलिक और असली मानकर जस्न मना रहे हैं। जनसुनवाई उन्हीं के पक्ष को मजबूत बनाने की परिक्लपना है और फिक्स्ड मैच जीत लेने के उत्साह में हैं हम।जबकि बदल कुछ भी नहीं रहा है।बदलाव का सपना ही मर गया है। सपनों की लाशें ठोते हुए हम सारे लोग फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय जी रहे हैं और खुशफहमी हैं कि परिवर्तन हो रहा है।कबंधों की कोई दृष्टि होती नहीं है।कबंध सिर्फ जिंदा लोगों को काटकर उन्हें भी कबंद बना  देने की परिकल्पना में जीते हैं।


संघ परिवार के तौर तरीको को देख लें या कांग्रेस के गिर गिरकर उठ खड़े होकर सबकुछ अपने नियंत्रण में रखने की दक्षता समझ लें।


मसलन गैर जरुरी और बेहद खतरनाक वैक्सीन कार्यक्रम,एड्स कारोबार सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार है इन दिनों।


सबसे ज्यादा संवाद, सबसे ज्यादा संदेश कारपोरेट प्रायोजित कार्यक्रमं में हैं जबकि हम संवाद के लिए  तैयार हैं ही नहीं। सत्ता वर्ग और कारपोरेट तबका गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता के बावजूद,राजनीति अस्थिरता और अल्पमत सरकारों के बावजूद लोकतांत्रिक तौर तरीका का दिकावा करते हुए निरंकुश अश्वमेध अभियानजारी रखे हुए हैं।जनांदोलनों से हमें बेदखल कर दिया उन्होंने ।जो भी आंदोलन जारी है,उनकी फंडिंग से चल रहा है उनका ही हित साधने के लिए।हमारी भाषाओं,माध्यमों, विधाओं, लोक, मुहावरों पर भी उन्हीं का कब्जा है।


आपस में घमासान करने वाले जनपक्षधर तबको से निवेदन है कि इस युद्धक बंदोबस्त में प्रतिरोध की बात रही दूर,आत्मरक्षा के लिए हम क्या कर पा रहे हैं।


हम जनशत्रुओं के विरुद्ध कोई मोर्चा पिछले बीस साल के दौरान कोल नहीं सके हैं। जितने मोर्चे खोले गये हैं सब जनपक्षधर तबकों ने एक दूसरे के खिलाफ को खोले हैं। हम असहाय अपने ही लोगों के वार से अपनों को लहूलुहान होते देख रहे हैं, मरते खपते देख रहे हैं।


हमारे विमर्श राजधानी केंद्रित हैं और जनपद और देहात कही ंहै ही नहीं।

हमारे दृष्टि में कोई हिमालय है नहीं,कोई समुंदर नहीं है,कोई महाअरण्य भी नहीं और न कोई रण है या रेगिस्तान। हम अपने इतिहास और भूगोल से बेदखल स्वार्थी पीढियों का जमावड़ा हैं।


जिन सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी से बदलाव का ख्वाब हम देख सकते हैं,कारपोरेट हित साधने के लिए अलग अलग अस्मिता और पहचान के तहत वे सारी की सारी आपसी मारकाट में उलझी हुई हैं।यह महज निजी विवादों का निपटारा का मामला नहीं है,घनघोर समाजाजिक विखंडन का मामला है जिससे सिर्फ मुक्त बाजार उन्मुक्त होता है।


हमारे पास कोई भाषा नहीं है।कोई मुहावरा नहीं है।कोई माध्यम नहीं है।जो हम इस खंड विखंड देश को देश बेचने वाले सौदागरो ं सेबचा सकें या बचाने की सोच भी सकें।सार विद्वतजन,सारी मेधायें बस इसी कवायद में लगी है कि इस देश को कितने और टुकड़ों में बांटा जा सकें ताकि पूरा देश हिमालय, पूर्वोत्तर,मध्य़भारत या तमाम आदिवासी इलाकों की तरह अनंत वधस्थल में तब्दील हो सकें।


सीआईए नाटो की आधार परियोजना,अमेरिकी खुफिया निगरानी,विनिवेश, बेरोजगारी, मंहगाई मूल्यवृद्धि, जरुरी बुनियादी सेवाओं को क्रयशक्ति से नत्थी करने की कवायद, जल जंगल जमीन आजीविकाऔर नागरिकता से बेदखली,तबाह कृषि और आत्महत्या करे किसान, मजूरों के कटे हाथ, ठेके पर नौकरी,भूमि सुधार जैसे मुद्दों के बजाय आइकनों की चर्चा में हम मशगुल हैं। व्यक्ति केंद्रिक मुद्दे हैं सारे के सारे। पूरे देश को एक नक्शे के तहत जोड़ने की कोई पहली ही नहीं  हो पा रही है।


हमसे तो वे लोग बेहतर थे,जिनकी हम नालायक संताने हैं। उन पुरखों को भी तो हम आपसे में लड़ने के सबसे अचूक हथियार बना चुके हैं।


हमारे विध्वंस के सारे इंताजाम हम ही कर रहे हैं। हमीं तो।

हम हर चुनरी में दाग खोज रहे हैं।

अब कोई चुनरी ही बच नहीं रही जिसमें दाग न हो।

और तो और वह घर भी नहीं बचा,जहा वापस लौटने की चिंता है।

बहुत कम लिखा है।हमसे बेहतर लिखने,बेहतर बोलने वाले लाखों करोड़ हैं और हमें हमें उनकी बंद जुबान खोलने की चाबी की तलाश है। कलम और उंगलियों पर जो कंडोम लगा है, उसमें अभिव्यक्ति कैद हो गयी है हमेशा के लिए। हम कम ही लिख रहे हैं।इसे कुछ ज्यादा ही आप समझेंगे ,इसी उम्मीद के साथ आज के लिए बस इतना ही।


AAP on course to form govt in Delhi, Arvind Kejriwal promises to deliver

Dipankar Ghose , Aditi Vatsa : New Delhi, Sun Dec 22 2013, 22:33 hrs


People at a majority of places said 'yes' to formation of government with the support from Congress, said Kejriwal.

The Arvind Kejriwal-led Aam Aadmi Party (AAP) looks set to stake claim to form the government in Delhi, with a meeting scheduled with Lieutenant Governor Najeeb Jung on Monday afternoon. Party officials said the AAP's senior leadership would announce the decision prior to the meeting.

Kejriwal himself seemed to indicate that a government would be formed. "We will deliver whatever assurances we have made in ourmanifesto. It was prepared after wide consultations and a lot of thought went into it. Moreover, the people of Delhi are expecting much more from us and we will perform," he said, addressing a jan sabha in New Delhi area where he beat incumbent Chief Minister Sheila Dikshit by 25,864 votes.

He, however, added that a final decision would be taken after collection of data on the opinion of the people from all over the city.

While collation of data of the party's "referendum" was conducted through Sunday evening, sources indicated that the "people's response has been overwhelmingly in favour of forming a government with outside support from the Congress".

"At the jan sabhas, and in the messages that we have received, people have by and large been supportive of AAP forming the government," said party leader Manish Sisodia.

Addressing another jan sabha in Sarojini Nagar, his last for the day, Kejriwal said, "I am leaving you with one promise... if we form the  government, five people will not take decisions in a closed room. We will come to you over and over again, and ask you what you want."

Following charges that the AAP would not be able to fulfill its poll promises, Kejriwal said, "I do not say that God has given brains only to us to solve all the problems. Koi jadu ki chhadi nahi hai (there is no magic wand). But I know that if the people of Delhi stand together, we can do anything. People used to tell us that we can't do anything. But even now, there is a long road ahead. Abhi safai aur vikas karna hai (We have to clean the system and focus on development)."


http://www.indianexpress.com/news/aap-on-course-to-form-govt-in-delhi-arvind-kejriwal-promises-to-deliver/1210592/

Surendra Grover

फेसबुक ने ज़ुबानों को कुछ नए आयाम दिए हैं.. अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता पूरे तौर पर दी है.. इतनी दे दी है कि छोटे - बड़े का लिहाज़ मुरव्वत यहाँ कोई मायने नहीं रखता.. अनुभवों के मायनों से किसी को मतलब नहीं.. गाली गलौच और धमकियों की भाषा आम हो चुकी है.. वाह मार्क जुकरबर्ग वाह..

Like·  · Share· 2 hours ago·

Palash Biswasऎसा वही लोग कर रहे हैं,जिन्हें निजी जीवन में भी स‌ंवाद और स‌ंयम,मातृभाषा ौर माध्यमों के ुपयोग का न अभ्यास है और न तहजीब।

Sudha Raje

जानबूझकर मौन रहा जो वही समय का पापी है ।

और बताने वाला खंडित सच को केवल हत्यारा ।

छुपा लिया है जिसने सच का दस्तावेज़ किताबों में ।

सुधा देखना घर से दर- दर धुँआ बनेगा अंगारा ।

मौन जानकर मौन रहा जो नेत्रहीन लोचनवाला

वही देखना वही नोंच लेगा अपने दृग दोबारा ।

काल कर्म की कठिन कसौटी केवल निर्मम सत्य सुधा ।

मृत्यु उन्हें भी तो आयेगी समर अभी बाकी सारा

Copy right

सुधा राजे

©®

Palash Biswasस‌ुधा,तुम्हें मालूम हो या नहीं,लेकिन हमें मालूम है कि तुम हमारे परिवार में हो।पहाड़ों में तो खासकर अपने कुमाय़ूं में स‌बसे अपनों के स‌ाथ यानी इजा बाज्यू के स‌ाथ भी तो हम तू स‌ंबोधन स‌े बात करते हैं।इसीलिये बेहिचक तुम्हें तुम स‌ंबोधित करता हूं।देशना यह किसी विमर्श विवाद का विषय न बन जाये।हम चाहते हैं कि हमारे रोजाना स‌ंवाद के विषयपर तुम अपने कवित्व का थोड़ा स‌हयोग दो तो हमें विषय विस्तार को काव्यात्मक ढग स‌े खोलने में भारी मदद मिल स‌केगी।तुम स‌मर्थ हो इसीलिए।


Sudha Raje

एक महा विद्वान की पोस्ट पर एक ""शराब पीने वाली स्त्री को एक तथाकथित विदवान ""बिना लायसेंस वाली वेश्यायें ""


कह रहे हैं ।


अगर आप सबने हमारे विगत दो महीनो के लेख पढ़े होंगे तो हमने


""नशा और शराब को सख्त मना किया है स्त्री के लिये और नशा करने वाले पुरुष पर किसी भी हालत में कतई तक भी विश्वास ना करने को कहा है ।


किंतु

सवाल ये है कि भारत की बङी आबादी जो जंगलों में रहती है


पहाङो और रेतीलों में रहती है


वहाँ वनवासी और खानाबदोश


मजे से बिना किसी भेदभाव के

शराब पीते और नाचते गाते हैं ।

और उनमें उतनी सभ्यता नहीं कि वे जाम बनाये


मगर वहाँ औरतों पर शोषण अत्याचार नगण्य हैं ।


वे मजे से रहती है और नाचती गाती जोङियाँ सुख से मेहनतकश जीवन जीती हैं ।


गाँवों में प्रौढ़ महिलायें हुक्का बीङी और भाँग खूब पीती है और कतई उनको कोई बदचलन या वेश्या नहीं कहता है ।


पुरुषों के साथ नाचना गाना मेला उत्सव जाना ये सब बाते भारत के वनवासी जीवन का अनिवार्य अंग है ।


तो सोचने वाली बात है

कि

आधपनिकता के नाम पर जो महिलायें शराब नशा करतीं हैं और पुरुषों के बीच हँसती गाती दोस्ती यारी की बातें बराबरी की बातें करतीं है ।

वे पीठ पीछे उन्ही मंडली वालों द्वारा ""क्या समझी ""

जाती हैं???


ग़ौर करें सोच को जब तक आपके सामने व्यक्त ना किया जाये आप सामने वाले को भला मानुष और खुले मन का साफ इंसान समझतीं रहेगी वह यार यार कहके बात करता रहेगा कंधे पर सिर पर पीठ पर हाथ रखकर गले लगाकर अनुमति का दायरा बढ़ाता रहेगा ।

आप

मॉडर्निटी के चक्कर में सब अवॉईड करती रहोगी

और शराब पीने के बाद उसी मंडली में से कुछ तथाकथित लोग उस हँसने बतियाने शऱाब पीने वाली लङकी को ""बिना लायसेंस वाली वेश्या ""भी समझ लेंगे ।


यही अंतर है

भारतीय और बल्कि एशियाई समाज में ""जितना नगरीकरण और तकनीकी जीवन होता जाता है मर्दवादी सोच उतनी ही गिरती चली जाती है।


एक

समय जींस पहननेवाली लङकी को चालू समझा जाता था ।

आप समझें या न समझें भारतीय मर्दवादी समाज जितना नौकरीपेशा पुरुष वर्ग लेखक शिक्षक धार्मिक नेतृत्व समुदाय घटिया सोचता है उतना कोई नहीं ।

आज भी गाँवों की मेहनतकश दलित और वनवासी महिलायें बङी संख्या में शराब बनाती बेचती पीती पिलाती है उनकी आजीविका का साधन तेंदूपत्ता बीङी महुआ शराब गाँजा भाँग अफीम है।

इसी से सोच का पता चलता है ।

बङी संख्या में पारंपरिक परिवारों में महिलायें पान खातीं है


किंतु

आजके महानहरों में जहाँ हर दूसरे तीसरे की जेब में गुटखा सिगरेट बीङी होता है ।पान की दुकान पर जमघट लगा रहता है ।

पान खाने वाली स्त्री बस ऑटो दफतर कहीं दिख जाये तो सबकी भवों पर बल पङ पङ जाते हैं चालू लगने लगती है वह।


ये है पढ़ा लिखा नगरीय मर्दवादी मुख्य समाज


जो मानता है कि अपनी मरजी से ज़ीने का हक़ सिर्फ उसको है ।

स्त्रियाँ सिर्फ पुरुषों के बनाये नियमों पर ही चल सकतीं हैं।

गज़ब!

ये कि ये ही लोग दफतर घर बाहर महिला को

शराब सिगरेट पान नशा ऑफर करके खुलकर जीने पीने नाचने गाने को हक बताते हैं।

सोचो लङकियो!!

जब कहीं पार्टी में आईन्दा ऐसा ऑफर मिले तब ग़ौर देना कि वहाँ लोग समझ क्या रहे हैं।

©सुधा राजे

Like·  · Share· 9 hours ago·

  • Sudha Raje, Vishwas Meshram and 24 others like this.

  • 1 share

  • View 28 more comments

  • Sudha Rajeये अगर उलट दें कि दादी नानी माँ काकी की उमर की स्त्री अट्ठारह बीस साल के लङके को पटाये कि सहमत हो??? और अगर उस पर आरोप लगे कि वह दुष्टा है तो कह दे कि सहमति ले ली थी!!!!!! क्योंकि कुदरतन तो स्त्री बिना सहमति के पुरुष को यूज कर ही नहीं सकती न!!!!!

  • 25 minutes ago via mobile· Like· 1

  • Anju Mishra Bahut sundar...

  • Ye mansikta kab badlegi..

  • 22 minutes ago via mobile· Like· 1

  • Sudha Rajeसब औरते जब एक साथ खङी होगी स्त्री के हक़ और हमले शोषण छल के खिलाफ

  • 20 minutes ago via mobile· Like

  • Rakesh Kumar Mind blowing!

  • 15 minutes ago via mobile· Like

Nityanand Gayen

उठते देखा

ढलते देखा

अपना रुख बदलते देखा

लड़ते देखा

फिर मैदान से भागते देखा

तुम्हें योद्धा कहूँ

या रणछोड़ ..


चलो ....कुछ नही कहना

यहाँ मौजूद हैं

वीरों के वीर

जिनके पास हैं

नैतिकता , ईमानदारी , सत्य के प्रवचन

सिर्फ औरों के लिए

गिरगिट ने पहचान लिया था इन्हें

मुझसे पहले


अच्छा ....अब ठीक है

मैं बोका निकला इस बार भी

Like·  · Share· 17 hours ago near Hyderabad· Edited·

Palash Biswasमोर्चे पर जमने की बारी आपकी भी है,प्रिय नित्यानंद गायेन।

a few seconds ago· Like


S.r. Darapuri and Anu Ramdas shared a link.

The Other Side Of The Story | Debarshi Dasgupta

outlookindia.com

In the petition that her husband filed back home, Phillip details the excesses his wife suffered while in Devyani's employ

Anu Ramdas

sangeeta's side of the story in a mainstream magazine:


'"The treatment of Sangeeta by Devyani Khobragade is tantamount to keeping a person in slavery-like conditions or keeping a person in bondage."

Urmilesh Urmil

मीडिया मंथन(21 दिसम्बर, शनिवार) के ताजा एपिसोड में इस बार हमने तमाशे पर दबती खबरों पर चर्चा की। चर्चा के दौरान के दो चित्र।

Like·  · Share· about an hour ago·

Palash Biswasउर्मिलेश भाई,आपकी लेखकीय &मता के मद्देनजर आपसे और कारगर पहल की उम्मीद है।हम अपने मोर्चे पर हमेशा आपके िंतजार में हैं।


Sunil Khobragade

http://www.canarytrap.in/2013/12/19/was-devyani-khobragades-domestic-help-a-spy/

Was Devyani Khobragade's domestic help a Spy? | Canary Trap

canarytrap.in

Home › Security & Intel › Was Devyani Khobragade's domestic help a Spy? Was Devyani Khobragade's domestic help a Spy? By CT - Published: 12/19/2013 - Section: Security & IntelBY RSN SINGHWhen the senior officer in R&AW Mr Ravinder Singh was spirited away with his family by the Americans, the then Na...

Like·  · Share· 26 minutes ago·

Uttam Sengupta

There is certainly much more than meet the eyes. But two things are clear. One, the inefficiency and incompetence of the Indian Foreign Service and MEA. Two, their arrogance. I have heard many Indians complain about the rudeness of Indian missions abroad. Fathers of several abandoned wives of NRIs in Punjab keep complaining about the indifference they faced at these missions. I find it difficult to sympathise with our diplomats.

T N Ninan: Diplomacy, then & now

business-standard.com

Reading The Blood Telegram, Gary Bass' riveting account of the run-up to the Bangladesh war, amidst the din over the arrest of an Indian diplomat in New York, provides some interesting comparisons. In 1971, as Mr Bass reports, Indira Gandhi and

Like·  · Share· 18 hours ago·

Ak Pankaj

वैसे खुर्शीद के जाने का प्रतिशोध हम उस लड़की से नहीं ले सकते जिसने उन पर आरोप लगाया। उल्टे उस लड़की को बचाना ज़रूरी है। क्योंकि यह ख़ुर्शीद को भी मंज़ूर नहीं होता कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली कोई लड़की सिर्फ इसलिए प्रताड़ित की जाए कि उसने इसे मुद्दा बनाया। फिर दुहराने की इच्छा होती है कि हमारे समाज में लड़कियां अब भी बहुत अरक्षित हैं और उनका बचाव करके ही हम ख़ुर्शीद अनवर को बचा सकते हैं। दुर्भाग्य से हमारे बीच बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो ऐसी पीड़ित लड़कियों और उनके आरोपों का इस्तेमाल हथियार की तरह करते हैं जिसका नतीजा ख़ुर्शीद जैसे संवेदनशील लोगों की मौत में होता है। अच्छा होता कि इस मामले की करीने से जांच होती और ख़ुर्शीद उस न्याय को स्वीकार करने के लिए, ज़रूरी होने पर अपने हिस्से की सज़ा काटने के लिए भी, बचे होते। लेकिन फिलहाल यह हालत है कि ख़ुर्शीद तो सारे कठघरे तोड़कर चले गए हैं और वे लोग कठघरे में हैं जो बिल्कुल फ़ैसले सुनाने पर आमादा थे।

Priya Darshan

खुर्शीद अनवर पर मेरी यह टिप्पणी आज जनसत्ता में आई है। कठघरों के पार ख़ुर्शीद जनसत्ता के संपादक थानवी जी के घर ख़ुर्शीद अनवर के साथ एक बहुत प्यारी और लंबी मुल...See More

Priya Darshan

खुर्शीद अनवर पर मेरी यह टिप्पणी आज जनसत्ता में आई है।


कठघरों के पार ख़ुर्शीद


जनसत्ता के संपादक थानवी जी के घर ख़ुर्शीद अनवर के साथ एक बहुत प्यारी और लंबी मुलाकात वह इकलौती थाती है जो हम दोनों ने साझा की थी। मेरे सकुचाए हुए स्वभाव के बावजूद ख़ुर्शीद अनवर की गर्मजोशी में कुछ ऐसा था जिसने औपचारिकता के अक्षांश-देशांतर मिटा दिए थे। बाद में उन्हें क़रीब से देखता और एक लगाव महसूस करता रहा। हर रंग के कठमुल्लेपन के ख़िलाफ़ और हर तरह की प्रगतिशीलता के हक़ में जैसे उन्होंने एक जंग छे...Continue Reading

Palash Biswasपढ़ ली है।सहमत।


Samit Carr via Alok Tiwari

Alok Tiwari likes a link.

स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी ने कहा, जवान रहने के लिए कई सांसद लेते हैं दवा: और बाबा रामदेव जी के आयुर्वेद को गाली देते हैं,

स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी ने कहा, जवान रहने के लिए कई सांसद लेते हैं दवा | PrabhatKhabar.com :...

prabhatkhabar.com

देश के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने सनसनीखेज जानकारी दी है. आजाद ने कहा है कि देश के कई सांसद जवान बने रहने और स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए आयुर्वेद की दवाइयां खाते हैं.

Like·  · Share· about an hour ago·


Surendra GroverMedia Darbar

क्यों नहीं राजनीतिक दल अपने खातों और चुनाव प्रबंधन सहित विभिन्न खर्चों को सूचना के अधिकार के तहत लाना चाहते हैं. इस खेल में सारी पार्टियां और उसके कथित साफ-सुथरी छवि के ईमानदार नेता शामिल है...

Read more: http://mediadarbar.com/25229/conscious-of-losing-everything-if-he-did/

सबकुछ गंवा के होश में आए तो क्या किया…मीडिया दरबार « मीडिया दरबार

mediadarbar.com

-हरेश कुमार|| चार राज्यों में बुरी तरह से चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष और पीएम पद के उम्मीदवार राहुल गांधी को भ्रष्टाचार एक समस्या नज

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Jagadishwar Chaturvedi

दारु और मिठाई की लत बेहद ख़तरनाक होती है । यह अंततः शरीर खा जाती है ।

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BBC World News

A long winter for Christians in the Middle Easthttp://www.bbc.co.uk/news/magazine-25463722

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Reservation in Private Sector: An Overview of the Proposition- Dr. Anand Teltumbde

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http://toanewdawn.blogspot.in/2012/07/reservation-in-private-sector-overview.html


Ak Pankaj

उन सारी स्त्रियों का बलात्कार नहीं हुआ जो 'कृष्ण'की रासलीला में बंशी की 'धुन पर मदहोश'होकर आया करती थीं.

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Surendra Grover

कामरेड का अर्थ वामपंथी होना कत्तई नहीं बल्कि "कामरेड" एक ऐसा संबोधन है जो सारे भेद मिटा देता है..

Tara Shanker

कुछ लोग 'कामरेड'संबोधन से ही जल भुन जाते हैं! दरअसल वो वामपंथ के अंखमुदवा आलोचक होते हैं और 'कामरेड'शब्द को वामपंथ से ही जोड़के देखते हैं! दोस्त 'कामरेड'शब्द उस बराबरी का नाम है जो समाज में बने संबोधन के पदानुक्रम का विरोध करता है! इसका मतलब होता है साथी या दोस्त जो आया ही था मिस्टर, मिसेज, मी लार्ड, माय लेडी जैसे विभेदकारी संबोधनों को समाप्त करने के लिए! ये स्पेनिश शब्द है जो फ्रेंच रेवोलुशन में मशहूर हुआ! 'कामरेड'होने के लिए आपका वामपंथी होना कोई शर्त नहीं मेरे भाई!

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Gladson Dungdung added 4 new photos to the album Development or Destruction?

Today, we had a meeting in Okba village of Basia block comes under Gumla district in Jharkhand. The Power Grid Corporation of India has cut down thousands and thousands of old trees of the Adivasis, their land was also captured and harvest was also destroyed. The most unfortunate part is they were neither informed nor consented. The govt promised them to provide adequate compensation but they're still waiting for it. Today, we have decided to start another mass movement against the injustice done to the villages in the name of growth and development. The authority also didn't plant a single tree after cutting thousands of those. You can also join us. We'll be having a mass public programme near the project office of PGCOI at Sisai on 10th of January, 2014.

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Virendra Yadav

जो वन्दे मातरम की हुंकार भरते हैं और देश भर में भारत माता का जयकारा लगाते हैं वही मुम्बई में क्यों भारत को इंडिया बना कर 'वोट फार इंडिया ' का नया नारा देते हैं ? लगता है कि मुम्बई ने 'इंडिया शायनिंग ' की याद तो ताज़ा कर दी है, लेकिन अंजाम भुला दिया है . नहीं ?

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Jagadish RoyMrityunjoy Roy

https://www.youtube.com/watch?v=JiRVPTC1l5A&feature=c4-overview

Antarjali Yatra

youtube.com

An old man, a high-caste Brahmin is on his deathbed, and has been brought to the burning grounds on the banks of the Ganges river. There his astrologer predi...

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Sudha Raje

एक स्त्री हज़ारों कारणों से आत्महत्या कर लेती है ।

और हमारा अनुभव है कि लगभग हर स्त्री कम से कम दो चार बार सोच लेती है जीवन में मरना है ।

और शायद एक दो बार बार प्रयास भी करती है ।

किंतु


पुरुष की आत्महत्या के क्या क्या कारण हो सकते हैं??


1-गरीबी

2-प्रेम में जोङे से मरना या प्रेम में धोखा

3-अपराध में फँसकर निकल पाने का मार्ग ना होना

4-कर्ज और व्यापार की असफलता

5-नपुंसकता और विवाह में नाकामी

6-पत्नी की बेवफ़ाई

7-घरवालों से कलह

8-परीक्षा में फेल

9-अप्राकृतिक अत्याचार का शिकार होते रहने की दुर्दशा

10-सदमा

11-अंतरात्मा का पापबोध

12-गुस्सा धमकी और ब्लैकमेलिंग

13-कैरियर में नाकामी

14-अकेलापन ऊब और उपेक्षा

15-बदनामी अपयश

और????????

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Prakash K Ray

It is great to hear from Arvind Kejriwal that Aam Aadmi Party's government in Delhi will stop the 'donation' system in the private schools and review their fees. Other items on the agenda rock as well.

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Jayantibhai Manani shared Dilip C Mandal's photo.

पूर्व प्रधानमंत्री वीपीसिंह का नाम सुनकर तथाकथित उच्चजातीय बुध्धिजीवियो का फेस बिगड़ जाता है क्योकि देश के 54% ओबीसी समुदाय को प्रशासन की नौकरियो में संवैधानिक 27% आरक्षण के द्वारा प्रशासनिक सता में सामाजिक भागीदारी देती मंडल कमीशन की सिफारिस को 7 अगस्त 1990 में लागु करने की घोषणा कियी थी.

वी. पी. सिंह के प्रधानमंत्री रहने के दौरान विश्व इतिहास की दो महान विभूतियों बाबा साहब आंबेडकर और नेलसन मंडेला को भारत रत्न दिया गया. इसलिए जाहिर है कि वी.पी. सिंह महान बुद्धिजीवियों की नजर में विलेन हैं. एक और कारण है, जो जगजाहिर है.

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Sudha Raje shared Pran Chadha's photo.

खुद ही कुछ कहे

नमस्कार

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खुर्शीद अनवर की आत्महत्या और कुछ सवाल

मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।

अपूर्वानंद

आखिर खुर्शीद अनवर ने ज़िंदगी से बाहर छलांग लगा ली। यह असमय निधन नहीं था। यह कोई बहादुरी नहीं थी। और न बुजदिली। क्या यह एक फैसला था या फैसले का अभाव? अखबार इसे बलात्कार के आरोपी एक एनजीओ प्रमुख की आत्महत्या कह रहे हैं। क्या उन्होंने आत्महत्या इसलिए कर ली कि उनपर लगे आरोप सही थे और उनके पास कोई बचाव नहीं था? या इसलिए कि ये आरोप बिलकुल गलत थे और वे इनके निरंतर सार्वजनिक प्रचार से बेहद अपमानित महसूस कर रहे थे? आज खुर्शीद की सारी पहचानें इस एक आरोप के धब्बे के नीचे ढँक जाने को बाध्य हो गई हैं: कि वह एक संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता थे,कि इंसानों से मजहब की बिना पर की जाने वाली नफरत उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त थी, कि वे भाषा के मुरीद थे और भाषा से वे खेल सकते थे, कि वे उर्दू के माहिर थे लेकिन उनके दफ्तर में आप हिंदी साहित्य का पूरा जखीरा खंगाल सकते थे, कि गायत्री मंत्र का उर्दू अनुवाद करने में उन्हें किसी धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकताके सिद्धांत का उल्लंघन नहीं जान पड़ता था क्योंकि वह उनके लिए पाब्लो नेरुदा या नाजिम हिकमत या महमूद दरवेश की शायरी की तरह की एक बेहतरीन शायरी थी, कि भारत के लोकगीतों और लोकसाहित्य को इकट्ठा करने, उसे सुरक्षित करने में उनकी खासी दिलचस्पी थी, कि इस्लामी कट्टरपंथियों पर हमला करने में उन्हें ख़ास मज़ा आता था और यहाँ उनकी जुबान तेजाबी हो जाती थी, कि वे हाजिरजवाब और कुशाग्र बुद्धि थे, कि वे एक यारबाश शख्स थे, कि अब किसी उर्दू शब्द की खोज में या अनुवाद करते हुए उपयुक्त भाषा की तलाश में वह नंबर अब मैं डायल नहीं कर पाऊंगा जो मुझे ज़ुबानी याद था, कि यह मेरा जाती नुकसान है और एक बार बलात्कार का आरोप लग जाने के अब इन सब का कोई मतलब नहीं।

क्यामैं एक 'बलात्कारी'का महिमामंडन कर रहा हूँ?क्या मैं नहीं जानता कि महान फिल्मकार या लेखक या कलाकार या शिक्षक या पत्रकार या न्यायविद या धार्मिक गुरु या धर्मनिरपेक्ष योद्धा होना अपने आप में इसकी गारंटी और गवाही नहीं कि आप बलात्कार नहीं कर सकते? कि बलात्कार पर बात करते समय अभियुक्त के इन उज्ज्वल चारित्रिक पक्षों को उसकी वकालत में हाजिर नहीं किया जाना चाहिए ? कि मुमकिन है ठीक इसी के कारण आप ताकतवर हो गए हों और उस जुर्म का मौक़ा आपको मिल गया हो? कि बलात्कार पर बात करते समय आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को बलपूर्वक किनारे किया जाना चाहिए ताकि वह अभियोक्ता को आपके मुकाबले हेय साबित न कर सके ?

इसीलिए पिछले दो महीने से, जबसे फेसबुक की दुनिया में पहले अनाम, लेकिन स्पष्ट सकेतों के साथ और बाद में सीधे-सीधे खुर्शीद पर यह आरोप लगने लगा जिसने एक मुहिम की शक्ल ले ली कि उन्होंने अपने घर पर एक नशे में लगभग बेहोश लड़की के साथ बलात्कार किया तो उनके करीबी दोस्तों ने भी उनके साथ कोई रहम नहीं किया। उन्हें लगातार कहा कि अगर उन पर अभियोग लगा है तो उन्हें कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए ही खुद को निरपराध साबित करना होगा।

लेकिनयह अभियोग कहाँ था? एक सी.डी. में जो मधु किश्वर के दफ्तर में लड़की के मित्रों की मौजूदगी में उनके द्वारा तैयार की गई, जिसमें 'घटनाक्रम'को तैयार करने में 'घटनास्थल'पर उपस्थित और अनुपस्थित मित्रों ने ही नहीं, खुद मधु किश्वर ने भी इशारे किए।फिर कोई दो महीने तक यह सीडी अलग-अलग हाथों घुमाई और दिल्ली और उसके बाहर भी दिखाई गई। मधु किश्वर खुद खामोश रहीं, लेकिन उन्होंने सीडी तैयार करके कुछ नौजवानों के हाथ में दे दी, बिना यह ख्याल किए कि उसमें लड़की और अभियुक्त की पहचान साफ़ जाहिर है और उसकी पहचान को सार्वजनिक करना एक दंडनीय अपराध है। इस बात को वे नातर्जुबेकार नौजवान न जानते होंगे लेकिन बलात्कार के आरोप के प्रसंग में क्या सावधानी बरतनी है, इस सी.डी. को सार्वजनिक करने के क्या नतीजे हो सकते हैं, इससे मधु नावाकिफ होंगी, यह मानना मुश्किल है।

मधु यह जानती होंगी कि बलात्कार या यौन-हिंसा के खिलाफ नए कानून में ऐसी घटना की शिकायत करने के लिए 'पीड़ित'को पुलिस में जाने की ज़रूरत नहीं है। यह सही है कि पारिवारिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से 'पीड़ित'इसे आगे न ले जाना चाहे, लेकिन किसी 'जुर्म'की खबर को न्याय प्रक्रिया से छिपा कर रखना कितना न्यायसंगत है, इस पर कम से कम मधु किश्वर को विचार करना होगा। यह माना जा सकता है कि लड़की के मित्र इस कानूनी पहलू से अनजान हों और अपनी समझ में इस सीडी के जरिए जन समर्थन एकत्र करके उस लड़की की मदद कर रहे हों। यह भी ठीक है कि ऐसी स्थिति में 'पीड़ित'को हर तरह का सहारा दिए जाने की आवश्यकता है और उसे रपट दर्ज करने की हिम्मत बंधाना ज़रूरी है। लेकिन ऐसा करते समय वे भूल गए कि न्याय का तकाजा यह है कि वे लड़की की पहचान ही नहीं अभियुक्त की पहचान भी उजागर न होने दें। इसलिए भी कि इसके दो पक्ष हैं ( हालाँकि मैं जानता हूँ कि अब किसी भी मामले का सिर्फ एक ही पक्ष होता है और ने को उसे मानना होता है वरना वह भी अभियुक्त की श्रेणी में डाल दिया जा सकता है) और वे दूसरे पक्ष के बारे में कुछ नहीं जानते। तीसरे, क्या वे यह सोच रहे थे कि खुर्शीद इतने ताकतवर थे कि बिना अभियान के उन्हें कठघरे में खड़ा करना मुमकिन न था? क्या फेसबुक पर और सीडी के जरिए अभियान चलाना एक  विवेकपूर्ण निर्णय था और क्या खुर्शीद का खुद उस बहस में उलझ जाना एक विवेकपूर्ण निर्णय था ? सावधानी और सतर्कता के साथ लड़की में विश्वास पैदा करने की कोशिश की जानी चाहिए थी ।

दुर्भाग्ययह है कि आरोप लगाने वाले और उस पर यकीन करने वाले  मधु किश्वर के पास गए। मधु ने भी बस सी.डी. तैयार की और छुट्टी पा ली। लेकिन उन्हें दरअसल अपने पास पहुंचे लोगों को यह कहना चाहिए था कि बलात्कार-जैसे आरोप के प्रसंग में वे न्याय की प्रक्रिया में विश्वास ही नहीं करतीं, वे पुलिस पर भी भरोसा नहीं करतीं, इसलिए उन सबको मदद के लिए कहीं और जाना चाहिए। यहइसलिए कि पिछले साल जुलाई में जब उनके भाई पर एक पुरुष ने बलात्कार का आरोप लगाया था तो उन्होंने अपने संगठन को परेशानी से बचाने और अपने भाई के करियर को बचा लेने के लिए, किसी भी जांच और न्याय की प्रक्रिया से बचने के लिए पुलिस को घूस देकर अपने भाई को उस यंत्रणादायक प्रक्रिया से बाहर निकाल लिया जिससे होकर ऐसे मामले के खुर्शीद जैसे हर अभियुक्त को गुजरना पड़ता है और चाहिए।यह सब किसी और ने नहीं मधु किश्वर ने खुद ईमानदारी से इस साल तीन जनवरी को Putting the Cart before the Horse:Self-Defeating Demands of Anti Rape Agitationists नामक लेख में बताया है। उनका ख्याल है कि उनके भाई पर आरोप लगाने वाला डेविड उन्हें ब्लैकमेल कर रहा था और उनके भाई निर्दोष थे। क्या यही तर्क खुर्शीद के परिजन खुर्शीद के पक्ष में इस्तेमाल कर सकते हैं?

ऐसा जान पड़ता है कि मधु ने इसे लेकर कोई अभियान नहीं चलाया, लेकिन जब उन्हें टीवीचैनल पर बुलाया गया तो सीडी में दिए गए बयान को उन्होंने बार-बार तथ्य की तरह पेश किया।उन्होंने बार-बार कहा कि इस प्रसंग में तथ्य सिर्फ उनके पास हैं। फिर वे कई बार झूठ भी बोलीं। सीडी में किया गया वर्णन तथ्य है कि नहीं, इसकी अभी जांच होनी है। घटना की रात और सुबह के और भी गवाह हो सकते हैं अगर अभियुक्त को आप छोड़ भी दें। मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।

नए बलात्कार और यौन हिंसा क़ानून पर लिखते हुए अभियुक्त के जिन अधिकारों की उन्होंने वकालत की थी, इस प्रसंग में वे स्वयं उन्हें भूल गईं। फिर बयान की रिकॉर्डिंग कराने में भी उन्होंने असावधानी बरती। लड़की अकेले बयान नहीं दे रही है। उसके साथ सात-आठ अन्य लोग भी हैं जिनमें से कुछ घटना स्थल पर नहीं थे। इसे बयान दर्ज करने का सही तरीका किसी तरह नहीं माना जा सकता। खुद मधु किश्वर भी बीच-बीच में कई इशारे कर रही हैं। अगर बयान लेना ही था तो हर किसी के बयान को किसी दूसरे प्रभाव से बचाए जाने की सख्त ज़रूरत थी। खुद मधु को बयान के बीच-बीच में बोलने और घटना को परिभाषित करने की आवश्यकता भी नहीं थी। मेरे ख्याल से अन्य सब के बयान अलग-अलग लिए जाने चाहिए थे। यदि मधु के पास इतना वक्त न था तो उन्हें किसी और धैर्यवान और जिम्मेदार व्यक्ति के पास 'पीड़ित'और उसके मित्रों को भेजना चाहिए था। मेरे पास यह मानने का कारण नहीं है कि मधु ने खुर्शीद के खिलाफ कोई साजिश रची। लेकिन यह साफ़ है कि उन्होंने अनधिकार और गलत तरीके से रिकॉर्डिंग की, वक्तव्य को प्रभावित किया और सी.डी. या डीवीडी को सार्वजनिक कर दिया। यह मुजरिमाना लापरवाही थी और इस सीडी ने पूरे भारत में एक विषाक्त माहौल तैयार किया और अभियुक्त ही नहीं स्वयं लड़की के बारे में भी घातक पूर्वग्रह गहरे होने दिए। इसके सहारे खुर्शीद और 'पीड़ित'का जो चरित्र हनन किया गया उसका प्रतिकार करने का कोई उपाय उनके पास नहीं था।  एक्टिविस्ट दंभ के कारण मधु ने इस संवेदनशील मसले में जो भयंकर लापरवाही बरती और फिर टीवी पर वे जो झूठ बोलीं उसके आधार पर वे खुर्शीद की आत्महत्या के लिए वातावरण बनाने की गुनहगार ज़रूर हैं।वे एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान( सीएसडीएस) में प्रोफ़ेसर हैं। अपनी इस हैसियत और दफ्तर का जो दुरुपयोग उन्होंने किया उसके लिए उनका संस्थान उनसे जवाब-तलब करेगा या नहीं, कानून उनके इस कृत्य को किस निगाह से देखेगा यह दीगर बात है। वे खुद अपनी आत्मा में झाँक कर देखें कि परवर्ती घटना क्रम के लिए वे कितनी जवाबदेह हैं। इस मौत के दाग को अपने दामन से वे छुड़ा नहीं सकतीं।

बाद में खुर्शीद ने पुलिस और फिर अदालत में इस सम्बन्ध में सोशल मीडिया के प्रमाणों के आधार पर मानहानि का मुकदमा दर्ज भी किया जिसकी पहली सुनवाई के पहले ही टीवी चैनलों( खासकर इंडिया टीवी) और फेसबुक योद्धाओं ने इस सी.डी. के आधार पर पहले ही खुर्शीद को अपराधी घोषित कर दिया। खुर्शीद इस सार्वजनिक संगसारी को बर्दाश्त न कर सके और मारे गए।

इस तरह मधु के साथ ये चैनल और सारे फेसबुकयोद्धा इस आत्महत्या के लिए परिस्थिति तैयार करने के दोषी ठहरते हैं।

कहना होगा कि सब कुछ अभी तक आरोप था और न्याय का तकाजा था कि अभियोक्ता और अभियुक्त दोनों के दावों का सख्ती से इम्तहान करके ही इस नतीजे पर पहुंचा जाए कि अपराध हुआ या नहीं। खुर्शीद को इस प्रक्रिया के पहले आरोप से जैसे बरी नहीं किया जा सकता वैसे ही अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे ही जैसे उनकी खुदकुशी न उनको निर्दोष साबित करती है और न मुजरिम। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपराध के अनुपात में ही दंड का निर्धारण होता है और दंड का उद्देश्य अभियुक्त को नष्ट करना नहीं होता।

बलात्कार जैसे आरोप के प्रसंग में सामाजिक और सांस्कृतिक कुंठाओं को ध्यान में रखते हुए अत्यंत संवेदनशीलता और सतर्कता के साथ काम करने ज़रूरत है। ऐसा हर प्रसंग लोगों में अश्लील दिलचस्पी पैदा करता है, जिसमें वे 'घटना'के एक-एक ब्योरे में चटखारा लेना चाहते हैं और इसमें न्याय की आकांक्षाकहीं नहीं होती। यह भी कि अपराध का अन्वेषणकरने की योग्यता हममें से हर किसी के पास नहीं। कितनी भी गई-गुजरी हो, जाँच की योग्यता और अधिकार पुलिस के पास ही है और हमारा काम उसकी मदद करना है और उसे हर साक्ष्य मुहैया कराना है। हम जानते हैं कि ताकतवर अभियुक्त के आगे साक्ष्य की रक्षा कठिन काम है और वह हमें करना चाहिए। लेकिन इससे अलग किसी भी सार्वजनिक माध्यम से इस प्रसंग पर फैसलाकुन तरीके से चर्चा करते रहना कहीं से जिम्मेदाराना काम नहीं है और इससे जांच और न्याय की प्रक्रिया दूषित हो जाती है। यानी हर इन्साफपसंद की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे हर मामले में उत्तेजना पैदा करने से परहेज करे और अंतिम मंतव्य देने से बचे।

हर अभियोगऔर अपराध अपने आप में एक अलग घटना है और उसकी परीक्षा उसी तरह की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति एके गांगुलीका नाम लिए बिना जब उनके द्वारा किए गए यौन-दुर्व्यवहार की घटना का वर्णन उस लॉ-इंटर्न ने किया तो वह यही सोच रही थी कि इस एक अविचारित कृत्य से उनके बाकी काम नकार नहीं दिए जा सकते। अभियोजन की और न्याय की प्रक्रिया में सिर्फ अभियोक्ता का ही नहीं, अभियुक्त का यकीन भी ज़रूरी है। इसके लिए उसे हर प्रकार के बाहरी और अतिरिक्त प्रभाव से बचाने की ज़रूरत है। तुलना असंगत लग सकती है लेकिन सार्वजनिक माध्यम से किसी को आतंकवादी घोषित कर देना और बलात्कारी घोषित कर देना एक जैसा ही है।

पिछले दो सालों में नाम लेने और शर्मिंदा करने की जो राजनीति और प्रवृत्ति विकसित हुई है वह बस इससे संतुष्ट हो जाती है कि किसी 'ताकतवर'को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत कर दिया गया है। उसकी रुचि इंसाफ में है, ऐसा नहीं दिखाई देता। उसी तरह मीडिया इसी सामाजिक प्रवृत्ति का शिकार है। खुर्शीद अनवर इस शर्मिंदगी की मुहिम के शिकार हो गए।

लेकिन खुर्शीद अनवर की आत्महत्या पर कुछ और कहना ज़रूरी है। खुर्शीद की आत्महत्या के फौरी कारण कुछ रहे हों, वे उस जीवन पद्धति के शिकार हुए जो उनकी थी। क्यों खुर्शीद ने अनर्गल फेसबुक को अपना अनिवार्य संसार बना लेना पसंद किया?क्यों महफ़िलों और नई-नई दोस्तियों में खुद को डुबो कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की कोशिश की?एक ऐसा व्यक्ति जो सिर्फ सार्वजनिक काम ही करता है क्यों एक स्तर पर इतना अकेला और अरक्षित महसूस करने लगता है? क्यों खुर्शीद को इस घटना के प्रकाशित होते ही अपनी नारीवादी मित्रों के पास जाने और उनसे साझा करने का भरोसा नहीं रहा? क्या वे यह मान बैठे थे कि वे अपनी राजनीति के आगे एक पुरुष मित्र की सुनवाई ही नहीं करेंगी? राजनीतिक शुभ्रता और मानवीयता में क्या न पाटने वाली खाई पैदा हो गई है? क्यों हम सब जो सार्वजानिक मसलों पर साथ काम करते हैं एक दूसरे की जाती ज़िंदगी में कोई इंसानी दिलचस्पी नहीं रखते?क्यों हमारा साथी अवसाद में डूबता रहता है और हम हाथ नहीं बढ़ा पाते? क्यों हम सब जो खुद को सामाजिक प्राणी कहते हैं, दरअसल अलग-अलग द्वीप हैं?घनघोर सार्वजनिकता और निविड़ एकाकीपन के बीच क्या रिश्ता है? क्यों हम सिर्फ अपने साथ रहने का साहस नहीं जुटा पाते? क्यों हमें लगातार बोलते रहने की मजबूरी मालूम पड़ती है? क्यों और कैसे हम खुद को हर मसले पर बात करने और राय देने के लायक मानते हैं?क्यों कटुता,आक्रामकता, मखौलबाजी, घृणा और सामान्य तिरस्कार हमारी सामाजिक भाषा को परिभाषित करते हैं?

यही सवाल मैं खुर्शीद अनवर से, जो फेसबुक-संसार के अन्यतम सदस्य थे और खुद  जिन पर अक्सर कड़वाहट और आक्रामकता  हावी हो जाती थी, पूछता था।

क्यों हम सब इतने क्रूर हो गए हैं कि किसी व्यक्ति को घेर लेने में हमें उपलब्धि का कुत्सित आनंद मिलने लगता है?क्यों हम न्याय के साधारण सिद्धांत को भूल जाते हैं जो कसूर साबित होने तक किसी को मुजरिम नहीं मानता? यह सवाल सिर्फ इस प्रसंग में नहीं, गलत समझे जाने का खतरा उठा कर भी तरुण तेजपाल या न्यायमूर्ति गांगुली के मामले में हमें खुद से पूछना चाहिए। जो शोमा चौधरी की लगभग ह्त्या ही कर बैठे थे, उन्हें भी।

खुर्शीद अनवर एक खूनी पवित्रतावादी धर्म-युद्ध की मानसिकता का सामना नहीं कर पाए। यह मौत किसी साजिश का नतीजा नहीं थी। यह घटना अविवेकपूर्ण, चिर-उत्तेजना में जीने वाले समाज के किसी भी सदस्य के साथ हो सकती है।खुर्शीद खुद को इससे अलग नहीं कर सके और हम भी खुर्शीद को इससे नहीं बचा पाए।

(Expanded version of an article published in Jansatta on 22/12/2013)

खुर्शीद अनवर प्रकरण : मुसीबत में फँस सकती हैं मधु किश्वर !

Posted by: Amalendu Upadhyaya 5 hours agoin खोज खबरLeave a comment

नई दिल्ली। बलात्कार पीड़िता लड़की को न्याय दिलाने के नाम पर मरहूम खुर्शीद अनवर के खिलाफ तीन महीने कैंपेन चलाने के मामले में एनजीओ साम्राज्ञी मधु किश्वर धारा 306 की अभियुक्त बन सकती हैं।

हमने इस संबंध मेंआरुषि मर्डर केसमें नूपुर तलवारके अधिवक्ता मनोज सिसौदियासे जब बात की तो उनका साफ कहना था कि मधु किश्वरपर दफा 306और कथित अभियुक्त व कथित पीड़िता दोनों के डिफेमेशन का साफ मामला बनता है। उन्होंने बताया कि मधु किश्वर या किसी अन्य को कथित पीड़िता का बयान रिकॉर्ड करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है और ऐसा करके मधु किश्वर व उनके सहयोगियों ने साफ तौर पर पुलिस के काम में हस्तक्षेप किया है और पुलिस को स्वतः इसकी जाँच करनी चाहिए।

श्री सिसौदिया ने कहा कि जब कथित पीड़िता स्वयं पुलिस में शिकायत करने की इच्छुक नहीं थी तो यह संदेह बनता है कि पता नहीं किन परिस्थितियों में उसका बयान चोरी-छिपे रिकॉर्ड किया गया। यह भी हो सकता है कि उस सीडी के जरिए दुष्प्रचार करके कथित पीड़िता और कथित अभियुक्त दोनों को ही ब्लैकमेल किया जा रहा हो। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि कथित पीड़िता का छल के साथ बयान रिकॉर्ड कर लिया गया हो।

मामला इसलिए भी गंभीर है कि कथित पीड़िता का वीडियो रिकॉर्ड मधु किश्वर ने किया था तो वह बिना मधु की सहमति के दूसरे लोगों तक कैसे पहुँचा जिन्होंने पूरे तीन महीने तक उस वीडियो का प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा किजब बयान रिकॉर्ड कर लिया गया था और कथित पीड़िता पुलिस में शिकायत दर्ज करना नहीं चाहती थी तो उस वीडियो का प्रदर्शन करना पीड़िता की भी अवमानना है।

वरिष्ठ अधिवक्ता मनोज सिसौदिया

वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि मीडिया अदालत नहींहै और उसे इस प्रकार का प्रसारण करने का कोई अधिकार नहीं है, यदि मृतक की हत्या नहीं हुई है और उसने आत्महत्या की है तो इंडिया टीवी के जिम्मेदार लोगों, मधु किश्वर और सीडी केजरिए दुष्प्रचार करने वाले लोगों पर पुलिस जाँच के बाद मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने का भादस की धारा 306 का मुकदमा बन सकता है।यह जाँच का विषय है। उन्होंने कहा कि अब कानून को अपना काम करने देना चाहिए और मीडिया ट्रायल बंद किया जाना चाहिए।

उधर मरहूम खुर्शीद अनवर के भाई प्रो. अली जावेद ने भी कहा है किपिछले तीन महीने से एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर कुछ लोगों ने उसे (खुर्शीद) को बलात्कारी घोषित कर दिया था, जहां उसने बार-बार कहा था कि कम से कम उसके खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत तो दर्ज कराओ।

इस प्रकरणमें ध्यान देने की बात यह है एकमात्र कानूनी प्रक्रिया सिर्फ खुर्शीद अनवर द्वारा ही अपनाई गई। उन्होंने पुलिस में भी शिकायत दर्द कराई थी और अदालत में भी अवमानना का मुकदमा किया था। जबकि कथित पीड़िता का वीडियो जगह-जगह प्रदर्शित करने वाले लोगों ने पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई। अब अगर यह बात मान भी ली जाए कि पीड़िता किसी भी दबाव में पुलिस में शिकायत दर्ज कराना नहीं चाहती थी तो सवाल उठता है कि क्या पीड़िता उक्त वीडियो का जगह-जगह प्रदर्शन करवाने के लिए सहमत थी? यदि हाँ तो वह पुलिस में शिकायत दर्ज कराना क्यों नहीं चाहती थी और यदि नहीं तो कथित बूँद के कार्यकर्ता किस हैसियत से उक्त वीडियो का प्रदर्शन कर रहे थे ?क्या यह उक्त पीड़िता के साथ छल नहीं है?



हजार केजरीवाल बखूब खिलें देशभर में, प्रधानमंत्रित्व की दौड़ में दीदी की बढ़त जारी!

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हजार केजरीवाल बखूब खिलें देशभर में, प्रधानमंत्रित्व की दौड़ में दीदी की बढ़त जारी!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


हजार केजरीवाल बखूब खिले देशभर में,प्रधानमंत्रित्व की दौड़ में दीदी की बढ़त जारी है।लोकलुबावन राजनीति में देशभर में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कोई सानी नहीं है।आम जनता की नब्ज जानने में उनकी महारत अपदस्थ लालू प्रसाद से ही की जा सकती है।लालू देशज मुहावरों में जनता को संबोधित करने की कला में सिद्धहस्त है तो आशुकवि ममता बनर्जी की न सिर्फ कविता पुस्तकें बेस्ट सेलर हैं,बल्कि तुकबंदी में बंधे उनके भाषण और तृणमूल स्तर तक उनकी अविराम मैराथन दौड़ का कोई जवाब नहीं है।दीदी की दौड़ के मुकाबले पीटी उषा भी नहीं हैं।तृणमूल सरकार और पार्टी का जो हाल हो,वह है लेकिन खास बात नोट करने लायक है कि बाजार की प्रबंधकीय दक्षता के मामले में नरेंद्र मोदी,राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के मुकाबले वे अकेली जननेता है और राजकाज में वे जबर्दस्त ढंग से तकनीक का इस्तेमाल कर रही है जो पिछली वाम सरकरा कभी नहीं कर पायी।


संवाददाता सम्मेलनों के जरिये नहीं,दीदी सीधे सड़कों और मैदानों में,पहाड़ और जंगल में,खेतों और कलकारखानों में अपनी जनता को संबोधित करती हैं।इस मायने में प्रधानमंत्रित्व के दावेदारों में वे सबसे आगे हैं।ईमानदारी और सादगी नहीं,जनाधार से लगातार जुड़े रहने की उनकी यह अद्वितीयदक्षता उन्हें बाकी प्रतिद्वंद्वियों से मीलों आगे ऱखती है।इसके साथ ही वे शायद पहली मुख्यमंत्री हैं जो नीतिगत घोषणाएं फेसबुक के जरिये करती हैं। आप ने अपने मंत्रियो की सूची उपराज्यपाल की विज्ञप्ति से जारी की है तो दीदी ने आज होने वाले मंत्रिमंडल में फेरबदल का ब्यौरा और नये मंत्रियों के नाम पार्टी के वेबसाइट पर जारी कर दिये।'मां, माटी और मानुष' का नारा देने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जीका दबदबा फेसबुक पर भी है. जी हां, ममता बनर्जी के फेसबुक पेज पर पांच लाख से अधिक 'लाइक' पूरे हो गए हैं।केजरीवाल ने भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, माणिक सरकार व मनोहर पार्रिकर का अनुकरण किया है जिन्होंने साफ सुथरे शासन के लिए सादा जीवन को आधार बनाया है। केजरीवाल 26 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीएम पद की शपथ लेंगे।


मुक्त बाजार की प्रबंधकीय दक्षता बतौर ममता बनर्जी ने जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही साबित करने के लिए इधर एक के बाद एक चामत्कारिक तकनीकी पदक्षेप किये हैं,जिसका कोई राजनीतिक तोड़ नहीं है। सरकारी महकमों में कामकाज की समयसीमा बांध दी गयी है और तदानुसार पुरस्कार और जुर्माना भी तय है। सरकारी परियोजनाओं और कामकाज का समयबद्ध कैलेंडर सार्वजनिक कर दिया गया है ताकि जनहित के काम लटकने पर जवाबदेही तय की जा सके और प्रतिषेधात्मक कदम उठाये जा सकें। मंत्रियों और मंत्रालयों के कामकाज का मूल्यांकन शुरु हो गया है।पहले दौर के मूल्यांकन में पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी अव्वल नंबर पर हैं।इसके अलावा दीदी लोकसभी चुनाव से पहले मां माटी मानुष सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र जारी करके उसीके तहत अपना प्रधानमंत्रित्व का दावा पेश करने जा रही हैं।


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर आधिकारिक पेज बनाने के डेढ़ साल के भीतर ही पांच लाख प्रशंसक पा लिए हैं। हालांकि फेसबुक पर प्रशंसकों के मामले में अभी भी वह भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से पीछे हैं| नरेंद्र मोदी जहां 72 लाख प्रशंसकों के साथ पहले नंबर पर हैं तो वहीँ अरविन्द केजरीवाल के 18 लाख प्रशंसक फेसबुक पर हैं| जबकि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के 11 लाख फेसबुक प्रशंसक हैं|


ममता बनर्जी ने फेसबुक का प्रयोग न केवल केंद्र सरकार की नीतियों पर असहमति जताने, विपक्ष पर अपनी भड़ास निकालने के लिए किया, बल्कि राज्य के विकास की घोषणा करने के लिए भी किया। उन्होंने वेबसाइट पर हाल ही में रंगभेद विरोधी नेता नेल्सन मंडेला को श्रद्धांजलि भी दी। ममता का यह ऑनलाइन सफर 15 जून, 2012 को शुरू हुआ था। उन्होंने अपने अकाउंट पर 2013 कोलकाता अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव सहित सम्मेलनों, बैठकों और पर्वो में अपनी मौजूदगी की तस्वीरें भी पोस्ट कीं।


फिर चाहे वह विजय दिवस हो, ईद, क्रिसमस या वसंत पंचमी हो, उनके पोस्ट ने बधाइयां पहुंचा ही दीं। अपने फेसबुक अकाउंट पर अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर सरीखी बड़ी हस्तियों की भावपूर्ण तारीफ करने वाली ममता ने अंतिम बार दिवंगत गायक मन्ना डे और हेमंत मुखर्जी को श्रद्धांजलि दी।


अरविंद केजरीवाल आईआईटी खड़गपुर के पूर्व छात्र हैं ,वहा अकादमिक परिसर में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की ताजपोशी को लेकर हलचल मच रही है।बाकी देश में दिल्ली के प्रयोग का खासकर शहरी क्षेत्रों में भारी असर होने लगा है।इससे सबसे ज्यादा नुकसान नरेंद्र मोदी को होने जा रहा है कि अब शहर केंद्रित धर्मोनमादी राजनीति से मतों का ध्रूवीकरण उतना आसान नहीं है।कांग्रेस ने सोची समझी रणनीति के तहत दिल्ली नहीं,बल्कि अरविंद केजरीवाल टीम के राष्ट्रीय विस्तार के लिए ही दिल्ली में आप को समर्थन दिया है।अगले लोकसभा चुनाव तक अगर दिल्ली में आप की सरकार अपने वायदे के मुताबिक आंशिक तौर पर ही सही,कुछ परिवर्तन कर दिखाने में कामयाब होती ही तो सामाजिक शक्तियों खासकर युवा छात्र और महिलाओं,कामकाजी तबके के समर्थन से मतदाताओं का एक तीसरा वर्ग भी देशभर में कमोबेश तैयार होने के आसार है और हर महानगर नगर के अपने अरविंद केजरीवाल होंगे,जिनकी वजह से नमोमय भारत बनना असंभव होगा और आगामी लोकसभा त्रिशंकु होगी।इस हाल में आखिरी बाजी जीतने वाला खिलाड़ी निश्चय ही नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी नहीं होंगे।कारपोरेट और अकादमिक समर्थन से जहां अरविंद केजरीवाल बेहद मजबूत हालत में पहुंच सकते हैं तो जमीनी पकड़ की वजह से और तकनीकी प्रबंधकीय दक्षता में बराबर की टक्कर देने की हालत बना रही दीदी की बढ़त हर हाल में जारी रहनी है।दीदी के पक्ष में खास बात यह है कि बाकी देश में चाहे जो हो,बंगाल में न नमो अभियान का कोई असर होना है और न यहां किसी अरविंद केजरीवाल के खिलने की गुंजाइश है।2014 में केंद्र सरकार का भाग्य कांग्रेस या वामपंथी नहीं बल्कि मां माटी मानुष की नेत्री ममता बनर्जी तय करेंगी। यह मेरी नहीं देश की क्षेत्रीय पार्टियों की आवाज है। यह कहना है टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव सह पूर्व केंद्रीय मंत्री मुकुल रॉय का।


बंगाल में विपक्ष का काम तमाम है। दीदी जिस प्रबंधकीय दक्षता के सहारे राजकाज को पारदर्शी बनाने का काम करने लगी हैं,उसका असर यह होगा कि प्रधानमंत्रित्व के दावे के मद्देनजर वे बयालीस की बयालीस सीटें भी जीत लें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।दो तीन सीटें अगर बाहर से मिल जायें तो दीदी को चालीस लोकसभा सदस्य तक मिल सकते हैं। इस आंकड़े तक बाकी क्षत्रपों के पहुंचने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है।एकमात्र आप का विकल्प ही खुला है,वह कहां तक पहुंचेगा बताना मुश्किल है।लेकिन आप को पच्चीस तीस सीटें बी मिल गयीं तो सरकार न कांग्रेस की होगी और न भाजपा की।इन दलों की सीटे भी मत विभाजन की वजह से घटेंगी जबकि दीदी पर किसी समीकरण का कोई असर नहीं होना है।


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गुरुवार को अपने मंत्रिमंडल में दो नए मंत्रियों को शामिल किया और एक राज्यमंत्री का दर्जा बढ़ाकर उन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। उत्तर बंगाल के कूच बिहार जिले के मठबंगा विधानसभा क्षेत्र से विधायक विनय कृष्ण बर्मन अब वन मंत्री बनाए गए हैं। वह हितेन बर्मन के स्थान पर मंत्री बने हैं जिन्होंने खराब स्वास्थ्य के कारण इस्तीफा दिया है।


बहरहाल, राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि सही ढंग से काम नहीं कर पाने के कारण हितेन को हटाया गया है। कोलकाता के श्यामपुकुर से विधायक शशि पांजा को राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) का दर्जा दिया गया है। उन्हें महिला और बाल कल्याण विभाग दिया गया है। कुटीर और लघु उद्योग मंत्री स्वपन देबनाथ को स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया है। उन्हें इसके साथ ही पशुपालन विभाग का भी दायित्व सौंपा गया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि इन तीनों को राजभवन में राज्यपाल एम.के.नारायणन ने शपथ दिलाई। इस मौके पर वरिष्ठ मंत्री और प्रमुख नौकरशाह भी उपस्थित थे। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष बिमल गुरुं ग ने भी गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) के मुख्य कार्यकारी की शपथ ली। गोरखालैंड राज्य की मांग के लिए आंदोलन चलाने के दौरान गुरुं ग ने स्वायत्त पहाड़ी परिषद के अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था।


मुकुल राय के मुताबिक राज्य सरकार को बदनाम करने वाली माकपा और कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि लोकसभा चुनाव के बाद माकपा तो विलुप्त हो जाएगी। इसके नेता खोजने पर भी नहीं मिलेंगे। कांग्रेस पर वार करते हुए उन्होने कहा कि जिस पार्टी ने जमीन और आसमान तक को घोटालों में बेच डाला उसे भ्रष्टाचार की बात करने का कोई हक नहीं। माकपा और कांग्रेस इन दिनों मिलकर अग्रसर हो रही बंगाल सरकार को बदनाम करने में लगी हैं। नारी अत्याचार, आत्महत्या, शिशु मृत्यु, एसजेडीए और सारधा चिटफंड घोटाले की बातें कहीं जा रही है।नेशनल क्राइम रिकार्ड बताता है कि ज्योति बसु के शासनकाल में 1426 तथा बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासनकाल में 990 किसानों ने आत्महत्या की। वामो के शासनकाल में 95 हजार कल-कारखाने बंद हुए। वामो के शासनकाल में 50 हजार से ज्यादा लोगों की मौतें हुई। टीएमसी के शासनकाल में एक भी व्यक्ति अनाहार से नहीं मरा। एक ओर दार्जिलिंग जल रहा था तो दूसरी ओर जंगल महल। वहां जाने की कोई हिम्मत नहीं जुटा रहा था। कोलकाता और सिलीगुड़ी में जुलूस निकाल ऑखें तरेरी जा रही थीं। वर्ष 2011 में ममता ने सत्ता संभाली। उन्होंने 26 बार जंगल महल का दौरा किया और 24 बार पहाड़ का। जो काम ज्योति बसु और इंदिरा गांधी नहीं कर सकी उसे ममता ने पहाड़ पर जाकर कर दिखाया। जब कांग्रेस को लगने लगा कि टीएमसी को मदद दी गई तो राज्य में यह मजबूत हो जाएगी तो उन्होंने सहायता नहीं दी। मालूम हो कि वामो से जब टीएमसी ने सत्ता ली तो 2लाख तीन हजार करोड़ का बकाया था। प्रति वर्ष बतौर ब्याज 21 हजार करोड़ रुपया देना पड़ता है। इस ऋण से मुक्ति नहीं मिल पाई। इसकी परवाह नहीं करते हुए ममता बनर्जी ने कन्याश्री प्रकल्प, युवा श्री प्रकल्प का शुभारंभ किया। रोजी रोजगार से युवाओं को जोड़ना शुरु किया।


चिटफंड की चर्चा करते हुए मुकुल राय ने कहा है कि केंद्र में कांग्रेस ने घोटालों की बाढ़ ला दी है। ममता बनर्जी ने सारधा चिटफंड में मामला दर्ज कर जांच के लिए कमीशन बनाया और दो लाख 33 हजार लोगों को पैसा वापस किया। महंगाई पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। इसके लिए पांच राज्यों में कांग्रेस को अपने से दूर कर दी है और आने वाले दिनों में देश से दूर कर देगी।


यह तिलमिलाहट वाजिब नहीं

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यह तिलमिलाहट वाजिब नहीं
Friday, 27 December 2013 11:55

विकास नारायण राय

जनसत्ता 27 दिसंबर, 2013 : अमेरिका ने वीजा-छल और नौकरानी उत्पीड़न की आरोपी

भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े पर कानूनी कार्रवाई क्या की, भारतीय राजनीति और सरकारी तंत्र में मानो भूचाल आ गया। अपने एक सहयोगी को आम अपराधी की तरह अपमानित होते हुए देख कर भारतीय विदेश सेवा के अफसरों को तो उबलना ही था, इस भूचाल और उबाल के चलते देश के राजनीतिकों में भी जवाबी आक्रोश दिखाने की होड़ लग गई है।

 

 

वर्गीय ठेस को राष्ट्रीय अपमान का नाम दे दिया गया और अमेरिकी सरकार से माफी मांगने को कहा गया। यहां तक कि बिना भारतीय जनता के सामने सारी जानकारी रखे मांग की जा रही है कि अमेरिकी सरकार देवयानी खोबरागड़े के विरुद्ध आपराधिक मामला खत्म करे। जबकि देवयानी ने विदेशी धरती पर एक अन्य भारतीय नागरिक के विरुद्ध ही गंभीर अपराध किया है। अमेरिका ने, सही ही, न माफी मांगी और न ही मामला खारिज किया। लिहाजा, बदले में भारत स्थित अमेरिकी राजनयिकों पर चौतरफा कूटनीतिक गाज गिराई जा रही है।

अमेरिकी कानून के मुताबिक, न्यूयार्क में भारत की उप-महावाणिज्य दूत देवयानी खोबरागड़े ने एक संगीन और भारत को लज्जित करने वाला अपराध किया है- जालसाजी से घरेलू नौकरानी संगीता रिचर्ड्स के लिए अमेरिकी वीजा लेने का और फिर उसे न्यूयार्क लाकर श्रम-दासता में रखने का। दासता के प्रश्न पर तो अमेरिका ने गृहयुद्ध तक झेला है और यह उनकी ऐतिहासिक विरासत का एक बेहद संवेदनशील पहलू है। पर भारतीय शासक वर्ग तो कानून अपने जूते पर रखने का आदी रहा है।

अपने देश में घरेलू नौकरानी को नियमानुसार वेतन देने या उससे नियत घंटों के अनुसार काम कराने संबंधी कानून का पालन करने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता। कमजोर वर्ग के प्रति वह दया तो दिखा सकता है, पर मानवीय हरगिज नहीं हो सकता। मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें वह करता है, अपना सांस्कृतिक और राजनीतिक चेहरा चमकाने के लिए, न कि कमजोर तबकों को सामाजिक और आर्थिक न्याय उपलब्ध कराने के लिए। देवयानी प्रकरण ने इस विरोधाभास को तीखे ढंग से उजागर किया है।

देवयानी एक अनुसूचित जाति परिवार से हैं। उनके पिता महाराष्ट्र सिविल सेवा के अफसर रहे और आइएएस होकर रिटायर हुए। देवयानी खुद 1999 में भारतीय विदेश सेवा में आ गर्इं। पिता की शान और राजनीतिक प्रभाव की बात तो छोड़िए, देवयानी भी आज करोड़ों की चल-अचल संपत्ति की मालकिन हैं। शासक तबकों के स्वाभाविक वर्गीय सोच के तहत ही वे हिंदुस्तान से संगीता को घरेलू कामगार के रूप में न्यूयार्क ले गर्इं। अमेरिकी वीजा कानूनों का पेट भरने के लिए देवयानी ने संगीता के साथ दिल्ली में एक करार का नाटक किया, जिसके अनुसार वे संगीता को अमेरिकी श्रम कानूनों के तहत नौ डॉलर प्रति घंटे की दर से वेतन देंगी। अमेरिकी वीजा अधिकारियों की आंख में धूल झोंकने के लिए संगीता के वीजा आवेदन में इस करार को भी नत्थी किया गया। पर यह सिर्फ दिखावा था।

भारतीय विदेश सेवा के अफसरों के लिए विभिन्न देशों में घरेलू कामगारों को ले जाने के लिए इस तरह की जालसाजी सामान्य है। एक बार प्रभु वर्ग में शामिल होने के बाद देश के कमजोर तबकों का शोषण उनका मूलभूत अधिकार जो बन जाता है। जाहिर है, उन्हें कामगारों से किए करार निभाने तो होते नहीं हैं। जब देश में ही घरेलू कामगार को नयूनतम वेतन देने का चलन नहीं है, तो विदेशों में तो उसकी स्थिति और दयनीय हो जाती है। वहां तो वे पूरी तरह देवयानी जैसे मालिकों के रहमो-करम पर होते हैं।

देवयानी ने न्यूयार्क में न सिर्फ संगीता को बहुत कम वेतन दिया, बल्कि असीमित श्रम के तरीकों से भी उसे उत्पीड़ित किया, जो अमेरिकी कानूनों के अनुसार गंभीर अपराध है। यह और बात है कि देवयानी की पोल जल्दी खुल गई और वे खुद ही अमेरिकी न्याय व्यवस्था के हत्थे चढ़ गर्इं।

हुआ यों कि जुलाई 2012 में कम वेतन और काम के लंबे घंटों से तंग आकर संगीता एक दिन देवयानी के न्यूयार्क आवास से निकल गई। घटनाक्रम से लगता है कि वह मैनहट्टन (न्यूयार्क) के अभियोजन अटार्नी प्रीत भरारा के कार्यालय के संपर्क में रही होगी। उसका पति और परिवार के कुछ अन्य सदस्य दिल्ली में विदेशी दूतावासों के लिए काम करते हैं। लिहाजा, वे विदेशों में अपने अधिकारों को लेकर अपेक्षाकृत जागरूक भी होंगे ही। भारतीय मूल के अमेरिकी अटार्नी भरारा ने पहले भी कई विशिष्ट भारतीयों की अमेरिका में आर्थिक-व्यावसायिक जालसाजी पकड़ी है।

मौजूदा मामले में उनका कार्यालय लगातार अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास को लिखता रहा कि देवयानी अपनी स्थिति स्पष्ट करें। पर बजाय यह कानूनी विकल्प इस्तेमाल करने के, देवयानी ने संगीता के खिलाफ अमेरिका और भारत में कानूनी पेशबंदी का मोर्चा खोल दिया। उन्होंने एक ओर मैनहट्टन में संगीता के फरार होने की रपट दर्ज कराई और दूसरी ओर दिल्ली की अदालत में संगीता पर करार तोड़ने का केस कर दिया।

देवयानी की गिरफ्तारी के लिए भरारा की मैनहट्टन (न्यूयार्क) पुलिस का बर्ताव भारतीयों को अपमानजनक लग सकता है। उन्हें अदालत में पेश करते समय हथकड़ी लगाई गई और पुलिस हिरासत में उनकी पूरी शारीरिक तलाशी ली गई। उन्हें अन्य आरोपियों के साथ हवालात में रखा गया। पर ऐसा ही बर्ताव उनके यहां हर गिरफ्तारी में किया जाता है। इन मामलों में वे अमीर, गरीब या ताकतवर, कमजोर में भेदभाव नहीं करते। गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी लगाना वहां की सामान्य कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है। भारत में अमीर या ताकतवर को तो जेल में भी विशिष्ट व्यवहार मिलता है, जबकि गरीब या कमजोर आरोपी को सौ गुना अधिक अपमान झेलना पड़ता है।

अगर देवयानी को अमेरिका में अमेरिकी कानूनों के अनुसार गिरफ्तार किया गया तो इसमें गलत क्या है? कुछ हलकों में देवयानी के अनुसूचित जाति का होने का सवाल भी उठाया जा रहा है। सवाल है कि अगर कोई अश्वेत अमेरिकी अधिकारी भारत में आकर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को जातिसूचक अपशब्द कहे तो क्या उस पर उचित कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी?

यह भी कहा गया है कि सारा 'तमाशा'संगीता द्वारा खुद को पीड़ित दिखा कर अमेरिकी नागरिकता हथियाने के लिए किया गया और देवयानी की गिरफ्तारी के ऐन दो दिन पहले अटार्नी भरारा के कार्यालय ने संगीता के पति और बच्चों को अमेरिका बुला लिया, जो उनके भी इस षड्यंत्र में शामिल होने का सूचक है। सोचने की बात है कि संगीता या उसके पति जैसे सामान्य भारतीयों का मैनहट्टन अटार्नी कार्यालय पर क्या जोर हो सकता है?

पति को अमेरिकी कानूनों के तहत देवयानी मामले में आवश्यक गवाह होने के नाते बुलाया गया और छोटे बच्चे पीछे अकेले नहीं छोड़े जा सकते थे। देवयानी के प्रभावशाली पिता के अनुसार संगीता सीआइए एजेंट हो सकती है। अगर ऐसा है तो उसे दिल्ली में रखना सीआइए के लिए ज्यादा फायदेमंद होता, न कि न्यूयार्क भेजना। अन्यथा भी वह भारतीय राजनयिक के घरेलू कामगार के रूप में सीआइए को उपयोगी सूचनाएं दे पाती, न कि उसके घर से भाग कर।

जगजाहिर है कि अमेरिका महाबली होने के नशे में अपने नागरिकों और राजनयिकों के लिए सारी दुनिया में विशिष्ट अपवादों की मांग करता आया है। भारतीय मानस, दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी की हजारों मौतों के लिए जिम्मेदार यूनियन कारबाइड कंपनी के भगोड़े मुख्य कार्यकारी अधिकारी एंडरसन को माफ  नहीं कर सका है, जिसे अमेरिका ने कानूनी कार्रवाई भुगतने के लिए भारत भेजने से लगातार इनकार किया है। पाकिस्तान भी जनवरी 2011 में लाहौर में दो पाकिस्तानियों की अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के अनुबंधित कर्मचारी रेमंड डेविस द्वारा सरे-राह हत्या को नहीं भुला सकता।

इस मामले में, अमेरिकी कूटनीतिक दबाव के चलते, आरोपी के बजाय हत्या का मुकदमा भुगतने के, उससे मृतकों के रिश्तेदारों को हर्जाना (ब्लड मनी) दिला कर मामला खत्म करा दिया गया था। पर इन जैसे मामलों को अमेरिकी राजनीतिकों या मीडिया ने कभी राष्ट्रीय अपमान का मामला बना कर नहीं पेश किया; न एंडरसन या डेविस को उन्होंने अपना राष्ट्रीय हीरो बनाया।

अमेरिका में रहने वाले लाखों प्रवासी भारतीयों और भारतीय मूल के अमेरिकियों के लिए भारत सरकार के आक्रामक रवैए को समझ पाना मुश्किल है। अमेरिका में वे कागजों में नहीं, व्यवहार में कानून के समक्ष बराबरी के सिद्धांत के आदी हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि मौजूदा प्रकरण में कानून तोड़ने वाली देवयानी को भारत में इतना जबरदस्त कूटनीतिक, राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन कैसे मिल रहा है, जबकि उत्पीड़ित संगीता के बारे में इनमें से किसी को सहानुभूति से सोचने तक की फुर्सत नहीं।

वैसे, अपने बाप-दादों के देश को हर वर्ष अरबों डॉलर की बचत भेजने वाले इस 'भारतीय'समूह को दूतावासों में बैठे भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के प्रभुता संपन्न रवैए से दो-चार होने का भी खासा अनुभव होता है। पर देवयानी जैसे मामले उन्हें सार्वजनिक रूप से व्यापक अमेरिकी समाज में बेहद पिछड़ा हुआ सिद्ध कर जाते हैं।

इस दौरान संगीता के पक्ष में भी घरेलू कामगार संगठनों के कुछ छिटपुट प्रदर्शन हुए हैं। पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी संस्थाओं की इस मामले में चुप्पी समझ से बाहर है। उन्होंने मामले में अमेरिकी सरकार या अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास से कोई स्थिति-रिपोर्ट तक नहीं ली है। भारत का विदेश मंत्रालय तो पूरी तरह से अफसरवाद की गिरफ्त में है, पर श्रम मंत्रालय को तो वस्तुपरक समीक्षा करनी चाहिए थी।

क्या हमें नजर नहीं आता कि अमेरिकी अधिकारियों का नहीं, देवयानी का व्यवहार भारतीय राष्ट्र के लिए शर्म का विषय है। परिस्थिति की मांग है कि भारत सरकार विदेश सेवा के इस दोषी अधिकारी पर, घरेलू कामगार के उत्पीड़न के आरोप में ही नहीं, बल्कि भारत का नाम विदेशों में बदनाम करने के लिए भी, अपने अनुशासनात्मक नियमों के अनुसार कार्रवाई करे।

 

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विषमता का विकास और राजनीति

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विषमता का विकास और राजनीति
Thursday, 26 December 2013 10:54

सुरेश पंडित

जनसत्ता 26 दिसंबर, 2013 : जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है।

कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है इसलिए इसमें वह चमक नहीं बची है जो लोगों में बेहतर भविष्य की आस जगा सके। जनता पिछले दो दशक में विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई गई विकास परियोजनाओं के हश्र देख चुकी है। इनकी बदौलत कोई एक दर्जन बड़े शहर मेट्रो-महानगरों में, छोटे शहर अपेक्षाकृत बड़े शहरों में और कस्बे छोटे नगरों में बदल गए हैं। सड़कें अनेक लेन वाली हो गई हैं और उन पर जगह-जगह विशाल फ्लाइओवर बन गए हैं। इन पर चौपहिया वाहनों की संख्या बढ़ती और रफ्तार तेजतर होती जा रही है। जगह-जगह बहुमंजिला इमारतों वाले आवास, शॉपिंग मॉल और मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स बनते जा रहे हैं। मेट्रो का एरिया फैलता जा रहा है। इनके अलावा और भी बहुत कुछ है जिसे विकास के गिनाया जा सकता है।

 

इसके बरक्स हजारों गांव उजड़े हैं, कृषियोग्य जमीन सिकुड़ती गई है। स्थानीय उद्योग-धंधे ठप हुए हैं जिससे बेकारी बढ़ी है। जो कल तक खेती या व्यवसाय करते थे, आज शहरों में सफेदपोश लोगों की सेवा कर पेट भर रहे हैं। सड़कें चौड़ी हुई हैं, मगर उन पर पैदल, साइकिल से या रिक्शे में चलने वाले लोगों के लिए जगह सिकुड़ती गई है। गगनचुंबी इमारतों के बरक्स झुग्गी-झोपड़ियों का विस्तार हुआ है। विकास की उल्लेखनीय उपलब्धियां बीस प्रतिशत से अधिक लोगों को लाभान्वित नहीं कर पाई हैं। इसीलिए अमर्त्य सेन मानते हैं, 'गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। मैं उनसे सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है।'

पिछले बीस सालों में 'फोर्ब्स'की सूची के अनुसार विश्व के सर्वाधिक वैज्ञानिकों में भारत के भी कई लोग शामिल हुए हैं और देश में भी अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि उतनी ही तेजी से गरीबों की संख्या कम नहीं हुई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके  हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यकों को इस विकास से बहुत कम लाभ हुआ है। परिणामस्वरूप गैर-बराबरी बेइंतहा बढ़ी है।

ऐसा नहीं कि यह हकीकत राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं दे रही। पर वे इस विषमतावर्धक  विकास को सही राह पर लाने के लिए तैयार नहीं दिखाई देते। हों भी कैसे? उन्हें कोई रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। वह दिख सकता है अगर वे गांधी, आंबेडकर, लोहिया, मार्क्स जैसे लोकहितैषी दार्शनिकों की सुझाई राहों में से किसी एक को पकड़ें। लेकिन पंूजीवादी विकास के समर्थकों ने घोषित कर दिया कि विचारधाराओं का अंत हो गया है, और हमने उसे ज्यों का त्यों मान लिया है। अब हम विचार के नाम पर उन मुद्दों को सामने ला रहे हैं जिनका वास्तव में हमारे जीवन से कोई मतलब ही नहीं है, जैसे सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता आदि। इन मुद्दों को राजनीतिक दल ही उछाल रहे हैं और इन्हें देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की अस्मिता से जबर्दस्ती जोड़ कर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर रहे हैं ताकि जनमत को अपने पक्ष में कर चुनाव जीतते रहें।

अफसोस है, इस तरह के भ्रामक मुद्दों को जीवन मरण का प्रश्न बनाने में मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भी उनका साथ दे रहा है। यह देख कर हैरानी होती है कि वामपंथी और समाजवादी सोच वाले दल भी आर्थिक, सामाजिक समानता के अपने अहम मुद्दे को भुला कर सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए एकजुट होने की दिखावटी कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान विकास, जो वास्तव में पंूजीवाद का ही एक चमकीला मुखौटा है, चुनाव के इसी तरह के नाटक को पसंद करता है। इसमें लोकतंत्र बना रहता है, अधिकतर लोग विकास के लाभ से वंचित भी रहते हैं और कुछ लोग फायदा भी उठाते रहते हैं।

ऐसी स्थिति में आंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को दिए गए उस चेतावनी भरे वक्तव्य को फिर से याद कर लेना देश की राजनीति के सूत्रधारों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है। आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम लोग जिस जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं उसमें हम सबको एक नागरिक एक वोट का अधिकार मिल जाएगा, लेकिन यह राजनीतिक समानता तब तक कोई विशिष्ट फलदायक साबित नहीं होगी जब तक हम सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक असमानता को पूरी तरह से मिटा नहीं देते। अगर हम ऐसा निकट भविष्य में नहीं कर पाते हैं तो विषमता-पीड़ित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है।

पिछले पैंसठ वर्षों में गैर-बराबरी कम होने की जगह बढ़ी है। लाखों किसानों का आत्महत्या कर लेना और देश के दो सौ से अधिक जिलों का नक्सलवाद के प्रभाव में चले जाना उस विस्फोटक स्थिति के आगमन की पूर्व सूचना है। जिन्हें देश और समाज की चिंता है उसी चेतावनी को बार-बार दुहरा रहे हैं। फिर भी इसे अनसुनी करके हम पिछले चुनावों की तरह विकास जैसे अमूर्त, सांप्रदायिकता जैसे अंध-भावनात्मक और राम मंदिर जैसे अस्मितावादी मुद्दों को ही उछाल कर चुनाव लड़ते और जीतते हैं। अगर हम चाहते हैं कि यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के लिए युग परिवर्तनकारी साबित हो तो हमें इसे शाइनिंग इंडिया बनाम बहुजन भारत की लड़ाई में बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि आज हम ऐसी भयावह विषमता के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें परंपरागत रूप से सुविधा संपन्न, विशेषाधिकार युक्त थोड़े-से लोगों ने शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार और सांस्कृतिक-शैक्षणिक क्षेत्र पर अस्सी-पचासी प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, वहीं बहुसंख्यक दलित-पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए मजबूर हैं।

यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें पार्टियां अधिकतर लोगों की बदहाली दूर करने के बजाय अमूर्त और भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दे रही हैं। विशाल वंचित वर्ग के सब्र का बांध न टूटे इसके लिए उन्हें कभी मामूली पेंशन, कभी मनरेगा तो कभी खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं के लॉलीपॉप देकर बहकाया जा रहा है। लोगों को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के बजाय उन्हें याचक और पराश्रयी बनाने की कोशिश हो रही है।

कांग्रेस पहले गरीबी हटाने की बात करती थी, फिर अपना हाथ गरीबों के साथ रखने का वादा करने लगी, अब पूरी रोटी खिलाने का राग जपने लगी है। उधर भाजपा ने कभी अंतिम जन के उत्थान की अंत्योदय योजना शुरू की थी लेकिन अब उसके पास ले-देकर राम मंदिर निर्माण के अलावा कोई मुद््दा नहीं बचा है। आश्चर्य है कोई राजनीतिक दल विकास परियोजनाओं से पैदा हो रही और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही विषमता को देखते हुए भी उसे दूर करने और समतामूलक समाज बनाने का झूठा-सच्चा संकल्प तक नहीं ले रहा है। सच है विकास की जिस राह पर हम इतनी दूर तक चले आए हैं वहां से वापस नहीं लौटा जा सकता, लेकिन गैरबराबरी के पैदा होने और निरंतर बढ़ते जाने के कारणों को तो खोजा जा सकता है ताकि उनका कोई निराकरण निकाला जा सके।

यों तो हम विकसित देशों जैसा बनने का सपना देखते हैं; इन देशों की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति के विभिन्न घटकों को आदर्श मानते हुए उन्हें अपनाने के लिए आतुर रहते हैं; लेकिन उनके बहुजन समावेशी समाज के मॉडल के बारे में कभी सोचते तक नहीं।

हमारा संविधान सब नागरिकों को समान अधिकार देता है। उस समानता को प्राप्त करना और बनाए रखना हर एक सरकार का प्रमुख कर्तव्य होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हर प्रकार के भेदभाव को दूर रखते हुए सब नागरिकों को देश की निर्माणकारी योजनाओं में बराबर की भागीदारी दी जाए। विश्व के वे लोकतंत्र, जो विकास और समृद्धि के स्पृहणीय मुकाम तक पहुंच चुके हैं, उनका इतिहास इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि उन्हें यह सफलता अपनी सारी जनता को साथ लेकर चलने से ही मिली है।

विविधताएं सब देशों में रही हैं लेकिन सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए उन्होंने अपने-अपने तरीके से 'एफर्मेटिव एक्शन'को अपनाकर सबको राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों से जोड़ा है। हमारे जैसे ही कुछ देश इसे यह कह कर नकारते हैं कि यह पश्चिमी या अमेरिकी अवधारणा है, मगर दरअसल यह विषमता को बनाए रखने का एक बहाना है। उनकी अन्य सब बातों का तो हम सहर्ष अनुकरण करते हैं, फिर इससे ही परहेज क्यों!

जब सरकारों का गठन होता है तो कोशिश यह रहती है कि हर वर्ग और क्षेत्र को प्रतिनिधित्व मिले। फिर हम सेना, न्यायालय, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तरों की नौकरियों में, सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के आपूर्ति-सौदों में, सड़क, भवन निर्माण आदि के ठेकों में, पार्किंग-परिवहन में, सरकारी और निजी स्कूलों-कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के संचालन, प्रवेश और शिक्षण में, एनजीओ, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, देवालयों के संचालन और पौरोहित्य कर्म में और सरकारी खरीदारी आदि में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सवर्णों को बराबर-बराबर हिस्सेदारी क्यों नहीं दे सकते? जातिवार जनगणना करके उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें भागीदार बनाया जा सकता है। इससे जनसंख्या का वह बड़ा हिस्सा जो उक्त क्षेत्रों में एक प्रकार से अनुपस्थित-सा है, सार्वजनिक उद्यम का अंग बन जाएगा और सब मिलकर देश की प्रगति में जब संलग्न होंगे तो सर्वसमावेशी और मानवीय चेहरे वाले विकास की अवधारणा साकार हो सकेगी।

पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीपीएल परिवारों को तीन रुपए किलो अनाज देने का वादा किया तो भाजपा ने इसे घटा कर दो रुपए कर दिया। क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इसी तरह के वादे किए, पर किसी ने समस्या की जड़ पर प्रहार करने के लिए सब वर्गों को विकास परियोजनाओं और अर्थोत्पादकसंसाधनों में उचित भागीदारी देने की बात नहीं की। इसका साफ मतलब है कि वर्तमान व्यवस्था असमानता को बनाए रखना चाहती है ताकि पंद्रह-बीस प्रतिशत सुविधासंपन्न लोगों का वर्चस्व बना रहे। ध्यान रहे यही वह वर्ग है जिसके संसाधनों से राजनीतिक दल चुनाव जीतते हैं और सरकार बनाते हैं। ऐसी सरकारें उन्हीं नीतियों का अनुसरण करती हैं जो इन वर्गों के हित में होती हैं और इन्हें फायदा पहुंचाती हैं। यह एक ऐसा कुलीन लोकतंत्र है जिसमें वंचित वर्गों के वोट का उपयोग संपन्न लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाता है।

 

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আত্মঘাতী হাসিনা,হাসিনার জন্যই এখন বাংলাদেশ জ্বলছে আবার ঢাকায় বিরোধী জোটের সমাবেশের আগে ধরপাকড়,খালেদা গৃহবন্দী বাংলাদেশে চলমান রাজনৈতিক সহিংসতায় বিভিন্ন স্থানেই সংখ্যালঘু হিন্দু সম্প্রদায়ের মানুষ আক্রমণের শিকার হচ্ছেন।

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আত্মঘাতী হাসিনা,হাসিনার জন্যই এখন বাংলাদেশ জ্বলছে আবার


ঢাকায় বিরোধী জোটের সমাবেশের আগে ধরপাকড়,খালেদা গৃহবন্দী

বাংলাদেশে চলমান রাজনৈতিক সহিংসতায় বিভিন্ন স্থানেই সংখ্যালঘু হিন্দু সম্প্রদায়ের মানুষ আক্রমণের শিকার হচ্ছেন।

পলাশ বিশ্বাস

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46 minutes ago

নির্বাচন প্রতিহত করতে চাইলে মোকাবেলা: প্রধানমন্ত্রী :: দৈনিক ইত্তেফাক

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প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা বলেছেন, '৫ জানুয়ারি নির্বাচন যারা প্রতিহত করতে চায় তাদের মোকাবেলা করা হবে।'আজ শুক্রবার গোপালগঞ্জের কোটালিপাড়া শহীদ মিনার চত্বরের কর্মীসভায় দেয়া ভাষণে তিনি এ কথা বলেন।বৃহস্পতিবার রাজশাহীতে ককটেল হামলায় নিহত পুলিশ সদস্যের পরি

ইতিহাসের অগ্নিসাক্ষী আফতাব আহমদ(11 photos)

আফতাব আহমদ বাংলাদেশের ফটোসাংবাদিকতার জগতে কিংবদন্তিতুল্য ব্যক্তিত্ব। তার তোলা ছবি একেকটি ইতিহাসের জন্ম দিয়েছে। আবার এভাবেও বলা যায় যে, তিনি বাংলাদেশের রাজনীতির মোড় পাল্টে দেয়া বিভিন্ন ঐতিহাসিক মুহূর্তেরও সাক্ষী। ১৯৬২ সালে তিনি দৈনিক ইত্তেফাকে ফটোসাংবাদিক হিসাবে যোগ দেন। এরপর থেকে তার ক্যামেরায় স্বাধিকার আন্দোলন, অসহযোগ আন্দোলন, ১৯৭১ সালের মুক্তিযুদ্ধসহ বিভিন্ন সময়ে তার তোলা ছবি ব্যাপকভাবে আলোচিত হয়। ১৯৭১ সালের ১৬ ডিসেম্বরে পাকিস্তানি বাহিনীর আত্মসমর্পণ ছাড়াও ১৯৭৫ সালে বঙ্গবন্ধু শেখ মুজিবর রহমান হত্যাকাণ্ড, ৭ নভেম্বর সিপাহী জনতার অভ্যুত্থান এবং দেশের গণতান্ত্রিক আন্দোলনের বহু অমূল্য ছবি তোলেন আফতাব আহমদ। তবে তিনি সবচেয়ে বেশি আলোচিত হন ১৯৭৪ সালে দুর্ভিক্ষের প্রেক্ষাপটে তোলা 'জাল পরা বাসন্তি'র ছবি তুলে।

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ঢাকায় বিরোধী জোটের সমাবেশের আগে ধরপাকড়,খালেদা গৃহবন্দী


রাজধানীর সেগুন বাগিচা এলাকায় আজ শুক্রবার দুপুরে জুমার নামাজের পর মিছিল বের করে নিষিদ্ধ সংগঠন হিযবুত তাহরীরের সদস্যরা। এ সময় পুলিশকে লক্ষ্য করে কয়েকটি ককটেলের বিস্ফোরণ ঘটায় তাঁরা।

পুলিশ ধাওয়া দিলে হিযবুত তাহরীরের সদস্যরা আশপাশের ভবনে পালিয়ে যান। রিপোর্টার্স ইউনিটির পাশের একটি ভবন থেকে লুকিয়ে থাকা ১২ জনকে আটক করেছে পুলিশ।

প্রত্যক্ষদর্শী সূত্রে জানা গেছে, জুমার নামাজের পর সেগুন বাগিচা মসজিদ থেকে ব্যানার হাতে মিছিল নিয়ে রাস্তায় নেমে আসেন হিযবুত তাহরীরের শতাধিক যুবক। তাঁরা পুলিশকে লক্ষ্য করে বেশ কয়েকটি ককটেল  ছোড়েন। পুলিশ তাঁদের ধাওয়া দিলে আশপাশের বিভিন্ন ভবনে তাঁরা লুকিয়ে পড়েন। এ সময় রিপোর্টার্স ইউনিটির পাশের একটি ভবন থেকে ১২ জনকে আটক করে পুলিশ।

ঘটনার সত্যতা নিশ্চিত করে শাহবাগ থানার ভ্রাম্যমাণ পরিদর্শক শহিদুল ইসলাম প্রথম আলোকে জানান, আটক হওয়া ব্যক্তিদের শাহবাগ থানায় নিয়ে যাওয়া হয়েছে। তাঁদের কাছে কাফনের কাপড়, ব্যানার, লিফলেট পাওয়া গেছে।


নির্বাচন কি শান্তি ফেরাতে পারবে বাংলাদেশে? যথেষ্ট সংশয়ে রয়েছেন রাজনৈতিক বিশ্লেষকরা৷ তাঁদের বক্তব্য, এ ভাবে নির্বাচনের রাস্তায় না গেলেই পারতেন প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা ওয়াজেদ৷ এতে হিতে বিপরীত হওয়ার সম্ভাবনাই বেশি৷ আন্তর্জাতিক মহলও তেমন আশঙ্কা করছে৷


আত্মঘাতী হাসিনা,হাসিনার জন্যই এখন বাংলাদেশ জ্বলছে আবার!

রাজধানীর মিরপুরের কল্যাণপুর, পল্লবী, কাফরুল, সেনপাড়া পর্বতাসহ বিভিন্ন এলাকায় অভিযান চালিয়ে শতাধিক ব্যক্তিকে আটক করেছে যৌথ বাহিনী। গতকাল বৃহস্পতিবার দিবাগত রাত ১২টা থেকে আজ শুক্রবার ভোর ছয়টা পর্যন্ত এ অভিযান চলে।

কল্যাণপুর, কাফরুল ও সেনপাড়া পর্বতা থেকে ৮০ জনেরও বেশি ও পল্লবী থেকে অর্ধশতাধিক ব্যক্তিকে আটক করা হয়।

পুলিশের পল্লবী জোনের সহকারী কমিশনার কামাল হোসেন প্রথম আলোকে ঘটনার সত্যতা নিশ্চিত করেছেন। তিনি জানান, নাশকতা ও সহিংসতার অভিযোগে তাদের আটক করা হয়েছে।

পুলিশের মিরপুর বিভাগের উপকমিশনার ইমতিয়াজ আহমেদ বলেন, শতাধিক ব্যক্তিকে আটক করা হয়েছে। এদের বিরুদ্ধে মামলা আছে কি না, তা যাচাই-বাছাই করা হবে। আটক হওয়া ব্যক্তিদের মধ্যে বেশ কিছু তালিকাভুক্ত সন্ত্রাসী রয়েছে। তিনি জানান, কাফরুল থেকে অস্ত্র, মিরপুর এলাকা থেকে বোমা তৈরির সরঞ্জাম, ব্যানার পাওয়া গেছে। আশঙ্কা করা হচ্ছে, ২৯ ডিসেম্বর বিএনপির নেতৃত্বাধীন ১৮-দলীয় জোটের 'মার্চ ফর ডেমোক্রেসি'কর্মসূচিকে কেন্দ্র করে নাশকতা ঘটানোর পরিকল্পনা ছিল আটক হওয়া এসব ব্যক্তির।

গত বুধবার রাত ১২টা থেকে ঢাকাসহ দেশের বিভিন্ন স্থানে অভিযান শুরু করে যৌথ বাহিনী। যৌথ বাহিনীর এ অভিযানে গতকাল রাজধানীর বিভিন্ন স্থান থেকে ২৫ জনকে আটক করা হয়। যৌথ বাহিনীর এ অভিযানে পোশাকধারী পুলিশ, বর্ডার গার্ড বাংলাদেশ (বিজিবি), র্যাপিড অ্যাকশন ব্যাটালিয়ন (র্যাব) এবং সাদা পোশাকে পুলিশের গোয়েন্দা শাখার (ডিবি) সদস্যরা অংশ নিচ্ছেন।


প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনাপ্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা বলেছেন, আন্দোলনের নামে বিরোধী দল গাছ কেটে পরিবেশ ধ্বংস করছে। তারা জ্বালাও-পোড়াও করে মানুষ হত্যা করছে। তাদের হাত থেকে গবাদি পশুও রেহাই পাচ্ছে না।

আজ শুক্রবার প্রধানমন্ত্রী নিজ নির্বাচনী এলাকা গোপালগঞ্জের কোটালীপাড়া শহীদ মিনার চত্বরে স্থানীয় আওয়ামী লীগ আয়োজিত এক কর্মিসভায় প্রধান অতিথির ভাষণে তিনি এ কথা বলেন।

প্রধানমন্ত্রী বলেন, ৫ জানুয়ারি নির্বাচন হবে অবাধ ও নিরপেক্ষ। এই নির্বাচন কেউ বানচাল করতে পারবে না। যাঁরা নির্বাচন বানচালের স্বপ্ন দেখেন, তাঁদের জনগণ প্রতিহত করবে। আবার ক্ষমতায় গেলে ২০২১ সালের মধ্যে দেশে ২৪ হাজার মেগাওয়াট বিদ্যুত্ উত্পাদনের প্রতিশ্রুতি দেন প্রধানমন্ত্রী।


যে ভাবে বাংলাদেশ সরকার ৫ জানুয়ারির নির্ধারিত দিনে নির্বাচনের সিদ্ধান্ত নিয়েছে, তাতে শঙ্কিত এমনকি রাষ্ট্রপুঞ্জও৷ ইতিমধ্যেই রাষ্ট্রপুঞ্জের তরফে মধ্যস্থতাকারীরা বাংলাদেশে গিয়েছিলেন৷ তাঁদের উপস্থিতিতে সরকার ও বিরোধীদের মধ্যে তিন দফা আলোচনা হয়৷ কিন্ত্ত কোনও সমাধানসূত্র বেরোয়নি৷ যে যার অবস্থানে অনড় থাকায় মধ্যস্থতাকারীরা ফিরে যান৷ মহাসচিব বান-কি-মুন বলেছিলেন, 'কোনও অবস্থাতেই সুষ্ঠু পরিবেশ ছাড়া নির্বাচন সম্ভব নয়৷ অবিলম্বে বাংলাদেশে শান্তি ফেরাতে হবে৷'একই আহ্বান গিয়েছিল আমেরিকা, ব্রিটেন-সহ অন্যান্য দেশ থেকে৷




কাজ হয়নি কিছুতেই৷ আওয়ামি লিগ নেতৃত্বাধীন সরকারের পরিবর্তে অন্তর্বর্তী সরকার গড়ে নির্বাচনের দাবিতে বিরোধীরা অনড়৷ এই অবস্থায় নির্বাচন হওয়ার অর্থ, অন্তত ৩০০টি আসনে বিনা প্রতিদ্বন্দ্বিতায় শাসকদলের জয়লাভ৷ ফলে প্রশ্ন উঠছে, কোনও গণতান্ত্রিক পরিকাঠামোয় এমন নির্বাচন কি গ্রহণযোগ্য? মার্কিন প্রশাসন জানিয়েছে, বাংলাদেশের পরিস্থিতি নিয়ে তারা উদ্বিগ্ন৷ যে কোনও মূল্যে গণতন্ত্র রক্ষা করা প্রয়োজন বলে তারা মনে করে৷ ব্রিটিশ সরকারের বক্তব্য, সব দল যাতে নির্বাচনে অংশগ্রহণ করে, সে চেষ্টা করা উচিত৷ কারণ, একমাত্র তা হলেই জনমতের প্রকৃত প্রতিফলন ঘটবে৷ রাষ্ট্রপুঞ্জ, আমেরিকা, ব্রিটেন ছাড়া ইউরোপিয়ান ইউনিয়ন, কমনওয়েলথ-ভুক্ত দেশগুলি বাংলাদেশের ভোটে পর্যবেক্ষক পাঠাবে বলে জানা গিয়েছে৷




বিশেষজ্ঞরা বলছেন, আন্তর্জাতিক মহলের উদ্বেগ থেকেই পরিষ্কার, বাংলাদেশে নির্বাচনের পরিবেশ আদৌ নেই৷ প্রশ্ন উঠছে, তা হলে কি ক্ষমতায় থাকার সুবিধে নিচ্ছেন হাসিনা? পাল্টা যুক্তিতে বলা হচ্ছে, বাংলাদেশ ন্যাশনালিস্ট পার্টির (বিএনপি) নেতৃত্বাধীন বিরোধী জোট যে পরিমাণ অশান্তি করছে, তাতে সরকারকে কঠোর হতেই হবে৷ ট্রান্সপারেন্সি ইন্টারন্যাশনালের বাংলাদেশ ডিরেক্টর ইফতেকারউজ্জমানের বক্তব্য, 'নির্বাচন বন্ধ করা নিয়ে খালেদা যা বলেছেন, তা হুঁশিয়ারি হলেও ঠিক ছিল৷ কিন্ত্ত নির্বাচন প্রতিহত করতে তাঁর মুখে রক্তক্ষয়ী প্রতিবাদের কথা শোনা যাবে কেন?'তিনি অবশ্য স্বীকার করছেন, সরকার একগুঁয়ে মনোভাব ত্যাগ ছাড়লে এত দিনে পরিস্থিতি স্বাভাবিক হওয়ার সম্ভাবনা ছিল৷ কিন্ত্ত হাসিনা তাঁর অবস্থান থেকে সরেননি৷ ইফতেকারউজ্জমান মনে করেন, সরকার এবং বিরোধী, দু'পক্ষই এত দিন যা করেছে, তাতে নির্বাচন ঘিরে সাধারণ মানুষের আগ্রহ আর নেই৷ কারণ? ইফতেকারউজ্জমানের ব্যাখ্যা, 'ভোটের নামে এমন অশান্তি কে চান? সাধারণ মানুষ শান্তি চান৷ আগে প্রাণ, তার পর সব কিছু৷'


গতকাল দুপুরে রাজশাহী নগরে ১৮-দলীয় জোটের নেতা-কর্মীরা বিক্ষোভ শেষেফেরার পথে পুলিশের একটি গাড়িতে বোমা হামলা চালান। এতে সিদ্ধার্থসহ নয়জন পুলিশ সদস্য আহত হন। পরে সিদ্ধার্থ মারা যান। ছবি: শহীদুল ইসলামরাজশাহীতে পুলিশের গাড়িতে বোমা হামলায় কনস্টেবল সিদ্ধার্থ রায় নিহত হওয়ার ঘটনায় ১৮ দলের ৩৫০ জন নেতা-কর্মীর বিরুদ্ধে গতকাল বৃহস্পতিবার রাতে দুটি মামলা হয়েছে।

মামলায় বিএনপির যুগ্ম মহাসচিব মিজানুর রহমান মিনু, বিশেষ সম্পাদক ও জেলা বিএনপির সভাপতি নাদিম মোস্তফা ও রাজশাহী সিটি করপোরেশনের মেয়র মোসাদ্দেক হোসেনসহ ৮৫ জনের নাম উল্লেখ করা হয়েছে।

পুলিশ সূত্রে জানা গেছে, নগরের বোয়ালিয়া থানার উপপরিদর্শক (এসআই) রফিকুল ইসলাম বাদী হয়ে মামলা দুটি করেন। এর মধ্যে একটি হত্যা ও অপরটি বিস্ফোরকদ্রব্য নিয়ন্ত্রণ আইনে করা মামলা। গতকাল রাতে র্যাব ও পুলিশ বিশেষ অভিযান চালিয়ে এ ঘটনায় আটজনকে আটক করেছে। এ নিয়ে গতকাল দুপুরের এ ঘটনার পর থেকে ৪৪ জনকে আটক করেছে পুলিশ।

গতকাল দুপুরে রাজশাহী নগরে ১৮-দলীয় জোটের নেতা-কর্মীরা বিক্ষোভ শেষে ফেরার পথে কনস্টেবল সিদ্ধার্থসহ তাঁর সহকর্মীদের বহনকারী গাড়ি লক্ষ্য করে বোমা হামলা চালান। এতে সিদ্ধার্থসহ নয়জন পুলিশ সদস্য আহত হন। সিদ্ধার্থের আঘাত ছিল গুরুতর। চিকিত্সকদের পরামর্শে হেলিকপ্টারে করে তাত্ক্ষণিক তাঁকে ঢাকায় সম্মিলিত সামরিক হাসপাতালে নেওয়া হয়। তবে শেষ চেষ্টা করেও তাঁকে বাঁচানো যায়নি। রাত সাড়ে নয়টার দিকে তিনি মারা যান।

এর আগে গত মঙ্গলবার রাতে ১৮ দলের অবরোধ শেষ হওয়ার পর রাজধানীর বাংলামোটরে পুলিশের গাড়িতে পেট্রলবোমা হামলা চালানো হয়। এ ঘটনায় এক পুলিশ সদস্য নিহত হন।


বাংলাদেশে হিন্দুদের ওপর হামলা

সর্বশেষ আপডেট বৃহষ্পতিবার, 19 ডিসেম্বর, 2013 14:42 GMT 20:42 বাংলাদেশ সময়

মেডিয়া প্লেয়ার

বিকল্প মিডিয়া প্লেয়ারে বাজান

সাতক্ষীরা


বাংলাদেশে চলমান রাজনৈতিক সহিংসতায় বিভিন্ন স্থানেই সংখ্যালঘু হিন্দু সম্প্রদায়ের মানুষ আক্রমণের শিকার হচ্ছেন।

জামায়াতে ইসলামীর একজন শীর্ষ নেতাকে একাত্তরে মানবতাবিরোধী অপরাধের দায়ে ফাঁসি দেয়ার পরে দেশের বিভিন্ন স্থানে সংখ্যালঘু সম্প্রদায়ের ওপর হামলার ঘটনা ঘটছে।

অনেকের বাড়িঘর জ্বালিয়ে দেয়া হয়েছে।

হামলার ভয়ে এখন অনেকেই রাতে বাড়িতে থাকেন না।

বিশেষ করে বাংলাদেশের দক্ষিণ-পশ্চিমাঞ্চলের জেলা সাতক্ষীরার সংখ্যালঘু হিন্দু পরিবারের মানুষ অনেক বেশি আতঙ্কে আছেন।

ঢাকা থেকে বিস্তারিত জানাচ্ছেন আমীন আল রশীদ:

বাংলাদেশে নামল সেনা, খালেদার বাড়ি ঘিরে পুলিশ

আনন্দবাজার – ৩ ঘন্টা আগেফটো দেখুন

  • বাংলাদেশে নামল সেনা, খালেদার বাড়ি ঘিরে পুলিশ

নির্বাচন ও বিরোধীদের ঢাকা চলো কর্মসূচির আগে সেনা নামল বাংলাদেশে। বিরোধী নেত্রী খালেদা জিয়াকে তাঁর বাড়িতে আটকে রাখা হয়েছে বলে অভিযোগ করেছে বিরোধীরা। তবে তা মানতে রাজি নয় সরকার। সেনার পক্ষ থেকে জানানো হয়েছে, অসামরিক প্রশাসনকে সাহায্য করতে বাহিনী পাঠানো হয়েছে। ৯ জানুয়ারি পর্যন্ত নির্বাচন কমিশনের নির্দেশ মেনে কাজ করবে সেনা। প্রথমে জেলা সদর, পরে জেলা, উপ-জেলা ও মেট্রোপলিটান এলাকাতেও সেনা মোতায়েন হবে। নির্বাচন কমিশনের মুখপাত্র এস এম আসাদুজ্জামান জানান, বাংলাদেশের ৬৪টি জেলার ৫৯টিতেও সেনাবাহিনীকে ব্যবহার করা হবে।

গত তিন মাসে বিরোধীদের দেশ জোড়া অবরোধ কর্মসূচির সময়ে ব্যাপক হিংসা দেখেছে বাংলাদেশ। আজও রাজশাহিতে সন্দেহভাজন বিএনপি ও জামাতে ইসলামি কর্মীদের হামলায় ৯ জন পুলিশ আহত হয়েছেন। কুম্মিলার লাকসাম উপ-জেলায় চিফ এক্সিকিউটিভের অফিসও পুড়িয়ে দিয়েছে অজ্ঞাতপরিচয় দুষ্কৃতীরা। গত সপ্তাহেই সীমান্তরক্ষী বাহিনী ও র্যাপিড অ্যাকশন ব্যাটেলিয়ন নামিয়েছিল শেখ হাসিনা সরকার। সাতক্ষীরা, সিরাজগঞ্জ ও চট্টগ্রাম থেকে বেশ কিছু বিরোধী কর্মীকে গ্রেফতারও করা হয়েছে।

সেনার পক্ষ থেকে জানানো হয়েছে, মূল সড়ক ও যে সব এলাকায় বেশি অশান্তি হয়েছে সেগুলি পাহারা দিচ্ছেন তাঁদের জওয়ানরা। শীতে বাৎসরিক অনুশীলনের সময়েই সড়ক ও বিভিন্ন উপদ্রুত এলাকায় মোতায়েন করা হয়েছিল জওয়ানদের। এখনও সেই দায়িত্বেই থাকবেন তাঁরা। অসামরিক প্রশাসনের সঙ্গে সমন্বয় রক্ষার জন্য একটি 'কেন্দ্রীয় সমন্বয় সেল'তৈরি করা হয়েছে।

৫ জানুয়ারির নির্বাচনের আগে নিরপেক্ষ তদারকি সরকারের হাতে দেশের ভার দেওয়ার দাবি জানিয়েছিল বিএনপি-সহ ১৮ দলের বিরোধী জোট। সে দাবি মানেনি শেখ হাসিনার সরকার। তখনই শুরু হয় বিরোধ।

২৯ ডিসেম্বর 'ঢাকা চলো'-র ডাক দিয়েছে বিরোধীরা। কিন্তু তার আগে বিএনপি নেত্রী খালেদা জিয়াকে কার্যত গৃহবন্দি করে রাখা হয়েছে বলে দাবি তাঁর দলের। প্রত্যক্ষদর্শীরা জানিয়েছেন, কোনও দলীয় কর্মী বা দশনার্থীকে খালেদার বাড়িতে ঢুকতে দেওয়া হচ্ছে না।

গত কাল গভীর রাতে খালেদার বাড়ির কাছ থেকে বিএনপি সাংসদ শাম্মি আখতার ও আরও তিন নেতাকে আটক করেছে পুলিশ। আজ আটক হয়েছেন বিএনপি নেতা ও সুপ্রিম কোর্ট বার অ্যাসোসিয়েশনের সম্পাদক মেহবুবউদ্দিন খোকন। খালেদাকে গৃহবন্দি করার কথা মানতে চায়নি প্রশাসন। পুলিশ কমিশনার বেনজির আহমেদের বক্তব্য, "সকলের নিরাপত্তার জন্য যা করা দরকার তা-ই করছি।"

আনন্দবাজার পত্রিকা

দেশটাকে জাহান্নামে পাঠাবেন না : কাদের সিদ্দিকী


গণগ্রেফতারেও অব্যাহত জনপ্রতিরোধ


যৌথবাহিনী অভিযানের নামে গণগ্রেফতার করলেও অব্যাহত রয়েছে জনপ্রতিরোধ। দেশের বিভিন্ন স্থানে অবরোধকারীদের প্রতিরোধের মুখে যৌথবাহিনী পিছু হটেছে। সাতক্ষীরায় যৌথবাহিনীর সাথে অবরোধকারীদের ব্যাপক সংঘর্ষ হয়েছে। এক অসহনীয় তা-ব চলছে সাতক্ষীরায়। আওয়ামী সন্ত্রাসী ও যৌথবাহিনী একযোগে বিএনপি, জামায়াত ও ১৮ দলীয় জোটের নেতৃবৃন্দের বাসায় বাসায় হামলা ও লুটপাট করে এবং লুটপাট শেষে ৫টি বাড়িতে আগুন ধরিয়ে দেয়। ঝিনাইদহেও অবরোধকারীদের সাথে যৌথবাহিনীর সংঘর্ষ হয়। নাটোরে আওয়ামী লীগের সাথে সংঘর্ষে ১৮ দলের ২০ জন নেতাকর্মী আহত হয়েছে। গতকাল পুলিশের গুলিতে নিহত হয়েছে ২ জন। এর মধ্যে লক্ষ্মীপুরে ১৮ দলের মিছিলে পুলিশ গুলি করলে যুবদলের জেলা সহ-সাধারণ সম্পাদক ইকবাল মাহমুদ জুয়েল নিহত হয়েছে। এছাড়া যশোরের মনিরামপুরে গুলি করে যুবদলকর্মীকে হত্যা করা হয়। সারাদেশে গুম হয়েছে ৩ জন। গ্রেফতার ৩৭৫ জন, আহত ৫২৭ জন এবং ২৭০০ জনের বিরুদ্ধে মামলা হয়েছে। রাজধানীতে পুলিশের পাহারা থাকা সত্ত্বেও বঙ্গভবনের পাশে বিআরটিসি বাসে আগুন দেয় অবরোধকারীরা। মিরপুরে বাসে আগুন দেয়। বগুড়ায় বিআরটিসির ডিপোতে বোমা বিস্ফোরণ ঘটে। এতে কমপক্ষে দুটি বাসে আগুন ধরে যায়। সিরাজগঞ্জে পুলিশ পাহারায় থাকার পরও ৫টি ট্রাকসহ মোট ৮টি যানবাহনে আগুন ধরিয়ে দেয় অবরোধকারীরা। দলের নেতাকর্মী এবং সাধারণ মানুষের স্বতঃস্ফূর্ত অংশগ্রহণে পঞ্চম দফা অবরোধে সারাদেশ অচল হয়ে পড়েছে। বিশেষ করে গোটাদেশ থেকে রাজধানী ঢাকা বিচ্ছিন্ন হয়ে পড়েছে। দেশের যোগাযোগ ব্যবস্থা চরম বিপর্যস্ত। সরকার পুলিশ পাহারায়ও দূরপাল্লার বাস চালাতে পারছে না। মহাখালি বাসস্ট্যান্ড থেকে পুলিশ পাহারায় যাত্রী শূন্য কয়েকটি বাস বিভিন্ন জেলায় ছেড়ে গেলেও রাজধানীর অন্য কোন স্থান থেকে কোন দূরপাল্লার বাস গতকালও ছেড়ে যায়নি, কোথাও থেকে কোন বাস রাজধানীতে প্রবেশও করেনি। হরতাল-অবরোধে রাজধানীতে রিকশা ও অটোরিকশা চলাচল করছে। তবে গণপরিবহনের সংখ্যা কম।

রাজধানীতে গতকালও বিএনপি এবং জামায়াত-শিবির বিভিন্ন স্থানে বিক্ষোভ মিছিলি করেছে। ঢাকার বাইরে ফরিদপুর, নেত্রকোনা, নরসিংদী, পঞ্চগড়, জয়পুরহাট, পিরোজপুর, গাইবান্ধা, দিনাজপুর, নীলফামারী, ফরিদপুর, পটুয়াখালী, গাজীপুর, রংপুর, কুমিল্লা, জামালপুরসহ বিভিন্ন জেলায় অবরোধকারীরা মিছিল করে। অনেক স্থানে পুলিশের সাথে অবরোধকারীদের সংঘর্ষ হয়।


দৈনিক ইনকিলাব

খালেদা জিয়ার পুরো বক্তব্য


বিস্মিল্লাহির রাহ্মানির রাহিম

প্রিয় সাংবাদিকবৃন্দ,

আসসালামু আলাইকুম।

ভয়ংকর রাষ্ট্রীয়-সন্ত্রাস কবলিত দেশ। প্রতিদিন রক্ত ঝরছে। বিনাবিচারে নাগরিকদের জীবন কেড়ে নেয়া হচ্ছে। ঘরে ঘরে কান্নার রোল। শহরের সীমানা ছাড়িয়ে নিভৃত পল্লীতেও ছড়িয়ে পড়েছে আতংক। সকলের চোখে অনিশ্চয়তার ছায়া। নির্বিকার শুধু সরকার। তাদের লক্ষ্য একটাই, যে-কোনো মূল্যে ক্ষমতাকে কুক্ষিগত রাখা। তাই তারা ভিনদেশী হানাদারদের মতো 'পোড়ামাটি নীতি'অবলম্বন করে চলেছে। এমন পরিস্থিতি আমরা কখনো চাইনি। এই দেশের প্রতি আমাদের অঙ্গীকার আছে। এ দেশের জনগণের প্রতি আমাদের মমতা আছে। তাই আমরা বরাবর সমঝোতার কথা বলেছি। শুধু মুখে বলা নয়, আমরা সমঝোতার জন্য সব রকমের চেষ্টা করছি। সকল দলের অংশগ্রহনে একটি অবাধ, সুষ্ঠু, নিরপেক্ষ নির্বাচন অনুষ্ঠানের লক্ষ্যে আমরা প্রস্তাব দিয়েছি। সে প্রস্তাব আমাদের পক্ষ থেকে পার্লামেন্টেও পেশ করা হয়েছে। আমরা বলেছি, আসুন, এই প্রস্তাব নিয়ে আলোচনা করে একটা ঐক্যমতে পৌঁছাই। সরকার তাতেও রাজি হয়নি। তারা অনড় অবস্থান নিলেন। ক্ষমতায় থেকে, পার্লামেন্ট বহাল রেখেই তারা নির্বাচন করবেন। আমরা চাইলে তাদের সরকারে কয়েকজন মন্ত্রী দিতে পারবো শুধু। এই প্রস্তাবে রাজি হয়ে একটি দল কীÑধরনের বিব্রতকর পরিস্থিতির শিকার হয়েছে, তা আজ দেশবাসীর সামনে পরিস্কার। আমরা একটা সমঝোতার উদ্যোগ নেয়ার জন্য রাষ্ট্রপতিকেও অনুরোধ জানিয়েছিলাম। রাষ্ট্রপতির পক্ষে তেমন কোনো উদ্যোগ নেয়া সম্ভব হয়নি। তবে দেশবাসী এর মাধ্যমে সমঝোতার ব্যাপারে আমাদের আগ্রহ ও আন্তরিকতার প্রমাণ পেয়েছে। জাতিসংঘ মহাসচিব বান কি-মুনের বিশেষ দূত অস্কার ফার্নান্দেজ তারানকো এসে সরকারের সঙ্গে বিরোধী দলের বৈঠকের উদ্যোগ নেন। আমরা তাতেও সাড়া দিয়েছি। যদিও মিথ্যা মামলায় কারাগারে আটক আমাদের নেতা-কর্মীদের মুক্তি দেয়া হয়নি। বিরোধী দলের ওপর নির্যাতন বন্ধ হয়নি। এমনকি, একতরফা নির্বাচনের ঘোষিত তফসিল পর্যন্ত স্থগিত করা হয়নি। অর্থাৎ, আলোচনার একট সুষ্ঠু পরিবেশ সরকারের তরফ থেকে সৃষ্টি করা হয়নি। তা সত্ত্বেও আলোচনার মাধ্যমে সংকট সুরাহা করার ব্যাপারে আন্তরিকতার সর্বোচ্চ প্রমাণ আমরা দিয়েছি। দু:খের বিষয়, তিন দফা আলোচনা সত্ত্বেও সরকারের অনড় মনোভাবের কারণে কোনো সমঝোতায় পৌঁছা সম্ভব হয়নি। তারা সকল দলের অংশগ্রহণে সুষ্ঠু, অবাধ, নিরপেক্ষ নির্বাচন চায়নি। ক্ষমতায় থেকে নির্বাচনের নামে কী-ধরণের প্রহসন করা তাদের উদ্দেশ্য, তা সকলের সামনে এর মধেই স্পষ্ট হয়ে গেছে। আসলে কেবল লোক দেখানোর জন্য তারা আলোচনায় এসেছিলেন। এটা ছিল সময় ক্ষেপণে তাদের এক প্রতারণাপূর্ণ কৌশল। এর আড়ালে তারা তাদের অসৎ উদ্দেশ্য বাস্তবায়নের পথেই এগিয়ে গেছে। আপনারা জানেন, তৃতীয় দফা বৈঠকে আমাদের দেয়া প্রস্তাব নিয়ে সরকারী দল তাদের নেতৃবৃন্দের সঙ্গে আলোচনা করে আবার ফিরে আসার অঙ্গীকার করেছিল। তারা সে কথাও রাখেনি। আমাদেরকে আর কিছু জানানোও হয়নি। সংবাদ-মাধ্যম থেকে আমরা জেনেছি যে, তারা বলেছে, দশম সংসদ নির্বাচন নিয়ে আলোচনার আর কোনো অবকাশ নেই। নির্বাচনের নামে একতরফা এক নজীরবিহীন প্রহসনের দিকেই এগিয়ে যাচ্ছে তারা।


উপস্থিত সাংবাদিক বন্ধুগণ,

সুষ্ঠু, অবাধ ও নিরপেক্ষ নির্বাচন প্রশ্নে ১৯৯৫-৯৬ সালে জামায়াতে ইসলামী ও জাতীয় পার্টিকে সঙ্গী করে তত্ত্বাবধায়ক সরকার ব্যবস্থা প্রবর্তনের দাবিতে আন্দোলনের নামে দেশজুড়ে এক নৈরাজ্যকর পরিস্থিতি সৃষ্টি করেছিল আওয়ামী লীগ। হত্যাকান্ড, ধ্বংসযজ্ঞ ও অর্থনৈতিক বিনাশই ছিল তাদের আন্দোলনের পন্থা। গান পাউডার দিয়ে যানবাহন জ্বালিয়ে তারা নিরপরাধ নাগরিকদের হত্যা করেছে। চট্টগ্রাম সমুদ্রবন্দর তারা দীর্ঘদিন অচল করে রেখেছে। সে সময় বিএনপি সরকার দেশ পরিচালনা করছিল। আমরা বিভিন্ন প্রস্তাব দিয়ে সমঝোতায় পৌঁছানোর চেষ্টা করেছিলাম। আন্তর্জাতিক সম্প্রদায়ের বন্ধুরাও মধ্যস্থতার চেষ্টা করেছিলেন। কিন্তু আওয়ামী লীগের অনমনীয়তা ও সন্ত্রাস-আশ্রয়ী কার্যকলাপের কারণে কোনো উদ্যোগই সফল হয়নি। আমরা প্রথম দিকে তাদের দাবির সঙ্গে একমত ছিলাম না। কিন্তু সকলের অংশগ্রহনে একটি অবাধ, সুষ্ঠু, নিরপেক্ষ নির্বাচন অনুষ্ঠানের স্বার্থে আমরা তাদের দাবি পূরণে সম্মত হই। তবে তার আগেই আওয়ামী লীগ, জাতীয় পার্টি ও জামায়াতের সব সদস্য জাতীয় সংসদ থেকে পদত্যাগ করে। তখন সংবিধান সংশোধন করার মতো দুই-তৃতীয়াংশ সংখ্যাগরিষ্ঠতা বিএনপি'র ছিলনা। তাই কেবলমাত্র সংবিধান সংশোধনের জন্য পার্লামেন্ট ভেঙ্গে দিয়ে একটি স্বল্পমেয়াদী জাতীয় সংসদ গঠনের জন্য আমরা নতুন নির্বাচন দিই। আমরা ঘোষনা করি, এটি একটি নিয়ম-রক্ষার নির্বাচন এবং এই নির্বাচনে জিতলে আমরা দেশ পরিচালনা করবো না। আমরা সে কথা রেখেছিলাম। সংবিধান সংশোধন করে জাতীয় নির্বাচনকালীন তত্ত্বাবধায়ক সরকার ব্যবস্থা প্রবর্তনের পর আমরা সংসদ ভেঙ্গে দিই এবং সরকার পদত্যাগ করে। সেই তত্ত্বাবধায়ক সরকার ব্যবস্থা তুলে দিয়ে, ক্ষমতায় থেকে নির্বাচন করার হীন উদ্দেশ্যে আওয়ামী লীগ একতরফাভাবে সংবিধানের বিতর্কিত পঞ্চদশ সংশোধনী পাস করেছে। সে কারণেই আজকের সংকটের সূত্রপাত ঘটেছে। এই হঠকারিতার কারণে দেশে যা-কিছু ঘটছে, তার দায়-দায়িত্ব আওয়ামী লীগের নেতাদেরকেই বহন করতে হবে। আমাদের অতীত অভিজ্ঞতা হচ্ছে, দুই প্রধান রাজনৈতিক পক্ষের মধ্যে একটি ঐক্যমত ও সমঝোতা ছাড়া শান্তিপূর্ণভাবে ক্ষমতা হস্তান্তর এবং সকলের অংশগ্রহনে একটি সুষ্ঠ, অবাধ, নিরপেক্ষ নির্বাচন অনুষ্ঠান সম্ভব নয়। এটা জানা সত্ত্বেও, আওয়ামী লীগ ক্ষমতায় থেকে, প্রহসনের নির্বাচনের মাধ্যমে, তাদের ক্ষমতাকে প্রলম্বিত করার যে কূটকৌশল গ্রহন করেছে, তার বিষময় কুফল আজ দেশবাসী পাচ্ছে।


সাংবাদিক ভাই ও বোনেরা,

আওয়ামী লীগের সভানেত্রী প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা প্রায়ই বলে থাকেন যে, পঞ্চদশ সংশোধনীর মাধ্যমে তিনি জনগণের ভোটের অধিকার নিশ্চিত করেছেন। কিন্তু সংবিধানের এই বিতর্কিত সংশোধনীর আওতায় তিনি আজ নির্বাচনের নামে যে প্রহসন পরিচালনা করছেন তাতে জনগণের ভোট ছাড়াই ১৫৪ জন এমপি হয়ে যাচ্ছেন। অর্থাৎ সরকার গঠনের মতো সংখ্যাগরিষ্ঠতা অর্জনের জন্য তাদের জনগণের ভোটের কোনো প্রয়োজন হয়নি। দেশের মোট ভোটারের শতকরা প্রায় ৫৩ জনের ভোটের অধিকার এই প্রক্রিয়ায় কেড়ে নেয়া হয়েছে। বাকী আসনগুলোতেও যারা প্রার্থী আছেন তাদেরও কোনো উপযুক্ত ও যোগ্য প্রতিদ্বন্দ্বী নেই। সেখানেও ভোটাররা বঞ্চিত হচ্ছেন তাদের পছন্দের প্রার্থীকে ভোট দিতে। কারণ শুধু বিএনপি নয়, দেশের উল্লেখযোগ্য সকল বিরোধী দলই এই নির্বাচনী প্রহসন বর্জন করেছে। শুধু আওয়ামী লীগ এবং তাদের জোটের একাংশ এই একতরফা প্রহসনে শামিল হয়েছে। এই নির্বাচনী তামাশা কোনো ইলেকশন নয়, এটা নির্লজ্জ সিলেকশন। জনগণের ভোটাধিকার হরণের এমন জঘণ্য প্রহসন আমাদের জাতীয় ইতিহাসে এক ঘৃণ্য কলঙ্কের অধ্যায় হয়ে থাকবে। শাসকদলের এই অপকৌশলের কথা আমরা বিগত কয়েক বছর ধরেই বারবার বলে আসছিলাম। দেশ পরিচালনায় সম্পূর্ণ ব্যর্থ এই চরম অত্যাচারী ও অযোগ্য সরকার জনগণ থেকে সম্পূর্ণ বিচ্ছিন্ন হয়ে পড়েছে। তাই প্রতিদ্বন্দ্বিতাপূর্ণ কোনো নির্বাচনে জনগণের ভোটে নিজেদের জনপ্রিয়তা যাচাইয়ের সাহস তাদের নেই। নির্দলীয় নিরপেক্ষ সরকারের অধীনে জাতীয় নির্বাচনের জন্য আমাদের দাবি গণদাবি ও জাতীয় আকাঙ্খায় পরিণত হয়েছে। বিভিন্ন জনমত জরিপে দেখা গেছে শতকরা ৮০ জনেরও বেশি মানুষ নির্দলীয় নিরপেক্ষ সরকারের অধীনে জাতীয় নির্বাচন করার পক্ষে। যখন সারাদেশে লক্ষ লক্ষ মানুষ আমাদের সঙ্গে রাজপথে নেমে শান্তিপূর্ণভাবে এই দাবির সঙ্গে একাত্মতা ঘোষনা করছিলেন, তখন সরকার শান্তিপূর্ণ সমাবেশের সকল অধিকার কেড়ে নিয়েছে। দুনিয়ার সব গণতান্ত্রিক দেশে জনগণের ও বিরোধী দলের রাজপথে নেমে শান্তিপূর্ণ পন্থায় তাদের দাবি তুলে ধরার অধিকার থাকলেও বাংলাদেশে তা নেই। এখানে কেবল সরকারের সমর্থকরা আইন-শৃঙ্খলা বাহিনীর ছত্রছায়ায় রাজপথে সশস্ত্র মহড়া দিতে পারে। অথচ আমাদের সংবিধানে সকলকেই শান্তিপূর্ণ সমাবেশ অনুষ্ঠানের অধিকারের নিশ্চয়তা দেয়া হয়েছে। বিরোধী দলের নেতা-কর্মীদের দিয়ে কারাগারগুলো ভরে ফেলা হয়েছে। আমাদের সদর দফতর ও শাখা কার্যালয়গুলো অবরুদ্ধ করে রাখা হয়েছে। নির্বিচারে চলছে হত্যা, গুম, নির্যাতন, গুলি, কাঁদানে গ্যাস নিক্ষেপ, লাঠিচার্জ, গ্রেফতার ও অপহরণ। সুপরিকল্পিতভাবে এই সন্ত্রাসী পরিবেশ তৈরি করে দেশের জনগণ ও বিরোধী দলকে আতংকিত ও পলায়নপর রেখে সরকার তাদের নির্বাচনী প্রহসনের নীল-নক্শার বাস্তবায়ন শুরু করেছে।


প্রিয় বন্ধুরা,

এই পরিস্থিতিতে প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা দুটি গুরুতর কথা বলেছেন।

এক. সমঝোতার মাধ্যমে আসনগুলো ভাগাভাগি করেছেন তারা। ফলে ১৫৪ আসন ভোট ছাড়াই তারা পেয়ে গেছেন। বিএনপি অংশ নিলে এভাবেই আমাদেরকেও আসন দেয়া হতো।

দুই. বিরোধী দল নির্বাচনে অংশ না নেয়ায় একদিক থেকে ভালোই হয়েছে। জনগণকে আর বিরোধী দলকে ভোট দিতে হলো না। এতে জাতি অভিশাপমুক্ত হয়েছে।

তার কথাতেই পরিস্কার হয়েছে, নির্বাচন নয়, জনগণের ভোটাধিকার কেড়ে নিয়ে আসন ভাগাভাগির প্রহসনই তিনি চেয়েছেন এবং এটাও প্রমাণিত হয়েছে যে, যদি বিরোধীদল এতে অংশ নিতো তবুও তিনি একই রকম প্রহসনের চেষ্টাই করতেন।

দ্বিতীয়ত: বিরোধীদলহীন নির্বাচনই তাঁর কাম্য। একদলীয় ব্যবস্থাতেই তিনি বিশ্বাসী। সেই বিশ্বাস থেকেই তিনি এমন ব্যবস্থা করেছেন, যাতে জনগণ বিরোধী দলকে ভোট দেয়ার কোনো সুযোগ না পায়। এতে তিনি পরিতৃপ্তিবোধ করছেন।

আমি প্রধানমন্ত্রীকে বলতে চাই যে, আসন ভাগাভাগি করার আপনি কেউ নন। এটা জনগণের অধিকার। তারাই ভোট দিয়ে তাদের প্রতিনিধি নির্বাচন করবে। সেই অধিকার আপনি কেড়ে নিয়েছেন। আমরা সকলেই জানি যে, কোনো রাজনৈতিক দল বা ব্যক্তি নয়, জনগণই প্রজাতন্ত্রের মালিক এবং সার্বভৌম ক্ষমতার উৎস। তারা একটি প্রতিদ্বন্দ্বিতাপূর্ণ, বিশ্বাসযোগ্য, সুষ্ঠু নির্বাচনে ভোট দিয়ে পছন্দের প্রার্থীদের তাদের প্রতিনিধি হিসেবে নির্বাচিত করেন। সেই প্রতিনিধিদের সংখ্যাগরিষ্ঠের সিদ্ধান্তে সরকার গঠন ও রাষ্ট্র পরিচালনার অধিকার অর্জিত হয়। এটাই গণতন্ত্রের বিধান। এই বিধানের অন্যথা হলে গণতন্ত্র থাকেনা। সেটা হয়ে দাঁড়ায় অবৈধ স্বৈরাচার। আওয়ামী লীগ গণতন্ত্রের পথ ছেড়ে সেই অবৈধ স্বৈরাচারের পথেই পা দিয়েছে। ইতিহাসের অমোঘ বিধানে এই পা চোরাবালিতে আটকে যেতে বাধ্য। আমরা পরিস্কার ভাষায় বলতে চাই, ভোট ও কোনো প্রতিদ্বন্দ্বিতা ছাড়া ১৫৪ জন এবং কার্যকর ও বিশ্বাসযোগ্য প্রতিদ্বন্দ্বিতা ছাড়া বাকী যাদেরকেই আজ্ঞাবহ নির্বাচন কমিশন সংসদ সদস্য হিসেবে নির্বাচিত ঘোষণা করবে, তারা কেউই বৈধ জনপ্রতিনিধি হবে না। কেননা, জনগণ তাদেরকে ভোট দিয়ে কিংবা প্রতিদ্বন্দ্বিতাপূর্ণ ও বিশ্বাসযোগ্য নির্বাচনে প্রতিনিধি হিসেবে নির্বাচিত করছে না। কাজেই তাদের সমর্থনে গঠিত সরকার হবে সম্পূর্ণ অবৈধ, অগণতান্ত্রিক ও জনপ্রতিনিধিত্বহীন। তেমন একটি অবৈধ সরকারের আদেশ নির্দেশ মান্য করতে প্রজাতন্ত্রের কর্মকর্তা-কর্মচারী এবং জনগণের কোনো বাধ্যবাধকতা থাকেনা। নৈতিক ও জনসমর্থনের দিক বিবেচনায় নিলে এবং বারবার সংবিধানের বেপরোয়া লঙ্ঘণের কারণে এই সরকার অনেক আগেই দেশ পরিচালনার অধিকার ও বৈধতা হারিয়েছে। তবুও সাংবিধানিক সংকট ও শূণ্যতা চাইনি বলেই এখনো সরকারের কর্তৃত্ব ও অস্তিত্বের প্রতি আমাদের স্বীকৃতি অব্যহত রয়েছে। সংসদ বহাল রেখে নির্বাচনী প্রহসন করতে গিয়ে তারা নজীরবিহীন এক চরম জটিলতা সৃষ্টি করেছে। যে আসন শূণ্য হয়নি, সেখানে নতুন করে জনপ্রতিনিধি নির্বাচনের প্রশ্ন অবান্তর। বিশৃঙ্খলা ও নৈরাজ্যের এক নিকৃষ্ট নজীর সৃষ্টি করেছে প্রতিটি আসনে এই দ্বৈত প্রতিনিধিত্ব। এই পরিস্থিতি যারা সৃষ্টি করেছে তাদেরকেই এর নিরসনের দায়িত্ব নিতে হবে।


সাংবাদিক বন্ধুগণ,

১৯৭৫ সালে এই আওয়ামী লীগ গণতন্ত্র হত্যা করেছিল। নিজেদের লুন্ঠন ও শাসন-ক্ষমতা পাকাপোক্ত রাখতে সমাজতন্ত্রের নামে একদলীয় শাসনব্যবস্থা প্রবর্তন করেছিল। সব দল নিষিদ্ধ করা হয়েছিল। সংবাদপত্র ও বিচার বিভাগের স্বাধীনতা এবং জনগণের সকল মৌলিক ও মানবিক অধিকার কেড়ে নিয়েছিল। বিনা ভোটে সরকারের মেয়াদ বাড়িয়ে দিয়েছিল। নির্বাচন ছাড়াই তাদের নেতাকে রাষ্ট্রপতি পদে অধিষ্ঠিত করে ঘোষণা করেছিল: 'যেন তিনি নির্বাচিত।'প্রজাতন্ত্রের মালিক জনগণের সম্মতি ছাড়াই এই অগণতান্ত্রিক পদক্ষেপগুলো তারা গ্রহন করেছিল পার্লামেন্টারী ক্যু'র মাধ্যমে। রাষ্ট্রশক্তির নিপীড়ন চালিয়ে এবং পেশীশক্তির প্রয়োগে এই অন্যায়ের বিরুদ্ধে জনগণের সকল প্রতিবাদ-বিক্ষোভকে স্তব্ধ করে দেয়া হয়েছিল। আজ আবারো আওয়ামী লীগ সেই কলঙ্কিত ইতিহাসের পুনরাবৃত্তি ঘটাচ্ছে একটু ভিন্ন আদলে। জনগণের অধিকার হরণকারী চতুর্থ সংশোধনীর মতো এবারের বিতর্কিত পঞ্চদশ সংশোধনী তারা একতরফাভাবে ব্রুট মেজরিটির জোরে সংসদে পাস করেছে। এরপর তারা ধাপে ধাপে বিভিন্ন পদক্ষেপ নিয়ে অগ্রসর হচ্ছে গণতন্ত্র হত্যার পথে। প্রহসন ও কারসাজির মাধ্যমে নির্বাচনী প্রক্রিয়াকে ধ্বংস করার ক্ষেত্রে সর্বশেষ উদ্যোগের মাধ্যমে তারা গণতন্ত্রের কফিনে শেষ পেরেকটি ঠুকছে। বর্তমান অবস্থায় প্রাচীন একটি ফরাসী প্রবাদের অনুকরণে আমি আজ দেশবাসীর উদ্দেশ্যে একটি বাক্য উচ্চারণ করতে চাই: 'ডেমোক্রেসি ইজ ডেড, লং লিভ ডেমোক্রেসি।'


সমবেত সাংবাদিকবৃন্দ,

দেশে এখন নির্বাচনের নামে সরকারের ক্ষমতার মেয়াদ বাড়িয়ে নেয়ার উদ্দেশ্যে ন্যক্কারজনক যে তামাশা চলছে তাতে আন্তর্জাতিক খ্যাতিসম্পন্ন বৃটিশ সাময়িকী 'ইকোনমিস্ট'তাদের প্রতিবেদনের শিরোনাম করেছে, 'শাসকেরা জিতবে, হারবে বাংলাদেশ'। শুধু শাসক দল আওয়ামী লীগ জিতলে কথা ছিলনা। যে বিজয়ের অর্থই হচ্ছে দেশের পরাজয়, বাংলাদেশের হেরে যাওয়া, সেটি আমরা মেনে নিতে পারি না। এদেশের জনগণ জীবন দিয়ে, রক্ত দিয়ে মহান মুক্তিযুদ্ধ করে যে-দেশ সৃষ্টি করেছে, তারা সেই দেশের পরাজয় মেনে নেবে না। অনেক ত্যাগের বিনিময়ে এদেশের মানুষ যে গণতন্ত্র এনেছে, সেই গণতন্ত্রকেও তারা কেড়ে নিতে, পরাজিত হতে দিবে না। এদেশের মানুষ তাদের ভোটের অধিকার আদায় করবেই। বাংলাদেশের জনগণ শান্তি, নিরাপত্তা, নিশ্চয়তা ও সুুষ্ঠু অর্থনৈতিক তৎপরতার উপযোগী পরিবেশ চান। দীর্ঘ মেয়াদে যাতে বাংলাদেশ অশান্ত, অনিরাপদ ও অনিশ্চয়তার অন্ধকারে ছেয়ে না যায়, তার জন্যই গ্রামে গঞ্জে, শহরে বন্দরে, পাড়ায় মহল্লায় মানুষ আজ লড়াইয়ে নেমেছে। এ লড়াই গণতন্ত্র রক্ষার, অধিকার প্রতিষ্ঠার, জীবন রক্ষার, দেশ বাঁচাবার, শান্তি ও স্থিতিশীলতা ফিরিয়ে আনবার। জনগণের বিজয় অর্জন পর্যন্ত এই লড়াই চলতে থাকবে এবং আমরা জনগণের সঙ্গেই থাকবো ইনশাআল্লাহ্।

গণবিচ্ছিন্ন, সন্ত্রাসী, গণহত্যাকারী ও মহালুটেরা সরকার জানতো, তাদের এই কারসাজির বিরুদ্ধে গণপ্রতিরোধ গড়ে উঠবেই। তাই তারা খুবই সুকৌশলে পরিকল্পিত পন্থায় প্রহসনের নির্বাচনের প্রক্রিয়া এবং মানবতাবিরোধী ট্রাইব্যুনালের বিচারের রায়ের বাস্তবায়নকে একই সময়সীমায় এনে দাঁড় করিয়েছে। জনগণের শান্তিপূর্ণ গণতান্ত্রিক আন্দোলনে অন্তর্ঘাত সৃষ্টির মাধ্যমে নিরীহ নিরপরাধ মানুষকে সুপরিকল্পিতভাবে হত্যা করে, আগুনে ঝলসিয়ে দিয়ে তারা এর দায় বিরোধী দলের ওপর চাপাতে চাইছে। ২০০৬ সালে যারা প্রকাশ্য রাজপথে লগি-বৈঠা দিয়ে পিটিয়ে বহু মানুষকে হত্যা করে মৃতদেহের উপর পৈশাচিক উল্লাস করেছে সেই আওয়ামী লীগ আজ মানবতা ও শান্তির বাণী শোনাচ্ছে। অপরদিকে জনগণের ভোটাধিকার রক্ষার গণতান্ত্রিক আন্দোলনের উদ্দেশ্য নিয়ে চালাচ্ছে অপপ্রচার। আমাদের স্বাধীনতা যুদ্ধ চলাকালে সংঘঠিত হত্যা, ধর্ষণ, অগ্নিসংযোগ ও লুটতরাজের বিচার আমরাও চাই। তবে বিএনপি বারবার মানবতাবিরোধী অপরাধের বিচার প্রক্রিয়াকে রাজনৈতিক উদ্দেশ্যের সঙ্গে না জড়িয়ে আন্তর্জাতিক ও দেশীয় আইনগত মানদন্ড বজায় রেখে পরিচালনার পক্ষে অবস্থান ব্যক্ত করেছে। আমাদের পরামর্শ মেনে সরকার যদি বিষয়টিকে নিয়ে অতি-রাজনীতি না করতো, তাহলে আজ দেশে-বিদেশে এ নিয়ে এতো সংশয় সৃষ্টি ও প্রশ্ন উত্থাপিত হতো না। বাংলাদেশের অনেক বন্ধু রাষ্ট্র, বিভিন্ন আন্তর্জাতিক সংস্থা, এমনকি জাতিসংঘ পর্যন্ত বিচার প্রক্রিয়ার স্বচ্ছতা ও মান নিয়ে যে আপত্তি তুলছে, তাতে আমাদের অনেক বেশী সতর্ক ও সচেতন হওয়ার প্রয়োজন রয়েছে। তবে এ বিষয়ে পাকিস্তান জাতীয় পরিষদ যে-প্রতিক্রিয়া ব্যক্ত করেছে, তা স্বাধীন বাংলাদেশের নাগরিক হিসেবে আমাদেরকে মর্মাহত করেছে। পাকিস্তানের ভেতরই দায়িত্বশীল মহল থেকে এর প্রতিবাদ করা হচ্ছে। বিএনপির তরফ থেকে এ বিষয়ে আগেই আমাদের প্রতিক্রিয়া জানানো হয়েছে। আজ আমি আবারো বলছি, ১৯৭১ সালে আমরা যুদ্ধ করে স্বাধীনতা এনেছি। পাকিস্তান এখন সহ¯্র মাইল দূরবর্তী এক পৃথক রাষ্ট্র। ১৯৭৪ সালে আওয়ামী লীগের সরকারই ত্রিদেশীয় চুক্তি সই করেছিল। সেই চুক্তিতে পাকিস্তানী যুদ্ধ অপরাধীদের বিচার না করার এবং অতীত তিক্ততা ভুলে সামনে অগ্রসর হবার অঙ্গীকার তারাই করেছিলো। এরপর কোনো ইস্যু নিয়ে পাকিস্তানের সঙ্গে বিরোধ সৃষ্টি হলে তা কূটনৈতিকভাবেই নিরসন করা উচিত। কূটনৈতিকভাবে ব্যর্থ হয়ে সরকার এই প্রসঙ্গকে পুঁজি করে দেশের ভেতরে নোংরা রাজনীতি করার চেষ্টা করছে। এই রাজনৈতিক খেলা বন্ধ করুন।


সাংবাদিক ভাই ও বোনেরা,

জনগণের শান্তিপূর্ণ আন্দোলন চলছে। আমি বারবার বলেছি, আজ আবারো বলছি, নির্দোষ সাধারণ মানুষের জানমালের যেন কোনো ক্ষতি না হয় সে দিকে সকলের সচেতন দৃষ্টি রাখতে হবে। একদিকে হত্যা, নির্যাতন, গুম অপরদিকে শান্তিপূর্ণ আন্দোলনে অন্তর্ঘাত সৃষ্টির অপকৌশল সরকার নিয়েছে। বিচারপতির বাড়িতে বোমা হামলা ও হিন্দু সম্প্রদায়ের বাড়ি পুড়িয়ে দেয়ার সময় শাসক দলের লোকেরা ধরা পড়লেও বিচার হচ্ছে না। দোষ দেয়া হচ্ছে বিরোধী দলের ওপর। কাজেই সকলকে খুব বেশি সজাগ ও সচেতন থাকতে হবে। বাংলাদেশের জনগণই আমাদের শক্তির উৎস। তাদের জন্য এবং তাদেরকে নিয়েই আমাদের সংগ্রাম। প্রধানমন্ত্রী বিরোধী দলের নেতা-কর্মীদের জীবন ও সম্পদের উপর হামলার প্রকাশ্য উস্কানি দিয়েছেন। জনপ্রতিরোধ গড়ে তুলেই এ ধরনের হামলার মোকাবিলা করতে হবে। সব ধর্ম ও সম্প্রদায়ের মানুষের নিরাপত্তা নিশ্চিত করতে প্রয়োজনে গণপ্রহরার ব্যবস্থা করতে হবে। বাংলাদেশের জনগণের অসাম্প্রদায়িক ঐতিহ্য ক্ষুন্ন হতে দেয়া যাবে না। এ প্রসঙ্গে আমি গত ২১ অক্টোবর সংবাদ সম্মেলনে দেয়া আমার বক্তব্যের পুনরুল্লেখ করে বলতে চাই কোন ধর্মীয় সম্প্রদায়ের মানুষ হামলার শিকার হলে আগামীতে উচ্চ ক্ষমতাসম্পন্ন বিচার বিভাগীয় তদন্ত কমিটি গঠন করে অপরাধীদের চিহ্নিত ও শাস্তিবিধান নিশ্চিত করা হবে। দেশব্যাপী সন্ত্রাস, নাশকতা, হানাহানি উস্কে দিয়ে, অন্তর্ঘাত সৃষ্টি করে সরকার প্রহসনের নির্বাচনকে আড়াল করার যে অপকৌশল নিয়েছে এবং স্বাধীনতার চেতনা বাস্তবায়নের নামে তারা তাদের অপশাসন ও নিষ্ঠুর লুন্ঠনকে দীর্ঘায়িত করার যে নীল-নক্শা প্রনয়ণ করেছে, তা ব্যর্থ করে দিতে হবে জনগণের সম্মিলিত প্রতিরোধ সৃষ্টি করে। দেশে আজ ভয়ংকর অনিশ্চিত এক নৈরাজ্যকর অবস্থা সৃষ্টি করেছে সরকার। বিরোধী দলের নেতা-কর্মী ও সাধারণ মানুষকে রাজপথে গুলি করে হত্যা করা হচ্ছে। এখন শুরু হয়েছে ঘরে ঢুকে হত্যা। আইন-শৃঙ্খলা রক্ষার নামে যৌথবাহিনী গঠন করে তাদেরকে চরমভাবে অপব্যবহার করছে সরকার। তালিকা করে বেছে বেছে বিরোধী দলের নেতা-কর্মীদের হত্যা, গ্রেফতার, অপহরণ, নির্যাতন করা হচ্ছে। জনগণের বিরুদ্ধে পরিচালিত এই বেআইনী ও নৃশংস অভিযানে দেশের সশস্ত্র বাহিনীর সদস্যদের নিয়োজিত করার অপচেষ্টাও শুরু হয়েছে। পিলখানা হত্যাযজ্ঞ ও শাপলা চত্ত্বরে রক্তপাতের খলনায়কেরা দেশপ্রেমিক সেনাবাহিনীকে দেশবাসীর মুখোমুখি দাঁড় করাবার অপচেষ্টা চালাচ্ছে। জনগণের সম্পদ দেশপ্রেমিক সশস্ত্র বাহিনীকে প্রহসনের নির্বাচনে জড়িত করে বিতর্কিত না করার জন্য আমি সংশ্লিষ্টদের প্রতি আহ্বান জানাচ্ছি। সরকারের নির্দেশে যৌথবাহিনীর অভিযানে শাসকদলের সশস্ত্র ক্যাডাররাও অংশ নিচ্ছে। তারা বিরোধী দলের নেতা-কর্মীদের পরিবারের সদস্য, আত্মীয়-স্বজন ও মহিলাদের পর্যন্ত আটক করে নিয়ে গিয়ে অমানুষিক নির্যাতন চালাচ্ছে। অনেকের হত্যার পর লাশ গুম করা হচ্ছে। তাদের ঘর-বাড়ি লুটপাট, বুলডোজার দিয়ে গুঁড়িয়ে দেয়া এবং আগুন লাগিয়ে পুড়িয়ে দেয়া হচ্ছে। সেই সঙ্গে চলছে গুপ্তহত্যা ও গুম করা। এ ধরণের পৈশাচিকতার তুলনা কেবল ভিনদেশী হানাদার বাহিনীর বর্বরতার সঙ্গেই করা চলে। আজ লক্ষীপুর, মেহেরপুর, সিরাজগঞ্জ, নীলফামারী, বগুড়া, জয়পুরহাট, সীতাকুন্ড, বাগেরহাট, সাতক্ষীরাসহ দেশের বিভিন্ন অঞ্চলে চলছে রাষ্ট্রীয় সন্ত্রাসের তান্ডব। প্রধানমন্ত্রী ও শাসক দলের প্রকাশ্য হুমকির পর তা'আরো বিস্তৃত ও নৃশংস হয়ে উঠেছে। এর দায়-দায়িত্ব উস্কানি ও নির্দেশদাতা সরকার ও নির্বাচন কমিশনকেই নিতে হবে। আমি আইন ও মানবাধিকারের চরম লঙ্ঘণ করে দেশের নাগরিকদের ওপর এই নির্মম দমন-অভিযানের প্রতি জাতীয় ও আন্তর্জাতিক মানবাধিকার সংস্থা সমূহের দৃষ্টি আকর্ষণ করছি। এই হত্যাযজ্ঞ ও নিপীড়ন বন্ধে সকলকে সোচ্চার হবার এবং কার্যকর পদক্ষেপ গ্রহণের আহবান জানাচ্ছি। বাংলাদেশের বিরাজমান সংকট নিয়ে উদ্বেগ প্রকাশ ও নিরসনের উদ্যোগ গ্রহণের জন্য আমি জাতিসংঘকে আবারো ধন্যবাদ জানাই। বিশ্বের বিভিন্ন দেশের সরকার, সংসদ, রাজনৈতিক দল, বিশিষ্ট নাগরিকবৃন্দ, সংবাদ মাধ্যম, মানবাধিকার সংস্থা সহ বিভিন্ন প্রতিষ্ঠান বাংলাদেশে ন্যায় প্রতিষ্ঠা এবং জনগণের অধিকার সুরক্ষায় যেভাবে সোচ্চার হয়ে উঠেছেন, তার জন্য আমি তাদের প্রতি কৃতজ্ঞতা ও অভিনন্দন জানাচ্ছি।

আমি আশা করি, বাংলাদেশে গণতন্ত্র, মানবাধিকার, শান্তি-স্থিতি, আইনের শাসন ও জনগণের অধিকার রক্ষায় তারা আরো কার্যকর ভূমিকা রাখবেন এবং পরিকল্পিত রাষ্ট্রীয় সন্ত্রাসের শিকার জনগণের পক্ষে বলিষ্ঠভাবে দাঁড়াবেন। দেশের একমাত্র নোবেল বিজয়ী ব্যক্তিত্ব প্রফেসর ড. মুহম্মদ ইউনূস ও গ্রামীণ ব্যাংক নারীর ক্ষমতায়ন ও ক্ষুদ্রঋণ আন্দোলনের মাধ্যমে দারিদ্রমোচনের ক্ষেত্রে অর্জিত অগ্রগতিকে রক্ষার জন্য লড়াই করে যাচ্ছেন। আমি এই আন্দোলনকেও জনগণের অধিকার রক্ষার গণতান্ত্রিক আন্দোলনের অংশ বলেই মনে করি। আমি তাদের ধন্যবাদ জানাই। দেশের প্রায় সকল রাজনৈতিক দল প্রহসনের নির্বাচনকে বর্জন করে মানুষের ভোটাধিকার ও গণতন্ত্র রক্ষার দাবিতে আজ অটল ভূমিকা পালন করছে। আমি তাদেরকে ধন্যবাদ জানাই। সকলের প্রতি আমার আহবান, নিজ নিজ রাজনৈতিক বিশ্বাস, কর্মসূচি ও আদর্শ অক্ষুন্ন রেখেই আসুন, দেশ বাঁচাতে, মানুষ বাঁচাতে, মানবাধিকার ও গণতন্ত্র রক্ষায়, বহুদলীয় গণতন্ত্র থেকে একদলীয় স্বৈরশাসনের দিকে যাত্রাকে রুখে দিতে আমরা এক হয়ে লড়াই করি। এই সংগ্রামে বিজয়ের পর আমরা সকলে মিলে গড়ে তুলবো অখন্ড জাতীয় সত্ত্বা। দূর করবো হানাহানির অন্ধকার। কায়েম করবো সুশাসন। ফিরিয়ে আনবো আইনের শাসন ও ন্যায়বিচার। সমঝোতার ভিত্তিতে প্রধান জাতীয় সমস্যা ও বিরোধীয় ইস্যুগুলোর নিষ্পত্তি করবো। গণতান্ত্রিক প্রতিষ্ঠানগুলো শক্তিশালী করবো। বাংলাদেশকে উৎপাদন ও কর্মমুখর করে সামনের দিকে এগিয়ে নেবো। দেশের সিভিল সমাজ ও ব্যবসায়ীসহ বিভিন্ন শ্রেণী-পেশার সংগঠনকে আমি ধন্যবাদ জানাই শান্তি, সমঝোতা ও গণতান্ত্রিক পদ্ধতির পক্ষে সোচ্চার হবার জন্য। আমি সাংবাদিক বন্ধুদেরকেও ধন্যবাদ জানাই। গণমাধ্যম আজ শৃঙ্খলিত ও রাষ্ট্রীয় ভীতির শিকার। এর মধ্যেও আপনারা সাহস করে অনেক সত্য তুলে ধরছেন। দেশবাসী সংবাদ-মাধ্যম থেকেই জানতে পেরেছেন কী সীমাহীন লুন্ঠন ও দুর্নীতি করে শাসকদলের নেতা-মন্ত্রী-এমপি ও তাদের নিকটজনেরা অঢেল সম্পদের পাহাড় গড়েছেন। তাদের নিজেদের দেয়া হিসেব থেকেই জানা গেছে যে, গত পাঁচ বছরে তাদের সম্পদের পরিমাণ সোয়া দুই হাজার গুণ পর্যন্ত বেড়েছে। শেয়ারবাজার ও রাষ্ট্রয়াত্ত্ব ব্যাংকগুলো তারা নির্মমভাবে লুটে নিয়েছে। কারসাজি ও অত্যাচার চালিয়ে ক্ষমতায় টিকে থাকার ব্যাপারে তাদের যে উদগ্র বাসনা, তার অন্যতম কারণ হচ্ছে, লুটপাটের এই অবারিত সুযোগ। এ সুযোগ তারা যে কোনো মূল্যে অব্যাহত রাখতে চায়। আইন-শৃঙ্খলা রক্ষায় নিয়োজিত বাহিনীর সদস্যদের প্রতি আমি আবারো আহবান জানাচ্ছি, সরকার কিংবা দলবাজ কিছু মুষ্টিমেয় কর্মকর্তার নির্দেশে আপনারা বেআইনি ও অন্যায় কোনো তৎপরতায় লিপ্ত হবেন না। আপনারা বিরোধীদল বা জনগণের প্রতিপক্ষ নন। সরকারি দলের রাজনৈতিক উদ্দেশ্য হাসিল এবং হত্যা, গুম, নির্যাতন চালাবার হাতিয়ার হিসেবে আপনারা ব্যবহৃত হতে পারেন না। মনে রাখবেন, আপনারা সরকারের নন, জনগণের কর্মচারি। এখন সময় এসে গেছে, আপনাদেরকে জনগণের পক্ষেই দাঁড়াতে হবে। এই স্বৈরশাসনের সময় ফুরিয়ে এসেছে। কাজেই তাদের ক্রীড়নক হয়ে নিজ নিজ বাহিনীর সুনাম ও ঐতিহ্য ক্ষুন্নকারী তৎপরতা থেকে আপনারা বিরত থাকবেন, এ আমার আহবান। সরকারকে বলবো, নিজেরা জনগণ থেকে বিচ্ছিন্ন হয়ে গেছেন। এখন বাংলাদেশকে সারা দুনিয়া থেকে বিচ্ছিন্ন করে বিপদে ফেলবেন না। এই দেশ, এ দেশের মানুষ আপনাদেরকে অনেক দিয়েছে। তাদের প্রতি প্রতিশোধপ্রবণ হয়ে দেশটাকে ধ্বংস করে ফেলবেন না। অনমনীয়তা ও হঠকারিতা পরিহার করে বাস্তবের দিকে ফিরে তাকান। প্রধানমন্ত্রী এখনো প্রহসনের নির্বাচন করার ব্যাপারে অনড়। তিনি বলেছেন, দশম সংসদ নিয়ে কোনো আলোচনা নয়। পরে একাদশ সংসদ নিয়ে আলোচনা হতে পারে। এটা যুক্তির নয়, জেদের কথা। এটা বাস্তবসম্মত নয়, অপকৌশলের কথা। আমি তাকে অনুরোধ করি, একগুঁয়েমি পরিহার করুন। গণতান্ত্রিক রাজনীতি হচ্ছে 'আর্ট অব কমপ্রোমাইজ'। সমঝোতা স্থাপন করলে কেউ ছোট হয়ে যায়না। ১৯৯৬ সালে আমরা আপনাদের দাবি মেনে নিয়ে সমঝোতা স্থাপন করেছিলাম। এখন আপনারা ক্ষমতায় আছেন। জনগণের দাবি মেনে নিয়ে সমঝোতায় আসুন। এখনো সময় শেষ হয়ে যায়নি। প্রহসনের নির্বাচনের তফসিল বাতিল করুন। আলোচনা শুরু করুন। আমরাও আলোচনায় বসতে রাজি আছি। জনগণের অর্থের অপচয় করে ভোটবিহীন, প্রার্থীবিহীন, প্রতিদ্বন্দ্বিতাহীন একটা অর্থহীন প্রহসনের নির্বাচন করার প্রয়োজন নেই। এতে শুধু আপনারাই কলংকিত হবেন না, গণতন্ত্রও ধ্বংস হবে। আওয়ামী লীগের ভেতরে বিবেকবান, গণতন্ত্রমনা ও দেশপ্রেমিক মানুষ যারা আছেন তাদের প্রতিও আমার আহ্বান, এই দেশ এবং এ দেশের মানুষের বিরুদ্ধে দাঁড়াবেন না। স্বাধীনতা-সার্বভৌমত্ব, জাতীয় স্বার্থ, জনগণের প্রত্যাশা ও তাদের গণতান্ত্রিক অধিকারের পক্ষে আপনারাও অবস্থান নিন। স্বৈরশাসন ও নির্যাতনের বিরুদ্ধে সোচ্চার হোন। জনগণের আন্দোলনের সঙ্গে একাত্মতা প্রকাশ করুন। নানা বাধাবিঘœ পেরিয়ে ১৯৯১ সাল থেকে এদেশে গণতান্ত্রিক যে বিধি-ব্যবস্থা চলে আসছিলো, এবার আওয়ামী লীগের হাতে তার অপমৃত্যু ঘটতে যাচ্ছে। এই গণতন্ত্র বিনাশের ক্ষেত্রে দোসর হয়েছে মেরুদন্ডহীন ও আজ্ঞাবহ নির্বাচন কমিশন। সংবিধানের দোহাই দিয়ে ভোট, ভোটার ও প্রতিদ্বন্দ্বিতাহীন এক কারসাজির মাধ্যমে আওয়ামী লীগকে বিজয়ী এবং গণতন্ত্রকে পরাজিত ও জনগণের ভোটাধিকার হরণের ঘৃন্য প্রক্রিয়া তারা চালাচ্ছে। প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা 'ইলেকশন ইঞ্জিনিয়ারিং'-এর কথা প্রায়ই বলেন। এবার দেশের মানুষ তার ন্যক্কারজনক প্রতিফলন দেখতে পাচ্ছে। এটা ইলেকশন নয়, সিলেকশন। এখানে জনগণ ও প্রতিদ্বন্দ্বী রাজনৈতিক দলগুলোর কোনো সম্পৃক্ততা নেই। এই নির্বাচন ও এর মাধ্যমে গঠিত সরকার 'বাই দ্য পিপল, ফর দ্য পিপল, অফ দ্য পিপল'হবে না। এটা হবে : 'বাই দ্য ইলেকশন কমিশন, ফর দ্য আওয়ামী লীগ, অফ দ্য আওয়ামী লীগ'। এই গণবিরোধী প্রক্রিয়া বন্ধ করার সাধ্য না থাকলে ইলেকশন কমিশনের অন্তত: পদত্যাগ করা উচিত। ইতিমধ্যে ইউরোপীয় ইউনিয়ন, কমনওয়েলথ ও যুক্তরাষ্ট্র এই প্রহসনে পর্যবেক্ষক না পাঠাবার কথা জানিয়েছে। অন্যরাও জনগণের অধিকার হরণের এই প্রক্রিয়ায় যুক্ত হবার বদলে গণতন্ত্র ও বাংলাদেশের মানুষের ভোটাধিকারের পক্ষে অবস্থান নেয়ার ইংগিত দিয়েছে। অর্থাৎ শুধু দেশে নয়, বিশ্বসমাজও এই নির্বাচনী প্রহসনকে বৈধতা দিতে রাজি নয়। বাংলাদেশে বহুদলীয় গণতন্ত্র এবং জনগণের ভোটাধিকারের পক্ষে আন্তর্জাতিক সম্প্রদায়ের এই দৃঢ় অবস্থানকে আমি সাধুবাদ জানাই। এই প্রহসন ঘৃনাভরে বর্জনের জন্য আমি বাংলাদেশের নাগরিক ও ভোটারদের প্রতি আহবান জানাই। যে প্রহসনকে সারা দুনিয়ার কেউ বৈধতা দিতে রাজি নয়, দেশের সংখ্যাগরিষ্ঠ মানুষ যাতে শামিল হচ্ছে না, সেই প্রক্রিয়ায় জড়িত না হবার জন্যও আমি সংশ্লিষ্ট সকলকে অনুরোধ করছি।


প্রিয় সাংবাদিকবৃন্দ,

গণতান্ত্রিক আন্দোলনে আইন-শৃঙ্খলা বাহিনী ও আওয়ামী সন্ত্রাসীদের গুলিতে এবং শাসক দলের পরিকল্পিত অন্তর্ঘাত ও নাশকতায় যারা জীবন দিয়েছেন, আমি তাদের রুহের মাগফিরাত কামনা করি। তাদের শোকার্ত স্বজনদের প্রতি সমবেদনা জানাই। যারা নির্যাতিত, ক্ষতিগ্রস্ত ও পঙ্গু হয়েছেন তাদের প্রতিও জানাচ্ছি গভীর সহানুভূতি। সারা দেশের জনগণ যেভাবে এই আন্দোলনে একাত্ম হয়ে নিভৃত পল্লীতে পর্যন্ত প্রতিরোধ গড়ে তুলেছেন, সে জন্য তাদেরকে অভিনন্দন জানাই। আমাদের এই আন্দোলন সফল হবেই ইনশাআল্লাহ্। জনগণের বিজয় অনিবার্য।

আমি এখন চলমান আন্দোলনে চার দফা করণীয় ও নীতি-কৌশল তুলে ধরছি:

১। ভোটাধিকার হরণকারী ও মানবাধিকার লঙ্ঘণকারী সরকারের বিরুদ্ধে প্রাণক্ষয়ী লড়াইয়ে যারা শরিক আছেন এবং হচ্ছেন তাদের মধ্যে সমন্বয়, সমঝোতা ও ঐক্য গড়ে তুলুন।

২। বিভক্তি ও বিভাজনের বিষাক্ত রাজনীতির চিরঅবসান ঘটানোর জন্য জনগণের ইচ্ছা ও অভিপ্রায়কে মূল্য দিন। জাতীয় ক্ষেত্রে বিতর্কিত বিষয়সমূহ অবাধ ও শান্তিপূর্ণভাবে আলাপ আলোচনা এবং গণভোটের মধ্য দিয়ে গণতান্ত্রিক পন্থায় মীমাংসার রাজনৈতিক সংকল্পকে জোরদার করুন। সংখ্যাগরিষ্ঠ সাধারণ মানুষ যা চায় না দেশের সংবিধানে তা থাকতে পারে না।

৩। ভোটকেন্দ্র ভিত্তিক সংগ্রাম কমিটিগুলোর পাশাপাশি দেশ ও গণতন্ত্র রক্ষার আন্দোলনরত সকল পক্ষকে নিয়ে অবিলম্বে জেলা, উপজেলা ও শহরে 'সার্বভৌমত্ব ও গণতন্ত্র রক্ষা সংগ্রাম কমিটি'গঠন করে পাঁচ জানুয়ারি নির্বাচনী তামাশা প্রতিহত করুন। প্রতিটি জেলার প্রশাসন ও আইন-শৃঙ্খলা রক্ষার ক্ষেত্রে ভূমিকা রাখুন এবং জনগণের জান, মাল ও জীবীকার নিরাপত্তা বিধানের ক্ষেত্রে স্ব স্ব নাগরিক দায়িত্ব পালন করুন।

৪। গণতন্ত্রের এই সংগ্রামে সংখ্যালঘু ধর্মাবলম্বী, সম্প্রদায় ও জাতিগোষ্ঠির মানুষদের যুক্ত করার পাশাপাশি তাদের জান-মালের নিরাপত্তা লংঘণের সরকারি ষড়যন্ত্র সম্পর্কে সর্বোচ্চ সতর্কতা বজায় রাখুন, সজাগ থাকুন। কোন প্রকার সাম্প্রদায়িকতাকে বরদাশত করবেন না।

এই আন্দোলনকে আরো বিস্তৃত, ব্যাপক ও পরবর্তী ধাপে উন্নীত করার লক্ষ্যে আমি আগামী ২৯ ডিসেম্বর রোজ রোববার সারা দেশ থেকে দলমত, শ্রেণী-পেশা, ধর্মবর্ণ নির্বিশেষে সক্ষম নাগরিকদেরকে রাজধানী ঢাকা অভিমুখে অভিযাত্রা করার আহবান জানাচ্ছি। এই অভিযাত্রা হবে নির্বাচনী প্রহসনকে 'না'বলতে, গণতন্ত্রকে 'হ্যাঁ'বলতে। এই অভিযাত্রা হবে নির্দলীয় নিরপেক্ষ সরকারের অধীনে অর্থবহ নির্বাচনের দাবিতে। এই অভিযাত্রা হবে শান্তি, গণতন্ত্র ও জনগণের অধিকারের পক্ষে। এই অভিযাত্রা হবে ঐতিহাসিক। আমরা এই অভিযাত্রার নাম দিয়েছি: 'মার্চ ফর ডেমোক্রেসি', গণতন্ত্রের অভিযাত্রা।

আমার আহবান, বিজয়ের মাসে লাল-সবুজের জাতীয় পতাকা হাতে সকলেই ঢাকায় আসুন। ঢাকায় এসে সকলে পল্টনে বিএনপি'র কেন্দ্রীয় কার্যালয়ের সামনে মিলিত হবেন।

আমার আহ্বান এই অভিযাত্রায় ব্যবসায়ীরা আসুন, সিভিল সমাজ আসুন, ছাত্র-যুবকেরাও দলে দলে যোগ দাও।

মা-বোনেরা আসুন, কৃষক-শ্রমিক ভাই-বোনেরা আসুন, কর্মজীবী-পেশাজীবীরা আসুন, আলেমরা আসুন, সব ধর্মের নাগরিকেরা আসুন, পাহাড়ের মানুষেরাও আসুন। যে যেভাবে পারেন, বাসে, ট্রেনে, লঞ্চে, অন্যান্য যানবাহনে করে ঢাকায় আসুন। রাজধানী অভিমুখী জন¯্রােতে শামিল হোন।

একই সঙ্গে যারা রাজধানীতে আছেন, তাদের প্রতিও আমার আহ্বান, আপনারাও সেদিন পথে নামুন। যারা গণতন্ত্র চান, ভোটাধিকার রক্ষা করতে চান, যারা শান্তি চান, যারা গত পাঁচ বছরে নানাভাবে নির্যাতিত ও ক্ষতিগ্রস্ত হয়েছেন, শেয়ারবাজারে ফতুর হয়েছেন সকলেই পথে নামুন।

জনতার এ অভিযাত্রায় কোনো বাঁধা না দেয়ার জন্য আমি সরকারকে আহবান জানাচ্ছি। যানবাহন, হোটেল-রেস্তোরাঁ বন্ধ করবেন না। নির্যাতন, গ্রেফতার, হয়রানির অপচেষ্টা করবেন না। প্রজাতন্ত্রের সংবিধান নাগরিকদের শান্তিপূর্ণভাবে সমবেত হবার অধিকার দিয়েছে। সেই সংবিধান রক্ষার শপথ আপনারা নিয়েছেন। কাজেই সংবিধান ও শপথ লঙ্ঘণ করবেন না।

শান্তিপূর্ণ কর্মসূচি পালনে বাঁধা এলে জনগণ তা মোকাবিলা করবে। পরবর্তীতে কঠোর কর্মসূচি দেয়া ছাড়া আর কোনো পথ খোলা থাকবে না।

আইন-শৃঙ্খলা বাহিনীকে বলছি, দেশবাসীর এই শান্তিপূর্ণ কর্মসূচি সফল করতে প্রয়োজনীয় সহায়তা আপনারা দেবেন।

এই কর্মসূচির সাফল্যের জন্য আমি পরম করুণাময় আল্লাহ্ রাব্বুল আলামীনের সাহায্য কামনা করি।

আজ এ পর্যন্তই। আপনাদের সকলকে ধন্যবাদ।


আল্লাহ হাফেজ। বাংলাদেশ জিন্দাবাদ।

কৃষক-শ্রমিক-জনতা লীগের সভাপতি বঙ্গবীর আব্দুল কাদের সিদ্দিকী প্রধানমন্ত্রীকে বলেছেন, দেশটাকে জাহান্নামের দিকে ঠেলে দেবেন না।


আজ বিকাল ৩টায় জাতীয় প্রেসক্লাবে আয়োজিত কৃষক শ্রমিক জনতা লীগের ১৫তম প্রতিষ্ঠা বার্ষিকী সম্মেলনে তিনি এ কথা বলেন।


কাদের সিদ্দিকীর সভাপতিত্বে অনুষ্ঠিত সম্মেলনে আরো উপস্থিত ছিলেন, বিকল্প ধারা বাংলাদেশের সভাপতি এ কিউ এম বদরুদৌজা চৌধুরী, জাতীয় পার্টির একাংশের চেয়ারম্যান কাজী জাফর আহমদ, বিএনপির স্থায়ী কমিটির সদস্য লে. জেনারেল মাহবুবুর রহমান, আ স ম আব্দুর রব প্রমুখ।


কাদের সিদ্দিকী বলেন, প্রধানমন্ত্রী তার নির্বাচনী হলফ নামায় মিথ্যা তথ্য দিয়েছেন।


এ সময় তিনি সরকার দলের মন্ত্রী-এমপিদের অবৈধ সম্পদ অর্জনের সমালোচনা করে বলেন, মাহবুবুল আলম হানিফ ৬ কোটি নয়, ১২শ কোটি টাকার মালিক হয়েছেন।


বিরোধীদলীয় নেত্রীকে উদ্দেশ করে তিনি বলেন, কথায় কথায় অবরোধ দিয়ে জনদুর্ভোগ বাড়াবেন না।


বিএনপির স্থায়ী কমিটির সদস্য লে. জেনারেল মাহবুবুর রহমান বলেন, সরকার সংলাপ নয় সংঘাত চায়।


শীর্ষ নিউজ


বাংলাদেশে ২৬শে ডিসেম্বর থেকে সেনা মোতায়েনের সিদ্ধান্ত ইসির

সর্বশেষ আপডেট শুক্রবার, 20 ডিসেম্বর, 2013 15:39 GMT 21:39 বাংলাদেশ সময়

প্রধান নির্বাচন কমিশনার কাজী রকিবউদ্দীন আহমদ

বাংলাদেশে নির্বাচন কমিশন জানিয়েছে আসন্ন জাতীয় সংসদ নির্বাচন নির্বিঘ্ন করতে সারা দেশে ২৬ ডিসেম্বর থেকে ৯ জানুয়ারি পর্যন্ত সেনা মোতায়েনের সিদ্ধান্ত নিয়েছে নির্বাচন কমিশন।

দশম জাতীয় সংসদ নির্বাচনে আইন-শৃঙ্খলা পরিস্থিতি নিয়ন্ত্রণে বেসামরিক প্রশাসনকে সহায়তা করতে আগামী ২৬শে ডিসেম্বর থেকে সারা দেশে সেনাবাহিনী মোতায়েন করা হবে।

সম্পর্কিত বিষয়

সশস্ত্র ও আইন-শৃঙ্খলা রক্ষাকারী বাহিনীর প্রতিনিধি এবং রিটার্নিং কর্মকর্তাদের সঙ্গে এক বৈঠকের পর প্রধান নির্বাচন কমিশনার কাজী রকিবউদ্দীন আহমদ একথা জানান।

ঢাকা থেকে বিবিসি বাংলার ওয়ালিউর রহমান মিরাজ জানাচ্ছেন প্রধান নির্বাচন কমিশনার কাজী রকিবউদ্দীন আহমদ জানিয়েছেন, ৯ই জানুয়ারি পর্যন্ত সারাদেশে সেনা সদস্যরা দায়িত্ব পালন করবেন। অর্থাৎ ৫ই জানুয়ারি ভোট গ্রহণের আরো চারদিন পর তাদের প্রত্যাহার করা হবে।

মিঃ আহমদ জানান, নির্বাচনী দায়িত্ব পালনকালে আইন-শৃঙ্খলা রক্ষাকারী বাহিনী ও সশস্ত্র বাহিনীর সঙ্গে ম্যাজস্ট্রেট থাকবে।

তিনি বলেন, যেসব আসনে ভোট গ্রহণ করা হবে, সেখানে সেনাবাহিনী নির্বাচন কমিশনের চাহিদা অনুযায়ী দায়িত্ব পালন করবে।

নির্বাচন কমিশনের তথ্য অনুযায়ী, সংসদের তিনশো আসনের মধ্যে একশো চুয়ান্ন আসনে একজন করে প্রার্থী রয়েছেন, ফলে ঐসব আসনে ভোট গ্রহণ করতে হবে না।

দেশের অনেক এলাকায় এরই মধ্যে সেনা সদস্যদের উপস্থিতি দেখা গেলেও সশস্ত্র বাহিনী জানিয়েছে, শীতকালীন মহড়ার অংশ হিসেবে সেনাবাহিনী ঐসব এলাকায় গেছে।

http://www.bbc.co.uk/bengali/news/2013/12/131220_mb_ec_army_deployment.shtml



ভোটের মুলুকে গরুর মিছিল

আশীষ-উর-রহমান ও আনোয়ার হোসেন চাঁপাইনবাবগঞ্জ থেকে | আপডেট: ০৩:৩৪, ডিসেম্বর ২৭, ২০১৩ | প্রিন্ট সংস্করণগোমস্তাপুরের হোগলা এলাকার রাজপথজুড়ে ছিল এই গরুর মিছিল ছবি: আনোয়ার হোসেন দিলুযাচ্ছিলাম ভোটের প্রস্তুতি দেখতে। ভেবেছিলাম, ভোটভিক্ষার বা ভোট বর্জনের কোনো না কোনো মিছিল দেখা যাবে। হাতে তো আর ১০ দিনও সময় নেই। সব ভাবনা যে বাস্তবের সঙ্গে মেলে না, এই বাস্তবতার জ্ঞান লাভ হলো চাঁপাইনবাবগঞ্জ-২ আসনের দুটি উপজেলা ঘুরে। তবে এই হাড়কাঁপানো শীতে মোটরসাইকেলে করে এক শ কিলোমিটারের মতো চষে বেড়ানোর ক্লেশ যে একেবারে বিফলে গেল, তা-ও নয়। প্রাপ্তিযোগ আছে। ভোটের মিছিল দেখা না গেলেও দৃষ্টি সার্থক হলো বিশাল এক গরুর মিছিল দেখে।


এবার জাতীয় সংসদ নির্বাচনে চাঁপাইনবাবগঞ্জের তিনটি আসনের মধ্যে কেবল চাঁপাইনবাবগঞ্জ-২ আসনেই নির্বাচন হচ্ছে। গোমস্তাপুর, রহনপুর ও নাচোল—এই তিনটি উপজেলা নিয়ে নির্বাচনী এলাকা। ভোটার দুই লাখ ৪৪ হাজার। প্রতিদ্বন্দ্বিতা করেছেন তিনজন। আওয়ামী লীগের মনোনীত প্রার্থী রহনপুর পৌরসভার বর্তমান মেয়র গোলাম মোস্তফা বিশ্বাস। দলের প্রতীক নৌকা পেয়েছেন তিনি। স্বতন্ত্র প্রার্থী গোমস্তাপুর উপজেলা পরিষদের চেয়ারম্যান মু. খুরশিদ আলম নির্বাচন করছেন আনারস প্রতীকে। এর জন্য তাঁকে উপজেলা পরিষদ চেয়ারম্যান পদ থেকে পদত্যাগ করতে হয়েছে। তৃতীয়জন বিএনএফ মনোনীত প্রার্থী মোহাম্মদ আলাউদ্দিন প্রতিদ্বন্দ্বিতা করছেন টেলিভিশন মার্কা নিয়ে।

গত বুধবার চাঁপাইনবাবগঞ্জ শহর থেকে রওনা দিয়ে প্রায় ৩৭ কিলোমিটার দূরে গোমস্তাপুর ও রহনপুর এলাকা ঘুরে দেখেছি। কথা বলেছি ভোটপ্রার্থী, ভোটার ও ভোট বর্জন করে প্রতিরোধের অবস্থানে থাকা বিএনপির নেতাদের সঙ্গে। কিন্তু নির্বাচনের আমেজ নেই। নির্বাচনী পোস্টার দেখার শখ থাকলে যেতে হবে বাজার, পথের তেমাথা বা চৌমাথায়, নয়তো উপজেলা, পৌর বা ইউপি সদরে। দেখা যাবে পথের ওপর দড়িতে ঝোলানো সাদাকালো গুটিকয় পোস্টার পলিথিনে মোড়ানো। নৌকা ও আনারসের উপস্থিতি চোখে পড়লেও টেলিভিশন দেখা যায়নি।

রহনপুরের বাড়িতে গোলাম মোস্তফা বিশ্বাস প্রবল আত্মবিশ্বাসের সঙ্গে বললেন, সুষ্ঠুভাবে নির্বাচন হবে এবং তিনি বিপুল ভোটে জিতে যাবেন। তাঁর মতে, শতকরা ৫০ ভাগ ভোটার যাবেন ভোট দিতে। আওয়ামী লীগের ভোটই আছে শতকরা ৪৬ ভাগ।

গোলাম মোস্তফা ভোটারদের বোঝাচ্ছেন, পৌরসভার মেয়র হিসেবে জনসেবাই হোক আর উন্নয়নই হোক, খুব বেশি কিছু করা যায় না। সাংসদ নির্বাচিত হলে তিনি এলাকার রাস্তাঘাটের উন্নয়ন করবেন। পানীয় জলের সমস্যা আছে, তা মেটাবেন ইত্যাদি।

আগের সাংসদও তো এসব কিছু করেননি—এমন প্রশ্নে গোলাম মোস্তফা বললেন, কিছু করেছেন, কিছু বাকি আছে। জানালেন, অচিরেই জোরেশোরে মাঠে নামবেন। মিছিল, জনসভা—সবই হবে।

সুদূর ফিনল্যান্ড থেকে 'এমপি'হওয়ার বাসনা নিয়ে এসেছেন মু. খুরশিদ আলম। তিনি নিজেই তা জানালেন। গোমস্তাপুরের চৌডালা গ্রামের তাঁর বাড়িতেই কথা হলো। সাংসদ হওয়ার জন্য তাঁর ত্যাগ অনেক। ফিনল্যান্ডের নাগরিকত্ব, উপজেলা পরিষদ চেয়ারম্যান পদ, পরিবারের সঙ্গ—সব জলাঞ্জলি দিয়েছেন। উদ্দেশ্য, ওই 'জনসেবা'।

খুরশিদ আলম ১৯৮৯ সালে ফিনল্যান্ডে যান। পরিবার সেখানেই আছে। সাংসদ হওয়ার জন্য ২০০০ সালে দেশে ফিরে সেই থেকে চেষ্টা অব্যাহত রেখেছেন। প্রথম চেষ্টা ২০০১ সালে। বিএনপিতে ছিলেন। দলের মনোনয়ন পাননি। ২০০৯ সালে স্বতন্ত্রভাবে উপজেলা পরিষদের চেয়ারম্যান পদে ভোটে দাঁড়িয়ে আওয়ামী লীগ ও বিএনপির প্রার্থীদের হারিয়ে দিয়েছেন। এবার তাঁরই আওয়ামী লীগের মনোনয়ন পাওয়ার কথা চাউর ছিল এলাকায়। শেষে দাবার ছক পাল্টে যায়।

উপজেলা পরিষদ চেয়ারম্যান পদ আসলে তাঁর ভাষায় 'ঠুঁটো জগন্নাথ'। এ পদে থেকে কিছু করার নেই। ফিনল্যান্ড থেকে তিনি যে অভিজ্ঞতা নিয়ে এসেছেন, তা কাজে লাগাতে হলে সাংসদ হওয়া চাই। তিনি শিল্পায়ন, কর্মসংস্থান সৃষ্টি এবং সহজে স্বল্প খরচে বিদেশে জনশক্তি রপ্তানির ব্যবস্থা করতে চান।

খুরশিদ জানালেন, ভোটে তাঁরই জিত হবে। কারণ, তাঁর ৪৫ হাজারের মতো 'সলিড'ভোট আছে। তাঁরও ধারণা, শতকরা ৫০ ভাগ ভোট পড়বে। তিনি ভোটারদের বোঝাচ্ছেন, ভোট বর্জন করে কোনো লাভ নেই। আওয়ামী লীগ এরই মধ্যে ১৫৪ আসনে বিনা প্রতিদ্বন্দ্বিতায় জিতে সরকার গঠন করতে যাচ্ছে। কাজেই প্রতীক দেখে ভোট দিয়ে লাভ নেই। তার বদলে প্রার্থী দেখে যে যোগ্য, তাঁকেই ভোট দেওয়া উচিত।

তবে এবারই খুরশিদ আলমের শেষ চেষ্টা। বললেন, 'এটাই আমার ফাইনাল খেলা।'

অন্য প্রার্থী মোহাম্মদ আলাউদ্দিনকে পাওয়া গেল না। মুঠোফোনে একাধিকবার চেষ্টা করেও তাঁর সঙ্গে যোগাযোগ করা যায়নি।

কথা হচ্ছিল রহনপুরের কলেজ মোড়ের মুদিখানা বর্ষা স্টোরের মালিক নাজমুল হুদার সঙ্গে। তিনি বললেন, 'এই ভোট তো আর সে রকম ভোট না। গেলেও হয়, আবার না গেলেও চলে। পরিস্থিতি শান্ত থাকলে ভোট দিতে যেতেও পারি।'ভোটারদের সঙ্গে কথা বলে সবার মধ্যেই এই গা ছাড়া ভাব দেখা গেছে।

একই অবস্থা বিরোধী দলেরও। গোমস্তাপুর উপজেলা বিএনপির সভাপতি বায়রুল ইসলাম বললেন,'এখানে তো হচ্ছে পাতানো নির্বাচন। তবু আমরা ভোটারদের বলছি ভোট দিতে না যেতে।'

কম হোক বেশি হোক, পোস্টার তবু কিছু চোখে পড়ল। কিন্তু ভোটের এলাকায় এসে যদি মিছিলেরই দেখা না মেলে, তবে বড় বেখাপ্পা লাগে। শুরুতেই বলেছিলাম, সেই অন্য রকম এক মিছিল দেখার কথা। মহানন্দা নদীর কিনার ঘেঁষে গেছে গোমস্তাপুরে যাওয়ার পাকা রাস্তা। হোগলা বলে একটি জায়গায় এসে আটকে যেতে হলো। সামনের পুরো রাজপথজুড়ে চলছে বিশাল এক গরুর পাল। শত শত। একেবারে পেছনের সারিতে রয়েছে কয়েক ডজন বাছুর। পালের পেছনে, মাঝে, পাশে, সামনে বাঁশের কঞ্চি হাতে নিয়ে বেশ কয়েকজন রাখাল এই বিশাল পাল তাড়িয়ে নিয়ে যাচ্ছে চড়াতে। বেশ খানিকটা পথ তাদের অনুসরণ করার পর সামনে একটা প্রশস্ত জায়গা পাওয়ায় পালটিকে পাশ কাটানোর সুযোগ হলো।

এক রাখাল জানালেন, পালে আছে দুই শর বেশি গরু। ওয়েস্টার্ন বইতে 'ক্যাটলড্রাইভের'বর্ণনা পড়েছি। বাস্তবে চোখে দেখিনি। পালের সামনে হূষ্টপুষ্ট কয়েকটি ষাঁড় রাজসিক চালে রাজপথ বেয়ে দলটিকে নেতৃত্ব দিয়ে এগিয়ে নিচ্ছে। মনে হলো, যাক, অন্তত দৃষ্টি ও শ্রম সার্থক হলো রাজপথে এই গৃহপালিত চতুষ্পদের মিছিল দেখে।

সৌজন্য প্রথম আলো


प्रधानमंत्रित्व की दौड़ में दीदी की बढ़त जारी

मीडिया का आधार अभियान

पहली कामयाब हड़ताल परिवहन मंत्री मदन मित्र के लिए भारी साबित हो सकती है বাস ধর্মঘটে হয়রানি, ভাড়া না বাড়ানোয় অনড় সরকার

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पहली कामयाब हड़ताल परिवहन मंत्री मदन मित्र के लिए भारी साबित हो सकती है

বাস ধর্মঘটে হয়রানি, ভাড়া না বাড়ানোয় অনড় সরকার


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



मां माटी मानुष सरकार के जमाने में पहली कामयाब हड़ताल परिवहन मंत्री मदन मित्र के लिए भारी साबित हो सकती है।मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नजदीकी समझे जाने वाले सुदीप बंदोपाध्याय,संजय बख्शी, पार्थ चटर्जी और कुणाल घोष के हश्र के मद्देनजर आज की कामयाब हड़ताल की गाज परिवहन मत्री पर गिरे तो कोई अचरज नहीं।


यात्री भाड़ा बढ़ाने की मांग को लेकर सूबे के निजी बस मालिकों द्वारा आहूत 24 घंटे की बस व मिनी बस हड़ताल के कारण लंबी दूरी का सफर करने वाले यात्रियों को तमाम परेशानी का सामना करना पड़ा।सरकारी व एकाध निजी बसों में यात्रियों की काफी भीड़ देखी गई।बस मालिकों का कहना है कि राज्य सरकार के पास कई बार अपनी समस्या बताने के बावजूद किराया बढ़ाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाया गया। इसीलिए बाध्य हो कर हड़ताल बुलानी पड़ी है।गौरतलब है कि सोमवार को सुबह से बसों की संख्या नगण्य थी। कुछ रुटों में एकाध बसें दिखीं। उधर आम हड़ताल की तरह से ही शहर के विभिन्न मोड़ पर पुलिस की तैनाती थी ताकि कोई जबरन बस को बंद नहीं करा सके। वहीं बस हड़ताल की वजह से कुछ रूटों में आटो चालक मनमाना किराया लोगों से वसूला। कुल मिला कर बस हड़ताल की वजह से टैक्सी व आटो चालकों की चांदी रही।

 


सवाल परिवहन संकट को सुलझाने का रास्ता निकालने में नाकामी का नहीं है,परिवर्तन के बाद विपक्ष को अपना आंदोलन तेज करने का हौसला देने का ज्यादा है।दबंग मंत्री मदन बाबू बसमालिकों के संगठनों को साध नहीं पाये। इससे आम जनता को जो परेशानी हुई सो हुई,परिवहन उद्योग  समेत समूचे कारोबारी जगत में यह संदेश गया कि इस सरकार की लोकलुभावन नीतियां उनके किसी समस्या का समाधान कर ही नहीं सकतीं। अबतक बंद और हड़ताल के सारे आयोजन नाकाम रहे हैं। लेकिन परिवहन मंत्री की धमकियों के बावजूद सड़क पर खड़ी बसें खींचकर थाने में ले जाने के आदेश के बावजूद,लाइसेंस रद्द होने के खतरे के बावजूद परिवहन हड़ताल की इस कामयाबी ने शारदा फर्जीवाड़ा और कामदुनि प्रकरण को रफा दफा करने के बाद मध्यमग्राम बलात्कार कांड जैसे संगान मामले से जूझ रही सरकार के लिए लोकसभा चुनाव से पहले नये और तेज विरोध के सिलसिले को जन्म दे गया। विपक्ष को मौका देने की इस भूल को दीदी नजरअंदाज कर नहीं सकतीं।


मालूम हो कि शुरुआती तौर पर दीदी ने बाकायदा सड़क पर उतरकर शारदा मामले में अभियुक्त सारे दागी मंत्रियों,सांसदों और नेताओं का आक्रामक बचाव किया था। लेकिन जब कुणाल घोष ने जुबान खोला तो तृणूल के मीडिया सिपाहसालार को किनारे लगाने में दीदी ने देर नहीं की। अब गौरतलब है कि शारदा मामले में मदन मित्र का भी नामोल्लेख बारबार हुआ है। इसके अलावा उद्योग जगत को विश्वास में लेने के लिए दीदी ने जब अपने परम विश्वासपात्र तृणमूल महासचिव पार्थ चटर्जी को मंत्रालय से बाहर का दरवाजा दिखा दिया तो परिवहन संकट लसे निपटने में नाकाम परिवहन मंत्री के खिलाफ वह कार्रवाई न करें तो हालत और नियंत्रण से बाहर हो जायेगी।


दूसरी ओर, विनियंत्रित तेल और गैस बाजार की वजह से डीजल,तेल और गैसों के दामों का बढ़ना अब नियमित तौर पर जारी रहना है। परिवहन मंत्री को परिवहन लागत देखते हुए उसके मुताबिक कोई समीकरण निकालकर इसका प्रबंधकीय समाधान करना था,लेकिन उन्होंने बाकायदा किसी बाहुबलि के तेवर में बसमालिकों की आवाज कुचलने की कोशिश की। माकपाइयों ने भी बार बार यही गलती की है। समस्या को सुलझाने की कोशिश न करने की बुरी आदत वामशासन का खात्मा कर गयी। बीमारी पुरानी है और मरीज नये हैं। लेकिन इस कामयाब बस हड़ताल के बाद अब हड़तालें और भी होनी हैं। कोई एक हड़ताल और बंद भी अगर कामयाब हो गया तो परिवर्तन की हवा खिसकने लगेगी और बेदखल विपक्ष फिर शक्तिशाली होकर रोज नये चुनौती पेश करेगा। दीदी इस खतरे को नजरअंदाज कर ही नहीं सकती।


এই সময় ডিজিটাল ডেস্ক - বাস ধর্মঘটের জেরে সপ্তাহের প্রথম দিনই ভোগান্তি হল যাত্রীদের। বেসরকারি বাস-মালিকদের পাঁচটি সংগঠনের ডাকে সকাল থেকেই চলছে বাস ধর্মঘট। রাস্তায় নামেনি বেসরকারি এবং মিনিবাস মিলিয়ে প্রায় ৪৯ হাজার বাস। সকাল থেকেই যে কটি বাস চলছে সেগুলিতে বাদুড়ঝোলা ভিড় লক্ষ্য করা গেছে। ধর্মঘটীরা জানিয়েছেন ২০১২ সালের অক্টোবর থেকে ২০১৩-র ডিসেম্বর, ভাড়াবৃদ্ধির দাবিতে পরিবহণমন্ত্রীকে মোট ৪৮ বার চিঠি দিয়েছেন বেসরকারি বাস মালিকরা। মন্ত্রীর সঙ্গে তাদের সরাসরি কথা হয়েছে ২২ বার। ভাড়া না বাড়ানোর সিদ্ধান্তে অনড় সরকার। এবার তাই সরকারের সঙ্গে সংঘাতের পথে বাস মালিকরা।


ধর্মঘট মোকাবিলায় সরকার প্রস্তুত বলে পরিবহণমন্ত্রী মদন মিত্র দাবি করেছিলেন। পরিস্থিতি মোকাবিলায় রাস্তায় অতিরিক্ত সরকারি বাস নামানোও হয়েছে৷ কিন্তু, তা প্রয়োজনের তুলনায় কম৷ রাস্তায় বাস না থাকার ফায়দা ওঠাতে এক শ্রেণীর অসাধু অটো ও ট্যাক্সি চালক অতিরিক্ত ভাড়া চাইছেন বলে অভিযোগ নিত্যযাত্রীদের। এ বিষয়ে লিখিত অভিযোগ পেলে ব্যবস্থা নেওয়া হবে বলে জানিয়েছেন পরিবহণ মন্ত্রী মদন মিত্র। বেলা বাড়লে সমস্যা অনেকটাই মিটে যাবে বলে আশ্বাস দিয়েছেন তিনি। বেলার দিকে বাস না চললে রিকুইজিশন দিয়ে বাস চালানোর নির্দেশ দিয়েছেন পরিবহণমন্ত্রী।


এদিকে এই পরিস্থিতিতে হাওড়া বাস স্ট্যান্ড থেকে বাসে ওঠার সময় হাতাহাতিতে জড়িয়ে পড়লেন দুই যাত্রী৷ আজ সকালে ভিড় ঠেলে বাসে ওঠার সময় হাওড়া বাস স্ট্যান্ডে দুই যাত্রীর মধ্যে বচসা বেধে যায়৷ তা থেকে হাতাহাতি৷ মারামারিতে এক যাত্রীর মাথা ফেটে যায়৷ তা ঘিরে এলাকায় ব্যাপক উত্তেজনার সৃষ্টি হয়৷ পরে পুলিশ গিয়ে দুই যাত্রীকে সেখান থেকে সরিয়ে দিয়ে পরিস্থিতি সামাল দেয়৷


রাজ্য জুড়ে বাস ধর্মঘট, দুর্ভোগে যাত্রীরা

নিজস্ব প্রতিবেদন

সোমবার ৫টি বেসরকারি বাস মালিক সংগঠনের ডাকা বাস ধর্মঘটে জেরবার রাজ্য। সপ্তাহের প্রথম দিনের এই ধর্মঘটে সকাল থেকেই নাকাল হয়েছেন নিত্যযাত্রী-সহ সাধারণ মানুষ। বাস ভাড়া বাড়ানোর দাবিতে ২৪ ঘণ্টা ধর্মঘটের ডাক দিয়েছিল বাস সংগঠনগুলি। এর ফলে এ দিন পথে নামেনি বেশির ভাগ বেসরকারি বাস। পরিবহণমন্ত্রী মদন মিত্র রবিবার জানিয়েছিলেন, সোমবার রাস্তায় বেশি সংখ্যায় সরকারি বাস নামানো হবে। কিন্তু কার্যত এ দিন রাস্তায় সে সংখ্যাটা ছিল প্রয়োজনের তুলনায় যথেষ্ট কম। এ দিন ধর্মঘটীদের হুঁশিয়ারি দিয়ে পরিবহণমন্ত্রী বলেন, "গণ্ডগোলের উদ্দেশ্যে এই ধর্মঘট। সরকার কোনও ভাবেই এই গণ্ডগোল বরদাস্ত করবে না।"

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প্রতিদিনের চেনা ছবি থেকে আলাদা, বাসের দেখা নেই হাওড়া স্টেশন চত্বরে।

বাস সংগঠনগুলির তরফে যদিও এ দিন বলা হয়েছে, আগামী ১০ জানুয়ারির মধ্যে ভাড়া বাড়ানো না হলে চরম ব্যবস্থা নেওয়া হবে। তবে এই হুঁশিয়ারি এবং পাল্টা হুমকির মধ্যে এ দিনের কলকাতা ধর্মঘটে কার্যত থমকে গিয়েছে! নিত্যযাত্রীরা তো আছেন-ই, দুর্ভোগের হাত থেকে রেহাই পাননি দূরদূরান্ত থেকে আসা যাত্রীরাও। হাওড়া বাস স্ট্যান্ড হোক বা শিয়ালদহ— বেসরকারি বাসের দেখা মেলেনি কোথাও। হাতেগোনা যে ক'টি বেসরকারি বাস চলেছে তাতে উপচে পড়ে ভিড়। এ দিনের ধর্মঘটের সুযোগ নিতে পিছপা হননি ট্যাক্সি ও অটোচালকেরা। তাঁদের

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বাদুড়ঝোলা

অবস্থা শিয়ালদহে।

বিরুদ্ধে অতিরিক্ত ভাড়া দাবির অভিযোগ তোলেন যাত্রীরা। উপায়ান্তর না দেখে ট্যাঁকের বাড়তি টাকা খরচ করে গন্তব্যস্থলে পৌঁছতে হয় তাঁদের। শুধু মহানগরীই নয়, একই চিত্র ধরা পড়েছে রাজ্যের অন্য জেলাগুলিতেও।

এ দিন সকালে পরিবহণমন্ত্রী মদন মিত্র বলেন,"মানুষের দুর্ভোগের জন্য আমি ক্ষমাপ্রার্থী। আজকের এই ধর্মঘটের জন্য আইনগত ব্যবস্থা দেখে সরকার পদক্ষেপ করবে। যে সব বাসের পারমিট রয়েছে অথচ রাস্তায় নামেনি তাদের পারমিট বাতিল করা হবে। প্রয়োজনে লাইসেন্সও বাতিল করা হবে। সব কিছুর একটা শেষ আছে।"তিনি আরও জানান, কোন কোন জায়গায় কী কারণে বাস কমেছে তা খতিয়ে দেখা হবে। তবে কলকাতায় ১৯টি রুটে বাস চলছে বলে এ দিন জানিয়েছেন তিনি। তাঁর দাবি, রাস্তায় এ দিন যথেষ্ট সরকারি বাস ছিল। পরিবহণমন্ত্রীর এ দিনের মন্তব্যের পর বাস সংগঠনগুলি পাল্টা জানায়, পারমিট বাতিল করা হলে তারাও আইনের পথে হাঁটবে।

বাস ভাড়া বাড়ানোর দাবিতে দীর্ঘ দিন ধরে সোচ্চার বাস সংগঠনগুলি। জ্বালানি ও যন্ত্রাংশের মূল্য বৃদ্ধি এবং রক্ষণাবেক্ষণের খরচ বেড়ে যাওয়ায় বাস ভাড়া বাড়াতে বাধ্য হচ্ছে তারা বলে দাবি বাস সংগঠনগুলির। এ নিয়ে বেশ কয়েক বার পরিবহণমন্ত্রীর সঙ্গে আলোচনাও হয়েছে। আলোচনা ফলপ্রসূ না হওয়ায় এর আগেও বিচ্ছিন্ন ভাবে বাস ধর্মঘটের শিকার হয়েছে শহর। কিন্তু সোমবারের এই ধর্মঘটে পাঁচটি সংগঠন একত্রিত হওয়ায় যাত্রী দুর্ভোগের মাত্রা এক ধাক্কায় অনেকটাই বেড়ে যায়।


—নিজস্ব চিত্র।


ভাল আছেন সুচিত্রা, জানালেন চিকিত্সকেরা

নিজস্ব সংবাদদাতা

*আগের তুলনায় অনেকটাই সুস্থ রয়েছেন মহানায়িকা সুচিত্রা সেন। সোমবার চিকিত্সক সুব্রত মৈত্র জানান, তাঁর শারীরিক অবস্থা স্থিতিশীল রয়েছে। রক্তচাপ ও হৃদস্পন্দনও স্বাভাবিক। তবে তাঁর শারীরিক পরিস্থিতি খতিয়ে দেখে মাঝে মধ্যে নন-ইনভেসিভ ভেন্টিলেশনে রাখা হচ্ছে। চেস্ট ফিজিওথেরাপির মাধ্যমে বুকের কফ তোলার চেষ্টা করা হচ্ছে। রক্তে অক্সিজেনের মাত্রা ওঠানামা করলেও খুব বেশি হেরফের হচ্ছে না। রবিবারের পর এ দিনও হালকা খাবার খেয়েছেন তিনি।

রাতের ঝাড়গ্রামে জঙ্গলে নয়, মুখ্যমন্ত্রী থাকছেন রাজবাড়িতেই

নিজস্ব সংবাদদাতা • ঝাড়গ্রাম

*হাতির হামলার আশঙ্কায় ঝাড়গ্রামে মুখ্যমন্ত্রীর থাকার জায়গা বদলে গেল। ঠিক ছিল মঙ্গলবার আমলাশোলে সরকারি অনুষ্ঠান শেষে রাতে ঝাড়গ্রাম শহরের উপকণ্ঠে জঙ্গলের মাঝের এক বাংলোয় থাকবেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। কিন্তু সোমবার তাঁর নিরাপত্তার দায়িত্বে থাকা আধিকারিকরা লোধাশুলি-ঝাড়গ্রাম রাজ্যসড়কের ধারে, বাঁদরভুলার সেই প্রকৃতি পর্যটন কেন্দ্র পরিদর্শন করে জানিয়ে দিলেন এমন জায়গায় রাত কাটানো মুখ্যমন্ত্রীর জন্য বিপজ্জনক। কেন না, দলমার হাতির দল নেমে এসেছে। ইতিমধ্যে তাদের দেখা গিয়েছে ঝাড়গ্রাম শহর লাগোয়া জঙ্গলে। এমনকী, রবিবার বেলপাহাড়িতে হাতির আক্রমণে এক জনের মৃত্যুও হয়েছে। রাতে যদি হঠাৎ হাতি হামলা করে সেই আশঙ্কায় জঙ্গলের মাঝে বন উন্নয়ন নিগমের ওই বাংলোয় মুখ্যমন্ত্রী থাকবেন না বলে জানিয়ে দেওয়া হল প্রশাসনের তরফে। তার বদলে প্রতি বারের মতো এ বারেও তিনি ঝাড়গ্রাম রাজবাড়ির ট্যুরিস্ট রিসর্টে থাকবেন।

গত সেপ্টেম্বরে বাঁদরভুলার প্রকৃতি পর্যটন কেন্দ্রটির উদ্বোধন করেছিলেন মুখ্যমন্ত্রী। এ বারের এই সরকারি সফরে তিনি রাতে ওখানেই থাকবেন বলে ইচ্ছা প্রকাশ করেন। সেই মতো ওই পর্যটন কেন্দ্রে তার থাকার ব্যবস্থা করা হয়। পাশাপাশি নিরাপত্তা সংক্রান্ত সমস্ত সতর্কতামূলক ব্যবস্থাও নেওয়া হয়। বাইরে থেকে যাতে ওই কেন্দ্রটি দেখতে না পাওয়া যায় সে জন্য কাপড় দিয়ে প্রাচীরের মতো ঘিরেও দেওয়া হয়েছিল। গোয়েন্দা সূত্রে খবর ছিল, জঙ্গলমহলে ফের সক্রিয় হচ্ছে মাওবাদীরা। তাই আমলাশোলের মতো ঝাড়গ্রামেও অভূতপূর্ব নিরাপত্তা ব্যবস্থা নিয়েছে পুলিশ-প্রশাসন। কিন্তু মাওবাদী হানা নয়, এ দিন মূলত হাতির হামলার আশঙ্কাই মুখ্যমন্ত্রীর জঙ্গলে রাত্রিবাসের ইচ্ছেকে ভেস্তে দিল।

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ঝাড়গ্রাম রাজবাড়ি।—নিজস্ব চিত্র।

মুখ্যমন্ত্রী হিসেবে এর আগে যত বার মমতা ঝাড়গ্রামে এসেছেন, রাতে থেকেছেন রাজবাড়ির ওই ট্যুরিস্ট রিসর্টের ভিআইপি স্যুইটে। বিকল্প হিসেবে আগে থেকেই প্রস্তুত রাখা ছিল, কিন্তু এ দিনের প্রশাসনিক সিদ্ধান্ত জানার পর সেখানে নিরাপত্তা ব্যবস্থা ঢেলে সাজানো হচ্ছে। মঙ্গলবার আমলাশোলের সরকারি অনুষ্ঠান শেষে গাড়িতে কদমডিহা পর্যন্ত এসে সেখান থেকে হেলিকপ্টারে বিকেলেই ঝাড়গ্রামে এসে পৌঁছনোর কথা মমতার। তবে বিকল্প ব্যবস্থায় তিনি সড়কপথেও আসতে পারেন বলে প্রশাসনিক সূত্রে খবর। রাতে রাজবাড়িতে থাকার পর বুধবার ঝাড়গ্রাম স্টেডিয়ামে প্রশাসনিক সভা করবেন। ওই দিন ঝাড়গ্রামে কন্যাশ্রী মেলা উদ্বোধন করার কথা তাঁর। জঙ্গলমহলের প্রায় দেড় হাজার ছাত্রীকে ওই মেলা থেকে কন্যাশ্রী প্রকল্পের আবেদনপত্র দেওয়া হবে। তবে সূত্রের খবর, এই মেলার সূচনা স্টেডিয়ামের প্রশাসনিক সভা থেকেও করতে পারেন মুখ্যমন্ত্রী। ওই দিন বিকেলে ঝাড়গ্রাম থেকে সড়কপথে কলকাতায় ফেরার কথা তাঁর।


সুপার স্পেশ্যালিটি হাসপাতাল হবে রাজ্যের ৩টি মেডিক্যাল কলেজ

নিজস্ব সংবাদদাতা

জমি জটে আটকে এইমস-এর মতো প্রতিষ্ঠান গড়ার পরিকল্পনা আপাতত বাতিল করছে কেন্দ্রীয় সরকার। ফলে আপাতত এ রাজ্যে রায়গঞ্জ বা কল্যাণী কোথাওই এইমস হচ্ছে না!

সোমবার কলকাতায় এসে এ কথা স্পষ্ট করে দিলেন কেন্দ্রীয় স্বাস্থ্যমন্ত্রী গুলাম নবি আজাদ। জানালেন, পরিবর্তে দেশের ৩৯টি মেডিক্যাল কলেজ হাসপাতালকে সুপার স্পেশ্যালিটি স্তরে উন্নীত করার পরিকল্পনা গ্রহণ করেছেন তাঁরা। যার মধ্যে তিনটি মেডিক্যাল কলেজ পশ্চিমবঙ্গের। এ গুলি হল বাঁকুড়া, মালদহ এবং উত্তরবঙ্গ মেডিক্যাল কলেজ।

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কলকাতা মেডিক্যাল কলেজের নতুন আউটডোর ব্লক এবং অ্যাকাডেমিক বিল্ডিংয়ের

উদ্বোধনে গুলাম নবি আজাদ এবং মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।—নিজস্ব চিত্র।

রায়গঞ্জে এইমস গড়ার পরিকল্পনা নিয়ে কেন্দ্রের অবস্থান সম্পর্কে প্রশ্ন করা হলে তার সরাসরি উত্তর অবশ্য এড়িয়ে গিয়েছেন তিনি। জানিয়েছেন, এ ব্যাপারে অনেক চর্চা চলছে। কিন্তু নতুন করে কোনও সিদ্ধান্ত হয়নি। জমি পাওয়া গেলে ভাবনাচিন্তা হবে। কিন্তু যেখানে জমি ইতিমধ্যেই চিহ্নিত করা হয়েছে, সেই কল্যাণীতে কেন এইমস হচ্ছে না? মন্ত্রীর জবাব, "এইমস তৈরি করতে অনেক সময় লাগে। তাই আমরা এখন এইমস নিয়ে মাথা না ঘামিয়ে নতুন ফর্মূলার কথা ভাবছি। দেশ জুড়ে কয়েকটি মেডিক্যাল কলেজকে সুপার স্পেশ্যালিটি স্তরে উন্নীত করা হবে। এতে মানুষ আধুনিক পরিষেবা পাবেন, আর শয্যাও বাড়বে।"

এ দিন চিত্তরঞ্জন ন্যাশনাল ক্যানসার ইনস্টিটিউটে (সিএনসিআই) গভর্নিং বডির সভায় যোগ দিতে এসেছিলেন আজাদ। পদাধিকার বলে কেন্দ্রীয় স্বাস্থ্যমন্ত্রী ওই বডির চেয়ারম্যান এবং রাজ্যের স্বাস্থ্যমন্ত্রী সহকারি চেয়ারপার্সন। সেই অনুযায়ী মুখ্যমন্ত্রী তথা স্বাস্থ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ও হাজির ছিলেন। এ দিন সিএনসিআই-এ ক্যানসারের রেডিয়েশন চিকিৎসার জন্য ডুয়াল এনার্জি লিনিয়র এক্সিলেরেটর যন্ত্র এবং নতুন পাওয়ার সাব স্টেশনের উদ্বোধন করেন তাঁরা। পাশাপাশি কলকাতা মেডিক্যাল কলেজের নতুন আউটডোর ব্লক এবং অ্যাকাডেমিক বিল্ডিংয়ের উদ্বোধন এবং সুপার স্পেশ্যালিটি কেন্দ্রের ভিত্তিপ্রস্তরও স্থাপন হয় ওই একই অনুষ্ঠানে।

সিএনসিআই-এর চিকিৎসক, গবেষকদের ভূয়সী প্রশংসা করে মমতা বলেন, "কেন্দ্র ও রাজ্য একসঙ্গে কাজ করলে এই প্রতিষ্ঠান শুধু পূর্বাঞ্চলে নয়, পৃথিবীতে এক নম্বর হয়ে উঠবে।"রাজ্য সরকার ক্যানসার রোগীদের বিনামূল্যে ওষুধ দেওয়ার প্রকল্প শুরু করেছে বলেও জানান তিনি। কেন্দ্রীয় স্বাস্থ্যমন্ত্রী সম্পর্কে বলতে গিয়েও উচ্ছ্বসিত হয়ে ওঠেন মমতা। বলেন, "আমরা একে অপরকে অনেকদিন ধরে চিনি। এক সঙ্গে অনেক কাজও করেছি।"


দৃশ্যমানতা কম, উড়ান বাতিল দিল্লি বিমানবন্দরে

সংবাদ সংস্থা

ঘন কুয়াশার কারণে সোমবারও ব্যাহত হল দিল্লির ইন্দিরা গাঁধী বিমানবন্দরের উড়ান পরিষেবা। এ দিন ঘণ্টা তিনেক উড়ান পরিষেবা বন্ধ রাখতে বাধ্য হয় কর্তৃপক্ষ। এর ফলে দুর্ভোগে পড়েন যাত্রীরা। বিমানবন্দর সূত্রে খবর, রবিবার রাত ৮টা থেকে সোমবার সকাল ৮টা পর্যন্ত যে সব বিমান ওঠানামার কথা ছিল তার মধ্যে কিছু বাতিল করা হয়। পাশাপাশি বেশ কয়েকটি উড়ানের পথও ঘুরিয়ে দেওয়া হয়। দৃশ্যমানতা এতটাই কম ছিল যে, গত ২৪ ঘণ্টায় ৫১টি অন্তর্দেশীয় ও আন্তর্জাতিক উড়ান বিমানবন্দর ছেড়ে যেতে পারেনি। অন্য দিকে, যে ৩৯টি বিমান এখানে নামার কথা ছিল তাও বাতিল করা হয়। সব মিলিয়ে প্রায় ১৫০টি উড়ানের উপর ব্যাপক প্রভাব পড়ে। বাতিল হওয়া উড়ানের টাকা ফেরত্ নিতে এ দিন যাত্রীদের লম্বা লাইন ছিল টিকিট কাউন্টারের সামনে। যাত্রীরা অধীর অপেক্ষায় বসেছিলেন। কেউ কেউ আবার উড়ান সম্পর্কে সঠিক তথ্য না জানানোর জন্য বিমানবন্দর কর্তৃপক্ষের বিরুদ্ধে ক্ষোভ উগরে দেন।

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কুয়াশায় মোড়া রাজধানী দিল্লি। ছবি: পিটিআই।

রবিবার সকালেও কুয়াশার কারণে দৃশ্যমানতা কম ছিল। প্রায় ২০৬টি উড়ানের ওঠানামায় ব্যাপক প্রভাব পড়ে। দুপুর ১টা থেকে বিমান চলাচল স্বাভাবিক হয়। আবহাওয়া দফতর জানিয়েছে, এ রকম পরিস্থিতি আরও কয়েক দিন চলার সম্ভাবনা রয়েছে। তবে বেলা বাড়ার সঙ্গে সঙ্গে কুয়াশা কেটে যাবে বলে জানিয়েছে দফতর। কুয়াশা তো আছেই, তার সঙ্গে ঠান্ডা— সব মিলিয়ে শশব্যস্ত রাজধানীর চিত্রটাই বদলে গিয়েছে। সোমবার এখানকার সর্বনিম্ন তাপমাত্রা ছিল ৬.৪ ডিগ্রি সেলসিয়াস। যা স্বাভাবিকের তুলনায় ১ ডিগ্রি কম।


ভোট-পরবর্তী বাংলাদেশে হিংসা অব্যাহত

সংবাদ সংস্থা

ভোট-পরবর্তী বাংলাদেশে রাজনৈতিক চিত্রের কোনও পরিবর্তন হল না। সোমবার সকালেও সংঘর্ষ অব্যাহত ছিল বাংলাদেশে। ঢাকার দোহায় আওয়ামি লিগ ও জাতীয় পার্টির সংঘর্ষে নিহত হন ৪ জন। আহত হন ১৫ জন। পিরোজপুরে আওয়ামি লিগের কার্যালয়ে আগুন ধরিয়ে দেয় এক দল দুষ্কৃতী। অন্য দিকে, জয়পুরহাটে বিএনপি-র কার্যালয়েও আগুন ধরানোর ঘটনা ঘটেছে। এ দিন সকালে তল্লাশি চালিয়ে ঢাকা থেকেই ৬৫টি পেট্রোল বোমা উদ্ধার করে র‌্যাব।

হিংসাত্মক পরিস্থিতিকে সাক্ষী রেখেই রবিবার নির্বাচন পর্ব মেটে বাংলাদেশে। বিরোধী দলের ভোট বয়কটের সমস্ত রকম প্রচেষ্টাকে কার্যত 'বুড়ো আঙুল'দেখিয়ে এ দিনের নির্বাচন জিতে নেন প্রধানমন্ত্রী শেখ হাসিনা। ১৪৭টি আসনে ভোট হয় রবিবার। সংঘর্ষের কারণে ৮টি কেন্দ্রের ফল ঘোষিত হয়নি। আগেই নিরঙ্কুশ সংখ্যাগরিষ্ঠতা পেয়েছিল আওয়ামি লিগ। এ দিন গণনা শেষে সেই সংখ্যা আরও বাড়িয়ে নিল হাসিনার সরকার। বর্তমান সদস্য সংখ্যা দাঁড়িয়েছে ২৩১, যা সরকার গঠনের ন্যূনতম আসনের চেয়ে ৮২টি বেশি।

সংঘর্ষে ২১ জনের প্রাণহানি, ভোটে কম উপস্থিতির হার— এত কিছু সত্ত্বেও দমেনি বাংলাদেশ সরকার। নির্বাচন শেষে মুখ্য নির্বাচন আধিকারিক রকিবুদ্দিন আহমেদ বলেন, "৯৭ শতাংশ কেন্দ্রে সুষ্ঠু ভাবে ভোট হয়েছে।"তিনি আগে জানিয়েছিলেন, সাম্প্রতিক পরিস্থিতিতে বাংলাদেশে ৪০ শতাংশ ভোট পড়লেই যথেষ্ট। তবে এ দিন তাঁর গলায় আক্ষেপের সুরও ধরা পড়ে। তিনি জানান, দুই প্রধান রাজনৈতিক দল পারস্পরিক বোঝাপড়ায় এলে নির্বাচন আরও ভাল হত। আওয়ামি লিগের পক্ষ থেকে এই নির্বাচনকে 'সফল'বলা হলেও বিরোধী দল তা মানতে নারাজ। বিএনপি-র ভাইস চেয়ারম্যান তারেক রহমান রবিবার সাংবাদিক সম্মেলনে বলেন,"প্রহসনের নির্বাচনকে কার্যত রুখে দিয়ে দেশবাসী একটা লক্ষ্য অর্জন করল মাত্র। এটা চূড়ান্ত সাফল্য নয়।"তিনি আরও জানান, শাসক দলের সঙ্গে সমঝোতার কোনও প্রশ্নই ওঠে না। আমাদের মূল লক্ষ্যই হবে নিরপেক্ষ তত্ত্বাবধায়ক সরকারের দাবি আদায় করে দেশবাসীকে সুবিচার দেওয়া। তা আদায় না হওয়া পর্যন্ত এই আন্দোলন চলবে।

বাংলাদেশের নির্বাচন নিয়ে সোমবার প্রতিক্রিয়া জানাল ভারত। ভারতের বিদেশমন্ত্রক দফতরের মুখপাত্র সৈয়দ আকবরউদ্দিন বলেন, "নির্বাচন বাংলাদেশের অভ্যন্তরীণ ও সাংবিধানিক পদ্ধতি। দেশের ভবিষ্যত্ কী হবে তা দেশবাসীই ঠিক করবে।"তিনি আরও বলেন, "গণতন্ত্রকে নিজের পথে চলতে দিতে হবে। হিংসার মাধ্যমে কোনও সমস্যার সমাধান হয় না।"


পায়ের উপর বাসের চাকা, লেকটাউনে গুরুতর জখম ১ মহিলা যাত্রী

নিজস্ব সংবাদদাতা

পায়ের উপর দিয়ে বাস চলে যাওয়ায় গুরুতর জখম হলেন এক যাত্রী। সোমবার লেকটাউনের কাছে এই দুর্ঘটনা ঘটে। আহত ওই যাত্রীর নাম অনিতা দাস। সল্টলেকের জলসম্পদ বিভাগের এই কর্মীর বাড়ি মধ্যমগ্রামে। গুরুতর আহত অবস্থায় তাঁকে লেকটাউনের একটি বেসরকারি হাসপাতালে ভর্তি করা হয়।

এ দিন সকালে অফিস যাওয়ার উদ্দেশে নাগেরবাজার থেকে ২২১ নম্বর রুটের একটি বাসে ওঠেন অনিতাদেবী। লেকটাউনে নামার সময় পায়ে শাড়ি জড়িয়ে পড়ে যান তিনি। ওই অবস্থায় তাঁর পায়ের উপর দিয়ে দ্রুত গতিতে চলে যায় ভিড় বোঝাই বাসটি। পথচারী এবং যাত্রীদের চিৎকারেও বাস থামাননি চালক বলে অভিযোগ। বেশ কিছু দূর ধাওয়া করে বাসটিকে আটক করে লেকটাউন ট্র্যাফিক গার্ডের কর্মীরা। তত ক্ষণে বাসের চালক পালিয়ে যায়।

৫টি বেসরকারি বাস মালিক সংগঠনের ডাকে এ দিন রাজ্য জুড়ে বাস ধর্মঘট চলে। যে গুটিকয়েক বাস রাস্তায় নেমেছিল তাতে তিল ধারণের জায়গা ছিল না। তবে এলাকার বাসিন্দারা অভিযোগ করেছেন, ভিআইপি রোডে যাত্রীদের সুরক্ষার কথা না ভেবেই বেপরোয়া ভাবে বাস চালানো হয়। কয়েক মাস আগে এই জায়গাতেই প্রায় একই রকম একটি দুর্ঘটনা ঘটে। সে ক্ষেত্রে গায়ের চাদর জড়িয়ে পড়ে যান বাস থেকে নামা এক যাত্রী। কোনও সুযোগ না দিয়েই তাঁর বুকের উপর দিয়ে চলে যায় বাস। ঘটনাস্থলেই সেচ দফতরের কর্মী ওই মহিলা যাত্রীর মৃত্যু হয়। এ দিনের ঘটনা চোখে আঙুল দিয়ে দেখিয়ে দিল, যাত্রী সুরক্ষার কথা মাথায় না রেখেই পথে নামে এ রাজ্যের বহু বাস।


ছাত্র সংসদের মনোনয়ন ঘিরে বহরমপুর কলেজে সংঘর্ষ

নিজস্ব সংবাদদাতা • বহরমপুর

সোমবার বহরমপুর কলেজে ছাত্র সংসদের মনোনয়নকে কেন্দ্র করে ছাত্র পরিষদ (সিপি) ও তৃণমূল ছাত্র পরিষদের (টিএমসিপি) মধ্যে সংঘর্ষ বাধে। সংঘর্ষে কেউ আহত হয়নি বলে খবর। ২০ জানুয়ারি ওই কলেজের ছাত্র সংসদের নির্বাচন। সে জন্য মনোনয়ন পত্র দেওয়ার কাজ শুরু হয়। এ দিন কলেজের বাইরে মনোনয়ন পত্র দেওয়ার সময় কিছু বহিরাগত টিএমসিপি-র ছাত্রদের মারধোর করে বলে অভিযোগ। কিছু ক্ষণের মধ্যেই সিপি-র ছাত্রদের সঙ্গে তাঁদের পাল্টা হাতাহাতি শুরু হয়। মারামারি রুখতে এগিয়ে আসে কলেজের বাইরে মোতায়েন থাকা পুলিশবাহিনী। লাঠিচার্জ করে দু'পক্ষের ছাত্রদের সরিয়ে দেয় তারা। এই ঘটনায় কলেজ নির্বাচন ঘিরে পরিস্থিতি যাতে আরও উত্তপ্ত না হয় সে জন্য কলেজের নিরাপত্তা ব্যবস্থা আরও জোরদারের সিদ্ধান্ত নিয়েছে জেলা পুলিশ।


কল্যাণীতে হস্টেলের শৌচাগারে নার্সিং পাঠরতা তরুণীর ঝুলন্ত দেহ

নিজস্ব সংবাদদাতা • কল্যাণী

শৌচাগারের ছাদ থেকে ঝুলন্ত অবস্থায় নার্সিং পাঠরতা এক তরুণীর দেহ মিলল। সোমবার ভোরবেলা কল্যাণীর গাঁধী মেমোরিয়াল হাসপাতালের নার্সিং ট্রেনিং কলেজের হস্টেলে এই ঘটনা ঘটে। মৃতের নাম মেঘশ্রী বিশ্বাস। তাঁর বাড়ি নদিয়ার চাপড়ার দয়ের বাজারে।

ওই হাসাপাতালে মাস চারেক আগে নার্সিং-এর ট্রেনিং নিতে প্রথমবর্ষে ভর্তি হয়েছিলেন মেঘশ্রী। আরও ২৭ জন সহপাঠীর সঙ্গে তিনি ওই কলেজ হস্টেলের দোতলায় থাকতেন। এ দিন ভোরবেলা তাঁর কয়েক জন সহপাঠী শৌচাগারে গিয়ে দেখেন দরজা বন্ধ। ডাকাডাকি করাতে কোনও সাড়া না মেলায় তাঁরা ভেজানো দরজা ঠেলে ভেতরে ঢোকেন। তখনই ছাদ থেকে গলায় ফাঁস দিয়ে ঝুলে থাকা মেঘশ্রীর দেহ তাঁরা দেখতে পান। খবর দেওয়া হয় কর্তব্যরত মেট্রন আলপনা ভট্টাচার্যকে। তিনি এসে পুলিশে খবর দেন। পুলিশ দেহ উদ্ধার করে ময়নাতদন্তে পাঠায়।

সকালেই ঘটনাস্থলে এসে পৌঁছন মেঘশ্রীর বাবা মুকুল বিশ্বাস। তাঁকে মেয়ে গুরুতর অসুস্থ এবং আশঙ্কাজনক অবস্থায় হাসপাতালে ভর্তি রয়েছে বলে ঘটনার পর পরই ফোনে খবর দেওয়া হয়। এ দিন মুকুলবাবু বলেন, "গতকালই ওর সঙ্গে আমাদের ফোনে কথা হয়। কোনও অস্বাভাবিকতাই তখন বুঝতে পারিনি। কেন যে এমন করল, বুঝতেই পারছি না!"একই কথা জানিয়েছেন মেট্রন আলপনাদেবী। তিনি বলেন, "বেশ কয়েক মাস ধরেই মেঘশ্রীকে দেখছি। কখনও কোনও অস্বাভাবিক আচরণ দেখিনি ওর মধ্যে। বাড়ির লোকজনও কখনও আমাদের কাছে ওর প্রতি বিশেষ নজর রাখার অনুরোধও করেননি।"


দুই নেতা গ্রেফতার, প্রতিবাদে চাঁচল থানা ঘেরাও ছাত্রপরিষদের

নিজস্ব সংবাদদাতা • চাঁচল

ছাত্র পরিষদের দুই নেতাকে গ্রেফতার করায় সোমবার চাঁচল থানা ঘেরাওয়ের পাশাপাশি ঘণ্টাখানেক অবরোধ করা হল ৮১ নম্বর জাতীয় সড়ক। পরে পুলিশি হস্তক্ষেপে তা তুলে নেওয়া হয়। ঘটনার সূত্রপাত রবিবার রাতে। ছাত্র পরিষদের দুই নেতা শামিম আহসান এবং মেরাজুল ইসলাম বাইক চালিয়ে চাঁচলে আসছিলেন। সে সময় তাঁদের বাইকের পিছনেই আসছিল চাঁচলের এসডিপিও পিনাকীরঞ্জন দাসের গাড়ি। পিনাকীবাবু ওই গাড়িতেই ছিলেন। বাইকটিকে পথ ছেড়ে দেওয়ার জন্য এসডিপিও-র গাড়ির চালক বেশ কয়েক বার হর্ন দেন। কিছু সময় পর পথ ছেড়ে রাস্তার ধারে বাইক থামান শামিমরা। পিনাকীবাবুর গাড়ি বাইকের সামনে এসে দাঁড়ায়। গাড়ি থেকে নেমে আসেন চালক। কেন পথ ছাড়া হয়নি, তা নিয়ে পুলিশের সঙ্গে তর্কে জড়িয়ে পড়েন ওই দুই নেতা। এর পরই শামিম ও মেরাজুলকে মারতে মারতে পুলিশের গাড়িতে তোলা হয় বলে অভিযোগ। দু'জনকেই গ্রেফতার করে চাঁচল থানায় নিয়ে আসা হয়। তাঁদের বিরুদ্ধে এসডিপিও-র গায়ে হাত দেওয়া এবং সরকারি কাজে বাধা দেওয়ার অভিযোগ করেছেন পিনাকীবাবু।

এ দিন থানা থেকে ওই দুই নেতাকে আদালতে নিয়ে যাওয়ার সময় থানা চত্বরেই কংগ্রেস ও ছাত্র পরিষদের কর্মী-সমর্থকেরা সেই গাড়ির সামনে বসে পড়েন। মিথ্যে অভিযোগে তাঁদের নেতাকে গ্রেফতার করে জামিন অযোগ্য ধারায় মামলা দায়ের করেছে পুলিশ এই দাবিতে সকাল ১০টা থেকে আটকে রাখা হয় ওই প্রিজন ভ্যান। ঘণ্টা দুয়েক পর সেই অবস্থান বিক্ষোভ উঠে গেলেও ফের বেলা ১টা থেকে ৮১ নম্বর জাতীয় সড়ক অবরোধ করেন তাঁরা। প্রায় এক ঘণ্টা পর পুলিশি হস্তক্ষেপে রাস্তা অবরোধ মুক্ত হয় বলে সূত্রের খবর।


দিল্লিতে মহিলাদের নিরাপত্তায় সুরক্ষা সেল

সংবাদ সংস্থা

*মহিলাদের উপর অপরাধ রুখতে বিশেষ সুরক্ষা সেল গড়বে দিল্লি সরকার। ক্ষমতায় আসার আগেই নির্বাচনী প্রচারে এই প্রতিশ্রুতি দিয়েছিল আম আদমি পার্টি (আপ)। দিল্লিবাসীর জন্য বিনামূল্যে জল সরবরাহ ও বিদ্যুত্ মাসুল অর্ধেক করার পর এ বার রাজধানীর মহিলাদের সুরক্ষা নিশ্চিত করতে উদ্যোগী সরকার। সোমবার দিল্লি বিধানসভায় এ কথা জানান লেফটেন্যান্ট গভর্নর নাজিব জং। তিনি আরও জানিয়েছেন, এ জন্য সরকার নতুন আদালত গঠনের পাশাপাশি বিচারকও নিযুক্ত করবে। শুধু তা-ই নয়, এ ধরনের মামলার নিষ্পত্তি করা হবে ছয় মাসের মধ্যে। এ দিন মহিলাদের নিরাপত্তা নিয়ে উদ্বেগ প্রকাশ করেন তিনি। পুলিশ সূত্রে খবর, ২০১২-র তুলনায় '১৩-তে দিল্লিতে শ্লীলতাহানি ও ধর্ষণের ঘটনা বেড়েছে যথাক্রমে ৪১২ ও ১২৯ শতাংশ। গত বছর এ ধরনের ১৫৫৯টি অভিযোগ দায়ের করা হয়েছে। মহিলাদের উপর ঘটা অপরাধের দ্রুত নিষ্পত্তি করতে সম্প্রতি দিল্লি পুলিশের তরফে ধর্ষণের অভিযোগ সংক্রান্ত মামলায় কুড়ি দিনের মধ্যে চার্জশিট পেশ করার সিদ্ধান্ত নেওয়া হয়েছে।

বহরমপুরে একই পরিবারের তিন জনের মৃহদেহ উদ্ধার

নিজস্ব সংবাদদাতা • বহরমপুর

বহরমপুরের কাদাই এলাকায় একটি ফ্ল্যাট থেকে একই পরিবারের তিন জনের মৃহদেহ উদ্ধার হয় রবিবার। আশাবরী আবাসনের 'ডি'ব্লকের ফ্ল্যাটে থাকতেন ওই তিনজন। মৃতরা হলেন বিজয়া বসু (৪৮), তাঁর মেয়ে আত্রেয়ী বসু (১৮) এবং বিজয়া বসুর পিসি প্রভা দাস (৭২)। পেশায় জীবনবিমা এজেন্ট বিজয়াদেবীর স্বামী বহুদিন থেকেই ফেরার বলে জানিয়েছেন স্থানীয় বাসিন্দারা। তিনি আর্থিক দুর্নীতিতে জড়িত ছিলেন বলে অভিযোগ। পুলিশ জানায়, বিজয়াদেবীর দিদি শনিবার মোবাইল ফোনে ফ্ল্যাটের বাসিন্দাদের সঙ্গে যোগাযোগের চেষ্টা করেন। কিন্তু মোবাইল বন্ধ থাকায় ওই পরিবারের কারও সঙ্গে যোগাযোগ সম্ভব হয়নি। ওই দিন তিনি বিজয়াদেবীর সঙ্গে দেখা করতে এলে ফ্ল্যাটের দরজা বন্ধ দেখেন। অনেক বার ডাকার পরও সাড়া না মেলায় তিনি পুলিশে খবর দেন। পুলিশ এসে ওই ফ্ল্যাট থেকে তিন জনের মৃতদেহ উদ্ধার করে। উদ্ধারের সময় তিন জনের হাত পিছমোড়া করে বাঁধা ছিল বলে জানিয়েছে পুলিশ। প্রাথমিক ভাবে পুলিশের অনুমান, তিন জনকেই শ্বাসরোধ করে খুন করা হয়েছে। এই ঘটনায় বিজয়াদেবীর ফেরার স্বামীর হাত আছে কি না তা খতিয়ে দেখছে পুলিশ।


বিদ্যুত্স্পৃষ্ট হয়ে কলকাতায় মৃত ১ মানসিক ভারসাম্যহীন

নিজস্ব সংবাদদাতা

সোমবার কলকাতার দু'প্রান্তে দু'জন উঠে পড়েছিলেন ট্রেনের ছাদে, আরেক জন গাছের মগডালে! ওই তিন ব্যক্তিকে নিয়ে রীতিমত নাজেহাল হতে হল পুলিশ, দমকলকর্মীদের। পরে অবশ্য পুলিশ জানিয়েছে, ওই তিনজনই মানসিক ভারসাম্যহীন। ঘটনায় এক জন মারা গিয়েছেন। বাকি দু'জনের জায়গা হয়েছে হাসপাতালে।

এ দিন বিকেল সওয়া পাঁচটা নাগাদ উল্টোডাঙা স্টেশনের তিন নম্বর প্ল্যাটফর্মে অপেক্ষারত যাত্রীরা দেখেন, ডাউন গেদে লোকালের ছাদে শুয়ে রয়েছেন এক ব্যক্তি। স্টেশনে ট্রেন থামতেই ট্রেনের মাথায় উঠে দাঁড়ান তিনি। সে সময়ই প্যান্টোগ্রাফের হাইটেনশন তারে বিদ্যুত্স্পৃষ্ট হয়ে প্ল্যাটফর্মে ছিটকে পড়েন তিনি। ঘটনাস্থলে রেল পুলিশ আসার আগেই মৃত্যু হয় তাঁর।

অন্য দিকে, প্রায় একই দৃশ্য দেখা যায় এ দিন সকাল পৌনে ন'টা নাগাদ। ডাউন শান্তিপুর লোকাল প্ল্যাটফর্মে ঢুকলে দেখা যায়, চালকের কামরার উপরে বসে আছেন বছর চল্লিশের এক ব্যক্তি। প্রত্যক্ষদর্শীরা জানান, প্যান্টোগ্রাফের হাইটেনশন তারে হাত ছুঁয়ে গেলে বিদ্যুত্স্পৃষ্ট হন তিনি। অচৈতন্য অবস্থায় তাঁকে নামিয়ে আরজিকর হাসপাতালে ভর্তি করা হয়।

এ দিন মানসিক ভারসাম্যহীন এক ব্যক্তিকে রবীন্দ্র সরোবর লেকের ধারে একটি আম গাছ থেকে উদ্ধার করা হয়। সকাল আটটা নাগাদ বছর পঞ্চাশের ওই ব্যক্তিকে উদ্ধার করে তাঁর চিকিৎসার জন্য শম্ভুনাথ পণ্ডিত হাসপাতালে নিয়ে যাওয়া হয়। প্রত্যক্ষদর্শীরা জানান, তাঁকে গাছ থেকে নেমে আসতে বললেও তিনি কোনও কথার উত্তরও দেননি। পরে তাঁরাই পুলিশে খবর দেন। ঘটনাস্থলে পৌঁছয় স্থানীয় লেক থানার পুলিশ। কিন্তু পুলিশের ডাকেও সাড়া দেননি তিনি। এর পর দমকলকে খবর দেওয়া হয়। প্রায় পৌনে ন'টা নাগাদ দমকলকর্মীরা তাঁকে গাছ থেকে নামিয়ে আনতে সমর্থ হন। পুলিশ জানিয়েছে, ওই ব্যক্তির নাম সুভাষ পাল। বাড়ি নদিয়া জেলার চাকদহের পালপাড়ায়। তবে কেন তিনি গাছে উঠেছিলেন তা জানতে পারেনি পুলিশ।


দাশনগরে স্বামী খুনে ধৃত স্ত্রী-সহ ধৃত ২

নিজস্ব সংবাদদাতা

ছ'বছরের বালকের জবানবন্দির ভিত্তিতে স্বামীকে খুনের অভিযোগে স্ত্রী ও তাঁর প্রেমিক-সহ আরও দুই জনকে গ্রেফতার করল পুলিশ। ধৃতেরা হল মৃতের স্ত্রী স্নিগ্ধা শী, স্নিগ্ধার প্রেমিক অঙ্কিত সাহা, স্নিগ্ধার মা বেবী ও অঙ্কিতের বন্ধু উদয় নাগ।

পুলিশ সূত্রের খবর, গত ১৮ নভেম্বর সকালে বালির আনন্দনগরে পচা খাল থেকে গলার নলি কাটা এক অজ্ঞাতপরিচয় যুবকের দেহ উদ্ধার হয়। দেহটি একটি বিছানার চাদর দিয়ে মোড়া ছিল। কয়েক দিন আগে পুলিশ জানতে পারে ওই যুবকের নাম সোনু শী (৩৪)। তিনি দাশনগরের বাসিন্দা। পুলিশ জানায়, পূর্ব পরিকল্পনা মতো গত ১৭ নভেম্বর সকালে সোনু যখন বাড়িতে আসে, তখন তাঁর খাবারের সঙ্গে ২০টি ঘুমের ওষুধ খাবারের সঙ্গে মিশিয়ে দেয় স্নিগ্ধা। ওষুধটি অঙ্কিতই কিনে দিয়েছিল। খাবার খেয়েই ঘুমে ঢলে পড়ে সোনু। তখনই প্রেমিক অঙ্কিতকে আনন্দনগরের বাড়িতে ডেকে পাঠায় স্নিগ্ধা। এর পর দুই জনে মিলে খুন করে সোনুকে। রেজার দিয়ে তাঁর গলার নলি কাটা হয়। ঘটনার সময় তিন মেয়ে ও ছেলে বাইরে খেলতে গিয়েছিল। তবে এই পুরো ঘটনাই দেখেছিল জয়।

পুলিশ সূত্রের খবর, দাদু-ঠাকুমার কাছে এসে সোনুর ছয় বছরের ছেলে জয় সমস্ত ঘটনা বলে। বিষয়টি জানতে পারে পুলিশও। এর পরই ভট্টনগর থেকে রবিবার রাতে স্নিগ্ধা ও তাঁর মা বেবী রায়কে গ্রেফতার করে পুলিশ। তদন্তকারীদের দাবি, জেরায় স্নিগ্ধা স্বীকার করেছে, গোলাবাড়ির বাসিন্দা অঙ্কিতের সঙ্গে তাঁর একটা অবৈধ সম্পর্ক তৈরি হয়েছিল।



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मेरे कातिलों की तलाश में कई लोग जान से जायेंगे मेरे क़त्ल में मेरा हाथ है कहीं ये किसी को पता नहीं

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अभिनव सिन्हा और आह्वाण टीम के लिए


अभिनव जी, बहुजन राजनीति कुल मिलाकर आरक्षण बचाओं राजनीति रही है अबतक।वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कारपोरेट राज,निजीकरण,ग्लोबीकरण और विनिवेश,ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है।आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है,अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को हाशिये पर रखकर अपनी अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है।अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो,ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता।संथाल औऱ भील जैसे अति पिरचित आजिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता।अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है।इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियां आरक्षण से बाहर हैं।जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिए भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिए बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया,उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला। मुलायम ने उन्हें उत्तरप्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा।उत्तराखंड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहां राजनीति आरक्षण मिला है।जिन जातियों की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुई वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहती। मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है,जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती। इसलिए बुनियादी मुद्दं पर वंचितों को संबोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति केझंडेवरदार और आरक्षणसमृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं।लेकिन बहुजन समाज उन्हीके नेतृत्व में चल रहा है।हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में संबोधित करने का निरंतर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है,लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्यल रखना पड़ा है।


वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर  बाकी मुद्दों पर उन्हें अबतक किसी ने स‌ंबोधित ही नहीं किया है। जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी,उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है।बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहां तक कि कारपोरेटएजेंटतक कहकर आपका सामाजिक बहिस्कार कर देंगे।


बहुजनों की हालत देशभर में स‌मान भी नहीं है।


मसलन अस्पृश्यता का रुप देशभर में स‌मान है नहीं।जैसे बंगाल में अस्पृश्यता उस रुप में कभी नहीं रही है जैसे उत्तरभारत,महाराष्ट्र,मध्यभारत और दक्षिण भारत में। इसके अलावा बंगाल और पूर्वी भारत में आदिवासी,दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यकों के स‌ारे किसान स‌मुदाय बदलते उत्पादन स‌ंबंधों के मद्देनजर जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई में स‌दियों स‌े स‌ाथ स‌ाथ लड़ते रहे हैं।


मूल में है नस्ली भेदभाव,जिसकी वजह स‌े भौगोलिक अस्पृश्यता भी है।महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह बाकी देश में जाति पहचान स‌ीमाबद्ध मुद्दों पर बहुजनों को स‌ंबोधित किया ही नहीं जा स‌कता।


आदिवासी जाति स‌े बाहर हैं तो मध्यभारत,हिमालय और पूर्वोत्तर में जातिव्यवस्था के बावजूद अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव के तहत दमन और उत्पीड़न है।


उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने,कृषि को खत्म करने की जो कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रव्यवस्था है,उसे महज अंबेडकरी आंदोलन और अंबेडकर के विचारों के तहत स‌ंबोधित करना एकदम असंभव है।फिर भारतीय यथार्थ को संबोधित किये बना साम्यवादी आंदोलन के जरिये भी सामाजिक शक्तियों की राज्यतंत्र को बदलने के लिए गोलबंद करना भी असंभव है।यह बात तेलतुंबड़े जी भी अक्षरशः मानते हैं।


ध्यान देने की बात है कि अंबेडकर को महाराष्ट्र और बंगाल के अलावा कहीं कोई उल्लेखनीय स‌मर्थन नहीं मिला। पंजाब में जो बाल्मीकियों ने स‌मर्थन किया,वे लोग भी कांग्रेस के स‌ाथ चले गये।


बंगाल स‌े अंबेडकर को स‌मर्थन के पीछे बंगाल में तब दलित मुस्लिम गठबंधन की राजनीति रही है,भारत विभाजन के स‌ाथ जिसका पटाक्षेप हो गया।अब बंगाल में विभाजनपूर्व दलित आंदोलन का कोई चिन्ह नहीं है।बल्कि अंबेडकरी आंदोलन का बंगाल में कोई असर ही नहीं हुआ है।अंबेडकर आंदोलन जो है ,वह आरक्षण बचाओ आंदोलन के सिवाय कुछ है नहीं।बंगाल में नस्ली वर्चस्व का वैज्ञानिक रुप अति निर्मम है,जो अस्पृश्यता के किसी भी रुप को लज्जित कर दें।यहां शासक जातियों के अलावा जीवन के किसी भी प्रारुप में अन्य सवर्ण असवर्ण दोनों ही वर्ग की जातियों का कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं।अब बंगाल के जो दलित और मुसलमान हैं,वे शासक जातियों की राजनीति करते हैं और किन्हीं किन्हीं घरों में अंबेडकर की तस्वीर टांग लेते हैं।अंबेडकर को जिताने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल या मुकुंद बिहारी मल्लिक की याद भी उन्हें नही है।


इसी वस्तु स्थिति के मुखातिब हमारे लिए अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव बड़ा मुद्दा है जिसके तहत हिमालयऔर पूर्वोत्तर तबाह है तो मध्य भारत में युद्ध परिस्थितियां हैं।जन्मजात हिमालयी समाज से जुड़े होने के कारण हम ऴहां की समस्याओं से अपने को किसी कीमत पर अलग रख नहीं सकते और वे समस्याएं अंबेडकरी आंदोलन के मौजूदा प्रारुप में किसी भी स्तर पर संबोधित की ही नहीं जा सकती जैसे आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरु से।


ऐसे में अंबेडकर का मूल्यांकन नये संदर्भों में किया जाना जरुरी ही नहीं,मुक्तिकामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अनिवार्य है।आप यह काम कर रहे हैं तो मौजूदा हालात के मद्देनजर आपको और ज्यादा जिम्मेदारी उठानी होगी। आप जो प्रयोग कर रहे हैं,उसकी एक भौगोलिक सीमा है।आप जिन लोगों से संवाद कर रहे हैं,वे आपके आंदोलन के साथी हैं।वंचित समुदायों के होने के बावजूद उत्पादन प्रणाली में अपना अस्तित्व बनाये रखने की लड़ाई में वे आम बहुजन मानसिकता को तोड़ पाने में कामयाब हैं।इसलिए उन्हें आपकी भाषा समझने में कोई दिक्कत होगी नहीं।फिर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय,मुंबई विश्वविद्यालय या कोई भी विश्वविद्यालय परिसर मूक अपढ़ हमेशा दिग्भ्रमित कर दिया जाने वाला सूचना तकनीक वंचित भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह सामाजिक संरचना बेहद जटिल है और इसके भीतर घुसकर उन्हें आप अंबेडकर के मूल्यांकन के लिए राजी करें और अंबेडकर के प्रासंगिक विचारों के साथ बुनियादी परिवर्तन के लिए राजी करें,इसके लिए आपकी भाषा भी आपकी रणनीति का हिस्सा होना चाहिए।ऐसा मेरा मानना है।


हम तो आपको सही मायने में जनप्रतिबद्ध कार्यकर्ता के रुप में सबसे ज्यादा कुशल व प्रतिभासंपन्न तब मानेंगे जब अभिनव जैसा विश्लेषण आप बहुजनों के मूक जुबान से करवाने में कमायाब है।खुद काम करना बहुत कठिन भी नहीं है,लेकिन विकलांग लगों से काम करवा लेने की कला भी हमें आनी चाहिए,खासकर तब जबकि वह काम किसी विकलांग समाज के वजूद के लिए बेहद जरुरी है। हम अंबेडकर का पूनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन इसका असर इतना नहीं होगा ,जितना कि खुद बहुजनों को हम अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन के लिए तैयार कर दें,एसी स्थिति बना देने का।दरअसल हमारा असली कार्यभार यही है।


हमारी पूरी चिंता उन वंचितों को संबोधित करने की है,जिनके बिना इस मृत्युउपत्यका के हालात बदले नहीं जा सकते।किसी खास भूगोल या खास समुदाय की बात हम नहीं कर रहे हैं,पूरे देश को जोड़ने की वैचारिक हथियार से देशवासियों के बदलाव के लिए राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने की चुनौती हमारे समाने हैं। क्योंकि बदलाव के तमाम भ्रामक सब्जबाग सन सैंतालीस से आम जनता के सामने पेश होते रहे हैं और उन सुनामियों ने विध्वंस के नये नये आयाम ही खोले हैं।


आप का उत्थान कारपोरेट राजनीति का कायकल्प है जो समामाजिक शक्तियों की गोलबंदी और असमिताओं की टूटन का भ्रम तैयार करने का ही पूंजी का तकनीक समृद्ध प्रायोजिक आयोजन है।इसका मकसद जनसंहार अश्वमेध को और ज्यादा अबाध बनाने के लिए है। लेकिन वे संवाद और लोकतंत्र का एक विराट भ्रम पैदा कर रहे हैं और नये तिलिस्म गढ़ रहे हैं।उस तिलिस्म कोढहाना भी मुक्तिकामी जनता के हित में अनिवार्य है,जो आप बखूब गढ़ रहे हैं।


जहां तक तेलतुंबड़े का सवाल है,अगर बहुजन राजनीति का अभिमुख बदलने की मंशा हमारी है तो महज आनंद तेलतुंबड़े नहीं, कांचा इलेय्या, एचएल दुसाध, उर्मिलेश, गद्दर, आनंद स्वरुप वर्मा जैसे तमाम चिंतकों और सामाजिक तौर पर प्रतिबद्ध तमाम लोगों से हमें संवाद की स्थिति बनानी पड़ेगी।ये लोग बहुजन राजनीति नहीं कर रहे हैं। अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन अगर होना है तो संवाद और विमर्श से ऐसे लोगों के बहिस्कार से हम बहुजन मसीहा और दूल्हा संप्रदायों के लिए खुल्ला मैदान छोड़ देंगे।जो बहुजनों का कारपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं।



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Yesterday at 2:31pm·

  • जाति प्रश्न और अम्बेडकर के विचारों पर एक अहम बहस

  • ahwanmag.com

  • हिन्दी के पाठकों के समक्ष अभी भी यह पूरी बहस एक साथ, एक जगह उपलब्ध नहीं थी। और हमें लगता है कि इस बहस में उठाये गये मुद्दे सामान्य महत्व के हैं। इसलिए हम इस पूरी बहस को बिना काँट-छाँट के यहाँ प्रका...

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    • Palash Biswasआह्वान टीम के लिए

    • Palash Biswas असहमति के बावजूद हम चाहते हैं कि इस अनिवार्य मुद्दे पर स‌ंवाद जारी रहे।आह्वान टीम अपने असहमत स‌ाथियों के स‌ाथ जो निर्मम भाषा का प्रयोग करती है,उसे थोड़ा स‌हिष्णु बनाने का यत्न करें तो यह विमर्श स‌ार्थक स‌ंवाद में बदल स‌कता है।

    • तेलतुंबड़े अंबेडकरवादियों में एकमात्र ऎसे विचारक हैं जो स‌मसामयिक य़थार्थ स‌े टकराने की कोशिश करते हैं।

    • सबकी अपनी स‌ीमाबद्धता है।अंबेडकर की भी अपनी स‌ीमाबद्धता रही है। मार्क्स भी स‌ीमाओं के आर पार नहीं थे।न माओ।लेकिन स‌बने इतिहास में निश्चित भूमिका का निर्वाह किया है।

    • हम मानते हैं कि आह्वाण की युवा प्रतिबद्ध टीम भी एक ऎतिहासिक भूमिका में है और उसे इसका निर्वाह और अधिक वस्तुवादी तरीके स‌े करना चाहिए।लेकिन जब हम आम जनता को स‌ंबोधित करते हैं तो हमें इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि वे अकादमिक या वस्तुवादी भाषा में अनभ्यस्त हैं और उनका स‌ंसार पूरी तरह भाववादी है।

    • इस द्वंद्व के स‌माधान के लिए भाषा की तैयारी मुकम्मल होनी चाहिए।

    • आप अंबेडकर,तेलतुंबड़े और दूसरे तमाम स‌मकालीन प्रतिबद्ध असहमत लोगों के प्रति भाषा की स‌ावधानी बरतें तो हमें लगता है कि आपका यह प्रयास और ज्यादा स‌ंप्रेषक और प्रभावशाली होगा।

    • याद करें कि आपके आधारपत्र और वीडियो रपट देखने के बाद हमें तत्काल बहस स‌े बाहर जाना पड़ा। क्योंकि हम जिन लोगों के स‌ाथ काम कर रहे हैं वे इस भाषा में अंबेडकर का मूल्यांकन करना नहीं चाहते।

    • दरअसल मूर्तिपूजा के अभ्यस्त जनता स‌े आप स‌ीधे तौर पर उनकी मूर्तियां खंडित करने के लिए कहेंगे तो स‌ंवाद की गुंजाइश बनेगी ही नहीं।

    • उन्हें अपने स्तर तक लाने स‌े पहले उनके स्तर पर खड़े होकर उनके मुहावरों में संवाद हमारा प्रस्थानबिंदु होना चाहिए।

    • माओ ने इसीलिए जनता के बीच जाकर जनता स‌े सीखने का स‌बक दिया था।

    • भारतीय यथार्थ गणितीय नहीं है और न ही उसे स‌ुलझाने का कोई गणितीय वैज्ञानिक पद्धति का आविस्कार हुआ है।

    • हर प्रदेश,हर क्षेत्र की अपनी अपनी अस्मिता है।हर स‌मुदाय की अस्मिता अलग है।ये असमिताएं आपस में टकरा रहीं हैं,जिसका स‌त्तावर्ग गृहयुद्ध और युद्ध की अर्थव्यवस्था में बखूब इस्तेमाल कर रहा है।

    • मनुस्मृति भी एक बहिस्कार और विशुद्धता के स‌िद्धांत पर आधारित अर्थशास्त्र ही है,ऎसा हम बार बार कहते रहे हैं।

    • हमें आपकी दृष्टि स‌े कोई तकलीफ नहीं है,न आपके विश्लेषण स‌े। हम स‌हमत या असहमत हो स‌कते हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि जिस ईमानदारी स‌े आप स‌ंवाद और विमर्श का बेहद जरुरी प्रयत्न कर रहे हैं,वह बेकार न हों।

    • तेलतुंबड़े को झूठा स‌ाबित करना मेरे ख्याल स‌े क्रांति का मकसद नहीं हो स‌कता।बाकी आपकी मर्जी।

    • आप इस बहस को आह्वान के मार्फत व्यापक पाठकवर्ग तक पहुंचा रहे हैं,इसके लिए आभार।हम इस प्रयत्न का अपनी असहमतियों के बावजूद स्वागत करते हैं।संवादहीन समाज में समस्याओं की मूल वजह संवादहीनता की घनघोर अमावस्या है,आप लोग उसे तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

    • आपकी आस्था वैज्ञानिक पद्धति में है।हमारी भी है।लेकिन शायद आपकी तरह दक्षता हमारी है नहीं है।

    • हम अपने सौंदर्यबोध में वस्तुवादी दृष्टि के साथ जनता को संबोधित करने लायक भाववादी सौंदर्यशास्त्र का भी इस्तेमाल करते हैं अपने नान प्रयोग में इसी संवादहीनता को तोड़ने के लिए।

    • कृपया इसे समझने का कष्ट करें कि आपके शत्रु वास्तव में कौन हैं और मित्र कौन।

    • Yesterday at 2:42pm· Like

    • Abhinav Sinhaपलाश जी, आपके सुझावों का स्‍वागत है। लेकिन यह समझने की आवश्‍यकता है कि राजनीतिक बहस में एक-दूसरे का गाल नहीं सहलाया जा सकता है। इसमें call a spade a spade की बात लागू होती है। तेलतुंबडे जी ने अपने लेख में हमारे प्रति कोई रू-रियायत नहीं बरती है, और न ही हमने अपने लेख में उनके प्रति कोई रू-रियायत बरती है। इसमें दुखी होने, कोंहां जाने, कोपभवन में बैठ जाने वाली कोई बात नहीं है। यह शिकायत जब तेलतुंबडे जी की ही नहीं है (क्‍योंकि वे स्‍वयं भी उसी भाषा का प्रयोग अपने लेख में करते हैं, जिस पर पलाश जी की गहरी आपत्ति है) तो फिर किसी और के परेशान होने की कोई बात नहीं है।

    • दूसरी बात, यहां बहस व्‍यक्तियों की सीमाबद्धता की है ही नहीं। यहां बहस विज्ञान पर है। सवाल इस बात का है कि अंबेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई वैज्ञानिक परियोजना थी? क्‍या उनके पास एक समतामूलक समाज बनाने की कोई वैज्ञानिक परियोजना थी ? निश्चित रूप से सीमाओं से परे न तो मार्क्‍स हैं और न ही माओ। ठीक वैसे ही जैसे आइंस्‍टीन या नील्‍स बोर भी नहीं थे। लेकिन अंबेडकर से अलग मार्क्‍स ने सामाजिक क्रांति का विज्ञान दिया। अंबेडकर अपने तमाम जाति-विरोधी सरोकारों के बावजूद सुधारवाद, व्‍यवहारवाद के दायरे से बाहर नहीं जा सके; सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान को समझने में वे नाकाम रहे। और हमारे लिए अंबेडकर की अन्‍य व्‍यक्तिगत सीमाओं का कोई महत्‍व नहीं है, लेकिन उनकी इस असफलता का महत्‍व दलित मुक्ति की पूरी परियोजना के लिए है।

    • इसलिए व्‍यक्तियों की सीमाएं होती हैं, इस सर्वमान्‍य तथ्‍य पर बहस ने हमने अपने लेख में की है, और न ही हम आगे ऐसी बहस कर सकते हैं।

    • अगर भाषा के आधार पर ही बहस से बाहर जाना उचित होता हो, साथी, तो फिर हमें तेलतुंबडे जी द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा पर तुरंत ही बहस से बाहर जाना चाहिए था। हमारे लिए भाषा तब भी उतनी अहमियत नहीं रखती थी, और अब भी नहीं रखती है। मूल बात है बहस के आधारभूत मुद्दे। अगर भाषा पर ही आपकी पूरी आपत्ति ही है तो आपको यह सीख पहले तेलतुंबडे जी को देनी चाहिए, जो बेवजह ही हमें अपना शत्रु समझते हैं। विचारधारात्‍मक बहस आप तीखेपन से चलायें तो सही है, अगर हम चलायें तो ग़लत। यह कहां की नैतिकता है? तेलतुंबडे जी ने अपने वक्‍तव्‍य में असत्‍यवचन कहा था। तो अब हम क्‍या करें ? क्‍या इस बात की ओर इंगित न करें ? क्‍या इसी प्रकार से बहस चलायी जाती है ? हमें लगता है कि यह बौद्धिक-राजनीतिक बेईमानी होगी।

    • जहां तक भारत की जटिलता का प्रश्‍न है, तो आपके अस्मिताओं, गणितीय-गैरगणितीय यथार्थ और उनके गणितीय व गैर-गणितीय समाधानों के बारे में विचारों पर अपनी प्रतिक्रिया हम संक्षेप में नहीं दे सकते हैं। लेकिन इस पर आह्वान के उपरोक्‍त लेख में ही हमारे विचार स्‍पष्‍ट हैं। आप उन्‍हें ही संदर्भित कर सकते हैं। संक्षेप में इतना ही कि इस जटिलता से हम भी वाकिफ हैं और हम इसका कोई 'दो दुनाई चार' वाला समाधान प्रस्‍तावित भी नहीं कर रहे हैं। अगर आप गौर से हमारे लेख का अवलोकन करें तो स्‍वयं ही यह बात स्‍पष्‍ट हो जायेगी।

    • Yesterday at 4:09pm· Like

    • Palash Biswasअभिनव जी,हम आपका लेख पढ़ चुके हैं और वक्तव्य भी स‌ुन चुके हैं। हम कोई तेलतुंबड़े जी का पक्ष नहीं ले रहे हैं और न आपके पक्ष का खंडन कर रहे हैं। हम स‌ारे लोग अलग अलग तरीके स‌े भारतीय यथार्थ को स‌ंबोधित कर रहे हैं। अगर हम राज्यतंत्र में परिवर्तन चाहते हैं और उसके लिए हमारे पास परियोजना है,तो उस परियोजना का कार्यान्वयन भी बहुसंख्य जनगण को ही करना है।

    • हीरावल दस्ते के जनता के बहुत आगे निकल जाने स‌े स‌त्तर के दशक की स‌बसे प्रतिबद्ध स‌बसे ईमानदार पीढ़ी का स‌ारा बलिदान बेकार चला गया।क्योंकि जनता स‌े स‌ंवाद की स्थिति ही नहीं बनी।

    • विचारधारा अपनी जगह स‌ही है,लेकिन उसे आम जनता को,जो हमसे भी ज्यादा अपढ़ और हमसे भी ज्यादा भाववादी है,उस तक आप वैज्ञानिक पद्धति स‌े वस्तुपरक विश्लेषण स‌ंप्रेषित करके उन्हें मुक्ति कामी जनसंघर्ष के लिए देशभर में तमाम अस्मिताओं के तिलिस्म तोड़कर कैसे स‌ंगठित करेंगे,जनपक्षधर मोर्चे की बुनियादी चुनौती यही है।

    • अवधारणाएं और विचारधारा अपनी जगह स‌ही हैं,लेकिन तेलतुंबड़े हों या आप,या हम या दूसरे लोग,हम स‌ामाजिक यथार्थ के मद्देनजर मुद्दों को टाले बिना एकदम तुरंत जनता को स‌ंबोधित नहीं कर पा रहे हैं।

    • यह आह्वान टीम ही नहीं,पूरे जनपक्षधर मोर्चे की भारी स‌मस्या है।शत्रू पक्ष के लोगों में वैचारिक स‌ांगठनिक असहमति होने के बावजूद जबर्दस्त स‌मन्वय और अविराम औपचारिक अनौपचारिक स‌ंवाद है।

    • लेकिन आप जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं,वैसे देश के अलग अलग हिस्से में हमारे तमाम लोग बेहद जरुरी काम कर रहे हैं।लेकिन हमारे बीच कोई आपसी स‌ंवाद और स‌मन्वय नहीं है।

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasजब हमारा बुनियादी लक्ष्य मुक्तिकामी जनता को राज्यतंत्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए जातिविहीन वर्गविहीन स‌माज की स्थापना के लिए स‌ंगठित करना है,तो आपस में स‌ंवाद में हार जीत और रियायत के स‌वाल गैरप्रासंगिक हैं।

    • जब आप स‌ांगठनिक तौर पर नीतियां तय कर रहे होते हैं,तो वस्तुपरक दृष्टि स‌े पूरी निर्ममता स‌े चीजों का विश्लेषण होना ही चाहिए।

    • लेकिन जब आप स‌ार्वजनिक बहस करते हैं या लिखते हैं तो आपको जनता के हर हिस्से को और खासकर जिस बहुसंख्य स‌र्वहारा वर्ग को आप स‌ंबोधित कर रहे हैं,उसपर होने वाले असर का आपको ख्याल रखना होगा।

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasयह कोप भवन में जाने की बात नहीं है। हम जिन तबकों के स‌ाथ जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं,वे मसीहों और दूल्हों के शिकंजे में फंसे मूर्ति पूजक स‌ंप्रदाय है तो स‌ीधे अंबेडकर की मूर्ति को एक झटके स‌े गिराकर उनके बीच आप काम नहीं कर स‌कते हैं।वे तो आपको स‌ुनते ही नहीं है। न वे विचारधारा स‌मझते हैं,न राज्य का चरित्र जानते हैं,न राजकाज की गतिविधियों पर उनकी दृष्ठि है और न वे अर्थव्यवस्था के बुनियादी स‌िद्धांतों के जानकार हैं।

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasजाति विमर्श जब आप चला रहे थे,तब आपके आक्रामक तेवर से जो बातें संप्रेषित हो रही थीं,उसे आगे बढ़ते देने से अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन का काम और मुश्किल हो जाता।यह अनिवार्य कार्यभार है और आपने इस पर विमर्श की पहल करके भी बढ़िया ही किया है।लेकिन इस विमर्श औ...See More

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasअब देशभर में कश्मीर से लेकर कन्याकुमरी तक हजारों की तादाद में ऐसे पुरातन बीएसपी और बामसेफ के कार्यक्रता भी हमारे साथ हैं,जो अंबेडकरी आंदोलन की चीड़फाड़ के लिए तैयार हैं और अस्मिताओं से ऊपर उठकर अंबेडकर के जाति उन्मूलन के मूल एजंडा के तहत ही उनका मूल्यांकन करने को तैयार हैं और जनसंहारी अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध देश व्यापी जनप्रतिरोध के साझ मोर्चे के लिए तैयार हैं। जब आपने विमर्श चलाया तब यह हालत नहीं थी।तेलतुंबड़े जी भी इस बहस को जारी रखने के हक में हैं।देश भर में और भी लोग जो वाकई बदलाव चाहते हैं, इस विमर्श को जारी रखने की अनिवार्यता मानते हैं।

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasअब बुनियादी समस्या लेकिन वही है कि हमें उस भाषा और माध्यम पर मेहनत करनी होगी, जिसके जरिये हम वंचितों को तृणमूल स्तर पर इस विमर्श में शामिल कर सकें,ताकि अस्मिताओं का तिलिस्म टूटे और अंधेरा छंटे। विश्लेषण आप भले ही सही कर रहे हों,उसे आडियेंस तक सहीतरीके से संप्रेषित करना आपकी सबसे बड़ी चुनौती है।

    • 22 hours ago· Like

    • Palash Biswasहमारी तुलना में आप लोग युवा हैं, तकनीक दक्ष हैं,विश्लेषण पारंगत प्रतिबद्ध टीम है तो अब आपको इस चुनौती का स‌ामना तो करना ही होगा कि बेहतर तरीके स‌े हम अपनी बात कैसे वंचित तबके तक ले जायें।

    • क्योंकि अंबेडकर के खिलाफ वंचित तबके के लोग कुछ भी स‌ुनना नहीं चाहते।वे तेलतुंबड़े को भी नही पढ़ते हैं और न स‌ुनते हैं।

    • पहले उन्हें इस विमर्श के लिए मानसिक तौर पर तैयार करना होगा वरना आप जो कर रहे हैं,वह स‌त्तावर्ग की स‌मझ में तो आयेगा लेकिन स‌र्वहारा जिस हालत में हैं, वे वहां स‌े एक कदम आगे नहीं बढ़ेंगे।

    • आगे भविष्य आप लोगों का है,हम लोग तेजी स‌े अतीत में बदल रहे हैं।

    • आपसे ही उम्मीदे हैं कि आप इन स‌मस्याओं का स‌माधान निकालकर माध्यमों का बेहतर इस्तेमाल करके वंचित स‌मुदायों स‌मेत देश भर के स‌र्वहारा स‌र्वस्वहारा तबकों को बुनियादी परिवर्तन के लिए स‌ंगठिक करेंगे।

    • मैं कोई आपकी आलोचना के लिए आपको यह स‌ुझाव नहीं दे रहा हूं,बल्कि जो काम आप लोग कर रहे हैं,उसे अति महत्वपूर्ण मानते हुए उसको पूरे देश को स‌ंप्रेषित करने की गरज स‌े ऎसा कर रहा हूं।

    • 22 hours ago· Like

    • Abhinav Sinhaहम सहमत हैं, पलाश जी कि जनता के साथ जुड़ने की जरूरत है। उनके साथ एकता-संघर्ष-एकता का रिश्‍ता बनाने की जरूरत है। आप हम पर यक़ीन कर सकते हैं कि हम यह काम कर भी रहे हैं। आह्वान में लिखने वाला एक-एक युवा कार्यकर्ता मुख्‍य रूप से मज़दूर मोर्चे पर कार्यरत है। हमें वहां कभी अंबेडकर के प्रश्‍न पर या उनकी आलोचना के प्रश्‍न पर कभी समस्‍या का सामना नहीं करना पड़ता है, जबकि जिन मज़दूर साथियों के बीच हम काम कर रहे हैं, उनका बहुलांश दलित है। यह समस्‍या हमेशा मध्‍यवर्गीय दलित चिंतकों के साथ आती है। अंबेडकर की किसी आलोचना को सुनने के लिए समूची दलित आबादी का यह तीन-चार फीसदी हिस्‍सा तैयार नहीं है। यह हिस्‍सा बथानी टोला और लक्ष्‍मणपुर बाथे के हत्‍यारों के छूटने पर कोई शोर नहीं मचाता, आंदोलन तो बहुत दूर की बात है। लेकिन अंबेडकर के एक कार्टून पर (जिसमें कुछ भी अंबेडकर विरोधी नहीं था) सुहास पल्‍शीकर के कार्यालय में तोड़-फोड़ कर सकता है।

    • हमें आप जैसे प्रतिबद्ध लोगों का साथ चाहिए। आप यकीन करें कि आलोचना से हमसे कोई नाराज़ नहीं हुआ है। हम खुद महाराष्‍ट्र में काम कर रहे हैं। आह्वान से जुड़ी एक टीम मुंबई विश्‍वविद्यालय के कालीना कैंपस में काम कर रही है। वहां भी हमने अंबेडकर के विचारों पर अपना स्‍टैंड रखा। लोगों से बहसें जरूर हुईं लेकिन हमें नहीं लगता कि इसकी वजह से दलित जनता से हम कोई कट गये। वंचित और दलित आबादी का असली सरोकार अपने जीवन की मूल समस्‍याओं, राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक हक़ों पर जुझारू संघर्ष से है। जो यह करेगा, वह उनके साथ खड़ी होगी। हम यही करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो विचारधारात्‍मक विभ्रम है उसके सफाये के लिए जरूरी है कि अंबेडकरवाद की एक वैज्ञानिक आलोचना पेश की जाये। क्‍योंकि दलित मुक्ति की परियोजना के ठहरावग्रस्‍त होने का सबसे बड़ा कारण आज अंबेडकरवाद की एक वैज्ञानिक आलोचना का अभाव है।

    • 20 hours ago· Like

    • Divyendu Shekharआप लोग एक यूनिवर्सिटी खोल लें क्रिपया। आम आदमी आपके इन विचारों से अपने आपको काफ़ी दूर पाता है

    • 19 hours ago via mobile· Like

    • Abhinav Sinhaआम आदमी की मेधा से सबसे ज्‍यादा अपरिचित और विश्‍वविद्यालयों और कारपोरेट घरानों में नौकरी करने वाले लोग ही आम आदमी के बारे में ऐसी टिप्‍पणी कर सकते हैं। सन्‍देह पैदा होता है कि ये कहीं केजरीवाल वाला 'आम आदमी' तो नहीं है!

    • 18 hours ago· Like

    • Divyendu Shekharसर। आम आदमी इतनी थ्योरी को समझने की शक्ति नहीं रखता। उसको आपको सरल शब्दों में समझाना पड़ेगा। और विश्वविद्यालय । में पढे़ और काॅर्पोरेट में काम करने वाले लोग समाज में वो बदलाव ला रहे हैं जो बाक़ी वामपंथ ना जाने कितने सालों में नहीं ला पाया। हाँ केजरीवाल उस आंदोलन का एक ज़रूरी पात्र है क्योंकि वो उन लोगों से जुड़ पाया जिनसे आप नहीं जुड़ पाये। जिस दिन आप उस इंसान से उसकी भाषा में बात कर पायेंगे उस दिन आपकी बात कोई सुनेगा। तब तक आपकी ये सारी debates irrelevant और किताबी हैं।

    • 18 hours ago via mobile· Like

    • Abhinav Sinhaदिव्‍येंदु, यहां पर एक संगोष्‍ठी में चली बहस का जि़क्र हो रहा था। केजरीवाल जिस ''आम आदमी'' की राजनीति कर रहा है, उससे जुड़ा है। हम जिस मज़दूर वर्ग की राजनीति कर रहे हैं, उससे जुड़े हैं। केजरीवाल की राजनीति का क्‍या होना है, ये तो जल्‍द ही पता चल जायेगा। सवाल राजनीति का है, कौन किस वक्‍त जनता से कितना जुड़ा इसका नहीं। उस नाटक का पात्र बनना हमारा मकसद नहीं है, जिसका कि केजरीवाल पात्र है। संगोष्‍ठी में राजनीतिक दायरे के अनुभवी और व्‍यहार से जुड़े लोग जुटते हैं। वहां वह राजनीतिक भाषा में ही बात करते हैं। हम जब लोगों के बीच होते हैं तो हमारी भाषा अलग होती है। फेसबुक पर वैसे भी ये बहसें जनता के लिए अप्रासंगिक ही रहेंगी, क्‍योंकि देश की कुल आबादी के 10 प्रतिशत के पास भी इंटरनेट कनेक्‍शन नहीं है। फेसबुक पर हम यह बहस सीधे समूची आम जनता को गोलबंद करने के लिए चला भी नहीं रहे हैं। जो ऐसा सोचता है, उसकी मेधा के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्‍छा है। तुम फेसबुक पर ही अपनी ''जनता के करीब'' भाषा से गोलबंदी कर सकते हो। हमें यहां इस बात का रिपोर्ट कार्ड पेश करने की जरूरत नहीं है, कि हम आम जनता के बीच किस पद्धति और भाषा के जरिये जाते हैं। हालांकि, हमारे ऐसे अभियानो और आन्‍दोलनों की रपट भी फेसबुक पर आती रहती है। लेकिन शायद तुम फेसबुकिया टिप्‍पणी के लिए मुद्दे चुनने में काफी सेलेक्टिव हो। केजरीवाल की अदा भी कुछ ऐसी ही है। ताज्‍जुब नहीं।

    • 18 hours ago· Like

    • Divyendu Shekharहमने आपके एक कटाक्ष का जवाब दिया। लेकिन सोचने की बात ये है कि आप उस जगह और उस बहस में क्यों नहीं आ पाते जहाँ वो है? क्योंकि आज अंबेडकर का कोई महत्व नहीं है। वो 50 साल पहले "थे"। बहरहाल आप अपना काम चालू रखें। मेरा बस यही कहना है कि दुनिया काफ़ी बदल गयी है

    • 17 hours ago via mobile· Like

    • Abhinav Sinhaआपकी शिक्षा और नसीहत पर ध्‍यान दिया जायेगा ! हमें जिस बहस में जिस जगह होना है, वहां हम हैं; आपको और 'आप'को जिस जगह जिस 'बहस' में होना है, वहां वह है। समय दोनों का ही हिसाब कर देगा। अंबेडकर के बारे में हमारे विचारों के बारे में बिना पढ़े टिप्‍पणी न करें, तो बेहतर होगा। पहले हमारे विचार जान लें। हमारा काम किसी की नसीहत के बिना भी जारी था और जारी रहेगा। बाकी, दुनिया तो हमेशा ही बदलती रहती है, इस सत्‍य से अवगत होने के लिए भी किसी नसीहत की जरूरत नहीं है। हमने भी आपके कटाक्ष का ही जवाब दिया था। आपका हस्‍तक्षेप ही पहला था इस थ्रेड में। ग़ौर करें, कृपया।

    • 17 hours ago· Like

    • Divyendu Shekharबिल्कुल। हमारी विचारधारा अब भी यही कहती है कि नेहरू गांधी और अंबेडकर अब भूल जाने लायक हैं। उनको पढ़ के तो और कुछ नहीं होना

    • 17 hours ago via mobile· Like

    • Rohit Parmila Ranjanhttp://www.indianexpress.com/.../after-maoists.../1215873/

    • 4 hours ago· Like

    • Rohit Parmila Ranjan those people who talks about sr.

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Economic and Political Weekly

If you haven't read it already, do read the independent fact finding committee's report on the Muzaffarnagar riots. The full report is available in Economic and Political Weekly web exclusives:


http://www.epw.in/web-exclusives/fact-finding-report-independent-inquiry-muzaffarnagar-%E2%80%9Criots%E2%80%9D.html

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The Economic Times

ISRO's GSLV-D5 launch: 10 things that make it special http://ow.ly/sinuC

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Himanshu Kumar

मुझे अजनबी सा जो जानकार के दिखा रहे हैं गली गली

इस शहर में मेरा घर भी है कहीं ये किसी को पता नहीं

मुज़फ्फर नगर मेरा अपना पुश्तैनी शहर है यहीं पैदा हुआ बड़ा हुआ . आज मुझे लोग इस तरह समझाते हैं जैसे मैं यहाँ के बारे में अनजान होऊँ .


और मुझे ये भी लगता है कि

मेरे कातिलों की तलाश में कई लोग जान से जायेंगे

मेरे क़त्ल में मेरा हाथ है कहीं ये किसी को पता नहीं


बशीर बदर साहब आज बेसाख्ता याद आये उनका घर मेरठ के दंगों में जला दिया गया था तब उन्होंने लिखा था

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में

तुम तरस भी नहीं खाते बस्तियां जलाने में

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  • Jayantibhai Manani, Pankaj Chaturvedi, Ashutosh Singh and 70 others like this.

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  • Anand Rishiमार्मिक और सटीक !

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  • Shalinee Tripathi Subhashसच है हिमांशु जी ,मुज्ज़फर्नगर के जलने का दुःख आपको कितना हुआ होगा इसकी सिर्फ कल्पना कर सकते हैं हम लोग...कोई कहीं भी रहे जब अपनी जन्मस्थली पर दंगों की खबर सुनता है तो आँखों से आंसू नहीं खून गिरता है...

  • 37 minutes ago· Like· 1

Palash Biswasस‌त्ता खेल के जो खिलाड़ी है,उनके लिए आम जनता का यह भोगा हुआ यथार्थ भी पूंजी है,हिमांशु जी। नकदीकरण की होड़ स‌े भी बचना है असहाय लोगों को।जख्म है,मलहम नहीं लेकिन।नमक की आवक बहुत है।


Economic and Political Weekly

"How bad climate impacts will be beyond the mid-century depends crucially on the world urgently shifting to a development trajectory that is clean, sustainable, and equitable, a notion of equity that includes space for the poor, for future generations and other species."


Read about the alarming report of IPCC on global warming:http://www.epw.in/commentary/ipccs-summary-policymakers.html

Mamata to ally with AAP

खास आदमी की धुआँधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र

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जो लोग भ्रष्टाचार और कालाधन के विरुद्ध जिहादी झंडावरदार हैंवहीं लोग अप्रतिरोध्य भ्रष्ट कालेधन का सैन्य राष्ट्रतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

शायद  यह अब तक का सबसे खतरनाक राजनीतिक समीकरण है। सीधे विश्व बैंक, यूरोपीय समुदाय, अंतरराष्ट्रीय चर्च संगठन, विश्व व्यापार संगठन, यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग से पोषित सामाजिक क्षेत्र और प्रायोजित जनान्दोलनों के साथ सामाजिक प्रतिबद्धता के लिये भारी साख वाले तमाम परिचित चेहरे, मीडिया और कॉरपोरेट जगत के हस्ती एक के बाद एक खास आदमी पार्टी में शामिल होते जा रहे हैं।

राजनीति के इस एनजीओकरण के कॉरपोरेट कायाकल्प की चकाचौंध में राज्य तंत्र को जस का तस बनाये रखते हुये, कॉरपोरेट राज और विदेशी पूँजी को निरंकुश बनाते हुये, जनसंहारी नीतियों की निरन्तरता बनाये रखते हुये, उत्तर आधुनिक जायनवादी रंगभेदी मनुस्मृति वैश्विक व्यवस्था को अभूतपूर्व वैधता देते हुये एक और ईश्वरीय आध्यात्मिक परिवर्तन का परिदृश्य तैयार है।

मीडिया सर्वे के मुताबिक यह परिवर्तन सुनामी ही अगला जनादेश है।

इसी के मध्य मध्यवर्गीय क्रयशक्ति सम्पन्न उपभोक्ता नवधनाढ्य वर्ग को देश की बागडोर सौंपने की तैयारी है, जो मुक्त बाजार के तहत विकसित एकाधिकारवादी प्रबंधकीय, तकनीकी दक्षता का चरमोत्कर्ष है। जाहिर है कि इससे एकमुश्त परिवर्तनकामी मुक्तिकामी जनान्दोलनों के साथ-साथ वामपक्ष के बिना शर्त आत्मसमर्पण की वजह से जहाँ विचारधारा का अवसान तय है, वहीं धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के त्रिआयामी त्रिभुजीय तिलिस्म में बहुजनों की समता और सामाजिक लड़ाइयों का भी पटाक्षेप है। इसी के मध्य आध्यात्मिक अर्थशास्त्र की अवधारणा मध्य आर्थिक अश्वमेध अभियान के विमर्श को जनविमर्श बनाते हुये छनछनाते विकास का अर्थशास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है।

जनता तो मारे जाने के लिये नियतिबद्ध है, कर व्यवस्था में सुधार के बहाने हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर अमल के लिये भारतीय संविधान की एक झटके के साथ बलि देने और करमुक्त भारत निर्माण के बहाने रंगबिरंगी पूँजी और कालाधन को करमुक्त करने का आईपीएल शुरु हो गया है। विडम्बना यह है कि जो लोग भ्रष्टाचार और कालाधन के विरुद्ध जिहादी झंडावरदार हैंवहीं लोग अप्रतिरोध्य भ्रष्ट कालेधन का सैन्य राष्ट्रतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।

हमने अपने एक अंग्रेजी आलेख में कई वर्ष पूर्व देश विदेश घूमने वाले मुक्त बाजार के पक्षधर और मनमोहमनी अर्थशास्त्र के घनघोर भक्त एक बहुत बड़े अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार का यह वक्व्य उद्धृत किया था कि भारत में विकास के बाधक हैं तमाम आदिवासी। जब तक आदिवासी रहेंगे, तब तक इस देश का विकास हो नहीं सकता। इसलिये आदिवासियों के खिलाफ राष्ट्र का युद्ध अनिवार्य है। आदिवासियों के सफाये में ही राष्ट्रहित है।

उस वक्त जो शब्दावली हम उपयोग में ला रहे थे, मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर उसे हमने त्याग दिया है। उस वक्त भी हम अस्मिताओं के मध्य बहुजन भारत को आन्दोलित करने का मिशन चला रहे थे। इसलिये उस आलेख के ज्यादा उद्धरण देकर हम अपने नये नजरिये के बारे में कोई भ्रम पैदा नहीं कर सकते। लेकिन सत्तावर्ग के प्राचीन वधमानस का विवेचन आवश्यक है। उल्लेखित पत्रकार अब भी मीडिया में उसी बड़े अखबार में शान से काम कर रहे हैं और लिखित में अत्यन्त उदार दिखते हैं। यह पाखण्ड समकालीन लेखन का सबसे बड़ा दुश्चरित्र है।

मसीहा माने जाने वाले तमाम लेखक बुद्धिजीवी हिंदी में शायद अंग्रेजी से ज्यादा हैं, मैं समझता हूं कि इसे साबित करने के लिये किसी का उदाहरण देने की जरुरत नहीं हैं। ऐसे महान लोग या तो बेनकाब हो चुके हैं या बेनकाब होंगे। सत्तावर्ग का सौंदर्यशास्त्र भी अद्भुत है, वे सीधे तौर पर जो कहते लिखते नहीं है, उनका समूचा लेखन उसी को न्यायोचित ठहराने का कला कौशल और जादुई शिल्प है।

इसी संदर्भ में अभी-अभी रिटायर हुये एक अंग्रेजी अखबार के संपादक का हवाला देना जरूरी है जो भारतीय लोगों से सिर्फ इसलिये सख्त नफरत करते हैं कि उन्होंने एक अमेरिकी महिला से विवाद किया है और उन्हें अपना देश भारत के बजाय अमेरिका लगता है। उनकी इस नफरत की बड़ी वजह है कि भारतीय शौच से निपटने के बाद पानी का इस्तेमाल करते हैं। हमारे उन आदरणीय मित्र को शौच में कागज के बजाय पानी का इस्तेमाल करना सभ्यता के खिलाफ लगता है।

हम नैनीताल में पले बढ़े हैं। दिसंबर से लेकर फरवरी में पानी जम जाने की वजह से जहाँ नल फट जाना अमूमन मुश्किल है। हमें मालूम है कि कड़ाके की शून्य डिग्री के तापमान के नीचे शौच में पानी का इस्तेमाल कितना कठिन होता है। अमेरिका और यूरोप में तो नल के अलावा दूसरी चीजें भी फट जाती होंगी। न फटे तो कागज एक अनिवार्य उपाय हो सकता है। लेकिन भारत जैसे गर्म देश में टॉयलेट की जगह पानी ही शौच का बैहतर माध्यम हैं। वे आदरणीय संपादक मित्र अपने पुरातन मित्रों से सम्पर्क भी ​​इसलिये नहीं रखना चाहते क्योंकि वे लोग शौच में पानी का इस्तेमाल करते हैं।

टॉयलेट मीडिया का यह परिदृश्य विचारधारा, विमर्श और जनान्दोलनों तक में संक्रमित है। साहित्य और कला माध्यमों में तो टॉयलेट का अनन्त विस्तार है ही। विडम्बना यही है कि टॉयलेट पेपर में जिनकी सभ्यता निष्णात है और टॉयलेट में ही जिनके प्राण बसते हैं, वे लोग ही जनमत, जनादेश और जनान्दोलने के स्वयंभू देव देवियाँ हैं।

अखबारों में उनका सर्वव्यापी टॉयलेट रोज सुबह का रोजनामचा है तो ऐसे रिटायर बेकार संपादकों या अब भी सेवारत गैरजरूरी मुद्दों के वैश्वक विशेषज्ञ मीजिया मैनेजर चाकरों का गुरुगंभीर पादन कॉरपोरेट मीडिया से अब सोशल मीडिया तक में संक्रमित है।

बहरहाल, भारत को करमुक्त बनाने के नममय उद्घोष और बाबा रामदेव के आध्यात्मिक अर्थशास्त्र और गणित योग की धूम रंग बिरंगे चैनलों और प्रिन्ट मीडिया पर खास आदमी की बढ़त के मुकाबले मोर्चाबन्द हैं।

यह विमर्श महज टैक्स चोर किसी गुरुजी का होता या हिन्दू राष्ट्र के प्रधान सिपाहसालार का ही होता तो इस सपने को साकार करने के लिये आर्थिक अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय पेज भी रंगे न होते और न प्राइम टाइम में इस मुद्दे पर तमाम आदरणीय सर्वज्ञ एंकर देव देवियाँ सर्कस की तरह पैनल साध रहे होते। इसी बीच अर्थशास्त्रियों ने एक अलग मोर्चा बहुआयामी खोल लिया है। आर्थिक सामाजिक इंजीनियरिंग करने के लिये अमर्त्य सेन अकेले नहीं हैं। उनके साथ विवेक देवराय से लेकर प्रणव वर्धन तक हैं। प्रेसीडेंसी कॉलेज और आईएसआई से निकले ये तमाम अर्थशास्त्री देश के समावेशी विकास के ठेकेदार हैं।

भारत सरकार, नीति निर्धारक कोर ग्रुप और रिजर्व बैंक के मार्फत जो मुक्त बाजार की जनद्रोही अर्थव्यवस्था है, ये तमाम अर्थशास्त्री इस कसाई क्रिया को मानवीय चेहरे के धार्मिक कर्मकाण्ड बनाने में खास भूमिका निभाते रहे हैं।

मसलन डॉ. अमर्त्य सेन बंगाल में 35 साल के वाम शासन में वाम नेताओं और सरकार के मुख्य सलाहकार रहे हैं। भारत और चीन में अकाल पर अध्ययन के लिये उनकी ख्याति है। लेकिन अपने विश्वविख्यात शोध कर्म में अमर्त्य बाबू ने इस अकाल के लिये साम्राज्यवाद को कहीं भी जिम्मेदार मानने की जरूरत ही महसूस नहीं की। वे वितरण की खामियाँ गिनाते रहे हैं। सिर्फ डॉ. अमर्त्य सेन ही नहीं, भारतवंशज सारे अर्थशास्त्री साम्राज्यवादी मुक्तबाजार के ही पैरोकार हैं और उनका सारा अध्ययन और शोध छनछनाते विकास की श्रेष्ठता साबित करते हैं।

बंगाल में जब ममता बनर्जी की अगुवाई में सिंगुर और नंदाग्राम का भूमि आन्दोलन जारी था, तब पूँजी के स्वर्णिम राजमार्ग पर कॉमरेडों की नंगी अंधी दौड़ को महिमामंडित करने के लिये देश जैसी पत्रिकाओं में इन अर्थशास्त्रियों के तमाम कवर आलेख छपे, जिनमें ममता बनर्जी को ताड़कासुर रूप में दिखाने में भी कसर नहीं छोड़ी गयी।

तमाम अर्थशास्त्री तब कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर देते हुये कॉमरेडों को आहिस्ते-आहिस्ते मौत के कुएं में धकेल रहे थे। जब उन्होंने आखिरी छलाँग लगा ली तब एक-एक करके सारे के सारे ममतापंथी हो गये।

सबसे पहले फेंस के आर-पार होने वाले सज्जन का नाम विवेक देवराय है। मजे की बात है कि पार्टीबद्ध कॉमरेड अर्थशास्त्री भी विचारधारा पर पूँजी का यह मुलम्मा चढ़ने से बचा नहीं पाये। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग चाहे जितना करें भारतीय दरअसल, उसकी सीमा मनमोहन इकोनामिक्स है। यह अर्थशास्त्र बहुसंख्य बहुजन भारतीय जनगण के बहिस्कार के तहत ही आर्थिक अवधारणाएँ पेश करने में पारंगत है।

आम आदमी को हाशिये पर रखकर ही शुरू होता है खास आदमी का अर्थशास्त्र। इसीलिये प्राचीनतम और बुनियादी अर्थशास्त्र दरअसल मनुस्मृति समेत तमाम पवित्र ग्रंथों का समारोह है। तो मुक्त बाजार का यह अर्थशास्त्र फिर वहीएडम स्मिथ है, जो सिर्फ धनलाभ का शास्त्र है, जिसमें जनकल्याण का कोई तत्व ही नहीं है। जनकल्याण भी उपभोक्ता वस्तु है, ठीक उसी तरह जैसे पुरुषतांत्रिक अर्धराज्यतंत्र में बिकाऊ स्त्री देह।

बंगाल में जो हुआ कुल मिलाकर भारत की राजधानी दिल्ली में भी उसी की पुनरावृत्ति हो रही है। जो लोग पिछले दस साल तक मनमोहिनी स्वर्ग के देवमंडल में हर ऐश्वर्य का स्वाद चाख रहे थेवे रातों रात मनमोहन अवसान के बाद नमोमय हो गये हैं या आम आदमी पार्टी के खास चेहरे बनने को आकुल-व्याकुल हैं।

कर व्यवस्था में सुधार और वित्तीय सुधार के लिये जो लोग मनमोहन सिंह की तारीफों के पुल बाँध रहे थे, वे लोग ही अब घोषणा कर रहे हैं कि 2005 से न कोई वित्तीय सुधार हुआ और न कर प्रणाली बदलने की कोई पहल हुयी।

आगे और खुलासा हो, इससे पहले अमर्त्य बाबू के समीकरण का जायजा लीजिये।

एक समीकरण वह है, जिसे मीडिया खूब हवा दे रहा है, जिसके मद्देनजर आप में वाम को समाहित होना है और अमीर-गरीब का वर्गभेद खत्म होकर वर्ग विहीन समाज की रक्तहीन क्रांति को अंजाम दिया जाना है और इसके लिये कामरेड प्रकाश कारत, खास आदमी की पार्टी के साथ एकजुट होने को बेताब हैं। संजोग बस इतना सा है कि सत्ता के इस समीकरण में अन्ध राष्ट्रवाद का विरोध है। यह भारत के नमोमय बनाने की परिकल्पना के प्रतिरोध का सबसे दमदार धर्मनिरपेक्ष मंच है और नरम हिन्दुत्व काँग्रेस का गर्म विकल्प है हॉटकेक।

मुक्त बाजार के व्याकरण के मुताबिक एक सीमा तक अन्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के लिये वरदान है जैसा अब तक होता रहा है। लेकिन उस लक्ष्मणरेखा के बाहर अपने सामंती सांस्कृतिक चरित्र के कारण यह अन्ध राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के सर्वनाश का मुख्यकारक भी बन सकता है।

खुदरा बाजार में और खासकर रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश में कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा हित दाँव पर है, जो अन्ध राष्ट्रवाद को मँजूर होना मुश्किल है क्योंकि उसकी सबसे बड़ी शक्ति देशभक्ति है। वह उसकी पूँजी भी है। इसी शक्ति और पूँजी के दम पर अन्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद सत्ता के खेल में ध्रुवीकरण के रास्ते प्रतिद्वंद्वियों को मात देता है, इसीलिये सत्ता के खेल में शामिल हर खिलाड़ी कमोबेश इसका इस्तेमाल करता रहा है।

अरब वसंत के तहत मध्य एशिया और अरब विश्व में लोकतंत्र का निर्यात बजरिये मुक्त बाजार के हित साधने के खेल में कॉरपोरेट साम्राज्यवादी वैश्विक व्यवस्था को भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। यह तालिबान और अल कायदा के नये अवतारों के निर्माण की परिणति में बदल गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से अमेरिकी हितों को दुनियाभर में सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही है और उसकी महाशक्ति के टावर भी उसी धर्मोन्माद ने ढहा दिये हैं।

दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। एक धर्मोन्मादी राष्ट्र्वाद की सोवियत कम्युनिस्ट विरोधी अन्ध राष्ट्रवाद को संरक्षण देकर अमेरिका को दुनियाभर में आतंक के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ रहा है।

तो वे इतने भी कमअक्ल नहीं हैं कि दूसरे अन्ध राष्ट्रवाद को अन्ध समर्थन देकर वह फिर अपने हितों को नये सिरे से दाँव पर लगा दें।

देवयानी खोपरागड़े के मुद्दे पर जारी भारत अमेरिका राजनयिक छायायुद्ध की अभिज्ञता ने कम से कम अमेरिकी नीति निर्धारकों को यह सबक तो पढ़ा ही दिया होगा कि भारत में सत्ता की बागडोर अन्ध राष्ट्रवाद के एकाधिकारवादी वर्चस्व के हाथों चली गयी तो भारत ही नहीं, समूचे दक्षिण एशिया में उसके हित खतरे में होगें।

कॉरपोरेट राज, मुक्त बाजार और वैश्विक व्यवस्था पर काबिज कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के लिये ईमानदार, क्रयशक्ति संपन्न मध्यवर्गीय साम्यवादविरोधी आध्यात्मिक पेशेवर प्रबन्धकीय तकनीकी दक्षता वाले लोग, जिनके हित कॉरपोरेट राज में ही सधते हैं, बेहतर और सुरक्षित मित्र साबित हो सकते हैं हिन्दुत्व के झंडेवरदारों के मुकाबले । इसी तर्क के आधार पर मनमोहन कॉरपोरेट मंडल को दस साल तक अमेरिकी समर्थन मिला है संघ परिवार के बजाय। लेकिन इस मंडली की साख चूँकि गिरावट पर है तो एक विकल्प की अमेरिका को सबसे ज्यादा जरूरत है, जो नमोमयभारत हो ही नहीं सकता, सिंपली बिकॉज़ कि अन्ततः नमोमय भारत अमेरिका के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ तो अन्ध राष्ट्रवाद का तिलिस्म टूट जायेगा और त्वरित होगा उसका अवसान।

कॉरपोरेट साम्राज्यवाद को ऐसा विकल्प चाहिए जो न कॉरपोरेट राज के खिलाफ हो और न अमेरिकी हितों के खिलाफ और न मुक्त बाजार के खिलाफ।

इस लिहाज से खास समूहों का आप उसके लिये रेडीमेड विकल्प है। अगर पूँजीपरस्त संसदीय वामदलों का खास आदमियों की पार्टी से गठबंधन हुआ तो भी वह उसीतरह अमेरिकी हित में काम करेगा जैसे वामसमर्थित यूपीए एक ने किया है। यह जितना सच है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि के खिलाफ वाम दल कांग्रेस से अलग हुये तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जिम्मेदार वाम संसदीय भूमिका की वजह से ही भारत अमेरिकी परमाणु संधि को अंजाम दिया जा सका और यूनियन कार्बाइड भी बेकसूर खलास हो गया। भारतीय मजदूर आंदोलन की हत्या भी इसी संसदीय वाम ने की। कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का भारत में कोई विरोध न होने के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार भी वाम दल ही हैं। खास लोगों की पार्टी को वाम विरासत की घोषित करके वामदल फिर सत्ता की लाटरी पर आखिरी दाँव लगा रहे हैं तो अमेरिकी वैश्विक संस्थानों की पूँजी से संचालित मीडिया, गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठनों और जनान्दोलनों, सूचना तकनीक प्रबंधकीय दक्षता के तमाम पेशवर ईमानदार चमकदार चेहरे लगातार आप के लिये अपने अपने कैरीयर छोड़कर अमेरिकी विकल्प को ही मजबूत बनाने में लगे हैं। संघ परिवार की एकछत्र बढ़त को जो यह गम्भीर चुनौती है, इस संकट को पूँजी और कॉरपोरेट को करमुक्त करने के अभूतपूर्व अवसर बतौर बनाने में बाकायदा सीधे तौर पर अर्थ शास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है। कर मुक्त भारत का विमर्श अन्ततः आम आदमी को चमत्कृत कर रहा है और हिन्दू राष्ट्र की बढ़त में वापसी का यही विकल्प है। आप के साथ वाम दलों ने भी अमीर गरीब का भेद मिटाकर वर्गविहीन समाज का लक्ष्य बना रखा है तो वित्त व कर प्रबंधन में यह वर्ग भेद खत्म करके इसके लिये जरुरी संविधान संशोधनों के रास्ते हमेशा के लिये बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की मूर्ति से पीछा छुड़ाने का मौका भी मिल गया संघ परिवार को। सत्ता की सुगन्ध सूँघने में अर्थशास्त्रियों की इन्द्रियाँ सबसे ज्यादा सक्षम है। बंगाल में वे सबसे ज्यादा सूँघने में सक्षम जीव हैं तो भारत में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। जाहिर है कि वाम अवसान के बाद वामदलों को अपनी ओर से फिर दिशा निर्देश देने लगे हैं डॉ. अमर्त्य सेन। बांग्ला के सबसे बड़े दैनिक अखबार में इसी पर उनका एक लम्बा आलेख प्रकाशित हुआ है। इसी तरह अमर्त्यबाबू की तुलना में कम विख्यात लेकिन बंगाल में प्रख्यात एक और अर्थशास्त्री डॉ. प्रणव वर्धन ने टाइम्स के बांग्ला अखबार में उदात्त घोषणा कर दी है कि वे मुक्त बाजार के उतने ही पक्षधर हैं जितने कि समता और सामाजिक न्याय के। बम बम बम। जो बोले से बम। बामबम बमबमाबम।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

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पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

पलाश विश्वास

उत्तराखंड की तराई में उधमसिंह नगर जिला मुख्यालय रुद्रपुर से सोलह किमी दूर दिनेशपुर में पिछले साल की तरह इसबार भी पिताजी किसान और शरणार्थी नेता दिवंगत पुलिनबाबू की स्मृति में आयोजित राज्यस्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता संपन्न हो गयी है।कहने को तो यह उत्तराखंड स्तरीय प्रतियोगिता है,लेकिन इसमें उत्तर प्रदेश की टीमें भी शामिल रहीं। घरु टीम दिनेशपुर को हराकर चैंपियन भी बनी उत्तर प्रदेश की टीम। कादराबाद बिजनौर ने यह प्रतियोगिता जीत कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की दूरी मिटा दी। इसबार पहाड़ से भी टीमें आयीं। उम्मीद है कि अगली दफा उत्तर प्रदेश और पहाड़ से ौर ज्यादा टीमें शामिल होंगी इस प्रतियोगिता में।


मैं यह आलेख इस फुटबाल प्रतियोगिता पर लिख नहीं रहा हूं। प्रिंट और मीडिया ने हर मैच का कवरेज किया और दूर दराज से खेलप्रेमी तमाम मैच देखते रहे।


मैंने पिताजी से जुड़े किसी कार्यक्रम में ,सिवा कोलकाता विश्वविद्यालय में उनके निधन की पहली वर्षी पर हुए कार्यक्रम के, कभी शामिल हुआ नहीं हूं।


लेकिन जिस मिशन के लिए पुलिन बाबू आज भी भारतभर के शरणार्थी उपनिवेशों के अलावा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बिना सेलिब्रेटी या निर्वाचित जनप्रतिनिधि हुए पुलिन बाबू को आज भी याद करते हैं, मुझे उस मिशन के अंजाम की सबसे ज्यादा परवाह है।उनके जीवनकाल में मैं उनके मिशन में कहीं नहीं था क्योंकि हमारी विचारधारा और थी और उनके राजनीतिक नेताओं के साथ संबंधों पर मुझे सख्त एतराज था। उनके निधन के बाद मुझे शरणार्थी समस्या से दो दो हाथ करना पड़ा क्योंकि भारत सरकार ने विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को देशनिकाला का परमान जारी किया हुआ है।विचारधारा से मदद नहीं मिली तो मैं बामसेफ में चला गया और अब वहां भी नहीं हूं।देशभर में शरणार्थी आंदोलन अब भी जारी है,लेकिन इस राष्ट्रव्यापी शरणार्थी आंदोलन में भी अब अपने को कहीं नहीं पा रहा हूं।


पिताजी अंबेडकरवादी थे। पिताजी कम्युनिस्ट भी थे। मैंने उनके जीवनकाल में अंबेडकर को कभी पढ़ा ही नहीं। हम वर्ग संघर्ष के मार्फत राज्यतंत्र को आमूल चूल बदलकर शोषणविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना जी रहे थे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक और तमाम साम्यवादियों की तरह हम भी भारतीय यथार्थ बतौर जाति को कोई समस्या मानते ही न थे। पिताजी ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे।उत्तराखंड पहुंचने से पहले वे बंगाल में तेभागा आंदोलन के भी लड़ाकू थे।चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत के तमाम किसान विद्रोह की तरह ढिमरी ब्लाक से भी किनारा कर लिया तो उनका कम्युनिस्टों से आजीवन विरोध रहा। लेकिन वे इतने लोकतात्रिक जरुर थे कि उन्होंने अपनी विचारधारा और अपना जीवन जीने की हमारी स्वतंत्रता में तीव्र मतभेद के बावजूद कभी हस्तक्षेप नहीं किया।


1958 में हुए ढिमरी ब्लाक आंदोलन से वे आमृत्यु तराई में बसे सभी समुदायों के नेता तो थे ही, वे पहाड़ और तराई के बीच सेतु भी बने हुए थे।जाति उन्मूलनकी दिशा में उनकी कारगर पहल यह थी कि उन्होंने सारी किसान जातियों और शरणार्थी समूहों को दलित ही मानने की पेशकश करते रहे। वे अर्थशास्त्र नहीं जानते थे।औपचारिक कोई शिक्षा भी नहीं थी उनकी।लेकिन उनका सूफियाना जीवन दर्शन हम उनके जीवनकाल में कभी समझ ही नहीं सकें। भारत विभाजन की वजह से जिन गांधी के बारे में तमाम शरणार्थी समूहों में विरुप प्रतिक्रिया का सिलसिला आज भी नहीं थमा, कम्युनिस्ट और शरणार्थी होते हुए उसी महात्मा गांधी की तर्ज पर 1956 में उन्हंने शरमार्थियों की सभा में ऐलान कर दिया कि जब तक इस देश में एक भी शरणार्थी या विस्थापित के पुनर्वास का काम अधूरा रहेगा, वे धोती के ऊपर कमीज नहीं पहनेंगे। वे तराई की कड़ाके की सर्दी और पहाड़ों में हिमपात के मध्य चादर या हद से हद कंबल ओढ़कर जीते रहे।देशभर में यहांतक कि अपने छोड़े हुए दस पूर्वी बंगाल से भी जब भी किसीने पुकारा वे बिना पीछे मुड़े दौड़ते हुए चले गये। भाषा आंदोलन के दौरान वे ढाका के राजपथ पर गिरफ्तार हुए तो बंगाल के प्रख्यात पत्रकार और अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषारकांति घोष उन्हें छुड़ाकर लाये। तुषारकांति से उनके आजीवन संबंध बने रहे। यही नहीं, भारत के तमाम राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों,राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम राजनीतिक दलों से उनका आजीवन संबंध था। उनका संवाद अविराम था। वे इंदिरा गांधी के कार्यालय में बेहिचक पहुंच जाते थे तो सीमापार जाने के लिए भी उन्हें न पासपोर्ट और न वीसा की जरुरत होती थी।


वे यथार्थ के मुकाबले विचारधारा और राजनीतिक रंग को गैरप्रासंगिक मानते थे। यह हमारे लिए भारी उलझन थी।लेकिन कक्षा दो में दाखिले के बाद से लगातार नैनीताल छोड़ने से पहले मैं उनके तमाम पत्रों,ज्ञापनों और वक्तव्यों को लिखता रहा। इसमें अंतराल मेरे पहाड़ छोड़ने के बाद ही आया।वे शरणार्थी ही नहीं, दलित ही नहीं, किसी भी समुदाय को संबोधित कर सकते थे और तमाम जातियों को वर्ग में बदलने की लड़ाई लड़ रहे थे दरअसल।वे चौधरी चरणसिंह के किसान समाज  की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी थे,जिनसे उनके बहुत तीखे मतभेद थे।बंगालियों में उन्हें लेकर विवाद इसलिए भी था कि वे बंगाली ,पहाड़ी, सिखों, आदिवासियों, मैदानी और अल्पसंख्यक समुदायों में कोई भेदभाव नहीं करते थे और कभी भी वे उनके साथ खड़े हो सकते थे। जैसे बाबरी विध्वंस के बाद वे उत्तरप्रदेश के तमाम दंगा पीड़ित मुसलमानों के इलाकों में गये। वे भारत विभाजन के लिए मुसलमानों या मुस्लिम लीग को जिम्मेवार नहीं मानते थे।वे ज्योति बसु के साथ काम कर चुके थे तो जोगेंद्र नाथ मंडल के भी सहयोगी थे। वे नारायण दत्त तिवारी और कृष्णचंद्र पंत के राजनीतिक जीवन के लिए अनिवार्य वोटबैंक साधते थे,जो हमसे उनके मतभेद की सबसे बड़ी वजह भी थी, लेकिन इसके साथ ही वे अटलबिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर के साथ भी आमने सामने संवाद कर सकते थे। उन्होंने पद या चुनाव के लिए राजनीति नहीं की और न निजी फायदे के लिए कभी राजनीतिक लाभ उठाया।उनके लिए सबसे अहम थीं जनसमस्याएं जो तराई के अलावा असम, महाराष्ट्र, कश्मीर,दंडकारण्य या बंगाल के अलावा देश भर में कहीं की भी स्थानीय या क्षेत्रीय समस्या हो सकती थी। वे साठ के दशक में असम के तमाम दंगा पीड़ित जिलों में न सिर्फ काम करते रहे,बल्कि उन्होंने प्रभावित इलाकों में दंगापीड़ितों की चिकित्सा के लिए सालभर के लिए अपने चिकित्सक भाई डा. सुधीर विश्वास को भी वहीं भेज दिया था उन्होंने। हम बच्चों को कैरियर बनाने की सीख उन्होंने कभी नहीं दी बल्कि हर तरह से वे चाहते थे कि हम आम जनता के हक हकू की लड़ाई में शामिल हो। अपनी जायदाद उन्होंने आंदोलन में लगा दिया और अपनी सेहत की परवाह तक नहीं की। सतत्तर साल की उम्र में अपनी रीढ़ में कैंसर लिये वे देश भर में दिवानगी की हद तक उसीतरह दौड़ते रहे जैसे इकहत्तर में मुक्तियुद्ध के दौरान बांग्लादेश।बांग्लादेश मुक्त हुआ तो दोनों बंगाल के एकीकरण के जरिये शरणार्थी और सीमा समस्या का समाधान की मांग लेकर वे स्वतंत्र बांग्लादेश में भी करीब सालभर तक भारतीय जासूस करार दिये जाने के कारण जेल में रहे।उनमें अजब सांगठनिक क्षमता थी। 1958 में ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृ्त्व करने से पहले वे 1956 में तराई में शरमार्थियों के पुनर्वास संबंधी मांगों के लिए भी कामयाब आंदोलन कर चुके थे,जिस आंदोलन की वह से आज के दिनेशपुर इलाके का वजूद है।फिर 1964 में जब पूर्वी बंगाल में दंगों की वजह से शरणार्थियों का सैलाब भारत में घुस आया और जब सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं,एकदम अजनबी शरणार्थियों को लेकर उन्होंने लखनऊ के चारबाघ स्टेशन पर लगातार तीन दिनट्रेने रोक दी। इसी नजारे के बाद समाजवादी नेता चंद्रशेखर से उनका परिचय हुआ और इसी आंदोलन की वजह से सुचेता जी को मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा।


36 गांवों में सं कहीं भी वे बस सकते थे लेकिन अपनी बिरादरी से बाहर के लोग,अपने देश से बाहर के जिले के लोग जो तेभागा से लेकर बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों के साथियों के साथ गांव बसाया और उनके ही साथियों ने इस गांव का नामकरण मेरी मां के नाम पर कर दिया,जो इस गांव से फिर अपने मायके तक नहीं गयी और न पिता को अपने ससुराल जाने की फुरसत थी।हमने आज तक ननिहाल नहीं देखा हालांकि मेरी ताई और मेरी मां किसी भी गांव के किसी भी घर को अत्यंत दक्षता से अपना मायका बना लेती थीं,इसलिए अपने बचपन में हमें ननिहाल का अभाव कभी महसूस भी नहीं हुआ।   मसलन  ऐसे  ही एक ननिहाल के रिश्ते से आउटलुक के एक बड़े ले आउट आर्टिस्ट मेरे मामा लगते हैं।


वे किसान सभा के नेता थे। ढिमरी ब्लाक आंदोलन की वजह से हमारे घर तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई, वे जेल गये,पुलिस ने मारकर उनका हाथ तोड़ दिया।उन पर और उनके साथियों पर दस सालतक विभिन्न अदालतों में मुकदमा चला।इसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब मैं दूसरी पासकर तीसरी में दाखिल हुआ तो अपने साथ मेरा नैनीताल में पहाड़ के आंदोलनकारियों से मिलाने नैनीतल ले गये।तब उन्हें सजा हो गयी थी लोकिन हरीश ढोंढियाल जो स्वंय आंदोलनकारी बतौर अभियुक्त थे और  पार्टी की मदद के बगैर वकील बतौर मुकदमा भी लड़ रहे थे,उनकी तत्परता से उन्हें जमानत भी फौरन हो गयी। मुकदामा की सुनवाई के बाद वे मुझे सबसे पहले डीएसबी कालेज परिसर ले गये और बोले तुम्हें यही पढ़ना है। आधीं पानी में भी ,मैराथन पंचायतों में भी मुझे सात लेकर चलते थे पिताजी।इसीतरह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर में आंधी पानी के बीच बाघ का आतंक जीतकर उपराष्ट्रपति डा.जाकिर हुसैन का दर्शन करके आधीरात जंगल का सफर त करके उनकी साईकिल के पीछे बैठकर घर लौटा था मैंने।आखिरी बार 1974 की गर्मियों में देशभर के तमाम शरणार्थी इलाकों का दौरा करके प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रपट देने के लिए मुझे जीआईसी नैनीताल से मुझे दिल्ली बुलाया और तमाम श्मशानघाटों का दर्शन कराया। समाधिस्थलों का भी। इसीतरह 1973 में वे मुझे कोलकाता पैदल घूमा चुके थे। ले गये थे केवड़ातल्ला। वे चांदनी चौक से प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पैदल जाते रहे हैं। इसीतरह हम इंदिराजी के दफ्तर में पहुंचे थे, लेकिन उस रपट का हश्र देखने के बाद फिर मैं उनके साथ किसी राजनेता के यहां नहीं गया।


मुझे यह पहेली उनकी मौत तक उलझाती रही कि  अंबेडकरवादी और जोगेंद्र नाथ मंडल के साथी  होने के बावजूद वे कम्युनिस्ट कैसे हो सकते थे या उनका तौर तरीका विशुद्ध गांधी वादी कैसे था।हम इसे उनकी अशिक्षा ही मानते रहे। हम यह भी नहीं समझ सके कि जाति को वर्ग में बदलने के लिए वे आजीवन क्यों लड़ते रहे। पहेली  यह रही कि क्यों उन्होंने तराई के बाकी बंगालियों की तरह सिख शरणार्थियों का दुश्मन न मानकर हर वक्त उनका साथ देते रहे। क्यों वे हमारे साथ चिपको आंदोलन और पर्यावरण के तमाम आंदलनों और उत्तराखंड आंदोलन में मजबूती से खड़ा रहे पाये जबकि उनके आंदोलनों में वैचारिक विचलन की वजह से हम कभी शामिल ही नहीं हो सके।यह भी कम बड़ी पहेली नहीं रही कि भारत विभाजन पीड़ितों को हक हकूक के लिए आखिरी सांस तक लड़ने के बावजूद भारत के अल्पसंख्यकों को भी वे बारत विभाजन का ही शिकार मानते थे और उनके खिलाप सांप्रदायिकता के विरुद्ध हमेशा मुकर हो पाते थे।


यह भी कम बड़ी पहेली नहीं कि वे हमेशा मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों के मुकाबले हमें हमेशा अंबेडकर पढ़ने की नसीहत देते रहे लेकिन खुद वे अंबेडकरी राजनीति में कहीं नहीं थे। हर बार वे बंगाल में फिर जोगेंद्र नाथ मंडल के हार जाने और बाबासाहेब अंबेडकर के असमय महाप्रयाण का ही शोक मनाते रहे।अबेडकरी दुकानदारों से उनका कोई वास्ता था ही नहीं, लेकिन बाकी सभी दलों के तमाम रथी महारथी से उनका आजीवन संवाद रहा है।


भूमि सुधार आजीवन जिनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा रहा है और कृषि समाज में जाति उन्मूलन की जिनकी सर्वोच्च प्रथमिकता थी, वे आखिर बिना किसी लाभ के इतने सारे राजनेताओं से फौरी समस्याओं के समाधान के लिए कैसे जुड़े रह सकते थे,यह भी हमारे लिए अबूझ पहेली है। भारतीय राज्यतंत्र में जीवन के हरक्षेत्र में प्रतिनिधित्व से वंचित कृषि समाज की यही विडंबना है कि फौरी समस्याओं के समाधान के लिए वे राजनीतक समीकरण से जूझते रहते हैं और रंग बिरंगा जनादेश का निर्माण करते हैं लेकिन राज्यतंत्र को ही बदलकर बुनियादी मुद्दों के लिए कोई राष्ट्रव्यापी ांदोलन कर नहीं सकते।


पेशेवर जिंदगी हम जी चुके हैं।साम्यवादी और अंबेडकरी दोनों विपरीतधर्मी आंदोलन भी हमने जी लिया लेकिन हमारे सामने बुनियादी चुलौती यही है कि पिता का मिशन कैसे पूरा करूं ,भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।


अब तराई के इतिहास पर भास्कर उप्रेती, सुबीर गोस्वामी,शंकर चक्रवर्ती, विपुल मंडल,मेरे भाई पद्दोलोचन जैसे तमाम युवाजनों और कुछ इतिहासकारों की टीम भी काम कर रही है।हम उम्मीद करते हैं कि तराई समेत उत्तराखंड की अबूझ भूमि संबंधों के अलावा जातियों को वर्ग में समाहित करने का कोई रास्ता वे बतायेंगे। ऐसी उम्मीद साम्यवादी,समाजवादी, अंबेडकरी और यहां तक कि गांधीवादी देशभर के सक्रिय ईमानदार कार्यकर्ताओं से हम करते है ं कि वे अवश्य चिंतन मंथन करके कोई ऐसा रास्ता निकालें जिसमें वोटबैंक की आत्मघाती विरासत से निकलकर हम राज्यतंत्र में बदलाव करके समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल कर सकें। वर्गविहीन समाज की स्थापन करके पूरा देश जोड़ते हुए देशद्रोहियों के शिकंजे में फंसे देश और देशद्रोहियों को बचा सकें। पिता के अधूरे मिशन को मुकम्मल बनाने में आप हमारी इसीतरह मदद कर सकते हैं।


दिनेशपुर,तराई,उत्तराखंड और बाकी देश में जो अब भी पुलिनबाबू को याद करते होंगे, वे उनकी मूर्ति पूजा छोड़कर इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयत्नकर सकें तो मुझे लगेगा कि किसी औपचारिक आयोजन के बिना पिता को यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


Palash Biswas

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Subeer Goswaminposted toPalash Biswas

12 hours ago

PULIN BABU STATE LABEL FOOTBALL TOURNAMENT FINAL— with Paddolochan Biswas and 13 others.

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Subeer Goswaminposted toPalash Biswas

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PULIN BABU STATE LABEL FOOTBALL TOURNAMENT FINAL

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Pulin Babu Memorial State Football Tournament inauguration.

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Subeer Goswamin with Bipul Mandal and 3 others

FOOTBALL UPDATES.

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पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

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पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

पलाश विश्वास

उत्तराखंड की तराई में उधमसिंह नगर जिला मुख्यालय रुद्रपुर से सोलह किमी दूर दिनेशपुर में पिछले साल की तरह इसबार भी पिताजी किसान और शरणार्थी नेता दिवंगत पुलिनबाबू की स्मृति में आयोजित राज्यस्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता संपन्न हो गयी है।कहने को तो यह उत्तराखंड राज्य स्तरीय प्रतियोगिता है,लेकिन इसमें उत्तर प्रदेश की टीमें भी शामिल रहीं। घरु टीम दिनेशपुर को हराकर चैंपियन भी बनी उत्तर प्रदेश की टीम। कादराबाद बिजनौर ने यह प्रतियोगिता जीत कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की दूरी मिटा दी। इसबार पहाड़ से भी टीमें आयीं। उम्मीद है कि अगली दफा उत्तर प्रदेश और पहाड़ से और ज्यादा टीमें शामिल होंगी इस प्रतियोगिता में।


हालांकि मैं यह आलेख इस फुटबाल प्रतियोगिता पर लिख नहीं रहा हूं। प्रिंट और मीडिया ने हर मैच का कवरेज किया और दूर दराज से हजारों  खेलप्रेमी तमाम मैच देखते रहे।


दरअसल मैंने पिताजी से जुड़े किसी कार्यक्रम में ,सिवा कोलकाता विश्वविद्यालय में उनके निधन की पहली वर्षी पर हुए कार्यक्रम के, कभी शामिल हुआ नहीं हूं।


लेकिन जिस मिशन के लिए पुलिन बाबू आज भी भारतभर के शरणार्थी उपनिवेशों के अलावा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बिना सेलिब्रेटी या निर्वाचित जनप्रतिनिधि हुए पुलिन बाबू को आज भी याद करते हैं, मुझे उस मिशन के अंजाम की सबसे ज्यादा परवाह है।



उनके जीवनकाल में मैं उनके मिशन में कहीं नहीं था क्योंकि हमारी विचारधारा पिता से भिन्न थी और उनके राजनीतिक नेताओं के साथ संबंधों पर मुझे सख्त एतराज था।


उनके निधन के बाद मुझे शरणार्थी समस्या से दो दो हाथ करना पड़ा क्योंकि भारत सरकार ने  विभाजनपीड़ित  शरणार्थियों को देशनिकाला का फरमान जारी किया हुआ है।


विचारधारा से मदद नहीं मिली तो मैं बामसेफ में चला गया और अब वहां भी नहीं हूं।क्योंकि जिस मिशन के लिए वहां गया था,वह वहां है ही नहीं।


देशभर में शरणार्थी आंदोलन अब भी जारी है,लेकिन इस राष्ट्रव्यापी शरणार्थी आंदोलन में भी अब अपने को कहीं नहीं पा रहा हूं।जो लोग इस आंदोलन में हैं अब,उनके लिए भी शायद मैं उनके मकसद और एजंडा के माफिक नहीं हूं।मेरे कारण उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं में उसीतरह अंतराल आता है जैसे बामसेफ धड़ों की राजनीति के मुताबिक मैं कतई नहीं हूं। बल्कि इन अस्मिताओं को तोड़ना ही अब मेरा मिशन है।


पिताजी अंबेडकरवादी थे। पिताजी कम्युनिस्ट भी थे। मैंने उनके जीवनकाल में अंबेडकर को कभी पढ़ा ही नहीं। हम वर्ग संघर्ष के मार्फत राज्यतंत्र को आमूल चूल बदलकर शोषणविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना जी रहे थे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक और तमाम साम्यवादियों की तरह हम भी भारतीय यथार्थ बतौर जाति को कोई समस्या मानते ही न थे।


पिताजी ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे।उत्तराखंड पहुंचने से पहले वे बंगाल में तेभागा आंदोलन के भी लड़ाकू थे।चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत के तमाम किसान विद्रोह की तरह ढिमरी ब्लाक से भी किनारा कर लिया तो उनका कम्युनिस्टों से आजीवन विरोध रहा। लेकिन वे इतने लोकतांत्रिक जरुर थे कि उन्होंने अपनी विचारधारा और अपना जीवन जीने की हमारी स्वतंत्रता में तीव्र मतभेद के बावजूद कभी हस्तक्षेप नहीं किया।


1958 में हुए ढिमरी ब्लाक आंदोलन से वे आमृत्यु तराई में बसे सभी समुदायों के नेता तो थे ही, वे पहाड़ और तराई के बीच सेतु भी बने हुए थे।जाति उन्मूलन की दिशा में उनकी कारगर पहल यह थी कि उन्होंने सारी किसान जातियों और शरणार्थी समूहों को दलित ही मानने की पेशकश करते रहे।


वे अर्थशास्त्र नहीं जानते थे।औपचारिक कोई शिक्षा भी नहीं थी उनकी।लेकिन उनका सूफियाना जीवन दर्शन हम उनके जीवनकाल में कभी समझ ही नहीं सकें। भारत विभाजन की वजह से जिन गांधी के बारे में तमाम शरणार्थी समूहों में विरुप प्रतिक्रिया का सिलसिला आज भी नहीं थमा, कम्युनिस्ट और शरणार्थी होते हुए उसी महात्मा गांधी की तर्ज पर 1956 में उन्हंने शरणार्थियों की सभा में ऐलान कर दिया कि जब तक इस देश में एक भी शरणार्थी या विस्थापित के पुनर्वास का काम अधूरा रहेगा, वे धोती के ऊपर कमीज नहीं पहनेंगे।


वे तराई की कड़ाके की सर्दी और पहाड़ों में हिमपात के मध्य चादर या हद से हद कंबल ओढ़कर जीते रहे।


देशभर में यहां तक कि अपने छोड़े हुए देस पूर्वी बंगाल से भी जब भी किसीने पुकारा वे बिना पीछे मुड़े दौड़ते हुए चले गये।


भाषा आंदोलन के दौरान वे ढाका के राजपथ पर गिरफ्तार हुए तो बंगाल के प्रख्यात पत्रकार और अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषारकांति घोष उन्हें छुड़ाकर लाये। तुषारकांति से उनके आजीवन संबंध बने रहे।


यही नहीं, भारत के तमाम राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों,राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम राजनीतिक दलों से उनका आजीवन संबंध था।


उनका संवाद अविराम था।


वे इंदिरा गांधी के कार्यालय में बेहिचक पहुंच जाते थे तो सीमापार जाने के लिए भी उन्हें न पासपोर्ट और न वीसा की जरुरत होती थी।


वे यथार्थ के मुकाबले विचारधारा और राजनीतिक रंग को गैरप्रासंगिक मानते थे। यह हमारे लिए भारी उलझन थी।लेकिन कक्षा दो में दाखिले के बाद से लगातार नैनीताल छोड़ने से पहले मैं उनके तमाम पत्रों,ज्ञापनों और वक्तव्यों को लिखता रहा। इसमें अंतराल मेरे पहाड़ छोड़ने के बाद ही आया।


वे शरणार्थी ही नहीं, दलित ही नहीं, किसी भी समुदाय को संबोधित कर सकते थे और तमाम जातियों को वर्ग में बदलने की लड़ाई लड़ रहे थे दरअसल।


वे चौधरी चरणसिंह के किसान समाज  की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी थे,जिनसे उनके बहुत तीखे मतभेद थे।


बंगालियों में उन्हें लेकर विवाद इसलिए भी था कि वे बंगाली ,पहाड़ी, सिखों, आदिवासियों, मैदानी और अल्पसंख्यक समुदायों में कोई भेदभाव नहीं करते थे और कभी भी वे उनके साथ खड़े हो सकते थे। जैसे बाबरी विध्वंस के बाद वे उत्तरप्रदेश के तमाम दंगा पीड़ित मुसलमानों के इलाकों में गये।


वे दूसरे शरणार्थियों की तरह या बंगाल के बहुजन बुद्धिजीवियों की तरह भारत विभाजन के लिए मुसलमानों या मुस्लिम लीग को जिम्मेवार नहीं मानते थे।


वे ज्योति बसु के साथ काम कर चुके थे तो जोगेंद्र नाथ मंडल के भी सहयोगी थे।


वे नारायण दत्त तिवारी और कृष्णचंद्र पंत के राजनीतिक जीवन के लिए अनिवार्य वोटबैंक साधते थे,जो हमसे उनके मतभेद की सबसे बड़ी वजह भी थी, लेकिन इसके साथ ही वे अटलबिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर के साथ भी आमने सामने संवाद कर सकते थे। अकबर अहमद डंपी, देवबहादुर सिंह,हरिशंकर तिवारी, राजमंगल पांडेय,डूंगर सिंह बिष्ट,श्याम लाल वर्मा, सीबी गुप्ता,नंदन सिंह बिष्ट, प्रतापभैय्या,रामदत्त जोशी,कामरेड हरदासी लाल,चौधरी नेपाल सिंह,सरदार भगत सिंह तक तमाम लोगों से उनके संबंध कभी नहीं बिगड़े।


जबकि  उन्होंने पद या चुनाव के लिए राजनीति नहीं की और न निजी फायदे के लिए कभी राजनीतिक लाभ उठाया।


उनके लिए सबसे अहम थीं जनसमस्याएं जो तराई के अलावा असम, महाराष्ट्र, कश्मीर,दंडकारण्य या बंगाल के अलावा देश भर में कहीं की भी स्थानीय या क्षेत्रीय समस्या हो सकती थी।


वे साठ के दशक में असम के तमाम दंगा पीड़ित जिलों में न सिर्फ काम करते रहे,बल्कि उन्होंने प्रभावित इलाकों में दंगापीड़ितों की चिकित्सा के लिए सालभर के लिए अपने चिकित्सक भाई डा. सुधीर विश्वास को भी वहीं भेज दिया था उन्होंने।


हम बच्चों को कैरियर बनाने की सीख उन्होंने कभी नहीं दी बल्कि हर तरह से वे चाहते थे कि हम आम जनता के हक हकूक की लड़ाई में शामिल हो।


अपनी जायदाद उन्होंने आंदोलन में लगा दिया और अपनी सेहत की परवाह तक नहीं की। सतत्तर साल की उम्र में अपनी रीढ़ में कैंसर लिये वे देश भर में दिवानगी की हद तक उसीतरह दौड़ते रहे जैसे इकहत्तर में मुक्तियुद्ध के दौरान बांग्लादेश।


बांग्लादेश मुक्त हुआ तो दोनों बंगाल के एकीकरण के जरिये शरणार्थी और सीमा समस्या का समाधान की मांग लेकर वे स्वतंत्र बांग्लादेश में भी करीब सालभर तक भारतीय जासूस करार दिये जाने के कारण जेल में रहे।


उनमें अजब सांगठनिक क्षमता थी। 1958 में ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृ्त्व करने से पहले वे 1956 में तराई में शरमार्थियों के पुनर्वास संबंधी मांगों के लिए भी कामयाब आंदोलन कर चुके थे,जिस आंदोलन की वह से आज के दिनेशपुर इलाके का वजूद है।


फिर 1964 में जब पूर्वी बंगाल में दंगों की वजह से शरणार्थियों का सैलाब भारत में घुस आया और जब सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं,एकदम अजनबी शरणार्थियों को लेकर उन्होंने लखनऊ के चारबाघ स्टेशन पर लगातार तीन दिन ट्रेनें रोक दीं। इसी नजारे के बाद समाजवादी नेता चंद्रशेखर से उनका परिचय हुआ और इसी आंदोलन की वजह से सुचेता जी को मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा।


36 गांवों में सं कहीं भी वे बस सकते थे लेकिन अपनी बिरादरी से बाहर के लोग,अपने देश से बाहर के जिले के लोग जो तेभागा से लेकर बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों के साथियों के साथ गांव बसाया और उनके ही साथियों ने इस गांव का नामकरण मेरी मां के नाम पर कर दिया,जो इस गांव से फिर अपने मायके तक नहीं गयी और न पिता को अपने ससुराल जाने की फुरसत थी।


हमने आज तक ननिहाल नहीं देखा हालांकि मेरी ताई और मेरी मां किसी भी गांव के किसी भी घर को अत्यंत दक्षता से अपना मायका बना लेती थीं,इसलिए अपने बचपन में हमें ननिहाल का अभाव कभी महसूस भी नहीं हुआ।मां का मायका ओड़ीशा के बारीपदा में है,जहां हम कभी नहीं गये।कोलकाता में आ जाने के बाद करीब करीब पूरा ओड़ीशा घूम लेने के बावजूद हम बारीपदा कभी इसलिए जा नहीं सकें कि वहां हम किसी को नहीं जानते। हमारी ताई का मायका पूर्वी बंगा में ही छूट गया था ओड़ाकांदि ठाकुर बाड़ी में।कायदे से मतुआ मुख्यालय ठाकुर नगर भी उनका मायका है।हालाकि ठाकुर नगर से वीणापाणि माता और मतुआ महासंघ के कुलाधिपति कपिल कृष्ण ठाकुर बचपन में बसंतीपरु हमारे घर पधार चुके हैं।1973 में हमने पिताजी के साथ पीआर ठाकुर का भी दर्शन मतुआ मुख्यालयठाकुरनगर में कर चुके हैं और उनसे कभी कभार अब भी मुलाकातें होती रहती हैं।लेकिन हमारी ताई तो हमारे पिता के निधन से पहले 1992 में ही हमें छोड़कर चली गयीं।चाचा जी का निधन भी 1994 में हो गया।पिताजी के अवसान से काफी पहले।


मां का बनाये मायकों में से मसलन  ऐसे  ही एक ननिहाल के रिश्ते से आउटलुक के एक बड़े ले आउट आर्टिस्ट मेरे मामा लगते हैं।तो ताई का एक मायका रायसिख गांव अमरपुर में रहा है,जहां फलों का एक स्वादिष्ट बगीची था महमहाता।बचपन में उन फलों, लस्सी ,मट्ठा, रायता का जो जायका मिला,वह कैसे भूल सकता हूं।तराई के गांवों में हमारे ऐसे ननिहाल असंख्य हैं।


दरअसल सच तो यह है कि तराई और पहाड़ के किसी गांव में किसी घर में हमें ननिहाल से छंटाक भर कम प्यार कभी नहीं मिला।पिता के जो लोग कट्टर विरोधी थे,हमें उनका भी बहुत प्यार मिला है।


वे किसान सभा के नेता थे। ढिमरी ब्लाक आंदोलन की वजह से हमारे घर तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई, वे जेल गये,पुलिस ने मारकर उनका हाथ तोड़ दिया।उन पर और उनके साथियों पर दस सालतक विभिन्न अदालतों में मुकदमा चला।


इसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब मैं दूसरी पासकर तीसरी में दाखिल हुआ तो अपने साथ मेरा नैनीताल में पहाड़ के आंदोलनकारियों से मिलाने नैनीतल ले गये।तब उन्हें सजा हो गयी थी लोकिन हरीश ढोंढियाल जो स्वंय आंदोलनकारी बतौर अभियुक्त थे और  पार्टी की मदद के बगैर वकील बतौर मुकदमा भी लड़ रहे थे,उनकी तत्परता से उन्हें जमानत भी फौरन हो गयी। मुकदामा की सुनवाई के बाद वे मुझे सबसे पहले डीएसबी कालेज परिसर ले गये और बोले तुम्हें यही पढ़ना है।


1958 में तेलंगना के किसान विद्रोह से प्रेरणा लेकर जिला कम्युनिस्ट पार्टी ौर किसानसभा नैनीताल की ोर से गूलरभोजऔर लालकुआं स्टेशनों के बीच ढिमरी ब्लाक के जंगल को आबाद करके भूमिहीन किसानों ने चालीस गांव बसा दिये।हर गांव में चैंतालीस परिवार। हर पिरवार को खेती के लिए दस दस एकड़ जमीन बांट दी गयी।इस आंदोलन में थारु बुक्सा आदिवासी,पूरबिया, देसी,मुसलमान सिख,पहाड़ी मसलन हर समुदाय के किसानों की भागेदारी थी।किसान पूरी तरह निःशस्त्र थे।


ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह तराई में साठ सत्तर के दशक तक चले भूमि सुधार के मुद्दे को लेकर,महाजनी के खिलाफ,बड़े फार्मों की बेहिसाब जमीन की बंटवारे की मांग को लेकर सिलसिलेवार जारी तमाम आंदोलनों का प्रस्तानबिंदु है,जिनका पटाक्षेप श्रमविरोधी पूंजीपरस्त सिडकुल और शहरीकरण औद्योगीकरण परिदृश्य में हो गया।


ढिमरी ब्लाक आंदोलन में पुलिनबाबू के साथी नेता थे कामरेड हरीश ढौंडियाल जो बाद में नैनीताल जीआईसी में मेरे प्रवेश के वक्त मेरे स्थानीय अभिभावक थे।चौधरी नेपाल सिंह जिनका बेटा जीत मेरा दोस्त था,जिसका असमय निधन हो गया।कामरेड स्तप्रकाश जिनका बेटा वकील हैं।गांव बसंतीपुर के पड़ोसी गांव अर्जुनपुर के बाबा गणेशासिंह,जिनकी जेल में ही मृत्यु हो गयी।


तब उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे चौधरी चरण सिंह।उनके ही आदेश पर थर्ड जाट रेजीमेंट,पीएसी और बरेली,रामपुर ,मुरादाबाद,पीलीभीत पुलिस की सम्मिलित वाहिनी ने रातोंरात चालीस के चालीस गांव फूक दिये।बेरहमी से लाठीचार्ज किया गया और सैकड़ो जख्मी हुए।हजारों किसान गिरप्तार करके जेल में ठूंस दिये गये।जिनकी अदालत में पेशी भी नहीं हुई और हवालात में ही उनके हाथ पांव तोड़ दिये गये।िनमें पुलिनबाबू भी थे।


पुलिस ने पीटकर पिताजी का हात तोड़ दिया।आंदोलन बुरी तरह कुचल दिया गा।हजारं जली हुईं साइकिलें, केती के औजार,टनों बर्तनऔर गृहस्थी के समान पुलिस ट्रकों में उठाकर ले गयी।

फिर आंदोलन के नेताओं पर दस साल तक मुकदमा चला।


विरोधाभास यही है कि चौधरी चरण सिंह की अगुवाई में बनी संविद सरकार ने ही यह मुकदमा वापस लिया।इसी सरकरा ने दिनेशपुर में बसे बंगाली शरणार्थियों को भूमिधारी हक भी दिया जो किरम मंडल के कुमायूं विकास निगम का अध्यक्ष बनने और मुख्यमंत्री के सितारगंज के विधायक होने  के बावजूद शक्तिफार्म के लोगों को अभीतक  नहीं मिला।


ढिमरी ब्लाक के दमन के बाद चौधरी चरण सिंह ने विधानसभा में पूछे गये सवाल के जवाब में ऐसी किसी घटना से साफ इंकार कर दिया था।


जबकि कामरेड पीसी जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आंदोलन से नाता यह कहकर तोड़ दिया कि यह नैनीताल जिला के नेताओं का दुस्साहसिक और अराजक उग्रवादी कार्यक्रम था।


आंधी पानी में भी ,मैराथन पंचायतों में भी मुझे साथ लेकर चलते थे पिताजी।इसीतरह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर में आंधी पानी के बीच बाघ का आतंक जीतकर उपराष्ट्रपति डा.जाकिर हुसैन का दर्शन करके आधीरात जंगल का सफर त करके उनकी साईकिल के पीछे बैठकर घर लौटा था मैंने।


आखिरी बार 1974 की गर्मियों में देशभर के तमाम शरणार्थी इलाकों का दौरा करके प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रपट देने के लिए मुझे जीआईसी नैनीताल से मुझे दिल्ली बुलाया और तमाम श्मशानघाटों का दर्शन कराया। समाधिस्थलों का भी। इसीतरह 1973 में वे मुझे कोलकाता पैदल घूमा चुके थे। ले गये थे केवड़ातल्ला। वे चांदनी चौक से प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पैदल जाते रहे हैं। इसीतरह हम इंदिराजी के दफ्तर में पहुंचे थे, लेकिन उस रपट का हश्र देखने के बाद फिर मैं उनके साथ किसी राजनेता के यहां फिर नहीं गया।


मुझे यह पहेली उनकी मौत तक उलझाती रही कि  अंबेडकरवादी और जोगेंद्र नाथ मंडल के साथी  होने के बावजूद वे कम्युनिस्ट कैसे हो सकते थे या उनका तौर तरीका विशुद्ध गांधी वादी कैसे था।हम इसे उनकी अशिक्षा ही मानते रहे।


हम यह भी नहीं समझ सके कि जाति को वर्ग में बदलने के लिए वे आजीवन क्यों लड़ते रहे।


पहेली  यह रही कि क्यों उन्होंने तराई के बाकी बंगालियों की तरह सिख शरणार्थियों का दुश्मन न मानकर हर वक्त उनका साथ देते रहे।


क्यों वे हमारे साथ चिपको आंदोलन और पर्यावरण के तमाम आंदलनों और उत्तराखंड आंदोलन में मजबूती से खड़ा रहे पाये जबकि उनके आंदोलनों में वैचारिक विचलन की वजह से हम कभी शामिल ही नहीं हो सके।


यह भी कम बड़ी पहेली नहीं रही कि भारत विभाजन पीड़ितों को हक हकूक के लिए आखिरी सांस तक लड़ने के बावजूद भारत के अल्पसंख्यकों को भी वे भारत विभाजन का ही शिकार मानते थे और उनके खिलाफ सांप्रदायिकता के विरुद्ध हमेशा मुखर हो पाते थे।


यह भी कम बड़ी पहेली नहीं कि वे हमेशा मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों के मुकाबले हमें हमेशा अंबेडकर पढ़ने की नसीहत देते रहे लेकिन खुद वे अंबेडकरी राजनीति में कहीं नहीं थे।


हर बार वे बंगाल में फिर जोगेंद्र नाथ मंडल के हार जाने और बाबासाहेब अंबेडकर के असमय महाप्रयाण का ही शोक मनाते रहे।


अंबेडकरी दुकानदारों से उनका कोई वास्ता था ही नहीं, लेकिन बाकी सभी दलों के तमाम रथी महारथी से उनका आजीवन संवाद रहा है।


भूमि सुधार आजीवन जिनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा रहा है और कृषि समाज में जाति उन्मूलन की जिनकी सर्वोच्च प्रथमिकता थी, वे आखिर बिना किसी लाभ के इतने सारे राजनेताओं से फौरी समस्याओं के समाधान के लिए कैसे जुड़े रह सकते थे,यह भी हमारे लिए अबूझ पहेली है।


भारतीय राज्यतंत्र में जीवन के हरक्षेत्र में प्रतिनिधित्व से वंचित कृषि समाज की यही विडंबना है कि फौरी समस्याओं के समाधान के लिए वे राजनीतिक समीकरणों से तजिंदगी जूझते रहते हैं और रंग बिरंगा जनादेश का निर्माण करते हैं लेकिन राज्यतंत्र को ही बदलकर बुनियादी मुद्दों के लिए कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन कर नहीं सकते।


पेशेवर जिंदगी हम जी चुके हैं।साम्यवादी और अंबेडकरी दोनों विपरीतधर्मी आंदोलन भी हमने जी लिया लेकिन हमारे सामने बुनियादी चुनौती यही है कि पिता का मिशन कैसे पूरा करूं ,भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।


अब तराई के इतिहास पर भास्कर उप्रेती, सुबीर गोस्वामी,शंकर चक्रवर्ती, विपुल मंडल,मेरे भाई पद्दोलोचन जैसे तमाम युवाजनों और कुछ इतिहासकारों की टीम भी काम कर रही है।


हम उम्मीद करते हैं कि तराई समेत उत्तराखंड की अबूझ भूमि संबंधों के अलावा जातियों को वर्ग में समाहित करने का कोई रास्ता वे बतायेंगे।


ऐसी उम्मीद साम्यवादी,समाजवादी, अंबेडकरी और यहां तक कि गांधीवादी देशभर के सक्रिय ईमानदार कार्यकर्ताओं से हम करते हैं कि वे अवश्य चिंतन मंथन करके कोई ऐसा रास्ता निकालें जिसमें वोटबैंक की आत्मघाती विरासत से निकलकर हम राज्यतंत्र में बदलाव करके समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल कर सकें। वर्गविहीन समाज की स्थापना करके पूरा देश जोड़ते हुए देशद्रोहियों के शिकंजे में फंसे देश और देशद्रोहियों को बचा सकें।


पिता के अधूरे मिशन को मुकम्मल बनाने में आप हमारी इसीतरह मदद कर सकते हैं।


दिनेशपुर,तराई,उत्तराखंड और बाकी देश में जो अब भी पुलिनबाबू को याद करते होंगे, वे उनकी मूर्ति पूजा छोड़कर इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयत्नकर सकें तो मुझे लगेगा कि किसी औपचारिक आयोजन के बिना पिता को यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


Palash Biswas

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Subeer Goswaminposted toPalash Biswas

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PULIN BABU STATE LABEL FOOTBALL TOURNAMENT FINAL— with Paddolochan Biswas and 13 others.

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PULIN BABU STATE LABEL FOOTBALL TOURNAMENT FINAL

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Pulin Babu Memorial State Football Tournament inauguration.

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Subeer Goswamin with Bipul Mandal and 3 others

FOOTBALL UPDATES.

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कामरेड करात का नया फतवा सोशल मीडिया में अपनी राय दर्ज कराना अनुशासन भंग में शामिल! ফেসবুক, ট্যুইটারের মতো সোস্যাল নেটওয়ার্কিং ও ব্লগিং সাইটে পার্টির নীতি বিষয়ক ইস্যুতে ক্যাডাররা নিজেদের মতামত জানান, লেখালেখি করুন, তা বিলকুল না-পসন্দ প্রকাশ কারাটের।

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कामरेड करात का नया फतवा सोशल मीडिया में अपनी राय दर्ज कराना अनुशासन भंग में शामिल!

ফেসবুক, ট্যুইটারের মতো সোস্যাল নেটওয়ার্কিং ও ব্লগিং সাইটে পার্টির নীতি বিষয়ক ইস্যুতে ক্যাডাররা নিজেদের মতামত জানান, লেখালেখি করুন, তা বিলকুল না-পসন্দ প্রকাশ কারাটের।

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


प्रकाश कारत को शायद अब यह समझ में नहीं रहा है कि जनसंवाद के जरिये पार्टी के जनाधार को विस्तार दें या बंगाल और केरल में कामरेडों को अनुशासित रखें। जो लोग आप प्रसंग में कामरेड महासचिव के बयानों से ुत्साहित होकर सोच रहे थे कियुवाओं की समस्याओं को समझने और उनसे संवाद करने को उन्होंने जरूरी नहीं समझा,वे शायद गलत हैं।आप की टीम में सूचना तकनीक के विशेषज्ञ बेहतरीन लोग हैं और उनके दिल्ली करिश्मे से उत्साहित होकर कारत ने पार्टीजनों को आप  के तौर तरीके से सीखने का सबक दिया,यह बहुत पुराना किस्सा नहीं है।लेकिन अब उन्होंने कोच्चिं से बयान जारी करके फतवा दिया है कि सोशल मीडिया में अपनी राय दर्ज कराना अनुशासन भंग में शामिल है।यह ममला संगीन है क्योंकि लोकसभा चुनाव के पहले माकपा अपने कैडरों को उत्साहित करने के लिए तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ डायरेक्ट एक्शन (सीधा हमला) करने की घोषणा की है। इस नये फतवे से कैडर कितने उत्साहित होंगे ,इसपर ही सवालिया निशान लग गया है।हालांकि माकपाई हमेशा की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन लगाने से अब भी बच रहे हैं।


जैसा कि हमने पहले ही लिखा है कि वामदलों को आप के उत्थान में नमोमय भारत निर्माण में उतनी दिलचस्पी नहीं है जितना कि ममता बनर्जी को हाशिये पर रखकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने और खासकर बंगाल और केरल में अपना वजूद कायम रखने की है।हम यह भी लिख चुके है ंकि दीदी एकझटके के साथ एक दो सीटें आप को बंगाल में देकर माकपा का खेल बिगाड़  सकती हैं। मोदी का समर्थन करने पर उनका वोट बैंक समीकरण गड़बड़ा सकता है  लेकिन आप से समझौता करने पर ऐसा कोई खतरा नहीं है।


आप ने कारत का बयान आते ही वामशासन में वाम के बंगाल में किये कराये के मद्देनजर वाम के साथ तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना सिरे से खारिज कर दिया तो दीदी अब आप की तारीफ करने लगी हैं।यानी तीसरे मोर्चे की वाम परियोजना में मुलायम सिंह के अलावा कोई और वामपक्ष में नहीं दीख रहा है।


कांग्रेस की हालत पतली देखकर पहले ही मुलायम भाजपा की तारीफ कर चुके हैं और मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अल्पसंख्यकों में उनकी साख खराब हो गयी है,इसपर तुर्रा यह कि कांग्रेस बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में  पूरे पचास सीटें देकर उससे महाराष्ट्र,पंजाब और हरियाणा मे ंगठबंधन करने जा रही है


। बिहार में भी कांग्रेस के साथ राजद और लोजप के गठबंदन के बाद नीतीश कुमार के उस गठबंधन में शामिल होने की संबावना नहीं है। ऐसे में मुलायम और नीतीश के सामने सारे दूसरे विकल्प खुले हैं,ऐसे विकल्प जो वाम दलों को मंजूर होगा नहीं।


राष्ट्रीय राजनीति में एकदम अकेले हो जाने के सदमे में लगता है कि कामरेड महासचिव को आप की तारीफ में वाम कार्यकर्ताओं को दी गयी नसीहत याद नहीं है।अब वे फेसबुक,ट्विटर और ब्लाग के खाते खोलकर अपनी राय देने वाले माकपाइयों को अनुशासित करने लगे हैं।


बंगाल में सुजन चक्रवर्ती और ऋतव्रत जैसे तमाम खास कार्यकर्ता सोशल नेटवर्किंग में बेहद सक्रिय हैं। कारत उन सभी पर अंकुश लगायेंगे तो सोशल नेटवर्किंग के जरिये आप की तरह वामदलों का जनादार बनेगा कैसे,इसका कोई खुलासा लेकिनकामरेड ने नहीं किया है।धर्म कर्म की आजादीकी तरह लगता है कि केरल की कट्टर पार्टी लाइन से बाहर निकलने में कामरेड को अब भी दिक्कत हो रही है।गौरतलब है कि बंगाल में माकपाइयों को जनता से जुड़ने के लिए धर्म कर्म की इजाजत दे दी गयी है लेकिन केरल में नहीं।


गौरतलब है कि करात ने अगरतला में  पहलीबार हुई माकपा की केंद्रीय समिति की बैठक के दौरान संवाददाताओं से कहा, विधानसभा चुनाव में आप कांग्रेस और भाजपा के सामने एक सशक्त विकल्प के रूप में उभरी है। हमें आप को समर्थन देने से पहले उनके राजनीतिक कार्यक्रमों, नीतियों और योजनाओं को देखना है।इसके अलावा मीडिया में उन्होंने आप को वाम विरासत वाली पार्टी भी कह दिया और जनाधार बनाने के लिए कैडरों से आप से सीखने की सलाह भी दे दी।बाद में हालांकि उन्होने अगरतला से कोच्चिं पहुंचकर यह भी कह दिया कि आम आदमी पार्टी बुर्जुआ दलों का विकल्प बन सकती है, लेकिन यह वामपंथी दलों का नहीं। उन्होंने कहा कि 28 दिसंबर को दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाने वाली आप पर अभी भी कोई राय बनाना बहुत जल्दबाजी है। करात ने यहां मीडिया से कहा,आप ने दिल्ली में अच्छा प्रदर्शन किया और यह एक महत्वपूर्ण ताकत है, लेकिन मैं अन्य राज्यों के लिए निश्चिंत नहीं हूं।


उन्होंने कहा,वे बुर्जुआ दलों के लिए विकल्प हो सकते हैं, वामपंथी दलों के नहीं। यह अच्छी बात है कि उन्होंने मध्य वर्ग से सहयोग लिया है। लेकिन हम उनसे उनके कार्यक्रमों और नीतियों का इंतजार कर रहे हैं। करात ने कहा कि महानगरों में माकपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। हमें मध्य वर्ग की वर्तमान पीढी के साथ समस्या हो रही है और इसलिए माकपा और वामपंथियों ने खुद को अनुकूल बनाना शुरू कर दिया है।


आप के साथ वामपंथी दलों के गठबंधन के सवाल पर करात ने कहा कि ऎसा लगता है कि उन्हें गठबंधन में कोई दिलचस्पी नहीं है और इस समय वे खुद को स्थापित करने को लेकर चिंतित हैं। करात ने कहा,हमें नव उदारवादी नीतियों और सांप्रदायिकता पर उनका दृष्टिकोण जानने में दिलचस्पी है।


जाहिर है कि माकपा केरल लाइन के शिकंजे से बाहर निकली नहीं है।कामरेड महासचिव के ताजा फतवे से तो यह साबित हो रहा है।



ফেসবুক, ট্যুইটারের মতো সোস্যাল নেটওয়ার্কিং ও ব্লগিং সাইটে পার্টির নীতি বিষয়ক ইস্যুতে ক্যাডাররা নিজেদের মতামত জানান, লেখালেখি করুন, তা বিলকুল না-পসন্দ প্রকাশ কারাটের। এটা পার্টির শৃঙ্খলার পরিপন্থী বলে অভিমত জানিয়েছেন সিপিএম সাধারণ সম্পাদক। সংবাদ সংস্থা পিটিআইয়ের খবর, এখানে আজ তিনি সাংবাদিকদের বলেছেন, ইন্টারনেট সহ নানা নতুন ধরনের সোস্যাল মিডিয়ার রমরমা চলছে। কিছু কিছু পার্টি সদস্যও নিজেদের ফেসবুক অ্যাকাউন্ট খুলেছেন। তাঁরা পার্টির অভ্যন্তরীণ সমস্যা সংগঠনের ভিতরে আলোচনা করুন, সে ব্যাপারে সংবাদপত্র, প্রিন্ট মিডিয়ায় সাক্ষাত্কার দিন, আপত্তি নেই। তাতে শৃঙ্খলা ভঙ্গ হয় না। কিন্তু আমাদের অসংখ্য ভাল পার্টি সদস্য ফেসবুক, ট্যুইটারে খোলাখুলি ব্যক্তিগত মতামত দিচ্ছেন। তাঁরা মনে করছেন, তাঁদের নিজস্ব মতামত প্রকাশ করা যেতেই পারে। দুর্ভাগ্যজনক ব্যাপার হল, আমরা তাঁদের বোঝাতে পারিনি যে, সেটাও পার্টির শৃঙ্খলাভঙ্গ করাই হয়। এবার আমরা পার্টি সদস্যদের এটা বোঝানোর প্রক্রিয়া চালাচ্ছি যে, তাঁরা নিজস্ব মতামত প্রকাশ করুন পার্টির অভ্যন্তরেই, বাইরে নয়।

কারাতের কথা মেনে উন্নত প্রযুক্তিকে হাতিয়ার করে মতপ্রকাশ করা থেকে কতজন বিরত থাকেন, এখন সেটাই দেখার।


...आणि मराठी कविता रंडकी झाली!

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..आणि मराठी कविता रंडकी झाली!

January 15, 2014 at 10:33pm
आधुनिक भारतीयकवितेतील सर्वश्रेष्ठ कवी असे ज्यांचे सार्थ वर्णन करता येईल ते महाकवी नामदेव ढसाळ यांचे परिनिर्वाण झाले आहे. मराठी साहित्यात सुरु झालेले विद्रोहाचे पर्व ढसाळांच्या जाण्यामुळे मलूल झाले आहे. ढसाळांच्या अकाली एक्झिटमुळे आधुनिक भारतीय कवितेच्या ललाटावर लावलेली विद्रोहबिंदी बुधवारच्या पहाटेला नकळत गळून पडली आणि मराठी कविता रंडकी झाली असे म्हटल्यास वावगे होणार नाही.
नामदेव ढसाळ म्हणजे  गोलपिठ्यावर अवतरलेले उजेडाचे झाड होते.मुंबईतील कामाठीपुऱयाच्या गल्लीबोळातील बेमुर्वत हवापाण्याला  फाट्यावर मारत लहानाचे मोठे झालेल्या ढसाळांनी मखमली शालजोडीत हरवलेल्या बुळबुळीत मराठी साहित्याला रांगडा मर्दानी चेहरा दिला. मस्तानिच्या मधुकर कंठातील पिकेचे कवन सदाशिव पेठेतील चौसोपी वाड्याच्या बंदिस्त आवारात गाणाऱया मराठी साहित्याला ढसाळांनी  जागतिक साहित्यविश्वाच्या विशाल प्रांगणात उभे केले. गोऱया चमडीच्या आणि गुलाबी ओठाच्या जुजबी सामानावर ज्ञानपीठाचे मुकुट हस्तगत करणाऱया मराठी साहित्याला ढसाळांच्या खरचटलेल्या बुल्लीचा दणका बसताच मराठी साहित्य झटक्यात गाभण राहीले. फुरफुरणाऱया शेंडीच्या तालावर झिंगणाऱया साहित्याला ढसाळांनी बेकारांचे, भिकांऱयांचे, खिसेकापूंचे, बैराग्यांचे, दादांचे आणि भडव्यांचे, दर्ग्यांचे आणि प्रुसांचे, कुरकुरत संभोग झेलणाऱया पलंगाचे, हिजड्यांचे,हातभट्टयांचे, स्मगलिंगचे, नागव्या चापूंचे, अपूंचे साहित्य बनविले. ढसाळांनी खांडेकरी फडक्यात  कोंबलेले मराठी साहित्य पाब्ले नेरुदाच्या शब्दांशी नाते सांगणारे, विश्वातील तमाम शोषीत, पीडित, कष्टकरी आणि कांतीकारी जनतेचा आवाज बनविले. गोलपिठानंतर, मुर्ख म्हाताऱयांने डोंगर हलविले, खेळ, पियदर्शिनी, तुही यंता कंची, या सत्तेत जीव रमत नाही, गांडुबगिचा, मी मारले सुर्याच्या रथाचे सात घोडे,तुझे बोट धरुन मी चाललो आहे असे एकापेक्षा एक सरस कवितासंग्रह ढसाळांच्या लेखणीतून बहरत गेले. याशिवाय अंधारयात्रा हे नाटक, हाडकी हाडवळ, निगेटिव्ह स्पेस, आंधळे शतक या कादंबऱया,  मी भयंकराच्या दरवाजात उभा आहे हा संकलित कवितासंग्रह अशी विपुल साहित्य संपदा ढसाळांनी निर्माण केली. ज्यावेळी ढसाळांची असामान्य पतिभा मराठी काव्याचे आणि मराठी साहित्य विश्वाचे मापदंड बदलून टाकत होती;त्याच वेळी त्यांच्या शब्दांवर, त्यांच्या पतिमांवर फिदा झालेला तरुण या कवितेत पेरलेले सुरंग हातात घेऊन मनुची सनातन दया उद्ध्वस्त करण्यासाठी आतूर होऊ लागला होती. आंबेडकरवादी चळवळीची चंद्रबिंदी लेवून दिमाखात मिरविणारे नेते जेव्हा छप्पन्न टिकली बहुचकपणा करु लागले; त्यावेळी ढसाळांची कविता तरुणांच्या रक्तात अगणित सूर्य पेटवू लागली होती. काँग्रेसचेअंगवस्त्र म्हणून वावरणाऱया पाणचट गवश्यांना आता रायरंदी हाडूकासारखे फेकून द्यावे हा विचार तरुणांच्या हाडीमाशी खिळू लागला. मेंदूच्या ठिकऱया उडविणारे अत्याचार, रिकाम्या पोटांचे आकोश, मरणाच्या खस्तांचे उमाळे उद्याच्या चिंतांचे धुमसणे यातून एक नविन युध्दघोष निर्माण झाला, त्याचे नाव दलित पँथर!
आतापर्यंत कवितेच्या शब्दात बंदिस्त असलेला नामदेव आता आंबेडकरवादी चळवळीचा आवाज झाला होता. नामदेव ढसाळ आणि त्यांचे सहकारी राजा ढाले,ज.वि. पवार, उमाकांत रणधीर, विठ्ठलराव साठे, पा. अरुण कांबळे, गंगाधर गाडे यांसारख्या सळसळत्या तरुणाईने विद्रोहाचा एल्गार बुलंद केला. अमेरिकेतील ब्लॅक पँथरच्या धर्तीवर दलित पँथरची निर्मिती झाली. उद्ध्वस्त मानवतेवर केले जाणारे अत्याचार समाप्त करण्यासाठी तरुणांचा हा झंझावात गावाखेड्याच्या वेशीपर्यंत पोहोचला. अत्याचाराच्या विरोधात केवळ कथा - कविता लिहूनच नव्हे, भाषण ठोकूनच नव्हे तर रस्त्यावर उतरुनही आम्ही संघर्ष करु शकतो हे दलित पँथरने दाखवून दिले. या लढाऊ संघटनेच्या निर्मितीचे, बांधणीचे आणि लढ्यात झोकून देण्याचे श्रेय नामदेव ढसाळांचे होते हे इतिहासाने आपल्या हृदयात कोरुन ठेवलेआहे.
आंबेडकरवादी तरुणांच्याऊर्जेला विधायक वळण देऊन दबल्या- पिडलेल्यांचा आधार म्हणून मान्यता मिळविलेल्या दलितपँथरचे पुढे  विघटन सुरु झाले. यामागची कारणेकाहीशी राजकीय आणि काहीशी व्यक्तिगत स्वरुपाची आहेत. पँथरच्या चळवळीचे समिक्षण करण्याचीही वेळ नाही. परंतु या चळवळीच्या संस्थापकांपैकी एक पमुख व्यक्तिमत्व असलेल्या नामदेवढसाळांच्या या फाटाफुटीची अत्यंत जवळचा संबंध होता हे अमान्य करुन चालणार नाही. ढसाळांनी  साहित्यातून आपल्या उत्तुंग पतिभेचा अविष्कार घडविला.गोलपिठानंतरही त्यांनी आपल्या निर्मितीत सातत्य ठेवले त्यांच्या साहित्य कृतीचे विषयविविधांगी असले तरी त्या साहित्याचे मध्यवर्ती सूत्र विद्रोहाचे, परिवर्तनाचे आणि माणसाच्याजगण्या मरणाच्या संघर्षाला बळ देण्याचे होते. साहित्यात त्यांनी दाखविलेले सातत्य तेआपल्या राजकीय विचारात दाखवू शकले नाहीत. आंबेडकरवादी तत्वविचाराला धरुन त्यांनी पँथरच्यानिर्मितीचा पाया रचला. मात्र पुढे त्यांना आंबेडकरवादी तत्वविचार अपुरा वाटू लागला.यासाठी त्यांनी या तत्वविचाराला मार्क्सवादाची फोडणी देण्याचा पयत्न केला. मार्क्सवादीविचार हा सुद्धा मर्यादीत स्वरुपाचा का होईना परंतु परिवर्तनवादी असल्यामुळे त्यांचेमार्क्सवादाकडे आकर्षित होणे एकवेळ समजु शकते. परंतु त्यानंतर  ढसाळांनी अनेक धक्कादायक राजकीय  निर्णय घेतले.``शेठ सावकारांची आय झवून टाकावी''म्हणणारा नामदेव शेठ सावकारांच्या दारांचे उबरठेझिजवू लागला. ``तुमच्या गांडीचे कानवले कुरतडलेत ज्यांनी, त्यांच्या नाशासाठी मी पिकूघातलेय आढी,''म्हणणारा नामदेव आणीबाणीचे समर्थन करु लागला. 1975 च्या दरम्यान दलितपँथरवर एकूण 360 खटले दाखल झाले होते. यापैकी बहुतांश खटल्यांमध्ये नामदेव ढसाळांनाआरोपी करण्यात आले होते. यातुन सुटका मिळविण्यासाठी ढसाळांनी इंदिरा गांधींची भेट घेऊनत्यांचे गुणगान करणारे काव्य लिहिले. ``चंद्रसूर्य फिके पडतील असे सचेत कार्य करावे''म्हणणारा नामदेव शिवसेनेच्या भगव्यात रंगून गेला. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाच्या परिवारातदाखल झाला. ढसाळांचे एकूणच राजकीय वर्तन धरसोडीचे राहीले. यामुळे साहित्याचा ग्रुधकूटपर्वत असलेला हा महाकवी राजकारणाच्या कनातीत आपली ओळख हरवून बसला. साहित्यिक क्षेत्रातीलपगल्भता आणि पतिभा ढसाळांना राजकीय क्षेत्रात दाखविता आली नाही याचे मुख्य कारण त्यांचापिंड राजकीय नव्हता हे आहे. आंबेडकरवादी समाजविश्वात व्यक्तीची ओळख त्याच्या राजकीयभूमिकेवरुनच ठरविली जाण्याचा अनिष्ट पायंडा पडला आहे. उत्तुंग साहित्यिक प्रतिभा असलेलेसाहित्यिक, अद्वितीय कर्तृत्व असलेले कलाकार, गायक, कवी, प्रशासक इत्यादी सर्वांनाआंबेडकरवादी समाज त्यांच्या राजकीय भूमिकेच्या तराजूनेच मोजतो. यामुळे इच्छा असो किंवानसो आंबेडकरवादी समाजातील लेखक, कवी, कलाकार, प्रशासक यांना राजकीय भूमिका घेणे भागपडते. मूळ प्रवृत्ती आणि व्यावहारिक लादलेपण यातील संघर्षात व्यक्तीच्या कार्याचे खरेमूल्यमापन दडपले जाते. ढसाळांच्या बाबतीतही काहीसे असेच झाले आहे. त्यांचे राजकीय धोरणकाहीही असले तरी त्यांची साहित्यिक उंची वादातीत आहे. सामाजिक आणि साहित्यिक पांतातत्यांनी दिलेले डोंगराएवढे योगदान पुढच्या अनेक पिढ्यांना मार्गदर्शन करीत राहिल हेनिश्चित. त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन...
  • Ashok Meshram नामदेव म्हणजे "गोलपिठ्यावर"अवतरलेले उजेडाचे झाड होते.हा उजेड आज सकाळी ४ वाजता मावळला.कोणी आहे का असा मर्द मराठी कवितेत
    4 hours ago · Like · 1
  • Vidyanand Kakade very nice good information sir ,जयभीम, धन्यवाद।
    4 hours ago · Like · 1
  • Rakesh Urade चळवळीचा झंजावात, मराठी कवितेचे संदर्भ आणि काव्यकळा बदलवीनारा जागतीक कीर्तिचा कवी पँथरला भावपुर्ण आदराजली.
    4 hours ago · Edited · Like · 1
  • Harshanand Popalwar sundar vivechan sir...namdeo dhasa yana bhavpurn shrdhanjali
    4 hours ago · Like · 1
  • Swapnil Kedare useful article sir.... jai bhim
    4 hours ago · Like · 1
  • Dharmpal Telgote चळवळीचा झंजावात, मराठी कवितेचे संदर्भ आणि काव्यकळा बदलवीनारा जागतीक कीर्तिचा कवी पँथरला भावपुर्ण आदराजली.
    4 hours ago · Like · 1
  • Chandu Jagtap khup prearnadai lekh liklilat ya pudchya kalt yenarya pidila ek sandesh tpical namdev dhashlchya bhast lihyabaddal dhnyvad.
    4 hours ago · Like · 1
  • सुनील डी. डोंगरे khup chan lekh aahe ....Jaybheem..
    4 hours ago · Like · 1
  • बहिष्कृत भारत प्रसंग असा आहे कि या मृत्युलेखाला दाद द्यायचा मोह आवरावा लागतोय. !
    3 hours ago · Like · 1
  • Narayan Hande प्रतिभाशाली कवी, ज्येष्ठ साहित्यिक आणि विचारवंत पद्मश्री नामदेव ढसाळ यांना विनम्र अभिवादन.....!
    3 hours ago · Like · 1
  • Anup Wankhade मा. पद्मश्री नामदेव ढसाळ यांना विनम्र अभिवादन
    3 hours ago · Like · 1
  • Ashalata Kamble chan writing.
    3 hours ago · Like · 1
  • Abasaheb Chaskar somwari sayankali dadana mumbai hospital yethe bhetun alo dada kahi bolale naahi ,haataane ishaara dilaa jaybhim kelaa. aj sakaali apriy baatmi milaali vidrohi ambedkari mahaakavi padmshri NAMDEV DHASAL dadanna vinamra ABHIWAADAN...
  • Swabhimani Amol very much balanced and point to
    point article sir ... and it is in dhasal form .. very informative for new generations

श्रद्धांजलि नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल एच एल दुसाध

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श्रद्धांजलि 


नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल 

एच एल दुसाध 

३० सितम्बर २०१२ बॉम्बे में आयोजित सातवें डाइवर्सिटी डे प्रोग्राम में नामदेव ढसाल को डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ वर्ल्ड की ट्रोफी भेंट करते एच एल दुसाध और मिशन डाइवर्सिटी से जुडी अन्य हस्तियाँ

श्रद्धांजलि 
नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल 
एच एल दुसाध 

मित्रों!एक माह पूर्व मैंने विश्वकवि नामदेव ढसाल की अस्वस्थ्यता से आपको अवगत कराया था.पहले से ही कई रोगों से जर्जरित ढसाल साहब विगत कुछ माह से बॉम्बे हॉस्पिटल में पड़े-पड़े कैंसर से लड़ रहे थे.किन्तु आज 15 जनवरी की सुबह 4.30 बजे जालिम कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई खत्म हो गयी.मैं दून एक्सप्रेस में सवार कोलकाता से बनारस जा रहा था.सुबह पौने पांच बजे मोबाइल घनघना उठा.गहरी नीद से जगकर जब जेब से मोबाइल निकाला,स्क्रीन पर दलित पैंथर के महासचिव सुरेश केदारे का नाम देखकर कुछ अप्रिय संवाद की आशंका से मैं काँप उठा.मोबाइल ऑन किया तो भाई केदारे ने रोते हुए बताया कि दादा नहीं रहे.मैं स्तब्ध रह गया.१०-१५ मिनटों तक सदमे में रहने के बाद मैंने सबसे पहले पलाश विस्बास,डॉ विजय कुमार त्रिशरण और ललन कुमार को फोन पर सूचना दी.कई और मित्रों को भी फोन लगाया पर गहरी नीद में होने कारण उनका रिस्पोंस नहीं मिला.फिर एक –एक कर बुद्ध सरण हंस,डॉ ,डॉ संजय पासवान,अरुण कुमार त्रिपाठी,वीर भारत तलवार ,सुधीन्द्र कुलकर्णी,अजय नावरिया,शीलबोधि वगैरह को एसएमएस कर दुखद समाचार की सूचना दी.
मित्रों अपनी पिछली मुंबई यात्रा के दौरान मैंने संकल्प लिया था कि अगले डेढ़-दो साल में ढसाल साहब की जीवनी पुस्तक के रूप में आपके समक्ष लाऊंगा.अब उनके नहीं रहने पर उनकी बायोग्राफी लिखना और जरुरी हो गया है.अभी तक उनके विषय में जो सूचनाएं संग्रहित कर पाया हूँ उसके आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि धरती के नरक(रेड लाईट एरिया) से निकल कर पूरी दुनिया में ढसाल जैसी कोई विश्व स्तरीय शख्सियत सामने नहीं आई है.दुनिया में एक से एक बड़े लेखक,समाज सुधारक,राजा –महाराजा ,कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया ,वह बेनजीर है.मैंने दो साल पहले 'टैगोर बनाम ढसाल'पुस्तक लिख कर प्रमाणित किया थी कि मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया.दुनिया के दुसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया.किन्तु किसी ने भी ढसाल की तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया.दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दुसरे विश्व –कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से कोई असहमत नहीं हो सकता.इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा. 
अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को विश्व कवि नामदेव ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर 'दलित पैंथर'जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था.उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम दलित पैंथर रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,'इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी.अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.'बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया .परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है.'गोल पीठा'पी बी रोड और कमाठीपुरा के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कुवत मुझमे तो नहीं है. 
ढसाल साहब और उनकी टीम ने सिर्फ साहित्य सृजन ही नहीं बल्कि मैदान में उतर कर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए भी प्रेरित किया.आज हिंदी पट्टी के दलित लेखक अगर मैदान में उतर कर शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं तो उसका बहुलांश श्रेय ढसाल जैसे क्रन्तिकारी पैन्थर को जाता है..
दिनांक:15 दिसम्बर,2014 जय भीम-जय भारत-जय ढसाल
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Photo: ३० सितम्बर २०१२ बॉम्बे में आयोजित सातवें डाइवर्सिटी डे प्रोग्राम में नामदेव ढसाल को डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ वर्ल्ड की ट्रोफी भेंट करते एच एल दुसाध और मिशन डाइवर्सिटी से जुडी अन्य हस्तियाँ

चाहे कोई बने वे मुक्त बाजार के प्रधानमंत्री ही होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं

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HASTAKSHEP

मित्रों,  आप सत्ता में आते ही आपको याद होगा कि हमने लिखा था कि अगर आप कारपोरेट राज के खिलाफ हैं तो वह कम से कम दिल्ली में कारपोरेट जनसंहार के मुख्य हथियार असंवैधानिक बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोडिक सीआईए नाटो प्रिज्मिक ड्रोनतांत्रिक आधार प्रकल्प को फौरन खारिज कर दें। अमलेंदु ने इसे हस्तक्षेप पर तुरन्त लगा भी दिया था। हम क्या करें कि हस्तक्षेप के अलावा हम कहीं अपनी बात कह नहीं पा रहे हैं। लगता है कि सारे मित्र हमसे नाराज हैं।

जिस वेबसाइट के जरिये वे जनसुनवाई कर रहे हैं, वहाँ मैं अपने लिखे का हर लिंक दे रहा हूँ जैसे बंगाल और देश के बारे में लिखे हर लिंक को मैं नेट पर उपलब्ध सत्ता विपक्ष के सिपाहसालारों मसलन ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद यादव, लालू यादव, राम विलास पासवान से लेकर रामदास अठावले, उदित राज तक के वाल या संदेश बाक्स में रोज चस्पां करता हूँ। इसके अलावा भारत सरकार, तमाम राज्य सरकारों, तमाम मुख्यमंत्रियों, पक्ष प्रतिपक्ष के नेताओं, सांसदों, सर्वोच्च न्यायालय और मानवाधिकार आयोग, तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं, संपादकों और पत्रकारों को अलग से समूचा दस्तावेज भेजता हूँ रोज ईमेल से।

दरअसल यह हमारे पिताश्री के काम का तरीका है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय समस्याओं पर वे रोज मुझसे लिखवाते थे, उनको रुद्रपुर से टाइप करवाते थे फिर रजिस्टर्ड एकनाजलेजमेंट डाक से उन्हें भेजने की रोज की कवायद होती थी।

हम पिताजी की उसी बुरी आदत को डिजिटल तरीके से दोहरा रहे हैं। उनको भारी लागत पड़ती थी, लेकिन यह मेरा रोजाने का निःशुल्क कामकाज है। खर्च केबल लाइन किराया और बिजली बिल का है। पिताजी के मुकाबले कम पेचीदा है यह मामला। बसंतीपुर से साइकिल दौड़ रोजाने की रुद्रपुर मंजिल की कष्टकारी नहीं है यह। जिन्हें मेरा मेल रोजाना मिलता है या जिन्हें अपने वाल की पवित्रता का ख्याल है, उन्हें जरूर कष्ट है।

लगभग दस साल से आप के मुख्य नीतिनिर्धारक योगेंद्र यादव जी से हमारा थोड़ा बहुत संवाद वाया याहू ग्रुप जमाने से लेकर अब तक रहा है। लेकिन आम आदमी के तमाम एप्स पर दस्तक देते रहने के बावजूद आधार मामले में या दूसरे तमाम मुद्दों पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं है। अब तो आप टीम में बड़ी संख्या में हमारे रंग बिरंगे मित्रगण भी विराजमान हैं, जिनसे दशकों से हमारा संवाद रहा है। लेकिन हमारे लिखे या कहे पर उनकी ओर से सन्नाटा है।

बंगाल विधानसभा में आधार के खिलाफ सर्वदलीय प्रस्ताव पारित होने के बाद हमने गोपाल कृष्ण जी से निवेदन किया था कि हम लगभग पूरे पिछले दशक के साथ आधारविरोधी अभियान चलाकर इसे जनांदोलन बनाने में नाकाम रहे हैं और बिना राजनीतिक भागेदारी के इसे जनांदोलन बनाना भी असम्भव है।

हमारा सुझाव था कि चूँकि बंगाल में पहला प्रतिवाद हुआ है और ममता बनर्जी भी इसके खिलाफ मुखर हैं तो दिल्ली में बंगाल के सांसदों नेताओं से संवाद करके कम से कम बंगाल में आधार को खारिज करने के लिये उनसे कहा जाये। इसके अलावा इस सिलसिले में भारतीय भाषाओं में अब तक उपलब्ध सारी सामग्री सोशल मीडिया मार्फत जारी कर दिया जाये। उन्होंने तब ऐसा ही करने का वायदा भी किया था।

कल रात ही हमें अपने सहकर्मियों के मार्फत मालूम चला कि बंगाल में अब कोलकाता और जनपदों में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मार्फत आधार कार्ड बनवाने का अभियान चल रहा है। जो लोग कारपोरेट दुकानों से आधार हासिल कर चुके हैं, उन्हें भी स्थानीय निकायों से नोटिस मिल रहा है कि आधार के लिये अपनी अपनी दसों उंगलियाँ और पुतलियाँ सरकारो के हवाले कर दें क्योंकि यह अनिवार्य है।

देश भर में सर्वोच्च न्यायालय की मनाही के बावजूद अनिवार्य नागरिक सेवाओं के साथ आधार को नत्थी कर दिया गया है। अब एनपीआर के तहत आधार अनिवार्यता के इस फतवे के बाद नागरिकों के लिये आधार बनवाये बिना युद्धबंदी हैसियत से रिहाई की कोई सम्भावना नहीं है।

आज सुबह भी गोपाल कृष्ण जी से लम्बी बातचीत हुयी और मैंने कहा कि अब तो हमें भी आधार बनवाने की नौबत पड़ सकती है कि क्योंकि बाजार दर पर तमाम नागरिक सेवाएं खरीदने की क्रयशक्ति हमारी नहीं है और महज जीवित रहने के लिये जो चीजें जरूरी हैं, वह अब आधार बिना मिलेंगी नहीं। जब दस साल तक आधार के खिलाफ अभियान चलाने के अनुभव के बावजूद हमारी यह असहाय युद्धबंदी जैसी स्थिति है तो पूरे तंत्र से अनजान नागरिकों का क्या विकल्प हो सकता है, समझ लीजिये।

गोपाल कृष्ण जी से बात करने से पहले सुबह का इकोनामिक टाइम्स देख लिया था और दिल्ली में मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के निषेध सम्बंधी खबर और आप पर पोपुलिज्म आरोपित तमाम आलेखों को पढ़ चुका था।

 हमने दोहराव और अनिवार्यता की सूचनाएं देने के बाद गोपाल जी से कहा कि अब हमारे हाथों से बालू की तरह समय फिसल रहा है और हम कोई प्रतिरोध कर नहीं सकते, जब तक कि आम बहुसंख्य जनता को हम जागरूक न बना लें।

यह बात हमने आज अमलेंदु से भी कहा कि मुद्दों को टाले बिना उन्हें तत्काल आम जनता तक संप्रेषित करने का हमारा कार्यभार है। कल आनंद तेलतुंबड़े से कम से कम चार बार इसी सिलसिले में विचार विमर्श हुआ तो मुंबई और देश के दूसरे हिस्सों के साथियों से यही बातें रोज हो रही हैं। कल भी हुयीं और आज भी। लिखते हुये बार- बार व्यवधान होने के बावजूद बहुपक्षीय संवाद का यह माध्यम मुझे बेहतर लगता है और तमाम मित्रों से लगातार ऐसा संवाद जारी रखने का आग्रह है।

गोपाल जी से हमने कहा कि बंगाल सरकार को आधार के खिलाफ कदम उठाने के लिये उनके सामने यह मामला सही परिप्रेक्ष्य में रखने की जरूरत है। फिर हमने कहा कि आप में जो लोग हैं और जो नये लोग पहुँच रहे हैं, हम उन्हें दशकों से जानते हैं। अगर वे मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का निषेध कर सकते हैं तोआधार का निषेध क्यों नहीं कर सकते।

इसके जवाब में उन्होंने जो कहा, उससे हमारे तोते उड़ गये। उन्होंने कहा कि आधार मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव समेत आप सिपाहसालारों से उनकी बातचीत हो गयी है और वे लोग आधार के पक्ष में हैं।

हालाँकि यह आसमान से गिरने वाली बात नहीं है कोई क्योंकि तमाम एनजीओ के मठाधिकारी खास आदमी के कायकल्प से आम आदमी के अवतार बने लोगों के सामाजिक सरोकार के तमाम सरकारी कार्यक्रम,परियोजनाएं, अधिकार केन्द्र सरकार के अनुदान और वैश्विक व्यवस्था के शीर्ष संस्थानों के डोनेशन और सामाजिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी थोक विनिवेश से चलने वाले हैं। ये ही उनकी राजनीति के कॉरपोरेट संसाधन के मुख्य आधार हैं। हमने अपने उच्च विचार गोपाल जी को बता दिये।

अब फेसबुक वाल पर अपने भाई दिलीप मंडल और मित्र रियाजुल हक ने इस सिलसिले में कुछ और प्रकाश डाला है, उसे भी साझा कर रहा हूँ।

लेकिन इससे पहले एक सूचना बेहद जरूरी है।

कल रात हमारे एक सहकर्मी ने अंबेडकर का लिखा पढ़ने की इच्छा जतायी। हमने सीधे अंबेडकर डॉट आर्ग खोल दिया तो पता चला वह साइट हैक हो गया। तो एन्निहिलिसन आफ कास्ट, प्रोब्लेम आफ रुपीरिडल्स इन हिंदुइज्मजैसे पुस्तकनामों से गूगल सर्च से नेट पर उपलब्ध सामग्री खोजने की कोशिशें की तो पता चला अंबेडकर का लिखा कुछ भी नेट पर हासिल नहीं है। जैसे वीटी राजशेखर के दलित वायस का हुआ वैसे ही अंबेडकर साहित्य का।

तब रात साढे बारह बजे थे। हमें मालूम था कि आनंद तेलतुंबड़े रांची के लिये देर रात खड़गपुर से गाड़ी पकड़ने वाले हैं तो जगे ही होंगे। हमने उन्हें मोबाइल पर पकड़ा और स्थिति बतायी। उन्होंने कहा कि ऐसा तो होगा ही। लेकिन हमारे पास इसका तोड़ है। दस साल पहले हमने सारा साहित्य लोड कर दिया। उड़ गया तो एकबार फिर नेट पर लोड कर दिया जायेगा। दो तीन दिन का वक्त लगेगा।

गनीमत है कि हमारे पास आनंद तेलतुंबड़े जैसे आईटी विशेषज्ञ और प्रखर विचारक हैं।

कल पहली बार हमारी मुलाकात हिंदी के लेखक विचारक एचएल दुसाध जी से हुयी। वे आप के उत्थान से पहले ही दिन से उत्तेजित हैं। एनजीओ सत्ता के मुकाबले उन्होंने राजनीति में उतरकर सीधे मुकाबला करने के इरादे से राजनीतिक दल बनाने का संकल्प लेकर दिल्ली से निकले, पटना में सम्मेलन किया और इंजीनियर ललन सिंह, जो दलित आदिवासी मुद्दों को भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में शामिल कराने की मुहिम चलाते रहे हैं और इसी सिलसिले में नेतृत्व से मतभेद के चलते उन्होंने भाजपा से इस्तीफा देकर दुसाध जी के साथ लग गये हैं, के साथ दोपहर बाद सोदपुर में हमारे डेरे पहुँच गये।

उनके विषय प्रस्तावना करते ही सविता बाबू ने बम विस्फोट कर दिया और मेरे कुछ कहने से पहले ही मुझे इंगित कह दिया कि अगर ये राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचते भी हैं तो पहले तलाक लेंगे। उन्होंने दुसाध जी को बता दिया कि नैनीताल से अक्सर ऐसे प्रस्ताव आते रहे हैं और इस पर घर के लोग हमेशा वीटो करते रहे हैं। हमारा परिवार पुलिनबाबू के मिशन के अलावा किसी भी किस्म की राजनीति में नहीं है।

दरअसल दुसाध जी, अंबेडकरवादियों में एकमात्र व्यक्ति हैं तेलतुंबड़े के अलावा, जिनका पूरा विमर्श आरक्षण को गैरप्रासंगिक मानकर है। वे तेलतुंबड़े की तरह अकादमिक नहीं है और महज बारहवीं पास हैं। लेकिन हिन्दी में लिखने वाले और निरन्तर छपने वाले एकमात्र दलित विचारक हैं। तेलतुंबड़े भी हिन्दी में नहीं लिख सकते। मुझे कोई नहीं छापता। दुसाधजी हर कहीं छपते हैं।

दुसाध जी एकमात्र व्यक्ति हैं जो लगातार अंबेडकरी विमर्श में संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बँटवारे की बात हिन्दी में कहते और लिखते और छपते हैं। सहमति-असहमति के आर-पार हम जो लोग उन्हें जानते पढ़ते हैं, वे कतई नहीं चाहेंगे कि सत्ता में भागेदारी की लड़ाई में वे शामिल हों।

पहले तो हमने अपने युवा मित्र व प्रखर विश्लेषक अभिनव सिन्हा, जिन्होंने आप के उत्थान का सटीक विश्लेषण भी किया है, उनके शब्दों को उधार लेते हुये कहा कि भाववादी डृष्टि से हम सामाजिक यथार्थ को सम्बोधित नहीं कर सकते। भावनाओं से राजनीतिक लड़ाई नहीं होती। हमें वस्तुवादी नजरिये से देखना होगा।

फिर हमने कहा कि यह व्यवस्था जो पारमाणविक है। यह राष्ट्रव्यवस्था जो मुकम्मल जनसंहारी सैन्यतंत्र है, उसे धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद जैसे भाववाद से हम बदल नहीं सकते और वह नहीं बदलता तो चाहे मोदी बने, चाहे केजरीवाल, चाहे ममता या मुलायम या बाजार के पुरअसर समर्थन से कोई दूसरा यहाँ तक कि मायावती, वामन मेश्राम या एच एल दुसाध भी भारत का प्रधानमंत्री बन जायें, हालात बदलने वाले नहीं है।

हालात तो ऐसे हैं कि इस व्यवस्था में जो भी बनेगा प्रधानमंत्री वह मनमोहन, नीलिकणि और मंटेक का नया अवतार ही होगा। इसको बदलने की मुकम्मल तैयारी के बिना हम कोई राजनीतिक पहल कर ही नहीं सकते। उस तैयारी के सिलसिले में भी विस्तार से बातें हुयीं।

कल ही इकोनामिक टाइम्स के पहले पेज पर बामसेफ के 2014 के नये राजनीतिक खिलाड़ी के शंखनाद की खबर कैरी हुयी है।

मूलनिवासी का विसर्जन करके वामन मेश्राम ने मायावती का आधार को गहरा आघात देते हुये और कांग्रेस के साथ बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के पैट्रियट प्रक्षेपास्त्र को मिसाइली मार से गिराते हुये ऐलान कर दिया है किबामसेफ, दलित-मुसलिम गठबंधन के मार्फत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बेगाल जैसे राज्यों को फोकस में रखकर चार सौ लोकसभा सीटों पर लड़ेगा और इनमे अस्सी उम्मीदवार मुसलमान होंगे।

कितने उम्मीदवार आदिवासी होंगे या कितने ओबीसी, इसका उन्होंने खुलासा किया नहीं है। न ही बहुजन मुक्ति पार्टी, जो राजनीतिक दल है उनका, उसका कहीं नामोल्लेख किया है।

कैडरबेस बामसेफ के संगठन ढाँचे के दम पर ही उन्होंने ऐसा दावा करते हुये बामसेफ को निर्णायक तौर पर तिलांजलि दे दिया। इसके साथ ही उन्होने खुद यह खुलासा किया कि बड़े कॉरपोरेट घरानों और कुछ क्षेत्रीय दलों ने उन्हें समर्थन देने का वायदा किया है। उनके इस विस्फोटक मीडिया आविर्भाव का मतलब बामसेफ के कार्यकर्ता समझे न समझे, बीएसपी कार्यकर्ताओं और बहन मायावती जी को जरूर समझ आया होगा।

बहरहाल जिस ईश्वर ने अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद प्रधानमंत्रित्व का दावेदार भी बना दिया,जिस ईश्वर के भरोसे नरेंद्र मोदी संघपरिवार के हिंदू राष्ट्र के भावी प्रधानमंत्री हैं, उस ईश्वर की मर्जी हो गयी तो जैसे कि वामन मेश्राम जी ने संकेत किया है, तो संघ परिवार से भी विशाल सांगठनिक ढाँचा का दावा करने वाले आदरणीय वामन मेश्राम जी भी भारत के प्रधानमंत्री बन ही सकते हैं।

हमें किसी को प्रधानमंत्री बनाने या किसी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है, ऐसा हमने दुसाध जी को साफ तौर पर बता दिया।

मौजूदा राज्य तंत्र में न लोकतंत्र है, न संविधान लागू है कहीं और न कहीं कानून का राज है। नागरिक और मानवाधिकार समेत तमाम अवसरों और संसाधनों पर भी सत्ता वर्ग का ही एकाधिकार वादी वर्चस्व।

प्रधानमंत्री चाहे कोई बनें, वे मुक्त बाजार के ही प्रधानमंत्री होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं। बहुसंख्य सर्वहारा, सर्वस्वहारा आम जनों को इस वधस्थल से मुक्त कराने के लिये यह कॉरपोरेट राजनीति नहीं है।

कांग्रेस की साख चूँकि शून्य है, इसलिये कॉरपोरेट साम्राज्यवाद ने उसे खारिज कर दिया है और उसके साथ नत्थी मायावती का हिसाब भी कर दिया। बाकी बचे दो विकल्प नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल तो यूथ फॉर इक्विलिटी के नये कारपोरेट अवतार भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के झंडेवरदार दो खेमे में बँटकर दोनों विकल्प मजबूत बनाने में लगे हैं।जो जीता वही मुक्त बाजार का सिकंदर।

हमें कोई तकलीफ नहीं है मोदी, राहुल, ममता, अरविंद या वामन मेश्राम से। सबके लिये हमारी बराबर शुभकामनाएं। भारतीय बहुसंख्य बहुजन राजनीतिक झंडों में आत्मध्वंस के महोत्सव में लहूलुहान हैं और हम खून के छींटों से नहा रहे हैं। इस महायुद्ध में तलवारें चलाने का हमें कोई शौक नहीं है, जिन्हें हैं बाशौक चलायें।

बहस लम्बी चली और खास बात यह है कि बीच में आनंद तेलतुंबड़े का फोन भी आ गया। उन्होंने भी कहा कि राजनीति के शार्टकट से इस तिलिस्म से आजादी असम्भव है।

सविता लगातार बहस करती रही। अंततः दुसाध जी और ललन जी मान गये। आज भी कई दफा फोन करके दुसाध जी ने कहा कि वे बहुजनों में घमासान तेज करने की मुहिम में नहीं हैं और हमारे देश जोड़ो अभियान के साथ हैं। ललन बाबू भी हमारे साथ हैं।

अब इस पर भी गौर करें जो रियाजुल ने लिखा है,

खुदरा बाजार की कुख्यात कंपनी वालमार्ट पिछले सितंबर में इस कारोबार में आधे के साझीदार भारती ग्रुप से अलग हो गयी थीजिसके बाद दोनों कंपनियों द्वारा खुदरा बाजार में किया जाने वाला निवेश भी टल गया था। भारती ग्रुप ही एयरटेल नाम से संचार सेवा मुहैया कराता हैजो अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के अभियानों में करीबी सहायक रहा है। क्या दिल्ली में खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को रद्द किये जाने को वालमार्ट से भारती के अलगाव से और फिलहाल दिल्ली में खुदरा बाजार में वास्तविक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की संभावना के न होने से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए?

 आगे दिलीप मंडल ने भी खुलासा कर दिया कि

हो सकता है कि केजरीवाल के पास ज्यादा समय न हो। लेकिन वे कम समय में जो करना चाहते हैं, वह स्पष्ट हो चला है। अभी तक उन्होंने अपने दो चुनावी वादे पूरे किये हैं। VAT का सरलीकरण, ताकि ट्रेडर्स (वैट छोटे दुकानदार जैसे सब्जी विक्रेताओं की समस्या नहीं है) को दिक्कत न हो और दूसरा रिटेल कम्पनियों और बिजनेसमैन के हित में खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी यानी रिटेल में FDI के फैसले को पलटना। इन दोनों मामलों में आप पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं, लेकिन केजरीवाल क्या कर रहे हैं और किन के लिये कर रहे हैं, इसे लेकर संदेह का कोई कारण नहीं है….सफाई कर्मचारी समेत दिल्ली के सवा लाख ठेका कर्मचारी अभी कतार में हैं। और कोटा का बैकलॉग पूरा करने का वादा? वह क्या होता है?

पहाड़ों से भी कुछ सनसनाते मंतव्य आये हैं …. कृपया गौर जरुर करें।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना


धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी

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धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी

धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी

HASTAKSHEP

दलित पैंथर,कवि पद्म श्री नामदेव धसाल नहीं रहे

पलाश विश्वास



पिछले ही स‌ाल दिवंगत स‌ाहित्यकार ओम प्रकाश बाल्मीकि स‌े हमारी वामपक्षीय रोजनामचे के वर्गसंघर्षी वैचारिक तेवर के दिनों में भी रुक- रुक कर स‌ंवाद होता रहा है। यह वाकई भारतीय बहुसंख्य बहिष्कृत मूक जनगण की अपूरणीय क्षति है कि उन्हें दो-दो बड़े अपने दस्तखत स‌े बेहद कम स‌मय के अंतराल पर वंचित हो जाना पड़ा।

भोर स‌ाढ़े पांच बजे हम गहरी नींद में थे कि मोबाइल रिंगने लगा। बार-बार रिंगने लगा। दलित कवि व लेखक, विचारक और दलित पैथर्स पार्टी संगठन के संस्थापक नeमदेव लक्ष्मण धसाल का लंबी बीमारी के बाद बुधवार तड़के अस्पताल में निधन हो गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी मलिका शेख और एक बेटा है। उनका बांबे हॉस्पीटल में बुधवार तड़के लगभग चार बजे निधन हो गया। वह कैंसर से पीड़ित थे। सहयोगी के मुताबिक, धसाल का शव मुंबई के अंबेडकर कॉलेज में अंतिम दर्शन के लिये रखा जायेगा। उनका अंतिम संस्कार गुरुवार दोपहर दादर शवदाहगृह में होगा।

उनकी रचनाओं में 1973 में प्रकाशित 'गोलपिथा', 'मूरख महातरयाने', 'तुझु इयात्ता कांची', 'खेल', 'प्रियदर्शिनी' (पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर आधारित), 'अंधेले शातक'और 'अम्बेडकरी चलवाल'शामिल है।

कोलकाता में भी कड़ाके की स‌र्दी होती है इन दिनों मकर स‌ंक्रांति के आस-पास, कल से खूब सर्दी पड़ रही है। रात में अरसे बाद कंबल लेकर कंप्यूटर पर बैठना पड़ा और आज दिन भर सूरज के दर्शन तो नहीं हुये,गंगासागर मेले की सर्दी जैसे यहीं स्तानांतरित हो गयी। रात के दो बजे पीसी आफ करके स‌ोया था।सविता तो बारह बजने स‌े पहले टीवी आफ करके स‌ो गयी।बिजनौर में उसे बड़े भाई लगातार अस्वस्थ्य चल रहे हैं। मोबाइल की घंटी स‌े वे पहले जाग गयी लेकिन फोन पकड़ने की हिम्मत उसकी नहीं हुयी। मैं रिंग स‌ुन रहा था लेकिन फिर भी नींद में था। मुझे सविता ने कड़ककर आवाज दी, तब उठा औऱ कॉल रिसीव कर लिया तो उस पार बेहद भावुक रुआँसा अपने एच एल दुसाध थे जिन्होंने दिन भर कई दफा फोन किया था। वे ट्रेन से दिल्ली को रवाना हो गये थे। हमारी समझ से परे थी वह वजह कि उन्होंने इतनी सर्दी में बीच रास्ते से फोन कैसे किया।

लगभग रोते हुये जो वे बोले, पहले तो स‌मझ में नहीं आया। बार बार पूछने पर खुलास‌ा हुआ कि मुंबई में दलित कवि नामदेव धसाल का निधन हो गया। बाद में एसएमएस स‌े दुसाध जी ने स‌ूचित किया कि आज यानी बुधवार को तड़के स‌ाढ़े चार बजे कैंसर स‌े जूझ रहे धसाल आखिरी जंग हार गये। जाने-माने मराठी कवि और तेज तर्रार कार्यकर्ता नामदेव धसाल का लम्बी बीमारी के बाद आज निधन हो गया। वह 64 साल के थे। वह आंत और मलाशय के कैंसर से पीड़ित थे।

 फिर उनसे मोबाइल पर दिनभर कनेक्ट नहीं कर सका। इसी बीच टीवी स्क्रालिंग पर धसाल की मौत की खबर सुर्खी में तब्दील भी होने लगी। लेकिन आज दिनभर नेट नहीं चला। अब जाकर छह बजे के करीब नेट खुला जबकि मुझे दफ्तर निकलना है।

वहीं, वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध पत्रकार रणेन मुखर्जी का मंगलवार को निधन हो गया। यह जानकारी उनके परिवार के एक सदस्य ने दी। मुखर्जी 86 वर्ष के थे और उनके परिवार में एक बेटी है।

महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद वह एक स्कूली छात्र के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे। उन्हें राशिद अली दिवस मनाने के दौरान 1946 में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद वह ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़े थे और दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था। वह 1959 में पश्चिम बंगाल में खाद्य आंदोलन से भी जुड़े थे। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत फॉरवर्ड ब्लॉक के बंगाली मुखपत्र लोकसेवक से की थी। वह लोकमत, गनबार्ता, दैनिक बसुमती, भारतकथा, सतजुग, बर्तमान और सम्बाद प्रतिदिन से भी जुड़े थे। उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को कवर किया था और बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के सम्पर्क में आये थे। उन्होंने उनकी जीवनी मुजीबुर रहमान'आमी मुजिब बोल्ची' लिखी थी, जिसे काफी सराहना मिली थी। उन्होंने लगभग 30 किताबें लिखी थी, जिसमें शहीद खुदीराम बोस, फारवर्ड ब्लाक नेता हेमंत कुमार बसु और मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता प्रमोद दासगुप्ता की जीवनी शामिल है।

उनका पार्थिव शरीर फारवर्ड ब्लॉक राज्य समिति के दफ्तर में ले जाया गया जहाँ पार्टी के राज्य सचिव अशोक घोष ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। इसके बाद प्रेस क्लब में पत्रकारों और माकपा पोलितब्यूरो के सदस्यों बिमान बोस और सूर्यकांत मिश्रा ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से भी पुष्प अर्पित किया गया। उनके पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि मुखर्जी ने मरणोपरांत शरीर दान करने का वादा किया था। उनका शव एनआरएस मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को दान कर दिया जायेगा।

दुसाध जी ने अपनी मंगलवार की लम्बी बातचीत में धसाल की तुलना टैगोर स‌े की थी और उन्होंने अपनी पचपन किताबों में स‌े एक किताब टैगोर बनाम धसाल भी लिखी है।

मैं अति में विश्वास नहीं करता। मैं न ओमप्रकाश बाल्मीकि को प्रेमचंद, लेकिन दलित जीवन के चित्रण के मामले में कहें तो शुरुआती सारे दलित लेखकों को मैं प्रेमचंद क्या, टैगोर क्या, महाकवि बाल्मीकि और महाकवि व्यास से ज्यादा महान मानता हूँ, क्योंकि उन महाकवियों ने अपने लोगों के सुख-दुख को कभी आवाज ही नहीं दी।

धसाल उग्र दलित पैंथर मूवमेंट के संस्थापकों में से एक थे। यह आंदोलन 1960 के दशक के अंत में वर्ली के बीडीडी चॉल में जातीय दंगों बाद शुरू हुआ था।

वह दलित साहित्य आंदोलन के अग्रदूत थे। पद्मश्री से सम्मानित धसाल मांसपेशियों की कमजोरी की बीमारी से भी पीड़ित थे।

वर्ष 2007 में अभिनेता अमिताभ बच्चन और सलमान खान ने धसाल की मदद के लिये राशि जुटाई थी जिनका परिवार उनके इलाज के खर्चे के भुगतान के लिये अपना मकान बेचने के कगार पर था।

नागरिक अधिकार कार्यकर्ता धसाल को उनकी एक किताब के लिये नेहरू पुरस्कार भी मिला था। 2004 में साहित्य में योगदान के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

धसाल की चुनिन्दा कविताओं का 'नामदेव धसाल: पोयट ऑफ अंडरवर्ल्ड' शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था।

जाहिर है कि  दुसाध जी के भीतर हो रही खलबली उनपर भाववाद के वर्चस्व की वजह स‌े स‌मझ में आने वाली बात है। हाल ही में वे मुंबई के अस्पताल में धसाल स‌े मिलकर आये हैं। अस्पताल में ही धसाल ने अंतिम स‌ांसें लीं। उन्होंने लिखा है कि एसएमएस करते हुये` मेरी आंखों में जार जार आंसू बह रहे हैं।'आगे उन्होंने लिखा है, पता नहीं यह जानकर आप पर क्या गुजरेगी कि विश्वकवि नामदेव धसाल अब नहीं रहे। मेरे स‌ाथ दिक्कत यह है कि स‌ुबह स‌े नेट बंद है, लिखकर भी मैं तत्काल पोस्ट कर नहीं स‌कता।

नामदेव धसाल स‌े मुंबई जाते आते रहने के बावजूद मिलने की हमारी कभी इच्छा नहीं हुयी। हालाँकि हम जब भाषाबंधन में थे, तब नबारुण दा ने खास तौर पर उन की कविताओं का अनुवाद छापा था। बांग्ला के अद्वितीयगद्य पद्य लेखक व स‌ंपादक नवारुण भट्टाचार्य के मुताबिक वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं, इससे उनकी रचनाओं का महत्व खत्म हो नहीं जाता।

दरअसल वैचारिक अवस्थान बदलकर कवि कार्यकर्ता नामदेव धसाल जो हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी।

जलगांव में हमारे मित्र स‌ुनील शिंदे जी स‌ंघी नहीं हैं और विदर्भ में जनसरोकारों स‌े इस कदर जुड़े हैं कि भूमिगत कबीर कला मंच की शीतल स‌ाठे स‌मेत तमाम लोगों के निरंतर स‌ंपर्क में रहे हैं। उनका नामदेव धसाल स‌े नजदीकी स‌म्बंध रहा है।

कई दफा जलगांव के पास पचोला में उनके गाँव में उनके घर डेरा जमाने के दौरान धसाल की खूब चर्चा हुयी और उसके बाद मुंबई जाने के बाद भी कभी इच्छा नहीं हुयी कि किसी किस्म का स‌ंवाद नामदेव धसाल स‌े भी किया जाये।

बामसेफ के स‌क्रिय कार्यकर्ता होने स‌े कहीं न कहीं दिलोदिमाग पर एकपक्षीय दृष्टि का असर होता है और दूसरे पक्ष को स‌ुनने या स‌ुनने लायक स‌हिष्णुता का स‌िरे स‌े अभाव हो स‌कता है। नामदेव धसाल स‌े न मिलने की एक वजह यह हो स‌कती है।

 विचारशून्यता उत्तरआधुनिक विमर्श का स्थाईभाव है,

दुसाध जी जब हमारे यहाँ आये और मुझे उनकी राजनीतिक परिकल्पना की भनक लगी और उनके स‌ाथ में भाजपाई ललनजी के आगमन की स‌ूचना मिली तो मैं स‌चमुच आशंकित था कि कहीं आप को रोकने के लिये दुसाध जी मिशन पर तो नहीं निकल पड़े। क्योंकि आप के उत्थान स‌े अब स‌बसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार को है।

दुसाध जी आरक्षण के विरोध में नहीं हैं और न तेलतुंबड़े आरक्षण के विरोध में हैं। दोनों लोग आरक्षण लागू करने की अंबेडकरी भूमिका के कट्टर स‌मर्थक हैं स‌मता और स‌ामाजिक न्याय के लिये। संघ परिवार और स‌त्ता वर्ग के आरक्षण विरोध स‌े उनका कुछ लेना देना नहीं है। मैं भी कारपोरेट राज में आरक्षण युद्ध में सारी ऊर्जा लगाकर जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के मोर्चे से बेदखली के इस आत्मध्वंस के दुश्चक्र से निकलना बहिष्कृत समाज की सर्वोच्च प्राथमिकता मानता हूँ और बहुजन आंदोलन के एकमेव आरक्षण मुद्दे तक सीमाबद्ध हो जाने की त्रासदी को तोड़ने की ही कोशिश करता हूँ।

हम तीनों इस स‌च के मुखातिब होकर कि स‌न् 1999 स‌े आरक्षण लागू होने और आरक्षण पर नियुक्तियों की दर शून्य तक पहुँच जाने के बाद जिस देश में रोज स‌ंविधान की हत्या हो रही हो, जहाँ कानून का राज है ही नहीं और लोकतंत्र का स‌िरे स‌े अभाव है और राष्ट्र दमनकारी युद्धक स‌ैन्यतंत्र है, राजकाज राजनीति कॉरपोरेट हैं, वहाँ आरक्षम केंद्रित स‌त्ता में भागेदारी की एटीएम राजनीति स‌े बहुसंख्य स‌र्वहारा स‌र्वस्वहाराओं को कुछ हासिल नहीं होने वाला है।

कल रात जब अपने आलेख को अंतिम रूप देने स‌े पहले उसके टुकड़े हमने फेसबुक पर पोस्ट किये तो अनेक मित्रों की दुसाध जी के बारे में नाना शंकाएं अभिव्यक्त होती रहीं।

दरअसल दुसाध जी और लल्लन जी स‌े भी मैंने स‌ाफ-स‌ाफ कह दिया था कि डायवर्सिटी मिशन का स‌ंघ परिवार अपने आरक्षण विरोधी, समता और स‌ामाजिक न्यायविरोधी स‌मरसता मिशन में ज्यादा इस्तेमाल किया है और करेंगे, राजनीति में हम लोग अगर आप का स‌ीधे तौर पर विरोध करते हैं तो संघ परिवार के मिशन को ही ताकत मिलेगी।

हमने उनसे यही निवेदन किया कि डायवर्सिटी मिशन की मूल अवधारणा स‌ंसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बँटवारे के स‌ाथ देश जोड़ो अभियान में वे हमारा स‌ाथ दें।

हम मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यव्स्था बुनियादी तौर पर कृषि अर्थ व्यवस्था है। इसी अर्थव्यवस्था पर एकाधिकारवादी दखल के लिये पहले वर्ण व्यवस्था प्रचलित हुयी और गौतम बुद्ध की स‌मता क्रांति के प्रत्युत्र में शासक तबके की प्रतिक्रांति के जरिये जाति व्यवस्था का उद्भव हुआ।

दोनों व्यवस्थाओं के मूल में रंग भेद है।

यह एक मुकम्मल अर्थ व्यवस्था है जिससे कृषि आजीविका स‌माज को हजारों जातियों में तोड़कर रख दिया है। अब मजा यह है कि आप जाति व्यवस्था के मातहत हैं या उस‌के बाहर मसलन आदिवासी और धर्मांतरित लोग, भिन्न धर्मी या फिर अस्पृश्य भूगोल के तथाकथित स‌वर्ण, आप इस अर्थशास्त्रीय महाविनाश स‌े बच नहीं स‌कते।

आज का मुक्त बाजार जनपदों और कृषि के ध्वंस पर आधारित है। जो काम कल तक जाति व्यवस्था कर रही थी,वह काम प्रबंधकीय दक्षता और तकनीकी विशेषज्ञता के उत्कर्ष पर खड़ी कारपोरेट राजनीति कर रही है और जाति व्यवस्था की तर्ज पर ही बहुसंख्य भारतीय कृषि स‌माज रंग बिरंगी कॉरपोरेट राजनीति में विभाजित हैं।

ये तमाम लोग हमारे हैं। इन स‌बको गोलबंद किये बिना हम बदलाव की लड़ाई लड़ नहीं स‌कते। उन स‌बसे स‌ंवाद जरूरी है। यह बात हमारे अपढ़ पिता दिवंगत पुलिनबाबू जानते थे, जिसे हम अब स‌मझ रहे हैं। पिता आजीवन इस स‌ीख के तहत स‌माज प्रतिबद्धता में निष्णात रहे और हम कायदे स‌े आरंभ भी नहीं कर पाये।

हम पढ़े लिखों की स‌ायद यह दिक्कत है कि बात तो हम वैज्ञानिक पद्धति की करते हैं, अवधारणाओं और विचारधाराओं को, नीति, रणनीति को स‌र्वोच्च प्राथमिकता देते हैं,लेकिन स‌ामाजिक यथार्थ के मुताबिक वस्तुवादी दृष्टि स‌े आचरण के कार्यबार स‌े चूक जाते हैं।

सामाजिक सरोकार के प्रति प्रतिबद्धता और उसके लिये सर्वस्व समर्पण भाव और ईमानदारी बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त नैतिक चरित्र का मामला भी है, जो वस्तुगत सामाजिक यथार्थ और वैज्ञानिक विचारधारा से किन्तु अलहदा है, लेकिन सामाजिक बवलाव की कोई भी विधि इस स्थायी बाव के बिना, मेरे पिता पुलिनबाबू के पागलपन तक की हद की जुनून के बिना शायद असम्भव है।

आप के शिखर पुरुष कहते हैं कि किसी विचारधारा में उनकी आस्था नहीं है। विचारशून्यता उत्तरआधुनिक विमर्श का स्थाईभाव हैलेकिन लोक परंपराओं में टटोलेंगे तो वहाँ जो जीवन दर्शन के विविध चामत्कारिक खजाना मिलेगा, वह स्थाई ईमानदार भाववाद के बावजूद सामाजिक यथार्थ की गहरी पकड़ के साथ दृष्टिसम्पन्न जखीरा ही जखीरा मिलेगा। सूफी संतों फकीरों के कबीरत्व की महान रचनाधर्मिता की परंपरा ही आखिर दलित आदिवासी साहित्यधारा में प्रवाहित हुयी है, जिसके वाहक थे धसाल और ओम प्रकाश बाल्मीकि।

दुसाध जी स‌े अब तक परहेज करने का बड़ा कारण यह है कि वे बामसेफ के कटक राष्ट्रीय स‌म्मेलन स‌े करीब पाँच स‌ाल पहले खदेड़ दिये गये थे। राजनेताओं और स‌ांसदों, खासकर स‌ंघ परिवार स‌े उनके स‌ंवाद और इसी आलोक में डायवर्सिटी के स‌िद्धान्त को स‌मरसता के स‌मान्तर रखने पर वे लगातार हमें स‌ंघी नजर आते रहे हैं। नईदिल्ली में उनकी सक्रियता हमें हमेशा संदिग्ध लगती रही है।

चंद्रभान प्रसाद स‌े हमारी घनघोर असहमति है और अब उतनी ही असहमति प्रिय दिलीप मंडल स‌े हैं, जो बहुजनों के लिये ग्लोबीकरण जमाने को स्वर्णकाल कहते अघाते नहीं हैं। चंद्रभान जी, दुसाध जी के मित्र हैं तो दिलीप मंडल डायवर्सिटी मिशन के उपाध्यक्ष। हाल के वर्षों में दिलीप स‌े वैचारिक दूरी भी इसी वजह स‌े है कि वे भी राजनेताओं के स‌ाथ खड़े पाये जाते हैं और कॉरपोरेट राज के खिलाफ कुछ भी नहीं कहते लिखते।

खास बात यह है कि दुसाध ग्लोबीकरण को हमारी तरह ही स्वर्णकाल नहीं, महाविध्वँस कयामत ही मानते हैं और वे भी कॉरपोरेट राज के उतने ही विरोधी हैं जितने हम। इसी बिन्दु पर उनके स‌ाथ स‌ंवाद का यह स‌िलसिला बना।

लेकिन अफसोस नामदेव धसाल स‌े स‌ंवाद का कोई स‌ेतु नहीं बन स‌का, जब तक हम मुंबई जाने जाने लगे तब तक वे प्रखर हिंदुत्व की कट्टर शिवसेना के झंडेवरदार बन गये थे।

हम लोग न्यूनतम सहमति के प्रस्थानबिंदु से जनपक्षधरता का कोई संवाद चला नहीं पा रहे हैं, तो इसकी वजह हमें जान ही लेना चाहिए वरना आत्मध्वँस उत्सव के जोकर ही होंगे हम तमाम सर्कस के पात्र और सर्कस का सौंदर्यशास्त्र ही होगा सर्वस्वहारा सौंदर्यबोध।

वैसे हमने स‌ही मायने में दुसाध जी स‌े भी मिलने की कोई पहल नहीं की थी। मैं पेशे स‌े पत्रकार भी हूँ तो स‌भी पक्षों के लोगों स‌े पेशे के कारण भी हमारी बातचीत होती रहती है। दुसाध जी स्वयं हमारे यहाँ दिल्ली स‌े चले आये और स‌ंवाद की शुरुआत भी उन्होंने ही की और अंततः हमारी दलीलों स‌े स‌हमत हुये। इसका पूरा श्रेय उन्हीं को।

नामदेव धसाल स‌े मिलकर बात करने की हम पहल नहीं कर स‌कें।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना

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धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति

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धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति


पलाश विश्वास


नामदेव धसाल  लिखे हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख की लिंक बांग्ला विद्वतजनों के ग्रुप गुरुचंडाली में जारी करने पर मुझे चेतावनी दे दी गयी,तो मैं उस ग्रुप से बाहर हो गया। अब इस आलेख के लिए इंटरनेट सर्वर से भी हमारी शिकायत दर्ज कराय़ी गयी,जिस माध्यम के जरिये हम बात करते हैं,वहां से भी चेतावनी जारी हो चुकी है।जाहिर है कि मित्रों,इस माध्यम से संवाद जारी रखना अब मुश्किल है।


नामदेव धसाल बेहतरीन कवि ही नहीं हैं,हम उन्हें विश्वकवि तो नहीं कहते न हम ओम प्रकाश बाल्मीकी को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानेंगे और न धसाल को मुक्तिबोध से बड़ा कवि,लेकिन दलित पैंथर आंदोलन के जरिये अपने कवित्व से बड़ा योगदान धसाल कर गये हैं।


धसाल बना दिये जाने की प्रक्रिया से निकलने को बेताब हिंदी के एक और बहुजन लेखक एचएल दुसाध जी ने अपनी श्रद्धांजलि में धसाल और दलित पैंथर आंदोलन का सटीक मूल्यांकन किया है,जिसे हमने पहले ही आपके साथ साझा किया है।


धसाल को हिंदुत्व में समाहित करने लायक परिस्थितियां बनाने का जिम्मेदार अंबेडकरी विचलित आंदोलन का जितना है,उससे कम प्रगतिशील खेमे का नहीं है।


इसी सिलसिले में शैलेश मटियानी के त्रासद हश्र पर भी विवेचन जरुरी है,जो बाल्मीकि और तमाम मराठी साहित्यकारों से भी पहले दलित आत्मकथ्य लिख रहे थे,जिन्हें कसाई पुत्र होने की हैसियत से लेखक बनने की वजह से मुंबई भाग जाना पड़ा,फिर सुप्रतिष्ठित होने के बावजूद  इलाहाबाद की साहित्य बिरादरी में अलगाव में रहना पड़ा।


बहुजनों ने शैलेश मटियानी और उनके साहित्य को जाना नहीं,अपनाया नहीं,पहाड़ चढ़ने की इजाजत भी उस कसाईपुत्र को  थी नहीं।


अल्मोड़ा में किंवदंती सरीखा किस्सा प्रचलित है कि किसी सवर्ण लड़की से प्रेम की वजह से वे हमेशा के लिए हिमालय से निष्कासित कर दिया और देवभूमि ने आजतक बाद में उनके हिंदुत्व में समाहित हो जाने के बाद उनके अतीत के इस कथित दुस्साहस के लिए उन्हें माफ नहीं किया।वे हल्द्वानी में ही स्थगित हो गये।


हमने सत्तर के दशक में देखा,हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी शैलेश मटियानी की कहानी प्रेतमुक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते थे।


हमसे कभी संवाद की स्थिति में न होने के बावजूद लक्ष्मण सिंह बिष्ट उनके प्रशंसक थे,तो पूरे पहाड़ में तब शायद सन तिहत्तर चौहत्तर में गढवाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अलकनंदा के एक शैलेश मटियानी केंद्रित अंक के सिवाय हमें लिखित पढ़त में पहाड़ के लोगों की ओर से शैलेश मटियानी के समर्थन में आज तक कुछ देखने को नहीं मिला।


मेरे सहपाठी प्रिय सहयात्री कपिलेश भोज और हम अचंभित थे पहाड़ में शैलेश मटियानी के सामाजिक साहित्यिक बहिस्कार से जबकि शिवानी की भी पहाड़ में भयानक प्रतिष्ठा थी,है।


प्रगतिशील खेमा ने शैलेश मटियानी जी को कभी नहीं अपनाया और जब अपने बेटे की इलाहाबाद में बम विस्फोट से  मृति्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर वे हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह ही हिंदुत्व में समाहित हो गये,तब शैलेश मटियानी के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को एक सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिंदी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर ही दिया।शैलेश मटियानी की लेखकीय प्रतिष्टा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका आखिर मिल गया।


धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि मुकदमा के जरिये आदिविद्रोही शैलेश मटियानी ने हिंदी के संपादकों,पत्रकारों, आलोचकों,प्रकाशकों और देशभर में उन्हें केंद्रित हिंदी और हिंदी समाज के चहुंमुखी सत्यानाश के लिए प्रतिबद्ध माफिया समाज के खिलाफ महाभियान छेड़ दिया था,जिसका अमोघ परिणाम भी उन्होंने भुगत लिया और ताज्जुब की बात हिंदी समाज में किसी ने न उफ किया और न आह। अपने ही समाज के सबसे बड़े लेखक को अर्श से फर्श पर पछाड़ दिये जाने की खबर तो खैर बारतीयबहुसंख्यबहुजन समाज को हो ही नहीं सकी है।लावारिश से शैलेश मटियानी की यह प्रेतगति तो होनी ही थी।


धसाल हिंदुत्व में समाहित थे और गैरप्रासंगिक है,ऐसा फतवा देना हगने मूतने जैसी सरलतम क्रिया है और इसका वास्तव में न कोई यथार्थ है और न सौंदर्यबोध। लेकिन इससे भी जरुरी सवाल है कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियां है कि हमारे सबसे जाबांज,समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वंस के लिए मजबूर कर दिये जाते हैं।


यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है,जिसके तहत जनप्रतिबद्ध जनमोर्चे पर आदमकोर बाघों का हमला निरंतर जारी है। धसाल और मटियानी अतीत में स्वाहा हो गये,अब देखते रहिये कि आगे किसकी बारी है।हमारे ही अपने लोग घात लगाये बैठे होते हैं कि मौका मिले तो रक्तमांस का कोई पिंड हिस्से में आ जाये।


जाहिर है कि शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति असंभव है।अंबेडकरी बहुजन खेमा तो शायद ही शैलेश मटियानी को जानते होंगे क्योंकि उन्होंने जाति पहचान के तहत न लेखन किया और न जीवन जिया है।वे अस्मिता परिधि को अल्मोड़ा से भागते हुए वहीं छोड़ चुके थे।


विष्णु खरे का धसाल के प्रति जो रवैया है ,वह अभिषेक को गरियाते हुए नाम्या को मौकापरस्त करार देने के बाद धसाल की मृत्यु के बाद बीबीसी पर उनके रचनाकर्म के महिमामंडन की अतियों तक विचलित है।


खरे जी हमारे अत्यंत आदरणीय संपादक और कवि हैं,उनका जैसा कवि संपादक बनने के लिए मुझे शायद सौ जनम लेना पड़े,लेकिन कहना ही होगा कि मसीहाई हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकार,संपादक,आलोचक,प्रकाशक गिरोह किसी को भी जब चाहे तब आसमान पर चढ़ा दें और जब चाहे तब किसी को भी धूल चटा दें।


हमारे प्रिय कैंसर पीड़ित कवि मित्र वीरेन डंगवाल और उनके मित्र कवि मंगलेश डबराल की कथा तो आम है कि कैसे उनके खिलाफ निरंतर एक मुहिम जारी रही है।


लेकिन हिंदी के तीन शीर्ष कवि त्रिलोचन शास्त्री, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह प्रगति के पैमाने में बार बार चढ़ते उतरते पाये गये हैं।


बाबा तो फकीर थे और उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी।संजोग से बाबा नागार्जुन और हमारे प्रियकवि शलभ श्रीराम सिंह उन इने गिने लोगों में थे जो शैलेश मटियानी के लिखे को जनपक्षधरता के मोर्चे का विलक्षण रचनाकर्म मानते थे।


कोलकाता में एक बार त्रिलोचन जी से पंडित विष्णुकांत शास्त्री के सान्निध्य समेत हमारी करीब पांच छह घंटे बात हुई थी,तब उन्होंने प्रगतिशाल पैमाने से तीनों बड़े कवियों के प्रगतिशील प्रतिक्रियाशाल बना देने की परिपाटी का खुलासा किया,जिसका निर्मम प्रहार पहले मटियानी और फिर धसाल पर हुआ।


नैनीताल डीएसबी से एमए अंग्रेजी से पास करने पर अंग्रेजी की मैडम मधुलिका दीक्षित और अपने बटरोही जी के कहने पर शोध के लिए हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय निकल पड़े।बटरोही जी साठ के दशक में मटियानी जी के यहां रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। तो उन्होंने मुझे सीधे मटियानी जी के घर पहुंचने को कहा।


तदनुसार शेखर पाठक से रेल किराया लेकर हम पहाड़ छोड़कर मैदान के बीहड़ जंगल में कूद गये और सहारनपुर पैसेंजर से सुबह सुबह प्रयाग स्टेशन पहुंच गये।वहां से सीधे शैलेश जी के घर,जिन्होंने तुरंत मुझे रघुवंश जी के यहां भेज दिया।रघुवंश जी और मटियानीजी दोनों चाहते थे कि मैं अंग्रेजी में शोध के बजाय हिंदी में एमए करुं।


जिस कमरे में बटरोही जी शैलेश जी के घर ठहरे थे, वह कमरा शायद उनके भतीजे या भांजे का डेरा बन गया था। तब मैं अपना बोरिया बिस्तर उठाकर सीधे सौ,लूकर गंज में इजा की शरण में शेखर जोशी के घर पहुंच गया।


आम पहाड़ियों की आदत के मुताबिक मैंने छूटते ही जैसे मटियानी जी की आलोचना शुरु की तो शेखर दाज्यू ने बस जूता मारने की कसर बाकी छोड़ दी।इतना डांटा हमें,इतना डांटा कि हमें पहले तो यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि हर पहाड़ी मटियानी के खिलाफ नहीं है।


फिर यह अहसास जागा कि कोई जेनुइन रचनाकार किसी जेनुइन रचनाकार की कितनी इज्जत करता है।


हम लोग मटियानी जी की बजाय हमेशा शेखरदाज्यू को बड़ा कथाकार मानते रहे हैं। लेकिन उस दिन शेखर जोशी जी ने  साफ साफ बता दिया कि हिंदी में शैलेश मटियानी के होने का मतलब क्या है।


मेरा सौभाग्य है कि मुझे इलाहाबाद में करीब तीन महीने के ठहराव में शैलेश मटियानी और शेखर जी का अभिभावकत्व मिला।मेरे लेखन में भी उनका हमेशा अभिभावकत्व रहा है।


तब लूकरगंज से कर्नलगंज मैं अक्सर पैदल चला करता था।विकल्प के विज्ञापन के जुगाड़ में मैं भी मटियानी जी के साथ भटकता रहा हूं।अमृत प्रभात और लोकवाणी नीलाभ प्रकाशन भी जाता रहा हूं उनके साथ तो व्हीलर के वहां भी।थोड़ पैसे उन्हें मिल जाते थे,तो बेहिचक खाने पर भी बुला लेते थे वे। वह आत्मीयता भुलायी नहीं जा सकती।

लेकिन अंबेडकरी प्रगतिशील दुश्चक्र में मैंने अभी तक इस प्रसंग में कुछ नहीं लिखा था।


आदरणीय खरे जी के सर्कसी करतब से मुझे धसाल प्रसंग में शैलेश जी पर लिखना ही पड़ रहा है,जिनके बारे में धसाल पर बेहतरीन लिखने वाले एचएल दुसाध जी भी नहीं जानते थे कि उनकी समामाजिक पृष्ठभूमि और पहचान क्या थी और बहुजन जीवन का कैसा जीवंत दस्तावेज उन्होंने किसी भी दलित साहित्यकार से बेहतर तरीके से पेश किया है।


फिर जब उन्होंने धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया,तब भी मैंने उन्हें नजदीक से देखा है।


इतने गुस्से में थे कि राजीव गांधी से जुड़ जाने के अभियोग के खंडन के लिए सामने होते धर्मवीर भारती तो उन्हें कच्चा चबा जाते।


उनके रोज के संघर्ष,उनके रचनाकर्म के जनपक्ष और उनके पारिवारिक जीवन को बेहद नजदीक से देखने के बाद हम अवाक यह भी देखते गये कि कैसे हिंदी समाज ने संघी होने के आरोप में उनके आजीवन जीवन संघर्ष,सतत प्रतिबद्धता और दलित जीवन के प्रामाणिक जीवंत रचनाकर्म को एक झटके के साथ खारिज कर दिया।लेकिन हमने भी हिंदी परिवेश की तरह अपने पूर्वग्रह से बाहर निकलकर सच कहने की कोशिश नहीं की,यह मेरे हिस्से का अपराध है।


हम सारे लोग बाल्मीकि को प्रेमचंद से बड़ा साहित्यकार साबित करते रहे,लेकिन बहुजन पक्ष के सबसे बड़े कथाकार को पहचानने की कोशिश ही नहीं की और उनके व्यक्तित्व कृतित्व को हमेशा सवर्ण सत्तावर्गीय दृष्टि से खारिज करते चले गये।


यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है,मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिंदी और हिंदी समाज की त्रासदी है।




Ghnalunk Ghlipkrivআপনাকে আগেও জানানো হয়েছে : একসঙ্গে এতগুলো থ্রেড ( রীপিটেসন ও আছে ) খোলার আগে মেম্বারদের রেসপন্স দেখুন . অযথা ফ্লাড করবেননা . প্রচুর থ্রেড খুললে প্রচুর মতামত আসবে এরকম সরলরৈখিক নয় ব্যাপারটা . বুঝতে না চাইলে এবার ব্যবস্থা নিতে বাধ্য হব . Palash Biswas


I am now out of Guruchandali group as they have serious objection to my interactive insertions.Whichever other group or individual is not interested in most important issues that we face and interactive discussion,they may kindly exclude me or unfriend me.Given the limit of networking ,it would rather help me to connect those who happen to be seriously concerned as much as I am.Thanks.I am sorry that Guruchandali being only West Bengal based forum, I opted for it and disturbed the whole lot.However,I would not disturb them in future.


बांग्ला में विमर्श और संवाद का माहौल नहीं है औक संवाद से विद्वतजनों को गहरा ऐतराज है,इसलिए शुरु से जुड़े रहने के बावजूद अब बांग्ला ग्रुप गुरुचंडाली से मैंने अपनी सदस्यता खत्म कर ली है।ऐसे जो भी ग्रुप संवाद के खिलाफ हैं,वे सूचित करें तो मैं उन ग्रुपों की नींद में लगातार खलल जालने के बजायुनसे तुरंत अलग हो जाउंगा।मेरे लगातार पोस्ट से जिन मित्रों का हाजमा खराब हो रहा है,वे अविलंब मुझे अनफ्रेंड कर दें ताकि संवाद के इच्छुक मित्रों को मैं अपने सीमाबद्ध नेटवर्क से जोड़ सकूं।


Dear Palash Babu, I extend my love and gratitude for the detailed coverage at the sad demise of Kavi Namdeo Dhasal, the pioneer poet and activist of Indian Dalit Literary movement. Thanks you once again and I believe that you are the only man/journalist/Dalit from Bengal who can do it.-Manohar Mouli Biswas  

Manohar Biswas

651 V.I.P nagar.

Gouranga Palli.

Kolkata 700100

Tel # : (033) 23451294

Cellular : +919433390044

मनोहर बाबू बांग्ला दलित साहित्य संस्था के संस्थापकों में हैं और बंगाल में मेरी रिहाइस के दौरान शुरु से हम पर उनका विशेष स्नेह है,हम उनके आभारी हैं।

नामदेव धसाल संबंधी लिंक देने पर गुरुचंडाली ने हमें चेतावनी जारी की,जिसके जबावमें मैंन उस ग्रुप से ही अपने को अलग कर लिया।


Ghnalunk Ghlipkriv mentioned you in a comment in গুরুচন্ডা৯ guruchandali.

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Ghnalunk Ghlipkriv

10:30am Jan 16

আপনাকে আগেও জানানো হয়েছে : একসঙ্গে এতগুলো থ্রেড ( রীপিটেসন ও আছে ) খোলার আগে মেম্বারদের রেসপন্স দেখুন . অযথা ফ্লাড করবেননা . প্রচুর থ্রেড খুললে প্রচুর মতামত আসবে এরকম সরলরৈখিক নয় ব্যাপারটা . বুঝতে না চাইলে এবার ব্যবস্থা নিতে বাধ্য হব .Palash Biswas

Original Post

*

Palash Biswas

2:51am Jan 16

http://www.hastakshep.com/hindi-news/शख्सियत/2014/01/15/धसाल-हिंदू-राष्ट्रवाद-मे

*

धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी

दलित पैंथर,कवि पद्म श्री नामदेव धसाल नहीं रहे पलाश विश्वास पिछले ही स‌ाल दिवंगत स‌ाहित्यकार ओम प्रका...




  • प्रचंड नागआप ग्रुप्स पर निर्भर न रहें । अपनी वाल में लिखें । गुस्ताखी माफ करें अगर मैं यह कहूँ कि एक बार में उतना ही लिखें जितना पब्लिक डाइजेस्ट कर सके । फेसबुक की पब्लिक संवाद करना चाहती है और भाषण पसंद नहीं करती ।

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Anita Bharti

आज सुबह 4 बजे मराठी के सुप्रसिद्ध रचनाकार नामदेव ढसाल जी परिनिर्वाण हो गया है। सादर पुष्पांजलि अर्पित करते हुए उनकी अपनी लिखी हुई सबसे प्रिय कविता पोस्ट कर रही हूँ।

मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप

मेरी फिर कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से

आदमी के साथ उसकी उँगली पकड़कर,

मुट्ठीभर लोगों के साँस्कृतिक एकाधिपत्य से किया मैंने ज़िन्दगी भर द्वेष

द्वेष किया मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,

नहीं रंगे मैंने चित्र ज़िन्दगी के ।


सामान्य मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,

प्रेम करता रहा मैं पशुओं से, कीड़ों और चीटियों से भी,

मैंने अनुभव किए हैं, सभी संक्रामक और छुतही रोग-बीमारियाँ

चकमा देने वाली हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियंत्रण में

सत्य-असत्य के संघर्ष में खो नहीं दिया है मैंने ख़ुद को

मेरी भीतरी आवाज़, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच के शब्द

मैंने जीने को रंगों से नहीं, संवेदनाओं से कैनवस पर रंगा है


मेरी कविता, तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल

पुराणों की ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर

वीनस हो अथवा जूनो

डायना हो या मैडोना

मैंने उनकी देह पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खांग दिया है


मेरी प्रिय कविता, मैं नहीं हूँ छात्र 'एकोल-द-बोर्झात'का

अनुभव के स्कूल में सीखा है मैंने जीना, कविता करना : चि निकालना

इसके अलावा और भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ

शून्य भाव से आकाश तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता,


बादलों के सुंदर आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते हुए

देखने से भर जाता है मेरा अंतरंग ।

मैं तरोताज़ा हो जाता हूँ, सम्भालता हूँ, समकालीन जीवन की

सामाजिकता को ।

धमनियों से बहता रक्त का ज़बरदस्त रेला,

तेज़ी से फड़फड़ाने वाली धमनी पर उँगली रखना मुझे अच्छा

लगता है ।


जिस रोटी ने मुझे निरंतर सताया,

वह रोटी नहीं कर पाई मुझे पराजित,

मैंने पैदा की है जीवन की आस्था

और लिखे हैं मैंने जीने के शुद्ध-अभंग

मनुष्य क्षण भर को अपना दुख भूले-बिसार दे

कविता की ऐसी पंक्ति लिखने की कोशिश की मैंने हमेशा,

भौतिकता की उँगली पकड़कर मैं चैतन्य के यहाँ गया,

परन्तु वहाँ रमना संभव नहीं था मेरे लिए, उसकी उँगली पकड़

मैं फिर से भौतिकता की ओर ही आया,

अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व के बीच स्थित

बाह्य रेखाओं का अनुभव मैंने किया है,

मैंने अनुभव किया है साक्षात ब्रह्माण्ड

कविता मेरी, बताओ

इससे अधिक क्या हो सकता है

किसी कवि का चरित्र ?


हे मेरी प्रिय कविता

नहीं बसाना है मुझे अलग से कोई द्वीप,

तू चलती रह, आम से आम आदमी की उँगली पकड़

मेरी प्रिय कविते,

जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी

फिर से वहीं आकर रुकना मुझे नहीं पसंद,

मैं लाँघना चाहता हूँ

अपना पुराना क्षितिज ।


(मूल मराठी से सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित)

(कविता कोश से साभार)

Uday Prakash

अलविदा कवि-क्रांतिकारी

नामदेव ढसाल (१५ फरवरी १९४९-१५ जनवरी, २०१४)



''आज हमारा जो भी कुछ है

सब तेरा ही है

यह जीवन और मृत्यु

यह शब्द और यह जीभ

यह सुख और दुख

यह स्वप्न और यथार्थ

यह भूख और प्यास

समस्त पुण्य तेरे ही हैं''

(बाबा साहेब अंबेडकर के लिए लिखी गयी नामदेव ढसाल की कविता के अंश)


''The Self sheds its dead skin in water

Again a growing creeper climbs the new skin

The tree of yearning that begins to burn in the artificial summer /

Beyond them are your sailorly eyes and the lightning flashing in them/

From somewhere in your absece comes the signal

And the sea arrives strolling to the shore.....''

(From Khel, 1983, Trans: Dilip Chitre)

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Dilip C Mandal

नामदेव ढसाल साहब को नमन. वे आजादी के बाद के देश के सबसे शानदार व्यक्तित्वों में से एक हैं. वंचित समूहों के सामाजिक आंदोलनों का ठाट और गौरव आप उनमें देख सकते हैं. उन्होंने सिखाया कि जीत नामुमकिन दिखे तो भी चलो, लड़ते हैं. जीत के लिए न सही, सच के लिए और न्याय के लिए. बाबा साहब के निधन के बाद लंबे सन्नाटे को तोड़ने के लिए दलित पैंथर मूवमेंट की जरूरत थी. ढसाल साहब ने उस जरूरत को पूरा किया और जोरदार तरीके से यह काम किया.


ढसाल साहब की राजनैतिक यात्रा की सीमाओं को लेकर जो लोग इस समय तुच्छ बातें कर रहे हैं, वे ढूंढ लें अपने लिए शुद्ध देसी गाय का घी या 24 कैरेट के अपने नायक और नायिकाएं. आदमी अपनी कमजोरियों के साथ ही महान या जैसा भी है, वैसा होता है. मेरी नजर में ढसाल साहब महान रहेंगे.


सादर नमन ढसाल साहब. आप याद आएंगे.

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Abhiram Mallick

On the occasion of Viswa Ratna Boddhisatwa Baba saheb Dr.Bhimrao Ambedkars Mahaparinirvan Diwas 6th dec.2013. at Angul.Organised by Baba Saheb Ambedkar Foundation.Angul.

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Abhiram Mallick

State level special discussion about Unification of State dalit-Adivasi Organisations at Buddha vihar,Bhubaneswar.

Unlike·  · Share· 18 hours ago·

Amalendu Upadhyaya

मुख्यधारा के किसी भी बड़े चैनल ने देश की इस सबसे बड़ी रैली का लाइव कवरेज नहीं किया वे किसी 'बिन्नी'में व्यस्त थे। यह मीडिया का वह चरित्र है जिसे लेकर क्षेत्रीय दल सवाल उठाते रहते हैं और आज मायावती ने भी उठाया।

हवाई राजनीति करने वालों के लिये सन्देश है मायावती की सावधान रैली

hastakshep.com

दिल्ली में जितने वोटों पर सरकार बन जाती है उससे ज्यादा लोग आज मायावती की लखनऊ की रैली में मौजूद थे अंबरीश कुमार लखनऊ 15 जनवरी। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने आज फिर अपनी वह जमीनी ताकत दिखाई जिसके लिये वे मशहूर हैं। छोटे-मोटे राज्य में जितने वोटों पर सरकार बन जाती है…

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Dalit Mat

बसपा रैली (15 जनवरी) की झलक।

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Dilip C Mandal

नामदेव ढसाल के दम का भारतीय साहित्य में पिछले 50 साल में मुझे तो कोई नजर नहीं आता. बाकी आप लोग ज्ञानी हैं बताएं.

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Faisal Anurag

महेंद्र सिंह ने आदिवासिओं दलितों अल्संख्यकों और समाज के वंचित समूहों के समाजिक आर्थिक इन्साफ के संघर्ष को वर्ग चेतना से लैस झारखंड विरासत को आज के सन्दर्भ में गति दिया। उनकी हत्या के राजनीतक सूत्रधार एक बड़ी पार्टी का राज्य प्रमुख बना दिया गया और पोलिवे अधिकारी रिटायर हो कर मानवाधिकार संगठन के साथ उसी पार्टी का हिसा बना हुआ है। महेन्द्रजी के लिए साम्पर्दायिक फासीवाद एक बड़ा सवाल था ।हम इन ताकतों को ज़मींदोज़ कर ही उन्हें सच्ची श्रधांजलि दे सकते हैं। महेंद्र सिंह की तरह लड़ना होगा ताकि समुन्नत झारखण्ड की लड़ाई मुकाम तक पहुंचे। इसका कोई सरल राह नहीं है ना ही कोई अवसरवादी तरीका।

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Ak Pankaj

पता नहीं कौन इतना भोला है जो वे अभी भी यही कह रहे हैं सूरज सात घोड़ों पर सवार हो धरती की परिक्रमा कर रहा है. दिलचस्प यह भी कि वे खुद को विज्ञान का आधिकारिक विद्यार्थी कहते हैं.


सगीना, लड़ाई सचमुच बहुत मुश्किल है संगी.

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  • गंगा सहाय मीणा, Manish Ranjan and 10 others like this.

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  • Rash Bihari Lalबीरसा मुण्डा को भी हम धरती आबा कहते है !! मतलब हम ऊनहे देव की ऊपाधी देते है ऐसा मेरा बिचार है

  • 58 minutes ago· Like· 1

  • Pramod Sharmaअच्छा, ये घोड़े सात ही क्यों हैं, छ: या आठ क्यों नहीं?

  • 44 minutes ago· Like· 1

  • Ak Pankajसात ऋषि, सात जनम, सात फेरे, सात दिन, सात बहन ... सात घोड़े. पता नहीं कोई संबंध इनका है या नहीं.

  • 41 minutes ago· Like

  • Ak Pankajभाई रास बिहारी धरती आबा का मतलब देव नहीं धरती पिता होता है. धरती का रखवाला जो आदिवासी विश्वास है.

  • 39 minutes ago· Like· 1

Ashok Dusadh

बड़ा दिलचस्प है ब्राह्मणवाद को समझना --

एक ब्राह्मण या भूमिहार (राजपूत कम ही होते है ) कम्युनिष्ट हो जाता है .

एक दलित को जन्मजात कम्युनिष्ट मान लेता है .

ब्राह्मण लाल पीला धागा बंधता है और वर्णवाद का विरोध करने की उसकी न आवश्यकता है न जरूरत .

दलित जब वर्णवाद पर सवाल उठाता है और कहता है आप थोडा साइड घसको हमे आगे आने दो .

ब्राह्मण /भूमिहार कम्युनिष्ट कहता है तुम जातिवादी हो ,हमे जात का सवाल नहीं उठाना चाहिए हम कम्युनिष्ट है .

दलित कहता है की तुम काहे का कम्युनिष्ट जब तुम्हे गैर बराबरी से कोई मतलब ही नहीं

कम्युनिष्ट उस दलित को बदनाम करता है देखो यह कम्युनिष्ट विरोधी है ,मार्क्सवाद का विरोधी है !!


उसी तरह सारे सेठ लोग और खास आदमी आम आदमी हो गए है .

सवाल उठाने पर तुरंत कहेंगे ये देखो यह 'आम आदमी'विरोधी है !!

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Jagadishwar Chaturvedi

कवि नामदेव ढसाल का निधन,उनकी स्मृति में पढ़ें-


मेरी प्रिय कविता / नामदेव ढसाल


मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप...See More

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Ak Pankaj

सगीना महतो की बांहों में जब क्रांतिकारी अमल दम तोड़ रहा होता है तो वह कहता है, 'तुम तो हमारे भाई हो. हमारे जैसे. हम तुम्हारी शहादत बेकार नहीं जाने देंगे. हम सब इस लड़ाई को जारी रखेंगे.'इसके बाद जनांदोलन के साथ गद्दारी और अमल की मौत से गुस्साई जनता छद्म वामपंथी अनिरूद्ध पर टूट पड़ती है.


इस संकल्प के बावजूद भी अगर लोग देश के सगीनाओं यानी आदिवासियों-मूलवासियों और स्त्री सवालों को अस्मितावाद मानते हैं, तो सोचना होगा आखिर वे कौन हैं जो देश के तमाम उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं-अस्मिताओं के साथ एकता नहीं चाहते. किसने रोक रखा है फूले, टंट्या भील, बिरसा मुंडा, फूलो-झानो, भगत सिंह, जतरा टाना और अंबेडकर जैसे लोगों का सपना.

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परसो हमें कुछ कम्प्यूटरों पर अंबेडकर स‌ाहित्य खोजने पर स‌ाइट हैक हो जाने की स‌ूचना मिली थी।इसकी जानकारी तत्काल हमने आनंद तेलतुंबड़े जी को दे दी थी। दलित वायस के हैक हो जाने और अंबेडकर स‌ाहित्यके प्रकाशन में व्यवधान के मद्देनजर यह हमें अत्यंत स‌ंवेदनशील मामला नजर आया।कल हमने रोजनामचा स‌ंवाद नमें इसका जिक्र किया तोादरणीय अशोक बारती जी और अशोक भारती जी ने जानकारी दी कि हमें स‌ावधानी स‌े खोजने की जरुरत है ौर कुछ भी गायब नहीं है।आज भी हमने कुछकंप्यूटर नेटवर्क पर अंबेडकर स‌ाहित्यहासिल करने की कोशिश पर फिर हैकिंग की स‌ूचना के मुखातिब हुए।जबकि मेरे घर ौर दफ्तर के पीसी पर आज दिनभर घर में नेट स‌ेबाहर होने के बाद शाम को अंबेडकर डाटआर्ग खुला।नेटपर बाकी स‌ामग्री जिस अबाध तरीके स‌े खुला ,वैसा अंबेडकर स‌ाहित्य कै स‌ाथ कैसे नहीं है ौर अंबेडकर स‌ाहित्य खोलने के लिए विशे, द&ता की जरुरत क्.ों है।हम आईटी विशेषज्ञ नहीं हैं लेकिन हम विशेषज्ञों की दृष्टि इस ओर खींच रहे हैं कि किसी किसी कंप्यूटर नेटवर्क पर अंबेडकर के हैक हो जाने का तकनीकी मतलब क्या है और ऎसी स‌मस्या स‌े कैसे निपटा जा स‌कता है।

नामदेव ढसाल की राजनीति के संदर्भ में विष्‍णुजी बीबीसी पर लिखते हैं कि ''इस दिग्भ्रमित, नासमझ अवसरवादिता का कोई भी कुप्रभाव उसकी कविता पर सिद्ध नहीं किया जा सकता''।

बड़ी दिलचस्‍प बात है। क्‍या किसी कवि की कविता और राजनीति अविच्छिन्‍न हो सकती है? क्‍या कविता कुछ और हो और राजनीति कुछ और, तो चलेगा? ''...सिद्ध नहीं किया जा सकता''लिखकर क्‍या विष्‍णु खरे यह समझाना चाह रहे हैं कि किसी कवि की राजनीति का प्रभाव उसकी कविता पर अगर ''सिद्ध''न किया जा सके, तो कवि ''चूत्‍या बनाने वाली राजनीति''करने के लिए स्‍वतंत्र है?

Panini AnandAshutosh KumarArvind SheshAnita BhartiAshok DusadhMangalesh DabralRanjit VermaRangnath SinghPrabhat RanjanHareprakash UpadhyayUday PrakashPankaj SrivastavaReyazul HaqueKanwal BhartiRamji YadavPalash Biswas

जनपथ : मूर्खों सावधान, मैं सिंह हूं जो तुम्‍हें आहार बना सकता हूं: विष्‍णु खरे

www.junputh.com

विष्‍णु खरे का इशारा पाणिनी आनंद की वेबसाइट www.pratirodh.com की तरफ था जिस पर उन्‍होंने विष्‍णु जी और मेरी जवाबी चिट्ठी निम्‍न शीर्षक से लगाई है

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  • Reyazul Haque, Ashok Dusadh and 6 others like this.

  • Palash Biswasअभिषेक ,यह मुद्दा अत्यंत गंभीर है।आज नामदेव धसाल पर लिखते हुए लगा कि हम लोगों ने शैलेश मटियानी को भी हिंदुत्व में स‌माहित हो जाने दिया और अपनी जनप&धरता की विरासत कायदे स‌े स‌हेजने की तमीज और तहजीब हमारी नहीं है।हमारे आदरणीय लोग खेमापरस्ती के मुताबिक राय पेंडलुम की तरह बदलते रहते हैं।िस पर अब खुली बहस हो ही जानी चाहिए।मुझे थोड़ा वक्त दो,विस्तार स‌े लिकने वाला हूं।अंबेडकरी मसीहा स‌े कम नुकसान हमें आत्मध्वंसी प्रगतिशील। खेमे स‌े नहीं हुआ ौर इस प्रवृत्ति पर अभी स‌े अंकुश लगाने की जरुरत हैचाहे िससे हमारे मित्र नाराज हों या तमाम आदरणीय।


H L Dusadh Dusadh

23 hours ago·

  • श्रद्धांजलि
  • नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
  • एच एल दुसाध
  • मित्रों!एक माह पूर्व मैंने विश्वकवि नामदेव ढसाल की अस्वस्थ्यता से आपको अवगत कराया था.पहले से ही कई रोगों से जर्जरित ढसाल साहब विगत कुछ माह से बॉम्बे हॉस्पिटल में पड़े-पड़े कैंसर से लड़ रहे थे.किन्तु आज 15 जनवरी की सुबह 4.30 बजे जालिम कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई खत्म हो गयी.मैं दून एक्सप्रेस में सवार कोलकाता से बनारस जा रहा था.सुबह पौने पांच बजे मोबाइल घनघना उठा.गहरी नीद से जगकर जब जेब से मोबाइल निकाला,स्क्रीन पर दलित पैंथर के महासचिव सुरेश केदारे का नाम देखकर कुछ अप्रिय संवाद की आशंका से मैं काँप उठा.मोबाइल ऑन किया तो भाई केदारे ने रोते हुए बताया कि दादा नहीं रहे.मैं स्तब्ध रह गया.१०-१५ मिनटों तक सदमे में रहने के बाद मैंने सबसे पहले पलाश विस्बास,डॉ विजय कुमार त्रिशरण और ललन कुमार को फोन पर सूचना दी.कई और मित्रों को भी फोन लगाया पर गहरी नीद में होने कारण उनका रिस्पोंस नहीं मिला.फिर एक –एक कर बुद्ध सरण हंस,डॉ ,डॉ संजय पासवान,अरुण कुमार त्रिपाठी,वीर भारत तलवार ,सुधीन्द्र कुलकर्णी,अजय नावरिया,शीलबोधि वगैरह को एसएमएस कर दुखद समाचार की सूचना दी.
  • मित्रों अपनी पिछली मुंबई यात्रा के दौरान मैंने संकल्प लिया था कि अगले डेढ़-दो साल में ढसाल साहब की जीवनी पुस्तक के रूप में आपके समक्ष लाऊंगा.अब उनके नहीं रहने पर उनकी बायोग्राफी लिखना और जरुरी हो गया है.अभी तक उनके विषय में जो सूचनाएं संग्रहित कर पाया हूँ उसके आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि धरती के नरक(रेड लाईट एरिया) से निकल कर पूरी दुनिया में ढसाल जैसी कोई विश्व स्तरीय शख्सियत सामने नहीं आई है.दुनिया में एक से एक बड़े लेखक,समाज सुधारक,राजा –महाराजा ,कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया ,वह बेनजीर है.मैंने दो साल पहले 'टैगोर बनाम ढसाल'पुस्तक लिख कर प्रमाणित किया थी कि मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया.दुनिया के दुसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया.किन्तु किसी ने भी ढसाल की तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया.दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दुसरे विश्व –कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से कोई असहमत नहीं हो सकता.इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा.
  • अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को विश्व कवि नामदेव ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर 'दलित पैंथर'जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
  • दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था.उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम दलित पैंथर रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,'इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी.अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.'बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
  • दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया .परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है.'गोल पीठा'पी बी रोड और कमाठीपुरा के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कुवत मुझमे तो नहीं है.
  • ढसाल साहब और उनकी टीम ने सिर्फ साहित्य सृजन ही नहीं बल्कि मैदान में उतर कर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए भी प्रेरित किया.आज हिंदी पट्टी के दलित लेखक अगर मैदान में उतर कर शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं तो उसका बहुलांश श्रेय ढसाल जैसे क्रन्तिकारी पैन्थर को जाता है..
  • दिनांक:15 दिसम्बर,2014 जय भीम-जय भारत-जय ढसाल
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    • You, Dilip C Mandal, Parmeshwar Das, Satyendra Pratap Singh and 36 others like this.

    • Vishram Ram tribute to Let Dhasal .

    • 23 hours ago· Like

    • Satyendra Pratap Singh RIP

    • 23 hours ago· Like

    • Kailash Wankhedeजीवनी लिखकर आप इस कमी को पूरा कीजिये .उनका जीवन संघर्ष सभीके सामने आना जरुरी है .

    • 22 hours ago· Like

    • Firoz Mansuri Keraze Akeedat miss u Namdev Dhasal.jai bhim

    • 21 hours ago· Like

    • Chandra Shekharखबर पढकर गहरी निराशा हुई सर । भगवान उनकी आत्मा को शान्ति देँ । सर आप उनकी बायोग्राफि को पूरा करे

    • 21 hours ago· Like

    • रजक एकता जन चेतनाविनम्र श्रद्धांजली..!!!

    • 20 hours ago· Like· 1

    • Rakesh Yadav Aise mahamanav ko bar bar naman sir unki koi achchhi si akele photo post kare

    • 18 hours ago· Like· 1

    • Ajay Rai dukhad . dalet kranti ke jan nayel ko lal salam

    • 16 hours ago· Like· 1

    • Bhoopendra Bauddhसादर नमन।

    • 15 hours ago· Like· 1

    • Shailendra Mani DALIT KRANTI DOOT KO ASRUPURIT SRIDHANJALI

    • 14 hours ago· Like· 1

    • Ashok Dogra Bhavpurna shradanjali

    • 13 hours ago· Like· 1

    • Palash Biswasदुसाध जी,आपने जो लिखा है,उसपर बहस जारी रहेगी।

    • 11 hours ago· Like· 1

    • Santosh Kumarनामदेव जी नही रहे लेकिन उनका जीवन संघर्ष मानव समाज के मुक्तिकमियों के लिए पथप्रदर्शक सितारे कि तरह चमकता रहेगा ।

    • 6 hours ago· Like· 1

    • Kamlesh Kismat Namdev ji ko bhavbhini shridhanjli.

    • 4 hours ago· Like· 1

    • Mahesh Kumar Rajan HUMEIN UNKE JEEVAN SANGHARSH SE PRERNA LEKAR TATHA MAAN -SAMMAN KI PARWAH KIYE BEENA BAHUJANO KO JAGRIT KAR MANUWAAD SE MUKT KARNA HAI.

    • 3 hours ago· Like· 1

    • Kunjan Kesari shrdha suman arpit bhagwan aatma ko santi de

    • 3 hours ago· Like· 1

    • H L Dusadh Dusadhउनकी जीवनी अवश्य सामने आएगी.मेरा मानना है कि ढसाल साहब में जीवन के जो विविध रंग रहे ,वह अन्ययत्र दुर्लभ है.दुनिया भर में कहावत मशहूर है-कीचड़ में कमल खिलता है.खिलता होगा.किन्तु दुनिया भर में मौजूद छोटे-बड़े पीबीरोड,गोल पीठा,कमाठीपुरा के नरक से ढसाल जैसा सिंगल पीस व्यक्ति ही उभरा जिसने साहित्य,राजनीति,एक्टिविज्म को एक साथ विश्व स्तर पर पहुचाया.लोग कहते हैं मैडोना कचरे दान के अन्न पर बचपन गुजारते हुए शोहरत की बुलंदियों को छुई;विश्व श्रेष्ठ फिल्म नायिका सोफ़िया लोरेन इटली के नेपल्स की स्लम बस्ती से निकल हॉलीवुड को धन्य किया ,माइकल टाइसन एवं अन्य कई लोगों ने भी अपार विषम परिस्थितयों में रहकर बुलंदी हासिल की.किन्तु मैडोना,सोफ़िया,टाइसन इत्यादि एक क्षेत्र विशेष में शीर्ष पर पहुंचे .पर धरती के महानरक से निकले ढसाल ने साहित्य ,राजनीति इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ किया वह सर्वस्व-हाराओं की मुक्ति के लिए था.इसलिए मैं कहता हूँ दुनिया में एक से एक महँ हस्तियाँ आईं किन्तु ढसाल कुदरत द्वारा गढ़े गए सिंगल पीस हस्ती रहे.वह भारत में रविन्द्र नाथ टैगोर से बड़े कवि रहे,जिस समय पूर्वांचल में नक्सलवाद यथास्थितिवादियों के लिए आतंक का सबब था ,पश्चिम भारत में वही असर महज़ २२ साल के युवक ढसाल की व्यवस्था-विध्वंसक परिकल्पना से निकली'दलित पैंथर 'का था .यह दलित पैंथर का असर था की १९३४ में जन्मे बहुजन नायक मा.कांशीराम अपने से १५ साल छोटे ढसाल के नेतृत्व में काम करने से खुद को नहीं रोक पाये.नायपाल जैसा नोबेल पुरस्कार विजेता मुंबई आने पर उस नरक को करीब से देखने लिए जाता था,जहाँ से ढसाल जैसा विश्व-रत्न निकला..जिस देश में रातो-रात अन्ना हजारे ,केजरीवाल इत्यादि को गाँधी-जेपी,राम-कृष्ण बना देने की परम्परा रही उस देश की मीडिया और बुद्धिजीवी कायदे से ढसाल का मुल्यायन किये होते तो ढसाल 'नोबेल पुरस्कार'जीत कर इस देश को धन्य कर गए होते.ढसाल साहब के बहु आयामी व्यक्तित्व को देखते हुए कह सकता हूँ कि नोबेल पुरस्कार किसी योग्यता का सूचक है तो भारत उसके सबसे बड़े पात्र ढसाल और ढसाल ही रहे.नोबेल पुरस्कार विजेता रविन्द्र टैगोर से तुलना करने पर कोई भी मेरी बात से सहमत हो सकता है यह भारत भूमि की बदनसीबी है ढसाल के रूप में उसे एक और नोबेल विजेता बही मिल पाया.देश के बुद्धिजीवियों को इसका प्रायश्चित करने की पहलकदमी करनी चाहिए.

    • 3 hours ago· Like· 1

    • Mahesh Kumar Rajan Bharat ka Media to 100% Manuwadi hai. Is desh mein jo Budhijeevi hain wo Imaandaar nahi Hai. Agar Media Imaandaar hoti to Dhashal sahab ko jaroor Nobel Prize milta.

    • 3 hours ago· Like

    • Palash Biswasदुसाध जी,धसाल के बहाने आप पहले छोटे छोटे मंतव्यों के जरिये आज तक के बहुजन आंदोलन के इतिहास की चीरफाढ़ करें और बहुजन स‌ाहित्य की पूरी विरासत को स‌हेजने का काम कर दें,जिसमें आप ।स‌&म है,तो पुस्तक लेखन स‌े भी बेशकीमती होगा आपका यह अवदान,जिसके जरिये देश जोड़ने की दिसा में हम आगे बढ़ेंगे

    • a few seconds ago· Like

    • Palash Biswasवैसे ापके हर आलेख को हम आपकी इजाजत के बिना अपने ब्लागों में डाल रहे हैं।


  • H L Dusadh Dusadhपलाश दा आप सिर्फ मेरे लेखों को ही नहीं,बहुजन हित में जैसे चाहे वैसे खुद मुझे इस्तेमाल कर सकते हैं.अब तो हमारे महानायक ढसाल नहीं रहे कितु उनका कुछ-कुछ अक्स आप में झलकता है.आप और आपकी पत्नी सविता बिस्वास ,जो मेरे लिए सविता दी हैं,का एक इशारा नायक पूजक दुसाध के लिए आदेश जैसा है,जिसकी अवहेलना नहीं कर सकता.

  • 18 minutes ago· Like· 1

  • Palash Biswasहम मसीहा ,नायक,दूल्हा स‌बकुछ देख चुके हैं।अब उस दुश्चक्र स‌े निकलना है।हमारे लिए हर स‌ाथी का महत्व स‌मान है।हर स‌ाथी का मतामत महत्वपूर्ण है ।सिर्फ हमें ेक दूसरे को उनकी भूमिका निबाहने में मदद करनी चीहिए,जो मैं करने की कोशिस करता हूं।कृपया इसे निर्देश न मानें स‌ंवाद तक स‌ीमितरखें तो मुझे प्रसन्नता होगी।हमाे मूरित तोड़ने का स‌िलसिला अपने आचरण स‌े ही शुरु करना चाहिए।हम मूर्ति बनने की कोशिश न करें तो हम इस दुश्चक्री तिलिस्म स‌े अपने लोगों को निकालन का कोई रास्ता जरुर निकाल स‌केंगे।

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Namdeo Dhasal: A poet of the underbelly by Shougat Dasgupta, LiveMint, First Published: Wed, Jan 15 2014. 07 43 PM IST


http://www.livemint.com/Leisure/vaCEvauD0SFLzImbdc9NLL/Namdeo-Dhasal-A-poet-of-the-underbelly.html


Namdeo Dhasal, the radical poet and founder of the Dalit Panther party, dies of illness at the age of 64


It's not for his politics that Namdeo Dhasal will be remembered. Not perhaps even for the Dalit Panthers. He will remembered for his maverick spirit, for the poetry that writer Kiran Nagarkar says "gives it to you in the solar plexus, leaves you unable to breathe". Dhasal died in Mumbai early on Wednesday morning at the age of 64, losing a long, debilitating struggle with illness. He was fighting colon cancer but also suffered from a rare neuromuscular disease.


Speaking on the phone, Kumar Ketkar, the veteran journalist and former editor-in-chief of the Marathi daily Loksatta, said Dhasal was a "complete rebel; he just wanted to be his own self". Ketkar had known Dhasal from the time the latter was a lodestar of Dalit politics, an uncompromising radical on the verge of founding the Dalit Panthers in 1972, an organization, as is apparent from its name, inspired by the political radicalism of the Black Panthers.


Ketkar spoke of a group of young, educated Dalits who were angered by "miserable lives of Dalits in Mumbai chawls despite the work of (B.R.) Ambedkar." They expressed that anger, that frustration through poetry, through verses given impetus and heat by protest.


"Literature first, politics later," as Ketkar put it, a distinctive but appealing attribute for a political movement.


It's a background that made Dhasal a darling of the Left, a radical icon. But Dhasal was not an easy man to co-opt. His support for prime minister Indira Gandhi during the Emergency and later for the Shiv Sena—he wrote a column for the Shiv Sena's newspaper Saamna, and in Anand Patwardhan's 2011 film Jai Bhim Comrade he is shown sharing a stage with Bal Thackeray—lost him many comrades.


The publisher, S. Anand, said in a phone interview that he would rather "savour (Dhasal's) poetry than his politics". In 2007, Anand's press, Navayana, published a comprehensive anthology of Dhasal's poetry translated by the poet and critic Dilip Chitre.


Anand quotes the last three lines from Speculations on a Shirt, one of the poems published in that volume, as a way to explain Dhasal's expansive, contradictory, sometimes ornery character: A human being shouldn't become so spotless / One should leave a few stains on one's shirt / One should carry on oneself a little bit of sin. Chitre, who died in 2009, wrote in an essay that his friend Dhasal's judgement may have been flawed, that his politics "may have been errant", but that he was "transparent and direct, human and honest".


Ketkar believes Dhasal's politics were misunderstood, that he had not shifted to the right but retained his core allegiances to the disenfranchised, the poor and the radical.


"Essentially," Ketkar says, "the Shiv Sena was a loud and spontaneous movement of anger and protest. Dhasal wasn't moved by the Shiv Sena's ideology but by the fact that most of its members were working class." Even his support for Indira Gandhi during the Emergency, Ketkar says, was because of her land reforms, her willingness to waive loans to villagers.


His politics may have appeared "superficially incoherent, but he did not want to be disconnected from the masses, from their concerns".


There was nothing incoherent about his poetry, about the white heat not of his anger but of his genius. V.S. Naipaul wrote at considerable length about Dhasal in A Million Mutinies Now but, Chitre argued, he had misunderstood Dhasal as a kind of rage poet. As crude as Dhasal reportedly was in speech and manner, he was a profoundly schooled and sophisticated poet. His position was adversarial, his use of the demotic calculated to shock.


It was more than just epater le bourgeois (shock to the middle-class), it was an aesthetic choice.


The critic Ranjit Hoskote said in a phone conversation that Golpitha, his 1973 masterpiece, was "still startling in the manner in which Dhasal creatively profanes language, desacralizes it." Anand describes the same poem as "absolutely breathtaking", as still giving him goosebumps.


Golpitha, of course, is the Mumbai neighbourhood where Dhasal grew up, a rough, red-light district filled with prostitutes and small-time gangsters. His father was a butcher's assistant. Dhasal's formal education was erratic but he was an assiduous autodidact. Ketkar, recalling his meetings with Dhasal "back in 1970 or 1971", describes him as "extraordinarily, sparklingly intelligent. Not everyone was as well read—Herbert Marcuse, Sartre, Camus, Angela Davis... he used to confront upper-caste academics in the colleges with the same books they used to flaunt their intellectualism."


It's not difficult to imagine the kind of charisma Dhasal had, the appeal he must have held for his contemporaries. He was a radical poet in the Beat mould, except it wasn't just a literary pose; he lived his words. Read, for instance, lines from one of the poems in Golpitha: Man you should explode / Yourself to bits to start with / Jive to a savage drum beat... Man, you should keep handy a Rampuri knife / A dagger, an axe, a sword, an iron rod, a hockey stick, a bamboo / You should carry acid bulbs and such things on you / You should be ready to carve out anybody's innards without batting an eyelid". The words are an exhortation, a plea for necessary revolution.


His wife, Malika Sheikh, daughter of the Communist folk-singer and poet Shahir Amar Sheikh, was a partner on that revolutionary road. Theirs was a tempestuous, often troubled marriage. Dhasal was not an easy man. He contained, to borrow from Walt Whitman, multitudes. It is for that complexity, that unrefracted humanity, that he will be remembered.



Social anthropologist Gerald Berreman dies at age 83 By Kathleen Maclay, Media Relations | BERKELEY, January 14, 2014


http://newscenter.berkeley.edu/2014/01/14/social-anthropologist-gerald-berreman-dies-at-age-83/


Gerald D. Berreman, a UC Berkeley emeritus professor of anthropology who was widely recognized for championing socially responsible anthropology and for his work on social inequality in India, died at an elderly care home in El Cerrito, Calif., on Dec. 23 following a long illness. He was 83.


A native of Portland, Ore., Berreman joined the UC Berkeley Department of Anthropology in 1959 as an assistant professor. He retired in 2001 after a distinguished career that featured a 41-year study of caste, gender, class and environment in and around the Indian village of Sirkanda and the urban area of Dehra Dun.


In later work, Berreman explored how lower-caste individuals in Northern India could escape the stigma of belonging to the so-called "untouchable" class. With a lifelong interest in South Asia and the Himalayas, he also worked on environmental and development issues in India and Nepal.


Berreman was known among anthropologists for his campaign to establish an ethics code that said anthropologists' primary responsibility should be to the people they study. He also was an early proponent of transparency in social science research. In the 1970s and '80s, he contributed to efforts that helped debunk a 1970s hoax about the discovery of a Stone Age tribe in the Philippines.


Berreman was an outspoken critic of the Vietnam War and the United States' Cold War entanglements. Related to that, he refused to participate in Peace Corps training for volunteers going to India "because he thought that a nation which was annihilating a people in one country cannot be truly interested in doing good to another," according to Berreman's longtime Indian colleague, the poet and folklorist Ved Prakash Vatuck.


UC Berkeley colleagues recalled that Berreman was profoundly affected by the segregation he witnessed around him and across the South while stationed in Montgomery, Ala., with the U.S. Air Force from 1953 to1955, before the civil rights movement took hold in the 1960s.


"Gerry considered those years decisive with respect to his development of a broadly comparative theory of social inequality that allowed him … to compare caste relations in India, the American South and, by further extension, to South Africa during apartheid," said UC Berkeley anthropologist Nancy Scheper-Hughes, who was Berreman's former graduate student, colleague and friend.


She said his "masterful theoretical and methodological contributions…shaped and transformed generations of Berkeley graduate students, among whom I was extremely lucky and extremely grateful to have been numbered."


Friends, colleagues and students recalled Berreman's "smashing humor," love of travel, and his regular "breakfast club" meetings with friends.


Berreman earned a bachelor's and a master's degree in anthropology from the University of Oregon in 1952 and 1953, respectively. He received his Ph.D. in cultural anthropology from Cornell University in 1959. Berreman spent almost three years in a Ford Foundation Foreign Area Fellowship and also had several Fulbright Fellowships. He received honorary degrees from the University of Stockholm and Garhwal University in India, and taught in Sweden, India and Nepal.


Berreman conducted several studies in Japan and Nepal with his wife, Keiko Yamanka, a lecturer in UC Berkeley's Ethnic Studies Department who researches transnational migration and social transformation in East Asia, primarily in Japan and South Korea.


"Gerry and I traveled together, worked together on research trips, and had lots of fun in the many places we visited," said Yamanka. "I cherish these memories."


In addition to Yamanka, Berreman's survivors include daughters Janet Berreman of Albany, Calif., and Lynn Holzman of Santa Barbara, Calif.; a son, Wayne Berreman of Berkeley, Calif.; eight grandchildren; one great-granddaughter; and a brother, Dwight Berreman of New Jersey.


Memorial donations may be made to Alzheimer's Services of the East Bay, 2320 Channing Way, Berkeley, CA 94704 or at http://www.aseb.org/. A campus memorial will be held later.


RELATED INFORMATION· Click here to see "In Safri's Home," a first-hand account of Berreman's fieldwork in Sirkanda, India, via his own photos and commentary that reflect encounters with a blacksmith named Safri and his family. It was compiled in 2008 for a special Magnes Memory Lab project by UC Berkeley's Magnes Collection of Jewish Art and Life.


यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है

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यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है

यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है


धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति

आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ है कि हमारे सबसे जाँबाज, समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वँस के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं… यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है, मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिन्दी और हिन्दी समाज की त्रासदी है…


पलाश विश्वास

नामदेव धसाल पर लिखे हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख की लिंक बांग्ला विद्वतजनों के ग्रुप गुरुचंडाली में जारी करने पर मुझे चेतावनी दे दी गयी, तो मैं उस ग्रुप से बाहर हो गया। अब इस आलेख के लिये इंटरनेट सर्वर से भी हमारी शिकायत दर्ज कराय़ी गयी।

नामदेव धसाल बेहतरीन कवि ही नहीं हैं, हम उन्हें विश्वकवि तो नहीं कहते न हम ओम प्रकाश बाल्मीकी को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानेंगे और न धसाल को मुक्तिबोध से बड़ा कवि, लेकिन दलित पैंथर आन्दोलन के जरिये अपने कवित्व से बड़ा योगदान धसाल कर गये हैं।

धसाल बना दिये जाने की प्रक्रिया से निकलने को बेताब हिन्दी के एक और बहुजन लेखक एचएल दुसाध जी ने अपनी श्रद्धांजलि में धसाल और दलित पैंथर आन्दोलन का सटीक मूल्याँकन किया है,जिसे हमने पहले ही आपके साथ साझा किया है।

धसाल को हिन्दुत्व में समाहित करने लायक परिस्थितियाँ बनाने का जिम्मेदार अंबेडकरी विचलित आन्दोलन का जितना है, उससे कम प्रगतिशील खेमे का नहीं है।

इसी सिलसिले में शैलेश मटियानी के त्रासद हश्र पर भी विवेचन जरूरी है, जो बाल्मीकि और तमाम मराठी साहित्यकारों से भी पहले दलित आत्मकथ्य लिख रहे थे, जिन्हें कसाई पुत्र होने की हैसियत से लेखक बनने की वजह से मुंबई भाग जाना पड़ा,फिर सुप्रतिष्ठित होने के बावजूद इलाहाबाद की साहित्य बिरादरी में अलगाव में रहना पड़ा।

बहुजनों ने शैलेश मटियानी और उनके साहित्य को जाना नहीं, अपनाया नहीं, पहाड़ चढ़ने की इजाजत भी उस कसाईपुत्र को थी नहीं।

अल्मोड़ा में किंवदंती सरीखा किस्सा प्रचलित है कि किसी सवर्ण लड़की से प्रेम की वजह से वे हमेशा के लिये हिमालय से निष्कासित कर दिया और देवभूमि ने आज तक बाद में उनके हिन्दुत्व में समाहित हो जाने के बाद उनके अतीत के इस कथित दुस्साहस के लिये उन्हें माफ नहीं किया। वे हल्द्वानी में ही स्थगित हो गये।

हमने सत्तर के दशक में देखा, हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी, शैलेश मटियानी की कहानी प्रेतमुक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते थे।

हमसे कभी संवाद की स्थिति में न होने के बावजूद लक्ष्मण सिंह बिष्ट उनके प्रशंसक थे, तो पूरे पहाड़ में तब शायद सन तिहत्तर चौहत्तर में गढ़वाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अलकनंदा के एक शैलेश मटियानी केंद्रित अंक के सिवाय हमें लिखित पढ़त में पहाड़ के लोगों की ओर से शैलेश मटियानी के समर्थन में आज तक कुछ देखने को नहीं मिला।

मेरे सहपाठी प्रिय सहयात्री कपिलेश भोज और हम अचंभित थे पहाड़ में शैलेश मटियानी के सामाजिक साहित्यिक बहिष्कार से जबकि शिवानी की भी पहाड़ में भयानक प्रतिष्ठा थी, है।

प्रगतिशील खेमा ने शैलेश मटियानी जी को कभी नहीं अपनाया और जब अपने बेटे की इलाहाबाद में बम विस्फोट से मृत्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर वे हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह ही हिन्दुत्व में समाहित हो गये, तब शैलेश मटियानी के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को एक सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिन्दी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर ही दिया। शैलेश मटियानी की लेखकीय प्रतिष्ठा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका आखिर मिल गया।

धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि मुकदमा के जरिये आदिविद्रोही शैलेश मटियानी ने हिन्दी के संपादकों,पत्रकारों, आलोचकों, प्रकाशकों और देशभर में उन्हें केन्द्रित हिन्दी और हिन्दी समाज के चहुँमुखी सत्यानाश के लिये प्रतिबद्ध माफिया समाज के खिलाफ महाभियान छेड़ दिया था, जिसका अमोघ परिणाम भी उन्होंने भुगत लिया और ताज्जुब की बात हिन्दी समाज में किसी ने न उफ किया और न आह। अपने ही समाज के सबसे बड़े लेखक को अर्श से फर्श पर पछाड़ दिये जाने की खबर तो खैर भारतीय बहुसंख्य बहुजन समाज को हो ही नहीं सकी है। लावारिस से शैलेश मटियानी की यह प्रेतगति तो होनी ही थी।

धसाल हिन्दुत्व में समाहित थे और गैरप्रासंगिक हैं, ऐसा फतवा देना बहुत सरलतम क्रिया है और इसका वास्तव में न कोई यथार्थ है और न सौंदर्यबोध। लेकिन इससे भी जरुरी सवाल है कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ है कि हमारे सबसे जाँबाज, समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वँस के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं।

यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है, जिसके तहत जनप्रतिबद्ध जनमोर्चे पर आदमकोर बाघों का हमला निरन्तर जारी है। धसाल और मटियानी अतीत में स्वाहा हो गये, अब देखते रहिये कि आगे किसकी बारी है। हमारे ही अपने लोग घात लगाये बैठे होते हैं कि मौका मिले तो रक्तमांस का कोई पिंड हिस्से में आ जाये।

जाहिर है कि शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति असम्भव है। अंबेडकरी बहुजन खेमा तो शायद ही शैलेश मटियानी को जानते होंगे क्योंकि उन्होंने जाति पहचान के तहत न लेखन किया और न जीवन जिया है। वे अस्मिता परिधि को अल्मोड़ा से भागते हुये वहीं छोड़ चुके थे।

विष्णु खरे का धसाल के प्रति जो रवैया है, वह अभिषेक को गरियाते हुए नाम्या को मौकापरस्त करार देने के बाद धसाल की मृत्यु के बाद बीबीसी पर उनके रचनाकर्म के महिमामंडन की अतियों तक विचलित है।

खरे जी हमारे अत्यन्त आदरणीय सम्पादक और कवि हैं, उनका जैसा कवि सम्पादक बनने के लिये मुझे शायद सौ जनम लेना पड़े, लेकिन कहना ही होगा कि मसीहाई हिन्दी के प्रगतिशील साहित्यकार, सम्पादक, आलोचक,प्रकाशक गिरोह किसी को भी जब चाहे तब आसमान पर चढ़ा दें और जब चाहे तब किसी को भी धूल चटा दें

हमारे प्रिय कैंसर पीड़ित कवि मित्र वीरेन डंगवाल और उनके मित्र कवि मंगलेश डबराल की कथा तो आम है कि कैसे उनके खिलाफ निरन्तर एक मुहिम जारी रही है।

लेकिन हिन्दी के तीन शीर्ष कवि त्रिलोचन शास्त्री, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह प्रगति के पैमाने में बार बार चढ़ते उतरते पाये गये हैं।

बाबा तो फकीर थे और उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी। संजोग से बाबा नागार्जुन और हमारे प्रियकवि शलभ श्रीराम सिंह उन इने गिने लोगों में थे जो शैलेश मटियानी के लिखे को जनपक्षधरता के मोर्चे का विलक्षण रचनाकर्म मानते थे।

कोलकाता में एक बार त्रिलोचन जी से पंडित विष्णुकांत शास्त्री के सान्निध्य समेत हमारी करीब पांच छह घंटे बात हुयी थी, तब उन्होंने प्रगतिशाल पैमाने से तीनों बड़े कवियों के प्रगतिशील प्रतिक्रियाशाल बना देने की परिपाटी का खुलासा किया,जिसका निर्मम प्रहार पहले मटियानी और फिर धसाल पर हुआ।

नैनीताल डीएसबी से एमए अंग्रेजी से पास करने पर अंग्रेजी की मैडम मधुलिका दीक्षित और अपने बटरोही जी के कहने पर शोध के लिये हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय निकल पड़े। बटरोही जी साठ के दशक में मटियानी जी के यहाँ रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। तो उन्होंने मुझे सीधे मटियानी जी के घर पहुँचने को कहा।

तदनुसार शेखर पाठक से रेल किराया लेकर हम पहाड़ छोड़कर मैदान के बीहड़ जंगल में कूद गये और सहारनपुर पैसेंजर से सुबह-सुबह प्रयाग स्टेशन पहुँच गये। वहाँ से सीधे शैलेश जी के घर, जिन्होंने तुरन्त मुझे रघुवंश जी के यहाँ भेज दिया।रघुवंश जी और मटियानीजी दोनों चाहते थे कि मैं अंग्रेजी में शोध के बजाय हिन्दी में एमए करुँ।

जिस कमरे में बटरोही जी शैलेश जी के घर ठहरे थे, वह कमरा शायद उनके भतीजे या भांजे का डेरा बन गया था। तब मैं अपना बोरिया बिस्तर उठाकर सीधे सौ, लूकर गंज में इजा की शरण में शेखर जोशी के घर पहुँच गया।

आम पहाड़ियों की आदत के मुताबिक मैंने छूटते ही जैसे मटियानी जी की आलोचना शुरु की तो शेखर दाज्यू ने बस जूता मारने की कसर बाकी छोड़ दी। इतना डाँटा हमें, इतना डाँटा कि हमें पहले तो यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि हर पहाड़ी मटियानी के खिलाफ नहीं है। फिर यह अहसास जागा कि कोई जेनुइन रचनाकार किसी जेनुइन रचनाकार की कितनी इज्जत करता है।

हम लोग मटियानी जी की बजाय हमेशा शेखरदाज्यू को बड़ा कथाकार मानते रहे हैं। लेकिन उस दिन शेखर जोशी जी ने साफ-साफ बता दिया कि हिन्दी में शैलेश मटियानी के होने का मतलब क्या है।

मेरा सौभाग्य है कि मुझे इलाहाबाद में करीब तीन महीने के ठहराव में शैलेश मटियानी और शेखर जी का अभिभावकत्व मिला। मेरे लेखन में भी उनका हमेशा अभिभावकत्व रहा है। तब लूकरगंज से कर्नलगंज मैं अक्सर पैदल चला करता था। विकल्प के विज्ञापन के जुगाड़ में मैं भी मटियानी जी के साथ भटकता रहा हूँ। अमृत प्रभात और लोकवाणी नीलाभ प्रकाशन भी जाता रहा हूँ उनके साथ तो व्हीलर के वहाँ भी। थोड़े पैसे उन्हें मिल जाते थे, तो बेहिचक खाने पर भी बुला लेते थे वे। वह आत्मीयता भुलायी नहीं जा सकती।

लेकिन अंबेडकरी प्रगतिशील दुश्चक्र में मैंने अभी तक इस प्रसंग में कुछ नहीं लिखा था।

आदरणीय खरे जी के सर्कसी करतब से मुझे धसाल प्रसंग में शैलेश जी पर लिखना ही पड़ रहा है,जिनके बारे में धसाल पर बेहतरीन लिखने वाले एचएल दुसाध जी भी नहीं जानते थे कि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और पहचान क्या थी और बहुजन जीवन का कैसा जीवंत दस्तावेज उन्होंने किसी भी दलित साहित्यकार से बेहतर तरीके से पेश किया है। फिर जब उन्होंने धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया, तब भी मैंने उन्हें नजदीक से देखा है। इतने गुस्से में थे कि राजीव गांधी से जुड़ जाने के अभियोग के खंडन के लिये सामने होते धर्मवीर भारती तो उन्हें कच्चा चबा जाते। उनके रोज के संघर्ष, उनके रचनाकर्म के जनपक्ष और उनके पारिवारिक जीवन को बेहद नजदीक से देखने के बाद हम अवाक यह भी देखते गये कि कैसे हिन्दी समाज ने संघी होने के आरोप में उनके आजीवन जीवन संघर्ष, सतत प्रतिबद्धता और दलित जीवन के प्रामाणिक जीवंत रचनाकर्म को एक झटके के साथ खारिज कर दिया लेकिन हमने भी हिन्दी परिवेश की तरह अपने पूर्वग्रह से बाहर निकलकर सच कहने की कोशिश नहीं की, यह मेरे हिस्से का अपराध है।

हम सारे लोग बाल्मीकि को प्रेमचंद से बड़ा साहित्यकार साबित करते रहे, लेकिन बहुजन पक्ष के सबसे बड़े कथाकार को पहचानने की कोशिश ही नहीं की और उनके व्यक्तित्व कृतित्व को हमेशा सवर्ण सत्तावर्गीय दृष्टि से खारिज करते चले गये।

यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है, मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिन्दी और हिन्दी समाज की त्रासदी है।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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