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#AyodhyaBack#Beefgate#Military State हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम ! पलाश विश्वास

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#AyodhyaBack#Beefgate#MilitaryState

हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम !

पलाश विश्वास

हम इसे कतई देख नहीं पा रहे हैं कि भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले और अपनी जान कुर्बान करने वाले हमारे पूर्वजों के सपनों का भारत कैसे ब्रिटिश हुकूमत के औपनिवेशिक दमन उत्पीड़न के मुकाबले समता और न्याय के खिलाफ,नागरिक मानवाधिकारों के खिलाफ,मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ होता जा रहा है।

भारतीय आध्यात्म मानवतावाद को ही धर्म मानता रहा है,जिसमें ज्ञान की खोज को ही मोक्षा का रास्ता माना जाता रहा है और सत्य और अहिंसा के तहत ज्ञान का वहीं खोज भारत की जमीन पर रचे बसे तमाम धर्मों,संप्रदायों और समुदायों का आध्यात्म रहा है,जिसे हम बहुलता और विविधता की संस्कृति कहते हैं।हमारा राष्ट्रवाद इस भारतीय संस्कृति और भारतीयता के इस धर्म,दर्शन और आध्यात्म के भी खिलाफ है।

मुक्तबाजारी समाज में मनुष्यता और प्रकृति की परवाह किसी को नहीं है इसलिए नरसंहार संस्कृति के राजकाज बन जाने और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के सैन्य राष्ट्र से हमारे विवेक में कोई कचोट पैदा नहीं होती।

तकनीक ने बाजार का अनंत विस्तार कर दिया है और क्रयक्षमता के वर्चस्व की तकनीकों ने ज्ञान की खोज और भारतीय दर्शन और आध्यात्म के मनुष्यताबोध को सिरे से खत्म कर दिया है।हम हिंसा,दमन,उत्पीड़न,अन्याय,असमता और नरसंहार की कारपोरेट व्यवस्था को ही विकास और सभ्यता मानते हैं।

ज्ञान और ज्ञान की खोज हमारे लिए बेमतलब हैं और इसी वजह से शिक्षा सिर्फ बाजार और क्रयक्षमता के लिए नालेज इकोनामी का तकनीकी ऐप है।

गाय और राम के नाम अंध राष्ट्रवाद की बुनियाद यही है।

बाबरी विध्वंस का जश्न नये सिरे से शुरु हो गया है।

यूपी के किसी मुख्यमंत्री ने 2002 के बाद पहलीबार अयोध्या पहुंचकर कारसेवा का नये सिरे से शुभारंभ अस्थायी राममंदिर में रामलला के दर्शन और पूजन से शुरु कर दिया है।अयोध्या में मुक्यमंत्री का कारसेवा नोटबंदी का चरमोत्कर्ष है ,जिसके मार्फत उनका राज्याभिषेक हो गया।

गौरतलब है कि यह कारसेवा  बाबरी विध्वंस मामले में लौहपुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी, उमाभारती,विनय कटियार समेत तमाम अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट तैयार हो जाने के तुरंत बाद शुरु हो गयी है।

अभी गोहत्या प्रतिबंध के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण का खेल पूरे शबाब पर है और विकास,सुनहले दिन,मेकिंग इन इंडिया,डिजिटल इंडिया,स्मार्ट बुलेट आधार इंडिया के सारे के सारे कार्यक्रम फिर एकीकृत रामजन्मभूमि आंदोलन में तब्दील है।

राजकाज और अर्थव्यवस्था अब नये सिरे से  हिंदुत्व की राजनीति के राजधर्म निष्णात है।

गायों की हत्या रोकने के लिए दलितों, मुसलमानों, पिछड़ों और सिखों,स्त्रियों और बच्चों तक की हत्या जारी है।

नागरिक और मानवाधिकार गाय के अधिकार में समाहित है और पूरा देश गाय का देश बन गया है जहां मनुष्यों की बलि गायों की सेहत और सुरक्षा के लिए दी जा रही है।

तो दूसरी ओर,आर्यावर्त के इस हिंदुत्ववादी वर्चस्व के खिलाफ दक्षिण भारत में तेजी से द्रविड़नाडु की मांग उठने लगी है जिसे रजनीकांत के भाजपा में शामिल होने या अलग दल बना लेने के गपशप में नजरअंदाज किया जा रहा है।

मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत में गृहयुद्ध के हालात बने हुए हैं और आदिवासी भूगोल से लेकर दलित अस्मिता  के नये राष्ट्र हिंदू राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह पर उतारु हैं।

इसी के मध्य कश्मीर की जनता के खिलाफ भारतीय सेनाध्यक्ष ने औपचारिक युद्ध घोषणा कर दी है।पहले सैन्य अधिकारी को अपनी जीप के समाने किसी मनुष्य को बांधकर उपदर्वियो से निबटने के लिए पुरस्कृत किया गया और उनके करतब पर सारे राष्ट्रभक्त नागिरक बाग बाग हो गये।

फिर भारत के हिंदू राष्ट्र के सेनाध्यक्ष ने साफ साफ शब्दो में कह दिया कि सेना कश्मीर में कश्मीर समस्या के समाधान के लिए तैनात नहीं है बल्कि वे राष्ट्रद्रोही बागी जनता के दमन के लिए काम कर रही है।

गौरतलब है कि मीडिया के मुताबिक कश्मीरमें एक शख्स को जीप पर बांधने वाले मेजर नितिन गोगोई का सेना प्रमुख बिपिन रावत ने समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि घाटी में भारतीय सेना को गंदे खेल का सामना करना पड़ रहा है और इससे अलग तरीके से ही निपटा जा सकता है। पीटीआई से बातचीत में जनरल रावत ने कहा कि मेजर लीतुल गोगोई को सम्मानित करने का मकसद युवा अफसरों का आत्मबल बढ़ाना था। उन्होंने कहा कि इस मामले में कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी चल रही है, लेकिन आतंकवाद प्रभावित राज्यों में मुश्किल हालात में काम कर रही सेना का मनोबल बढ़ाना जरूरी है। उन्होंने सख्त लहजे में कहा कि 'कश्मीरमें चल रहा प्रॉक्सी वॉर बेहद निचले स्तर का है। ऐसे में सेना को भी बचाव के नए-नए तरीके खोजने पड़ेंगे।' जनरल रावत ने कहा, 'जब सैनिकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं, पेट्रोल बम फेंकते हैं, उस वक्त क्या मैं सैनिकों को यह कहूं कि आप चुपचाप सहते रहो और मारे जाओ। मैं तुम्हारे शवों को तिरंगे में लपेट कर इज्जत के साथ तुम्हारे घर भेज दूंगा? सेना के जवानों के मनोबल को ऊंचा रखना मेरी जिम्मेदारी है।

सेनाध्यक्षजनरल बिपिन रावत का कहना है कि अगर सामने खड़ी भीड़ गोलियां चला रही होती तो सेना के लिए मुकाबले का फैसला आसान हो जाता।सलवा जुड़ुम और अल्पसंख्यकों के देशभर में चल रहे फर्जी मुठभेड़ का यही फार्मूला है।सेनाध्यक्ष के कहने का साफ मतलब है कि वे इतंजार कर रहे हैं कि जनता सेना पर गोली चलाये तो सेना इसका जबाव सैन्य तौर तरीके से दे देगी।

लोकतंत्र में एकता और अखंडता जैसे संवेदनशील मुद्दों को सुलझाने की यह रघुकुलरीति भक्तों के लिए जश्न का मौका है।

सेनाध्यक्ष के इस युद्ध घोषणा जैसे मंतव्य से कश्मीर समस्या कितनी सुलझेगी और उससे भी बड़ा सवाल है कि भारतीय सैन्य राष्ट्र को कश्मीर समस्या या देश में कहीं भी जनांदोलन या जनविद्रोह जैसी चुनौतियों से निबटने के इस तरीके का सभ्यता और मनुष्यता,लोकतंत्र और राष्ट्र की सुरक्षा से क्या संबंध है।

भारतीय राजनीति, भारतीय समाज में गोहत्या निषेध के रामभक्त समय में इस पर किसी संवाद या विमर्श की कई गुंजाइश भी शायद नहीं है।

इस सैन्य वक्तव्य के क्या राजनीतिक असर होगें और उसके सैन्य परिणाम कितने भयंकर होंगे ,इस पर बी बोलेने लिखने की शायद कोई इजाजत नहीं है।

कश्मीर शब्द का उच्चारण ही जैसे राष्ट्रद्रोह है। इस मुद्दे पर सेना प्रधान बोल सकते हैं,आम नागरिक अपनी जुबान बंद रखें तो बेहतर।

यह सैन्य राष्ट्र का निर्माण ही हिंदुत्व का चरमोत्कर्ष है और इसराष्ट्र के लिए कश्मीर ही एकमात्र संकट नहीं है।सिर्फ दलित,आदिवासी,पिछड़े,अनार्य,द्रविड़ और तमाम नस्ली समूहों के अलावा मेहनकशों,किसानों और थार्रों युवाओं का भी इस राष्ट्र से मुठभेड़ होने की भारी आशंका है।

इस अनिवार्य टकराव के  लक्षण देश भर में प्रगट होने लगे हैं।

भुखमरी की स्थिति में खाद्य आंदोलन या बेरोजगारी की हालत में मेहनतकशों और छात्रों के विद्रोह के हालात में यह राष्ट्र क्या करेगा,सेनाध्यक्ष के वक्तव्य से शायद उसका भी खुलासा हो गया है।

ऐसे हालात में  हिंदुत्व के कायाकल्प की वजह से मनुस्मृति राज बहाल रखने पर आमादा भारतीय राजनीति के सारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मुलम्मे और कारपोरेट पैकेज शायद बेपर्दा हो जायेंगे।जितनी जल्दी हो,बेहतर होगा।

मौजूदा राष्ट्र का यह सैन्य अवतार हमें इतना गदगदाया हुआ है,राष्ट्र की संरचना इसतरह सिरे से बदल गयी है और राजनीति और राजकाज का जो हिंदुत्व कायाक्लप हो गया है,उसके चलते क हम यह सोच भी नहीं पा रहे हैं कि भविष्य में तेज हो रहे दलित आंदोलन,आदिवासी जनविद्रोह और दक्षिण भारत में जैसे दिल्ली के आधिपात्य के खिलाफ दक्षिण भारत के द्रविड़ अनार्य आत्मसम्मान के द्रविड़नाडु जैसी चुनौतियों के मुकाबले यह राष्ट्रधर्म का सैन्य दमनकारी चरित्र का नतीजा भारत की एकता और अकंडता के लिए कितना खतरनाक होने वाला है।

रामरथ से अवतरित कल्कि अवतार की ताजपोशी के बाद भारत राष्ट्र की संरचना और भारतीय राजनीति के हिंदुत्व कायाकल्प जितना अबाध हुआ है,वह वास्तव में भारतीय संविधान के बदले मनुस्मति विधान के ब्राह्मण धर्म के अंधकार का वृत्तांत है और सामाजिक यथार्थ और उत्पादन संबंध,अर्थव्यवस्थी पवित्र मिथकों के शिकंजे में हैं और विज्ञान विरोधी मानवविरोधी आटोमेशन की तकनीकी शिक्षा हमें इस चस तक पहुंचने नहीं देती।

वोटबैंक के लिए हिंदुत्व और राजकाज में जाति,भाषा,क्षेत्र और नस्ल के आधार पर रंगभेदी नरसंहार का गणित हमारी समझ से बाहर है।शिक्षा का अवसान है तो मनुष्यता का अंत है और सभ्यता गोहत्यानिषेध का रामजन्मभूमि आंदोलन है।

निरंकुश धर्मोन्मादी नस्ली फासिस्ट सत्ता के खिलाफ संसदीय गोलबंदी के तहत हिंदुत्व की राजनीति को हिंदुत्व की राजनीति के तहत मजबूत करने में सत्ता वर्ग का विपक्षी खेमा कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है।

मुक्तबाजारी हिंदुत्व के एकाधिकार वर्चस्व के मनुसमृति विधान लागू करने के लिए कारपोरेट फंडिंग से मुनाफा की शेयरबाजारी राजनीति का बगुला भगत पाखंडी चरित्र रामनाम की तर्ज पर जुमलेबाजी की हवा हवाई मीडियाई मोदियाई तौर तरीके के साथ 1991 से हिंदू राष्ट्र के एजंडे के साथ जिस बेशर्मी से चल रही है,उसका ताजा नजारा यह गोसर्वस्व राम के नाम नया राजसूय यज्ञ आयोजन है।

संसदीय विपक्ष जनता से पूरी तरह अलग थलग कारपोरेट हित में संघ परिवार के नूस्खे पर ही राजनीति कर रहा है और तमाम बुनियादी मुद्दे और सवाल जैसे सिरे से माध्यमों और विधाओं से गायब हैं,उसीतरह राजनीति और समाज में भी उनका कहीं अतापता नहीं है।

बुनियादी और आर्थिक सवालों को हाशिये पर रखकर सत्ता समीकरण के वोटबैंक राजनीति के तहत धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता के नाम पर जानबूझकर संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के गाय और राम के मुद्दे पर पक्ष प्रतिपक्ष की राजनीति और सारा विचार विमर्श सीमाबद्ध है और पीड़ित उत्पीड़ित आवाम की चीखें कहीं दर्ज हो नहीं रही हैं तो दूसरी तरह राष्ट्र का सैन्यीकरण फासिस्ट नस्ली रंगभेदी नरसंहार के एजंडे के तहत मुकम्मल है।

हम अरबों करोड़ों में खल रहे राजनेताओं को इतना डफर नहीं मानते कि वे संघ परिवार के बिछाये जाल में फंसकर राजकाज और राजनय,अर्थव्यवस्था के तमाम मुद्दों,कृषि संकट,कारोबार और उद्योग के सत्यानाश,बेरोजगारी छंटनी,मंदी,भुखमरी और बुनियादी सेवाओं और जरुरतों को क्रयशक्ति से जोड़ने के खिलाफ गोहत्या प्रतिबंध के खिलाफ गोमांस उत्सव जैसे संवेदनशील सांस्कृतिक जोखिम उठाकर अस्सी प्रतिशत से ज्यादा बहुसंख्य जनसंख्या के गाय और राम के नाम हिंदू सैन्य राष्ट्र के पक्ष में ध्रूवीकरण कैसे होने दे रहे हैं या फिर रामजन्मभूमि आंदोलन केतहत जनसंख्या की राजनीति के तहत धारिमिक ध्रवीकरण की संघी रणनीति को कामयाब करने में कोई कोर कसर छोड़ क्यों नहीं रहे हैं।

क्योंकि सिखों के नरसंहार के वक्त  भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के नाम समूची राजनीति कांग्रेस की सत्ता और संघ परिवार के हिंदुत्व के साथ गोलबंद थी।सिखों के सैन्य दमन का भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हिंदुत्ववादी सवर्ण राजनीति का कोई विरोध उसी तरह नहीं किया था जैसे कि भारत के अभिन्न अंग कश्मीर घाटी की बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के खिलाफ युद्ध का कोई विरोध नहीं हो रहा है या मध्य भारत और आदिवासी भूगोल में भारतीय नागरिकों का अबाध कत्लेआम और पूरे देश में दलित और आदिवासी औरतों के साथ बलात्कार और समामूहिक बलात्कार के मुद्दे पर सड़क से संसद तक सन्नाटा पसरा हुआ है या पूर्वोत्तर में नस्ली रंगभेद के चलते वहां जारी नागरिक और मानवाधिकार के सैन्य दमने से हिंदू अंतरात्मा में कोई मानवीय संवेदना की सुनामी पैदा नहीं होती जैसे राम और गोमाता के नाम पर पैदा हो रही है।

यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।

यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।


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Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum! Palash Biswas

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Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum!
Palash Biswas 
It is claimed that Untouchability is not prcticed in Bengal.Bengalies are knwonas progressive,liberal and secular and they claim to be democrat dening any space whatsoever to Dali,OBC and Tribes.The secular and democratic posture is limited to Muslim Vote Bank only using the Muslim demography to sustain caste Hidnu dominance in every spare of life as the truth is exposed by Sacchar commission which ended the 35 years span of Left rule in Bengal.Present CM is also very loud to use the same Muslim demography and playing Hindutva cards on RSS dicated line of Ram,Hanuman puja replicating the Durga and Kali puja politics in vogue hitherto.
Dr.BR Ambedkar or Dalit or Bahujan politics has never been a factor since partition of India and Ambedkirites are micro minority in dalits.Matua movement played a key role to elect Dr.BR Ambedkar to the constituent assembly thanks to the dicsiples of Guruchand Thakur led by Jogendra Nath Mandal And Barrister Mukund Bihari Mallick.
But the constituency  constituted by East Bengal districts of Faridpur,Jaissore and Khulna went to Pakistan and Babasaheb had to be reelected with Congress help and since then he had been out of Bengal Politics as his lieutenant Jogendra Nath Mandal remained in Pakistan.
Most of the Partition victim Dalit refugees and Matus living in Bengal have been Hinduised.While most of theDalit and Matua refugees have been ejected out of Bengal to ensure caste Hindu demographic supremacy to sustain Manusmriti Zamindari rule in Bengal.
In such circumstance,destroying Ambedkar Statue in dalit dominated north Bengal suburban area North dumdum seems quite strange because it has got no political significance as far as HINDU V/S Muslim polarized Vote Bank equation based power politics is concerned.
But Dr Ambedkar represents the identity  as well as existence of Dalits,tribes,OBCs and minorities and the purpose might be detected in the deep rooted caste Hindua Bengali nationalism of hatred and violence against the movement with an objective of equality and justice.
It exposes the liberal,progressive,democrat and secular socity ,politics and nationalism of caste Hindu Hindutva dominant and decicisive.
Pl see the reports:
[31/05 10:59] Bijan Hazra: উত্তর দমদমের পার্কে আম্বেড্করের মূর্তি ভাঙ্গার প্রতিবাদে আগামী রবিবার 4-6-2017 বেলা 2 টোর সময় দূর্গানগর "friends মিশন" এ এক আলোচনা আয়োজন করা হয়েছে , এবং অন্যান্য বিষয়, অনগ্রসর জনজাগরণী মঞ্চের তরফ থেকে সকলকে উপস্থিতি থাকার জন্য আহ্বান জনান হচ্ছে
[31/05 11:03] Bijan Hazra: দুস্কৃতিরা ভেঙ্গেছে !!??? কেমন ধরনের দুস্কৃতি ? যাদের রাগ আম্বেদকরের মূর্তির উপর !! যে আম্বেদকরের জন্য আজ গরীব নীচুতলার ঘরের ছেলেমেয়েরা মাধ্যমিকে সবার থেকে আগে থাকছে !! 
যারা ভেঙ্গেছে তারা তো সামান্য দু টাকার দুস্কৃতি নয় ।
এই দুস্কৃতিদের তাহলে কোথায় পাওয়া যাবে ? 
বস্তিতে না অট্টালিকায় ?

আমরা গুড়িয়ে দেব ওদের ষড়যন্ত্রের হাতঃ
বাবরি মসজিদ ধ্বংসের সময় আরএসএস, বজরংদল, বিশ্ব হিন্দু পরিষদ, সারা ভারত ব্রাহ্মণ সভা প্রভৃতি ৬টি কট্টর মনুবাদী সংগঠন কুম্ভ মেলায় মিলিত হয়ে তাদের আগামী কর্মসূচী নিয়ে একটি গোপন এজেন্ডা প্রকাশ করে। এই গোপন এজেন্ডা থেকে আমরা জানতে পারি যে তারা একটি মহাপ্রলয় মিশন সামনে রেখে ব্রাহ্মণবাদী শক্তির উত্থান ঘটাতে চাইছেন।

এই গোপন এজেন্ডায় তারা জানিয়ে দেয় যে, "অধর্মী আম্বেদকরের জন্য যুক্তিবাদ এবং বুদ্ধ ধর্মের প্রসার আবার শুরু হয়েছে। এই প্রসার বাড়তে থাকলে ভারতবর্ষ থেকে ব্রাহ্মন্যবাদ ধ্বংস হয়ে যাবে। সুতরাং তাদের এক এবং অদ্বিতীয় কর্মসূচী হল আম্বেদকরকে ধ্বংস করা। এই ধ্বংসের ক্রিয়া হিসেবে তারা ন্যায়, অন্যায়, ধর্ম-অধর্ম, অস্ত্রশস্ত্র, ষড়যন্ত্র, হত্যা প্রভৃতিকে হাতিয়ার হিসেবে বেছে নেয় এবং বিজেপি দলকে ক্ষ্মতায় এনে তাদেরকে ঢাল হিসেবে ব্যবহার করার সিদ্ধান্ত নেয়। এরপর শুরু হয়ে যায় রাষ্ট্র জুড়ে আম্বেদকর এবং বুদ্ধের স্টাচ্যু ভেঙ্গে ফেলার কদর্যতা। গত বছর ওরা ভগনা ডিহির বিখ্যাত সিধু-কানু মূর্তিও ভেঙ্গে ফেলেও স্পর্ধা জাহির করে !!!

পশ্চিমবঙ্গের বর্তমান সরকারের আপস এবং অপদার্থতার জন্যই এই জঘন্য শক্তি এখানে মাথা তুলে বিষ ঢালার চেষ্টা শুরু করেছে। শুরু হয়েছে জাতপাতের নামে সামাজিক বয়কট এবং সাম্প্রদায়িক উস্কানী। মমতা ব্যানার্জির আপসের জন্যই এই শয়তানী শক্তি তাদের গোপন এজেন্ডা নিয়ে অনেকটাই এগিয়ে গেছে। আমাদের বুঝতে অসুবিধা নেই যে এই ঘোরতর আম্বেদকর বিরোধী শয়তানরাই গত রবিবার রাতে উত্তর দমদমে নিমতা থানার ৯ নং ওয়ার্ডে স্থাপিত বাবা সাহেব আম্বেদকরের মূর্তি ভেঙ্গে ফেলার স্পর্ধা দেখিয়েছে !!!

এই ঘটনাকে শাক দিয়ে মাছ ঢাকার চেষ্টা করছে বর্তমান শাসক দল। ধিক্কার জানাই এই অপকর্মের।

অবিলম্বে বৃহত্তর কর্মসূচী নিয়ে আমরা এর শেষ দেখে নিতে চাই।
জয় ভীম, জয় ভারত 
জয় ভীম ইন্ডিয়া নেটওয়ার্ক এবং দলিত-বহুজন স্বাধিকার আন্দোলনের পক্ষে 
শরদিন্দু উদ্দীপন

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प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है। पलाश विश्वास

Next: डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है। ईमानदारी और विचा
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प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है।
पलाश विश्वास

केंद्र सरकार के अधीन जांच एजंसियों का हमेशा मजबूत क्षत्रपों की नकेल कसने के काम में राजनीतिक  इस्तेमाल होता रहा है।
पिंजड़े में कैद तोता की उड़ान का राजनैतिक एजंडा का खुलासा बार बार बराबर होता रहा है।रघुकुल रीत है यह।
लालूप्रसाद,मुलायम,ममता से लेकर जयललिता तक हजारों किस्से हैं।
जाहिर सी बात है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है।
लेकिन बंगाल पर कब्जे के लिए नारदा और शारदा प्रकरण में जिस तरह एजंसियों का आरएसएस एजंडा के मुताबिक इस्तेमाल होता रहा है और संसद में कानून बनाने बिगड़ने के कारपोरेट एजंडा में अल्पमत को बहुमत में बदलने या संसदीय सहमति हासिल करने के लिए जो ब्लैकमैलिंग की संस्कृति है,वहां कानून और न्याय जैसे शब्द,निष्पक्षता और जांच जैसे तेवर गोरक्षा के अरब वसंत के धर्मोन्माद की तर्ज पर निरंकुश आपातकालीन फासिज्म के लक्षण हैं।
एनडीटीवी कोई दूध का धुला है,ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।
बल्कि रवीश कुमार के चुने हुए मुद्दों पर बेबाकी के अलावा उसके तमाम अंतर्विरोध जगजाहिर है।राडिया टेप का प्रकऱण याद कर लें।
लेकिन पालतू छी चैनल समूह के मुकाबले इसमें कोई शक नहीं है कि एनडीवी कमोबेश आम जनता के मुद्दों पर अपनी  मौकापरस्ती के बावजूद मुखर रहा है।
 जबकि बाकी मीडिया में सरकार राजसूय यज्ञ और अश्वमेधी नरसंहार नरबलि अभियान का ही खुल्ला य़ुद्धोन्मादी रंगभेदी युद्धोन्माद है।
प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है।
ऐसे में प्रणय राय और बरखादत्त की वजह से हमेशा चर्चित और रवीश की वजह से धेखने लायक एनडीटीवी पर कानून के राज के इस भयंकर जलवे से आपातकाल का अंधकार गहराने लगा है लेकिन जश्न फिर भी मनाया जा रहा है।

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डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है। ईमानदारी और विचा

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डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है।
ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 
पलाश विश्वास

हम लागातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हरित क्रांति के बाद से लगातार गहराते कृषि संकट और मुक्तबाजारी कारपोरेटअर्थव्यवस्था भारत में तमाम समस्याओं की जड़ है।

डिजिटल इंडिया,आधार निराधार,बायोमेट्रिक लेन देन जैसे तकनीकी तिलिस्म में बुनियादी जिन मुद्दों और समस्याओं को हम नजरअंदाज कर रहे हैं,वे मूलतः कृषि और कृषि आजीविका से जुडे रोजगार, कारोबार, उद्योग धंधों और किसानों,मेहनतकशों और कारोबरियों से लेकर युवाओं और स्त्रियों की समस्याएं है।

किसानों की बदहाली और उनकी थोक खुदकशी के अलावा बेरोजगारी ,पर्यावरण संकट,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं,मंदी की तमाम समस्याओं के तार कृषि संकट से जुड़े हैं।जिसे हम भारत की नागरिक की हैसियत से सिरे से नजरअंदाज कर रहे हैं और हमारा सारा विम्ऱस नस्ली रंगभेद के तहत कृषि,जनपद,किसानों और मेहनतकशों,आदिवासियों और स्त्रियों के खिलाफ हैं और मनुस्मृति का हिंदुत्व राजकाज और राजनीति,अर्थ व्यवस्था भी वही है।

हम निजी तौर पर यह समझ नहीं रहे हैं तो कारपोरेट मीडिया या कारपोरेट राजनीति से किस समता और न्याय की उम्मीद कर रहे हैं,समझ लीजिये।

हमने बार बार यह कहा है कि सत्ता वर्ग की कोई जाति नहीं सत्ता वर्ग दरअसल सत्ता वर्ण है।

जाति व्यवस्था के शिकंजे में कृषि,प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े बहुसंख्य आम जनता हैं जो जल जगंल जमीन रोजगार आजीविका ,काम धंधे,गांव देहात से बेदखल आधार नंबर के उपभोक्ता वजूद में समाहित है।

हम एनडीटीवी के कायल नहीं है।
हम प्रणय राय,बरखा दत्ता या रवीश कुमार या राडिया टेप को दूध का धुला नहीं मानते हैं।लेकिन एनडीटीवी पर छापामारी की वारदात की राजनीति को खतरनाक मानते हैं क्योंकि खासकर किसानों और मेहनतकशों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों,स्त्रियों और जाति धर्म निरविशेष आम जनता की समस्याओं और उनकी रोजमर्रे की तकलीफों,उनके दमन उत्पीड़न के खिलाफ कही कोई चीख दर्ज नहीं होती।कारपोरेट मीडिया के अंग होने के बावजूद एनडीवी अपने हिसाब और मौके के हिसाब से कभी कभार इन बुनियादी मुद्दों को उठाता है।

इसीलिए एनडीवी पर हमले का समर्थन दरअसल हिंदुत्वबोध की मानसिकता है।

कानून का राज है तो सबके लिए समान होना चाहिए।कानून के ऊपर कोई नहं होना चाहिए।एन डीटीवी भी कानून के ऊपर नहीं है।लेकिन खुली लूट खसोट के तंत्र में जो एकाधिकार और वर्चस्व के स्टा सुपरस्टार हैं,वे सारे के सारे कानून से ऊपर हैं।

मसलन माल्या लाखों करोड़ का न्यारा वारा करके लंदन में मौज मस्ती कर रहे हैं और कुछ हजार कर्ज के लिए सरकारी एजंसियां,बैंक और सूदखोर किसानों को थोक दरों पर खुदकशी के लिए मजबूर कर रहे हैं।

तो दूसरी तरफ क्रिकेट कैसिनों के काले धंधे को युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का खुल्ला मुनाफा खेल बना दिया गया है, उसके तहत लंदन के कार्निवाल में हमारे तमाम आदरणीय के साथ माल्या नजर आ रहे हैं।

गावस्कर जैसे आइकन के साथ माल्या हैं तो विराट कोहली कीचैरिटी डिनर के भी वे आकर्षण हैं।कानून ऐसे तमाम मामलों में विकलांग है।

अभी अभी रामचंद्र गुहा ने ंबीसीसीआई से इस्तीफा देकर इस कैसिनों की जो अंदरुनी तस्वीरे पेश की हैं और उनसे जुड़े जो राजनीतिक चेहरे अरबपति वर्ग के सुपर सितारे हैं,उनके लिए कानून का राज कहीं नहीं है।

गुहा के लेटर बम पर जाहिर है कि कोई कार्रवाई नहीं हुई और न होने के आसार हैं,लेकिन निजी तौर पर सत्तर के दशक से नैनीताल समाचार और पहाड़ से जुड़े इस इतिहासकार के काजल की कोठरी से बेदाग निकालने पर हमें राहत महसूस हुई  है।

बाकी लोग ईमानदार हैं तो खामोश होकर वहां बने क्यों हुए हैं ,यह कानूनी सवाल से बड़ा नैतिका का सवाल है।

ईमानदारी मौकापरस्त है और सापेक्षिक भी तो इस सिलसिले में हम वस्तुगत दृष्टि से सामाजिक,राजनीति,आर्थिक और ऐतिहासिक संदर्भों का भी ख्याल रखें तो बेहतर है।

प्रधान संवयंसेवक की राजनीति और लोकप्रियता को देश विदेश में प्रायोजित करने वाले अदानी समूह पर 72 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है तो तमाम सेक्टर जिसमें रक्षा और परमाणु ऊर्जा, बैंकिंग बीमा,बिजली,संचार जैसे सेक्टर ,तेल गैस पेट्रोलियम,कोयला,इस्पात से लेकर शिक्षा चिकित्सा तक जिन चुनिंदा कारपोरेट कंपनियों का एकाधिकार बन गया है, उनके खिलाफ लाखों करोड़ के घोटाले हैं लेकिन उनपर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है।

ताजा वाकया बायोमेट्रिक लेनदेन और आधार लिंकिंग के जरिये मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ने के नाम पर पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलने के लिए मजबूर करना है।

आधार लिंक करने के लिए पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलकर बायोमेट्रिक असुरक्षित लेन देन का जोखिम उछाने के लिए नागरिक मजबूर हैं क्योंकि सारी सेवाएं मोबाइल सिम से जुडी़ हैं।

सिम से आधार नत्थी अनिवार्य  कर दिया गया है तो सिम बचाने के लिए पेमेंट बैंक का ग्राहक करोड़ों के तादाद में हो रहे हैं और आधार की आड़ में लाखों करोड़ की पूंजी बाजार और सरकार से ऐठने का यह खेल कानून के ऊपर है और इस रोकने के लिए किसी भी स्तर पर कोई न्यायिक पहल या सक्रियता  का सवाल भी नहीं उठता।

ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुली अवमानना हो रही है तो सुप्रीम कोर्ट और कानून का राज खामोश हैं।मीडिया और राजनीति की सेहत पर असर नहीं।

इधर पीड़ित पत्रकारों  का पक्ष रखते हुए हमारे भड़ासिया मित्र ने मीडिया में आटोमेशन और छंटनी के अलावा तमाम घोटालों का जो सच पेश किया है, गौरतलब है कि इन तमाम मामलों में भी आटोमेशन के नरसंहार पर रोक के लिए कोई पक्ष नहीं खड़ा हो रहा है।

मीडिया में शत प्रतिशत आटोमेशन और थोकसंस्कृति का माहौल है तो कौन बचा है मीडिया में जो जनसुनवाई के लिए मरेगा खपेगा,बताइये।

वहां सुप्रीम कोर्ट की देखरेख के बावजूद पत्रकारों गैर पत्रकारों के   वेतनमान से लेकर उनकी कार्यस्थितियों पर न सुप्रीम कोर्ट, न श्रम विभाग की और न किसी सरकारी एजंसी की कोई नजरदारी है।

वेतन के एरियर पर इनकाम टैक्स लगाकर वेतन में एरियर को न जोड़कर पीएफ की देय रकम की डकैती तो खुलकर हुई है,जो प्रोमोशन नये वेतनमान के साथ देने थे,कहीं नहीं दिये गये हैं।

ठेकेवाले पत्रकारों गैरपत्रकारों  के लिए कोई सिफारिश लागू नहीं की गयी है और दर्जनों संस्करण आटोमेशन के बिना ख्रच विज्ञापन बटोरु पेड न्यूज के खुल्ला खेल फर्रुखाबादी के बावजूद अखबारों की श्रेणी तय करने में मर्जी माफिक जो घोटाले हुए हैं,इन तमाम मामलों में कानून का राज कहीं बहाल नहीं हुआ है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के चमकदार चेहरों के अलावा खुल्ला जो शोषण दमन उत्पीड़न है,उसके लिए कहीं सुनवाई नहीं है।

एनडीटीवी भी इस पाप से बरी नहीं है।लेकिन जिस डिजिटल इंडिया के आटोमेशन और नरसंहार संस्कृति के तहत यह सबकुछ हो रहा है,उसके लिए मीिडिया पर जो फासिस्ट हमला है,उसे हम मीडिया मालिकान और कुछ बेईमान लोगों की वजह से जायज नहीं मान सकते।

सारी बहस,सारी राजनीति  गोरक्षा और राममंदिर एजंडे के हिंदुत्व के तहत हो रही है और इस हिंतुत्व राजनीति में हर पक्ष क लोग समान रुप से आम जनता के खिलाफ लामबंद हैं।

लोकतंत्र सिरे से खत्म है और सारा देश मृत्यु उपत्यका है।

हम इन दिनों विक्टोरियन अंग्रेजी में एक अत्यंत जटिल दस्तावेज का हिंदी अनुवाद कर रहे हैं।

1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हक हकूक पर शरत चंद्र दास ने यह दस्तावेज दलितों की तरह आदिवासियों को भी अल्पसंख्यक मानकर राजनीतिक आर्थिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आरक्षण देने की मांग लेकर लिखा था ,जिसमें आदिवासियों के अलगाव का खुल्ला विरोध उन्होंने किया है और विकसित समुदायों की तुलना में आदिवासियों की हर क्षेत्र में तरक्की के त्थयपेश करते हुए उन्हें पिछड़ा मानेन के नस्ली  रंगभेद का जमकर विरोध करते हुए आदिवासी अस्मिता की सही तस्वीर पेश की है।

गौरतलब है कि पूना समझौते तके तहत दलितों को संरक्षण मिला था और आदिवासियों को नहीं मिला था।

आदिवासियों के आजाद भारत के संविधान के तहत संरक्षण मिला है लेकिन आदिवासियों का अलगाव,दमन उत्पीड़न अभी खत्म नहीं हुआ है।

सिर्फ आदिवासी हीं नहीं, संरक्षण के बावजूद दलितों,पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के खिलाफ नरसंहार बलात्कार अभियान जारी है और पीड़ित उत्पीड़ित आम जनता खेती और देहात से जुड़े हैं या फिर मेहनतकश हैं।


डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।

इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर माकाट करती आम जनता भी है।
शरत चंद्र राय ने 1936 में जो लिखा है,वह आज भी सच है।मसलनः

आदिवासियों के साथ हमारी तमाम पेशागत सहानुभूति के बावजूद बेहद शर्मिंदगी के साथ हमें इसे मानना होगा कि  जब कभी हितों के टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है,तब आदिवासियों को देशवासियों की सहानुभूति बहुत कम मिल पाती है।उन्हें अपनी ही ताकत और सरकारी सक्रिय सहानुभूति और मदद पर जीना होता है।


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M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away

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M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away
Palash Biswas
I am just stunned as this news breaks in:
Arun Khote
11 hrs · Lucknow · 
M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away just a hr. before !
I have been aware of His Dalit Panchayat experiment and I visited rural karnatak Dalit areas twice once alone and later accompanied by Sabita.Raj associated by his elegant wife Jyothi and brillint daughter Archan had been working for long with his own ideology of dalit emancipation and most of our friends countrywide realized the need to replicate his Dalit format of emancipation.
Raj used Black Tika and dress as his followers do.
Raj also introduced Dalit as religion and I met severl people who converted to Dalit religion.
He was leading a campaign for propertional representation as election reform for decades>it always has been academic and he worked like a research student life long.
Raj is known of his works in Kannad and English and he wrote books like Daliocracy and Dalitology.
Let us stand with Jyothi and sArchana along with his followers and frioends in mourning!

To undersatnd Raj and his work,this write up by him should be realevant.

Whither Dalit Liberation???

M C Raj

Is the Una event an eye opener? There is nothing in the rhetoric of the Una struggle. However, it is a pointer to the recent awakening and upsurge of Dalit energy in the country. It is no big event to gloat about by Adijans (Dalits) across the country. Jignesh Mevani is taking recourse to a beaten track and offers only a nuisance value to the ruling caste. His approach will propel him as a new Adijan leader, and the story will end there. He will become part of the galaxy of Dalit leaders who have disappeared in the same speed that they appeared. We have seen it happening repeatedly. Much of his public statements have only the traditional rhetoric value and do not bear any substantial forays into a new arena of building up people.
Having said this, I must appreciate the new spirit of resistance that has emerged in Una and the strength of the resistance that people have manifested. It's inevitable that one or other leader appears in such a situation. The funny thing is that Dalit leaders all over the country also indulge in such usual rhetoric and are not serious about the future of Adijan liberation. It is sad. The new spirit of resistance that has emerged in the recent past needs to take care of a few fundamental realities in Dalit liberation.
Dalit oppression in India is too long in history. Historians date it back to 3000-4000 years. It's going to be a Himalayan task for any leader to converge a people by presenting a history of this long duration. Not only people's memory is short but also given the ban on education for Dalits they will not even grasp the enormity of the oppression. A new method of educating the Adijans on their history is of paramount importance. It cannot be done through the formal education institutions that are entirely controlled by caste forces. Intensive community education has to be initiated and implemented through a voluntary force. Groups of committed young people have to be identified and trained intensively on Adijan history. Such a history lays buried in the history of Hinduism, in its scriptures, and within the oral traditions of the Adijan communities. They need to be unearthed by Adijan scholars, and new interpretative literature has to be created at the earliest.
Dalit oppression is systemic and structural. It is not whimsical. It is an irony that Adijan leadership operates within the parameters of the same caste system that oppresses them. The solution has to be outside of the system that oppresses them and not within the system. Any struggle within the system will only lead to compromise at different levels. If demands are made for better rights within the system, marginal benefits will surely accrue. The caste system will happily indulge in tinkering with the system to blunt resistance. Adijans must ever be alert on this shenanigan. A systemic and structural oppression cannot be tackled with mere rhetoric from the Adijan leadership.
If caste system and its offspring have to be dealt with appropriately, there needs to be an alternative system that can effectively take it on. Such systems and structures are a far cry in the Adijan communities because of millennia old co-option technology unleashed on them by the caste forces. Such technology has been so successful that even educated Adijan leaders don't give a damn for regenerating the latent internal governance systems of the communities. It's a tragedy that the leadership does not recognize the existence of the community's inner strength based on its cultural values.
I must add that the Adijan culture is loaded with multiple values. It is not uniform nor is it uni-focal. It is the beauty of the Adijan culture that it is open to differences and is very inclusive. The caste system is inherently exclusive. Adijan system is inherently inclusive. The difference is that caste forces have developed discourses of inclusiveness to camouflage their exclusive system effectively. To take the Adijan system to the mainstream, the Adijan leadership should immediately give it formal structures that can stand above oppressive systems and structures.
The development of Adijan systems and structures cannot immediately be started at the national level. It has to start at the level of the community with mechanisms of internal governance. For example, promotion of Adijan festivals to replace some festivals of Hinduism that are direct insults on the Adijan ancestors can be a starting point. The Adijan leadership should also provide alternative festival to the community so that they are not left empty without anything to fall back. Such festivals should revive the celebratory dimension of the Adijan community.
Conflict resolution can quickly become an internal affair of Adijan leadership instead of running to the caste leadership for resolution of even family disputes. Selection of beneficiaries under various development schemes of the governments can be made at the level of the community instead of the caste forces selecting their Adijan agents as beneficiaries.
During panchayat elections, the community must be enabled to choose their contesting candidates. Mechanisms of preventing the caste forces having a field day in the selection of SC/ST candidates as contestants must be ingrained in the community ethos. A certain level of discipline must be enforced within the community so that egotistic individuals may abide by the decision of the community. Such disciplinary measures will be required in the beginning stages of internal governance.
Measures of internal governance of Adijan communities with its systems and structures will aim at strengthening the community for effective and impactful participation in the instruments and mechanisms of national governance. Such participation will prove to the rulers that Adijan community aims at inclusion and equality based on the Constitution of India. For Adijans and minorities, the constitution is the ultimate refuge, provided it is implemented both in letter and spirit.
Constitution is a structural mechanism that has virtually become the handmaid of caste forces, and if it has to be made impactful for all citizens, all oppressed communities must pool their resources and work for its effective implementation. Indulging in egocentric rhetoric will not take the Adijans anywhere near liberation. If the constitution has to work for the excluded individuals and communities in India, Adijan inner strength has to be consolidated through internal governance structures.
None of the suggestions mentioned above will work if there is no concerted and disciplined intellectual development in the Adijan leadership. Such a development will not come merely through reservation and demanding benefits from the government.

Aborigines of Chhota Nagpur and the father of Indian Ethnogarphy, Sarat Chandra Roy Palash Biswas

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Aborigines of Chhota Nagpur and the father of Indian Ethnogarphy, Sarat Chandra Roy

Palash Biswas


I am very happy to translate a very important document on Aborigines of Chhota Nagpur written by Late Sarat Chandra Roy,the Father of Indian Ethnography.

It is very important to know the Ethno History of Segregation of tribal India and the impact of Pune pact which deprived the tribal people of minority rights and enclosed them into excluded or semi excluded areas to subject them to eternal ethnic cleansing and the war waged against the tribes by Indian State never to end.

The Document exposed the impact and implications of Pune pact,the basis of Political reserevation which also divided the Bahujan Samaj namely the segregated tribal people and depressed classes.

Since Pune pact was signed after enactment of Government of India Act,1919 enactment rest of India never did understand Tribal identity,culture,society and psyche which undermined the landed rights of the people on Jal Jangal Jameen.

It is the basic and fundamental root of the great Indian Agrarian crisis crisis and the unabated genocide culture against humanity and nature.

It was very tough to translate because I had to look for exact meaning of ethnic and legal terms in reference to the historical background and colonial governance.I tried my best to avoid Tatsam Hindi to communicate with the Adivasi Bhugol.
I hope ,every one would care to read this very sensitive document in Hindi once published.

At the same time, we have to know Late Sarat Chandra Roy,born in Khulna in east Bengal, who worked for the emancipation and development of tribal India and died in Ranchi.
Sarat Chandra Roy
From Wikipedia, the free encyclopedia
Sarat Chandra Roy
Born 1871
Karapara, Khulna district, East Bengal, British India
Died 1942
Ranchi, Bihar, British india
Nationality Indian
Other names S.C. Roy
Occupation Lawyer, ethnographer, cultural anthropologist, lecturer, reader
Known for Ethnography
Sarat Chandra Roy (1871–1942) was a Bengali speaking Indian scholar of anthropology. He is widely regarded as the father of Indian ethnography, the first Indian ethnographer, and as the first Indian anthropologist.[1]

Contents [hide]
1 Early life
2 Career in anthropology
3 Works
3.1 Books and monographs
3.2 Journal contributions
4 Recognition
5 See also
6 References
Early life[edit]
Born in November 4, 1871 to Purna Chandra Roy, a member of the Bengal Judicial Service, in a village in Khulna district (now in Bangladesh), young Sarat came in contact with tribal people after his father was posted in Purulia. After his father's death in 1885, he was educated at his maternal uncle's home in Calcutta. In 1892, he graduated in English literature from the General Assembly's Institution (now Scottish Church College). He earned a postgraduate degree in English from the same institution, and subsequently studied law at the Ripon College (now Surendranath College). He had worked for some time as a headmaster at the Mymensingh High School, and later as a principal at the GEL Mission High School in Ranchi. In Ranchi, he became aware of the plight of the tribals. He left teaching and started practicing as a lawyer and became a pleader in the district court in the 24 Parganas in Calcutta in 1897. A year later he moved to Ranchi, where he practiced at the court of the judicial commissioner in Ranchi.[2]

Career in anthropology[edit]
His interest into the plight of the "tribal" people developed in the course of his visits as a lawyer, in the interior areas of the Chota Nagpur Division. He was deeply moved by the plight of the Munda, Oraon and other tribal groups, who were subjected to the continued oppression by an apathetic colonial administration, and by a general contempt towards them in courts of law, as "upper-caste" Hindu lawyers had little knowledge of their customs, religions, customary laws and languages. Keeping all this in perspective, he decided to spend years and decades among tribal folks to study their languages, conduct ethnography, and interpret their customs, practices, religion and laws for the benefit of humanity, and also for the established system of colonial civil jurisprudence. In so doing, he wrote pioneering monographs, that would set the ground for broader understanding and future research. Thus although he was not formally trained in either ethnology or anthropology, he is regarded the first Indian ethnologist, or ethnographer or an Indian anthropologist.[3]

In his later years, he spent his time editing Man in India and in other journals, writing and lecturing at the newly established anthropology department at the University of Calcutta, and serving as a reader at Patna University.[4]

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बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले! अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज! पलाश विश्वास

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बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले!

अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज!

पलाश विश्वास

 

दार्जिलिंग फिर जल रहा है और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा  ने शुक्रवार को दार्जिलिंग बंद का आह्वान किया है और पर्यटकों से भी दार्जिलिंग छोड़ने को कहा गया है।इसी के तहत बंगाल सरकार मुख्यमंत्री की अगुवाई में पहाड़ से पर्यटकों को युद्ध स्तर पर सकुशल निकालने में लगी है और दार्जिलिंग में सेना का फ्लैग मार्च हिंसा और आगजनी की वारदातों के बीच जारी है।अस्सी के दशक में दार्जिलिंग में पर्यटन आंदोलन और हिंसा  की वजह पूरी तरह ठप हो गया था।उस घाये सो लोग अभी उबर भी नहीं सके हैं कि नये सिरे से यह राजनीतिक उपद्रव शुरु हो गया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंगमें 43 वर्ष बाद किसी मुख्यमंत्री के रुप में ममता बनर्जी मंत्रियों के साथ कैबिनेट मीटिंग कर रही थीं।जबकि भाषा के सवाल पर यह हिंसा भड़क उठी।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से निर्वाचितभाजपा  सांसद और केंद्रीय मंत्री एसएस अहलूवालिया ने इस हालात के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। 'बांग्ला थोप रही हैं ममता बनर्जी' एक टीवी चैनल से खास बातचीत में अहलूवालिया ने कहा कि ममता बनर्जी गलत ढंग से बांग्ला भाषा को लोगों पर थोप रही हैं। उनका आरोप है कि यह फैसला पश्चिम बंगाल की कैबिनेट में पारित नहीं हुआ।

भारत आजाद होने के बावजूद लोक गणराज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत राजकाज चलाने की बजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनके सैन्य दमन की परंपरा चल रही है।

कश्मीर में, मध्य भारत में और समूचे पूर्वोत्तर में राजकाज इसी तरह सलवा जुडुम में तब्दील है।पृथक उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इसी तरह आंदोलनकारियों की हत्या और स्त्रियों से बलात्कार की वारदातों का राजकाज हमने देखा है।

आदिवासियों को बाकी जनता से अलग थलग रखकर उनका सैन्य दमन जिस तरह अंग्रेजों का राजकाज रहा है,नई दिल्ली की सरकार और बाकी सरकारों का राजकाज भी वही है।

बंगाल के दार्जिलिंग पहाड़ों में कोलकाता के राजकाज का अंदाज भी वहीं है।

पहाड़ के जनसमुदायों को अलग अलग बांटकर,उन्हें अलग थलग करके उन्ही के बीच अपनी पसंद का नेतृत्व तैयार करके वहां सत्ता वर्चस्व बहाल रखने का राजनीतिक खेल बेलगाम जारी है।

अस्सी के दशक में सुबास घीसिंग के मार्फत जो राजनीति चल रही थी,बंगाल में वाम अवसान के बाद विमल गुरुंग के मार्फत वहीं राजनीति चल रही है।जिसमें केंद्र और राज्य के सत्ता दलों के परस्परविरोधी हितों का टकराव हालात और पेचीदा बना रहा है।

गोरखा अल्पसंख्यकों पर ऐच्छिक विषय के रुप में बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले है।वहां अमन चैन और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी सेना की है।गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने बिना किसी चेतावनी के उग्र आंदोलन शुरु कर दिया है और पूरे पहाड़ से पर्यटक अनिश्चितकाल तक फंस जाने के डर से नीचे भागने लगे हैं।

बंगाल में सत्तादल के मुताबिक यह वारदात संघ परिवार की योजना के तहत हुई है,जिससे पहाड़ को फिर अशांत करके बंगाल के एक और विभाजन की तैयारी है।

गौरतलब है कि बुधवार को दार्जिंलिंग में हिंसा भड़कने के ठीक एक दिन पहले बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के साथ बैठक की थी।हालांकि भाजपा ने इस आरोप से सिरे से इंकार किया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थन से हुई है और तबसे लेकर विमल गुरुंग से दीदी और उनकी पार्टी के समीकरण काफी बिगड़ गये हैं।

गोरखा नेता मदन तमांग की हत्या के मामले में विमल और उनके साथी अभियुक्त हैं तो गोरखा परिषद के बाद दीदी ने लेप्चा और तमांग परिषद अलग से बनाकर गोरखा परिषद की ताकत घटाने की कोशिश की है।

हाल में शांता क्षेत्री को राज्यसभा भेजने का फैसला करके गुरुंग से सीधा टकराव ही मोल नहीं लिया दीदी ने बल्कि पहाड़ पर राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए वहां मंत्रिमंडल की बैठक भी बुला कर गुरुंग को खुली चुनौती दी।

जिसके जवाब में यह भाषा आंदोलन शुरु हो गया है,जिससे पहाड़ में लंबे अरसे तक हालात सामान्य होने के आसार नहीं हैं।दरअसल भाषा का सवाल एक बहाना है,स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिये पहाड़ में तृणमूल कांग्रेस की घुष पैठ के खिलाफ करीब महीने भर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रदर्श आंदोलन जारी है।तो दीदी भी इसकी परवाह किये बिना पहाड़ पर अपना वर्चस्व कायम करने पर आमादा है।बाकी राज्य में भी उनकी यही निरंकुश राजनीतिक शैली है,जिसके तहत वह विपक्षा का नामोनिशन मिटा देने के लिए विकास और अनुदान के साथ साथ शक्ति पर्दशन करके विपक्षी राजनीतिक ताकत को मिट्टी में मिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भाषा का मुद्दा अचानक तब मिल गया जबकि पिछले  16 मई को दीदी के खास सिपाहसालार राज्य के शिक्षा मंत्री ने घोषणा कर दी  कि आईसीएसई और सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों सहित राज्य के सभी स्कूलों में छात्रों का बांग्ला भाषा सीखना अनिवार्य किया जाएगा।

शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा कि अब से छात्रों के लिए स्कूलों में बांग्ला भाषा  सीखना अनिवार्य होगाष हालांकि ममता बनर्जी ने साफ किया कहा है कि बांग्ला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य विषय नहीं बनाया गया है।लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए गोरखा अस्मिता के तहत ऐच्छिक भाषा बतौर भी बांग्ला मंजूर नहीं है।

दरअसल दीदी का वह ट्वीट गोरखा जनमुक्ति के महीनेभर के आंदोलन के लिए ईंधन का काम कर गया जिसमें उन्होंने लिखा  कि दशकों बाद इस क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत हुई है। तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में पहली बार पहाड़ी क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के एक दशक लंबे एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

स्थानीय निकायों के नतीजे पर इस खुली युद्ध घोषणा के बाद पूरी मंत्रिमंडल के साथ दार्जिलिंग में दीदी की बैठक को गोरखा अस्मिता पर हमला बताने और समझाने में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को कोई दिक्कत नहीं हुई।

इसी बीच बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमिटी के सुप्रीमो डॉ मुकुंद मजूमदार ने एक विवास्पद बयान देकर हिंसा को बढ़ाने में आग में घी का काम किया। उन्होंने कहा बंगाल में रहना है तो बांग्ला सीखना और बोलना होगा। बांग्ला भाषा व संस्कृति को अपनाना होगा।

कल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक की थी और इस बैठक में सारे मंत्री और पुलिस प्रशासन के तमाम अफसर मौजूद थे।पहाड़ में नये सचिवालय बनाने के सिलसिले में यह बैठक राजभवन में हो रही थी कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं और समर्थकों ने मुख्यमंत्री और समूुचे मंत्रिमंडल का घेराव करके पंद्रह बीस गाड़ियों में आग लगी दी और भारी पथराव शुरु कर दिया।

उग्र भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसूगैस के गोले भी छोड़ने पड़े।फिर इस अभूतपूर्व घेराव और हिंसा के मद्देनजर सेना बुला ली गयी।

सुबह तड़के सारे मंत्रियों को सुरक्षित सिलीगुड़ी ले जाया गया हालांकि दीदी अभी दार्जिलिंग में हैं और आज भी आगजनी और हिंसा के साथ बारह घंटे के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बंद के मध्य दीदी ने हालात सामान्य बनने तक दार्जिलिंग में ही रहने का ऐलान कर दिया है।

स्थानीय जनता की रोजमर्रे की तकलीफों, उनकी रोजी रोटी और उनके लिए अमन चैन सरकार,पुलिस प्रशासन और राजनीति के लिए किसी सरदर्द का सबब नहीं है। पर्यटकों को सुरक्षित पहाड़ों के बारुदी सुरंगों से निकालने की कवायद चल रही है। ताकि नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनसे निबट लिया जाय।हूबहू सलवाजुड़ुम राजकाज की तरह।

 

 


Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!আবার গোরখাল্যান্ড আন্দোলন,আগুন জ্বলছে পাহাড়ে আগ্রাসি ক্ষমতা দখলের রাজনীতিতে! Palash Biswas

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Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!আবার গোরখাল্যান্ড আন্দোলন,আগুন জ্বলছে পাহাড়ে আগ্রাসি ক্ষমতা দখলের রাজনীতিতে! 

Palash Biswas
https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1747653288596406/?l=3075488592590064234

GJM calls indefinite shutdown from Monday demanding separate 'Gorkhaland' state

The Mamata Banerjee-led government's decision to make Bengali mandatory up to class 10 had triggered the present round of movement.

মাতৃভাষা রক্ষা করার জন্য মাতৃভাষার শিক্ষা অনিবার্যকরে মাতৃভাষাকে রক্ষা করা যায় না,যদিন না মাতৃভাষার মাধ্যমে জীবিকা ও চাকরির ব্যবস্থা হয়
উগ্র জাতীয়তাবাদে বাংলা আবার ভাগ হওয়ার রাস্তায়,যারা বাংলা দখল করার জন্যগৌরিক পতাকা নিয়ে দাপিযে বেড়াচ্ছে,তাঁরাই কিন্তু ইতিপূর্বে উত্তর প্রদেশ,বিহার, মধ্যপ্রদেশ ও অন্ধ্র প্রদেশ ভাগ  করেছে,বাংলা ভাগ করে বাংলা দখল করতে তাঁদের মাতৃভাষাও বাধা হয়ে দাঁড়াবে না,তাঁদের আগ্রাসী রাজনীতি ও সাম্প্রদায়িক অন্ধ জাতীয়তাবাদই প্রমাণ
রেসিয়াল মাইনোরিটির বিপক্ষে সৈন্য নামিয়ে ভূগোল রক্ষা করা যায় না,ভারতবর্ষের ও বিশ্বের ইতিহাস থেকে আমাদের এখনও শিখতে হবে

ভারতভাগের ফলে বাংলার রক্তপাত ও বিপর্যয় এখনও শেষ হয়নি।উদ্বাস্তু সমস্যার সমাধান হয়নি এবং সীমান্ত পেরিয়ে আজও বাঙালি উদ্বাস্তুরা ভারতবর্ষে বিভিন্ন রাজ্যে ছড়িয়ে পড়ছে 
-- ভারতবর্ষে সবচেয়ে বেশি উদ্বাস্তু বাঙালি
ভারতবর্ষে সবচেয়ে বেশি মানুষ জীবিকা ও চাকরির সন্ধ্যানে ভিন রাজ্যে যেতে বাধ্য হচ্ছে
Media reports:

In the wake of ongoing unrest in the northern West Bengal hills, the Gorkha Janmukti Morcha on Saturday called for an indefinite shutdown in Darjeeling from Monday in support of its demand for a separate Gorkhaland state. "All central and state government offices, banks, Gorkhaland Territorial Administration offices will be closed as part of the shutdown from Monday. However, schools and colleges will be outside the purview of the shutdown," GJM General Secretary Roshan Giri told media persons after the party's central committee meeting.

As part of the protest, Block Development Offices, Sub-divisional Offices and District Magistrate's offices will also be closed. The state government's revenue sources like electricity, mines and boulders will also be part of the shutdown, Giri said.

The Mamata Banerjee-led government's decision to make Bengali mandatory up to class 10 had triggered the present round of movement. On Thursday, Darjeeling turned into a virtual battlefield after GJM supporters clashed with the police when they were stopped from marching to the Raj Bhawan where the state cabinet meeting was underway.

The GJM also announced that signboards in Darjeeling, Kurseong, Kalimpong, Mirik and several parts of Dooars and Terai could be written only in Nepali and/or English.

Giri further said there would be torchlight rallies in various wards and assembly constituencies of the hills from 7 to 8 pm starting Monday for the sake of 'Gorkhaland's revival. "There will also be mass signature campaign in favour of Gorkhaland. The signatures will be sent to the Prime Minister and the Union Home Minister," he added.

Earlier in the day, GJM supremo Bimal Gurung said agitation in Darjeeling hills will not stop until and unless a separate Gorkhaland is created. "If TMC wants to play with fire they will regret it," he said. "We will appeal to the people not to cooperate with the state government. It is taking away so much resources from the hills and what are the people of the hills getting? We are getting nothing. This has to stop. We will fight for our freedom and will not allow the divisive politics in the hills," Gurung said.


ভারতের পশ্চিমবঙ্গের পাহাড়ি জেলা দার্জিলিংয়ে আজ বৃহস্পতিবার প্রথমবারের মতো রাজ্যের মন্ত্রিসভার বৈঠক অনুষ্ঠিত হয়েছে। এ বৈঠককে কেন্দ্র করে অশান্ত হয়ে ওঠে দার্জিলিং। পৃথক গোর্খাল্যান্ড রাজ্যের দাবিতে গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার সমর্থকেরা পুলিশের সঙ্গে সংঘর্ষে জড়িয়ে পড়েন। এ সংঘর্ষে পুলিশ সদস্যসহ বেশ কয়েকজন আহত হন। মোর্চার সমর্থকেরা পুলিশের বেশ কয়েকটি গাড়ি পুড়িয়ে দেন। এ ছাড়া সরকারি-বেসরকারি আরও কয়েকটি যাত্রীবাহী বাস পোড়ানো হয়।

এ সহিংসতায় আটকে পড়েন দেশ-বিদেশের কমপক্ষে ১০ হাজার পর্যটক। রাজ্য সরকার পরিস্থিতি নিয়ন্ত্রণে আনার জন্য সেনাবাহিনীর সাহায্য চেয়েছে। এদিকে আগামীকাল সকাল-সন্ধ্যা বন্‌ধের ডাক দিয়েছে জনমুক্তি মোর্চা।

পরিস্থিতি নিয়ন্ত্রণের জন্য দার্জিলিং ছাড়েননি মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। আজ সকালে দার্জিলিংয়ের রাজভবনে শুরু হয় রাজ্য মন্ত্রিসভার বৈঠক। বৈঠকে মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়, মন্ত্রিসভার অধিকাংশ সদস্য এবং প্রশাসনের শীর্ষ কর্মকর্তারা যোগ দেন।

মমতার এ বৈঠকের প্রতিবাদে রাজ ভবনের কাছে ভানু ভক্ত ভবনের সামনে অবস্থান ধর্মঘট পালন করে দার্জিলিংয়ের গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা। মোর্চার নেতা-কর্মীরা রাজভবনের দিকে এগোতে চাইলে পাহাড়ের চারদিকে চারটি ব্যারিকেড তৈরি করে বাধা দেয় পুলিশ। মোর্চার নেতা-কর্মীরা এই ব্যারিকেড ভাঙার চেষ্টা করেন। এ সময় পুলিশের সঙ্গে সংঘর্ষ বেধে যায়। জনমুক্তি মোর্চা পাহাড়ের বিভিন্ন এলাকায় অবরোধ তৈরি করলে কার্যত এলাকাটি অচল হয়ে পড়ে। যানবাহন চলাচল বন্ধ হয়ে যায়। এতে করে দার্জিলিংয়ে অবস্থানরত দেশ-বিদেশের পর্যটকেরা বিপাকে পড়েন। বন্ধ হয়ে যায় দোকানপাট।


প্রসঙ্গত, মুখ্যমন্ত্রীর এই সফর নিয়ে দার্জিলিংয়ের গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা পাহাড়জুড়ে আন্দোলন শুরু করেছে। জনমুক্তি মোর্চার নেতা বিমল গুরুংয়ের নেতৃত্বে চলছে এ আন্দোলন। এর আগে আন্দোলনকারীরা তৃণমূলের বিভিন্ন ব্যানার ও পতাকা ছিঁড়ে ফেলেন। মমতাকে কালো পতাকা দেখান। স্লোগান দেন পাহাড় ছাড়ার। এসব হুমকি উপেক্ষা করে মমতা আজ বৃহস্পতিবার যোগ দেন মন্ত্রিসভার বৈঠকে।

জনমুক্তি মোর্চার আন্দোলনের সূত্রপাত হয় মুখ্যমন্ত্রী মমতার একটি ঘোষণাকে কেন্দ্র করে। মুখ্যমন্ত্রী কদিন আগে ঘোষণা দেন, রাজ্যের সব বিদ্যালয়ে দশম শ্রেণি পর্যন্ত সব ছাত্র-ছাত্রীর বাংলা ভাষা পড়তে হবে। এ সিদ্ধান্ত মেনে নিতে পারেনি গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা। কারণ, দার্জিলিংয়ের মূল ভাষা নেপালি। বিমল গুরুং বলেছেন, তাঁরা বাংলা ভাষাকে দার্জিলিংয়ের শিক্ষার অন্যতম মাধ্যম হিসেবে মানবেন না। যদিও মুখ্যমন্ত্রী বলেছেন, পশ্চিমবঙ্গে সব বিদ্যালয়ে দশম শ্রেণি পর্যন্ত বাংলা ভাষা পড়তে হবে। পরবর্তীকালে মুখ্যমন্ত্রী দার্জিলিংয়ের একটি সংবাদমাধ্যমকে বলেছেন, বাংলা ভাষা এখানে ঐচ্ছিক হিসেবে পড়তে হবে।

এদিকে এই ইস্যুতে রাজ্য সরকারের সঙ্গে বিমল গুরুংয়ের রাজনৈতিক বাগ্‌বিতণ্ডা শুরু হয়েছে। বিমল গুরুং আরও বলেছেন, তাঁরা পৃথক রাজ্য গোর্খাল্যান্ড নিয়ে ফের আন্দোলনে নেমেছেন। এমনকি তাঁরা জিটিএ বা গোর্খা টেরিটরিয়াল অ্যাডমিনিস্ট্রেশন থেকে তাঁদের সদস্যদের পদত্যাগ করারও হুমকি দিয়েছেন। জিটিএর প্রধান হলেন গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার নেতা বিমল গুরুং। ২০১২ সালে এ জিটিএ গঠন হয়।

बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले!

अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज!

पलाश विश्वास

 

दार्जिलिंग फिर जल रहा है और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा  ने शुक्रवार को दार्जिलिंग बंद का आह्वान किया है और पर्यटकों से भी दार्जिलिंग छोड़ने को कहा गया है।इसी के तहत बंगाल सरकार मुख्यमंत्री की अगुवाई में पहाड़ से पर्यटकों को युद्ध स्तर पर सकुशल निकालने में लगी है और दार्जिलिंग में सेना का फ्लैग मार्च हिंसा और आगजनी की वारदातों के बीच जारी है।अस्सी के दशक में दार्जिलिंग में पर्यटन आंदोलन और हिंसा  की वजह पूरी तरह ठप हो गया था।उस घाये सो लोग अभी उबर भी नहीं सके हैं कि नये सिरे से यह राजनीतिक उपद्रव शुरु हो गया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंगमें 43 वर्ष बाद किसी मुख्यमंत्री के रुप में ममता बनर्जी मंत्रियों के साथ कैबिनेट मीटिंग कर रही थीं।जबकि भाषा के सवाल पर यह हिंसा भड़क उठी।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से निर्वाचितभाजपा  सांसद और केंद्रीय मंत्री एसएस अहलूवालिया ने इस हालात के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। 'बांग्ला थोप रही हैं ममता बनर्जी' एक टीवी चैनल से खास बातचीत में अहलूवालिया ने कहा कि ममता बनर्जी गलत ढंग से बांग्ला भाषा को लोगों पर थोप रही हैं। उनका आरोप है कि यह फैसला पश्चिम बंगाल की कैबिनेट में पारित नहीं हुआ।

भारत आजाद होने के बावजूद लोक गणराज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत राजकाज चलाने की बजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनके सैन्य दमन की परंपरा चल रही है।

कश्मीर में, मध्य भारत में और समूचे पूर्वोत्तर में राजकाज इसी तरह सलवा जुडुम में तब्दील है।पृथक उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इसी तरह आंदोलनकारियों की हत्या और स्त्रियों से बलात्कार की वारदातों का राजकाज हमने देखा है।

आदिवासियों को बाकी जनता से अलग थलग रखकर उनका सैन्य दमन जिस तरह अंग्रेजों का राजकाज रहा है,नई दिल्ली की सरकार और बाकी सरकारों का राजकाज भी वही है।

बंगाल के दार्जिलिंग पहाड़ों में कोलकाता के राजकाज का अंदाज भी वहीं है।

पहाड़ के जनसमुदायों को अलग अलग बांटकर,उन्हें अलग थलग करके उन्ही के बीच अपनी पसंद का नेतृत्व तैयार करके वहां सत्ता वर्चस्व बहाल रखने का राजनीतिक खेल बेलगाम जारी है।

अस्सी के दशक में सुबास घीसिंग के मार्फत जो राजनीति चल रही थी,बंगाल में वाम अवसान के बाद विमल गुरुंग के मार्फत वहीं राजनीति चल रही है।जिसमें केंद्र और राज्य के सत्ता दलों के परस्परविरोधी हितों का टकराव हालात और पेचीदा बना रहा है।

गोरखा अल्पसंख्यकों पर ऐच्छिक विषय के रुप में बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले है।वहां अमन चैन और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी सेना की है।गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने बिना किसी चेतावनी के उग्र आंदोलन शुरु कर दिया है और पूरे पहाड़ से पर्यटक अनिश्चितकाल तक फंस जाने के डर से नीचे भागने लगे हैं।

बंगाल में सत्तादल के मुताबिक यह वारदात संघ परिवार की योजना के तहत हुई है,जिससे पहाड़ को फिर अशांत करके बंगाल के एक और विभाजन की तैयारी है।

गौरतलब है कि बुधवार को दार्जिंलिंग में हिंसा भड़कने के ठीक एक दिन पहले बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के साथ बैठक की थी।हालांकि भाजपा ने इस आरोप से सिरे से इंकार किया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थन से हुई है और तबसे लेकर विमल गुरुंग से दीदी और उनकी पार्टी के समीकरण काफी बिगड़ गये हैं।

गोरखा नेता मदन तमांग की हत्या के मामले में विमल और उनके साथी अभियुक्त हैं तो गोरखा परिषद के बाद दीदी ने लेप्चा और तमांग परिषद अलग से बनाकर गोरखा परिषद की ताकत घटाने की कोशिश की है।

हाल में शांता क्षेत्री को राज्यसभा भेजने का फैसला करके गुरुंग से सीधा टकराव ही मोल नहीं लिया दीदी ने बल्कि पहाड़ पर राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए वहां मंत्रिमंडल की बैठक भी बुला कर गुरुंग को खुली चुनौती दी।

जिसके जवाब में यह भाषा आंदोलन शुरु हो गया है,जिससे पहाड़ में लंबे अरसे तक हालात सामान्य होने के आसार नहीं हैं।दरअसल भाषा का सवाल एक बहाना है,स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिये पहाड़ में तृणमूल कांग्रेस की घुष पैठ के खिलाफ करीब महीने भर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रदर्श आंदोलन जारी है।तो दीदी भी इसकी परवाह किये बिना पहाड़ पर अपना वर्चस्व कायम करने पर आमादा है।बाकी राज्य में भी उनकी यही निरंकुश राजनीतिक शैली है,जिसके तहत वह विपक्षा का नामोनिशन मिटा देने के लिए विकास और अनुदान के साथ साथ शक्ति पर्दशन करके विपक्षी राजनीतिक ताकत को मिट्टी में मिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भाषा का मुद्दा अचानक तब मिल गया जबकि पिछले  16 मई को दीदी के खास सिपाहसालार राज्य के शिक्षा मंत्री ने घोषणा कर दी  कि आईसीएसई और सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों सहित राज्य के सभी स्कूलों में छात्रों का बांग्ला भाषा सीखना अनिवार्य किया जाएगा।

शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा कि अब से छात्रों के लिए स्कूलों में बांग्ला भाषा  सीखना अनिवार्य होगाष हालांकि ममता बनर्जी ने साफ किया कहा है कि बांग्ला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य विषय नहीं बनाया गया है।लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए गोरखा अस्मिता के तहत ऐच्छिक भाषा बतौर भी बांग्ला मंजूर नहीं है।

दरअसल दीदी का वह ट्वीट गोरखा जनमुक्ति के महीनेभर के आंदोलन के लिए ईंधन का काम कर गया जिसमें उन्होंने लिखा  कि दशकों बाद इस क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत हुई है। तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में पहली बार पहाड़ी क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के एक दशक लंबे एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

स्थानीय निकायों के नतीजे पर इस खुली युद्ध घोषणा के बाद पूरी मंत्रिमंडल के साथ दार्जिलिंग में दीदी की बैठक को गोरखा अस्मिता पर हमला बताने और समझाने में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को कोई दिक्कत नहीं हुई।

इसी बीच बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमिटी के सुप्रीमो डॉ मुकुंद मजूमदार ने एक विवास्पद बयान देकर हिंसा को बढ़ाने में आग में घी का काम किया। उन्होंने कहा बंगाल में रहना है तो बांग्ला सीखना और बोलना होगा। बांग्ला भाषा व संस्कृति को अपनाना होगा।

कल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक की थी और इस बैठक में सारे मंत्री और पुलिस प्रशासन के तमाम अफसर मौजूद थे।पहाड़ में नये सचिवालय बनाने के सिलसिले में यह बैठक राजभवन में हो रही थी कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं और समर्थकों ने मुख्यमंत्री और समूुचे मंत्रिमंडल का घेराव करके पंद्रह बीस गाड़ियों में आग लगी दी और भारी पथराव शुरु कर दिया।

उग्र भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसूगैस के गोले भी छोड़ने पड़े।फिर इस अभूतपूर्व घेराव और हिंसा के मद्देनजर सेना बुला ली गयी।

सुबह तड़के सारे मंत्रियों को सुरक्षित सिलीगुड़ी ले जाया गया हालांकि दीदी अभी दार्जिलिंग में हैं और आज भी आगजनी और हिंसा के साथ बारह घंटे के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बंद के मध्य दीदी ने हालात सामान्य बनने तक दार्जिलिंग में ही रहने का ऐलान कर दिया है।

स्थानीय जनता की रोजमर्रे की तकलीफों, उनकी रोजी रोटी और उनके लिए अमन चैन सरकार,पुलिस प्रशासन और राजनीति के लिए किसी सरदर्द का सबब नहीं है। पर्यटकों को सुरक्षित पहाड़ों के बारुदी सुरंगों से निकालने की कवायद चल रही है। ताकि नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनसे निबट लिया जाय।हूबहू सलवाजुड़ुम राजकाज की तरह।



RSS agenda to use Hindu Refugees to win Bengal and its betryal! Palash Biswas

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RSS agenda to use Hindu Refugees to win Bengal and its betryal!
Palash Biswas
Eminent Bengali writer perfectly explains RSS Agenda of Hindutva to trap partition victim Bengali Refugees whom NDA governemnet led by Bajpayee deprived of citizenship declaring them illegal migrants with Citizenship Amendment act and recently introduced a bill to grant citizenship to Hindu Bengali refuggees which has never intended to be passed or even passes,never to be implemented because of its constitutional flaws.RSS is trying to make Bengali refugees tame Vote Bank and it is proved better in Assam where Refugee leaders have been arrested demanding citizenship  .RSS is admanet to misuse the Bengali Hindu partition victim refugees in Bengal and all oer the country as they used them in Assam.
Only recently Supreme Court Advocate Ambica Ray trying to bail out the refugees from Assmam jail has been arrested.Now eminent writer Kapil Krishna Thakur reacts thus:
Kapil Krishna Thakur wrote:
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ওরা তোমার বাড়িতে যাবে। গিয়ে বলবে, হিন্দুদের এক হওয়া খুব দরকার। তুমি বাঙালি রিফুজিদের কথা তুললে তারা বলবে, দেশছাড়াদের কথা আমরা ছাড়া আর কে ভাবছে? এই দেখ না, লোকসভায় বিল আনছি। আগের সর্বনাশা আইনটা যে ওরাই বানিয়েছিল, সেটা বেমালুম চেপে যাবে।…. ওরা তোমার বাড়িতে যাবে। তুমি দলিত সমাজের মানুষ হলে বলবে, কোনও ভেদাভেদ নেই, চলো, সব ভারতবাসী আমরা এক। যেই তুমি ওদের কথায় ভুলে, ভোটে ওদের জিতিয়ে দেবে, অমনি একটা সাহারণপুর (উত্তর প্রদেশ) ঘটাবে। দলিতরা আম্বেদকর জয়ন্তী কেন করবে, সেই অপরাধে খুন, জখম হয়ে গ্রাম ছাড়া হবে। তাদের মেয়েরা নির্বিচারে ধর্ষণ আর খুন হতে থাকবে। নয়তো কুশীনগরের ঘটনা ঘটবে। দলিতরা যে ঘৃণার বস্তু, সেটা বোঝাবার জন্য বলা হবে, ভালো করে সাবান-শ্যাম্পু দিয়ে চান করে , সেন্ট মেখে, নতুন জামা-কাপড় না পরে এলে মুখ্যমন্ত্রীর সাথে দেখাই হবে না। আর উদ্বাস্তু হিন্দু প্রেমের মহিমা কত গভীর, সেটা বুঝতে হলে আসামের দিক তাকাতে হবে। আসামের বাঙালি হিন্দু উদ্বাস্তুরা ওদের কথায় ভুলে, ঢেলে ভোট দিয়ে ওদের গদিতে বসিয়ে দিয়েছে। তারপর শিলাপাথরে জমায়েত হয়ে ওরা যেই সরকারের প্রতিশ্রুতি পালনের দাবি তুলেছে, অমনি সাজানো মামলায় নিরপরাধ বাঙালি সমাজকর্মীদের জেলে ভরে এখন উগ্রপন্থী তকমা সেঁটে দিয়েছে। হায়, হিন্দু-উদ্বাস্তু প্রেমের কী নমুনা!.... ওরা তবু এ সব না জানার ভান করে তোমার বাড়ি যাবে। তুমি চা-বিস্কুট খাইয়ে সোজা ভাষায় শুধু না-ই বলবে না, এবার থেকে তোমারও কাজ হলো ঘরে ঘরে গিয়ে ওদের এই কীর্তির কথা সবার কাছে বলা। যাতে আরও বেশি মানুষের সর্বনাশ করার সুযোগ ওরা না পায়। চলো শুরু করা যাক।

मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को। भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है। हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे। पलाश विश्वास

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मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

 

पलाश विश्वास

विकास का नमूना यह कि रेलवे विकास के लिए निजीकरण और कर्मचारियों की बेरहम छंटनी।सरकारी उपक्रमों में विनिवेश।

विकास का नमूना यह कि रक्षा प्रतिरक्षा,परमाणु ऊर्जा तक का निजीकरण और विनिवेश।कृषि विकास तीन साल में डेढ़ प्रतिशत और किसानों की बेलगाम बेदखली।

विकास का नमूना यह कि  ठेके पर नौकरी की तर्ज पर ठेके पर खेती।

किसानों को खेत से,खेती से बेदखल करके बड़े किसानों,जमींदारों की थैली भरने के लिए कारपोरेट कंपनियों और पूंजीपतियों की तर्ज पर करीब दस लाख करोड़ की कर्ज माफी से छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरो को क्या मिलेगा,हिसाब लगाइये।

हिसाब लगाइये कि खेती और आजीविका से बेदखली के विकास के बाद आजीविका और रोजगार से छंटनी के बाद अपनों को रेबड़ियां बांटने की इस नौटंकी से किसानों का क्या होगा और कृषि संकट कितना और किस हद तक सुलझेगा।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे।इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

सूदखोरी का स्थाई बंदोबस्त आजादी के बावजूद तनिको ढीला नहीं पड़ा है और जमींदारी उन्मूलन के बावजूद जमींदार तबका भारत की राष्ट्र व्यवस्था की मनुस्मृति सैन्य प्रणाली पर काबिज है और राजनीति उन्हींके हित हरित क्रांति के कायाकल्प के बाद इस अबाध कारपोरेट मुक्तबाजार के हिंदू राष्ट्र में भी साध रही है।

जाहिर है कि खेती के खाते से केंद्र और राज्य सरकार के तमाम खर्च और अनुदान की तरह कर्ज माफी की क्रांति भी आयकर मुक्त उनके खजाने को और समृद्ध करेगी और इससे न कृषि संकट के सुलझने के आसार हैं और किसानों और खेतिहर मजदूरों की खदकशी का सिलसिला रुकने की कोई संभावना है।

पक्ष विपक्ष का यह सारा किसान आंदोलन किसानों के ऐसे किसानविरोधी मजदूरविरोधी सामंती समृद्ध तबके,जाति वर्ण,वर्ग  के हित में हो रहा है,जो भूमि सुधार  के खिलाफ हैं और जिनका खेत या खेती से कोई संबंध नहीं है और वे खेती भी पूंजी निवेश करके मुनाफे के कारोबार की तहत सरकारी खजाना लूटने के लिए करते हैं।

खेती के जरिये इन्हीं की जमींदारियों में खेत जोतने वाले किसानों,खेतिहर किसानों के दमन उत्पीड़न, दलितों और स्त्रियों बच्चों पर निर्मम अत्याचार इस हिंदू सवर्ण सैन्य राष्ट्र का रोजनामचा है, ऐसा हिंदू कारपोरेट राष्ट्र जो किसानों के बुनियादी हकहकूक से इंकार करता है।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

किसानों का कोई स्थानीय,प्रांतीय या राष्ट्रीय संगठन के नेतृत्व में या किसानों के नेतृ्त्व में यह आंदोलन नहीं चल रहा है और जिन किसान सभाओं और सगठनों के करोडो़ं सदस्य बताये जाते हैं,इस आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं

संकट को सुलझाने के लिए,कारपोरेट अर्थव्यवस्था,बाजार और महाजनी जमींदारी स्थाई इंतजाम से किसानों को रिहा करने,जलजंगल जमीन आजविका से बेदखली रोकने, भूमि सुधार या कृषि आधारित काम धंधों के विकास या प्रोत्साहन या खेती से जुड़े जनसमुदायों के बच्चों को रोजगार और आजीविका दिलाने और उनको बुनियादी जरुरतें,सेवाएं मुहैय्या कराने का कोई कार्यक्रम इस आंदोलन में नहीं है।

यह विशुद्ध सत्ता की राजनीति है,जिससे सत्ता की गोद में पल रहे जमींदार तबके को ही फायदा होगा और इससे कृषि विकास या किसानों के कल्याण की कोई संभावना नजर नहीं आती है।

वर्धा विश्वविद्यालय के शोध छात्र मजदूर झा का संदेश आया था कि वे लोग सारस नाम की एक पत्रिका निकाल रहे हैं,जिसके पहले अंक को किसानों की मौजूदा  हालत पर केंद्रित किया जा रहा है।हिंदी साहित्य में हाल में जनपदों और किसानों पर क्या लिखा गया है,मुझे इसकी खास जानकारी नहीं है।

प्रेमचंद की परंपरा में साठ और सत्तर के दशक तक जो साहित्य लिखा जाता रहा है,वह गौरवशाली भारतीय साहित्य संस्कृति की परंपरा तमाम तरह की रंग बिरंगी महानगरीय उत्तर आधुनिक छतरियों में इस तरह छुपी हुई है कि मुझे जैसे नाकारा अज्ञानी व्यक्ति के लिए उन्हें देख पाना मुश्किल है।हिंदी साहित्य के प्रेमियों को शायद यह दिख रहा होगा।

माफ करें, मुझे किसानों के पक्ष का कोई समकालीन भारतीय साहित्य दिखता नहीं है।इसलिए ऐसे महानगरीय उपभोक्तावादी साहित्य संस्कृति,माध्यम विधा और उनसे जुडे पाखंडी मौकापरस्त तिकड़मी रथी महारथियों और उनकी गतिविधियों में मुझ जैसे अछूत शरणार्थी किसान की कोई दिलचस्पी नहीं है।

मुद्दे की बात यह है कि भारतीय साहित्य में हाल में दिवंगत बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी के अवसान के बाद किसानों के संघर्ष और भारतीय कृषि के अभूतपूर्व संकट के बारे में जानने के लिए हमें पी साईनाथ जैसे पत्रकार की रपट पर निर्भर होना पड़ा रहा है।

बाकी भारतीय कृषि अभी प्रेमचंद की भाषा में मुक्त बाजार की ट्रिलियन डालर डिजिटल अर्थव्यवस्था में महाजनी व्यवस्था से उबर नहीं सकी है।महाजनी सभ्यता की सामंती मनुस्मृति व्यवस्था ही भारतीय कृषि संकट का आधार है।

अभी अभी भारत में नृतात्विक अध्ययन के जनक और झारखंड के आदिवासियों के उत्थान के लिए समर्पित नृतत्व वैज्ञानिक और समाजशास्त्री दिवंगत शरत चंद्र राय के 1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हालात पर लिखे एक दस्तावेज का अनुवाद करने का मौका मिला है।यह अनुवाद बहुत जल्द आपके हाथों में होगा और उसका कोई अंश मैं इसलिए शेयर नहीं कर पा रहा हूं।

पुणे करार के तहत आदिवासियों को अलग थलग करके जल जंगल जमीन से बेदखली के लिए गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत आदिवासियों के नरसंहार का जो अबाध अभियान शुरु हुआ और आदिवासियों को बाकी जन समुदायों से अलग करके राष्ट्र के उनके खिलाफ जारी युद्ध और राजनीतिक संरक्षणके वर्चस्ववाद को समझने के लिए यह दस्तावेज बहुत जरुरी है।

शरत चंद्र राय ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देते हुए विरासत में हासिल उनके जल जगंल जमीन के हक हकूक के संरक्षण के लिए उनके अलगाव का बहुत जबरदस्त विरोध आदिवासी नेताओं के सुर में सुर मिलाकर किया था और आदिवासी किसानों के हित में दूसरी तमाम बातों के अलावा सबसे ज्यादा जोर सूदखोरी रोकने के लिए किया था।जिसपर जाहिर है कि ब्रिटिश हुकूमत ने अमल नहीं किया था।

आजादी के बाद भूमि सुधार आंशिक रुप से बंगाल में वाम शासन के तहत लागू होने के अलावा बाकी देश में इसे लागू करने की कोई गंभीर कोशिश पिछले सात दशकों में नहीं हुई और भारतीय कृषि संकट के संकट का एक बड़ा कारण यह भी है कि खेत जोतने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों को पूरे देश में कहीं उनके हकहकूक मिले ही नहीं है।दूसरी ओर भूमिधारी किसानों की जमीन लगातार बेदखल होती जा रही है।

किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुदकशी की सबसे बड़ी वजह उनपर कर्ज के बोझ बढ़ते जाना है।साठ के दशक से हरित क्रांति की वजह से खेती की लागत बेलगाम तरीके से बढ़ते चले जाने और पैदावार और श्रम की कीमत न मिलने के साथ साथ मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में बाजार के शिकंजे में देहात और जनपदों के बुरी तरह फंस जाने के नतीजतन बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को खरीदने के लिए बेहिसाब क्रयशक्ति के अभाव और उपभोक्ता संस्कृति के मुताबिक अनुत्पादक खर्च बढ़ते जाने से महाजनी सभ्यता का उत्तर आधुनिक कायाकल्प हो गया है।

सिर्फ महाजन,सूदखोर और दूसरे सामाजिक तत्व ही नहीं,भारतीय बैंकिग प्रणाली भी इस महाजनी सभ्यता के नये अवतार हैं।

वैसे ज्यादातर छोटे किसानों के पास जमीन इतनी कम है कि बैंकों से वे कर्ज नहीं लेते और आज भी साहूकारों,महाजनों और बाजार से बहुत ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेते हैं।बैंकों से भी उन्हें कोई राहत मिलती नहीं है।

फिलहाल यूपी चुनाव में किसानों के कर्ज माफ करने के लिए भगवा वायदे के बाद मध्यप्रदेश में किसानों पर भगवा फायरिंग में किसानों के मारे जाने के बाद किसानों को जो राजनीतिक आंदोलन देशभर में रोज तेज हो रहा है,उसकी मुख्य मांग कर्ज माफी है।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र में किसानों ने  जब आंदोलन तेज कर दिया तो वहां की भगवा सरकार ने किसानों को आम कर्ज माफी का ऐलान कर दिया है और मध्य प्रदेश सरकार ने भी लगातार तेज होते आंदोलन के बजाय केंद्र में भगवा राजकाज के तीन साल परे होने के मोदी जश्न के लगभग गुड़गोबर होने की आशंका के मद्देनजर कर्ज माफी का वायदा कर दिया है।अमल होने के आसार नहीं हैं।

राजस्थान में किसान आंदोलन तेज होता जा रहा है तो बाकी राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वे किसानों का कर्ज माफ कर दें।

इस सिलसिले में बैंकरों का कहना है कि किसान कर्ज इसलिए नहीं चुका रहे हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि सरकार उनका कर्ज माफ कर देगी। गौरतलब है कि केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने किसान आंदोलन के सिलसिले में किसानों को कर्ज माफी की केंद्र सरकार की जिम्मेदार टालने की रणनीति के तहत बैंकरों से मुलाकात की।

गौरतलब है कि पेशे से कारपोरेट वकील जेटली किसानों को कर्ज माफ करने के खिलाफ हैं और इस सिलसिले में उन्होंने पहले ही साफ कर दिया है कि कर्ज माफी का आर्थिक बोझ संबंधित राज्य सरकार को ही उठाना होगा।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक जेटली की इस बैठक में कई सरकारी बैंकों के अधिकारी शामिल हुए। इस बैठक में कई बैंकरों ने आरोप लगाया कि किसान सरकार द्वारा कर्ज माफी की उम्मीद में जान बूझकर बैंक द्वारा लिया गया लोन नहीं चुकाते हैं। बैंकरों ने वित्तमंत्री और मंत्रालय के अधिकारियों के साथ हुई बैठक में भी अपनी चिंता बताई।

अब सवाल है कि बैंक किन किसानों को कर्ज देती है और वे किसान कौन हैं जो कर्ज नहीं चुका रहे हैं।समझने वाली बात यह कि भारतीय बैंक छोटे किसानों को कर्ज देने के बाद छोटी सी छोटी रकम वसूलने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते।ऐसा छप्पन इंच का सीना किन किसानों का है जो कर्ज माफी के इंतजार में कर्ज न चुकाने की हिम्मत करें और बैंक भी उनसे कर्ज वसूल न कर सके।जाहिर है कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने की हैसियत रखने वाले किसान यकीनन खुदकशी नहीं करते।

जाहिर है कि भारतीय बैंकिग को दुहने वाले पूंजीपतियों,कारपोरट कंपनियों और सत्ता वर्ग के लोगों के अलावा बेहिसाब जमीन रखने वाले बड़े और संपन्न प्रभावशाली किसानों का एक तबका भी है,जो किसी तरह का टैक्स नहीं भरते और न खुद खेत जोतते हैं,आधुनिक काल के वे जमींदार हैं,जो बैंकों का कर्ज बिना चुकाये कर्ज माफी की रकम भी हजम करने वाले हैं।

हालात पर थोड़ा विस्तार से गौर करें तो मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने  बैंकरों ने कहा, किसानों में कर्ज न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसकी वजह से बैंकों पर वित्तीय दबाव बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में किसानों पर करीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज हैं।

बैंकरों ने कहा कि पिछले कुछ महीनों में किसानों द्वारा लिया गया लोन 50 प्रतिशत बढ़ा है। एक बड़े के अधिकारी ने कहा कि किसान अपने बैंक खाते से पैसे निकाल रहे हैं ताकि उनके कर्ज का पैसा बैंक अपने आप न काट लें।  दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक ने बताया कि कुछ जगह लोन न चुकाने वाले बैंकों से कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं. मुंबई स्थित एक बैंक के सीईओ ने कहा कि अगर किसी को ये लगता हो कि कोई उसे एक लाख रुपये का चेक दे देगा तो वो कर्ज क्यों चुकाएगा?

 

 

 

रणजीत विश्वकर्मा असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

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णजीत विश्वकर्मा  असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

पलाश विश्वास
उत्तराखण्ड आंदोलन व उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के वरिष्ठ नेता रणजीत विश्वकर्मा नहीं रहे . लम्बे समय से गुर्दे की बीमारी से पीड़ित रणजीत दा ने हल्द्वानी के बेस अस्पताल में अपनी देह त्याग दी . लगभग 63 साल के थे रणजीत दा . उन्हें विनम्र अंतिम नमन !
यह खबर सुनकर थोड़ा जोरदार झटका लगा है।अभी नैनीताल में महेश जोशी जी से बात हो सकी है।पवन राकेश दुकान में बिजी हैं।काशी सिंह ऐरी और नारायण सिंह जंत्वाल से लंबे अरसे से संवाद हुआ नहीं है।
  मैं जिन रणजीत विश्वकर्मा को जानता हूं,जो डीएसबी कालेज में मेरे सहपाठी थे और शुरु से काशी सिंह के सहयोगी रहे हैं,मुंश्यारी में उनका घर है।वे मेरे साथ ही अंग्रेजी साहित्य के छात्र थे।उक्रांद से जब काशी विधायक बने तो लखनऊ से मुझे फोन भी किया था। 
महेशदाज्यू ने कंफर्म किया है कि वे मुंश्यारी के है।
फोटो से पहचान नहीं सका क्योंकि रणजीत इतने दुबले पतले थे नहीं।बल्कि मैं और कपिलेश भोज बहुत दुबले पतले थे।दोस्तों में रणजीत हट्टे कट्टे थे।
थोड़ी उलझन उम्र को लेकर भी हो रही है।मुंश्यारी के होने की वजह से हमसे थोड़ी देर से स्कूल में दाखिला हुआ भी होगा तो रणजीत की उम्र साठ साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
उक्रांद में मैं कभी नहीं रहा हूं और हम लोग जब नैनीताल में थे,तब उत्तराखंडआंदोलन के साथ भी नहीं थे।लेकिन काशी सिंह ऐरी के अलावा दिवंगत विपिन त्रिपाठी से भी नैनीताल समाचार की वजह से बहुत अंतरंगता रही थी।नैनीताल छोड़ने के बाद भी जब तक वे जीवित रहे,उनसे संवाद रहा है।पीसी तिवारी भी राजनीति में हैं।उनसे यदा कदा संवाद होता रहता है।जंत्वाल नैनीताल में ही है,वह हम लोगों से जूनियर था डीएसबी में,लेकिन मित्र था।उससे कभी नैनीताल छोड़ने के बाद नैनीताल में एकाद मुलाकात के अलावा अलग से बात हो नहीं सकी है।
डीएसबी के मित्रों में निर्मल जोशी आंदोलन और रंगकर्म में हमारे साथी थे।फिल्मस्टार निर्मल जोशी हम लोगों से जूनियर थे।इन दोनों के निधन को अरसा हो गया।
गिरदा को भी दिवंगत हुए कई साल हो गये।
नैनीताल के ही हमारे पत्रकार सहकर्मी सुनील साह और कवि वीरेनदा हाल में दिवंगत हो गये।
रणजीत बेहद सरल ,मिलनसार,प्रतिबद्ध और ईमानदार मित्र रहे हैं।डीएसबी में हम लोग चार साल साथ साथ थे।चिपको आंदोलन के दौरान हम सभी एक साथ थे,जिसमें राजा बहुगुणा,पीसीतिवारी,जगत रौतेला,प्रदीप टमटा सांसद भी शामिल हैं।
रणजीत विश्वकर्मा  असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

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अब क्या ताजमहल भी तोड़ देंगे? जैसे बाबरी विध्वंस हुआ,जैसे मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगर सभ्यता को ध्व्सत कर दिया, उसी तरह? भारत में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध क्यों जारी है? भारत में महिलाओं और दलितों पर अमानुषिक अत्याचार क्यों होते हैं? बाकी भारत के लिए कश्मीर या पूर्वोत्तर के लोग विदेशी क्यों हैं? गाय हमारी माता कैसे हैं? दंगों का सिलसिला क्यों खत्म नहीं होता? सिखों का नरसंहार क्य�

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अब क्या ताजमहल भी तोड़ देंगे? जैसे बाबरी विध्वंस हुआ,जैसे मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगर सभ्यता को ध्व्सत कर दिया, उसी तरह?

भारत में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध क्यों जारी है?

भारत में महिलाओं और दलितों पर अमानुषिक अत्याचार क्यों होते हैं?

बाकी भारत के लिए कश्मीर या पूर्वोत्तर के लोग विदेशी क्यों हैं?

गाय हमारी माता कैसे हैं?

दंगों का सिलसिला क्यों खत्म नहीं होता?

सिखों का नरसंहार क्यों हुआ?

गुजरात का नरसंहार क्यों हुआ?

यूपी के मुख्यमंत्री के अभूतपूर्व वक्तव्य में इन सारे सवालों के जबाव है।

जो भी कुछ भारत में हिंदुत्व के प्रतीक नहीं है,वे अब तोड़ दिये जायेंगे।जो भी भारत में सवर्ण हिंदू नहीं हैं,वे मार दिये जायेंगे।

पलाश विश्वास

बेहद खराब दौर चल रहा है भारतीय इतिहास का और निजी जिंदगी पर सरकार,राजनीति और अर्थव्यवस्था के चौतरफा हस्तक्षेप से सांस सांस के लिए बेहद तकलीफ हो रही है।

राजनीति का नजारा यह है कि पैदल सेना को मालूम ही नहीं है कि उनके दम पर उन्हीं का इस्तेमाल करके कैसे लोग करोड़पति अरबपति बन रहे हैं और उनके लिए दो गज जमीन या कफन का टुकड़ा भी बच नहीं पा रहा है।

यह दुस्समय का जलवा बहार है जब भारत की राजनीति ही सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा बन गयी है। नोटबंदी पर तुगलकी अंदाज से जनता का जो पैसा खर्च हो गया है,अब पंद्रह लाख रुपये हर खाते में जमा होने पर भी उसकी भरपाई होना मुश्किल है।

विकास दर में दो प्रतिशत कमी के आंकड़े से गहराते भुखमरी ,बेरोजगारी और मंदी के मंजर को समझा नहीं जा सकता जैसे किसी को अंदाजा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अनगिनत फैसलों के बावजूद निराधार आधार के डिजिटल इंडिया में हर बुनियादी सेवा को बायोमेट्रिक डैटा से जोड़कर किस तरह जनसंख्या के सफाये की तैयारी हो रही है।राजनीति में इसपर आम सहमति है।

बाद में जीएसटी की वजह से क्या आंकड़े बनेंगे,यह तो वक्त ही बतायेगा।इस पर भी स्रवदलीयआम सहमति है।

फिलहाल तीन साल पूरे होने के बाद कालाधन निकालने का नया शगूफा भी शुरु हो गया कि स्विस सरकार आटोमैटिकैलि स्विस बैंकों में जमा की जानकारी भारत को दे देगा।मारीशस, दुबई और दुनियाभर से कालाधन की जो अर्थव्वस्था भारत में चल रही है,उससे बदली हुई परिस्थितियों में कितना काला धन नोटबंदी की तर्ज पर स्विस बैंक से भारतीय नागरिकों के खाते में आना है,यह देखते रहिये।

हमारे पांव अब भी गावों के खेत खलिहान में जमे हुए हैं और मौत कहां होगी,यह अंदाजा नहीं है तो महानगर में प्रवास से हमारा कोई कायाकल्प नहीं हुआ है।

हम विद्वतजनों में शामिल नहीं हैं।निजी रिश्तों से ज्यादा देशभर के जाने पहचाने लोगों से हमारे रिश्ते रहे हैं।विचारधारा के स्तर पर हम सौ टका खरा हों न हों,अपने दोस्तों और साथियों से दगा हमने कभी नहीं किया और किसी की पीठ पर छुरा भोंका नहीं है।

इसलिए देश भर में जो घटनाएं दुर्घटनाएं हो रही हैं ,उनके शिकार लोगों की पीड़ा से हम वैसे ही जुड़े हैं,जैसे जन्मजात शरणार्थी और अछूत होने के बाद बहुजनों और किसानों,मजदूरों,विस्थापितों और शरणार्थियों से हम जुड़े हैं।

किसानों पर जो बीत रही है,वह सिर्फ कृषि संकट का मामला नहीं है और न ही सिर्फ बदली हुई अर्थव्यवस्था का मामला है।

यह एक उपभोक्ता समाज में तब्दील बहुजनों,किसानों और मजदूरों के उत्पादन संबंधों में रचे बसे सामाजिक ताने बाने का बिखराव का मामला है।

अर्थव्यवस्था के विकास के बारे में तमाम आंकड़ों और विश्लेषण का आधार उपभोक्ता संस्कृति है।यानी जरुरी गैर जरुरी जरुरतों और सेवाओं पर बेलगाम खर्च से बाजार की ताकतों को मजबूत करने का यह अर्थशास्त्र है।

इस प्रक्रिया में जो सांस्कृतिक नींव भारतीय समाज ने खो दी है,उसकी नतीजा यह धर्मोन्माद, नस्ली नरसंहार संस्कृति,असहिष्णुनता और मानवताविरोधी प्रकृति विरोधी ,धर्म विरोधी,आध्यात्म विरोधी, इतिहास विरोधी वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद है,जिसका मूल लक्ष्य सत्ता वर्ग के कुलीन तबके के जनसंख्या के एक फीसद के अलावा बाकी लोगों का सफाया और यही राजनीति और राजकाज है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह जनपदों का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह भारतीय समाज का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह मनुष्यता,प्रकृति और पर्यावरण का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह भारतीय समाज,संस्कृति का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह राजनीति और दर्शन, इतिहास, धर्म,आध्यात्म का भी संकट है।

हम मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा के अवशेषों को लेकर चाहे जितना जान रहे होते हैं,उस सभ्यता का कोई सही इतिहास हमारे पास नहीं है।

आजादी की लड़ाई का सही इतिहास भी हमारे पास नहीं है।

अंग्रेजों से पहले भारत में जो सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था रही है,उसके बारे में हम ब्यौरेवार कुछ नहीं जानते।

यह सांस्कृतिक वर्चस्व का मामला जितना है ,उससे कही ज्यादा सत्ता और राष्ट्र का रंगभेदी सैन्य चरित्र का मामला है।

अभी अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जैसे फतवा दे दिया है कि ताजमहल हमारी संस्कृति नहीं है,उससे हमलावर सांस्कृतिक वर्चस्व के इतिहास को समझने की दृष्टि मिल सकती है।

उत्तर प्रदेश का विभाजन हो गया है लेकिन हमारे नैनीताल छोड़ने के वक्त उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहा है।

जनम से उत्तर प्रदेश का वाशिंदा होने की वजह से हम उस प्रदेश की सहिष्णुता, बहुलता,विविधता और साझे चूूल्हें की विरासत को अब भी महसूस करते हैं।

अस्सी के दशक में मंदिर मस्जिद विवाद और आरक्षण विरोधी आंदोलन से लेकर हालात बेहद बदल गये हैं और दैनिक जागरण और दैनिक अमर उजाला में काम करते हुए यह बदलाव हमने नजदीक से देखा भी है।

फिरभी सिर्फ जनसंख्या की राजनीति के तहत संवैधानिक पद से लखनऊ से घृणा और हिसां की यह भाषा दिलो दिमाग को लहूलुहान करती है।

तो क्या बाबरी विध्वंस के बाद भारतीय इतिहास और संस्कृति के लिए दुनियाभर के लोगों के सबसे बड़े आकर्षण ताजमहल को तोड़ दिया जाएगा?

गौरतलबहै कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए ताजमहलएक इमारत के सिवा कुछ नहीं है। उन्होंने इसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया। उत्तरी बिहार के दरभंगा में गुरुवार (15 जून) को एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, देश में आने वाले विदेशी गणमान्य व्यक्ति ताजमहलऔर अन्य मीनारों की प्रतिकृतियां भेंट करते थे जो भारतीय संस्कृति को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।

भारत में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध क्यों जारी है?

भारत में महिलाओं और दलितों पर अमानुषिक अत्याचार क्यों होते हैं?

बाकी भारत के लिए कश्मीर या पूर्वोत्तर के लोग विदेशी क्यों हैं?

गाय हमारी माता कैसे हैं?

दंगों का सिलसिला क्यों खत्म नहीं होता?

सिखों का नरसंहार क्यों हुआ?

गुजरात का नरसंहार क्यों हुआ?

इस अभूतपूर्व वक्तव्य में इन सारे सवालों के जबाव है।

जो भी कुछ भारत में हिंदुत्व के प्रतीक नहीं है,वे अब तोड़ दिये जायेंगे।जो भी भारत में सवर्ण हिंदू नहीं हैं,वे मार दिये जायेंगे।

 

हिंदुत्व एजंडा को राष्ट्रपति ने दी वैधता! फिरभी विचारधारा के धारकों वाहकों की खामोशी हैरतअंगेज! आरएसएस प्रणव को फिर राष्ट्रपति बनाये तो क्या विपक्ष समर्थन करेगा? क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें? पलाश विश्वास

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हिंदुत्व एजंडा को राष्ट्रपति ने दी वैधता!

फिरभी विचारधारा के धारकों वाहकों की खामोशी हैरतअंगेज!

आरएसएस प्रणव को फिर राष्ट्रपति बनाये तो क्या विपक्ष समर्थन करेगा?

क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें?

पलाश विश्वास

 

संघ परिवार के सुप्रीमो से भारत के राष्ट्रपति की शिष्टाचार मुलाकात से एकात्मकता यात्रा के समापन पर नई दिल्ली पहुंचने के बाद संघ सुप्रीमो बालासाहेब देवरस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अगवानी का इतिहास याद आ रहा है।

आपातकाल के दौरान आरएसएस पर रोक लगाने वाली इंदिरा गांधी का यह कदम भारत की राजनीति में हिंदुत्व के पुनरूत्थान का टर्निंग पाइंट कहा जा सकता है और इसके बाद आपरेशन ब्लू स्टार के साथ साथ राम जन्म भूमि आंदोलन के साथ संग परिवार और कांग्रेस के चोली दामन के रिश्ते के साथ साथ कारपोरेट हिंदुत्व के शिकंजे में यह भारत राष्ट्र फंसता ही चला गया है।

गौरतलब है कि प्रणव मुखर्जी इंदिरा गांधी के खास सिपाहसालार और रणनीतिकार रहे हैं और हिंदुत्व के पुनरूत्थान के साथ ही मुक्तबाजारी कारपोरेट हिंदुत्व एजंडे में उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।इसी के साथ आधार परियोजना,कर सुधार से लेकर आटोमेशन और निजीकरण, विनिवेश से लेकर डायरेक्ट टैक्स कोड और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार उन्हीके शुरु किये हैं,जिसपर संघ परिवार अब बेहद तेजी से अमल कर रहा है।

प्रणव मुखर्जी के बजट में इन्हीं सुधारों पर 2011 में मेरी एक किताब भी प्रकाशित हुई थीः प्रणव मुखर्जी का बजेट = पोटाशियम सायनाइड।

इस शिष्टाचार मुलाकात के नतीजे भी दीर्घकालीन होगें।

गौरतलब है कि भारत के राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक पद पर बहाल किसी देशी विदेशी व्यक्ति के साथ शिष्टाचार मुलाकात के लिए न्यौता दिये जाने की परिपाटी है।

गौरतलब है कि संघ सुप्रीमो हमारी जानकारी के मुताबिक ऐसे किसी संवैधानिक पद पर नहीं है और न ही वे किसी लोकतांत्रिक संस्थान या किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करते हैंं।

इस शिष्टाचार का मतलब क्या है,यह समझना मुश्किल है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ घोषित तौर पर अराजनीतिक हिंदू सांस्कृतिक संगठन है जिसका राजनीतिक एजंडा हिंदू राष्ट्र का है और उसकी राजनीतिक शाखा भारत की सत्ता में बहाल होकर रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज की नरसंहार संस्कृति का कारपोरेट एजंडा लागू कर रही है।

आज तक राष्ट्रपति भवन से पहले किसी संघ सुप्रीमो के साथ ऐसी शिष्टाचार मुलाकात के लिए किसी राष्ट्रपति के न्यौता दिये जाने की कोई घटना मेरी स्मृति में नहीं है।आजतक किसी भी दौर में संघ परिवार के मुख्यालय से भारत सरकार की नीतियां तय नहीं हो रही थी।

इस लिहाज से यह शिष्टाचार भेंट अभूतपूर्व है।

राष्ट्रपति की इस अभूतपूर्व पहल से संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा को वैधता मिली है क्योंकि भारत के राष्ट्रपति के संवैधानिक पद से लोकतंत्र, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, विविधता,बहुलता,सत्य,अहिंसा जैसे तमाम मूल्यों के पक्ष में आज तक के सारे वक्तव्य रहे हैं,जिनका संघ परिवार के अतीत,वर्तमान और भविष्य से कोई नाता नहीं रहा है।

भारत के राष्ट्रपति ने संघ परिवार के राष्ट्रद्रोही एजंडा को इस शिष्टाचार मुलाकात से वैधता दी है और विडंबना है कि विचारधाराओं के धारक वाहक  सत्ता वर्ग के विद्वत जन से लेकर राजनीति के तमाम खिलाड़ी इस प्रसंग में खामोश हैं।

क्या दोबारा राष्ट्रपति बनकर रायसीना हिल्ज के राजमहल में पांच साल और ठहरने के इरादे से संघ परिवार के समर्थन हासिल करने के लिए महामहिम ने यह न्यौता दिया है?

क्योंकि अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के मद्देनजर उन्हें मालूम है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति का उम्मीदवार खोजना संघ परिवार के लिए मुश्किल है और मोहन भागवत को सीधे राष्ट्रपति बनाकर कोई बड़ा राजनीतिक जोखिम संघ परिवार उठाने नहीं जा रहा है और संघ परिवार समर्थन कर दें,तो विपक्ष उनके नाम पर सहमत हो सकता है।

क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें?

गौरतलब है कि शिवसेना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए शुरु से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम छेड़ी हुई है।इस बीच राष्ट्रपति चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी कर दी है और समूचा विपक्ष अब भी संघ परिवार के उम्मीदवार का नाम घोषित किये जाने का इंतजार कर रहा है ताकि सहमति से नया राष्ट्रपति का चुनाव हो सके।

इसी परिदृश्य में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने मोहन भागवत से मुलाकात कर ली है। मीडिया के मुताबिक राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जीने शुक्रवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवतको राष्ट्रपति भवन में दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया।

आरएसएस के सूत्रों के मुताबिकभागवत राष्ट्रपति से मुलाकात के लिए रुद्रपुर से शुक्रवार को ही राष्ट्रीय राजधानी पहुंचे। वह संघ के स्वयंसेवक शिक्षण और प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल होने के लिए गुरुवार को रुद्रपुर में थे।

गौर करें कि संघ के स्वयंसेवक शिक्षण और प्रशिक्षण शिविर से लौटकर मोहन भागवत सीधे राष्ट्रपति भवन गये।जिसका महिमामंडन का यह शिष्टाचार है।

बहरहाल  राष्ट्रपति चुनाव से ऐन पहले हुई इस मुलाकात ने राजनीतिक हलकों में अटकलों को हवा दी है। इस पर संघ परिवार की सफाई है कि यह पूर्व निर्धारित शिष्टाचार भेंट थी और इसके कोई निहितार्थ नहीं निकाले जाने चाहिए।

क्या इस मुलाकात के बाद संघ परिवार के अनुमोदन पर प्रणव मुखर्जी को दोबारा राष्ट्रपति चुनने के किसी प्रस्ताव पर विपक्ष समहत हो जायेगा?

गौरतलब है कि कांग्रेस जमाने में तमाम घोटालों में महामहिम के नाम नत्थी हैं।लेकिन भारत के राष्ट्रपति होने की वजह से संवैधानिक रक्षाकवच के चलते उनपर कोई मामला बनता ही नहीं है और उनकी भूमिका की जांच पड़ताल हो सकती है।

उनके इस संवैधानिक रक्षा कवच का लाभ पक्ष विपक्ष के राजनेताओं और सत्ता वर्ग को भी मिली है जिसकी वजह से वे राष्ट्रपति लगभग आम सहमति से बन गये।अब भी वही स्थिति जस की तस है।

वैसे भी अपनी दिनचर्या गायत्री मंत्र से शुरु करने वाले प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन को हिंदुत्व का धर्मस्थल में तब्दील कर दिया है और वे अपने कार्यकाल के दौरान अपने पैतृतिक गांव जाकर दुर्गा पूजा करते रहे हैं।

वे न सिर्फ बंगाल के ब्रह्मणवादी वर्चस्व के बल्कि भारतीय ब्राह्मणवादी मनुस्मृति कुलीन निरंकुश रंगभेदी सैन्यतंत्र के भीष्म पितामह हैं।इस हैसियत से उनकी संघ सुप्रीमो के साथ शायद शिष्टाचार मुलाकात बनती है और इसलिए सत्ता वर्ग को इससे खास ऐतराज भी नहीं है।

ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त! विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं। विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति �

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ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं।

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्व की राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।जो हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फर्क नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

पलाश विश्वास

मेरे विचारधारा वाले मित्र माफ करेंगे कि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि संघ परिवार ने बहुजनों को अपने पक्ष में करने के सिलसिले में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विपक्ष को कड़ी शिकस्त दे दी है।

ओबीसी प्रधानमंत्री चुनकर देश की जनसंख्या के पचास फीसद को उन्होंने हिंदुत्व अश्वमेधी अभियान की पैदल सेना बना लिया है और अब दलित राष्ट्रपति बनवाकर विपक्ष के दलित वोटबैंक और अंबेडकरी आंदोलन दोनों पर कब्जा करने के लिए भारी बढ़त हासिल कर ली है।

आखिर तक विपक्ष को संघ परिवार की रणनीति की हवा नहीं लगी या संघ परिवार विपक्षी दलों में ओबीसी,दलित,आदिवासी और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व न देने की जिद को जानकर यह ट्रंप कार्ड खेला है,कहना मुश्किल है।

द्रोपदी मुर्मु का नाम चल ही रहा था और आडवाणी ,मुरली मनोहर जैसे लोग पहले ही हाशिये पर कर दिये गये हैं और मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाकर संघ परिवार अपने हिंदुत्व एजंडे के समावेशी मुखौटा को बेपर्दा करने वाला नहीं है,क्या विपक्ष के लिए संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग के तौर तरीके समझना इतना भी मुश्किल था।

मोदी को जब संघ परिवार ने प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार चुना तो उसका जबाव खोजने के लिए विपक्ष का सही उम्मीदवार पेश करने की कवायद की जगह अंधाधुंध मोदी का विरोध हिंदुत्व की राजनीति की जमीन पर किया गया,जो उग्र धर्मोन्मादी हिंदुत्व के ओबीसी कायाकल्प के आगे फ्लाप हो गया।इसी के साथ हिंदुत्व ध्रूवीकरण और असहिष्णु धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी चल पड़ी जो अब  भी जारी है।

संघ परिवार ने अपनी राजनीति के हिसाब से सामाजिक यथार्थ के मुकाबले खुद को काफी हद तक बदल लिया है लेकिल संघ विरोधी हिंदुत्व राजनीति का सामंती और औपनिवेशिक चरित्र और मजबूत होता गया।विचारधारा के पाखंड के सिवाय उसके पास कुछ भी नहीं बचा।न जनाधार ,न आंदोलन और न वोटबैंक।

हिंदुत्व के इस अभूतपूर्व पुनरूत्थान के लिए, भारतीय जनता और बारतीय लोकतंत्र,इतिहास और संस्कृति से विस्वासघात का सबसे बड़ा अपराधी यह पाखंडी,मौकापरस्त,जड़ों से कटा,जनविरोधी विपक्ष है जिसने पूरा देश,देश के सारे संसाधन और पूरी अर्थव्यवस्था नरसंहारी कारपोरेट हिंदुत्व के हवाले कर दी।

जमीन पर प्रतिरोध की बात रही दूर,राजनीतिक विरोध की जगह राजनीतिक आत्मसमर्पण की उसकी आत्मघाती राजनीति का उदाहरण पिछला लोकसभा चुनाव रहा है,जिसपर हमने अभी चर्चा नहीं की कि कैसे मोदी को विपक्ष ने भस्मासुर बना दिया।फिर राष्ट्रपति चुनाव में संघ परिवार के साथ विपक्ष का  लुकाछिपी खेल सत्ता व्रग की नूरा कुश्ती का ही जलवाबहार है।

इस बार भी विपक्ष प्रधानमंत्रित्व की तर्ज पर राष्ट्रपति चुनाव में धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार पर सहमति जताने में जुटा रहा और संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिग और डायवर्सिटी मिशन से बेखबर रहा,सीधे तौर पर मामला यही लगता है लेकिन थोड़ी गहराई से देखें तो यह बात समझने वाली है कि मनुस्मृति मुक्तबाजारी रंगभेदी हिंदुत्व का एजंडा लागू करने के लिए संघ परिवार ने कांग्रेस और वामदलों के विपरीत, विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से परिवार हिचका नहीं।

कांग्रेस लगातार मुंह की खाने के बावजूद वंश वर्चस्व के शिकंजे से उबर नहीं सकी तो भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बावजूद वामदलों ने किसी भी स्तर पर अभी तक दलितों, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व देने की पहल नहीं की ।

यही नहीं,भारत में हिंदी प्रदेशों के महत्व को सिरे से नजरअंदाज करते हुए हिंदी भाषियों के नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से भा वामदलों ने दशकों से परहेज किया है।

बंगाली और मलयाली वर्चस्व की वजह से वाम दलों का राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं बन सका है।

बंगाल में कड़ी शिकश्त  मिलने के बाद संगठन में बदलाव की जबर्दस्त मांग के बावजूद पार्टी में कोई खास संगठनात्मक बदलाव नहीं किया गया तो केरल में दलित और ओबीसी नेतृत्व को लगातार हाशिये पर डाला गया है।

इसके विपरीत संघ परिवार ने लगातार हर स्तर पर दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों को जोड़कर हिंदुत्व के ध्रूवीकरण की रणनीति बनायी है।

दलित,पिछड़ा और अल्पसंख्यक वोटबैंक तोड़कर ही संघ परिवार को यूपी जीतने में मदद मिली है,इस सच को उग्र हिंदुत्व के प्रतीक योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से विपक्ष भूल गया।

दलित और ओबीसी राजनीति में भी मजबूत जातियों का वर्चस्व है, जिसका फायदा भाजपा ने कमजोर जातियों को अपने पाले में खीचकर किया और लगातार विपक्ष के दलित,पिछड़ा और आदिवासी चेहरों को अपने खेमे मेंशामिल करने से कोई परहेज नहीं किया।

नतीजा ,ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

अब कोई फर्क शायद नहीं पड़ने वाला है कि रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने के संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग का हम चाहे जो मतलब निकाल लें।

मोहन भागवत,द्रोपदी मुर्मु और आडवाणी के नाम चलाकर विपक्ष को चारों खाने चित्त कर देने की उनकी रणनीति अपना काम कर गयी है और विपक्षी एकता तितर बितर है।क्षत्रपों के टूटने के आसार है और दलित वोट बैंक खोने के डर से कोविंद के विरोध का जोखिम वोटबैंक राजनीति में जीने मरने वाले राजनीतिक दलों के लिए लगभग असंभव है।

खबर यह है कि संघ परिवार के दलित प्रत्याशी के मुकाबले अपने घोषित उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी की जगह किसी दलित चेहरे की खोज चल रही है।जबकि अपना उम्मीदवार को आसानी से जिताने के लिए पर्याप्त वोट का जुगाड़ पहले ही संघ परिवार ने कर लिया है।

हालत यह है कि विपक्ष की बोलती बंद हो गयी है और अब जबकि एनडीए प्रत्याशी के रूप में रामनाथ कोविंदके नाम का ऐलान हो गया है, कांग्रेस समेत समूचे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) तथा वामदलों, तृणमूल कांग्रेस, आदि विपक्षी पार्टियों को फैसला करना होगा कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करना चाहते हैं या एनडीए के प्रत्याशी को ही समर्थन देंगे।

हालांकि कांग्रेस ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में सावधानी बरतते हुए यह तो कहा है कि बीजेपी ने रामनाथ कोविंदके नाम की घोषणा कर एकतरफा फैसला किया है, लेकिन कोविंदतथा उनकी उम्मीदवारी को लेकर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है।

अब गोपाल कृष्ण गांधी के बदले सिर्फ भाजपाई उम्मीदवार के विरोध की वजह से मीरा कुमार जैसे किसी दलित चेहरे को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जाता है तो विपक्ष की धर्मनिरपेक्षता का पाखंड भी बेनकाब होने वाला है।

अब भाजपाई उम्मीदवार की जीत तय मनने के बावजूद अपना दलित उम्मीदवार खड़ा करता है विपक्ष तो सवाल यह है कि संघ परिवार के एजंडे के विरोध के बावजूद उसने संघ परिवार के उम्मीदवार पर सहमति उसका नाम घोषित होने के बाद देने का दांव क्यों खेला,क्यों नहीं अपनी विचारधारा के मुताबिक अपने उम्मीदवार का ऐलान पहले ही कर दिया चाहे वह दलित हो न हो?

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्वकी राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।

विपक्ष की यह हिंदुत्व राजनीति  हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।

सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फ्रक नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

वोटबैंक की राजनीति को किनारे रखकर हिंदुत्व राजनीति में भाजपा के सबसे प्राचीन सहयोगी शिवसेना सुप्रीम उद्धव ठाकरे ने हालांकि भाजपा के इस फैसले को वोटबैंक की राजनीत कह दिया है।मराठी मीडिया के मुताबिकः

राष्ट्रपतिपदाचे उमेदवार म्हणून दलित चेहरा असलेले बिहारचे राज्यपाल कोविंद यांच्या उमेदवारीला शिवसेनेने विरोध दर्शवला आहे. 'दलित समाजाची मते मिळवण्यासाठी जर दलित उमेदवार दिला जात असेल तर त्यात आम्हाला रस नाही', अशा स्पष्ट शब्दात उद्धव ठाकरे यांनी कोविंद यांची उमेदवारी शिवसेनेला मान्य नसल्याचे स्पष्ट संकेत दिले आहेत.


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दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'! हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़। देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्

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दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'!

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

 

पलाश विश्वास

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।जिसे आप आगे पूरे ब्यौरे के साथ पढ़ेंगे।

दलित अस्मिता की राजनीति धुंआधार है और चूंकि संघ परिवार ने दलित कार्ड खेल दिया है,तो विपक्ष का खेल खत्म है।

दूसरी ओर,संघ की बुनियादी हिंदुत्व प्रयोगशाला में दलितों की स्थिति यह है।

गोरक्षा कार्यक्रम में जैसे मुसलमान मारे जा रहे हैं,वैसे ही दलित मारे जा रहे हैं।

राजकाज का असल योगाभ्यास यही है।

राजनेताओं को दलितों की कितनी परवाह है,उनके वोट के सिवाय, इसका खुलासा उसी तरह हो रहा है कि मुसलमानों की परवाह कितनी है मुस्लिम वोट बैंक के सिवाय,यह निर्मम हकीकत।

वनवासी कल्याण कार्यक्रम से सलवा जुड़ुम का रिश्ता घना है।आदिवासी फिर भी लड़ रहे हैं बेदखली के खिलाफ अपने हकहकूक के लिए।

दलितों का राष्ट्रपति फिर बन रहा है।

ओबीसी के कितने तो मुख्यमंत्री हैं और अब सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री भी है।

मुसलमान प्रधानमंत्री नहीं बने,बहरहाल राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति बनते रहते हैं तो कभी कभार मुख्यमंत्री भी।

सत्ता में भागेदारी का मतलब यही है।

जाहिर है कि दलित नहीं लडे़ंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि ओबीसी नहीं लड़ेंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि मुसलमान नहीं लड़ेगे अपने हक हकूक के लिए।

लड़ेंगे तो राष्ट्रद्रोही बनाकर मार दिये जायेंगे।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।

निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

दलितों की परवाह विपक्ष को पहले थी तो उसने संघ परिवार से पहले दलित उम्मीदवार की घोषणा क्यों नहीं कर दी?

अगर विचारधारा का ही सवाल है तो संघ परिवार की विचारधारा और हिंदुत्व के एजंडे के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विरोधियों को राष्ट्रपति पद पर संघ की सहमति से उम्मीदवार चुनने की नौबत क्यों आयी?

अब चूंकि मायावती ने कह दिया है कि राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार ही उन्हें मंजूर होगा तो पहले से लगभग तय विपक्ष के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी को बदलकर पहले मीरा कुमार,सुशील कुमार सिंधे और बाबासाहेब के पोते प्रकाश अंबेडकर के नाम चलाये गये और विपक्षी एकता ताश के महल की तरह तहस नहस हो जाने के बाद अब स्वामीनाथन का नाम चल रहा है।

यानी हिंदुत्व के दलित कार्ड के मुकाबले वाम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष दलित कार्ड का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी?

समता ,न्याय,सामाजिक न्याय का क्या हुआ?

इसमें कोई शक नहीं है कि स्वामीनाथन बेशक बेहतर उम्मीदवार हैं तमाम राजनेताओं के मुकाबले।तो पहले विपक्ष को उनका नाम क्यों याद नहीं आया,यह समझ से परे हैं।

जब मोहन भागवत और लालकृष्ण आडवाणी के नाम चल रहे थे ,तब भी क्या विपक्ष को समझ में नहीं आया कि किसी स्वयंसेवक को ही राष्ट्रपति बनाने के पहले मौके को खोने के लिए संघ परिवार कतई तैयार नहीं है।

यह जानना दिलचस्प होगा कि संघ परिवार की ओर से पेश किस नाम पर विपक्ष आम सहमति बनाने की उम्मीद कर रहा था?

मोहन भागवत?

लाल कृष्ण आडवाणी?

मुरली मनोहर जोशी?

सुषमा स्वराज?

सुमित्रा महाजन?

प्रणव मुखर्जी?

गौरतलब है कि विपक्षी मोर्चाबंदी में ताकतवर नेता ममता बनर्जी ने भागवत और जोशी के अलावा बाकी सभी नामों का विकल्प सुझाव दिया है।

दार्जिलिंग में जैसे आग लगी हुई है और उस आग को ईंधन देने में लगा है संघ परिवार और बंगाली सवर्ण उग्र राष्ट्रवाद,अगर बंगाल का विभाजन कराने में कामयाब हो गया संघ परिवार,तो दीदी की अनंत लोकप्रियता काअंजाम क्या होगा कहना मुश्किल है।

संघ परिवार और केंद्र की जांच एजंसियों ने जैसी घेराबंदी दीदी की की है,बचाव के लिए संघम शरणं गच्छामि मंत्र के सिवाय कोई चारा उनके पास

नहीं बचा है।

दीदी फिलहाल विदेश यात्रा पर हैं और दार्जिलिंग के साथ साथ सिक्किम भी बाकी देश से कटा हुआ है।आज स्कूलों को खाली करने के लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने बारह घंटे की मोहलतदी है।दीदी की वपसी तक हालात कितने काबू में होंगे कहना मुश्किल है।

जैसे प्रणव मुखर्जी का प्रबल विरोध करने के बाद दीदी ने वोट उन्हीं को दिया था,बहुत संभव है कि इस बार भी कम से कम दार्जिलिंग बचाने के लिए दीदी नीतीश की तरह संघ परिवार के साथ हो जाये।वैसे वे संघ परिवार के पहले मंत्रिमंडल में भारत की रेलमंत्री भी रही हैं।

प्रणव मुखर्जी और संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत की शिष्टाचार मुलाकात पर हम पहले ही लिख चुके हैं।

संघ परिवार चाहता तो विपक्ष उनके नाम पर भी सहमत हो जाता,क्योंकि सहमति के इंतजार में उसने गोपालकृष्ण का नाम तय होने पर भी घोषित नहीं किया जबकि सहमति न होने की वजह यह बतायी जा रही है कि संघ परिवार ने पहले से नाम नहीं बताया।

अब संघ परिवार ने नाम बताया तो विपक्ष अपना प्रत्याशी बदलकर दलित चेहरे की खोज में लगा है।

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

सत्ता की राजनीति, वोटबैंक की राजनीति,सत्ता में साझेदारी,संसदीय राजनीति में विचारधारा के ये विविध बहुरुपी आवाम हैं,जिसकी शब्दावली बेहद फरेबी हैं लेकिन इससे निनानब्वे प्रतिशत भारतवासियों, किसानों, मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, मुसलमानों और बहुसंख्य हिंदुओं और स्त्रियों के भले बुरे,जीवन मरण का कुछ लेना देना नहीं है।

राष्ट्रपति चुनाव का दलित कार्ड दरअसल वोटबैंक का एटीएम कार्ड है और इसे सत्ता की चाबी भी कह सकते हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में ओबीसी कार्ड खेलने के बाद संघ परिवार राष्ट्रपति चुनाव में दलित कार्ड भी खेल सकता है,विपक्ष के हमारे धुरंधर राजनेताओं को इसकी हवा क्यों नहीं लगी?

नाथूराम गोडसे को महानायक बनाने पर आमादा संघ परिवार जिस तेजी से गांधी नेहरु का नामोनिशान मिटाने पर तुला हुआ है,ऐसी हालत में गोपाल कृष्ण गांधी के वह कैसे राष्ट्रपति बनने देता?

तमिलनाडु,ओड़ीशा,तेंलगना और आंध्र के क्षत्रपों ने पहले से संघी कोविंद को अपना समर्थन दे दिया है।

समाजवादी मुखिया मुलायम पहले से ही राजी रहे हैं और वे मायावती अखिलेश समझौते के खिलाफ हैं।

नीतीश कुमार के जदयू ने लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राजद की परवाह किये बिना संघ परिवार का समर्थन कर दिया और जाहिर है कि वे देर सवेर संघ परिवार से फिर नत्थी होने की जुगत लगा रहे हैं।

वे पहले भी संघ परिवार के साथ रहे हैं और उनके इस कदम से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए।शरद यादव तो अटल जमाने में संघी गठबंधन के मुखिया भी रहे हैं।

अब चाहे दलित उम्मीदवार भी विपक्ष कोई खड़ा कर दें, देश का पहला केसरिया राष्ट्रपति बनना तय है और प्रधानमंत्री के साथ भारत के राष्ट्रपति भी स्वयंसेवक ही बनेंगे।वे दलित हों न हों,केसरिया होंगे कांटी खरा सोना,इसमें कोई शक नहीं है।

जाहिर है कि चुनाव में प्रतिद्वंद्विता अब प्रतीकात्मक ही होगी जिसके लिए सिर्फ वामपंथी अडिग हैं।जबकि हकीकत यह है कि  वामपंथी बंगाल में सत्ता गवांने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बाद ऐसी कोई ताकत नहीं हैं कि अकेले दम संघियों से पंजा लड़ा सके।

वाम का सारा दम खम कांग्रेस के भरोसे हैं।उनकरी विचारधारा अब कुल मिलाकर कांग्रेस की पूंछ है जिसका केसरिया रंगरोगन ही बाकी है।

गौरतलब है कि कांग्रेस के साथ वे दस साल तक सत्ता में नत्थी रहे हैं।

पांच साल के मनमोहन कार्यकाल के दौरान परमाणु संधि को लेकर समर्थन वापसी में नाकामी के बावजूद उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ा नहीं है।तब सोमनाथ चटर्जी को पार्टीबाहर कर दिया लेकिन परमाणु संधि या भारत अमेरिकी संबंध या कारपोरेट हमलों की जनसंहार संस्कृति के खिलाफ कुछ भी जन जागरण उन्होंने नहीं किया है।उनकी धर्मनिरपेक्षता का जरुर जलवा बहार है।

वैसे आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार में संघी खास भूमिका में थे,तब वाम ने उस सरकार का समर्थन दिया था और वीपी मंत्रिमंडल के समर्थन में वाम और संघ परिवार दोनों थे।इसलिए वैचारिक शुद्धता का सवाल हास्यास्पद है। इसी वैचारिक शुद्धता के बहाने कामरेड ज्योति बसु को उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से रोका था।लेकिन केंद्र की सत्ता से नत्थी हो जाने में उनकी वैचारिक शुद्धता वैदिकी हो जाती है।

इस पर भी गौर कीजिये कि सोशल मीडिया पर बहुत लोगों ने लिखा है कि सिख नरसंहार के वक्त सिख राष्ट्रपति जैल सिंह थे तो गुजरात नरसंहार के दौरान मुसलमान राष्ट्रपति थे।

सत्ता में जो लोग इस वक्त दलितों के जो राम श्याम मंतरी संतरी हैं,वे देश में दलितों,दलित  स्त्रियों  के खिलाफ  रोजाना हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कितने मुखर हैं,संसद से लेकर सड़क तक सन्नाटा उसका गवाह है।

कोविंद बेशक राष्ट्रपति बनेंगे।लेकिन उनसे पहले आरके नारायण भी राष्ट्रपति बन चुके हैं,जो दलित हैं,उनके कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार बंद हुए हों या समता और न्याय की लड़ाई एक इंच आगे बढ़ी हो,ऐसा सबूत अभी तक नहीं मिला है।

मायावती चार बार मुख्यमंत्री यूपी जैसे राज्य की बनी रहीं,बाकी देश की छोड़िये ,यूपी में दलितों का क्या कायाकल्प हुआ बताइये।होता तो दलित संघी कैसे हो रहे हैं?

स्त्री अस्मिता की बात करें तो इस देश में स्त्री प्रधानमंत्री, सबसे शक्तितशाली प्रधानमंत्री का नाम इंदिरा गांधी है।तो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील भी बनी हैं।

सुचेता कृपलानी से अब तक दर्जनों मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन पितृसत्ता को तनिक खरोंच तक नहीं आयी।स्त्री आखेट तो अब कारपोरेट खेल है।

बाबासाहेब दलित थे,भारत के संविधान का मसविदा उन्होंने रचा और राजकाज राजनीति में कांग्रेस के बाद अब संघ परिवार भी परमेश्वर बाबासाहेब हैं,इसलिए नहीं कि उन्होंने संविधान रचा,इसलिए कि उनके नाम पर दलितों के वोट मिलते हैं। बाबासाहेब के संवैधानिक रक्षाकवच के बादवजूद दलितों,पिछडो़ं,आदिवासियों और स्त्रियों पर अत्याचार का सिलसिला जारी है।

पंचायत से लेकर विधानसभाओं और संसद से लेकर सरकार और प्रशासन में आरक्षण और कोटे के हिसाब से जाति,धर्म,लिंग,भाषा,नस्ल, क्षेत्र के नाम जो लोग पूरी एक मलाईदार कौम है,वे अपने लोगों का भला कैसे साध रहे हैं और उनपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ किस तरह सन्नाटा बुनते हैं,इसे साबित करने की भी जरुरत नहीं है।

जाहिर सी बात है कि ओबीसी प्रधानमंत्री हो या दलित राष्ट्रपति,ओबीसी या दलितों के हित साधने के लिए वे चुने नहीं जाते हैं,उनके चुनने का मकसद विशुद्ध राजनीतिक होता है।

जैसे अब यह मकसद हिंदू राष्ट्र का कारपोरेट एजंडा है।

जाति के नाम पर कोविंद का समर्थन और विरोध दोनों वोटबैंक की राजनीति है,इससे दलितों पर अत्याचार थमने वाले नहीं हैं।

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।कृपया पढ़ लेंः

गुजरात के बनासकांठा जिले के डिशा तहसील के बुराल गांव की 18 साल की दलित लड़की जब स्वच्छता अभियान के सारे नारो के बावज़ूद जब घर पर टॉयलेट नही होने के चलते खुले में शौच करने गई तब दबंग जाति के एक इंसान रूपी भेड़िये ने उस के साथ बलात्कार किया।

10 जून दोपहर के 12 बजे यह घटना घटी।

पीड़िता ने घर जाकर अपने माँ बाप को यह बात बताई।

दोपहर के 2 बजे पीड़िता, उस के माता-पिता और बराल गांव के कुछ लोग डिशा रूरल पुलिश थाने में मामले कि रिपोर्ट दर्ज करवाने गए।

थाना इन्चार्ज मौजूद नही थे।

डयूटी पर बैठे पुलिस स्टेशन ऑफीसर ने कहा कि थाना इन्चार्ज (पुलिस इंस्पेक्टर) वापस आएंगे उस के बाद ही करवाई होगी।

पीड़िता, उसके माता पिता और गांव के लोग बारबार गिड़गिड़ाते रहे,

लेकिन रिपोर्ट दर्ज नही करी गई।

फिर पीड़िता के माता-पिता ने लोकल एडवोकेट मघा भाई को थाने बुलाया।

वकील साहब ने कहा कि मामला इतना संगीन है,

बलात्कार हुआ है और आप पुलिस इंस्पेक्टर का इंतजार कर रहे हो, यह कैसे चलेगा ?

इसके बाद भी कोई कार्यवाही नही हुई।

पुलिस स्टेशन ऑफिसर ग़लबा भाई ने कहा कि इंस्पेक्टर साहब आपको धानेरा तहसील के एक चौराहे पर मिलेंगे।

बलात्कार का शिकार यह दलित लड़की अपने मां-बाप और गांव के लोगो के साथ रोती गिड़गिड़ाती हुई धानेरा हाई वे पर पहुंची और अपनी आपबीती सुनाई।

सुनकर पुलिस इंस्पेक्टर डी. डी. गोहिल ने कहा - बलात्कार हुआ और तू दलित है तो जा जाकर पहले अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट लेकर आ।

यह है गुजरात का गवर्नेन्स,

यह है गुजरात मॉडल,

यह है दलितो के साथ गुजरात पुलिस का रवैया,

बाद में पीड़ित लड़की अपने मां बाप के साथ 24 किलोमीटर दूर अपने गांव वापस गई और कास्ट सर्टिफिकेट लेकर पुलिस थाने पहुंची।

फिर जो हुआ वह और भी भयानक है।

बगल के पुलिस थाने की शर्मिला नाम की एक महिला पुलिस कर्मी ने मामला दर्ज करवाने आई इस पीड़िता को एक अंधेरे कमरे में ले जाकर दो चांटे मारकर धमकी देते हुए कहा कि यदि बलात्कार का मामला दर्ज करवाया तो तुझे और तेरे मां-बाप को जेल में डाल देंगे।

बाद में इस थाने में IPC की धारा 376(Rape) के बजाय 354 (sexual abuse) के लिए मुकद्दमा दर्ज किया गया।

यहाँ तक कि इस पीड़िता के बारबार कहने के बावजूद उस की मेडिकल जांच नही करवाई गई।

यानी कुछ भी करके मामले को रफादफा करने की कोशिश की गई।

यहाँ उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले ही BJP के कुछ नेता नालिया सैक्स रैकेट में इनवॉल्व पाये गए थे और गुजरात पुलिस और बीजेपी के नेताओं का वास्तविक चरित्र उजागर हुआ था।

यह भी उल्लेखनीय है कि गुजरात में 2004 में 24 दलित बहनो के ऊपर बलत्कार हुए थे जो 2014 में 74 तक पहुंच गए।

हम लोगो ने पाटिदार समाज की नेता रेशमा पटेल और चिराग पटेल और बनासकांठा के साथी चेतन सोलंकी वगैरा के साथ मिलकर आज प्रेस कॉन्फ्ररेन्स के जरिये यह ऐलान किया है कि यदि 25 तारीख शाम के 6 बजे तक धारा 376 के तहत मुकदमा दर्ज नही किया गया और यदि थाना इन्चार्ज के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट की धारा -4 के तहत करवाई नही हुई तो हम सब मिलकर 26 तारीख को सुबह 11 बजे बनासकांठा जिले की बनास नदी के उपर का bridge (ब्रिज) और हाई वे बंद करवा देंगे।

बलात्कार के मामले में कोई समझौता नही चलेगा।

गुजरात सरकार तैयारी कर ले हमे रोकने की,

हम तैयारी कर लेंगे रास्ता रोकने की।

इंकलाब ज़िन्दाबाद।

Jignesh Mevani की वाल से

 

 


आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है! जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है। स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी। यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्�

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आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

पलाश विश्वास

आज आदरणीय आनंद स्वरुप वर्मा ने समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित आपातकाल से संबंधित सामग्री शेयर किया है।

इसके अलावा प्रधान स्वयंसेवक ने अपनी अमेरिका यात्रा के मध्य देश की जनता से मंकी बातें की हैं।

सोशल मीडिया में उनके करोड़ों फालोअर है और समूचा मीडिया उनका माउथ पीस है।इसलिए आपातकाल के बारे में उनकी टिप्पणी का जबाव देने की हैसियत हमारी नहीं है।

शायद यह हैसियत किसी की नहीं है।

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

दो दिन के लिए नजदीक ही अपने फुफेरे भाई के वहां उनके गांव में गया था।इधर मेरे पास अनुवाद का कोई काम भी नहीं है।कल सुबह ही लौट आया।

कल से कोशिश कर रहा हूं कि कुछ लिखूं लेकिन शब्द चूक रहे हैं।लिखना बेहद मुश्किल हो गया है।

कल शेक्सपीअर के मैकबैथ से लेडी मैकबैथ के कुछ संवाद फेसबुक पर पोस्ट किये थे।शेक्सपीअर ने यह दुखांत नाटक महारानी एलिजाबेथ के स्वर्मकाल में तब लिका था,जब शुद्धतावादी प्युरिटन आंदोलनकारियों ने लंदन में थिएटर भी बंद करवा दिये थे।

लेडी मैकबेथ अब निरंकुश सत्ता का चरित्र है और उसके हाथों पर लगे खून के दाग सात समुंदर के पानी से बी धोया नहीं जा सकता।शुद्धतावादियों का तांडव भी मध्ययुग से लेकर अब तक अखंड हरिकथा अनंत है।

आज मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में पोस्ट किया है।

शेक्सपीअर से लोकर मुक्तिबोध की दृष्टि से इस कटकटेला अंधियारे में रोशनी की खोज कर रहा हूं,लेकिन अफसोस कि रोशनी कहीं दीख नहीं रही है।

दार्जिलिंग जल रहा है और बाकी देश में कोई हलचल नहीं है।

किसानों की खुदकशी को फैशन बताया जा रहा है।

उत्तराखंड के खटीमा से भी एक किसान की खुदकशी की खबर आयी है,जो मेरे लिए बेहद बुरी खबर है।उत्तराखंड की तराई में किसानों की इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी।

इस राष्ट्र की जनता अब जनता नहीं, धर्मोन्मादी अंध भीड़ है।सिर्फ आरोप या शक के आधार पर वे कहीं भी किसी की जान ले सकते हैं।ऐसे लोग नागरिक नहीं हो सकते।

ऐसे लोग मनुष्य भी हैं या नहीं,यह कहना मुश्किल है।

वैदिकी हिंसा की संस्कृति अब संस्थागत है,इस संस्थागत हिंसा को रोक पाना असंभव है।

राष्ट्र भी  अब कारपोरेट मुक्त बाजार है।

जब आपातकाल लगा था,उस वक्त राजनीति कारपोरेट एजंडे के मुताबिक कारपोरेट फंडिंग से चल नहीं रही थी और न ही सर्वदलीय संसदीय सहमति से एक के बाद एक जनविरोधी नीतियां लागू करके जनसंख्या सफाया अभियान चल रहा था।

गौरतलब है कि आपातकाल से पहले,आपातकाल के दौरान और आपातकाल के बाद भी प्रेस सेंसरशिप के बावजूद सूचना महाविस्फोट से पहले देश के गांवों और जनपदों से सूचनाएं खबरें आ रही थी।दमन था तो उसका प्रतिरोध भी था।

अंधेरा था,तो रोशनी भी थी।

खेती तब भी भारत की अर्थव्यवस्था थी और किसान मजदूर थोक आत्महत्या नहीं कर रहे थे।

छात्रों,युवाओं,महिलाओं,किसानों और मजदूरों का आंदोलन कभी नहीं रुका।साहित्य और संस्कृति में भी आंदोलन चल रहे थे।

देश के मुक्तबाजार बन जाने के बाद सूचना महाविस्फोट के बाद सूचनाएं सिरे से गायब हो गयी हैं।

आम जनता की कहीं भी किसी भी स्तर पर सुनवाई नहीं हो रही है।किसी को चीखने की या रोने या हंसने की भी इजाजत नहीं है।

जिस ढंग से बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को आधार कार्ड से नत्थी कर दिया गया है,उससे आपकी नागरिकता दस अंकों की एक संख्या है,जिसके बिना आपका कोई वजूद नहीं है।न आपके नागरिक अधिकार हैं और न मानवाधिकार।आपके सपनों,आपके विचारों आपकी गतिविधियों,आपकी निजी जिंदगी और आपकी निजता और गोपनीयता पर राष्ट्र निगरानी कर रहा है।आपकी कोई स्वतंत्रता नहीं है और न आप स्वतंत्र हैं।

जिस तरीके से नोटबंदी लागी की गयी,संगठित असंगठित क्षेत्र के लाखों लोगों के हाथ पांव काट दिये गये,उनकी आजीविका चीन ली गयी और उसका कोई राजनीतिक विरोध नहीं हुआ,वह हैरतअंगेज है।

जिसतरह संघीय ढांचे को तिलांजलि कारपोरेट व्रचस्व और एकाधिकार के लिए किसानों के बाद अब कारोबारियों और छोटे मंझौले उद्यमियों का सफाया होने जा रहा है,उसके मुकाबले आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी के किस्से कुछ भी नहीं हैं।

आपातकाल लागू करने में तत्कालीन राष्ट्रपति से जैसे आदेशनामा पर दस्तखत करवा लिया गया,उसके मद्देनजर देश में बनने वाले पहले केसरिया राष्ट्रपति की भूमिका भी खतरनाक साबित हो सकती है।

क्योंकि प्रधानमंत्री प्रधान स्वयं सेवक हैं तो राष्ट्रपति भी देश के प्रथम नागरिक के बजाय प्रथम स्वयंसेवक होगें।

प्रधानमंत्री जिस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजंडे के मुताबिक हिदंत्व का फासीवादी रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज चला रहे हैं,जाहिर है कि राष्ट्रपति भी भारतीय नागरिकों का राष्ट्रपति होने के बजाये संघ परिवार का राष्ट्रपति होगा।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

इस सिलसिले में शुभा शुभा का यह फेसबुक पोस्ट गौर तलब हैः

यह नाज़ुक समय है।हम भारतीय जनतंत्र के अन्तिम दौर में पैर रख रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही संविधान के विसर्जन की तैयारी है। इसका इतना उत्साह 'भक्तों'में है कि औपचारिक विसर्जन से पहले ही वे हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने निकल पड़े हैं। मध्यप्रदेश में रासुका लगाकर किसी ख़ून-ख़राबे की योजना हो सकती है ताकि किसान आन्दोलन को दफनाने का काम बिना बदनाम हुए हो सके।ईद पर और भी हत्या, ख़ून-ख़राबे की कोशिश हो सकती हैं। तनाव पैदा करने की कोशिश क ई जगह हुई है। इस समय विवेक की असली परीक्षा है। हिन्दू राष्ट्रवादी हर कोशिश करेंगे कि लोग आपस में ही निपट लें , वे अपने हत्याकांड को लोगों से करवाना चाहेंगे । हमें हत्यारे गिरोहों को अलग करके देखा होगा।आपसी यक़ीन क़ायम रखते हुए मिली जुली निगरानी कमैटी और हैल्पलाईन तैयार करनी होंगी। आइसोलेशन से बचना होगा और सामाजिक समर्थन जुटाने के उपाय करने होंगे।अब बीच में कुछ है नहीं। नागरिकों को मिलकर आत्मरक्षा और उससे आगे के उपाय ख़ुद करने होंगे। हमें हिन्दू राष्ट्र के ख़िलाफ़ व्यापक मोर्चो की दिशा में बढ़ना होगा । यह सब मैं अपने लिए ही लिख रही हूं ताकि मेरे होश बने रहें और मैं लाचारी में नहीं जीना चाहती।आप भी अपनी बात कहें।आपसी यक़ीन और विवेक ही हमारा साथ देंगे। संकीर्ण आलोचना, आपसी छीछालेदर और वृथा भावुकता हमारी मुश्किल बढ़ाने वाली बातें हैं। अल्पसंख्यक , दलित , महिलाएं और तमाम प्रगतिशील ताकतें हिन्दू राष्ट्र के निशाने पर हैं।

यह पोस्ट मैंने झारखंड में सलमान की हत्या की ख़बर पढ़ने के बाद लिखी है।


रामनाथ कोविंद जी के नाम खुला पत्र

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2017-06-25 20:33 GMT+05:30 NAVYUG 'NAVYUG' <navyugjpr@gmail.com>:

Dear Friends,
I am enclosing Hindi Translation of Sh. Shamsul Islam Saheb article "Open letter to Ramnath Kovind" as per his instructions. Please do needful.

With regards
Vinod Joshi
Article of Islam Saheb, enclosed word file is in Chanakya font



रामनाथ कोविंद जी के नाम खुला पत्र 
सम्माननीय रामनाथ कोविंद जी, 
नमस्कार, सबसे पहले मैं आपको भाजपा द्वारा भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति उम्मीदवार चुने जाने पर बधाई देता हूं। यह जानकार खुशी हुई कि आपको दलित होने के कारण चुना गया है, जैसा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, "एक दलित, जिन्होंने आज जिस स्थान पर आज हैं वहां पहुंचने के लिए संघर्ष किया है।" आगामी राष्ट्रपति चुनाव में आपका चयन आपकी 'दलित पहचान' के कारण हुआ है। इसे रामविलास पासवान, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में दलित मंत्री हैं, ने भी रेखांकित किया है, जब उन्होंने घोषणा की जो भी आपकी उम्मीदवारी का विरोध करेगा उसे 'दलित विरोधी' के रूप में देखा जाएगा। ऐसे समय में जब दलित और अल्पसंख्यकों जैसे मुस्लिम और ईसाई (जो कि अधिकाँश दलित समयदाय से आते हैं) के खिलाफ हिंसा की घटनाएं अचानक कई गुना बढ़ गई हैं और उन्हें अधिकारविहीन करने का काम जोरशोर से किया जा रहा है, आपकी उम्मीदवारी एक उम्मीद जगाती है।
हालांकि, संघ के नेताओं ने यह भी दावा किया है कि संघ के पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ता होने के कारण आपका चयन किया गया है। इस बात पर भी जोर दिया गया है कि आप समर्पित और अनुभवी 'हिन्दू राष्ट्रवादी' हैं। हमें यह भी बताया गया है कि कानपुर देहात में स्थित अपना पैतृक आवास भी आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिया है।   
इन परिचयात्मक विशेषताओं के साथ, मुझे डर है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में आपकी आस्था का लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक भारत के सर्वोच्च संवैधानिक अधिकारी के रूप में आपके निर्णयों पर प्रभाव पडऩे जा रहा है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में गहरा विरोधाभास होने जा रहा है। मैं आपके सामने अपनी कुछ गंभीर चिंताओं को अवलोकनार्थ रखने जा रहा हूं:
राष्ट्रपति के रूप में शपथ और संघ के सदस्य के रूप में शपथ में टकराव 
एक राष्ट्रपति के रूप में आप यह शपथ लेंगे:
"मैं, रामनाथ कोविंद, ईश्वर के नाम पर शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यपालन करूंगा, तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान एवं विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।" 
लेकिन संघ (आरएसएस) के सदस्य के रूप में निम्न शपथ को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं:
"सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, नि:स्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूंगा। भारत माता की जय।"  i
इस सबसे ज्यादा, संघ के सदस्य समावेशी लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ रहे हैं। संघ के अंग्रेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' ने आजादी की पूर्व संध्या (14 अगस्त, 1947) पर अपने सम्पादकीय में 'हिन्दू अलग राष्ट्र हैं' कहते हुए 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' पर विश्वास को निम्न शब्दों में रेखांकित किया:
"अब हमें अपने आपको राष्ट्रीयता की झूठी अवधारणाओं से प्रभावित नहीं होने देना है। हम सिर्फ इस साधारण से तथ्य को स्वीकार कर बहुत सी मानसिक उलझनों तथा वर्तमान और भविष्य की कठिनाइयों को दूर कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से ही बनेगा और राष्ट्र की संरचना भी इसी सुरक्षित और मजबूत नींव पर होगी..राष्ट्र हिन्दुओं से ही निर्मित होना चाहिए, हिन्दू परम्पराओं, संस्कृति, विचार और आकांक्षाओं के अनुरूप!"     

राष्ट्रीय झंडे के रूप में तिरंगा और भगवा झंडा 
संघ को आजादी के पहले और बाद में भी राष्ट्रीय झंडे से चिढ़ रही है। नागपुर में १४ जुलाई, १९४६ को गुरु गोलवलकर ने गुरुपूर्णिमा पर्व पर एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि "यह भगवा झंडा ही महान हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह ईश्वर का अवतार है, हमें दृढ़ विश्वास है कि सम्पूर्ण राष्ट्र अंत में भगवा ध्वज को ही नमन करेगा।"  ii
आजादी की पूर्वसंध्या पर तो राष्ट्रीय ध्वज को कलंकित करने में संघ ने सभी सीमाएं लांघ दी थीं। संघ के मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' ने १४ अगस्त, १९४७ में तिरंगे के खिलाफ एक तरह से युद्ध छेड़ते हुए लिखा था, "जो लोग भाग्य के भरोसे सत्ता में आ गए हैं वे हमारे हाथ में तिरंगा दे तो सकते हैं; लेकिन यह कभी हिन्दुओं से सम्मान और स्वीकार्यता प्राप्त नहीं कर सकेगा। शब्द तीन स्वयं अशुभ है, और तीन रंगों वाला झंडा देश पर खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और हानिकारक रहेगा।"    
यहां तक कि स्वतंत्रता के बाद जब तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज बन चुका था, यह संघ ही था जो लगातार उसको अपमानित करता रहा। १९६० में गुरु गोलवलकर ने राष्ट्रीय ध्वज के बारे में लिखा, "हमारे नेताओं ने देश के लिए एक नया ध्वज स्थापित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सीधे जड़ों से दूर होने और नकल का केस है..हम प्राचीन और वैभवशाली राष्ट्र हैं जिसका शानदार अतीत है। तो, क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह था। फिर यह निरा शून्य, यह निरा खालीपन क्यों है हमारे मस्तिष्क में?"  iii 

भारतीय लोकतंत्र और संघ की लोकतंत्र से घृणा 
भारत इस धरती पर सबसे बड़ा कार्यशील लोकतंत्र है। हमारा एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान है जो लगभग सात दशकों से लागू है। पर संघ को लोकतंत्र से घृणा है। संघ के सबसे प्रमुख विचारक गुरु गोलवलकर ने 1940 में संगठन के चोटी के 1350 प्रचारकों को सम्बोधित करते हुए भारत की राजनैतिक व्यवस्था के बारे में कहा था, "संघ एक झंडे, एक नेता, और एक विचार से प्रेरित होकर इस महान देश के हर कोने पर हिंदुत्व की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर रहा है।" iv
मैं इस बात को आपके ध्यान में लाना चाहूंगा कि 'एक ध्वज, एक नेतृत्व और एक विचारधारा' का यह उदघोष  यूरोप में बीसवीं सदी के पहले अर्ध में फासिस्ट और नाजी पार्टियों की रणभेरी होती थी। उन्होंने लोकतंत्र के साथ क्या व्यवहार किया था, किसी से छिपा नहीं है। 

भारतीय संविधान जातिवाद को अस्वीकार करता है; लेकिन संघ जातिवाद को हिंदुत्व और हिन्दूराष्ट्र का मूल तत्व घोषित करता है..

भारतीय संविधान भारत देश को एक ऐसे राज्यतंत्र के रूप में स्थापित करता है जो जाति, वर्ण, लिंग, वर्ग के विचार से ऊपर है। लेकिन गुरु गोलवलकर, जिन्होंने लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने की मांग की थी, ने घोषित किया कि जातिवाद हिन्दू राष्ट्र का पर्याय है। उनके अनुसार, हिन्दू और कुछ न होकर, "एक विराट पुरुष हैं, ईश्वर ने खुद अवतार लिया है। पुरुष सूक्त के अनुसार सूर्य और चंद्र उनकी आंखें हैं, तारों और आसमान का निर्माण उनकी नाभि से हुआ है और ब्राह्मण उनके सिर हैं, क्षत्रिय उनके हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं और शूद्र उनके पैर। इसका मतलब है हिन्दू जिनके पास यह चतुशवर्ण व्यवस्था है, हमारे ईश्वर हैं। यह ईश्वर के मस्तिष्क की सर्वोच्चता 'राष्ट्र' का मूल तत्व है और यह हमारी सोच में गहरी पैठी हुई है तथा हमारी सांस्कृतिक विरासत के अद्वितीय सिद्धांतों को ऊंचाई देता है।"  v

लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान और संघ की मनुस्मृति को संवैधानिक मान्यता की मांग 
26 नवम्बर, 1949 को डॉ. बी.आर. अंबेडकर के मार्गदर्शन में संविधान सभा में भारत का संविधान पारित हुआ। संघ संविधान से खुश नहीं था। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवम्बर 1949 को अपने सम्पादकीय में लिखा:
"प्राचीन भारत के अनूठे संवैधानिक विकास का हमारे संविधान में कोई जिक्र नहीं है। स्पार्टा के लायकरगस और पर्शिया के सोलोन से पहले मनु का विधान लिखा गया था। आज उनका मनुस्मृति में लिखा विधान विश्व में प्रशंसित हो रहा है और स्वाभाविक स्वीकृति प्राप्त कर रहा है। लेकिन हमारे संवैधानिक विद्वानों के लिए उस सब का कोई मलतब नहीं है।"
हकीकत में संघ द्वारा मनुस्मृति को भारतीय संविधान के रूप में थोपने की मांग के पीछे उनके हिंदुत्व आइकॉन 'वीर' सावरकर की घोषणा थी, जिसमें उन्होंने कहा था, "वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र का सबसे पूज्य धर्मग्रंथ और जिसके आधार पर प्राचीन समय से हमारी संस्कृति-परम्पराएं, विचार और प्रथाएं विकसित हुई हैं..आज वह मनुस्मृति ही हमारा हिन्दू कानून है।" vi
मनुस्मृति में शूद्रों के लिए दिए गए अधम और अमानवीय उपदेशों में से कुछ को मैं यहां उदघृत कर रहा हूं:  vii
(1) विश्व की समृद्धि (दैवीय) के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसके मुख, भुजा, जंघा और पाद से व्युत्पन्न किए गए। 
(2) शूद्रों के लिए ईश्वर ने सिर्फ एक कार्य नियत किया है, विनम्रता के साथ बाकी तीन वर्णों की सेवा करना। 
(3) एक शूद्र के रूप में पैदा हुआ व्यक्ति अगर अपने से उच्च वर्ण के व्यक्ति का अपमान अशिष्ट शब्दों में करे तो उसकी जिह्वा काट देनी चाहिए, क्योंकि वह निम्न वर्ण में पैदा हुआ है। 
(4) अगर वह अपने से उच्च वर्ण के व्यक्ति का नाम अपमानजनक शब्दों में ले, तो दस अंगुली लम्बी लोहे की कील अंगारे जैसी लाल कर उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।
(5) अगर वह ब्राह्मण को अभिमानपूर्वक उसके कर्तव्यों के बारे में पाठ पढ़ाए, तो राजा को उसके मुंह और कानों में गर्म तेल डलवा देना चाहिए। 
यह ध्यान रखने की बात है कि ऐतिहासिक महाड़ सत्याग्रह में दिसम्बर, 1927 में डॉ. बी.आर.अंबेडकर की उपस्थिति में विरोधस्वरूप मनुस्मृति की प्रति को जलाया गया था।    

गांधी राष्ट्रपिता के रूप में और "हिन्दू राष्ट्रवादी" जो गांधीवध का जश्न मनाते हैं..

नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी जिन्होंने महात्मा गांधी की ह्त्या का षड्यंत्र किया था, दावा किया जाता है कि हिन्दू राष्ट्रवादी थे। आश्चर्यजनक है कि हिन्दू राष्ट्रवादी उनके 'वध' का आज भी जश्न मनाते हैं। इस बात की पुष्टि के लिए एक उदाहरण दे रहा हूं, हिन्दू जनजागृति समिति ने भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करने के उद्देश्य के साथ अपना दूसरा अखिल भारतीय सम्मलेन जून 2013 में गोवा में आयोजित किया था। सम्मलेन की शुरुआत नरेन्द्र मोदी जी के बधाई संदेश से हुई थी। इस सम्मेलन में जिस मंच से मोदी जी का बधाई संदेश पढ़ा गया था, ठीक उसी जगह से सम्मेलन के एक प्रमुख वक्ता के.वी. सीतारमैया ने घोषणा की- गांधी 'खौफनाक, शैतान और पापी' थे। महात्मा गांधी की हत्या पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए उन्होंने घोषणा की, "भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम/ धर्मसंस्थापनाय सम्भवामी युगे-युगे (अर्थात अच्छे की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में जन्म लेता हूं)। और 30 जनवरी 1948 की संध्या में श्रीराम नाथूराम गोडसे के रूप में अवतरित हुए और गांधी का जीवन समाप्त किया।"   viii  
  

जातिवाद मुक्त भारत और संघ में दलितों की नियति 
उत्तर प्रदेश की इगलास सुरक्षित विधानसभा सीट से भाजपा ने विजय प्राप्त की है। दिलेर जी जिनका परिवार दो पीढ़ियों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा है (उनके पिता भी भाजपा सांसद रह चुके हैं), अपने चुनाव प्रचार अभियान में जब वे उच्च जाति के मतदाताओं के घरों पर जाते थे, तब न सिर्फ जमीन जमीन पर बैठते थे बल्कि चाय या पानी पीने के लिए अपना स्टील का ग्लास भी साथ लेकर चलते थे। दिलेर, जो कि वाल्मीकि हैं, जातिवाद की बेड़ियों में जकड़े रहने की अपनी इच्छा इन शब्दों में बयां करते हैं, "मैं अपनी मान मर्यादा ख़त्म नहीं कर सकता। जमाना चाहे बदलता रहे।"   ix
यह ध्यान देने की बात है न भाजपा और न संघ ने इस स्व-आरोपित अस्पृश्यता के बारे में कभी बात नहीं की, न इसकी निंदा की। न ही उन्होंने दिलेर जी को इस संविधान विरोधी निंदात्मक कृत्य करने से रोका। 

आदरणीय कोविंद जी, मुझे आशा है आप भारत के राष्ट्रपति के रूप में संवैधानिक शपथ का पालन करेंगे, न कि संघ के अनुग्रहीत के रूप में होंगे! आप 'भारतीय राष्ट्रीयता' के ध्वजवाहक होंगे, न कि 'हिन्दू राष्ट्रवाद के! आप मनुस्मृति थोपने के किसी भी प्रयास का विरोध कर लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा करेंगे! आप जातिवाद के महिमामंडन द्वारा अस्पृश्यता की पुनर्स्थापना के किसी भी प्रयत्न का प्रतिरोध करेंगे, क्योंकि यह कुरीति हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद के आवश्यक घटक हैं! आप राष्ट्रपिता के चरित्रहनन और उनके हत्यारों के महिमामंडन के प्रयासों को रोकेंगे! आप राष्ट्रीय ध्वज और संविधान को क्षति पहुंचाने के किसी भी प्रयत्न को अनुमति नहीं देंगे। और अंत में, आप आज के भारत को हिन्दू पाकिस्तान बनाने के किसी प्रयत्न को स्वीकार नहीं करेंगे। 

शुभकामनाओं सहित 

आपका 
शम्सुल इस्लाम 


21-02-2017

 

i   Shakha Darshikha, Gyan Ganga, Jaipur, 1997, p. 66.   


ii  MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna,  Nagpur, nd., Volume I, p. 98. 

iii MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, pp. 237238.

iv MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna, Nagpur, nd., vol. I, p. 11.   

v MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, pp. 36-37.

vi VD Savarkar, Savarkar Samagar, vol. iv, Prabhat, Delhi, 2016, p. 216.  

vii This selection is from F Max Muller's Laws of Manu.

viii http://www.hindujagruti.org/news/16527_mohandas-gandhi-was-terrible-wicked-and-most-sinful.html

ix http://timesofindia.indiatimes.com/elections/assembly-elections/uttar-pradesh/news/dalit-nominee-sits-on-floor-carries-own-cup/articleshow/57044512.cms



हिंदी अनुवाद: विनोद जोशी, कार्यकारी सम्पादक, 'नवयुग' हिंदी पाक्षिक, जयपुर

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GNLF opts for suicide squads as RSS openly supports Gorkhaland while Sikkim is cut off from rest of India and subjected to Chinese intervention! Palash Biswas

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GNLF opts for suicide squads as RSS openly supports Gorkhaland while Sikkim is cut off from rest of India and subjected to Chinese intervention!

Palash Biswas

Bigger trouble in Darjeeling Hills as well as Sikkim.It rather seems very dangerous for the unity and integrity of India.GNLF opts for suicide squades as Ei Samay and Anand Bazar patrika reported this morning as 

`Will fight for Gorkha community's revival till death, says GJM chief Bimal Gurung'

Gurung has called to intensify the protests for a 

separate Gorkhaland, saying the shutdown in 

Darjeeling will continue indefinitely.


As China stopped Kailash Mansarovar Yatra quoting border dispute and meanwhile Chinese army intruded in Sikkim and destroyed two bunkers.


The Prime minister of India claims seven thousand reforms within three years to boost the image of Indian economy so that US and US companies might be interested to purchase Jal Jangal Jameen in India and natural resources in the best interest of Class caste hegemony ruling India.


The Hindutva agenda is based on hatred and violence.To invoke blind nationalism of Hindutva,Modi joins Trump in his war against terror and both targets the heaven of terror,Pakistan.


It might be the diplomacy as well as politics of Dalit apeeasing OBC Hindutva or caste Hindu psyche but national security is seriously threatened as Sikkim is virtually cut off from rest of India thanks to RSS supported Gorkhaland Movement and the divide and rule policies of the centre and state governments as well.


Media reports that on Monday evening, miscreants set ablaze the house of Rajen Betiwal, chairman of the West Bengal Khas Cultural Development Board, at Paiyun Bustee in Kalimpong, police said. His three cars were also vandalised.

Worser for the livelihood,bread and butter of the people stranded in hills as they are the native people and has no place to go as  the tourism sector in Darjeeling is waiting for a shattered and frozen festive business, as the trade fears the political uncertainty and violent protests over the Gorkhaland statehood demand to hurt tourist arrivals during the September.Darjeeling hill has not recovered from the loss of eighties.Now,its absic economy of tea gardens have also shuttered down and no body is concrned with continuous death processions in tea gardens which employs the Gurkha majority.


Betiwal told  that his wife and son were inside the house when 12 to 13 persons set the house on fire.

Betiwal's wife and son managed to flee.

The GJM has been alleging that 15 development boards were set up for various ethnic communities by the West Bengal chief minister Mamata Banerjee to weaken Morcha.

In an earlier incident of violence, three GJM supporters died on June 17 in Darjeeling after security forces opened fire as agitators clashed with them.

Bengal Bjp President Dilip Ghosh time and again,expressed his support to Gorkhaland separate state quoting BJP olicy for smaller states.Now BJP leadership meets in Delhi with its state leadership represented by hardcore RSS hatred campaign master Dilip Ghosh.


While bigger trouble waits in Darjeeling hills,BJP has already demanded that Bengla CM Mamata Banerjee should ask Gorkhaland people apology which means to invoke Gorkhas as well as Bengali nationalism for unprecedented civil war.However,Eid was a n instant relief as the Darjeeling hills on Monday remained incident-free and the GJM allowed a 12-hour bandh relaxation in view of the Eid-ul-Fitr, which was celebrated by Muslims on a low key amidst patrolling of the streets by the security forces.


The ultimate war begins from today with the entrance of Gurkha Suicide squads.ZThe symptoms are very grim .For instance,the Hills returned to violence on Monday, after a one-week lull, with suspected Gorkha Janmukti Morcha supporters setting on fire the house of a development board chairperson who had attended a meeting convened by the Bengal ...


A counter Anti Gorkha movement has been launched in Siliguri which should get wind to turn in Tsunami and it has become Bengali V/S Gorkha civil war thanks to governments of India and Bengal.


Now,GNLF has launched a hunger strike movement and declared to opt for suicide squads.


Throwing a challenge to the West Bengal government, the Gorkhaland Janmukti Morcha (GJM) chief Bimal Gurung on Friday said the ongoing protest in the north Bengal hills would intensify, and vowed to fight for the community's "revival" till death,media reports.

BJP led by its MP from darjeeling, fails no opportunity to provoke tension.Look!

The BJP does not support GJM's demand for creation of a separate state, the party's national general secretary Kailash Vijayvargiya made it clear once again. However, Vijayvargiya said that West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee should apologise to the people of the Darjeeling hills for her failure to address their need for development.

"I do not support the creation of Gorkhaland, but I do support the development of the Gorkha people and their culture and heritage," Vijayvargiya said yesterday participating in a Rathayatra programme.

"The state government has created Gorkha Territorial Administration (GTA) to address the need for development of the hill people. But, the state government did not meet their expectations," he had said.

Vijayvargiya also alleged that the Mamata Banerjee government failed to give the hill people financial as well as administrative rights.

"This is why Gorkhas have grudge against the chief minister and as a result they resorted to organising protest movements," Vijayvargiya had said. State BJP president Dilip Ghosh had said earlier that the creation of states on the basis of ethnicity and language would divide the country into pieces.

"We did not raise any objection when it came to the creation of states like Jharkhand, Chhattisgarh and Telangana. But we can never support the demand to turn a village or municipal corporation into a state," he said.

"We do not support the demand for creation of a state on the basis on ethnicity or language of the people. If such things happen, then the country will be divided into pieces," Ghosh had said.

Gurung, who resigned as the Gorkhaland Territorial Administration (GTA) chief executive along with other elected members of the body on Friday, said, "The agitation for Gorkhaland will continue. We have resigned from the GTA. Our one point demand is Gorkhaland."

"I want to request everyone to participate in the movement for Gorkhaland from their heart. I will fight for the revival of our community till I have the last drop of blood in my body," the GJM chief said amid loud cheers from his followers.

Appearing before media for the first time since a police raid at his residence on June 15, Gurung said, "I am not Kishenji (Maoist leader) who can be eliminated in a police encounter. I have not taken up arms against the country. I am fighting for the identity of the Gorkhas and in a democracy I have every right to do that."

"The shutdown will continue indefinitely. No one knows when it will end. No relaxations will be given this time," he added.

Alleging that the police had opened fire in the hills on June 17 in which three GJM activists were killed, Gurung said, "We (the GJM) have the video footage of the incident. I demand a CBI inquiry."

Taking a swipe at chief minister Mamata Banerjee for claiming involvement of terrorists in the Darjeeling agitation, Gurung said the terrorists and bomb-making factories were in the plains of Bengal, not in the hills

"She should be asked where are terrorists and bomb factories found? In south Bengal or here in Darjeeling," Gurung said.

"There have been incidents of riots in Howrah and Malda, but not a single incident in the hills. We are a peace-loving people," he said.

Announcing en masse resignation of 43 GJM leaders from the GTA, Gurung said there would be no fresh GTA elections this time and vowed to disrupt the process, if initiated.

Now pl read Anand Bazar Patrika report:

আত্মহননের হুমকি মোর্চার

নিজস্ব সংবাদদাতা

একে তো চাপে পড়ে জিএনএলএফ আর জন আন্দোলন পার্টির সঙ্গে আন্দোলনের মঞ্চ ভাগ করতে হচ্ছে। তার উপরে অনির্দিষ্টকালের বন্‌ধ চালিয়ে গেলেও দিল্লির দিক থেকে কোনও ইতিবাচক ইঙ্গিত এখনও নেই। ক্রমেই খালি হচ্ছে পাহাড়ের ভাঁড়ার। এই অবস্থায় মরিয়া মোর্চার হুঁশিয়ারি, প্রয়োজনে তারা আমরণ অনশন বা আত্মঘাতী আন্দোলনে নামবে এ বার।

মোর্চা সূত্রে খবর, এই চাপ আসলে বাড়াচ্ছে দলের তরুণ প্রজন্ম। এ দিন তাদের চাপেই যুব সংগঠনের জেলা সভাপতি প্রকাশ গুরুঙ্গ দলীয় দফতরে সাংবাদিকদের বলেন, ''আমাদের আলাদা রাজ্যের দাবি আদায়ের জন্য আন্দোলন তীব্র করা হবে। সে জন্য আমরণ অনশনের কথা ভাবা হয়েছে। প্রয়োজনে আমাদের সদস্যরা গায়ে আগুন দিয়ে জীবন বিসর্জন দিতেও তৈরি হচ্ছে।''

পুলিশ-প্রশাসনের একটি অংশের আশঙ্কা, এই মরিয়া ভাব বজায় থাকলে গুন্ডামি বে়ড়ে যেতে পারে। এ দিনই খাস সম্প্রদায়ের প্রধান রাজেন্দ্র বেটোয়ালের বাড়িতে আগুন লাগিয়ে দেওয়া হয়। অভিযোগ, এর পিছনে রয়েছে মোর্চার সদস্যরাই। কালিম্পঙের আলগারায় রাজেন্দ্রর বাড়ি। প্রশাসনের একটি অংশ বলছে, এই প্রথম কোনও সম্প্রদায়ের প্রধানের বাড়িতে আগুন দেওয়া হল। এর থেকেই বোঝা যাচ্ছে, মোর্চার মধ্যে মরিয়া ভাব বাড়ছে। এই পরিস্থিতিতে মিরিকে তৃণমূলের কাউন্সিলাররা বিপদের মুখে। পাহাড়ের প্রথম সারির তৃণমূল নেতারাও আক্রান্ত হতে পারেন। কিছু ক্ষেত্রে পাহারা বাড়ানোও হয়েছে।

গায়ে আগুন দিয়ে আত্মঘাতী হওয়ার প্রবণতা ২০১৩ সালেও দেখা গিয়েছিল। পুলিশের এক কর্তা এ কথা জানিয়ে বলেন, তবে এই ঘটনা বেশি ছড়ায়নি। এর পরে আলোচনার মাধ্যমে আন্দোলনের তীব্রতা স্তিমিত হয়েছিল। এ বারও ভাবনাচিন্তা শুরু হয়েছে। সরকারি সূত্রের খবর, পাহাড়ের সাম্প্রতিক পরিস্থিতি নিয়ে পাহাড়ে সদ্য নিযুক্ত
পুলিশকর্তাদের পক্ষ থেকে একটি রিপোর্ট নবান্নে পৌঁছেছে। সেখানে মোর্চা-সহ পাহাড়ের দলগুলির সঙ্গে আলোচনার ক্ষেত্র তৈরির প্রসঙ্গ রয়েছে।

মোর্চার খবর, দিল্লিতে তেমন সাড়া না মেলায় তাঁদের একাংশও পাহাড়ের সব দলকে সামনে রেখে আলোচনার বাতাবরণ তৈরির কথা ভাবছেন। সব ঠিক থাকলে ২৯ জুন মোর্চার ডাকা সর্বদল বৈঠক থেকে ক'দিনের জন্য বন্‌ধ শিথিল করে আলোচনার ক্ষেত্র প্রস্তুত হতে পারে বলে আশা করছেন পাহাড়ের রাজনীতি সম্পর্কে অভিজ্ঞদের অনেকেই।

কারণ, সমতলেও যে চাপ বাড়ছে। মোর্চার এক নেতা একান্তে জানান, রবিবার শিলিগুড়িতে বাংলা ভাগের বিরুদ্ধে যে স্বতঃস্ফূর্ত মিছিল হয়েছে, তাতে বিমল গুরুঙ্গদের উপরে চাপ আরও বেড়ছে। তাঁরা বুঝতে পারছেন, এখনকার পরিস্থিতি অতীতের থেকে আলাদা। শিলিগুড়িতে আবার ৩০ তারিখ মিছিলের ডাক দেওয়া হয়েছে। এই অবস্থায় ২৯শে পাহাড় থেকে বন্‌ধ শিথিলের বার্তা দিলে উত্তেজনা কমতে পারে।

আর আলোচনা? মোর্চা এখনও বলছে, গোর্খাল্যান্ড ছাড়া আর কোনও বিষয়ে তারা কথা বলবে না। গোর্খাল্যান্ডের দাবি নিয়ে পথে নেমে পড়েছে জিএনএলএফ, জন আন্দোলন পার্টির মতো পাহাড়ের অন্য দলগুলিও। উল্টো দিকে, রাজ্যের পর্যটনমন্ত্রী গৌতম দেব বলেছেন, ''আমরা বরাবরই বলছি, অশান্তির রাস্তা ছাড়তে হবে। তার পরে আলোচনায় বসে সমস্যা মেটাতে হবে। পাহাড়-সমতলের মধ্যে কোনও বিভেদ আমরা চাই না। কোনও মূল্যে তা হতেও দেব না।''

http://www.anandabazar.com/state/gorkha-janmukti-morcha-leaders-started-an-indefinite-hunger-strike-across-the-hills-1.634379?ref=hm-ft-stry

দার্জিলিং ও শিলিগুড়ি ২৭ জুন, ২০১৭, ০৫:২৮:০৮


प्रधान स्वयंसेवक और महाबलि ट्रंप के मिलन से भारत को क्या मिला और अमेरिका को क्या? भारत में रोजगार संकट और छंटनी बहार के सिलसिले में ट्रंप की नीतियों में बदलाव के लिए क्या बात हुई? तीन साल के सात हजार सुधारों के बावजूद संविधान कितना बचा है,लोकतंत्र कितना बचा है और कानून का राज कितना बचा है? आधार और नोटबंदी से बंटाधार , आगे जीएसटी है,संसदीट सहमति की कारपोरेट फंडिंग सबसे बड़ा सुधार! जनत�

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प्रधान स्वयंसेवक और महाबलि ट्रंप के मिलन से भारत को क्या मिला और अमेरिका को क्या?

भारत में रोजगार संकट और छंटनी बहार के सिलसिले में ट्रंप की नीतियों में बदलाव के लिए क्या बात हुई?

तीन साल के सात हजार सुधारों के बावजूद संविधान कितना बचा है,लोकतंत्र कितना बचा है और कानून का राज कितना बचा है?

आधार और नोटबंदी से बंटाधार , आगे जीएसटी है,संसदीट सहमति की कारपोरेट फंडिंग सबसे बड़ा सुधार!

जनता के खिलाफ अब लामबंद राजनीति के अलावा मीडिया और न्याय पालिका भी!

बजरंगियों के अलावा अब किसी को कोई मौका नहीं, बजरंगियों के अलावा अब किसी को जीने का हक भी नहीं!

सबसे बड़ी सुधार क्रांति नोटबंदी की हुई है तो उससे भी बड़ी क्रांति गोरक्षा क्रांति अभी शुरु ही हुई है,जो दुनियाभर की क्रांतियों के मुकाबले ज्यादा क्रांतिकारी है क्योंकि इससे भारत में मनुस्मृति विधान लागू होगा जिससे सहिष्णुता ,विविधता, बहुलता,लोकतंत्र, मनुष्यता,सभ्यता,प्रकृति पर्यावरण  सबकुछ गेरुआ रंग में समाहित हो जायेगा और जाति वर्ण रंंगभेदी नस्ली निरंकुश सत्ता से विदेशी पूंजीपतियों और कंपनियों के लिए भारत आखेटगाह बन जायेगा।

पलाश विश्वास

अमेरिकी पूंजीपतियों,कारपोरेट कंपनियों और उद्योगपतियों के साथ अमेरिका में प्रधान स्वयंसेवक के गोलमेज सम्मेलन के ब्यौरे भारतीय गोदी मीडिया ने कुछ ज्यादा नहीं दिया है।गौरतलब है कि इस अभूतपूर्व गोलमेज सम्मेलन में प्रधान स्वयंसेवक ने दावा किया कि भारत में पूंजीनिवेश और कारोबार के बेहतरीन मौके उनकी गोभक्त हिंदुत्व की सरकार ने महज तीन साल में सात हजार सुधारों के मार्फत बना दिये हैं।

भारत की आजादी के सिलसिले में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलनों के मुकाबले इस गोलमेज सम्मेलन का मतलब मीडिया ने आम जनता को अभीतक बताया नहीं है,जो आजादी की सारी लड़ाई और स्वराज के सपनों के साथ साथ भारतीय जनता के स्वतंत्रता संग्राम का समूचा इतिहास सिरे से धो डालने का सबसे असरदार डिटर्जेंट पाउडर है और जिससे केसरिया केसरिया रंग बहार है,जो असल में सुनहला है।ये ही सुनहले दिनों के ख्वाब और विचार हैं।यही हिंदुत्व का समरसता मिशन है।यही गोरक्षकों का लोकतंत्र,समता और न्याय,भारतीयता है।

अभीतक किसी विद्वतजन ने पलटकर प्रधान स्वयंसेवक से यह सवाल लेकिन पूछा नहीं है कि इस तीन साल के सात हजार सुधारों के बावजूद संविधान कितना बचा है,लोकतंत्र कितना बचा है और कानून का राज कितना बचा है।

सुधारों की दौड़ में फेल हो जाने की वजह से मनमोहन सिंह अमेरिकी नजरिये से नीतिगत विकलांगकता का शिकार हो गये थे। शायद इसके मद्देनजर व्हाइट हाउस के महाबलि को यह हिसाब लगाने के लिए छोड़ दिया गया है कि तीन साल में सात हजार सुधारों के हिसाब से सुधारों की कुल विकास दर कितनी है।क्रिकेट मैचों के स्कोरर साथ ले जाते तो शायद यह भी मालूम हो जाता कि इन धुंआधार सुधारों से कितने विश्वरिकार्ड बने हैं और टूटे हैं।

मुक्त बाजार के लिए तीन साल में इतने सुधारों के मुकाबले बाकी देश कहां है और सुधारों की रैंकिंग में भारत अब कितने नंबर पर है?

सुधारों में 1160 कानून खत्म करने की संसदीय सहमति और गिलोटिन की भी शायद बड़ी भूमिका होगी।

सबसे बड़ी सुधार क्रांति नोटबंदी की हुई है तो उससे भी बड़ी क्रांति गोरक्षा क्रांति अभी शुरु ही हुई है,जो दुनियाभर की क्रांतियों के मुकाबले ज्यादा क्रांतिकारी है क्योंकि इससे भारत में मनुस्मृति विधान लागू होगा जिससे सहिष्णुता ,विविधता, बहुलता,लोकतंत्र, मनुष्यता,सभ्यता,प्रकृति पर्यावरण  सबकुछ गेरुआ रंग में समाहित हो जायेगा और जाति वर्ण रंंगभेदी नस्ली निरंकुश सत्ता से विदेशी पूंजीपतियों और कंपनियों के लिए भारत आखेटगाह बन जायेगा।

आधार क्रांति तो लाजबवाब है जैसा दुनियाभर में कहीं हुआ ही नहीं कि निजता ,गोपनीयता,स्वतंत्रता को पल पल नागरिक बुनियादी जरुरतों और सेवाओं के लिए तिलांजलि दे दें।

भारत में मनुष्य आधार नंबर है वरना उसका कोई वजूद नहीं है।हाथों में हथकड़ी,पांवों में बेड़ियां अलग से डालने की जरुरत नहीं है।देश का चप्पा चप्पा कैदगाह है,कत्लगाह है।कातिलों और दहशतगर्दों को खुली छूट,आम माफी है।यही हिंदूराष्ट्र है।

मुश्किल यह है कि आधार नंबर से कानूनी खानापूरी होगी,लेकिन उससे जान माल की हिफाजत नहीं होगी।वहीं होगा जो कातिलों की मर्जी है।आधार हो न हो,फर्क नहीं पड़ता।

न कानून का राज है और न सात हजार सुधारों के बाद संविधान है।दलित राष्ट्रपति फिर हालांकि मिलना तय है।

आगे जीएसटी सबसे खतरनाक मोड़ है।फिर कत्लेआम बेलगाम जश्न है।खेती का काम तमाम है तो कारोबार भी मौत का सबब है।गजब है।

भारत के संघीय ढांचा् को तोड़कर एक देश एक कर के नाम राज्यों के राजस्व आय की खुली डकैती करके उन्हें गुलाम कालोनियों में तब्दील किया जा रहा है।

केंद्र के पैकेज ,सीबीआई,ईडी जैसी एजंसियों जैसी मेहरबानी पर क्षत्रपों की आत्मरति अब लोकतंत्र है।बाकी वोटबैंक है।

सारा तंत्र एकाधिकार कारपोरेट कंपनियों के लिए है जिसके तहत डिजिटल इंडिया में किसानों, मेहनतकशों और कर्मचारियों, छात्रों, युवाओं और स्त्रियों-बच्चों के साथ साथ खुदरा,छोटा और मंझौला कारोबारियों और वैसे ही उद्योगों का सफाया हो जाना है।

यह चूंचूं का मुरब्बा जीएसटी क्या बला है,कर छूट के गुब्बारों के फूटने के बाद ही पता चलेगा।

फिलहाल सहमति और विरोध का पाखंड संसदीय लोकतंत्र है।

भारत के सुधारों में सबसे बड़ा सुधार शायद राजनीतिक दलों की कारपोरेट फंडिग है।

सारी राजनीति कारपोरेट फंडिंग से होती है तो कारपोरेट हितों के मुताबिक ही राजनीति चलेगी चाहे वोटबैंक समीकरण के लिए किसी दलित को राष्ट्रपति चुनने की मजबूरी हो और आदिवासियों, दलितों,पिछड़ों,स्त्रियों और मुसलमानों को भी सत्ता में हिस्सेदारी का अहसास दिलाना जरुरी हो।

होगा वहीं जो कारपोरेट हित में हो।यही संसदीय सहमति है।

इसी के मुताबिक न्याय पालिका और मीडिया की भूमिका तय हो गयी है।दुनिया भर के सभ्य देशों में नागरिकों के लिए नागरिक और मानवाधिकार की रक्षा करने के माध्यम मीडिया और न्यायपालिका है,जिन पर  कानून का राज बहाल रखने के साथ साथ समानता और न्याय की जिम्मेदारी है,जिन्हें पीडितों की सुनवाई करनी है।इसका उलट सबकुछ हो रहा है।

मीडिया पूरी तरह कारपोरेट हैं और न्यायपालिका भी पूरीतरह सत्ता के साथ है।

नागरिक का उसके आधार नंबर के सिवाय कोई वजूद ही नहीं है।गुलामी से बदतर यह आजादी की खुशफहमी और सुनहले ख्वाबों का तिलिस्म है।हम सिर्फ किस्मत के हवाले हैंं।बाकी कत्ल हो जाने का इंतजार।

बहरहाल इन अभूतपूर्व सुधारों के साथ भारत में जारी आत्मघाती हिंसा और दंगाई माहौल की वजह से इस गोलमेज सम्मेलन का नतीजा यह निकला कि प्रधान स्वयंसेवक के न्यौते पर महाबलि ट्रंप की अखबारों की सुर्खियों में अपनी मुस्कान और कारनामों के लिए छायी रहने वाली बेटी इवंका के नेतृत्व में अमेरिकी उद्योगपतियों का एक दल भारत आने वाला है।सुनहले दिनों के सबसे सुनहले संकेत यही हैं।

बाकी सुनहला केसरिया है।हिंदुत्व का रंग केसरिया है,ऐसा वैदिकी साहित्य में कहीं लिखा नहीं है।

बहरहाल अंध हिंदुत्व राष्ट्रवाद के दृष्टि अंध नागरिकों को सावन के अंधों को हरा ही हरा दीखने की तर्ज पर सबकुछ गेरुआ ही गेरुआ नजर आता है।

गेरुआ ही भक्तों के लिए उनके नजरिये से सुनहला है।

महाबलि ट्रंप से हाथ मिलाकर पाकिस्तान का नामोनिशां मिटाने का प्रधान स्वयंसेवक ने मुकम्मल चाकचौबंद इंतजाम किया है और भारत और अमेरिका दोनों ने माना है कि इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका भारत के साथ है।

जाहिर है कि उनकी इस महान उपलब्धि से उनका ही नहीं भक्तजनों का सीना छप्पन इंच से बढ़कर सीधे दिल्ली वाशिंगटन हवाई मार्ग बनने वाला है।

वीसा चाहे मिले या नहीं मिले।

रेड कार्पेट पर अगवानी हो न हो।

जुबां पर दलील हो न हो तो मातहत सेवा में हाजिर हो।

हिंदुस्तान की सरजमीं पर बीफ के शक में दंगा,बेगुनाहों का कत्लेआम  तो क्या, विदेश में बीफ खाने वालों का आलिंगन गर्मजोशी है और मुस्कान को छू भर लें तो लाख टके का शूट बलिहारी।

बाकी पाकिस्तान और इस्लाम के खिलाफ युद्धोन्माद के सिवाय प्रधान स्वयंसेवक महाबलि से मिलकर क्या साथ लाये हैं,उसके लिए सात परमाणु रिएक्टर और हथियारों और तकनीक की शापिंग लिस्ट लाइव है।

गौरतलब है कि इस युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में रोज भारत में मजहबी पहचान की वजह से शक और आरोप के बिना बेगुनाह लोग भीड़ के हाथों मारे जा रहे हैं।इस पर मौन है तो किसानों की थोक खुदकशी पर उपवास है और घुंघट की सरकार एक तरफ,दूसरी तरफ बलात्कार सुनामी है और अखंड पितृसत्ता में रोमियो तांडव की बजरंगी बहार।

आईटी सेक्टर में  महाबलि ट्रंप की नीतियों के लिए गहराते संकट और लाखों करोडो़ं छात्रों युवाओं के भविष्य पर गहराते अंधेरे के लिए अमेरिका से आयातित परमाणु उर्जा संयंत्रों से कितनी रोशनी मिलेगी और कितनी तबाही,हमें नहीं मालूम।

महाबिल ट्रंप के इस्लामविरोधी जिहाद मौसम में अमेरिकी नीतियों में भारतीयों के लिए भारत और अमेरिका में रोजगार और आप्रवासी भारतीयों के रोजगार जानमाल की गारंटी के बारे में क्या बातचीत हुई, न मीडिया में इसका कोई ब्यौरा है और न संयुक्त घोषणापत्र में कोई उल्लेख।

वीसा समस्या पर क्या बात हुई,हुई भी या  नहीं,यह भी किसी को नहीं मालूम।

इससे बजरंगियों को खास परेशान होने की जरुरत नहीं है।

भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए अपढ़,अधपढ़,पढ़े लिखे,योग्य अयोग्य हर तरह के स्वयंसेवकों की भरती हिंदू सेना के नानाविध बटालियनों में हो रही है।उन्हें रोजगार की चिंता नहीं होगी।हिंदू राष्ट्र के मकसद से ढोल गवांर पशु शूद्र नारी सारे ताड़न के अधिकारी किसी भी पद पर तैनात किये जा सकते हैं ताकि बकरी का गला रेंतने से पहले वैदिकी कर्मकांड की रस्म अदायगी हो जाये।

नरबलि भी वैदिकी कर्मकांड है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।

मुश्किल है उनके लिए जो बजरंगी नहीं हैं।

जो बजरंगी नहीं है,उनके लिए इस मुल्क में अब कोई मौके नहीं हैं।फिर दंगाई राजकाज के मुताबिक उन्हें जीने का कोई हक भी नहीं है।बजरंगी सेना उनका हिसाब किताब करने लगी है।

इतने लोग मारे जा रहे हैंं और आगे मारे जाते रहेंगे कि गिनती मुश्किल हो जायेगी।नाम धाम तक दर्ज नहीं होने वाला है।

जलवायु करार के प्रति प्रतिबद्धता का शोर मचाने वाले प्रधान स्वयंसेवक ने आतंकवाद के अलावा  जलवायु और पर्यावरण के साथ विश्वनेताओं के बीच  आम तौर पर जिन मसलों पर ऐसे मौकों पर चर्चा  होती है,उनमें से किस किस मुद्दे पर क्या क्या बातें की हैं,उसका अभी खुलासा नहीं हुआ है।

गौरतलब है कि अमेरिका के आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का नाम ट्रंप जमाने में अब इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ युद्ध है और भारत इस युद्ध में इस्लाम के खिलाफ अमेरिका के साथ।चूंकि भारत और अमेरिका, महाबलि ट्रंप और प्रधान स्वयंसेवक दोनों को लगता है कि आतंकवाद इस्लामी है और इस इस्लामी आतंकवाद को जड़ से समाप्त कर दिया जाये तो दुनिया भर में अमन चैन कायम हो जायेगा। मीडिया के मुताबिक महाबलि के साथप्राधान स्वयंसेवक  के बिताये अंतरंग पलों का सार यही है कि पाकिस्तान को सबक सिखाने में अमेरिका भारत के साथ है।

भारत अमेरिका संयुक्त घोषणापत्र पर गौर करेंः

मीडिया के मुताबिक भारत और अमेरिका ने आतंकवाद को प्रश्रय देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का संकल्प लेने के साथ ही पाकिस्तान से मुंबई और पठानकोट आतंकी हमलों के दोषियों को कानून के शिकंजे में लाने की कार्रवाई तेज करने करने को कहा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच यहां हुई बैठक के बाद जारी संयुक्त घोषणा पत्र में  ट्रंप ने कहा, "भारत और अमेरिका दोनों आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित रहे हैं, हम कट्टर इस्लामिक आतंकवाद को जड़ से मिटाने का संकल्प लेते हैं।"

मीडिया के मुताबिक अमेरिकी राष्ट्रपति ने पड़ोसी देश पाकिस्तान से मुंबई और पठानकोट में हुए आतंकी हमलों के दोषियों को कानून के शिकंजे में लाने की कार्रवाई तेज करने काे कहा।

संयुक्त बयान के मुताबिक परमाणु अप्रसार के क्षेत्र में भारत के साथ वैश्विक साझेदार बने अमेरिका ने परमाणु आपूर्तिकता समूह (एनएसजी), वासेनार व्यवस्था और रासायनिक एवं जैविक हथियारों से संबंधित प्रौद्योगिकियों के निर्यात नियंत्रण पर लगाम लगाने के उद्देश्य से बनाये गये अनौपचारिक समूह 'आस्ट्रेलिया ग्रुप'में भारत की सदस्यता की दावेदारी का पुरजोर समर्थन भी किया।

छोटे मोटे कुलीन सैलाब से संस्थागत रंगभेदी कारपोरेट फासिज्म को कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रिय अभिषेक! पलाश विश्वास

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छोटे मोटे कुलीन सैलाब से संस्थागत रंगभेदी कारपोरेट फासिज्म को कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रिय अभिषेक!
पलाश विश्वास

अभिषेक,तुम्हारी इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए धन्यवाद।धर्मोन्मादी देश की मेला संस्कृति दरअसल हमारी सुविधाजनक राजनीति है।लेकिन भीड़ छंटते ही फिर वही सन्नाटा।

इसके उलट सत्ता की राजनीति का चरित्र कारपोरेट प्रबंधन जैसा निर्मम है।

सत्तावर्ग के माफिया वर्चस्व के सामने निहत्था निःशस्त्र लड़ाई का फैसला बेहद मुश्किल है और सेलिब्रिटी समाज अपनी हैसियत को दांव पर लगाता नहीं।

भद्रलोक की खाल बेहद नाजुक होती है।भद्रलोक को यथास्थिति ज्यादा सुरक्षित लगती है और वह कोई जोखिम उठाता नहीं है।

नाटइनमाई नेम सुविधाजनक शहरी विरोध का सैलाब है,जो कहीं ठहर ही नहीं सकता।
यह निरंकुश रंगभेदी संस्थागत कारपोरेट फासिज्म को रोकने के लिए असमर्थ है।
कारपोरेट फंडिंग की संसदीय राजनीति में नोटबंदी हो या जीएसटी या आधार या सलवा जुडुम  उसके खिलाफ,बुनियादी मुद्दों को लेकर कोई राजनीतिक प्रतिरोध अब असंभव है।
निर्भया मोमबत्ती जुलूस से कुछ बदलता नहीं है।
जमीन बंजर हो गयी है और नई पौध कहीं नहीं है।
हवाएं मौकापरस्त है।
रुपरसगंध फरेबी तिलिस्म है।
लड़ाई आखिर लड़ाई है,जो बिन मोर्चा बांधे सिनेमाई करिश्मे या करतब से लड़ी नहीं जा सकती।
बहरहाल यह सेल्फी समय है और मीडिया को दिलचस्प बाइट भी चाहिए होते हैं।
हम अभी विचारधारा पादने में ही बिजी है,जो पढ़े लिखे विद्वतजन का विशेषाधिकार भी है।
किसानों और मेहनतकशों,निनानब्वे फीसद आम जनता के हक हकूक के लिए हम अभी विकल्प राजनीति की जमीन ही तैयार नहीं कर पाये हैं।
सबकुछ राष्ट्रपति चुनाव ,भारत अमेरिका या भारत इजराइल गठबंधन की तरह अबाध पूंजी प्रवाह है।विनिवेश का मौसम है।
फिरभी मरी हुई ख्वाबों में जान फूंकने के लिए कुछ तो करना ही होगा क्योंकि हमारे हिस्से की जिंदगी बेहद तेजी से खत्म हो रही है।
बेहद प्रिय अभिषेक श्रीवास्तव ने फेसबुक दीवाल पर  लिखा हैः

उमस कुछ कम हुई है। कल सैलाब आया था। कहकर चला गया कि जो करना है करो लेकिन मेरे नाम पर मत करो क्‍योंकि तुम्‍हारे किए-धरे में मैं शामिल नहीं हूं। तीन साल पहले 16 मई, 2014 को जब जनादेश आया था, तो यही बात 69 फीसदी नागरिकों ने वोट के माध्‍यम से कही थी और संघराज में आने वाले भविष्‍य को 'डिसअप्रूव' किया था। वह कहीं ज्‍यादा ठोस तरीका था, कि महाभोज में जब हम शामिल ही नहीं हैं तो हाज़मा अपना क्‍यों खराब हो। यह बात कहने के वैसे कई और तरीके हैं। कल गिरीश कर्नाड की तस्‍वीर देखी तो याद आया।

कोई 2009 की बात रही होगी। इंडिया इंटरनेशनल की एक रंगीन शाम थी। रज़ा फाउंडेशन का प्रोग्राम था। मैं कुछ मित्रों के साथ एक परचा लेकर वहां पहुंचा था। एक हस्‍ताक्षर अभियान चल रहा था छत्‍तीसगढ के सलवा जुड़ुम के खिलाफ़। सोचा, सेलिब्रिटी लोग आए हैं, एकाध से दस्‍तखत ले लेंगे। प्रोग्राम भर ऊबते हुए बैठे रहे। गिरीश कर्नाड जब मंच से नीचे आए तो मैं परचा लेकर उनके पास गया। ब्रीफ किया। काग़ज़ आगे बढ़ाया। उन्‍होंने दस्‍तखत करने से इनकार कर दिया। क्‍या बोले, अब तक याद है- ''मैं समझता हूं लेकिन साइन नहीं करूंगा। मेरा इस सब राजनीति से कोई वास्‍ता नहीं।'' और वे अशोकजी वाजपेयी के साथ रसरंजन के लिए निकल पड़े।

इसी के छह साल पहले की बात रही होगी जब 2003 में एरियल शेरॉन भारत आए थे। जबरदस्‍त विरोध प्रदर्शनों की योजना बनी थी। इंडिया गेट की पांच किलोमीटर की परिधि सील कर दी गई थी। उससे पहले राजेंद्र भवन में एक साहित्यिक आयोजन था। मैं हमेशा की तरह परचा लेकर दस्‍तखत करवाने वहां भी पहुंचा हुआ था। प्रोग्राम खत्‍म हुआ। नामवरजी बाहर आए। मैंने परचा पकड़ाया, ब्रीफ किया, दस्‍तख़त के लिए काग़ज़ आगे बढ़ाया। उन्‍होंने दस्‍तख़त करने से इनकार कर दिया। मुंह में पान था, तो इनकार में सिर हिला दिया और सुब्रत रॉय की काली वाली गाड़ी में बैठकर निकल लिए।

इंडिविजुअल के साथ यही दिक्‍कत है। वह प्रोटेस्‍ट में सेलेक्टिव होता है। मूडी होता है। दूसरे इंडिविजुअल पर जल्‍दी भरोसा नहीं करता, जब तक कि भीड़ न जुट जाए। अच्‍छी बात है कि अलग-अलग फ्लेवर के लिबरल लोग प्‍लेकार्ड लेकर साथ आ रहे हैं, लेकिन ऐसा तो होता ही रहा है। निर्भया को भूल गए या अन्‍ना को? भारत जैसे धार्मिक देश में मेला एक स्‍थायी भाव है। उसका राजनीतिक मूल्‍य कितना है, पता नहीं। वैसे, आप अगर फोकट के वामपंथी प्रचारक रहे हों तो चमकदार लिबरलों को आज मेले में देखकर पुराने किस्‍से याद आ ही जाते हैं। एक सूक्ष्‍म शिकायत है मन में गहरे दबी हुई जो कभी जाती नहीं। पार्टी के बीचोबीच ''किसी बात पर मैं किसी से ख़फ़ा हूं...'' टाइप बच्‍चनिया फीलिंग आने लगती है। खैर, सर्वे भवन्‍तु सुखिन:... !


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