महत्वपूर्ण खबरें और आलेख बनारस में तोते की जान दांव पर है और कालाधन गंगाजल की तरह पवित्र
महत्वपूर्ण खबरें और आलेख बनारस में तोते की जान दांव पर है और कालाधन गंगाजल की तरह पवित्र
क्योंकि भारत में भारतीयों का सफाया फासिज्म का नस्ली राजकाज है इसलिए ट्रंप के नस्ली उन्मादी जिहाद के हक में हैं राजनीति,राजनय और मीडिया। असम में बंगाली शरणार्थियों की रैली उल्फा के खिलाफ,अब जेलभरो का ऐलान। आखिरी चरण के मतदान से पहले अमेरिका ने कहा,पाकिस्तान और बांग्लादेश खतरनाक और भारत में भी आतंकवादी सक्रिय,मध्य प्रदेश और यूपी में मुठभेड़ शुरु। पलाश विश्वास
क्योंकि भारत में भारतीयों का सफाया फासिज्म का नस्ली राजकाज है
इसलिए ट्रंप के नस्ली उन्मादी जिहाद के हक में हैं राजनीति,राजनय और मीडिया।
असम में बंगाली शरणार्थियों की रैली उल्फा के खिलाफ,अब जेलभरो का ऐलान।
आखिरी चरण के मतदान से पहले अमेरिका ने कहा,पाकिस्तान और बांग्लादेश खतरनाक और भारत में भी आतंकवादी सक्रिय,मध्य प्रदेश और यूपी में मुठभेड़ शुरु।
पलाश विश्वास
The US on Tuesday issued a travel warning for its citizens visiting Pakistan, Afghanistan and Bangladesh, and said extremist elements are also 'active' in India.
आखिरी चरण के मतदान से पहले अमेरिका ने कहा,पाकिस्तान और बांग्लादेश खतरनाक और भारत में भी आतंकवादी सक्रिय,मध्य प्रदेश और यूपी में मुठभेड़ शुरु।
कानपुर के रेल दुर्घटना में पाकिस्तानी हाथ होने के दावे के बीच मध्य प्रदेश में ट्रेन के डिब्बे में धमाका और उसके साथ साथ अमेरिकी चेतावनी और फतवे के बीच जगह जगह आतंकवादियों से मुठभेड़ का सिलसिला बेहद खतरनाक घटनाक्रम है।
फिलहाल टीवी पर आंखों देखा एनकाउंटर जारी है।जाहिर है कि भारत में भी आतंकवाद के खिलाफ युद्ध तेज होना है तो ऐसे में ट्रंप के राजकाज के खिलाफ हमारी जुबां खामोश है।
अजब गजब मीडिया इस विचित्र भारतवर्ष का है।
अमेरिका में एक के बाद एक भारतीय मूल के मनुष्यों पर हमले जारी हैं।लेकिन बनारस के अलावा भारतीय मीडिया का कहीं फोकस है तो वह पाकिस्तान है या फिर चीन है।अमेरिका के सात खून माफ हैं।
मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुस्लिम देशों के साथ भारत के प्रतिबंधित न होने के बावजूद मुसलमानों और अश्वेतों के खिलाफ अमेरिका के श्वेत आतंकवादी धर्मयुद्ध में गैर मुसलमान भारतीय नागरिकों पर एक के बाद एक हमले क्यों हो रहे हैं।
यही मीडिया साठ के दशक से संघ परिवार के तत्वावधान में असम और समूचे पूर्वोत्तर में विदेशी हटाओ नारे के साथ भारत के दूसरे हिस्सों से वहां गये लोगों और पूर्वी बंगाल से आकर बसे विभाजन पीड़ितों के खिलाफ उग्रवादी नस्ली हमलों का समर्थन करता रहा है।
कल असम में निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समन्वय समिति की ओर से असम में अल्फाई राजकाज के प्रतिरोध में अभूतपूर्व रैली की है।जिसके बारे में समन्वय समिति के महासचिव अंबिका राय ने लिखा हैः
This is Nikhil bharat Bengali udbastu samanway samiti convention cum Rally at Dhamaji district , Assam on 6.3.2017. More than One lakh people assembled at the rally n convention. This program was only attended by two district only. AASU (All Assam Student Association) is spreading venom against Nikhil bharat with the false allegation to stop the movement as they never assessed the popularity of Nikhil bharat. They want Nikhil bharat central leadership should get arrested by Sarbanonda Sonwal 's administration. Tomorrow or day after we shall proceed from all states to Assam to get arrested voluntarily in protest against any sort of false allegation.
वीडियो भी देखेंः
https://www.facebook.com/ambika.ray.16
जाहिर है कि सोनोवाल को हिंदू शरणार्थियों के अटूट समर्थन के बावजूद असम में आसू और अल्फा के निशाने पर बंगाली हिंदू शरणार्थी हैं।
शरणार्थी रैली के बाद जेल भरो आंदोलन के बाद क्या हालात होंगे और उल्फा की पृष्ठभूमि के सोनोवाल पर शरणार्थियों का भरोसा कितना खरा रहेगा, इससे बड़ा सवाल यह है कि उल्फाई राजकाज में यातना शिविर में तब्दील असम में गैर असमिया समुदायों की जान माल कितनी सुरक्षित है और संघ परिवार के भरोसे अमन चैन का क्या होना है।फिरभी असम की जमीन पर उल्फा के खिलाफ यह प्रतिरोध आंदोलन अभूतपूर्व है लेकिन आगे क्या होगा,उसपर नियंत्रण किसका होगा,फिक्र इसकी है।
अमेरिका ही नहीं,हमले अन्यत्र भी शुरु होने का अंदेशा है कि अमेरिका के बाद न्यूजीलैंड में भी अपने देश वापस जाओ,की चेतावनी के साथ बिना मोहलत दिये भारतीय मूल के नागरिक पर हमला हो गया।
यह बेहद जल्द संक्रामक महामारी में तब्दील होने जा रहा है और बजरंगी वाहिनी और उनके सिपाहसालारों से निवेदन हैं कि भारतीय होने का मतलब सिर्फ मुसलमान नहीं है।
फिरभी क्या मजाल की महामहिम ट्रंप की नस्ली भारतविरोधी मुहिम के खिलाफ भारत सरकार चचूं भी करें क्योंकि पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करवाने की राजनय राजनीति दोनों ट्रंप समर्थक है।मीडिया भी ट्रंप के हक में है।
वैसे भारत वापस जाओ,के नारे सिर्फ विदेश में लग रहे हैं ,ऐसा नहीं है।
असम और पूर्वोत्तर में भारत के बाकी हिस्सों के नागरिकों के खिलाफ नारा यही है और असम में भाजपा सरकार का राजकाज उल्फाई है तो गोरखालैंड से लेकर बाकी पूर्वोत्तर के केसरियाकरण के लिए संघ परिवार का क्षेत्रीय उग्रवाद के साथ चोली दामन का रिश्ता है।
भारतीय मुसलमानों को कश्मीर और पूर्वोत्तर और काफी हद तक उत्तराखंड और हिमाचल के भारतीय गैर नस्ली नागरिकों के साथ, आदिवासियों के साथ और यूं कहें तो समूचे बहुजन समाज के साथ संघ परिवार न हिंदू मानता है और न भारतीय।
देश में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ लोकतांत्रिक आलोचना या सिर्फ आदिवासियों और बहुजनों के हक में मनुस्मृति के खिलाफ आवाज उठाने के लिए या दमन उत्पीड़न नरसंहार का विरोध करने के लिए या निरामिष ढंग से सिर्फ धर्म निरपेक्षता, विविधता ,बहुलता, नागरिक मानवाधिकारों , विविधता, रोजगार, आजीविका की बात कहने पर तत्काल पाकिस्तान चले जाने का फतवा जारी हो जाता है।
मसलन ताजा जानकारी यह है कि माओवादियों से संबंध रखने के कारण डीयू के रामलाल आनंद कॉलेज से निलंबित चल रहे अंग्रेजी के प्राध्यापक जीएन साईबाबा को अब दोषी पाया गया है और ऐसी संभावना है कि अब उनको नौकरी से निष्काषित किया जा सकता है। हालांकि, इस बाबत अंतिम फैसला कॉलेज की गवर्निग बॉडी लेगी। डीयू के कई शिक्षकों का साईबाबा से संबंध था और कुछ शिक्षक तो गढ़चिरौली जेल में उनसे मिलने भी गए थे। प्राप्त सूचना के अनुसार, ये शिक्षक भी पुलिस के रडार पर हैं।
ऐसे में अमेरिका ने बाकी चुनिंदा मुस्लिम देशों को अमेरिका में प्रतिबंधित कर देने के बाद अफगानिस्तान,पाकिस्तान और बांग्लादेश को डेंजरस बता देने के बाद भारत में भी आतंकवादियों के सक्रिय रहने के आरोप के साथ भारत यात्रा के खिलाप फतवे देने से मनुस्मृति के राजधर्म को कोई फर्क पड़ता नहीं है।
बल्कि संघी नजरिये से भारत में गैरहिंदुओं के सफाये के एजंडा के तहत आतंकवादियों से निबटने के लिए अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप का न्यौता दिये जाने की राजनय का ही आफ हिंदू होने के नाते इंतजार करें तो आप वास्तव में हिंदू और भारतीय नागरिक दोनों हैं,वरना नहीं। ताजा घटनाक्रम इसीका संकेत है।
गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने सोमवार को संशोधितट्रैवल बैन ऑर्डरपर दस्तखत कर दिए। खास बात यह है कि व्हाइट हाउस ने संशोधित ट्रैवल बैन ऑर्डर में इराक का नाम लिस्ट से हटा दिया है। 27 जनवरी के पहले ट्रैवल बैन लिस्ट में 7 देशों के नाम थे। ट्रंप ने राष्ट्रपति पद संभालने के साथ ही इराक समेत सात मुस्लिम बहुल देशों पर यात्रा प्रतिबंध लगाते हुए शासकीय आदेश पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन अदालतों ने उसे रोक दिया। इसे लेकर दुनिया भर के लोगों में काफी गुस्सा भी था।
व्हाइट हाउस के प्रवक्ता सीन स्पाइसर ने बताया कि ट्रंप ने बंद कमरे में इस नये आदेश पर हस्ताक्षर किए। नए शासकीय आदेश में सूडान, सीरिया, ईरान, लीबिया, सोमालिया और यमन के लोगों पर 90 दिनों का प्रतिबंध लगाया गया है। हालांकि यह पहले से वैध वीजा प्राप्त लोगों पर लागू नहीं होगा।
बनारस का राजकाज निबट गया है और राजधानी फिर नई दिल्ली में है।बाकी मंत्रिमंडल शायद दिल्ली में लौट आया है लेकिन प्रधानमंत्री बनारस से सीधे गुजरात लैंड कर रहे हैं क्योंकि पीएम नरेंद्र मोदी आज से दो दिनों के गुजरात दौरे पर जा रहे हैं। इस दौरान पीएम कई कार्यक्रमों और बैठकों में हिस्सा लेंगे। पीएम सबसे पहले ओएनजीसी पेट्रो एडिशन्स लिमिटेड पेट्रोकैमिकल कॉमप्लेक्स में आयोजित एक समारोह में उद्योग जगत को संबोधित करेंगे। बाद में पीएम भरूच में आयोजित एक जनसभा को भी संबोधित करेंगे। पीएम भरूच जिले में नर्मदा नदी पर चार लेन के एक पुल का उद्घाटन करेंगे। इस पुल का निर्माण अहमदाबाद-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर यातायात को सुगम बनाने के लिए किया गया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक- यह देश का सबसे लंबा एक्स्ट्रा डाज्ड केबल ब्रिज है।.
इस बीच अमेरिका के बाद न्यूजीलैंड में भी भारतीय मूल के एक नागरिक पर हमला हुआ है तो डान डोनल्ड ट्रंप ने नया फतवा अमेरिकी नागरिकों के लिए भारत की यात्रा के खिलाफ जारी कर दिया है,बलि भारत में भी आतंकवादी सक्रिय हैं।
बनारस से चंचलजी ने फेसबुक पर लिखा हैः
कम्बख्त ये बनारस का जिलाधिकारी कौन है ? जिसे रोड शो क्या होता है , पता ही नही ? कहां से पढा है भाई और किस गधे ने डी यम बना दिया ? खुलीजीप मे खड़े होकर लाव लस्कर के साथ प्रदर्शन करना ही तो रोड शो कहलाता है या कुछ और ?
जा बच्चू स्साला जमाना निकल गया , वरना बताते डी यम किसे कहते हैं । भूरेलाल से बड़े अधिकारी नही हो , बड़ी दुर्गति हुई थी , विष्वविद्यालय मे ।
एक सवाल है डी यम साहेब
रोड शो कैसे होता है , उसका मानक क्या है ?
शर्म नही आती लिखित दे रहे हो की मोदी का रोड शो नही था ।
बहरहाल ताजा जानकारी के मुताबिक लखनऊ के जिस इलाके में एनकाउंटर चल रहा है वो रिहायशी कॉलोनी है। कॉलोनी नई है। इसलिए लोग एक-दूसरे के बारे में ज्यादा वाकिफ नहीं हैं। घर भी दूर-दूर बने हैं। लखनऊ.यहां के ठाकुरगंज इलाके में पुलिस का एक संदिग्ध आतंकी के साथ एनकाउंटर जारी है। आतंकी एक घर में छिपा है। दोनों तरफ से पहले रुक-रुक कर फायरिंग हुई। बाद में फायरिंग थम गई। एटीएस ने संदिग्ध से बात करने की कोशिश की। लेकिन उसने कहा कि वह जान दे देगा, लेकिन सरेंडर नहीं करेगा। इसके बाद फायरिंग दोबारा तेज हो गई। 20 राउंड फायरिंग के बाद एटीएस ने मौके पर एंबुलेंस बुला ली। फायरिंग में संदिग्ध घायल हो गया है।
इस मुठभेड़ से पहले भोपाल से 70 किमी दूर कालापीपल में जबड़ी स्टेशन के पास मंगलवार सुबह भोपाल-उज्जैन पैसेंजर (59320) ट्रेन में ब्लास्ट हो गया। इसमें 9 लोग जख्मी हो गए। ब्लास्ट से जनरल कोच में छेद हो गया। एमपी के आईजी लॉ एंड ऑर्डर मकरंद देवस्कर ने पुष्टि की कि भोपाल-उज्जैन पैसेंजर ट्रेन में हुआ ब्लास्ट आतंकी हमला ही था। यह आईईडी ब्लास्ट था। इस बीच, हमले के कुछ ही घंटों बाद पिपरिया पुलिस ने एक बस को टोल नाके पर रोककर तीन संदिग्धों को अरेस्ट कर लिया। सूटकेस में एक्सप्लोसिव होने का शक... - जीआरपी एसपी कृष्णा वेणी ने शुरुआती जांच में शॉर्ट सर्किट की वजह से ब्लास्ट होने की बात कही।
Politics betrays again!Refugees attacked in Assam by AASU and FIR lodged against refugees,wanted warrant issued. Palash Biswas
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Palash Biswas
जीत का जश्न मना लें,आगे अनंत अमावस्या है! आटोमेशन से नौकरियां, कंप्यूटर के बाद रोबोट के हमले में रोजगार,आजीविका खत्म विदेशों में हमले रुकें या न रुकें,भारत में तकनीकी पीढ़ियों के लिए अभूतपूर्व रोजगार संकट, भारत में रोजगार का इकलौता विकल्प IT सेक्टर में काम करने वाले करीब 14 लाख कर्मचारियों का भविष्य अंधकार! मुक्त बाजार में नोटबंदी के बाद अब भुखमरी, बेरोजगारी, मंदी, असहिष्णुता, घृणा,ह�
जीत का जश्न मना लें,आगे अनंत अमावस्या है!
आटोमेशन से नौकरियां, कंप्यूटर के बाद रोबोट के हमले में रोजगार,आजीविका खत्म
विदेशों में हमले रुकें या न रुकें,भारत में तकनीकी पीढ़ियों के लिए अभूतपूर्व रोजगार संकट, भारत में रोजगार का इकलौता विकल्प IT सेक्टर में काम करने वाले करीब 14 लाख कर्मचारियों का भविष्य अंधकार!
मुक्त बाजार में नोटबंदी के बाद अब भुखमरी, बेरोजगारी, मंदी, असहिष्णुता, घृणा,हिंसा और जुबांबंदी का सवा सत्यानाशी माहौल।
पलाश विश्वास
जीत का जश्न मना लें,आगे अनंत अमावस्या है।
अमेरिका और बाकी दुनिया में भारतीय मूल के लोगों पर हमले तेज हो रहे है तो स्वदेश में भी आजीविका और रोजगार पर कुठाराघात है।
मुक्तबाजार में नोटबंदी के बाद अब भुखमरी, बेरोजगारी, मंदी, असहिष्णुता, घृणा, हिंसा और जुबांबंदी का माहौल है।भारत मेंIT सेक्टरमें काम करने वाले करीब 14 लाख कर्मचारियों का भविष्य एक ट्रांजिशन फेज से गुजर रहा है। इनमें से ज्यादातर कर्मचारियों की जॉब खतरे में है।
विकास दर के झूठे दावे और झोलाछाप अर्थशास्त्रियों के करिश्मे से सुनहले दिनों के ख्बाब और रामजी की कृपा से धार्मिक ध्रूवीकरण और आखिरी वक्त आईसिस के हौआ से भले ही यूपी जीत लें संघ परिवार,अर्थ व्यवस्था की गाड़ी पटरी पर लौटनेवाली नहीं है।मसलन ग्लोबल मंदी और डॉनल्ड ट्रंप की नीतियों से आईटी सेक्टर घबराया हुआ है। इंडस्ट्री में लगातार उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है। इसी को देखते हुए नैसकॉम ने भी वित्त वर्ष 2018 का ग्रोथ अनुमान तीन महीने के लिए टाल दिया है। ऐसा पहली बार है जब नैसकॉम ने वित्त वर्ष शुरू होने से पहले ग्रोथ अनुमान टाला हो। हालांकि आईटी सेक्टर को अब भी आने वाला समय बेहतर दिखाई दे रहा है।
नैसकॉम चेयरमैन सी पी गुरनानी ने कहा है कि आईटी इंडस्ट्री तेजी से ऑटोमेशन की तरफ बढ़ रही है इसलिए नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है।
For the sector as a whole – including large, medium and small IT firms but excluding MNC captive centres – the growth in 2017 is expected to be a mere 5.3 per cent. That's a steep drop from the 8-10 per cent that the industry is expected to do, as per IT industry body Nasscom.
भारतीय आईटी सेक्टरमें काम करने वाले मिड लेवल के कर्मचारियों के लिए चिंता करने वाली खबर है।
इकॉनमिक टाइम्सकी खबर के मुताबिक, ये कंपनियां खुद को ऑटोमेशन और नई टेक्नॉलजी के हिसाब से ढालने में लगी हुई हैं। मिड लेवल की कंपनियों में करीब 14 लाख कर्मचारी हैं। उनके पास 8 से 12 साल का अनुभव है और उनकी सेलरी 12 से 18 लाख रुपए सलाना है। बताया जा रहा है कि री-स्किलिंग और री-स्ट्रक्चरिंग का असर इन्हीं पर है। आमतौर पर इनकी उम्र 35 साल के आस-पास ही होती है।
यूपी समेत पांच राज्यों में मीडिया सत्ता के साथ रहा है और पहले ही केसरिया सुनामी पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
नोटबंदी से लेकर राममंदिर और आखिरकार आतंकवाद जैसे पड़ाव पार करने के बाद मतदान पर्व समाप्त है और 11 मई तक भारतीय मीडिया में ज्योतिष शास्त्र वास्तुशास्त्र के तहत कुंडलीपर्व जारी रहना है।
बहरहाल कोई जीते या कोई हारे,यह हमारे सरदर्द का सबब नहीं है।
कामर्शियल, माफ करें चुनावी अंतराल के बाद संसद का बजट सत्र फिर चालू है और किसी ने सवाल दाग ही दिया कि अमेरिका में भारतीय मनुष्यों पर एक के बाद एक हमले पर प्रधान सेवक क्यों चुप हैं।सवाल कोई चाबी जाहिर है नहीं कि चुप्पी का सिंहद्वार खोल दें।बहरहाल गृहमंत्री ने कहा कि सरकार सीरियस है।
हालात लतीफों से ज्यादा हास्यास्पद है मसलन खबर है कि कल तक एनआरआई दूल्हे के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठे परिवार अब शादी के ऐसे प्रस्तावों से कन्नी काटने लगे हैं।
मजे का किस्सा यह है कि शादी की जोड़ियां मिलाने वाली वेबसाइटों के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में हाल की घटनाओं से भारतीय परिवारों में एनआरआई दूल्हे का क्रेज काफी कम हुआ है। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक इनकी मांग में 25 फीसदी की कमी आई है। यह कमी ज्यादातर अमेरिका में बसे भारतीय दूल्हों के संदर्भ में बताई जा रही है। कहने को एनआरआई कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड से लेकर संयुक्त अरब अमीरात तक तमाम देशों में फैले हुए हैं..
अब तनिको इस सीरियस संवाद पर गौर फरमायेंः
In his reply, Union Home Minister Rajnath Singh said that the government has taken a serious note of the recent incidents against Indians in US. He added that the government will make a statement on the issue next week in the Parliament. "What is happening in the US is being viewed seriously by the government and a statement would be made in the Parliament next week," he said during Question Hour. Parliamentary Affairs Minister Ananth Kumar also said the government was very much concerned about the incidents in the US.
साभार इंडियन एक्सप्रेस
कुछ पल्ले पड़ा? सरकार सीरियस है लेकिन इस नस्ली घृणा अभियान की निंदा या विरोध करने की स्थिति में नहीं है।जाहिर है कि मामले को मटियाने के लिए संसद में बयान जारी कर दिया जायेगा।
जाहिर है कि मनुस्मृति शासन के सत्ता वर्गी की राजनीति और राजनय अमेरिकी हितों के खिलाफ चूं भी करने की हालत में नहीं है।जिस कारपोरेट फंडिंग के बिना संसदीय राजनीति नहीं चलती,उसके तार सीधे व्हाइट हाउस से जुड़े हुए हैं।
सत्ता वर्ग नोटबंदी के मुक्तबादा र में किताना मालामाल है उसका एक उदाहरण पेश है।एक तरफ कहा जाता है कि नोटबंदी की वजह से व्यापार और कमाई में भारी गिरावट की आई है, वहीं आंध्र प्रदेश के अधकेसरिया मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बेटे और युवा नेता नारा लोकेश की कमाई में इस दौरान 23 फीसद बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है। चंद्रबाबू नायडू के बेटे और तेलगू देशम पार्टी के महासचिव नारा लोकेश जल्दी ही अपने पिता की कबिनेट में शामिल होने वाले हैं। नारा लोकेश ने सोमवार को चुनाव आयोग में जो हलफनामा दिया है उससे ही खुलासा हुआ है कि नोटबंदी के दौरान उनकी संपत्ति में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।
From Rs 14.50cr to Rs 330cr in 5 months, Nara Lokesh's net worth in affidavit raises eyebrows
सवाल यह है कि राष्ट्र को नागरिकों की जान माल की कितनी चिंता है और नागरिकों की देश विदेश में सुरक्षा की जिम्मेदार चुनी हुई सरकार है या नहीं।
धर्म कर्म से लेकर आतंकवाद तक जो अंध राष्ट्रवादी की सुनामी है,वहां राष्ट्र जाहिर है कि सार्वभौम है, सर्वशक्तिमान है, लेकिन उस राष्ट्र के नागरिकों का वजूद सिर्फ आधार नंबर है।सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना करते हुए हर जरुरी सेवा के लिए आधार अनिवार्य किया जा रहा है,जो सबसे बड़ा आईटी टमत्कार है तो नागरिकों की गतिविधियों,उनकी निजता,गोपनीयता से लेकर उनके सपनों और विचारों की लगातार निगरानी का चाकचौबंद इंतजाम है। अपरेने ही नागरिकों की कारपोरेट कंपनियों के हित में निगरानी करने वाले राष्ट्र के नागरिकों की देश विदेश में सुरक्षा करने की कितनी जिम्मदारी है और इस सिलसिले में सरकार और सत्ता तबक कितना सीरियस है जो पल पल नागरिकों की जिंदगी नर्क बनाने में सक्रिय हैं,समझ लें।
मिड डे मिल परदि वायर के वीडियो में मशहूर पत्रकार विनोद दुआने सही कहा है कि आधार है तो आपका वजूद एक नंबर है और आधार नहीं है तो आपका कोई वजूद नहीं है। राजकाज और राजधर्म से तो साबित है कि निराधार आधार का भी कोई वजूद नहीं है। नंबरदार गैरनंबरदार नागरिक कैसा भी हो,उसका कोई वजूद नहीं है।
अमेरिका के किसी नागरिक का दुनियाभर में कहीं बाल भी टेढ़ा हो जाये तो अमेरिका अपनी पूरी सैन्य शक्ति अपने उस इकलौते नागरिक के हक में झोंक देता है। उसी अमेरिका में जब किसी उपनिवेश के नागरिक की ऐसी तैसी या हत्या तक हो जाये तो जाहिर है कि उपनिवेश की सरकार के लिए जुंबा पर तालाबंदी के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है।तकनीकी जनता की हालत भी अदक्ष श्रमजीवी आम जनता से बेहतर नहीं है तकनीकी गैरतकनीकी क्रयशक्ति विभाजन की नोटबंदी के बावजूद।इस तकनीक कार्निवाल के कबंध नागरिकों का भी बाकी जनता का हाल होने वाला है।
मुश्किल यह है कि फ्रांस में भी लेडी ट्रंप की ताजपोशी तय है।भूमंडल में कहीं, शरणार्थी हो या आप्रवासी श्वेत आतंकवाद के निशाने से किसी का भी बच पाना मुश्किल है।यूरोप और अमेरिका के बाहर न्यूजीलैंट से लाइव स्ट्रीमिंग शुरु है।
विदेश में बारतीय नागरिकों पर हमले से बड़ी खबर यह है कि अब क्योंकि IT सेक्टरवक्त के साथ साथ नई टेक्नोलॉजी के हिसाब से बदल रहा है। यह दौर ऑटोमेशन का है।सत्ता तबके के मेधावी बच्चों पर शायद फिलहाल फर्क न पड़े।
क्योकि ऑटोमेशन से अगर सबसे ज्यादा खतरा है तो वे हैं कंपनी के मिड लेवल कर्मचारी।जो आम जनता और बहुजन परिवारों के मध्य मेधा वाले बच्चे हैं और तकनीक के अलावा कुछ नहीं जानते और दलील यह है कि इनकी जॉब खतरे में इसलिए है क्योंकि ये कर्मचारी खुद को बदलना नहीं चाहते हैं। कहा जा रहा है कि ये कर्मचारी एक अच्छे मैनेजर हैं जो मैनेज करना अच्छे से जानता है। बदलती टेक्नोलॉजी के साथ इन कर्मचारियों ने खुद को नहीं बदला।
इस आटोमेशन का जीता जागता नजारा भारतीय मीडिया का नंगा सच है।अब किसी भी अखबार में मार्केटिंग से नीति निर्धारण होता है और संपादकीय विभाग का कोई वजूद नहीं है तो आटोमेशन का कुल रिजल्ट पेड न्यूज है,मीडिया भोंपू है।
हर सेक्टर में मैनेजमेंट श्रम कानून और वेतनमान के झंझट से बचने के लिए आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर और रोबोट से काम चलाने के लिए आटोमेशन का विकल्प आजमाने लगा है और इसपर सरकारी या राजनीतिक कोई अंकुश नहीं है और न इसके खिलाफ कोई ट्रेड यूनियन आंदोलन है।
जाहिर है कि सबसे मुश्किल यह है कि हमारी अब कोई उत्पादन प्रणाली नहीं है और न हमारी कोई अर्थव्यवस्था है।
कहने को तो शेयरबाजारी एक बाटमलैस ट्रिलियन डालर अर्थव्यवस्था है,जो सीधे तौर पर अमेरिकी डालर से नत्थी है यानी खुल्लमखुल्ला अमेरिकी उपनिवेश है।
परंपरागत कृषि आधारित उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है और ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान जो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली बनी थी औद्योगीकरण की वजह से, उसे भी मुक्तबाजार ने खत्म कर दिया है।
अब चुनावों में खैरात बांटकर नागरिकों को भिखारी मानकर नोटवर्षा करके जीत हासिल करने का लोकतंत्र है।विकास का मतलब है उपभोक्ता बाजार का विस्तार,सीधे तौर पर अंधाधुंध शहरीकरण और शहरीकरण के तहत उपभोग के चकाचौंध करने वाले बाजार के हित में सुपर एक्सप्रेस वे, हाईवे, मेट्रो, फ्लाईओवर, माल, मल्टीप्लेक्स, लक्जरी हाउसिंग,हेल्थ हब का विकास और यह सब कल कारखानों और देहात के श्मशानघाट या कब्रिस्तान पर गजब के शोर शराबे के साथ हो रहा है।जिसके तहत जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार,बहुलता,विविधता,लोकतंत्र विरोधी यह दस दिगंतव्यापी कयामती फिजां है और सारा देश गैस चैंबर में तब्दील है।
आर्थिक सुधारों से पहले वामपंथी मशीनीकरण और कंप्यूटर का विरोध कर रहे थे।लेकिन बाद में वामपंथी भी चुप हो गये।वे भी पूंजीवादी विकास की अंधी दौड़ में शामिल हो गये और पिछले 26 साल से वे लगातार हाशिये पर जाते हुए भी खुश हैं और जनता के बीच खड़े होने से मुंह चुरा रहे हैं।
नतीजतन अब हालत यह है कि रोजगार का एकमात्र साधन कंप्यूटर है।
पिछले छब्बीस साल से कंप्यूटर यानी आईटी की आटोमेशन की कृत्तिम मेधा ही इस देश में रोजगार की धुरी है।मानवीय मेधा और मनुष्यता तेल लाने गयी हैं।
हावर्ड बनाम हार्डवर्क पहेली का हल यही है कि उच्च शिक्षा,शोध और विश्वविद्यालय गैरजरुरी है क्योंकि तकनीक जानना ही आजीविका के लिए पर्याप्त है। पहले विदेशों में डाक्टर इंजीनियर जाते थे और अब दुनियाभर में आईटी सेक्टर से भारतीय मूल के लोग खा कमा रहे हैं।इसीलिए सत्ता वर्ग के निशाने पर हैं तमाम विश्वविद्यालय और उनके छात्र और शिक्षक।असहिष्णुता का यह रसायन है।जो मनुस्मृति का डीएनए भी है और संक्रामक महामारी भी है।
मशीन और कंप्यूटर ने विकसित दुनिया के लिए भारत की श्रम मंडी से औपनिवेशिक भारत के कच्चा माल की तरह सस्ता दक्ष श्रमिकों का निर्यात उसीतरह शुरु किया जिस तरह उन्नीसवीं दी तक एशिया और अप्रीका से गुलामों का निर्यात होता था। फर्क यह है कि गुलामों के कोई हक हकूक नहीं थे और अब दुनियाभर में हमारे दक्ष श्रमिक बेहद सस्ते मूल्य पर श्रम के बदले यूरोप अमेरिका और आस्ट्रेलिया से लेकर लातिन अमेरिका और अफ्रीका में भी भारत की तुलना में बेहतर जीवनशैली में जीते हैं।
हमारे यहां हुआ हो या न हुआ हो, उन बेहतर विकसित देशों में तेज एकाधिकारवादी पूंजी के विकास में आम जनता के लिए रोजगार के मौके खत्म हो गये। मसलन इंग्लैंड में जीवन के किसी भी क्षेत्र में सौ साल पहले भी पूरी दुनिया पर राज कर रहे अंग्रेजों का वर्चस्व नहीं है।
इसीतरह अमेरिका में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है क्योंकि एशियाई लोगों को नौकरी देकर कंपनियां इतना ज्यादा मुनाफा दुनियाभर में कमाने लगी है कि उन्हें अमेरिकी नागरिकों को रोजगार देना घाटे का सौदा है।
इसी का नतीजा धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नस्ली डान डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी है और अश्वेतों केखिलाफ श्वेत जनता की घृणा है।
अब फ्रांस में भी वही होने जा रहा है तो ब्रेकसिट से बाहर आने के लिए ब्रिटिश जनादेश का मतलब भी गैर अंग्रेज नस्लों के ब्रिटेन से सफाये का कार्यक्रम है।
स्थानीय रोजगार अब दुनियाभर में कहीं नहीं है,मशीनीकरण के बाद कंप्यूटर और कंप्यूटर के बाद रोबोट आधारित मुक्तबाजार के अर्थव्यवस्था में। इसलिए भूमिपुत्रों के हकहकूक की मांगों, उनकी गरीबी और बेरोजगारी के बढ़ते संकट की वजह से देश के बाहर किसी भी देश में नौकरी और आजीविका के लिए गये भारतीय मूल के लोगों के लिए यह भयानक दुस्समय है।
स्थानीय रोजगार के अलावा इस समस्या का समाधान नहीं है लेकिन बारत में सरकारे रोजगार सृजन के बदले रोजगार और आजीविका कारपोरेट एकाधिकार हित में अपनी जेबें गरम करने के लिए खत्म करने पर आमादा है।
अमेरिकी ही नहीं,बाकी दुनिया में भी ये हमले बढ़ते जायेंगे क्योंकि उत्पादन संबंधों के अत्यंत शत्रुतापूर्ण हो जाने से दुनियाभर में अंध राष्ट्रवाद का तूफां चल रहा है जो हमारी अपनी केसरिया सुनामी से भी ज्यादा प्रलयंकर है। यह संकट गहराते जाना है।रोजगार सृजन के नये विकल्पों पर तेजी से काम करने के अलावा और कृषि संकट को सुलझाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है,सरकारे ऐसा चाहती नहीं हैं।
इस विचित्र संकट का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि शिक्षा के बाजारीकरण हो जाने से स्नातक स्नातकोत्तर की पढ़ाई की जगह तकनीकी पढ़ाई सर्वोच्च प्राथमिकता हो गयी है क्योंकि उत्पादन के बजाय आईटी आधार निराधार सेवाओं में ही रोजगार और आजीविका हैं।
अब इसमें सत्यानाश यह है कि यह सारी सेवा तकनीक आधारित रोजगार आउटसोर्सिंग पर निर्भर है।जो अमेरिका के नाभिनाल से जुडा़ है।
अमेरिका से हमलों के अलावा तीन बड़ी खतरनाक खबरें आ रही हैं।
पहली रोजगार के लिए वीजा में सख्ती,रोजगार के लिए अमेरिका गये व्यक्ति के पति या पत्नी या आश्रितों के वीजा खत्म और आउटसोर्सिंग सिरे से खत्म की तैयारी है।
आउटसोर्सिंग खत्म करने के बाद सिर्फ तकनीक से लैस 1991 के बाद की पीढ़ियों के रोजगार और आजीविका का क्या होना है,संकट यह अमेरिका और बाकी दुनिया में भारतीय मूल के लोगों पर हमलों से भी बड़ा संकट है।
एच-1बी, एच-4 वीसा और आउटसोर्सिंग के साथ कंप्यूटर की जगह रोबोट के विकल्प अपनाने की तैयारी और दुनियाभर में ट्रंप सुनामी के मद्देनजर आईटी सेक्टर में रोजगार की एक तस्वीर इस प्रकार हैः
2015-16 में आईटी सेक्टर में 2.75 लाख कर्मचारी नियुक्त किये जाने थे,वास्तव में सिर्फ दो लाख नई नियुक्तियां हो सकीं।
2016-17 में नियुक्तियां और घटेंगी।
2021 तक 6.4 लाख नौकरियां खत्म होंगी।
अगले चार सालों में आईटी सेक्टर में 69 प्रतिशत नौकरियां खत्म होगीं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी रोबोट ने पिछले साल इनफोसिस और विप्रो में सात हजार कर्मचारियों के बदले काम किया है।
2016 में टीसीएस,विप्रो,इनफोसिस और एचसीएल में 12 प्रतिशत नियुक्तियां कम हुई हैं।
सौजन्य सूत्रःहर्सेज फार सोर्सेज और विश्व बैंक
वीकिपीडिया के मुताबिकः
Artificial intelligence (AI) is intelligence exhibited by machines. In computer science, the field of AI research defines itself as the study of "intelligent agents": any device that perceives its environment and takes actions that maximize its chance of success at some goal.[1] Colloquially, the term "artificial intelligence" is applied when a machine mimics "cognitive" functions that humans associate with other human minds, such as "learning" and "problem solving" (known as Machine Learning).[2] As machines become increasingly capable, mental facilities once thought to require intelligence are removed from the definition. For example, optical character recognition is no longer perceived as an exemplar of "artificial intelligence", having become a routine technology.[3] Capabilities currently classified as AI include successfully understanding human speech,[4] competing at a high level in strategic game systems (such as Chess and Go[5]), self-driving cars, intelligent routing in content delivery networks, and interpreting complex data.
गौरतलब है कि इंफोसिस के CEO विशाल सिक्का ने एक इंटरव्यू में जिक्र किया है कि IT कंपनी हर साल कंसलटेंट्स के लिए करोड़ों डॉलर खर्च करती है। और कंसलटेंट्स के निशाने पर मिड लेवल कर्मचारी ही होते हैं। हर कंसलटेंट्स को लगता है कि मिड लेवल ही कंपनी पर सबसे बड़ा बोझ है। क्योंकि इनकी तादाद सबसे ज्यादा होती है और इनमें इनोवेशन की कमी होती है। ये बदलने के बजाए ठहर जाते हैं।
विशाल सिक्का ने भी इस बात को माना कि मिड लेवल का बाहरी दुनिया और क्लाइंट से संपर्क नहीं होता है। अपर लेवल के कर्मचारी बाहरी दुनिया में क्या कुछ हो रहा है उससे बेहतर वाकिफ होते हैं। साथ ही वे इस बात को भी बखूबी समझते हैं कि अगर मैनेजमेंट ने कोई फैसला लिया है तो इसका क्या मकसद है इसलिए अगर वे खुद में कोई कमी पाते हैं तो खुद को अपडेट करते हैं। लेकिन भारत में मिड लेवल के कर्मचारी बेहतर मैनेजर होते हैं। इंडस्ट्री भी उनसे उम्मीद करता है कि जो कुछ उन्हें मिल रहा है वे उसी से कंपनी के लिए बेहतर काम करें। या फिर यू कहें कि सबकुछ मैनेज कर के चलें। यहां का मिड लेवल डिलीवरी पर ज्यादा फोकस्ड रहता है ना कि इनोवेशन पर।
मशहूर गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार जीने आज फेसबुक पर लिखा हैः
तो देशवासियों खबर यह है कि आपको नौकरी देने वाली कंपनियों के लिये आदिवासी इलाकों में ज़मीनें छीनने के लिये हमारे सैनिक लगातार आदिवासियों की हत्या और औरतों से बलात्कार कर रहे हैं,
ग्रामीण रोज़गार योजना में मज़दूरों की मजदूरी 6 महीने में भी नहीं मिल रही है,
भाजपा सरकार नें नौजवानों को हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वादा किया था,
लेकिन ढाई साल में सिर्फ पौने दो लाख लोगों को रोज़गार मिला,
राशन दुकान में मशीन पर उंगालियों के निशान लेकर गरीबों को अनाज दिये जाने का हुक्म दिया गया है,
लेकिन मज़दूरो की और बूढ़ों की उंगलियां घिस जाती हैं और लकीरें मिट जाती हैं,
लाखों गरीब बिना राशन भूखे सो रहे हैं,
लेकिन यह सब इस मुल्क के मुद्दे नहीं हैं,
आपको बताया जा रहा है कि आप लखनऊ में मार डाले गये एक मुसलमान नौजवान के खौफ में कुछ दिन भारतीय मुसल मानों को गालियां देते हुए गुजारिये,
इस बीच अंबानी अडानी की ज़मीनें कुछ हज़ार एकड़ और बढ़ जायेगी,
कुछ लाख भारतीय किसानों को बेज़मीन बनाकर ज़्यादा गरीब बना दिया जायेगा,
उनकी ज़मीन मोदी के आकाओं को देकर उन्हें ज़्यादा अमीर बना दिया जायेगा,
इस बीच कुछ गरीब सिपाही मरेंगे कुछ गरीब आदिवासी मर जायेंगे,
आप आतंकवाद की फर्जी सनसनी में डूबे रहिये,
खेल एकदम सटीक चालू है,
महत्वपूर्ण खबरें और आलेख सैफुल्लाह कब मारा गया? मीडिया को हमेशा की तरह पुलिस और इंटेलीजेंस एजेंसियों से भी ज़्यादा मालूम
जाति धर्म के चुनावी समीकरण और मुक्तबाजारी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति हिंदुत्व सुनामी पैदा करने में मददगार है।विधानसभाओं के नतीजे यही बताते हैं। आगे त्रिपुरा और बंगाल की बारी है। पलाश विश्वास
जाति धर्म के चुनावी समीकरणऔर मुक्तबाजारी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति हिंदुत्व सुनामी पैदा करने में मददगार है।विधानसभाओं के नतीजे यही बताते हैं।
आगे त्रिपुरा और बंगाल की बारी है।
पलाश विश्वास
https://www.facebook.com/Palash-Biswas-Updates-252300204814370/
चुनाव समीकरण से चुनाव जीते नहीं जाते।जाति,नस्ल,क्षेत्र से बड़ी पहचान धर्म की है।संघ परिवार को धार्मिक ध्रूवीकरण का मौका देकर आर्थिक नीतियों और बुनियादी मुद्दों पर चुप्पी का जो नतीजा निकल सकता था, जनादेश उसी के खिलाफ है,संघ परिवार के समर्थन में या मोदी लहर के लिए नहीं और इसके लिए विपक्ष के तामाम राजनीतिक दल ज्यादा जिम्मेदार हैं।
यूपी में 1967 में ही सीपीएम ने भाजपा का समर्थन कर दिया था और संयुक्त विधायक दल की सरकार बनायी थी।तब उत्तर भारत में ही वामपंथियों का गढ़ था केरल के अलावा। बंगाल और त्रिपुरा का कोई किस्सा नही था।
केंद्र और राज्यों में अस्थिरता और असहिष्णुता की राजनीति के घृणा और हिंसा में तब्दील होते जाने का यही रसायन शास्त्र है।
गैर कांग्रेसवाद से लेकर धर्मनिरपेक्षता की मौकापरस्त राजनीति ने विचारधाराओं का जो अंत दिया है, उसीकी फसल हिंदुत्व का पुनरूत्थान है और मुक्तबाजार उसका आत्मध्वंसी नतीजा है।
हिंदुत्व का विरोध करेंगे और मुक्तबाजार का समर्थन,इस तरह संघ परिवार का घुमाकर समर्थन करने की राजनीति के लिए कृपया आम जनता को जिम्मेदार न ठहराकर अपनी गिरेबां में झांके तो बेहतर।
जाति धर्म के चुनावी समीकरण और मुक्तबाजारी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति हिंदुत्व सुनामी पैदा करने में मददगार है।विधानसभाओं के नतीजे यही बताते हैं।
वामपंथियों ने विचारधारा को तिलांजलि देकर बंगाल और केरल में सत्ता गवाँयी है और आगे त्रिपुरा की बारी है।
कांग्रेस ने भी गांधी वाद का रास्ता छोड़कर अपना राष्ट्रीय चरित्र खो दिया है तो समाजवाद वंशवाद में तब्दील है।
बदलाव की राजनीति में हिटलरशाही संघ परिवार के हिंदुत्व का मुकाबला नहीं कर सकता,इसे समझ कर वैकल्पिक विचारधारा और वैकल्पिक राजनीति की सामाजिक क्रांति के बारे में न सोचें तो समझ लीजिये की मोदीराज अखंड महाभारत कथा है।
अति पिछड़े और अति दलित संघ परिवार के समरसता अभियान की पैदल सेना में कैसे तब्दील है और मुसलमानों के बलि का बकरा बनानाे से धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की बहाली कैसे संभव है,इस पर आत्ममंथन का तकाजा है।
विधानसभा चुनावों में संघ परिवार के यूपी में रामलहर के सात मोदी लहर पैदा करने में कामयाबी जितना सच है,उससे बड़ा सच पंजाब में भाजपा अकाली गठबंधन की हार का सच भी है।
पंजाब में सरकार जिस तरह नाकाम रही है,उसी तरह यूपी में को गुजरात बना देने में अखिलेश सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है।
भाजपा की जीत से बड़ी यह अखिलेश और सपा कांग्रेस के वंशवाद की हार है।मूसलपर्व का आत्म ध्वंस है।
इसी तरह यूपी तो कांग्रेस ने संघ परिवार को सौगात में दे दिया है।
किशोरी उपाध्याय और प्रदीप टमटा से पिछले दो साल से मैं लगातार बातें कर रहा था और उन्हें चेता रहा था,लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेस को जिताने से ज्यादा कांग्रेस को हराने में कांग्रेस नेताओं की दिलचस्पी थी।इसीलिए भाजपा को वहां इतनी बड़ी जीत मिली है।हरीश रावत अकेले इस हार के जिम्मेदार नहीं हैं।
दूसरी ओर,मणिपुर में परिवार की जीत असम प्रयोगशाला के पूर्व और पूुर्वोत्तर में विस्तार की हरिकथा अंनत है।गायपट्टी के मुकाबले केसरिया करण की यह सुनामी ज्यादा खतरनाक है।
आगे त्रिपुरा और बंगाल की बारी है।
Prafulla Mahanta shoudl come forward to fail the conspiracy to set Assam on fire! Palash Biswas
Prafulla Mahanta shoudl come forward to fail the conspiracy to set Assam on fire!
Palash Biswas
Refugee organizations and other Bengali organizations appealed AASU to consider peace and harmony in Assam and look into the conspiracy to set Assam on fire.The appeal requests to wthdraw FIR and look out noticed against Nikhil Bharat Udvastu Samanyay samiti President and it claims the the Refugee organization and its President DR.Subodh Biswas do not deny their responsibility in the Dhemaji incident as the leadership failed to control the mob and the elements which were involved in violence. AASU Leadership,Assam Government as well as administration know it very well that neither DR.Subodh Biswas nor any speaker at the rally spoke anything provocative.Thogh they could not control the situation.
Meanwhile AASU is protesting everywhere in Assam and Dhemaji remains under curfew where violence and arson continues.
AASU has issued a threat to call one hundred hour Assam bandh if Dr.Subodh Biswas is not arrested.I am afraid it would rather worsen the situation in Assam and the conspiracy to set Assam with communal conflict might come true on awesome self destructive scale.
আসু ছাত্র সংগঠন এবং অসম সরকারের প্রতি ঐক্যের
উদ্বাত্ত্ব আহবান এবং একটি মানবিক আবেদন ______________________________________________
মানুষ মানুষের জন্যে জীবন জীবনের জন্যে
একটু সহানুভূতি কি মানুষ পেতে পারে না
প্রখ্যাত অসমীয় সঙ্গীত-শিল্পী ভূপেন হাজারিকা'জীর বাংলায় গাওয়া এই গানটি কোটি বাঙালি হৃদয় কে আজও অনুপ্রাণিত করে । মানুষের দুঃখ-কষ্ট , সামাজিক বঞ্চনা , ক্ষুধার্ত ভিটে-মাটিহীন উদ্বাস্তু মানুষের পাশে সমাজের মানবতাবাদী-সংগ্রামী মানুষদের এগিয়ে আসতে হবে, তাদের পক্ষে কথা বলতে হবে -- ভূপেন'জীর এই গানটি মূলত তারই বার্তা বহন করে ।
ভিন্ন ধর্ম , ভিন্ন সংস্কৃতি , ভিন্ন জাতি অর্থাৎ দ্বিজাতি তত্ত্বের ওপর ভিত্তি করে ভারত ভাগ হয়ে ১৯৪৭ সালে যে পাকিস্তান সৃষ্টি হয়েছিল - তা কেবলই মাত্র একটি কলঙ্কিত ইতিহাস । দেশ ভাগের পর পাকিস্তানে তৈরী হয় "শত্রু সম্পত্তি আইন" যা বর্তমানে বাংলাদেশে "অর্পিত সম্পত্তি আইন" নামে পরিচিত । এই আইনের মাধ্যমে বাংলাদেশের সংখ্যালঘু হিন্দুদের বসতবাড়ি এবং চাষের জমি কেড়ে নেয়া হয় । আর হত্যা, লুণ্ঠন , ধর্ষণ, ধর্মীয় নিপীড়ন কারও অজানা নয় । পূর্ববঙ্গের তথা বাংলাদেশের এই নিপীড়িত মানুষগুলোই বেঁচে থাকার তাগিদে চলে আসে ভারতে । কিন্তু ভারতে এসে কি তাদের মুক্তি মেলে ? কখনই নয় । প্রতিনিয়ত পুলিশি নির্যাতিত , বসত ভিটে-মাটিহীন দুঃস্থ জীবন , নাগরিক পরিচয় পত্রের অভাব যার জন্য বিনামূল্যে চিকিৎসা - রেশন মেলে না ইত্যাদি ইত্যাদি কারনে এই বাঙালি উদ্বাস্তুদের জীবনে আজ চরম বিপর্যয়ের সৃষ্টি হয়েছে । সেদিন যেদিন বৈঠকে যারা এই মানুষগুলোর কথা না ভেবেই ভারত-পাকিস্তান কে ভাগ করে আলাদা আলাদা স্বাধীন-সার্বভৌম রাষ্ট্র গঠন করতে মরিয়া হয়ে চুক্তি সই করছিল তারা আজ এই কোটি কোটি উদ্বাস্তু হৃদয়ে এক একজন পরিচিত কলঙ্কিত ফিগার ।
আক্ষরিক অর্থে বিবেচনা করলে দেখা যায় - পূর্ব বাংলার হিন্দুদের রক্তের উপর দাড়িয়ে আছে আজকের স্বাধীন সার্বভৌম ভারত ।
ডাক্তার সুবোধ বিশ্বাস এমন একজন "নিবেদিত প্রাণ" যিনি এই দুঃস্থ-অসহায় ভিটে-মাটিহীন মানুষদের অধিকার আদায়ের পক্ষে কথা বলেন , তাদের হয়ে লড়াই করেন । আমরা ইতিমধ্যে সকলেই জানি যে, গত ০৬/০৩/২০১৭ ইং তারিখে অসমের ধমাজী জেলায় ডাঃ সুবোধ বিশ্বাস মহাশয়ের নেতৃত্বে ৫০-৬০ হাজার উদ্বাস্তুদের নিয়ে একটি "অধিকার আদায়" ভিত্তিক জনসমাবেশ অনুষ্ঠিত হয় । এবং বিশাল ৫-৬ কিলোমিটার রাস্তা বিস্তৃত একটি বিশাল মুক্তি মিছিলের আয়োজন করা হয় । কিন্তু পেছন থেকে কিছু দুষ্কৃতীকারী মিছিলের ওপর নিজেদের আসু ছাত্র সংগঠনের কর্মী পরিচয় দিয়ে অতর্কিত হামলা চালায় । কিছু সময় পর আতঙ্ক ছড়িয়ে অবস্থা আরও বেগতিক হয়ে ওঠে । তখন মিছিলের কর্মীদের তুলে নিয়ে আসুর অফিসে মারধর করা হয় । এরপর দু'পক্ষই হামলা-পাল্টা হামলায় লিপ্ত হয় ।
ডাক্তার সুবোধ বিশ্বাস মহাশয় এই সুদীর্ঘ মিছিলের সামনে থাকায় এই ঘটনাগুলো তিনি ১০ মিনিট পরে জানতে পারেন । কিন্তু যেহেতু তিনি ঐ মিছিলের নেতৃত্বদাতা এবং NIBBUSS এর চালক সেহেতু তাকেই এই দুর্ঘটনার দ্বায় বহন করতে হয় । অসম প্রশাসন তার বিরুদ্ধে এরেস্ট ওয়ারেন্ট বের করেন এবং আসু কর্মীরা তাকে ওয়ান্টেড ঘোষনা করে বিভিন্ন এলাকায় পোস্টারিং করেন । এছাড়াও তারা সুবোধ বিশ্বাস কে অসম সরকার এবং আসু সংগঠন বিরোধী হিসেবে ঘোষণা করেন । ডাক্তার সুবোধ বিশ্বাস এর বিরুদ্ধে যে অসহিষ্ণু বক্তব্য দেয়ার অভিযোগ উঠেছিল তা পরে সম্পূর্ণ মিথ্যা প্রমাণিত হয়েছে ।
কিন্তু সুবোধ বিশ্বাস মহাশয় দীর্ঘদিনের দরিদ্র উদ্বাস্তুদের নিয়ে ভারতের বিভিন্ন প্রান্তে যে কর্মসূচিগুলো পালন করেছেন তা পর্যালোচনা এবং বিশ্লেষণ করলে দেখা যায় - তার আন্দোলন শুধুমাত্র ভিটে-মাটিহীন উদ্বাস্তু মানুষের পক্ষে যা সম্পূর্ণ অরাজনৈতিক এবং অন্য কোন সংগঠন বিরোধী নয় তো বটেই । আমরা মনে করি এই সম্পূর্ণ ঘটনা বাঙালিদের সাথে ➡ অসম সরকার এবং আসু সংগঠনের ভুল-বোঝাবোঝির কারনে সৃষ্টি হয়েছে ।
এমতাবস্থায় আমরা বাঙালিরা অনতিবিলম্বে ডাক্তার সুবোধ বিশ্বাস বাবুর এরেস্ট ওয়ারেন্ট প্রত্যাহারের দাবি জানাই এবং আসু ছাত্র সংগঠন কে সৌহার্দ্য এর বার্তা দিয়ে বলতে চাই যে আপনারা ভুল বোঝাবুঝির অবসান ঘটিয়ে আমাদের সাথে কথা বলুন । এবং আপনারা সেই তৃতীয় শক্তিকে খুঁজে বের করার চেষ্টা করুন যারা বাঙালি.উদ্বাস্তুদের মিছিলে অতর্কিত হামলা চালিয়ে বাঙালি-অসমীয়দের মধ্যে সম্পর্কের ফাটল ধরাতে উদ্যত হয়েছিল ।
আমরা অসমীয় সুশীল/শিক্ষিত/বুদ্ধিজীবী সমাজের দৃষ্টি আকর্ষণ করছি - অসমে অবস্থিত আমাদের মানবতাবাদী-সংগ্রামী নেতা ডাক্তার সুবোধ বিশ্বাস মহাশয়ের প্রান আজ বিপন্ন প্রায় । তাই আপনারা সুষ্ঠু সমাধানের লক্ষ্যে এগিয়ে আসুন , আমাদের সাথে আপনারা কথা বলুন। অসহায় সুবোধ বিশ্বাস মহাশয় এর পাশে দাড়ান ।
আপনাদের কাছে এটি আমাদের মানবিক আবেদন ।
ভূপেন'জীর ঐ গানটির একটি লাইন -
পুরানো ইতিহাস ফিরে এলে লজ্জা কি তুমি পাবে না
ও বন্ধু মানুষ মানুষের জন্য জীবন জীবনের জন্যে
এই গানের ন্যায় আসুন আমরা উভয়েই যেন এমন কোনো ইতিহাস রচনা না করি যাতে আমাদের ভবিষ্যতে লজ্জা পেতে হয় ।
আমরা অসমীয় সঙ্গীত-শিল্পী ভূপেন হাজারিকা'কে ভালোবাসি , অসমীয় মানুষদের ভালোবাসি । আমরা আসু ছাত্র সংগঠন এবং অসম সরকারের জাতীয়তাবাদ ও সংস্কৃতিকে শ্রদ্ধা করি ।আমরা এক ভারত শ্রেষ্ঠ ভারতে বিশ্বাস করি । অসমের মানুষ আমাদেরই ভাই । আমরা মনে করি অসমীয় এবং বাঙালিদের মধ্যে যে সাময়িক সংকট চলছে অতি শীঘ্রই তার উত্তরন ঘটিয়ে একে অপরের নিবেদিত প্রাণ হিসেবে সমগ্র ভারতে দৃষ্টান্ত স্থাপনে সচেষ্ট হব ।
আমরা অসমীয় ভাইদের সবুজ
সঙ্কেতের অপেক্ষায় রইলাম !!আসু ছাত্র সংগঠন এবং অসম সরকারের প্রতি ঐক্যের
উদ্বাত্ত্ব আহবান এবং একটি মানবিক আবেদন
पूर्वोत्तर और पूर्व भारत जीतने के लिए डिजिटल कैशलैस करिश्मे के साथ उग्रवाद का भी सहारा,असम में हालात खराब,मणिपुर के बाद मेघालय,त्रिपुरा और बंगाल निशाने पर तो बिहार में क्या गुल खिलेंगे,हम नहीं जानते। पलाश विश्वास
पलाश विश्वास
होली का मजा किरकिरा करने के लिए माफ करें।ईव्हीएम मसीनों पर पहले ही खुद लौहमानव ने सवाल खड़े कर दिये तो एक भी मुसलमान उम्मीदवार को टिकट दिये बिना मुसलमानों का दस फीसद वोट हासिल करके यूपी दखल करने में कामयाबी डिजिटल कैशलैश मिशन का है।जनादेश बी वहीं डिजिटल कैशलैस है।
यूपी और उत्तराखंड में बहुमत हासिल करने वाली मोदी सुनामी और राम की सौगंध की युगलबंदी का असर बाकी देश में कितना है,उसका अंदाजा पंजाब में दस साल की सत्ता के बाद सघ परिवार की दिशाहीन कांग्रेस के मुकाबले हार से लगाया जा नहीं सकता।
बहरहला हारे हुए मणिपुर और गोवा में सत्ता दखल करने के जो रास्ते संघ परिवार ने अपनाये, वह डिजिटल कैसलैस इंडिया की तुलना में कहीं ज्यादा खतरनाक है।
हमने एक्जिट पोल के हिसाब से कह दिया था कि मणिपुर में संघ परिवार का कब्जा बहुत बड़े संकट के संकेत हैं।मणिपुर में कताग्रेस के विघटन के साथ संग परिवार की हुकूमत में एन वीरेन सिंह मुख्यमंत्री बन रहे हैं और इस सरकार को उग्रवादी संगठन एनएससीएन (आईएम) का समर्थन है।न्यूज 18 असम ने इस सिलसिले में समाचार प्रकाशित किया है।
यानी हमारी राष्ट्रवादी देशभक्त भाजपा को पूर्वोत्तर जीतने के लिए उग्रवादी तत्वों का सहारा लेनें में भी परहेज नहीं है।असम में अल्फाई राजकाज का नतीजा हम देख ही रहे हैं।
अब मणिपुर के बाद मेघालय में भी तख्ता पलट की तैयारी है।
असम अरुणाचल मेघालय के बाद त्रिपुरा में वाम शासन के अवसान के लिए जाहिर है कि भूमिगत उग्रवादी संगठनों का सहारा लेने से परहेज नहीं करेगा संघ परिवार।
इसबीच धेमाजी में होली के मौके पर कर्फ्यू में ढील दी गयी है लेकिन वहां हिंसा,फतवा और आगजनी की वारदात थमने के आसार नहीं है क्योंकि वहां उपचुनाव होने हैं।
सत्ता पर वर्चस्व के लिए आसू को धता बताने की तैयारी बंगाली हिंदू शरणार्थियों को मोहरा बनाकर भाजपा ने की थी,जिसके जबाव में आसू के पलटमार से असम के हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं।
दूसरी तरफ आसू के सौ घंटे के बंद के अलावा कोकराझाड़ में अलग राज्यआंदोलन के तहत सौ घंटे के बंद की अलग तैयारी है,इऩके पीछे कौन है,अभी कहना मुश्किल है।
धेमाजी के बाद आसू ने डिब्रूगढ़ में सत्याग्रह किया तो आज तििनसुकिया में आर्थिक अवरोध हुआ।शरणार्ती संगठन और शरणार्थी आंदोलन को निषिद्ध करने का अभियान अलग चल रहा है।
असम में शरणार्थी आंदोलन के दौरान निखिल भारत के हर मंच पर शरणार्थी वोट बैंक के दखल के लिए कांग्रेस और भाजपा के मंत्री नेता हाजिर रहे हैं जो अब शरणार्थी नेताओं और उनके संगठन को न जानने की बात कह रहे हैं जबकि इन्ही शरणार्थियों की बात कहकर सिर्फ हिंदुओं को नागरिकता देने का विधेयक पेश करके उस पास न करके हिंदी मुस्लिम ध्रूवीकरण की राजनीति भी करता रहा है संघ परिवार।
इससे असम में हिंदू मुसलिम और असमिया गैर असमिया दो तरह के ध्रूवीकरण है और आज हुई आर्थिक नाकेबंदी से साफ जाहिर है कि सत्ता की इस लड़ाई का अंजाम क्या होगा।
मणिपुर में सशत्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून आफ्सा खत्म करने के लिए 14 साल तक अनशन करने वाली इरोम शर्मिला कोसिर्फ नब्वे वोट मिले हैं और वहां मनुस्मृति विधान लागू है औऱ इसमें भी उग्रवादी तत्वों का साथ है।
पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत पर गायपट्टी के बाद कब्जा करने का यह हिंदुत्व एजंडा उग्रवादी संगठनों की मदद से पूरा किया जा रहा है तो समझा जा सकता है कि राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रति संघपरिवार की प्रतिबद्धता कैसी है और उसके राष्ट्रवाद और देशभक्ति की असलियत क्या है।
महत्वपूर्ण खबरें और आलेख #ईवीएमकासच उजागर करने वाले इंजी हरिप्रसाद को किसने भेजा था जेल,आज वो कहाँ है?
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Forget EVM, trends are that dalits,obs and Muslims have lost all the way and they seem to surrender to RSS for their survival! Palash Biswas
Forget EVM, trends are that dalits,obs and Muslims have lost all the way and they seem to surrender to RSS for their survival!
देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विर�
देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है
क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विरोध करेंगे . आपको तब ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो पूरी क्रूरता के साथ आपके लिये गरीबों के संसाधन लूट कर लाकर आपकी सेवा में हाज़िर कर दे .
अब बस देखना यह है कि इस सब में खून कितना बहेगा ?
पलाश विश्वास
https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1650543891640680/?l=9008385826331427057
असम की 15 वर्षीय युवा गायिका नाहिद आफरीन को गाने से रोकने के प्रयास की दसों दिशाओं में निंदा हो रही है।हम भी इसकी निंदा करते हैं लेकिन असहिष्णुता के इसी एजंडा के तहत संघ परिवार ने असम में विभिन्न समुदायों के बीच जो वैमनस्य, हिंसा और घृणा का माहौल बना दिया है,उसकी न कहीं निंदा हो रही है और न बाकी भारत को उसकी कोई सूचना है।
इसी तरह मणिपुर में इरोम शर्मिला को नब्वे वोट मिलने पर मातम ऐसा मनाया जा रहा है कि जैसे जीतकर पूर्वोत्तर के हालात वे सुधार देती या जो सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून मणिपुर में नागरिक और मानवाधिकार को,संविधान और कानून के राज को सिरे से खारिज किये हुए आम जनता का सैन्य दमन कर रहा है,जिसके खिलाफ इरोम ने चौदह साल तक आमरण अनशन करने के बाद राजनीति में जाने का फैसला किया और नाकाम हो गयी।
मणिपुर में केसरिया सुनामी पदा करने के लिए नगा और मैतेई समुदायों के बीच नये सिरे से वैमनस्य और उग्रवादी तत्वों की मदद लेकर वहां हारने के बाद भी जिस तरह सत्ता पर भाजपा काबिज हो गयी,उस पर बाकी देश में और मीडिया में कोई च्रचा नहीं हो रही है।इसीतरह मेघालय, त्रिपुरा, समूचा पूर्वोत्तर,बंगाल बिहार उड़ीसा दजैसे राज्यों को आग के हवाले करने की मजहबी सियासत के खिलाफ लामबंदी के बारे में न सोचकर निंदा करके राजनीतिक तौर पर सही होने की कोशिश में लगे हैं लोग।
मुक्त बाजार में भारतीय जनमानस कितना बदल गया है,जड़ और जमीन से कटे सबकुछ जानने समझने वाले पढ़े लिखे लोगों का इसका अंदाजा नहीं है और कोई आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है कि खुद हम कहीं न कहीं सेट होने,पेरोल के मुताबिक वैचारिक अभियान चलाकर अपनी साख कितना खो चुके हैं।
चुनावी समीकरण का रसायनशास्त्र सिरे से बदल गया है।
गांधीवादी वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता उपभोक्ता संस्कृति के शिकंजे में फंसे शहरीकृत समाज के जन मानस का शायद सटीक चित्रण किया है।शहरीकरण के शिकंजे में महानगर,उपनगर ,नगर और कस्बे ही नहीं हैं,देश में मौजूदा अर्थव्स्था के मुताबिक देहात में जो पैसा पहुंचता है और वहां बाजार का जो विस्तार हुआ है,वह भी महानगर के भूगोल में खप गया है और जनपदों का वजूद ही खत्म है।
हिमांशु जी ने जो लिखा है,वह अति निर्मम सच है और हमने अभी इस सच का समाना किया नहीं हैः
आप को मोदी को स्वीकार करना ही पड़ेगा . क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विरोध करेंगे . आपको तब ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो पूरी क्रूरता के साथ आपके लिये गरीबों के संसाधन लूट कर लाकर आपकी सेवा में हाज़िर कर दे . इसलिये अब कोई लोकतांत्रिक टाइप नेता आपकी विकास की भूख को शांत कर ही नहीं पायेगा .इसलिये आप देखते रहिये आपके ही बच्चे मोदी को चुनेंगे . इसी विकास के लालच में ही आजादी के सिर्फ साठ साल बाद का भारत आदिवासियों के संसाधनों की लूट को और उनके जनसंहार को चुपचाप देख रहा है .
क्रूरता को एक आकर्षक पैकिंग भी चाहिये . क्योंकि आपकी एक अंतरात्मा भी तो है . इसलिये आप अपनी लूट को इंडिया फर्स्ट कहेंगे . लीजिए हो गया ना सब कुछ ?
कुछ लोगों को आज के इस परिणाम का अंदेशा आजादी के वख्त ही हो गया था पर हमने उनकी बात सुनी नहीं .
अब बस देखना यह है कि इस सब में खून कितना बहेगा ?
हिमांशु जी के इस आकलन से मैं सहमत हूं कि अपनी उपभोक्ता हैसियत की जमीन पर खड़े इस देश के नागरिकों के लिए देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है।लोग अपने मोहल्ले या गांव,या शहर हद से हद जिला और सूबे से बाहर कुछ भी देखना सुनना समझना नहीं चाहते।
बाकी जनता जिंदा जलकर राख हो जाये,लेकिन हमारी गोरी नर्म त्वचा तक उसकी कोई आंच न पहुंचे,यही इस उपभोक्ता संस्कृति की विचारधारा है।
सभ्यता के तकाजे से रस्म अदायगी के तौर पर हम अपना उच्च विचार तो दर्ज करा लेना चाहते हैं,लेकिन पूरे देश के हालात देख समझकर नरसंहारी संस्कृति के मुक्तबाजार का समर्थन करने में कोताही नहीं करेंगे,फिर यही भी राजनीति हैं।
हमारे मित्र राजा बहुगुणा ने उत्तराखंड के बारे में लिखा है,वह बाकी देश का भी सच हैः
इस बार के चुनाव नतीजे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि उत्तराखंड में भाजपा-कांग्रेस संस्कृति की जडें और गहरी हुई हैं।दोनों दलों को मिलने वाले मत जोड़ दिए जाएं तो साफ तस्बीर दिखाई दे रही है।इसका मुख्य कारण है कि अन्य राजनीतिक ताकतो में स़े कुछ तो इसी कल्चर की शिकार हो खत्म होती जा रही हैं और अन्य के हस्तक्षेप नाकाफी साबित हो रहे हैं ? इस लूट खसौट संस्कृति का कसता शिकंजा तोड़े बिना उत्तराखंड की बर्बादी पर विराम लगना असंभव है ?
पहाड़ से कल तक जो लिखा जा रहा था,उसके उलट नया वृंदगान हैः
त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी को उत्तराखंड के 9वें मुख्य मंत्री बनने पर हार्दिक शुभकामनाये । आशा है की आप कृषि मंत्री रहते हुए किया गया कमाल । मुख्य मंत्री रहते हुए नही दोहराएंगे ।
हम त्रिवेंद्र सिंह रावत जी को नहीं जानते।गनीमत है कि ऐन मौके पर पालाबदल करने वाले किसी दलबदलू बड़े नेता को संघ परिवार ने नेतृत्व के लिए चुना नहीं है।
संघ परिवार नेतृत्व बदलने के लिए अब लगातार तैयार दीख रहा है जबकि उसके विरोध में चुनाव हारने वाले राजनीतिक दल पुराने नेतृ्त्व का कोई विकल्प खोज नहीं पा रहे हैं।क्योंकि इन दलों का संगठन संस्थागत नहीं है और न्यूनतम लोकतंत्र भी वहां नहीं है।
जनता जिन्हें बार बार आजमाकर देख चुकी है,मुक्तबाजार की अत्याधुनिक तकनीक, ब्रांडिंग,मीडिया और मार्केटिंग के मुकाबले उस बासी रायते में उबाल की उम्मीद लेकर हम फासिज्म का राजकाज बदलने का क्वाब देखते रहे हैं।
हमने पहले ही लिखा है कि चुनाव समीकरण से चुनाव जीते नहीं जाते। जाति,नस्ल,क्षेत्र से बड़ी पहचान धर्म की है।संघ परिवार को धार्मिक ध्रूवीकरण का मौका देकर आर्थिक नीतियों और बुनियादी मुद्दों पर चुप्पी का जो नतीजा निकल सकता था, जनादेश उसी के खिलाफ है,संघ परिवार के समर्थन में या मोदी लहर के लिए नहीं और इसके लिए विपक्ष के तामाम राजनीतिक दल ज्यादा जिम्मेदार हैं।
अब यह भी कहना होगा कि इसके लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं है।
हम फिर दोहराना चाहते हैं कि गैर कांग्रेसवाद से लेकर धर्मनिरपेक्षता की मौकापरस्त राजनीति ने विचारधाराओं का जो अंत दिया है, उसीकी फसल हिंदुत्व का पुनरूत्थान है और मुक्तबाजार उसका आत्मध्वंसी नतीजा है।
हम फिर दोहराना चाहते हैं कि हिंदुत्व का विरोध करेंगे और मुक्तबाजार का समर्थन,इस तरह संघ परिवार का घुमाकर समर्थन करने की राजनीति के लिए कृपया आम जनता को जिम्मेदार न ठहराकर अपनी गिरेबां में झांके तो बेहतर।
हम फिर दोहराना चाहते हैं किबदलाव की राजनीति में हिटलरशाही संघ परिवार के हिंदुत्व का मुकाबला नहीं कर सकता,इसे समझ कर वैकल्पिक विचारधारा और वैकल्पिक राजनीति की सामाजिक क्रांति के बारे में न सोचें तो समझ लीजिये की मोदीराज अखंड महाभारत कथा है।
अति पिछड़े और अति दलित संघ परिवार के समरसता अभियान की पैदल सेना में कैसे तब्दील है और मुसलमानों के बलि का बकरा बनानाे से धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र की बहाली कैसे संभव है,इस पर आत्ममंथन का तकाजा है।
मोना लिज ने संघ परिवार के संस्थागत संगठन का ब्यौरा दिया है,कृपया इसके मुकाबले हजार टुकड़ों में बंटे हुए संघविरोधियों की ताकत का भी जायजा लें तो बेहतरः
60हजार शाखाएं
60 लाख स्वयंसेवक
30 हजार विद्यामंदिर
3 लाख आचार्य
50 लाख विद्यार्थी
90 लाख bms के सदस्य
50लाख abvp के कार्यकर्ता
10करोड़ बीजेपी सदस्य
500 प्रकाशन समूह
4 हजार पूर्णकालिक
एक लाख पूर्व सैनिक परिषद
7 लाख, विहिप और बजरंग दल के सदस्य
13 राज्यों में सरकारें
283 सांसद
500 विधायक
बहुत टाइम लगेगा संघ जैसा बनने में...
तुम तो बस वहाबी देवबंदी-बरेलवी ,,शिया -सुन्नी जैसे आपस में लड़ने वाले फिरकों तक ही सिमित रहो.........और मस्लक मस्लक खेलते रहो........ ... एक दूसरे में कमियां निकालते रहो।
अकेले में बैठकर सोचें कि आप अपने आने वाली नस्लों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं।
बसपा का शीराजा क्यों बिखरा: आनंद तेलतुंबड़े
बसपा का शीराजा क्यों बिखरा: आनंद तेलतुंबड़े
आनंद तेलतुंबड़े ने अपने इस लेख में बसपा की पराजय का आकलन करते हुए एक तरफ मौजूदा व्यवस्था के जनविरोधी चेहरे और दूसरी तरफ उत्पीड़ित जनता के लिए पहचान की राजनीति के खतरों के बारे में बात की है. अनुवाद: रेयाज उल हक
पिछले आम चुनाव हैरानी से भरे हुए रहे, हालांकि पहले से यह अंदाजा लगाया गया था कि कांग्रेस के नतृत्व वाला संप्रग हारेगा और भाजपा के नेतृत्व वाला राजग सत्ता में आने वाला है. वैसे तो चुनावों से पहले और बाद के सभी सर्वेक्षणों ने भी इसी से मिलते जुलते राष्ट्रीय मिजाज की पुष्टि की थी, तब भी नतीजे आने के पहले तक भाजपा द्वारा इतने आराम से 272 का जादुई आंकड़ा पार करने और संप्रग की सीटें 300 के पार चली जाने की अपेक्षा बहुत कम लोगों ने ही की होगी. खैर, भाजपा ने 282 सीटें हासिल कीं और संप्रग को 336 सीटें. महाराष्ट्र में शरद पवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार जैसे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रप मुंह के बल गिरे. लेकिन अब तक चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा धक्का यह रहा कि बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश की अपनी जमीन पर ही पूरी तरह सफाया हो गया. लोग तो यह कल्पना कर रहे थे, और बसपा के नेता इस पर यकीन भी कर रहे थे, कि अगर संप्रग 272 सीटें हासिल करने नाकाम रहा तो इसके नतीजे में पैदा होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल में मायावती हैरानी में डालते हुए देश की प्रधानमंत्री तक बन सकती हैं. इस कल्पना को मद्देनजर रखें तो बसपा का सफाया स्तब्ध कर देने वाला है. आखिर हुआ क्या?
नतीजे आने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने दावा किया कि दलितों और निचली जातियों में उनका जनाधार बरकरार है और चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह भाजपा द्वारा किया गया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है. उन्होंने कहा कि जबकि ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों को भाजपा ने अपनी तरफ खींच लिया और मुसलमान समाजवादी पार्टी की वजह से बिखर गए. बहरहाल उन्होंने इसके बारे में कोई व्याख्या नहीं दी कि ये चुनावी खेल अनुचित कैसे थे. मतों के प्रतिशत के लिहाज से यह सच है कि बसपा उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 2.29 करोड़ वोट मिले जो कुल मतों का 4.1 फीसदी है. 31.0 फीसदी मतों के साथ भाजपा और 19.3 फीसदी मतों के साथ इससे आगे हैं और 3.8 फीसदी मतों के साथ सापेक्षिक रूप से एक नई पार्टी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इससे पीछे है. 15वीं लोकसभा में बसपा की 21 सीटें थीं जिनमें से 20 अकेले उत्तर प्रदेश से थीं. बसपा से कम मत प्रतिशत वाली अनेक पार्टियों ने इससे कहीं ज्यादा सीटें जीती हैं. मिसाल के लिए तृणमूल कांग्रेस को मिले 3.8 फीसदी मतों ने उसे 34 सीटें दिलाई हैं और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को इससे भी कम 3.3 फीसदी मतों पर तृणमूल से भी ज्यादा, 37 सीटें मिली हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी (आप) महज 2.0 फीसदी मतों के साथ चार सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी मत मिले हैं जो भाजपा के 42.3 फीसदी और सपा के 22.2 फीसदी के बाद तीसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. इसमें भी एक खास बात है: चुनाव आयोग के आंकड़े दिखाते हैं कि बसपा इस विशाल राज्य की 80 सीटों में 33 पर दूसरे स्थान पर रही.
लेकिन देश में तीसरी सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी का संसद में कोई वजूद नहीं होने की सबसे बड़ी वजह हमारी चुनावी व्यवस्था है, जिसके बारे में बसपा कभी भी कोई शिकायत नहीं करेगी. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली यह चुनावी व्यवस्था (एफपीटीपी) हमें हमेशा ही हैरान करती रही है, इस बार इसने कुछ ज्यादा ही हैरान किया. भाजपा कुल डाले गए वोटों में से महज 31.0 फीसदी के साथ कुल सीटों का 52 फीसदी यानी 282 सीटें जीत सकी. चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक कुल 66.36 फीसदी वोट डाले गए, इसका मतलब है कि भाजपा को जितने वोट मिले उनमें कुल मतदाताओं के महज पांचवें हिस्से (20.5 फीसदी) ने भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भाजपा का आधी से ज्यादा सीटों पर कब्जा है. इसके उलट, हालांकि बसपा तीसरे स्थान पर आई लेकिन उसके पास एक भी सीट नहीं है. जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं, एफपीटीपी को चुनने के पीछे हमारे देश के शासक वर्ग की बहुत सोची समझी साजिश रही है. तबके ब्रिटिश साम्राज्य के ज्यादातर उपनिवेशों ने इसी चुनाव व्यवस्था को अपनाया. लेकिन एक ऐसे देश में जो निराशाजनक तरीके से जातियों, समुदायों, नस्लों, भाषाओं, इलाकों और धर्मों वगैरह में ऊपर से नीचे तक ऊंच-नीच के क्रम के साथ बंटा हुआ है, राजनीति में दबदबे को किसी दूसरी चुनावी पद्धति के जरिए यकीनी नहीं बनाया जा सकता था. एफपीटीपी हमेशा इस दबदबे को बनाए रखने में धांधली की गुंजाइश लेकर आती है. इस बात के व्यावहारिक नतीजे के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस या भाजपा का दबदबा इसका सबूत है. अगर मिसाल के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (पीआर) व्यवस्था अपनाई गई होती, जो प्रातिनिधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं द्वारा चुनावों के लिए अपनाई गई अधिक लोकप्रिय और अधिक कारगर व्यवस्था है, तो सभी छोटे समूहों को अपना 'स्वतंत्र'प्रतिनिधित्व मिला होता जो इस दबदबे के लिए हमेशा एक खतरा बना रहता. दलितों के संदर्भ में, इसने आरक्षण कहे जाने वाले सामाजिक न्याय के बहुप्रशंसित औजार की जरूरत को भी खत्म कर दिया होता, जिसने सिर्फ उनके अस्तित्व के अपमानजनक मुहावरे का ही काम किया है. कोई भी दलित पार्टी एफपीटीपी व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठाएगी. बसपा तो और भी नहीं. क्योंकि यह उन सबके नेताओं को अपने फायदे के लिए धांधली करने में उसी तरह सक्षम बनाती है, जैसा यह शासक वर्गीय पार्टियों को बनाती आई है.
दूसरी वजह पहचान की राजनीति का संकट है, जिसने इस बार पहचान की राजनीति करने वाली बसपा से इसकी एक भारी कीमत वसूली है. बसपा की पूरी कामयाबी उत्तर प्रदेश में दलितों की अनोखी जनसांख्यिकीय उपस्थिति पर निर्भर रही है, जिसमें एक अकेली दलित जाति जाटव-चमार कुल दलित आबादी का 57 फीसदी है. इसके बाद पासी दलित जाति का नंबर आता है, जिसकी आबादी 16 फीसदी है. यह दूसरे राज्यों के उलट है, जहां पहली दो या तीन दलित जातियों की आबादी के बीच इतना भारी फर्क नहीं होता है. इससे वे प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं, जिनमें से एक आंबेडकर के साथ खुद को जोड़ता है तो दूसरा जगजीवन राम या किसी और के साथ. लेकिन उत्तर प्रदेश में जाटवों और पासियों के बीच में इतने बड़े फर्क के साथ इस तरह की कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है और वे एक साझे जातीय हित के साथ राजनीतिक रूप से एकजुट हो सकते हैं. इसके बाद की तीन दलित जातियों – धोबी, कोरी और वाल्मीकि – को भी उनके साथ मिला दें तो वे कुल दलित आबादी का 87.5 फीसदी बनते हैं, जो राज्य की कुल आबादी की 18.9 फीसदी आबादी है. कुल मतदाताओं में भी इन पांचों जातियों का मिला जुला प्रतिशत भी इसी के आसपास होगा. यह बसपा का मुख्य जनाधार है. इन चुनावी नतीजों में कुल वोटों में बसपा का 19.6 फीसदी वोट हासिल करना दिखाता है कि बसपा का मुख्य जनाधार कमोबेश बरकरार रहा होगा.
दूसरे राज्यों के दलितों के उलट जाटव-चमार बाबासाहेब आंबेडकर के दिनों से ही आर्थिक रूप से अच्छे और राजनीतिक रूप से अधिक संगठित रहे हैं. 1957 में आरपीआई के गठन के बाद, आरपीआई के पास महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत इलाके रहे हैं, कई बार तो महाराष्ट्र से भी ज्यादा. यह स्थिति आरपीआई के टूटने तक रही. महाराष्ट्र में आरपीआई के नेताओं की गलत कारगुजारियों के नक्शेकदम पर चलते हुए उत्तर प्रदेश में आरपीआई के दिग्गजों बुद्ध प्रिय मौर्य और संघ प्रिय गौतम भी क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ गए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में कदम रखे तो एक दशक या उससे भी अधिक समय से वहां नेतृत्व का अभाव था. उनकी रणनीतिक सूझ बूझ ने उनकी बहुजन राजनीति की संभावनाओं को फौरन भांप लिया. उन्होंने और मायावती ने दलितों को फिर से एकजुट करने और पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबकों को आकर्षित करने के लिए भारी मेहनत की. जब वे असल में अपनी इस रणनीति की कामयाबी को दिखा पाए, तो उन्होंने पहले से अच्छी तरह स्थापित दलों को एक कड़ी टक्कर दी और उसके बाद सीटें जीतने में कामयाब रहे. इससे राजनीतिक रूप से अब तक किनारे पर रहे सामाजिक समूह भी बसपा के जुलूस में शामिल हो गए. मायावती ने यहां से शुरुआत की और उस खेल को उन्होंने समझदारी के साथ खेला, जो उनके अनुभवी सलाहकार ने उन्हें सिखाया था. जब वे भाजपा के समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बनीं, तो इससे बसपा और अधिक मजबूत हुई. ताकत के इस रुतबे पर मायावतीं अपने फायदे के लिए दूसरे राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करने लगीं.
कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक 'दलित की बेटी'गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया.
बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया. तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक, खटिक, रावत, बहेलिया, खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान 1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया है.
जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है'जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.
जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं. देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे. बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.
भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.
बेहतर हो कि संघ परिवार के राजनीतिक और आर्थिक एजंडा के मुकाबले आरोप प्रत्यारोप और आलोचना से आगे कुछ सोचा जाये।मजहबी सिय़ासत की कयामत तो अब बस शुरु ही हुई है।आगे आगे देखते जाइये। क्या महंत अजय सिंह बिष्ट गढ़वाल और उत्तराखंड के हितों का भी ख्याल रखेंगे? पलाश विश्वास
Missing Kalika Prasad!The artist who used to link hearts and minds for love and peace with his branded folk tune! Palash Biswas
Kalika Prasad Songs Download: Listen Kalika Prasad Hit MP3 New ...
Kalika Prasad of Dohar Bangla Folk Band Excited on Dohar ...
Kalika Prasad Bhattacharya Bengali Singer Is No More Interesting ...
Kalika Prasad Bhattacharya | India Foundation for the Arts
राममंदिर को लेकर यूपी की सत्ता के जरिये फिर भारी हंगामा खड़ा करना मकसद है। कांशीराम उद्यान में मनुस्मृति सरकार की शपथ का इंतजाम बाबासाहेब को डिजिटलकैशलैस इंडिया में भीम ऐप बना देने की तकनीकी दक्षता है,जो बहुजन राजनीति के कफन पर आखिरी कील है। पलाश विश्वास
On Shreejat,the poet and bengali intelligentsia in general.To whomsever it might concern accross borders! Palash Biswas
Yshodhara`s comment:শ্রীজাত কন্ডোম শব্দটি ব্যবহার করে কবিতা লিখেছেন বলে আপামর বাঙালির প্রাণে ব্যথা লেগেছে। কিন্তু তার চেয়ে অন্তত একশো গুণ কুরুচিকর একটি পোস্ট and the spine lost Palash Biswas
#Embroidered Quilt#, a focus on the poet Jasimuddin and his works to understand the Chemistry and Physics of Communal Politics which inflicts the Indian pshyche countrywide and specifically in Bengal where it originally roots in. Palash Biswas
महत्वपूर्ण खबरें और आलेख गोवा में बीफ बिकता है और उप्र में बीफ बंदी, सरकार दोनों जगह भाजपा की ही है
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गोवा में बीफ बिकता है और उप्र में बीफ बंदी, सरकार दोनों जगह भाजपा की ही है
छोटे स्लाटर हाउस बंद होंगे, लेकिन बीफ की बड़ी कंपनियां अपना काम करती रहेंगी। यानी छोटे कारोबारियों की छुट्टी और कारपोरेट मुनाफा कमाएंगे।जब से भाजपा की केंद्र में सरकार बनी है बीफ निर्यात डेढ़ गुना हो गया
स्लाटर हाउस बंद कराने के योगी के अभियान को धार्मिक चश्मे से देखने के बजाए आर्थिक व राजनीतिक निगाह से देखने की ज़रूरत है।...
जब से भाजपा की केंद्र में सरकार बनी है बीफ निर्यात डेढ़ गुना हो गया है और अब यह और बढ़ने वाला है। इससे साफ है कि असल मामला वध का नहीं है
अवैध स्लाटर हाउस मामला : योगी के इस विकास की नींव तो अखिलेश रख गए थे
समझ में यह नहीं आ रहा है कि दोनों में से किसने जानवरों से ज़्यादा दोस्ती निभाई। क्रेडिट योगी को गया। बेचारे अखिलेश ǃǃǃ जिस विकास की नींव अखिलेश ने रखी थी उसका चैम्पियन कोई और बन गया।...
आज नारायण दत्त तिवारी तथा एसएम कृष्णा जैसे वरिष्ठतम कांग्रेसी नेता भाजपा में शरण पाते देखे जा रहे हैं।
हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेता जिन्हें कभी मुस्लिम समाज के लोग अपने नेता के रूप में देखा करते थे, उनके परिवार के सदस्य भाजपा में शामिल हो चुके हैं और उनकी बेटी रीता बहुगुणा उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाई जा चुकी हैं।
मार्गदर्शक मंडल के जो नेता चल-फिर, हिल-डुल और बोल सकते थे, उन्हें 2014 के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठकों में कितनी बार मार्गदर्शन प्रदान करने का अवसर दिया गया? इस प्रश्न के आलोक में पड़ताल की जाए तो पार्टी की अंदरूनी साजिशें सामने आ जाएंगी।
बंगलुरू, गोवा, और दिल्ली तीनों राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठकों की तस्वीर लगभग एक जैसी है, जहां न तो लालकृष्ण आडवानी का नाम लेने वाला कोई था, न मुरली मनोहर जोशी का।
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देश में मोदी लहर नहीं है। उल्टा 2019 के चुनाव में सत्ता विरोधी लहर की प्रवृत्ति का डर है। इसलिए देश में लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले राज्य उ. प्र. में मोदी-शाह कोई गलती नहीं करना चाहते ...
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मुरादाबाद शहर का आवास विकास की कालोनी में हमारे सहकर्मी तबरेज अपना अनुभव बताते हैं कि वह रामशरण शर्मा से हिन्दू- मुस्लिम भाईचारे पर सवाल करते हैं तो जबाब मिलता है कैसा भाई?मुसलमान कब भाई बन गया?
बसपा की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमज़ोर करने की बजाये उसे मज़बूत ही किया !
बसपा की जाति की राजनीति अवसरवादिता,सिद्धान्हीनता, दलित हितों की उपेक्षा और भ्रष्टाचार का शिकार हो कर विफल हो चुकी है. अतः इस परिपेक्ष्य में दलितों को अब एक नए रैडिकल राजनीतिक विकल्प की आवश्यकता है...
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कोर्ट में 'आप' नेताओं को मिली जान से मारने की धमकी, AAP ने लिखा गृह मंत्री को पत्र
अरुण जेटली के पक्ष के वकीलों के हुजूम के साथ आए वकील ने कोर्ट में ही दी 'आप' नेताओं को जान से मारने की धमकी - आरोप...
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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख जो भी आज साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहा है वह भगत सिंह है
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गोवा में बीफ बिकता है और उप्र में बीफ बंदी,सरकार दोनों जगह भाजपा की ही है
धर्मनिरपेक्षता की बजाय कट्टर हिंदूवादी स्वभाव की ओर बढ़ रहा देश का स्वभाव
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मार्गदर्शक मंडल को 'मूकदर्शक मंडल' बना रखा है मोदी-शाह की जोड़ी ने !
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आंकड़ें बताते हैं, देश में मोदी लहर नहीं, 2019में योगी मोदी की लाचारी हैं
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जो भी आज साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहा है वह भगत सिंह है
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कोर्ट में 'आप' नेताओं को मिली जान से मारने की धमकी, AAP ने लिखा गृह मंत्री को पत्र
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लिवर कैंसर का अब आसान इलाज
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