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तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए। मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है। मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं। जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा। जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाह

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तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।





जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।

दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


पलाश विश्वास

दैनिक जनतेचा महानायक या आंबेडकरी चळवळीतील अग्रगण्य दैनिकाचा दशकपूर्ती सोहळा येत्या शनिवारी नागपूर येथे संपन्न होत आहे. उत्तर नागपुरातील इंदोर परिसरातील बेझनबाग मैदानात हा भव्य सोहळा आयोजित करण्यात आला आहे. या सोहळ्यासाठी एक्ष्प्रेस वृत्तसमुहात मागील ३५ वर्षापासून कार्यरत असलेले कलकत्ता येथील प्रसिद्ध पत्रकार पलाश बिस्वास प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहणार आहेत. त्याचप्रमाणे दिल्ली येथील सुप्रसिद्ध पत्रकार व हस्तक्षेप या वेब पोर्टलचे संपादक अमलेन्दु उपाध्याय हे सुद्धा प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित होत आहेत.


आज रात की गाड़ी से नागपुर रवाना हो रहा हूं।


मिशन यह है कि बाबासाहेब के दीक्षाभूमि में अंबेडकरी आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों,बाबासाहेब के अनुयायियों को हमारे वैकल्पिक मीडिया के अनिवार्य अभियान में शामिल करना है।


वहां जनतेचा महानायक के दशकपूर्ती महोत्सव के मौके पर नागपुर के इंदौरा मैदान में 28 मई को सार्वजनिक सभा में वैकल्पिक मीडिया के हमारे युवा और समर्थ संपादक अमलेंदु उपाध्याय महाराष्ट्र की आम जनता के मुखातिब मुख्य वक्ता होंगे।


स्वागत कीजिये कि जनतेचा महानायक के संपादक सुनील खोब्रागड़े अब वैकल्पिक मीडिया के नये सिपाहसालार होंगे।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।


इसके साथ ही कृपया गौर करें कि  भारत विभाजन के बाद बंगाल की कुल आबादी के बराबर भारतभर में जो दलित बंगाली शरणार्थी छितराये हुए हैं , उनका बहुत बड़ा हिस्सा दंडकारण्य के आदिवासी भूगोल में बसे हैं।


बांग्ला भाषा उनकी मातृभाषा है और वे अपने इतिहास भूगोल और मातृभाषा से भी बेदखल हैं और उनकी चीखों को कहीं दर्ज नहीं किया जाता।मैं भी उन्हीं लोगों में से हूं जिन्हें बांग्ला में अपनी जमीन कभी मिली नहीं है और हिंदी में मेरा प्राण बसा है।


हर भारतीय भाषा और दुनियाभर में मनुष्यता की हर भाषा और हर बोली अब बांग्ला के साथ मेरा मातृभाषा है और बंगाल के इतिहास और भूगोल से बेदखली के बाद यही मेरा असल वजूद है।


बाबासाहेब की दीक्षा भूमि के आसपास महाराष्ट्र के विदर्भ में ऐसे मूक दलित बंगाली शरणार्थी भी बड़ी संख्या में बसे हैं और जनचेता महानायक का मुख्य सस्करण भी मुंबई से निकलता है।विदर्भ के माओवादी ब्रांडेड आदिवासी बहुल चंद्रपुर,गड़चिरौली और गोंडिया में मेरे ये स्वजन बसे हैं तो नागपुर भी मेरा उतना ही घर है जितना समूचा दंडकारम्य,अंडमान निकोबार,उत्तराखंड और यूपी।भारत के चप्पे चप्पे में हमारे वे लोग बसे हैं,जिनके लिए मेरे पिता जिये और मरे और वे सारे मेरे अपने परिजन है।उनकी अभिव्यक्ति के लिए वैकल्पिक मीडिया का यह अनिवार्य मिशन और जरुरी है।


हस्तक्षेप के साथ महानायक के समन्वय के आधार पर जो हम मराठी में हस्तक्षेप का विस्तार कर रहे हैं तो इसी मौके पर नागपुर की पवित्र दीक्षाभूमि से ही हस्तक्षेप का बांग्ला संस्करण भी लांच होना है।क्योंकि हमारी लड़ाई के लिए हमें हस्तक्षेप हर कीमत पर जारी रखना है चाहे हमें जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़े।


हमें उम्मीद है कि हमारे तमाम स्वजन,मित्र समर्थक सहकर्मी और जनप्रतिबद्ध परिचित अपरिचित इस मुहिम में देर सवेर हमारे साथ होगें।बाबासाहेब ने इस देश का संविधान रचा और मेहनतकशों के हकहकूक के स्थाई बंदोबस्त भी उनने किया तो बाबासाहेब के अनुायायियों का साथ हमें मिलना ही चाहिए और बाबासाहेब का मिशन आगे बढाना ही हमारा अनिवार्य कार्यभार है तो हमें उनका साथ भी हर कीमत पर चाहिए।जनतेचा महानायक हमारा आधार है।हम इसे राष्ट्रव्यापी बनाने का काम भी करेंगे।


इसी तरह हर भारतीय भाषा में अब देर सवेर हस्तक्षेप होगा और इसका सारा बोझ हम अमलेंदु पर लादने जा रहे हैं।हम हस्तक्षेप को हर बोली तक विस्तृत करना चाहते हैं ताकि वह लोकजीवन और लोकसंस्कृति की धड़कन तो बने ही,उसके साथ ही जनपक्षधरता के लिए नये माध्यम,विधा,व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ सके।


संपादकीय ढांचा जस का तस होगा और हम बाकी वैकल्पिक मीडिया और पूरे देश के साथ हस्तक्षेप को नत्थी करने के मिशन में हैं और हमें आपका बेशकीमती साथ,समर्थन और सहयोग चाहिए क्योंकि हम बाजार के व्याकरण के विरुद्ध विज्ञापन निर्भरता की बजाये आपके समर्थन के भरोसे यह आयोजन कर रहे हैं।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।



अब आप मानें या न मानें मेरे जीवन में सबसे बड़े आदर्श मेरे गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी,मेरे असल बड़े भाई आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट और राजीव लोचन साह अपनी अविराम सक्रियता के बावजूद बूढ़े हो चुके हैं और हम भी अब चंद दिनों के मेहमान हैं।


इनके मुकाबले मेरी हालत बहुत ज्यादा खराब है क्योंकि तमाम वजहें हैं कि मैं अपने पहाड़ और अपने गांव के रास्ते को मुड़कर देख भी नहीं सकता और मैं अपने घर और अपनी जमीन से बेदखल हूं और फिलहाल एक बेरोजगार मजदूर हूं जिसके लिए सर छुपाने की भी जगह नहीं है और निजी समस्याएं इतनी भयंकर हैं कि उनसे निबटने के लिए कोई रक्षाकवच कुंडल वगैरह नहीं है मेरे पास।


ऐसे समय में इस रिले रेस का बैटन अब हमारे युवा ताजा दम साथियों के पास है।


जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागड़,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े,अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


फिर अपना फोकस तय करना होगा क्योंकि मुक्तबाजार में मुद्दे भी वे ही तय कर रहे हैं और जनता के मुद्दे सिरे से गायब हैं।हम भटक नहीं सकते।इस तिलिस्म को तोड़ना है तो इसके तंत्र मंत्र यंत्र से बचने की दक्षता सजगता अनिवार्य है वरना हम लड़ ही नहीं सकते।कभी नहीं।सावधान।


वे अपने एजंडा लागू करने के लिए इंसानियत के मुल्क को खून के महासमुंदर में तब्दील कर रहे हैं सिर्फ भारत में ही नहीं,दुनियाभर में तो यह मोर्चाबंदी इस विश्वव्यवस्था के खिलाफ विश्वव्यापी होनी चाहिए और इस चुनौती का सामना उन्हें करना है।


हम हरचंद कोशिश में हैं कि अपने जनप्रतिबद्ध तमाम साथियों को एकजुट करें और दुनिया जोड़ने की बात तो बाद में करेंगे अगर आगे भी जियेंगे,फिलहाल देश जोड़ना बेहद जरुरी है।तुरंत जरुरी है।


गौरतलब है कि राजाधिराज मान्यवर डोनाल्ड ट्रंप के राज्य़ाभिषेक से पहले नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था।


आज उस सपने की विरासत,उस किसान आदिवासी मेहनतकश मजदूर के बदलाव की लड़ाई,राष्ट्र को जनवादी लोकतांत्रिक बनाने के कार्यभार का जो हुआ सो हुआ,तय यह है कि सत्तर के दशक की हमारी जिस पीढ़ी ने दुनिया बदलने की कसम ली थी,उसके बचे खुचे लोग अब अलविदा की तैयारी में हैं।


दूसरी तरफ भारत में जो असल सर्वहारा हैं,जो बहुसंख्य हैं,जो जल जमीन जंगल के साथ साथ नागरिक और मानवाधिकार से भी इस स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लगातार बेदखल हो रहे हैं और जिनके लिए मुक्तबाजार की यह व्यवस्था नरसंहारी है,वे लोग ख्वाबों की उस लहलहाती फसल से भी बेदखल हैं।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


जातिव्यवस्था के बने रहते हम भारत के लोग न देशभक्त हैं और न राष्ट्रवादी और न लोकतांत्रिक और हम एक अनंत रंगभेदी वर्चस्व के आत्मघाती गृहयुद्ध में स्वजनों के वध के लिए महाभारत जी रहे हैं।

जाति व्यवस्था के बने रहने पर न समता संभव है और न न्याय और समरसता का धर्मोन्माद आत्मघाती है।


धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह मनुस्मृति अनुशासन बंटी हुई मेहनतकश जनता के नरकंकालों का बेलगाम  कारोबार है तो जाति उन्मूलन के बाबासाहेब का एजंडा ही प्रतिरोध का प्रस्थान बिंदू है क्योंक बंटे हुए हम न अलग अलग जी सकते हैं और न हमारा कोई जनमत या जनादेश है और बच निकलने का कोई राजमार्ग।


दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।


संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


यह धर्मध्वजा मुक्तबाजार का है,इसे आस्था में निष्णात मनुष्यता को समझाना बेहद मुश्किल है क्योंकि इतिहास की मृत्यु हो गयी है और विचारधारा भी बची नहीं है।


यह समझाना भी बेहद मुश्किल है कि मुक्तबाजार के व्याकरण के मुताबिक धर्म और नैतिकता,भाषा और संस्कृति,लोक जीवन का भी अवसान हो गया है।हम बेरहम बाजार में नंगे खड़े हैं और क्रयशक्ति ही एकमात्र सामाजिक मूल्य है।


अब हम मनुष्य भी नहीं रहे हैं।


हम बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक नागरिक अनागरिक हैं और हमारा कोई वजूद नहीं है।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।



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मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।





जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।

दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


पलाश विश्वास

दैनिक जनतेचा महानायक या आंबेडकरी चळवळीतील अग्रगण्य दैनिकाचा दशकपूर्ती सोहळा येत्या शनिवारी नागपूर येथे संपन्न होत आहे. उत्तर नागपुरातील इंदोर परिसरातील बेझनबाग मैदानात हा भव्य सोहळा आयोजित करण्यात आला आहे. या सोहळ्यासाठी एक्ष्प्रेस वृत्तसमुहात मागील ३५ वर्षापासून कार्यरत असलेले कलकत्ता येथील प्रसिद्ध पत्रकार पलाश बिस्वास प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहणार आहेत. त्याचप्रमाणे दिल्ली येथील सुप्रसिद्ध पत्रकार व हस्तक्षेप या वेब पोर्टलचे संपादक अमलेन्दु उपाध्याय हे सुद्धा प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित होत आहेत.


आज रात की गाड़ी से नागपुर रवाना हो रहा हूं।


मिशन यह है कि बाबासाहेब के दीक्षाभूमि में अंबेडकरी आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों,बाबासाहेब के अनुयायियों को हमारे वैकल्पिक मीडिया के अनिवार्य अभियान में शामिल करना है।


वहां जनतेचा महानायक के दशकपूर्ती महोत्सव के मौके पर नागपुर के इंदौरा मैदान में 28 मई को सार्वजनिक सभा में वैकल्पिक मीडिया के हमारे युवा और समर्थ संपादक अमलेंदु उपाध्याय महाराष्ट्र की आम जनता के मुखातिब मुख्य वक्ता होंगे।


स्वागत कीजिये कि जनतेचा महानायक के संपादक सुनील खोब्रागड़े अब वैकल्पिक मीडिया के नये सिपाहसालार होंगे।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।


इसके साथ ही कृपया गौर करें कि  भारत विभाजन के बाद बंगाल की कुल आबादी के बराबर भारतभर में जो दलित बंगाली शरणार्थी छितराये हुए हैं , उनका बहुत बड़ा हिस्सा दंडकारण्य के आदिवासी भूगोल में बसे हैं।


बांग्ला भाषा उनकी मातृभाषा है और वे अपने इतिहास भूगोल और मातृभाषा से भी बेदखल हैं और उनकी चीखों को कहीं दर्ज नहीं किया जाता।मैं भी उन्हीं लोगों में से हूं जिन्हें बांग्ला में अपनी जमीन कभी मिली नहीं है और हिंदी में मेरा प्राण बसा है।


हर भारतीय भाषा और दुनियाभर में मनुष्यता की हर भाषा और हर बोली अब बांग्ला के साथ मेरा मातृभाषा है और बंगाल के इतिहास और भूगोल से बेदखली के बाद यही मेरा असल वजूद है।


बाबासाहेब की दीक्षा भूमि के आसपास महाराष्ट्र के विदर्भ में ऐसे मूक दलित बंगाली शरणार्थी भी बड़ी संख्या में बसे हैं और जनचेता महानायक का मुख्य सस्करण भी मुंबई से निकलता है।विदर्भ के माओवादी ब्रांडेड आदिवासी बहुल चंद्रपुर,गड़चिरौली और गोंडिया में मेरे ये स्वजन बसे हैं तो नागपुर भी मेरा उतना ही घर है जितना समूचा दंडकारम्य,अंडमान निकोबार,उत्तराखंड और यूपी।भारत के चप्पे चप्पे में हमारे वे लोग बसे हैं,जिनके लिए मेरे पिता जिये और मरे और वे सारे मेरे अपने परिजन है।उनकी अभिव्यक्ति के लिए वैकल्पिक मीडिया का यह अनिवार्य मिशन और जरुरी है।


हस्तक्षेप के साथ महानायक के समन्वय के आधार पर जो हम मराठी में हस्तक्षेप का विस्तार कर रहे हैं तो इसी मौके पर नागपुर की पवित्र दीक्षाभूमि से ही हस्तक्षेप का बांग्ला संस्करण भी लांच होना है।क्योंकि हमारी लड़ाई के लिए हमें हस्तक्षेप हर कीमत पर जारी रखना है चाहे हमें जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़े।


हमें उम्मीद है कि हमारे तमाम स्वजन,मित्र समर्थक सहकर्मी और जनप्रतिबद्ध परिचित अपरिचित इस मुहिम में देर सवेर हमारे साथ होगें।बाबासाहेब ने इस देश का संविधान रचा और मेहनतकशों के हकहकूक के स्थाई बंदोबस्त भी उनने किया तो बाबासाहेब के अनुायायियों का साथ हमें मिलना ही चाहिए और बाबासाहेब का मिशन आगे बढाना ही हमारा अनिवार्य कार्यभार है तो हमें उनका साथ भी हर कीमत पर चाहिए।जनतेचा महानायक हमारा आधार है।हम इसे राष्ट्रव्यापी बनाने का काम भी करेंगे।


इसी तरह हर भारतीय भाषा में अब देर सवेर हस्तक्षेप होगा और इसका सारा बोझ हम अमलेंदु पर लादने जा रहे हैं।हम हस्तक्षेप को हर बोली तक विस्तृत करना चाहते हैं ताकि वह लोकजीवन और लोकसंस्कृति की धड़कन तो बने ही,उसके साथ ही जनपक्षधरता के लिए नये माध्यम,विधा,व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ सके।


संपादकीय ढांचा जस का तस होगा और हम बाकी वैकल्पिक मीडिया और पूरे देश के साथ हस्तक्षेप को नत्थी करने के मिशन में हैं और हमें आपका बेशकीमती साथ,समर्थन और सहयोग चाहिए क्योंकि हम बाजार के व्याकरण के विरुद्ध विज्ञापन निर्भरता की बजाये आपके समर्थन के भरोसे यह आयोजन कर रहे हैं।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।



अब आप मानें या न मानें मेरे जीवन में सबसे बड़े आदर्श मेरे गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी,मेरे असल बड़े भाई आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट और राजीव लोचन साह अपनी अविराम सक्रियता के बावजूद बूढ़े हो चुके हैं और हम भी अब चंद दिनों के मेहमान हैं।


इनके मुकाबले मेरी हालत बहुत ज्यादा खराब है क्योंकि तमाम वजहें हैं कि मैं अपने पहाड़ और अपने गांव के रास्ते को मुड़कर देख भी नहीं सकता और मैं अपने घर और अपनी जमीन से बेदखल हूं और फिलहाल एक बेरोजगार मजदूर हूं जिसके लिए सर छुपाने की भी जगह नहीं है और निजी समस्याएं इतनी भयंकर हैं कि उनसे निबटने के लिए कोई रक्षाकवच कुंडल वगैरह नहीं है मेरे पास।


ऐसे समय में इस रिले रेस का बैटन अब हमारे युवा ताजा दम साथियों के पास है।


जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागड़,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े,अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


फिर अपना फोकस तय करना होगा क्योंकि मुक्तबाजार में मुद्दे भी वे ही तय कर रहे हैं और जनता के मुद्दे सिरे से गायब हैं।हम भटक नहीं सकते।इस तिलिस्म को तोड़ना है तो इसके तंत्र मंत्र यंत्र से बचने की दक्षता सजगता अनिवार्य है वरना हम लड़ ही नहीं सकते।कभी नहीं।सावधान।


वे अपने एजंडा लागू करने के लिए इंसानियत के मुल्क को खून के महासमुंदर में तब्दील कर रहे हैं सिर्फ भारत में ही नहीं,दुनियाभर में तो यह मोर्चाबंदी इस विश्वव्यवस्था के खिलाफ विश्वव्यापी होनी चाहिए और इस चुनौती का सामना उन्हें करना है।


हम हरचंद कोशिश में हैं कि अपने जनप्रतिबद्ध तमाम साथियों को एकजुट करें और दुनिया जोड़ने की बात तो बाद में करेंगे अगर आगे भी जियेंगे,फिलहाल देश जोड़ना बेहद जरुरी है।तुरंत जरुरी है।


गौरतलब है कि राजाधिराज मान्यवर डोनाल्ड ट्रंप के राज्य़ाभिषेक से पहले नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था।


आज उस सपने की विरासत,उस किसान आदिवासी मेहनतकश मजदूर के बदलाव की लड़ाई,राष्ट्र को जनवादी लोकतांत्रिक बनाने के कार्यभार का जो हुआ सो हुआ,तय यह है कि सत्तर के दशक की हमारी जिस पीढ़ी ने दुनिया बदलने की कसम ली थी,उसके बचे खुचे लोग अब अलविदा की तैयारी में हैं।


दूसरी तरफ भारत में जो असल सर्वहारा हैं,जो बहुसंख्य हैं,जो जल जमीन जंगल के साथ साथ नागरिक और मानवाधिकार से भी इस स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लगातार बेदखल हो रहे हैं और जिनके लिए मुक्तबाजार की यह व्यवस्था नरसंहारी है,वे लोग ख्वाबों की उस लहलहाती फसल से भी बेदखल हैं।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


जातिव्यवस्था के बने रहते हम भारत के लोग न देशभक्त हैं और न राष्ट्रवादी और न लोकतांत्रिक और हम एक अनंत रंगभेदी वर्चस्व के आत्मघाती गृहयुद्ध में स्वजनों के वध के लिए महाभारत जी रहे हैं।

जाति व्यवस्था के बने रहने पर न समता संभव है और न न्याय और समरसता का धर्मोन्माद आत्मघाती है।


धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह मनुस्मृति अनुशासन बंटी हुई मेहनतकश जनता के नरकंकालों का बेलगाम  कारोबार है तो जाति उन्मूलन के बाबासाहेब का एजंडा ही प्रतिरोध का प्रस्थान बिंदू है क्योंक बंटे हुए हम न अलग अलग जी सकते हैं और न हमारा कोई जनमत या जनादेश है और बच निकलने का कोई राजमार्ग।


दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।


संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


यह धर्मध्वजा मुक्तबाजार का है,इसे आस्था में निष्णात मनुष्यता को समझाना बेहद मुश्किल है क्योंकि इतिहास की मृत्यु हो गयी है और विचारधारा भी बची नहीं है।


यह समझाना भी बेहद मुश्किल है कि मुक्तबाजार के व्याकरण के मुताबिक धर्म और नैतिकता,भाषा और संस्कृति,लोक जीवन का भी अवसान हो गया है।हम बेरहम बाजार में नंगे खड़े हैं और क्रयशक्ति ही एकमात्र सामाजिक मूल्य है।


अब हम मनुष्य भी नहीं रहे हैं।


हम बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक नागरिक अनागरिक हैं और हमारा कोई वजूद नहीं है।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।



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TaraChandra Tripathi भाषा ही क्या देश के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. विजय माल्या, ललित मोदी, डकारें हजारों करोड़, जेल जाये हजार के उधार वाला अधमरा किसान.

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TaraChandra Tripathi


अस्मिताबोध भाषाओं के लिए की संजीवनी है. जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों में स्वाभिमान होता है, उनकी भाषाएँ, संख्यात्मक दृष्टि से दुर्बल होने के बावजूद जीवित रहती हैं. पर जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों का अस्मिताबोध क्षीण होता है, उनकी भाषाएँ बोलने वालों की अपेक्षाकृत विशाल संख्या के बावजूद काल कवलित हो जाती हैं.
जो समाज अपनी भाषाओं को स्वयं बचाने की अपेक्षा सरकार का मुँह जोहते हैं, उनकी भाषाओं को राजनीति खा जाती है.. उत्तराखंड भाषा संस्थान इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है. यह संस्थान बना था उत्तराखंड की संकटग्रस्त लोक भाषाओं को बचाने के लिए. सरकार को लगा कि वोट बैंक तो उर्दू और पंजाबी में है. अत: यह विज्ञपित किया गया कि ये दोनों भाषाएँ भी बहुत खतरे में हैं. इन्हें बचाना भी बहुत जरूरी है.
निश्शंक जी भले ही रूढ़िवादी और कुटिल राजनीतिज्ञ थे, लेकिन लोक भाषाओं को बचाने के लिए उन्होंने भाषा संस्थान की तत्कालीन निदेशक श्रीमती सविता मोहन को स्वतंत्र अधिकार दे रखा था. उनके जमाने में लोक भाषा अनुसंधान त्था रचनाकारों के प्रोत्साहन की अनेक योजनाएँ क्रियान्वित हुईं. निश्शंक क्या गये, शंक के आते ही भाषा संस्थान भैंस के मरे पाडे सा रह गया, जिसके द्वारा देहरादूइन में ही अड़े रहने का जुगाड़ लगाये, अफसरों को एक ठिकाना और मिल गया.
अब सुना है कि सरकार प्राथमिक पाठशालाओं में लोक भाषाओं को पाठ्यक्रम में लगाने जा रही है. पर किन पाठशालाओं में, सम्पन्नों के स्कूलों में तो हिन्दी भी लतियायी जा रही है, फिर लोक भाषाओं की क्या विसात कि वे उनके गेट तक भी पहुँच पायें. बलि के बकरे तो हमारी प्राथमिक पाठशालाओं के बच्चे ही बनेंगे. जो वैसे भी अध्यापकों की बेरुखी से बौद्धिक मरणासन्नता से उबर नहीं पा रहे हैं.
यदि इन बच्चों के बलिदान से कोई भाषा बचने वाली है तो उसका विलुप्त होना ही श्रेयस्कर है. क्योंकि भाषा जीवन के लिए है न कि जीवन भाषा के लिए.
किसी भी भाषा की विलुप्ति में सम्पन्न वर्ग सर्वाधिक उत्तरदायी होता है. उसकी देखा-देखी विपन्न वर्ग भी अपनी भाषाओं की उपेक्षा करने लगता है. अत: लोक भाषाओं को बचाने की सर्वाधिक दायित्व भी उन्हीं का है. अत: यह सर्वथा अनुचित है कि भाषा को मिटायें सम्पन्न और भाषा को बचाने के .लिए मिटें विपन्न.
भाषा ही क्या देश के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. विजय माल्या, ललित मोदी, डकारें हजारों करोड़, जेल जाये हजार के उधार वाला अधमरा किसान.


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रोहित वेमुला, प्रणव धनावड़े हम शर्मिंदा हैं, द्रोणाचार्य अब तक जिंदा है!

मोदी सरकार का सबसे बड़ा घोटाला ======================= उत्तराखंड जिसके लिए उसका ऋणी है! Laxman Singh Bisht Batrohi

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मोदी सरकार का सबसे बड़ा घोटाला 
=======================
उत्तराखंड जिसके लिए उसका ऋणी है!

Laxman Singh Bisht Batrohi 

अपने दो साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री मोदी ताल ठोककर कहते हैं कि पिछली कांग्रेस सरकार घोटालों की सरकार थी जब कि भाजपा सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है पिछले दो वर्षों के शासन काल में एक भी घोटाले का न होना.
एकाएक सुनने पर यह बात बेहद आकर्षक लगती है, इसकी सत्यता को हमारे देश के आर्थिक और राजनीतिक विशेषज्ञ जांचेंगे मगर एक उत्तराखंडी के नाते मैं कह सकता हूँ कि अपने दो वर्षों के कार्यकाल में मोदी सरकार ने एक ऐसा घोटाला किया है, जिसकी तुलना के लिए भारतीय इतिहास में शायद ही कोई और उदहारण मिले. विगत 18 मार्च को हुए कांग्रेस के 9 विधायकों का अपहरण करके उन्हें वर्तमान सरकार को तोड़ने के लिए इस्तेमाल करना उनकी अद्भुत रणनीति का प्रदर्शन है जिसने एक साथ अनेक नज़ीरें स्थापित कीं. 
भारतीय इतिहास में शायद पहली बार एक मामूली राजनेता को देश की सर्वोच्च न्याय संस्था के द्वारा फेवर मिला और भारत के आम लोगों के बीच यह विश्वास जगा कि इस स्वार्थी और छीना-झपटी के दौर में कोई जगह ऐसी भी है, जहाँ वे कठिन समय में शरण ले सकते हैं.

यह तो तस्वीर का एक पहलू है. दूसरा और उल्लेखनीय पहलू यह है कि इस घोटाले ने भले ही भाजपा की झोली में वृद्धि न की हो, सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के बहाने उत्तराखंड के समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है. सीधे-सरल, इकतरफा सोच के माने जाने वाले उत्तराखंड के लोगों के दिमाग में सच में इतनी निष्ठुर कल्पना कभी आ ही नहीं सकती थी. मुझे याद है, परंपरागत उत्तराखंडी समाज में दुश्मनी प्रदर्शित करने के भी कुछ नियम होते थे. इन नियमों को 'दुश्मनी की नैतिकता' भी कहा जा सकता है. 
हमारे पुराने समाजों में अगर किसी को पीटना या नुकसान पहुँचाना होता था, तो एक अघोषित नियम होता था कि उसे इतना मारना कि वह काम करने लायक न रहे लेकिन उसके प्राण मत लेना. जो प्राण दे नहीं सकता उसे प्राण लेने का कोई अधिकार नहीं है. चूंकि लोग एक बंद दुनिया में रहने के आदी थे, पढ़े-लिखे भी नहीं थे, इसलिए प्रकृति की गोद में पलने वाले लोगों के क्रोध का प्रदर्शन भी विचित्र प्रकार का हुआ करता था जो कालांतर में उन्ही के लिए हानिकारक भी हुआ करता था. ऐसे लोगों के लिए 'लाट-किकड़' संबोधन का प्रयोग किया जाता था, जो सरल, कुछ हद तक बेवक़ूफ़ मगर खुद को तीसमारखां समझने वाले लोग होते थे.
अठारह मार्च को बागी बने इन नौ 'लाटों-किकडों' ने अंततः अपनी जातीय अस्मिता का परिचय दे ही दिया. इतिहास किस तरह लौट-लौट कर सबक सिखाता है, यह भी मोदी सरकार के इस राजनीतिक घोटाले ने सिद्ध कर दिखाया. 
इस प्रकरण से भले ही वर्तमान सरकार को निश्चय ही लाभ मिलेगा, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए, मगर उत्तराखंडी समाज की परंपरागत छवि को इससे जबरदस्त नुकसान पहुँचा है जिसकी भरपाई हो पाना शायद ही संभव हो पाए.



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'हस्तक्षेप'के लिए कैंपस से लेकर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदि मुद्दों पर जरूर लिखेगें..

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Rajneesh Kumar Ambedkar


"हस्तक्षेप" (जिसे हम वैकल्पिक मीडिया कह सकते हैं) के संपादक अमलेंदु उपाध्याय और पलास विस्वास जी गोरख पांडेय छात्रावास, म.गां.अं.हिं.वि., वर्धा आए। उनके साथ खाने पर तमाम सारे सामाजिक मुद्दों पर बातचीत हुई। उसके बाद में छात्रों से विस्तारित बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि देश के विकास का रास्ता छात्र-नौजवानों के द्वारा विश्वविद्यालयों से होकर जाता है। इसलिए छात्रों को हमेशा एक बेहतर समाज बनाने में अपना सहयोग करना चाहिए....आज बगैर अम्बेडकरवादियों को साथ में लिए हम भारत देश का समावेशी विकास नहीं कर सकते हैं। आज के समय में ज्वलंत प्रश्न जैसे आरक्षण (प्रतिनिधित्व) व सहभागिता और जाति के प्रश्नों पर बातचीत करना ही होगा। इसलिए छात्रों को समाज की सामाजिक समस्याओं पर लिखना चाहिए। इसके लिए 'हस्तक्षेप' जनता और सरकार तक आपकी आवाज को पहुँचाने का काम करेगा। हम सभी ने उनको अश्वासन दिया कि हम लोग 'हस्तक्षेप' के लिए कैंपस से लेकर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदि मुद्दों पर जरूर लिखेगें.....इस अवसर को मुहिया कराने के लिए आभार-Sanjeev Majdoor Jha, Photo Click by Bhagwat Prasad sir ji.



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For my friends in Universities! While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot. There might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice. Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai. Palash Biswas

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For my friends in Universities!

While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot. There might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice.


Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai.

Palash Biswas

I visited Mahatma Gandhi Hindi University campus on 29th May last during my Nagpur stay.It was burning as Bidrav bears the burn year round and the Sun seems to be the most merciless for the peasantry there often opting suicide under free market economy and we dare not to address the Agrarain crisis or we intend not at all.But Amalendu Upadhyaya,the Hastakshep editor had to be introduced to the students.We landed right into Gorakh Pandey Hostel and spent a few hours interacting with them as the stayed in the campus despite summer vacation.We would like to visist every university and every student if possible.


 I am glad that my young friends seem to be as much as concerned as we are.As I said that Gautam Buddha enacted the original revolution on the base of his observation that ROG SHOK TAAPO ZARA MRITYU are the ultimate realities of life and each reality has a cause.If there is some cause than it might be solved. 


Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai.


We should not be disappointed at any point as we may change the course of history and if our concern and our commitment are genuine,the unprecedented crisis might call for an unprecedented attempt to bring about the most wanted change.


No problem would be solved until we reach the resort of love and peace which is possible only when we have enough courage to fight for equality and justice.


This attempt should not be individual attempt and we must stand united rock solid to achieve the ultimate objective in defence of humanity and the nature.


We may have difference in opinion,ideology,identity as we belong to a nation of diverse culture and realities.We have to strike the chemistry to unite the Nation.


 For me,I see the model of an ideal society in our universities where our children live rather in a society which might be called casteless classless.It looks not like a patriarchal society either as the girls students are respected and they may participate in free discourse which is the soul of universities.


We have to discuss the problems as well as difference with an open mind to make new ways for tolerance and democracy.


Fascism has no way in universities and it is the ultimate republic which we must defend,we the people of India.


 Whereas the life out universities is bound to be hell losing with all sort of complexities,violence and dominance,monopoly,identity class and in fight for power,economic problems,unemployment and displacement,discrimination and apartheid,gender bias and so on.


Thus,the students who want to continue the freedom for humanity,freedom in medium,genre language ,freedom for expression,job security and democratic environment must do the extra course and it is all about the defence of humanity and nature.


This are the basic elements for civilization.We have to invent not only better technologies and theories to sustain life and universe,we have to connect every citizen irrespective of his or her status and identity.


While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot.Ther might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice.


 We could not reach the university in time and we could not reach the girl hostels.I am awefully afraid.girls and women should be considered ,represented in every sphere of life an if some of them deserve they should lead us as we have so many worthy executives these days in any field.


I have no job and I have no shelter.No pension to sustain myself but I would like to visit the universities as an outsider time and again and I believe that the youth and courage may provide me with an extra span of life.


 I am available for universities and colleges and students may interact with me in any language and in any medium.Perhaps I may be useful for career,academic and professional grooming across the discipline specifically with my experience in corporate as well as alternative media.I am looking for such proposal from private parties as I may not expect a government job.


 I have no resource but I am habitual to bear the burn of the heat as I belong to the roots and I a belong to the Himalayas and I am ready to face the adversaries and hope whenever I get an opportunity,I would reach you and would expect to see you all standing united to make this universe a better universe.




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আর কত রক্ত ? ।। শিবানী দে।।

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আর কত রক্ত ?


 ।। শিবানী দে।।
     
          
(C)Image:ছবি
সেদিন আবারও দিল্লির রাজপথে আফ্রিকীয় নিধন ।  আফ্রিকা একটা বিশাল মহাদেশ,নাইজিরিয়াকেনিয়াকঙ্গোমরক্কো কত দেশ থেকে মানুষ এদেশে আসেসেসব পরিচয় আমাদের এখানে গুরুত্ব পায় না । তার মধ্যে কত ছাত্রকত খেলোয়াড়, কত সরকারিকত ব্যবসায়ীবা শুধুই ভ্রমণকারীতারও কিছু জানবার দরকার নেই। তার মধ্যে কেউ বা হয়তো কোনো অপরাধমূলক কাজে জড়িয়ে থাকতেই পারেযেমন শ্বেতাঙ্গ আগন্তুকদের মধ্যেও থাকে । কিন্তু  শুধু আফ্রিকীয়রা কালো,দেখতে অন্যরকম, (যারা কালো নয়, তাদের কথা আলাদা) সেটাই একমাত্র বিবেচ্য হয়ে থাকেআর যেহেতু তারা তুলনামূলকভাবে গরিব দেশের লোকতাই তাদের কেউ অপরাধ করলে সেই স্টিকার ওদের সার্বজনীন কপালে সাঁটা হয়ে যায় ।
          কেন অন্যরকম দেখতে লোকজন এদেশে মানুষের মর্যাদা পায় না যে কোনো অজুহাতে তাদের উপর অত্যাচারবলাৎকারহত্যা করতে হাত কাঁপে নাবিবেকে বাধে না নাকি বিবেক এখন ধীরে ধীরে লুপ্ত হয়ে যাচ্ছে অন্যরকম চেহারা হলেই মানুষ নিজের স্বজাতিকে এক সাধারণ প্রাণী বলেই ভাবছেখুশি খুশি মেরে ফেলা যায় । মানুষ কেন এত অসহিষ্ণু হয়ে যাচ্ছে সমাজ কি ঠগখুনিতে ভরে যাচ্ছে 
          মাঝখানে কিছুদিন খবরে কাগজে বা টিভিতে এই ধরণের খবর ছিল না । তবে তখন ছিল ভোটের বাজার----অন্য কিছু ঘটে থাকলেও তেমন প্রকাশ্যে আসে নি । এবার একজন আফ্রিকান নিহত,পাথরের ঘায়ে । অন্যজন তার বন্ধুআহত । এরা এখানে এসেছিল পড়াশুনো করতে । শিক্ষিতআরো কিছু শেখার আশায় এসেছে । সামান্য অটো ধরা নিয়ে বচসাহাতাহাতি । ভূমিপুত্রদের নিজেদের স্বার্থে অটো জবরদখল । প্রতিবাদী লোকটি বিদেশিকালোদেখতে অন্যরকমতার সংখ্যার জোর নেই । অতএব তার বাঁচবার অধিকারও নেই ।
       একইভাবে কয়েক মাস আগে বেঙালুরুর রাস্তায় এক আফ্রিকান মহিলাকে নগ্ন করে ঘোরানো হয়েছিল । হায়দরাবাদেও একজন আফ্রিকান খুন হয়েছিল । প্রত্যেকটা শহরে একই চিত্র । অভদ্র অশ্লীল অসহিষ্ণু হিংস্র ভূমিপুত্র । আমাদের জায়গাআমাদের রাজত্ব । আমরা যা ইচ্ছে করতে পারি । অজুহাত দেবতোমরা ড্রাগ পাচারকারীচোর, নেশাখোর-----যা খুশি । প্রমাণের দায়িত্ব আমাদের নেইআমাদের খুশিই আইন ।
       সরকার আবার বড় বড় করে বিজ্ঞাপন দেয়, 'অতিথিদেবো ভব'। এসব বুলি অনেক হাজার বছর পুরোনোতামাদি হয়ে গেছে ।
       তবে আফ্রিকীয় অতিথিদের সান্ত্বনা হতে পারে যে আমাদের এইসব ভূমিপুত্ররা নিজেদের দেশের উত্তরপূর্বাঞ্চলের অধিবাসীদের সঙ্গেও একই ব্যবহার করে । দিল্লি বেঙালুরুতে ওরাও পড়াশুনোর জন্যকাজের জন্য আসে । ওদেরও দেখতে অন্যরকমচালচলন একটু আলাদা, অতএব ওরাও খিল্লিবঞ্চনাশারীরিক পীড়ন,ধর্ষণএমনকি হত্যারও যোগ্য । অজুহাতসে কিছু একটা দিলেই হল । 'ওরা ড্রাগখোরড্রাগ পাচার করে,ওদের মেয়েরা ছেলেদের মধ্যে বেশ খোলামেলাস্বাধীনভাবে মেলামেশা করে । যেহেতু ওদের মেয়েরা ছেলেদের সঙ্গে ঘোরে, অতএব ওরা একশ শতাংশ ধর্ষণের যোগ্য ।ওদেরও বেশি সংগঠন নেইকাজেই প্রতিবাদের তেমন জোর নেই ।
     ভূমিপুত্রদের ভাবখানা এরকমযে 'আমরাই এখানকার মালিকআমরা যাকে খুশি ল্যাজায় কাটতে পারি,মুড়োয় ও কাটতে পারি । আমাদের গায়ে হাত দেবে ওদের সামর্থ্য নেই । পুলিশ কি করবে পুলিশ তো আমাদেরই লোক ।তাই এতসব করেও এইসব খুনে ঠগরা পার পেয়ে যায় ।
     পশ্চিমী দেশগুলোতে বৈষম্য মোটামুটি একমাত্রিক বা দ্বিমাত্রিকসেখানে ধনী-গরিব, সাদা- কালো/বাদামির মধ্যে বর্ণবৈষম্য । আমাদের দেশে বৈষম্য বহুমাত্রিক । এখানে ধনী-দরিদ্রসাদা-কালো,  ককেশীয়-মঙ্গোলীয়, উচ্চবর্ণ-দলিতহিন্দু-মুসলমাননারী-পুরুষ, (রাজনৈতিক দলগুলোর আর নাম করলাম না) বৈষম্যের মাত্রার সংখ্যা নেই । কে কাকে কখন আক্রমণ করবেকার ঘাড়ে ঝাঁপিয়ে পড়বে তার কোনো হদিশ নেই । কারণের দরকারও বড় একটা হয় নাছুতো থাকলেই যথেষ্ট । জোর যার বেশিতারই অন্যের উপর কর্তৃত্বের অধিকার । সেই কর্তৃত্ব কখনো লুটদখলদারিকখনো বলাৎকার কখনো হত্যাকখনো বা সবকিছু একসঙ্গে । আক্রমণ আজকাল আর পারস্পরিক নয়, সামূহিকযূথবদ্ধ । আক্রমণকারীরা যেন ক্ষুধার্ত হায়নার পাল । একসঙ্গে ঝাঁপিয়ে পড়ে, মাঝেমাঝে মনে হয় গোটা দেশটাই জঙ্গলে পরিণত হতে যাচ্ছে । শুভবুদ্ধিসম্পন্ন মানুষের স্বর চাপা পড়ে যাচ্ছে। চারদিকে শুধুই হুংকার আর আক্রমণের নেশা, 'দেখে নেবোবুঝে নেবো'র হুমকি ।
    প্রতিবেশী দেশগুলো থেকেও একই ধরণের খবর আসতে থাকে ।
    আমরা কি ফিরে যাচ্ছি হব্‌স্‌(Hobbes) কথিত প্রকৃতির রাজ্যে যেখানে প্রতিটি মানুষ প্রতিযোগী,জান্তবহিংস্রসমাজহীনএকা মনে হয় কোনো শিক্ষাশিল্পসাহিত্যসুকুমারকলা, সঙ্গীত এই অবস্থা থেকে মানুষের উত্তরণ ঘটাতে পারবে না । হয় নৈরাজ্যনয় প্রশাসন ও পুলিস ----এই-ই শেষ কথা ।  ভয়,সন্ত্রাস ও মৃত্যুর ছায়ায় বেঁচে থাকাটাই বোধ হয় আজ মানুষের নিয়তি ।
ঈশানের পুঞ্জমেঘ

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इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैःदून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है.

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 इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैःदून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. 

देहरादून।देश के तमाम विश्वविद्यालय जिस तरह जंग का मैदान बने हुए हैं,उसी तरह देहरादून में स्थित दून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. दून विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त कहा गया था कि यह अकादमिक श्रेष्ठता का केंद्र (centre of excellence) होगा. लेकिन एक लम्बे अरसे से,विशेष तौर पर प्रो.वी.के.जैन के कुलपति रहने के दौरान,विश्वविद्यालय अकादमिक श्रेष्ठता के प्रयासों के लिए नहीं बल्कि मनमानेपन, तानाशाही और नियमों को धता बताने वाले आचरण के लिए ही चर्चा में है.

हिमालयी जनता के जनांदोलनों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता इंद्रेश मैखुरी ने यह जानकारी अपने फेसबुक वाल पर लगायी है।
 इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैः

देश के तमाम विश्वविद्यालय जिस तरह जंग का मैदान बने हुए हैं,उसी तरह देहरादून में स्थित दून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. दून विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त कहा गया था कि यह अकादमिक श्रेष्ठता का केंद्र (centre of excellence) होगा. लेकिन एक लम्बे अरसे से,विशेष तौर पर प्रो.वी.के.जैन के कुलपति रहने के दौरान,विश्वविद्यालय अकादमिक श्रेष्ठता के प्रयासों के लिए नहीं बल्कि मनमानेपन, तानाशाही और नियमों को धता बताने वाले आचरण के लिए ही चर्चा में है.
कुलपति के रूप में दूसरा कार्यकाल पाए हुए प्रो.जैन ने इस वर्ष के प्रॉस्पेक्टस में छात्र-छात्राओं पर ऐसे प्रतिबंधों की घोषणा कर दी,जिन प्रतिबंधों की टक्कर की पाबंदियां,बड़े-बड़े तानाशाह नहीं लगा सकेंगे. विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के समूह में प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने और उन के सामने बात रखने को अनुशासनहीनता की श्रेणी में डाल दिया गया.छात्र-छात्राओं के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से पुस्तकों को फोटोस्टेट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.धरना,प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लग जाए,बोलने की आजादी न हो,यह तो हर तानाशाह की दिली तम्मना होती है ,सो दून विश्वविद्यालय और उसके कुलपति जैन साहब ने भी अपनी इस चाहत के तहत धरना,प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया.यहाँ तक मीडिया बुलाना भी एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया.आखिर किस बात की पर्देदारी कर रहा है,दून विश्वविद्यालय का प्रशासन कि मीडिया के आने को भी दंडात्मक श्रेणी में रख रहा है?लेकिन दून विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र-छात्राओं ने इन तानाशाही फरमानों की चिंदी-चिंदी उड़ा दी और इन अलोकतांत्रिक तथा अवैध प्रतिबंधों के खिलाफ ही आन्दोलन छेड़ दिया.
31 मई को दून विश्वविद्यालय के इन संघर्षरत साथियों को दून विश्वविद्यालय में कुलपति प्रो.वी.के.जैन के संरक्षण में अयोग्यों को नियुक्त करने की कोशिशों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जीत हासिल हुई.31 मई को स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के अंतर्गत अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के दो पदों के लिए साक्षात्कार आयोजित किया गया था.लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दो पदों के लिए दो ही लोगों को शार्टलिस्ट किया गया .इससे स्पष्ट हो गया था कि एसोसिएट प्रोफेसर के लिए करवाया जा रहा साक्षात्कार "फिक्स मैच"है. चर्चा तो यह भी थी कि जिन दो लोगों को एसोसिएट प्रोफेसर बनाने के लिए दून विश्वविद्यालय 31 मई को साक्षात्कार आयोजित कर रहा है,उन में से एक का चयन अभी कुछ दिन पहले देहरादून में ही स्थित पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर भी नहीं हुआ था और जैन साहब उन्ही हजरत को दून विश्वविद्यालय में दो एसोसिएट प्रोफेसरों(जो कि असिस्टेंट प्रोफेसर से ऊपर का पद है) के पदों में से एक पर, नियुक्त करना चाहते थे.बहरहाल,छात्र-छात्राओं ने साक्षत्कार स्थल को घेर लिया.प्राप्त जानकारी के अनुसार दोनों अभ्यर्थियों के दस्तावेजों में भी फर्जीवाडा पाया गया.छात्रों को डराने के लिए पुलिस बुलाई गयी पर छात्र-छात्राओं के प्रतिरोध के सामने दून विश्वविद्यालय प्रशासन को मजबूरों इंटरव्यू रद्द करना पड़ा.
यह दून विश्वविद्यालय के अन्दर चल रहे फर्जीवाड़ा की बानगी भर है.इस तरह की नियम विरुद्ध नियुक्तियां करने वाले और छात्र-छात्राओं के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले कुलपति प्रो.वी.के.जैन और उनके दरबारियों को किसी सूरत में एक सार्वजनिक धन से चलने वाले विश्वविद्यालय को तबाह करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए.राज्य सरकार,इस बात को सुने या न सुने,लेकिन दून विश्वविद्यालय के बहादुर छात्र-छात्राओं को ही विश्वविद्यालय को बचाने की लडाई निर्णायक मुकाम तक ले जानी होगी.इस संघर्ष में तमाम वामपंथी, न्यायपसंद और भ्रष्टाचार विरोधी संगठन और व्यक्ति दून विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र-छात्राओं के पक्ष में खड़े होंगे.

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Anand Teltumbde on Current Student Struggles The Malayalam weekly Madhyamam asked Anand Teltumbde, a writer, scholar of peoples’ movements, civil rights activist with CPDR Mumbai, inter alia, two questions relating to student movements. Here are his answers:

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Anand Teltumbde on Current Student Struggles

The Malayalam weekly Madhyamam asked Anand Teltumbde, a writer, scholar of peoples' movements, civil rights activist with CPDR Mumbai, inter alia, two questions relating to student movements. Here are his answers:

Your article in the Economic & Political Weekly in October 2015 has succinctly captured the perils of raising memorials of Dr B.R. Ambedkar while forgetting the principle aim of his life – the annihilation of caste. The Rohith Vemula incident at the University of Hyderabad and subsequent incidents across the country have proven beyond doubt that the annihilation of caste, the kernel of Ambedkar's thought, remains an unfulfilled dream. What is your view on this?  

tagore_plate175Rabindranath Tagore / Rabindra Bhavan via OnBeing

Indeed. While Ambedkar had clearly seen annihilation of castes as the goal, his tactic relied on representation. I am deliberately calling it a tactic to dampen the intensity of contradiction between the two. Right from the beginning he saw, perhaps encouraged by his own example, that if a few Dalits are sent to legislature, they would take care of the interests of the Dalit masses. With this view, he struggled to get Dalits their political representation. It is a different matter that his victory was annulled by Gandhi's blackmailing strategy that compelled him to sign the Poona Pact. But that very Poona Pact opened up avenues for other reservations, viz. in educational institutions and public employment. Initially they remained preferment policies, as it was thought that there were not enough Dalits to institute reservation for them. But when Ambedkar became a member of the Viceroy's executive council, he wrote an innocuous note which was approved by the Viceroy, thereby instituting a quota system in 1943.

I may argue that there was no contradiction between the two as the castes were delinked from their Hindu parentage and had become an administrative category, the 'Scheduled Castes'. Unfortunately, there was no articulation to that effect. In post-colonial India, the native elites who took over the reins of power, with their Brahmanic cunning overlain on the learning got from the colonial masters, could easily ensure that castes and religion (the other factor) were consecrated in the constitution, as weapons to divide people. Reservations based on castes became the contradiction with the annihilation of castes, inasmuch as they developed vested interests in a section of upwardly looking Dalits, that role-modelled for the masses. The other supplementing factor was the First-Past-the-Post type of election system – arguably the most unsuitable system for a country like India which was hopelessly fragmented into castes, communities, languages, ethnicities, etc. – which was adopted as an instrument for democratic governance. The combination of these two became a deadly fortification against the annihilation of castes.

The HCU episode and the unfortunate suicide of Rohith highlight rather the attitude of the ruling classes, which are desperate as never before to woo Dalits to their side. While they are pursuing it, staking everything in promoting Ambedkar as the icon, they will not tolerate the emergence of radical Dalit opinion. Rohith symbolized the latter. They will label them extremist, anti-national, etc., which is enough even for the Dalits to discard them. The Dalit masses under the influence of their middle class subtly supported by the state have simplified Ambedkar. One of the notions of this simplified Ambedkar is that he was against any type of extremism or radicalism. With this notion, they would also easily disown the Dalit youth who raise radical voices. Rohith's death actually stirred up emotions, but still has not awakened Dalits to its radical content which points towards the annihilation of castes. Notwithstanding the massive support it received from all student organizations, which at one point completely isolated the ABVP, it is being steered along the lines of identity, sans radical possibilities.

The Rohith Vemula incident and the struggle at JNU have brought the possibility of alliance between Left and Ambedkarite movements, at least in the campuses. Do you think the newfound bonhomie between the two streams can be consolidated to make an effective challenge and counter to the communalism of BJP and Sangh Parivar?

I, for one, think that the youth in our campuses can be the only force who can clear the ideological mess in the politics of the oppressed masses. The signs emerging from our campuses are quite encouraging. The HCU episode was part of the BJP strategy to polarise students by raising the bogeys of anti-nationalism, extremism, etc. They chose HCU because it had become a centre for radical voices among Dalit students. If they succeeded there, it would be a cakewalk for their student wing to capture other campuses and, in particular, make inroads among Dalit students. But to their misfortune, the whole thing turned topsy-turvy with Rohith's unfortunate death. Taking caution, they chose JNU and engineered a similar thing but without the Dalit factor. There it was pure anti-nationalism, patriotism, etc. But it created Kanhaiya there. The best thing the JNU students did is to claim continuity with Rohith's struggle. It overwhelmed the ideological divisions (what I call mess) and oriented it towards the burning questions faced by the masses today. I will give full marks to Kanhaiya for doing so as I think that should be the approach of the peoples' struggle today. Neither Marx nor Ambedkar, least anyone else, can provide you complete wherewithal to fight the ruling classes, who are unprecedentedly powerful, with their states laced with learning and modern technology. The world that we live in would not be recognized by either Marx or Ambedkar and hence we will have to configure strategies for our struggles ourselves. Marx, Ambedkar, and many such greats may guide us, inspire us, but they cannot provide us readymade tools and tackle for our battles.

There may be hiccups in this process. For instance, when all student organizations had come together at HCU, I had suggested some leading elements of students there to give it an organizational shape, isolating the ABVP. It could have been a Front against Hindutva or Communalism or any such name. It could have easily been done when things were hot at HCU, to be replicated elsewhere eaily, but unfortunately it did not happen. I kept following it in my own way but to no avail. Instead, the Joint Action Committees (JACs) formed for 'Justice to Rohith' began subtly deflecting along the old identity lines providing impetus to the reactionary elements who would identify Kanhaiya as Bhumihar. Nothing could be more unfortunate in the current context. But still I am confident that the students will overcome these hiccups. There will be many more hurdles in the way. For instance, the ruling classes have awarded harsh punishments to JNU students, against which they are currently on hunger strike. They will realize what best to do tomorrow. I am confident they will defeat the evil designs of BJP/ABVP combine. With regard to striking unity between Ambedkar and Marx, the JNU students are on absolutely the right path to do so. The approach they have adopted will render irrelevant the casteist arguments of Mayawati and her chelas. I am quite hopeful that these boys and girls will do what has not been done so far. For if they fail there, the hope itself would die for India!

First published in Hashiya; reposted here with minor changes.

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A Tale of Two Vehicles Sadhvi’s Motorcycle and Rubina’s Car Ram Puniyani

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A Tale of Two Vehicles

Sadhvi's Motorcycle and Rubina's Car

 

Ram Puniyani

 

Can there be two type of Justice delivery system in the same country? This question came to one's mind with the U turn taken by NIA in the cases related to terror acts in which many Hindu names were involved. Now the NIA in a fresh charge sheet (May 13, 2016) has dropped the charges against Pragya Singh Thakur, has lightened the ones against Col Purohit and others. Along with this new line of NIA is that Hemant Karkare's investigation in these cases was flawed and that it was ATS which had got the RDX planted in Purohit's residence to implicate him in this case. The implication is that all this was being done at the behest of previous UPA Government.

 

A brief recap is in order. Maharashtra in particular and many other places in the country were witness to acts of terror. The first major attention to this phenomenon took place when two Bajrang Dal activists were killed while making the bombs in the house of one RSS worker Rajkondawar (May 2006). There was a saffron flag flying atop the house and a board of Bajrang Dal was put up in front of the house. At the site of bomb explosion fake moustaches, beard and pajama-Kurta were also found. This was followed by many other blasts, Parbhani, Jalna, Thane, and Panvel etc. In most of these case police investigated on the lines in which generally Muslims were blamed for such acts. After every act of blast few Muslims young men were arrested who were later; after long grueling court cases; were released as no evidence was found against them.

 

The Malegaon blast in which Sadhvi's role came to surface; took place in 2008. In the blasts those returning from Namaj (prayers) were killed and many injured. Following this the usual suspects, Muslims, were arrested. Then while investigating the cases the Maharashtra ATS Chief Hemant Karkare found that the motorcycle used for the blast belonged to Sadhvi Pragya Singh Thakur, ex- ABVP worker. The trail of investigation led to Swami Dayanad Pande, Retd. Major Upadhyay, Ramji Klasnagra, Swami Aseemanand amongst others. They all belonged to the Hindu right wing politics. There was lots of evidence in the material recovered. One of the helpful evidence came in the form of the legally valid confession of Swami Aseemanand. This confession was made in judicial custody in presence of a Magistrate.

 

In the confession Swami spilled the beans and said that after the Sankat Mochan blast of 2002, they had decided that bomb will be replied by bomb. He was then looking after the VHP work in Dangs. He gave the detailed narrative of the whole process in which all the people were investigated and became part of the charge sheet of NIA.

 

When Karakare was investigating the case and many of Hindu names started coming under the shadow Bal Thackeray wrote in Saamna that 'we spit on the face of Karakare'. Narendra Modi; then CM of Gujarat; called him Deshdrohi (Anti National). Advani also reprimanded Karkare. Feeling the heat of this pressure from Hindutva political outfits Karkare went to meet his professional peer Julio Rebeiro. Rebeiro. Rebeiro has a record of high level of professional integrity. Rebeiro appreciated his painstaking work. Karkare asked that what should be the stand of a person like him when facing such a heat from politicians. The senior officer told him to honestly do the work and ignore these insinuations.

 

Meanwhile the global terror phenomenon hit Mumbai. On 26/11 ten terrorists, armed to the teeth attacked Mumbai. On this occasion Karakre got killed. There is a strong controversy about this killing also. The then minority affairs Minister A. R. Antulay said that there is terrorism plus something else which is behind the killing of Karakare. Narendra Modi who had earlier called Karkare as Deshdrohi landed up in Mumbai and wanted to give a cheque of Rs. one Crore to widow of Karkare, she refused to accept the amount.

 

After Karkare's death the investigations continued on the lines laid down by him. The charge sheet was ready and all the involved were to be tried for acts of terror. Meanwhile Government changed at the center and the NIA adopted the line which has led to the present situation where the efforts to release Sadhvi are marching with intimidating speed. The change in the line got reflected in the statement of Public Prosecutor, Rohini Salian. She stated that she was told to go soft on these cases. As she refused to toe this, she was sacked.

 

One recalls that in Mumbai 92-93 violence over one thousand people died. This carnage was followed by the bomb blasts in which over two hundred people died. As far as the communal carnage is concerned not many got severe punishments, no death penalty- no life imprisonment. In the cases of bomb blasts many have been given death penalty and many more life imprisonment. One of the people undergoing life imprisonment is Rubina Memon. Her crime, she owned the car which was used to ferry the explosives. She never drove the car with explosives.

 

Sadhvi owned the motor cycle used for Malegaon blasts; she will be out from the prison soon. Rubina owned the car; she will be in prison all her life. In Mumbai carnage so many died. No severe punishment to anybody. So many severe punishments in bomb blast case!

 

So where does our democracy stand at the end of all this? It seems two type of justice delivery systems are out there in the open. While shrill debates on TV will defend Sadhvi and blame Karkare for faulty investigation, the people in Malegaon are protesting furiously and planning to go to the court against the change in the stance of NIA. Two political parties seem to be preparing to save the honor of Karakare and press for sincere examination of the evidence collected by him.

 

One hopes the guilty will be punished and innocents will be protected. But this seems a bit too much to expect in current scenario!     

 

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Response only to ram.puniyani@gmail.com

www.peoplesvoice.in


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Sitaram Yechury's letter to Chattisgarh CM

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Sitaram Yechury's letter to Chattisgarh CM

Certain reports have appeared in a section of the media stating that the
professors from the Jawaharlal Nehru University and the Delhi University who
visited Bastar, Chattisgarh are being harassed with copies of the false
complaints registered against them being sent to the concerned universities.
In this context, CPI(M) General Secretary, Sitaram Yechury had addressed a
letter to Chief Minister Raman Singh with a copy marked to Union Home
Minister Rajnath Singh.



The full text of the letter is being released herewith.











(Hari Singh Kang)

For CPI(M) Central Committee Office



*******



Text of Letter

May 27, 2016





Shri Raman Singh

Chief Minister

Government of Chattisgarh

Raipur





Dear Sir,



I wish to draw your attention to a serious matter and seek your
intervention.



A delegation comprising of Sanjay Parate, Secretary, Chattisgarh State
Committee and member of the Central Committee of the CPI(M), Vineet Tiwari,
a CPI member belonging to Joshi-Adhikari Institute, New Delhi, Archana
Prasad, Prof. JNU and member of All India Democratic Women's Association and
Nandini Sundar, Prof. DU visited Bastar division from 12th 16th May 2016. I
need not to remind you that we as a registered and recognized national
political party have both constitutional and legal right to visit any part
of the country which includes the state of Chattisgarh to interact with the
people in order to understand their problems and also to organise them to
raise their demands. This delegation visited Nama Kamakoleng and some other
villages where people are living through the conflict between the state and
Maoists. People complained of harassment both by Police and Maoists and told
about their problems and miseries.



However, the local police later on produced a fake complaint in the name of
villagers claiming that the delegation instigated the villagers and asked
them to support the Maoists. So much so that the district collector of
Bastar Mr. Amit Kataria posted the so-called complaint of villagers on his
Facebook page without verification. What worries me more than this
irresponsible behaviour of Bastar DC is that the police organised rallies
with Samajik Ekta type vigilantes in front of Darbha Thana demanding that an
FIR be registered against the delegation members. The police have also been
cross questioning all those who interacted with the delegation members
including the driver of the hired vehicle in order to intimidate them. This
amounts to curbing and suppressing opposition political parties and their
legitimate political activities by falsely alleging and labeling them as
being supportive of the Maoists. Such falsehood cannot be accepted in a
democracy like ours.



I am aware of the fact that such intimidating tactics are also being used by
Bastar police and administration against journalists, researchers, lawyers
and others to prevent them from visiting Bastar and reporting about
violation of human and constitutional rights of the people.



The CPI(M) has been working and contesting elections in Chattisgarh for
quite a long time. This kind of harassment never occurred. Intimidating
political opponents will not help to solve the Maoist problem. What needs to
be done is the political isolation of Maoists for which the full play of
democracy is an essential pre-requisite.



Therefore all political parties must be allowed to conduct their legitimate
political activities in the Bastar region without any fear and journalists
must be allowed to report truthfully the ground realities.



Can I hope that you will instruct the Bastar police and administration not
to harass and falsely implicate activists of opposition parties, journalists
and others.







Yours sincerely

Sd/-

(Sitaram Yechury)

General Secretary



Copy to: Shri Rajnath Singh, Union Home Minister, New Delhi

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No more Rohits.No More Chunis.Please join the Annihilation of Caste Mass Convention organised by students right into the heart of Kolkata for the first time!

Next: Thus,Dr.Upen Biswas projected as a national icon to kill Lalu Prasad politically was killed politically in Bengal by the refugees. After independence,it is perhaps for the first time that the cabinet has no refugee face to represent Dalit refugees. Keeping in mind the continuous persecution and ethnic cleansing of Adivasi people we should understand the urgency of Dalit Bengali refugees and leaders to align with respective ruling parties in different states as survival kit as they have been converted as mobile bonded vote bank as Indian Muslims are. I am concerned with Bengali dalit refugees and NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE has its network all over India specifically in twenty two states where refugees resettled them.I am not bothered about the leadership and stand with NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE and its organization and cause to ensure civic and human rights and citizenship for Bengali dalit refugees as I always refrain to stand with any politic
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Kolkata.No more Rohits.No More Chunis.Long before Rohith,Chuni Kotal ,the tribal girl from Bengal Jangal Mahal had to commit suicide.But Chuni had been denied justice even aftre her death.Bengal intelligentsia led by Mahashweta Devi Fought for justice but universities remained silent.Now all universities stand united to fight the Manusmriti Aparheid.Chuni belnged to a tribe notified criminal by the British.But the Brahaminical Hegemony treats every dalit,adivasi community as criminal quoting Dr BR Ambedkar though.Every other Indian citizen is subjected to ethnic cleansing under free market hegemony of Manusmriti Apartheid.


Radhika Vemula, Raja Vemula, Dontha Prashanth, Koonal Duggal, Anand Teltumbde, Tathagata Sengupta and others will be speaking.Radhika Vemula, Raja Vemula, Dontha Prashanth, Koonal Duggal, Anand Teltumbde, Tathagata Sengupta and others will be speaking.


Please join the Annihilation of Caste Mass Convention organised by students right into the heart of Kolkata for the first time!


Mind you,Bengal elected Babasaheb to the constituent Assembly and he could write Indian Constitution.


Please join Mission Ambedkar to annihilate the caste,the greatest enemy against humanity and nature,equality and justice,peace and democracy.


let us stand united ROCK Solid as we rae Indian citizens for equality and justice and freedom of Men,Women and trans gender!

Palash Biswas

JUN5
Sun 4 PM · Bharat Sabha Hall (near Central Metro Station), Kolkata
209 people interested · 137 people going
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Thus,Dr.Upen Biswas projected as a national icon to kill Lalu Prasad politically was killed politically in Bengal by the refugees. After independence,it is perhaps for the first time that the cabinet has no refugee face to represent Dalit refugees. Keeping in mind the continuous persecution and ethnic cleansing of Adivasi people we should understand the urgency of Dalit Bengali refugees and leaders to align with respective ruling parties in different states as survival kit as they have been converted as mobile bonded vote bank as Indian Muslims are. I am concerned with Bengali dalit refugees and NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE has its network all over India specifically in twenty two states where refugees resettled them.I am not bothered about the leadership and stand with NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE and its organization and cause to ensure civic and human rights and citizenship for Bengali dalit refugees as I always refrain to stand with any politic

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মমতা ব্যানার্জীর মন্ত্রী সভায় উদ্বাস্তুরা উপেক্ষিত

Thus,Dr.Upen Biswas projected as a national icon to kill Lalu Prasad politically was killed politically in Bengal by the refugees.



After independence,it is perhaps for the first time that the cabinet has no refugee face to represent Dalit refugees.

Keeping in mind the continuous persecution and ethnic cleansing of Adivasi people we should understand the urgency of Dalit Bengali refugees and leaders to align with respective ruling parties in different states as survival kit as they have been converted as mobile bonded vote bank as Indian Muslims are.

I am concerned with Bengali dalit refugees and NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE has its network all over India specifically in twenty two states where refugees resettled them.I am not bothered about the leadership and stand with NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE  and its organization and cause to ensure civic and human rights and citizenship for Bengali dalit refugees as I always refrain to stand with any politician whatever may come.

I am trying my best to explain in depth the point raised by Dr.Biswas in a turmoil time while RSS Handed over Assam and North East to ULFA to make in Gujarat in Assam.Bengali Dalit refugees are not represented in Assam or Bengal not to mention the central government.

Palash Biswas


Nagpur.NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE President Dr.Subodh Biswas complains that Bengali Refuggees have no representation in Mamata`s news Cabinet.

The Matua leader Manjul Krishna Thakur and former CBI official famous for nabbing Lalu Prasad Yadav in fodder scam used to represent Bengali Refugees as late Kanti Biswas represented Bengali dalit refugees during Left regime.Earlier late Aporva Lal Majumdar who played key role with Dr.Gunodhar Burman to ensure reservation in banks,had been the speaker in Bengal Assembly during Congress regime.


Let me clarify,I belong to a dalit refugee family resettled in the Himalayan Terai and my late father Pulin Babu tried life long to unite Bengali refugees as they remain deprived of civic and human rights and stand stripped of citizenship.I may not betray the dalit refugee case and would not desert my people.


Most of the partition victim Bengali Dalit refugees were ejected out of their homeland east Bengal as well as West Bengal to reorganise the demography to sustain the dominance of the hegemony.Our people have been scattered all countrywide and a very few percentage of them have been resettled in Adivasi landscape of India.


Keeping in mind the continuous persecution and ethnic cleansing of Adivasi people we should understand the urgency of Dalit Bengali refugees and leaders to align with respective ruling parties in different states as survival kit as they have been converted as mobile bonded vote bank as Indian Muslims are.


Dr.Subodh Biswas is no exception as he has to make political alliances in different scenario.I do not bother about his politics as I never bothered about my father`s politics as he used to support Congress and had to stand against my cause.


I am concerned with Bengali dalit refugees and NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE has its network all over India specifically in twenty two states where refugees resettled them.I am not bothered about the leadership and stand with NIKHIL BHARAT BANGALI UDBASTU SAMANWAY SAMITEE  and its organization and cause to ensure civic and human rights and citizenship for Bengali dalit refugees as I always refrain to stand with any politician whatever may come.


Dr.Subodh Biswas knows beyond doubt that I have nothing to do with politics.I stand with the deprived masses and have nothing to do with the leaders converted as politician as we have to agenda to unite every Indian Citizen to achieve the dream destination of freedom fighters and the ultimate objective of justice and equality under the agenda of Annihilation of caste,Mission Ambedkar.


I am trying my best to explain indepth the point raised by Dr.Biswas in a turmoil time while RSS Handed over Assam and North East to ULFA to make in Gujarat in Assam.Bengali Dalit refugees are not represented in Assam or Bengal not to mention the central government.


I have no problem to stand with my people and their organization at all.Because I am not supporting any political party or leader.As Subodh has done an excellent job to organize the refugees,I have to stand with him for refugee cause irrespective of his politics.


Matua leader and the elder son of Congress minister and MP PR Thakur,the grand son of Guruchand Thakur crossed fence and joined TMC to become MP.After his death,his widow Mamata Thakur is the present MP.Meanwhile Manul joined BJP as his son was the BJP candidate in Bangaon Loksabha constituency and Manjul had to resign.Now Matua Home has become a batttlefield and Mamata Banerjee opt for an IAS officer to represent Gaighta where Matua headquarter Thakur Nagar is suituated.CPI filded eminent Dalit writre Kapil Krishna Tahakur for KapilThakur MP`s name sake and he lost.Matua clan has no representation in the state assembly.


On the other hand,DR.Upen Biswas was the minister in the department of scheduled caste welfare affairs.He failed miserably to represent refugees.


Mamata Bannerjee reopened every other case but did not order an investigation in Marichjhanpi genocide case whereas it was Rd Upen Biswas who used to raise Marichjhanpi voice until he became minister.He was a refugee leader and he remained almost underground or absconding during last tenure of Mamta Bannerjee rule.


Thus,Dr.Upen Biswas projected as a national icon to kill Lalu Prasad politically was killed politically in Bengal by the refugees.


After independence,it is perhaps for the first time that the cabinet has no refugee face to represent Dalit refugees.

Dr.subodh Biswas wrote:


মাননীয়া মমতা ব্যানার্জীর মন্ত্রী সভায় উদ্বাস্তুরা উপেক্ষিত,.........

উদ্বাস্তু ভোটবাংক পশ্চিম বাংলার রাজনীতিতে নির্নায়ক ভূমিকা বহনকরে। যারা মূখ্যমন্ত্রী নির্বাচিত করছেন,তারা মন্ত্রীপরিষদের ধারের কাছেও নেই।

মতুয়াদের দিদি মমতা,তাদের ও বৈমূখ করেছেন, বৈমূখ করেছেন নমশূদ্রদের। রাজবংশি ও পন্ড্রদের আশাজনক ভাগীদারি দেন নাই। আদিবাসীদের অবস্থা তথৈবচ। তাহলে মমতা দিদি কাদের নিয়ে মন্ত্রী পরিষদ গঠনকরলেন । পিছিয়ে পড়া মানুষের মন্ত্রীপরিষদে প্রতিনিধিত্ব নাথাকলে,তাদের সমশ্যা কিভাবে সমাধান হবে। যারা ২৪ ঘন্টা এ সির ঠান্ডা হাওয়ায় যারা থাকেন,ধনসম্পদের মাঝে জীবন কাটান,জীবনের অর্থই যাদেরকাছে উপভোগ,(ইনজয়) তারা গরীবমানুষের সমস্যার গভিরতা কিভাবে উপলব্দী করবেন।

সবমিলিয়ে অভিযাত্ব মন্ত্রীপরিষদ। মহত্বা গান্ধি ল্যাংটা সেজে ভারতের দলিতদের ভিক্ষারী করার ব্যাবস্থা করেগেছেন।জ্যোতিবাবু উদ্বাস্তু সেজে উদ্বাস্তুদের , কোমর ভেঙ্গে দিয়েগেছেন। দিদি তাতের শাড়ী আর হাওআই চপ্পল দেখিয়ে পিছিয়ে পড়া মানুষদের ,পিছনে ফেলার চিরস্থায়ী ব্যবস্থাকরে চলছেন।এটাই বাঙালি জাতির দূর্ভাগ্য।



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हिंदुत्व का एजंडा फर्जी,यह देश बेचने का नरसंहारी एजंडा हमें हिंदुत्व की बजाये फासीवादी नरसंहारी मुक्तबाजार के किले पर हमला करना चाहिए।क्योंकि हिंदुत्व के नकली किले पर हमले से वे जनता को वानरसेना में तब्दील करने में कामयाब है। राम मंदिर स्वर्ण मृग है और हम मृगमरीचिका से उलझे हैं और अबाध पूंजी के रंगभेदी वर्चस्व के खिलाफ हम कोई लड़ाई शुरु भी नहीं कर सके हैं। मराठी और बांग्ला के बाद आप चाहें तो हर भाषा और हर बोली में होगा हस्तक्षेप। अगर इस देश के दलित बहुजन स्त्री और छात्र युवा तेजी से केसरिया कायाकल्प की दिशा में बढ़ रहे हैं तो हम उनसे संवाद और विमर्श भी रोक देंगे तो आगे आत्मध्वंस का उन्मुक्त राजपथ है।हम हर माध्यम,हर विधा,हर भाषा के जरिये लोकसंस्कृति और विबविध बहुल सांस्कृतिक विरासत की जमीन पर खड़े होकर अगर वैकल्पिक सूचना तंत्र को खड़ा करते हुए जनपक्षधरता के मंच को मजबूत बना सकें तो हमारा हस्तक्षेप सार्थक होगा और इसके लिए हमें आप सबका समर्थन और सहयोग चाहिए। पलाश विश्वास

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हिंदुत्व का एजंडा फर्जी,यह देश बेचने का नरसंहारी एजंडा

हमें हिंदुत्व की बजाये फासीवादी नरसंहारी मुक्तबाजार के किले पर हमला करना चाहिए।क्योंकि हिंदुत्व के नकली किले पर हमले से वे जनता को वानरसेना में तब्दील करने में कामयाब है।


राम मंदिर स्वर्ण मृग है और हम मृगमरीचिका से उलझे हैं और अबाध पूंजी के रंगभेदी वर्चस्व के खिलाफ हम कोई लड़ाई शुरु भी नहीं कर सके हैं।


मराठी और बांग्ला के बाद आप चाहें तो हर भाषा और हर बोली में होगा हस्तक्षेप।

अगर इस देश के दलित बहुजन स्त्री और छात्र युवा तेजी से केसरिया कायाकल्प की दिशा में बढ़ रहे हैं तो हम उनसे संवाद और विमर्श भी रोक देंगे तो आगे आत्मध्वंस का उन्मुक्त राजपथ है।हम हर माध्यम,हर विधा,हर भाषा के जरिये लोकसंस्कृति और विबविध बहुल सांस्कृतिक विरासत की जमीन पर खड़े होकर अगर वैकल्पिक सूचना तंत्र को खड़ा करते हुए जनपक्षधरता के मंच को मजबूत बना सकें तो हमारा  हस्तक्षेप सार्थक होगा और इसके लिए हमें आप सबका समर्थन और सहयोग चाहिए।


पलाश विश्वास


नागपुर यात्रा की उपलब्धियां छोटी छोटी हैं,लेकिन इससे हमें कमसकम दो कदम आगे बढ़ाने के रास्ते अब खुले नजर आने लगे हैं।


हिंदुत्व का एजंडा फर्जी,यह देश बेचने का नरसंहारी एजंडा है।


राम मंदिर स्वर्ण मृग है और हम मृगमरीचिका से उसझे हैं और अबाध पूंजी के रंगभेदी वर्चस्व के खिलाफ हम कोई लड़ाई शुरु बी नहीं कर सके हैं।


हमें हिंदुत्व के बजाये फासीवादी नरसंहारी मुक्तबाजार के किले पर हमला करना चाहिए।क्योंकि हिंदुत्व के नकली किले पर हमले से वे जनता को वानरसेना में तब्दील करने में कामयाब है।


मराठी और बांग्ला के बाद आप चाहें तो हर भाषा और हर बोली में होगा हस्तक्षेप।


नागपुर के इंदोरा इलाके के बेझनबाग में अखंड भारत वर्ष के एकदम केद्रीय बिंदू के बेहद नजदीक मराठी दैनिक जनताचे महानायक के दसवें वार्षिकमहोत्सव के मौके पर नागपुर की बेहद बदनाम कट्टर अंबेडकरी जनता के मध्य विशाल मंच पर बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर और महात्मा गौतम बुद्ध की मूर्तियों के सान्निध्य में जाति उन्मूलन के प्रस्थानबिंदू से वैकल्पिक मीडिया के साथ अंबेडकरी आंदोलन की युगलबंदी हस्तक्षेप के युवा संपादक अमलेंदु उपाध्याय और महानायक के कर्मठ संपादक सुनील खोब्रागडे की अगुवाई में शुरु हो गयी।


उत्पीड़ित वंचित बहुसंख्य जनता के सक्रियसहयोग और समर्थन के बिना किसी भी काल में किसी भी देश में बदलाव के ख्वाबों को अंजाम देना संभव नहीं हुआ है।हमारे बदलाव के ख्वाब अंबेडकरी आंदोलन की जनोन्मुख परिवर्तनकामी दिशा के बिना बपूरे नहीं हो सकते तो हस्तक्षेप के मराठी संस्करण अंबेडकरी आंदोलन के मुखपत्र दैनिक जनतेचा महानायक के साथ गठजोड़़ के साथ शुरु हो पाना हमारे लिए एक निःशब्द क्रांति की शुरुआत है।


इसीके साथ बंगाल से बाहर जो पांच से सात करोड़ दलित बंगाली शरणार्थी हैं,सभी भारतीय राज्यों में विस्तृत उनके अखिल भारतीय संगठन निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समन्वय समिति के सक्रिय समर्थन के साथ बांग्ला हस्तक्षेप की शुरुआत भी हमारी छोटी उपलब्धि कही जा सकती है।


समिति के अध्यक्ष डां.सुबोध विश्वास मंच पर हाजिर थे।बंगाल से बी भारत विभाजन के बाद निस्कासित दलितों की इतनी बड़ी आबादी अब तक राज्यवार सत्ता दलों के मुताबिक या केंद्र सरकार की अनुकंपा मुताबिक मूक वधिर जीने को मजबूर रही है।इनकी नागरिकता छीन लेने और सर्वत्र आदिवासी भूगोल में बसाये गये इस विशाल जनसमूह की चीखों को हम देश के हर कोने से दर्ज करने की कोशिश में लगे हैं।


मैं अछूत दलित बंगाली शरणार्थी परिवार से हूं और जाति से ब्राह्मण अमलेंदु उपाध्याय हस्तक्षेप में मेरे हस्तक्षेप का जिस हद तक समर्थन करते रहे हैं और इस रीयल टाइम पोर्टल पर बाबासाहेब के मिशन को जैसे फोकस किया है और इसके साथ ही सुनील खोब्रागडे और डा.सुबोध विश्वास अपनी अपनी राजनीति को दरकिनार करते हुए वैकल्पिक मोर्चे पर नागपुर  वाशिंदा अंबेडकरी जनता के सात जिस खुले दिमाग से हमारे साथ है,उससे उम्मीद जगती है कि हम अलग अलग बंटी हुी जनता को अंततः गोलबंद करके समता और न्याय के निर्णायक लक्ष्य हासिल करने की दिशा में अब मजबूती से कदम रख पायेंगे।


हम मुक्तबाजार के तिलिस्म में बेतरह उलझे हुए हैं।नागपुर के रंगकर्मी और सर्वोदय आंदोलन के कार्यकर्ता रविजी ने कहा कि सत्ता और राष्ट्र का नरसंहारी स्वरुप दरअसल मुक्तबाजार का विशुध पूंजीवादी अवतार है जो चरित्र से धर्म और नैतिकता के खिलाफ है और यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद दरअसल मुक्तबाजार है और मुक्तबाजार के राष्ट्रद्रोही सिपाहसालारों का एजंडा हिंदुत्व नहीं है और न वे कोई रमामंदिर बनानने जा रहे हैं।उनका एजंडा देश बेचने का एजंडा है।


हम इससे सहमत है और हम मानते हैं कि हिंदुत्व का एजंडा उनका है ,कहते हुए इस देश की आम जनता की आस्था से उनकी खिलवाड़ और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के मुकतबाजारी देश बेचो कारोबार के पक्ष में उन्हें हम धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण का मौका दे रहे हैं।हमें हिंदुत्व के बजाये फासीवादी नरसंहारी मुक्तबाजार के किले पर हमला करना चाहिए।


अगर इस देश के दलित बहुजन स्त्री और छात्र युवा तेजी से केसरिया कायाकल्प की दिशा में बढ़ रहे हैं तो हम उनसे संवाद और विमर्श भी रोक देंगे तो आगे आत्मध्वंस का उन्मुक्त राजपथ है।हम हर माध्यम,हर विधा,हर भाषा के जरिये लोकसंस्कृति और विबविध बहुल सांस्कृतिक विरासत की जमीन पर खड़े होकर अगर वैकल्पिक सूचना तंत्र को खड़ा करते हुए जनपक्षधरता के मंच को मजबूत बना सकें तो हमारा  हस्तक्षेप सार्थक होगा और इसके लिए हमें आप सबका समर्थन और सहयोग चाहिए।


हमारे पास संसाधन कम है और फिलहाल हमें एक ही स्रवर से काम करना पड़ेगा और इसीमें विभिन्न भाषाओं और बोलियों में भारतीय जनता की रोजमर्रे का जिंदगीनामा दर्ज कराना पड़ेगा।अब हमारा लक्ष्य उत्तर प्रदेश है जहां से हम बहुत जल्द हस्तक्षेप उर्दू में भी शुरु करने जा रहे हैं।हमें जैसे जैसे जिस जिस भाषा और बोली से समर्तन और सहयोग मिलता रहेगा,हम उनके लिए नेटव्रक और स्पेस बढ़ाते रहेंगे और पूरी मदद मिली तो अलग अलग सर्वर भी लगा लेंगे।


नागपुर से चलकर हम वर्धा विश्विद्यालय गये,जहां गर्मियों की छुट्टियां चल रही हैं और ज्यादातर शोध छात्र वहीं जमे हुए हैं।विभिन्न सांस्कृतिक वैचारिक अस्मिता पृष्ठभूमि के सात जुड़े इन छात्रों ने जिस अंतरंगता से जनप्रतिबद्ध वैकल्पिक मीडिया,माध्यम और विधा के हमारे प्रस्ताव पर विमर्श में शामिल हुए हैं,उससे हमारी कोशिश रहेगी कि हम देश के हर विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों को हस्तक्षेप से जोड़ लें।छात्र समाज ही वर्गहीन जातिविहीन शोषणविहीन समता और न्याय के प्रति और जनप्रतिबद्ध समाज का आइना है और तमाम विश्वविद्यालयों में लिंगभेद न्यूनतम है और कमोबेश विमर्श का लोकतंत्र भी वहां है।


इसके विपरीत सामाजिक परिदृश्य मुक्तबाजार के अखंड राज में अत्ंयंत भयंकर है।कमसकम वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों ने अंबेजकरी जनता को सोथ लेकर अंबेडकरी मिशन के तहत जाति उन्मूलन के मिशन के तहत जनप्रतिबद्ध वैकल्पिक मीडिया की हमारी परिकल्पना का समर्थन किया है तो इसके लिए हम छात्र और युवासमाज के प्रति आभारी हैं और हमें पूरा विश्वास है कि मौजूदा व्यवस्था बदलने में यह नई पीढ़ी कोई कसर बाकी नहीं रहने देगी।


कोलकाता में लौटने पर पता चला कि कोलकाता के मध्य केंद्रीय स्थल पर नेताजी और रवींद्रि के चरणचिन्हों से परिष्कृत ऐतिहासिक भरत सभा हाल में पांच जून को रोहित वेमुला और चूनी कोटाल को याद करते हुए छात्रों युवाओं की पहल पर जाति उन्मूलन के लिए नागरिक कन्वेंशन का आयोजन हुआ है जो मनुस्मृति दहन से निःसंदेह ज्यादा क्रांतिकारी है।


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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख श्रीश्री- यमुना विवाद : चोरी और सीनाजोरी | श्रीश्री के ‘अच्छे दिन’ आए

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ग्राउंड दलित रिपोर्ट- 2 (धाकड़खेडी) जहाँ दलित अब भी सामाजिक बहिष्कार झेल रहे है .

Next: Himanshu Kumar कुछ लोग मारे गए क्योंकि उनकी दाढ़ियाँ लंबी थीं . और दूसरे कुछ इसलिए मारे गए क्योंकि उनकी खाल का रंग हमारी खाल के रंग से ज़रा ज़्यादा काला था . कुछ लोगों की हत्या की वाजिब वजह यह थी कि वो एक ऐसी किताब पढते थे जिसके कुछ पन्नों में हमारी किताब के कुछ पन्नों से अलग बातें लिखी हुई थीं . कुछ लोग इसलिए मारे गए क्योंकि वो हमारी भाषा नहीं बोलते थे . कुछ को इसलिए मरना पड़ा क्योंकि वो हमारे देश में नहीं पैदा हुए थे . कुछ लोगों की हत्या की वजह ये थी कि उनके कुर्ते लंबे थे . कुछ को अपने पजामे ऊंचे होने के कारण मरना पड़ा . कुछ के प्रार्थना का तरीका हमारे प्रार्थना के तरीके से अलग था इसलिए उन्हें भी मार डाला गया . कुछ दूसरों की कल्पना ईश्वर के बारे में हमसे बिलकुल अलग थी इसलिए उन्हें भी जिंदा नहीं रहने दिया गया . लेकिन हमारे द्वारा करी गयी सारी हत्याएं दुनिया की भलाई के लिए थीं . हमारे पास सभी हत्याओं के वाजिब कारण हैं . आखिर हम इन सब को ना मारते तो हमारा राष्ट्र, संस्कृति और धर्म कैसे बचता ?
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ग्राउंड दलित रिपोर्ट- 2

(धाकड़खेडी) 
जहाँ दलित अब भी सामाजिक बहिष्कार झेल रहे है .
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भीलवाडा जिले के मांडलगढ़ तहसील में एक गाँव है धाकड़खेडी , जो लगभग 250 परिवारों का गाँव है, जहाँ 150 के लगभग धाकड़ जाति के परिवार है जबकि 30 से 35 परिवार दलित समुदाय के है! दलित परिवारों में से अधिकतर इन्ही धाकड़ जाति के खेतों में मजदूरी करते है!कुछ दलित परिवार ऐसे है जो स्वयं का रोजगार कर जीवनयापन करते है शायद यही बात इन धाकड़ जाति के लोगो और अन्य गैर दलितों से बर्दास्त नहीं हुयी और इसी बात को लेकर गैर दलितों द्वारा इन दलित परिवारों को सबक सिखाने का मौका तलाश किया जा रहा था और वो मौका उन्हें मिल गया! 
मौका था एक सरकारी शिक्षक मांगी लाल धाकड़ के द्वारा अपनी माताजी के गंगोज (म्रत्युभोज) कार्यक्रम का! भोजन गाँव के ही एक सार्वजानिक मार्ग पर आयोजित किया जा रहा था क्यों की सार्वजानिक मार्ग था तो लोग उसी रास्ते से अपने घरों को जा रहे थे, उसी वक़्त दलित समुदाय के दिनेश रेगर भी उन्ही लोगों के पीछे अपनी मोटरसाईकिल से उसी मार्ग से निकल गए बस यही बात धाकड़ लोगो को नागवार गुजरी और दुसरे ही दिन मांगी लाल धाकड़,छीतर धाकड़,कैलाशचंद्र,प्यारचंद धाकड़ आदि लोगों ने जाति पंचायत बुलाकर दिनेश रेगर को भी बुलावा भेजा ! जाति पंचायत में दिनेश रेगर और उनके बड़े भाई लादू रेगर शामिल हुए !उनके आते ही लोग उन पर चिल्लाने लगे और कहा की तुम्हे गाँव में रहते हुए इतने साल हुए लेकिन अभी तक हमारे साथ कैसे रहा जाये उसका सलीका तुम्हे नहीं आया! एक तरफ जाति पंचायत में 200 लोग थे तो दूसरी तरफ सिर्फ दिनेश व् लादू रेगर! लोगों की भीड़ को देखकर लादू रेगर ने अपने भाई की तरफ से बिना गलती के भी माफ़ी मांगी लेकिन लोगों ने कहा की माफ़ी से काम नहीं चलेगा तो लादू रेगर ने कहा की तो कोई जुरमाना ले लो और हमें माफ़ करो! इस पर जाति पंचायत के सब लोग उन दोनों पर चिल्लाने लगे और कहा की हमारे दिन इतने ख़राब आ गए की हम तुम रेगरों से पैसा लेंगे और सबने उनको फरमान सुना दिया की आज से इनके परिवार को कोई दुकानों से किराने का सामान नहीं देगा और ना ही होटल से चाय पीने देगा और इसके साथ गाँव वालों को भी कह दिया कि जो भी इनको सामान देगा उनको जुर्माना देना होगा ! इस तरह लादू रेगर सहित चार दलित रेगर परिवारों को सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया गया ! इस घटना के बाद लादू रेगर ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई! मामले को अनुसूचित जाति जनजाति एक्ट की धाराओं में दर्ज किया गया ,और जाँच पुलिस उपाधीक्षक जीवन सिंह को दी गयी लेकिन 1 महीने में ही मामले को फर्जी बताकर FR(फाइनल रिपोर्ट) लगा दी गयी! पुलिस उपाधीक्षक जीवन सिंह द्वारा जाँच में लीपापोती करने को लेकर जिला पुलिस अधीक्षक को भी शिकायत की गयी लेकिन कोई सुनवाई नहीं की गयी !आगे FR को लेकर विरोध पत्र भी कोर्ट में पेश किया गया लेकिन अभी तक सिर्फ नयी तारीखे ही सुनवाई के लिए मिल रही है! मामले को अनुसूचित जाति आयोग से लेकर मानवाधिकार आयोग तक भी ले जाया गया तथा दोनों ही आयोग द्वारा जिला पुलिस अधीक्षक से मामले में जवाब माँगा गया लेकिन जवाब भेजने में भी पुलिस वाले लीपापोती करने की कोशिश कर रहे है और आये दिन लादू रेगर व् उनके भाई को डरा धमका कर मामले को फर्जी साबित करवाने के लिए जबरन हस्ताक्षर लेना चाह रहे है ! तब से लेकर अभी तक 9 महीने से लादू रेगर का परिवार गाँव से सामाजिक रूप से बहिष्कृत है, किराने के सामान से लेकर बच्चों के लिए दूध तक 3 किलोमीटर दूर सिंगोली से लाना पड़ रहा है!यहाँ तक की पीड़ित परिवार के खेतों को जोतने के लिए जो ट्रेक्टर पहुंचे उनको भी धाकड़ समाज के लोगों ने खेत जोतने से मना कर दिया और कहा की अगर इनके खेत जोते तो जुर्माना भरना पड़ेगा! गाँव के अन्य दलित परिवार भी दबंग धाकड़ों व् जुर्माने के डर से अपने किसी भी कार्यक्रम में लादू रेगर के परिवार को नहीं बुला रहे है! इसके अलावा उन दलित परिवारों को गाँव की सार्वजनिक हथाई पर बैठने का अधिकार नहीं,मंदिर में जाने का अधिकार नहीं और ना ही बिन्दोली निकालने का अधिकार है !
एक तरफ तो जहाँ सरकार संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर जी की 125वी जयंती पर हजारों कार्यक्रम आयोजित कर रही है और समानता के हजार दावे कर रही है वही दूसरी तरफ उसी सरकार के बड़े पदों पर बैठे लोग बाबा साहब के बनाये कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे है और दलित समुदाय के रेगर परिवार के व्यक्ति अपने ही गाँव के सार्वजनिक मार्ग पर भी अपनी मर्जी से नहीं निकल पा रहे है!
- राकेश शर्मा
(लेखक दलित,आदिवासी व घुमन्तु समुदाय के लिए बने स्टेट रेस्पोंस ग्रुप के साथ कार्यरत है)

Bhanwar Meghwanshi's photo.

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Himanshu Kumar कुछ लोग मारे गए क्योंकि उनकी दाढ़ियाँ लंबी थीं . और दूसरे कुछ इसलिए मारे गए क्योंकि उनकी खाल का रंग हमारी खाल के रंग से ज़रा ज़्यादा काला था . कुछ लोगों की हत्या की वाजिब वजह यह थी कि वो एक ऐसी किताब पढते थे जिसके कुछ पन्नों में हमारी किताब के कुछ पन्नों से अलग बातें लिखी हुई थीं . कुछ लोग इसलिए मारे गए क्योंकि वो हमारी भाषा नहीं बोलते थे . कुछ को इसलिए मरना पड़ा क्योंकि वो हमारे देश में नहीं पैदा हुए थे . कुछ लोगों की हत्या की वजह ये थी कि उनके कुर्ते लंबे थे . कुछ को अपने पजामे ऊंचे होने के कारण मरना पड़ा . कुछ के प्रार्थना का तरीका हमारे प्रार्थना के तरीके से अलग था इसलिए उन्हें भी मार डाला गया . कुछ दूसरों की कल्पना ईश्वर के बारे में हमसे बिलकुल अलग थी इसलिए उन्हें भी जिंदा नहीं रहने दिया गया . लेकिन हमारे द्वारा करी गयी सारी हत्याएं दुनिया की भलाई के लिए थीं . हमारे पास सभी हत्याओं के वाजिब कारण हैं . आखिर हम इन सब को ना मारते तो हमारा राष्ट्र, संस्कृति और धर्म कैसे बचता ?

Next: भारत बेशक बदल रहा है , सर'जी. दिल्ली से हैदराबाद और बनारस से मुम्बई तक दलित वंचित जन उसे बदल रहे हैं. भारत की नई स्त्री उसे बदल रही है . ये अलीगढ़ की लड़कियां है . इतिहास में पहली बार बहत्तर घंटे. रात दिन. खुले में धरना देकर उन्होंने अमुवि प्रशासन से छुट्टियों में हॉस्टल खाली कराने का फैसला वापिस करा लिया है . छात्रों के लिए अभी तक फैसला नहीं हुआ . संघर्ष जारी है . बजरिए-मुबीन खान
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Himanshu Kumar

कुछ लोग मारे गए क्योंकि उनकी दाढ़ियाँ लंबी थीं .

और दूसरे कुछ इसलिए मारे गए क्योंकि उनकी खाल का रंग हमारी खाल के रंग से ज़रा ज़्यादा काला था .

कुछ लोगों की हत्या की वाजिब वजह यह थी कि वो एक ऐसी किताब पढते थे जिसके कुछ पन्नों में हमारी किताब के कुछ पन्नों से अलग बातें लिखी हुई थीं .

कुछ लोग इसलिए मारे गए क्योंकि वो हमारी भाषा नहीं बोलते थे .

कुछ को इसलिए मरना पड़ा क्योंकि वो हमारे देश में नहीं पैदा हुए थे .

कुछ लोगों की हत्या की वजह ये थी कि उनके कुर्ते लंबे थे .

कुछ को अपने पजामे ऊंचे होने के कारण मरना पड़ा .

कुछ के प्रार्थना का तरीका हमारे प्रार्थना के तरीके से अलग था इसलिए उन्हें भी मार डाला गया .

कुछ दूसरों की कल्पना ईश्वर के बारे में हमसे बिलकुल अलग थी इसलिए उन्हें भी जिंदा नहीं रहने दिया गया .

लेकिन हमारे द्वारा करी गयी सारी हत्याएं दुनिया की भलाई के लिए थीं .

हमारे पास सभी हत्याओं के वाजिब कारण हैं .

आखिर हम इन सब को ना मारते तो हमारा राष्ट्र, संस्कृति और धर्म कैसे बचता ?


ध्यान से देखिये इस इंसान को ၊

इस नें ही सोनी सोरी के चेहरे पर एसिड अटैक करवाया था ၊

यह छत्तीसगढ़ के मारडूम थाने का थानेदार प्रकाश शुक्ला है ၊

इसने थाने में ही सोनी पर हमले की योजना बनाई थी ၊

मोदी सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल नें छत्तीसगढ़ सरकार के साथ मिलकर सन २०१६ में ज़मीनों पर पूरा कब्ज़ा करने का लक्ष्य तय किया है ၊

उसके बाद ही बीच में आने वाले पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं , वकीलों, आदिवासी नेताओं पर हमले तेज़ किये गये हैं

और आदिवासी महिलाओं के साथ पुलिस ने बार बार सामूहिक बलात्कार किये हैं ၊

उसी कड़ी में सोनी सोरी पर पुलिस नें हमला किया था .

मैं चुनौती देता हूँ ၊ या तो सरकार इस थानेदार को गिरफ्तार करे

या इस पर इल्ज़ाम लगाने के लिये मुझे गिरफ्तार करे ၊

Himanshu Kumar's photo.


आप के बच्चों के अच्छे नम्बर आये होंगे

आप बहुत खुश भी होंगे

आप अपने बच्चों को प्रेरित कर रहे होंगे कि वो बहुत बड़े आदमी बनें

आप अपने बच्चों से कहते होंगे देखो टाटा अम्बानी और अदाणी जिंदल

अपनी मेहनत से कितने बड़े आदमी बन गए हैं

आप अपने बच्चों को भी प्रेरित करते होंगे कि वे भी मेहनत करें ताकि

इन अमीरों की तरह सफल इंसान बनें और दुनिया में अपना नाम कमाएँ

लेकिन क्या सच में ये अमीर अपनी मेहनत से अमीर बने हैं ?

ध्यान दीजिए

अमीर बनने के लिए दो चीज़ें चाहियें

प्राकृतिक संसाधन और मेहनत

जितने भी सेठ हैं उन्होंने देश के संसाधनों पर कब्ज़ा किया

और मजदूर की मेहनत के दम पर अमीर बन गए

इसलिए जब कोई अमीर कहे कि वह मेहनत से अमीर बना है

तो उससे पूछियेगा किसकी मेहनत से ?

अमीर के लिए मेहनत करने वाला मजदूर जब अपनी मेहनत का पूरा मोल मांगता है

तब क्या होता है ?

तब सरकार की पुलिस जाकर अमीर की तरफ से गरीब मजदूरों को लाठी से पीटती है

और मजदूर ज़्यादा ताकत दिखाएँ तो गोली से उड़ा देती है

अगर मजदूर को उसकी मेहनत का पूरा पैसा दे दिया जाय तो कोई भी इंसान सेठ नहीं बन पायेगा

दूसरी वस्तु जो अमीरी के लिए चाहिये वह है प्राकृतिक संसाधन

प्राकृतिक संसाधनों का मालिक कौन है ?

संविधान के मुताबिक़ देश की जनता

जनता के संसाधन क्या किसी एक व्यक्ति के हवाले किये जा सकते हैं ?

क्या हजारों किसानों की ज़मीन छीन कर किसी एक उद्योगपती को सौंपी जा सकती है ?

नहीं सौंपी जा सकती है

भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत कहते हैं

कि राज्य का कर्तव्य होगा कि वह नागरिकों के बीच समानता लाने की दिशा में काम करेगा

लेकिन अगर सरकार एक उद्योगपति के लिए हजारों लोगों की ज़मीन छीन कर उन्हें गरीब बनाती है

तो सरकार यह काम संविधान के खिलाफ़ करती है

यानि उद्योगपति संविधान के खिलाफ़ काम करके अमीर बनते हैं

इसलिए अगर आप अपने बच्चों को इन उद्योगपतियों की तरह अमीर बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं

तो आप अपने बच्चों को संविधान के खिलाफ़ जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं

खैर आप को संविधान से क्या लेना देना ?

आप तो यह सब मानते ही नहीं

संविधान तो यह भी कहता है कि भारत का हर नागरिक बराबर होगा

इसका मतलब है कि टाटा और बस्तर का किसान बराबर है

और टाटा के लिए बस्तर के किसान की ज़मीन नहीं छीनी जा सकती

लेकिन आप संविधान को कहाँ मानते हैं ?

वैसे जब सरकार नक्सलवादियों की हत्या करती हैं तो आप कहते हैं कि

इन्हें इसलिए मार गया है क्योंकि यह संविधान को नहीं मानते

हम आपसे पूछते हैं कि क्या आप और आपकी सरकार संविधान को मानते हैं

नहीं आप संविधान को बिलकुल भी नहीं मानते

अगर संविधान सच में लागू हो जाय तो कोई भी इंसान सेठ नहीं बन सकता

आइये अब आपको बताते हैं टाटा सेठ के कारनामें

बस्तर में लोहंडीगुडा नामके गाँव में टाटा सेठ को एक लोहे का कारखाना लगाना है

किसान उस ज़मीन पर पीढ़ियों से खेती करते हैं

आदिवासियों नें अपनी ज़मीन छीनने का विरोध किया

कानून कहता है कि किसानों की ज़मीन लेने से पहले सरकार जन सुनवाई करेगी

जन सुनवाई गाँव में ही होनी चाहिये

लेकिन लोहंडीगुडा में टाटा का कारखाना लगाने के लिए जन सुनवाई गाँव से

चालीस किलोमीटर दूर कलेक्टर आफिस में रखी गयी

गाँव वाले जन सुनवाई में ना आ सकें इसके लिए गाँव को चारों तरफ से पुलिस नें घेर कर रखा

बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की नें अपने घर के बाहर खड़ी पुलिस का विरोध किया

तो सुरक्षा बलों के जवानों नें उस लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया

सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया नें इस घटना के खिलाफ़ राष्ट्रीय महिला आयोग को शिकायत भेजी

लेकिन महिला आयोग नें कोई कार्यवाही नहीं करी

अभी हाल में ही गाँव वालों नें फिर से अपनी ज़मीनें छीनने के विरोध में एक सभा करी

इस सभा में आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजाम को बुलाया गया

पुलिस नें घबरा कर बदमाशी करी

पुलिस नें एक गाँव में जाकर आदिवासियों को धमकाया और उन्हें ज़बरदस्ती लेकर आए

इन गाँव वालों के हाथों में तख्तियां पकड़ा दी गयीं जिन पर लिखा गया था कि मनीष कुंजाम वापिस जाओ

नक्सलवादी मुर्दाबाद

यानी जो टाटा का विरोध करेगा वह नक्सलवादी है

यानी जो किसानों की ज़मीनें बचाने की कोशिश करेगा

वह भी नक्सलवादी है

यानी जो संविधान का साथ देगा वह नक्सलवादी है

जो टाटा के लिए संविधान तोड़ेगा वह देशभक्त है

पत्रकारों नें इन विरोध करने वाले लोगों से पूछ कि आप यहाँ क्यों आये हैं ?

तो उन्होंने कहा कि हमें साहब लेकर आये हैं

लेकर आने वाले साहब , यानी थानेदार साहब भी भीड़ में सादी वर्दी में छिपे हुए थे

क्या बुरे दिन आ गए हैं कि थानेदार टाटा की नौकरी कर रहा है

और तनख्वाह जनता के टैक्स से ले रहा है

यह वही थानेदार है जिसने सोनी सोरी के मुंह पर तेज़ाब फिंकवाया है

इसी थानेदार के मारडूम थाने में पुलिस वालों नें

सोनी के मुंह पर तेज़ाब फेंकने की योजना बनाई थी

अब आपको कुछ समझ में आ रहा है

कि यह सब खेल कितना गन्दा और हिंसक है

यह नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर सरकार असल में क्या गंदे खेल खेल रही है ?

आपको समझ में आया कि टाटा अम्बानी अदाणी जिंदल बनने के लिए

कितनी हत्याएं कितने बलात्कार और कितना भ्रष्टाचार करना पड़ता है

क्या आप अब भी अपने बच्चों को अमीर बनने के लिए प्रेरित करेंगे ?

Himanshu Kumar's photo.

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